Case-presentation: 'व्याधिसंकर'- रक्तमाधुर्य में 'फलत्रिकादि क्वाथ और 'रसोन-हरीतकी' का आयुर्वेदीय सैद्धान्तिक चिकित्सा प्रयोग by Vaidyaraja Subhash Sharma
'व्याधिसंकर'- रक्तमाधुर्य में 'फलत्रिकादि क्वाथ और 'रसोन-हरीतकी' का आयुर्वेदीय सैद्धान्तिक चिकित्सा प्रयोग by Vaidya raja Subhash Sharma
[7/12, 12:11 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*परम आदरणीय गुरूश्रेष्ठ प्रो. बनवारी लाल गौड़ सर की एषणा व्याख्या के सूत्रों पर आधारित व्याधि संकर को हमने आधुनिक उदाहरणों के साथ case में प्रस्तुत किया है।*
Case presentation-
व्याधि संकर- रक्त में माधुर्य भाव (blood sugar), cholesterol, TGL और LDL पर फलत्रिकादि क्वाथ और रसोन-हरीतकी का आयुर्वेदीय सैद्धान्तिक चिकित्सा प्रयोग*
Vaidyaraja Subhash Sharma,
MD
(kaya-chikitsa, jamnagar - 1985)
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*अनेक अनुक्त व्याधियां प्रतिदिन रोगी ले कर आते हैं और एक नहीं अपितु अनेक व्याधियों के समूह के साथ।किसे प्रधान मानें और चिकित्सा आरंभ कहां से करें, रोग का मूल कहां हैं जिसे समझ कर चिकित्सा आरंभ करें ?*
*रोगी male/46 yrs/business*
*लक्षण - पिछले 3-4 माह से सब कुछ सेवन करते हुये भी दौर्बल्य, तालु शोष, मुख माधुर्य, रात्रि में मूत्र प्रवृत्ति 3-4 बार, ह्रदय प्रदेश गुरूता, स्नान करते, भोजन के बाद, सीढ़ियां चड़ते किंचित श्वास कृच्छता, calf pain, जानु संधि शूल।*
*हेतु- शारीरिक निष्क्रियता, प्रोसेस्ड भोजन का अत्यधिक सेवन, तनाव और नींद की कमी।*
*स्वास्थ्य के नाम पर IBS चिकित्सा और विभिन्न टॉनिक्स के अतिरिक्त रोगी ने किसी भी प्रकार की कोई औषध अभी तक नही सेवन की थी और lab में जा कर स्वयं ही investigations भी करा लिये थे।*
*कुल चिकित्सा अवधि एक माह तक रही...*
8-6-2025.....................3-7-2025
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BSF - 284-------------------178
cholesterol -227--------151
TGL - 288-------------------173
LDL - 153-------------------112
[7/12, 12:12 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*किंचित मेदस्वी स्वरूप और शनैः शनैः विभिन्न लक्षणों की संख्या में वृद्धि प्रथम दृष्टि में ही व्याधि संकर की स्थिति स्पष्ट करती है।*
[7/12, 12:12 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*चरक संहिता चक्रपाणी टीका में इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है,
'कश्चिद्धि रोगो रोगस्य हेतुर्भूत्वा प्रशाम्यति'*
*'न प्रशाम्यति चाप्यन्यो हेत्व१र्थं कुरुतेऽपि च ॥
च नि 8/21*
*'एवं कृच्छ्रतमा नॄणां दृश्यन्ते व्याधिसंकराः प्रयोगापरिशुद्धत्वात्तथा चान्योन्यसम्भवात्'
च नि 8/22*
*आचार्य चक्रपाणि टीका,
'व्याधिसंकराः व्याधिमेलकाःकुतः पुनरेवं भवतीत्याह- प्रयोगेत्यादि प्रयोगापरिशुद्धत्वं यथा- आमातीसारे स्तम्भनं कृतं दोषं संस्तभ्य शूलानाहाध्मानादि जनयति हेत्वन्तरमाह- अन्योन्यसम्भवादिति;परस्परकारणरूपत्वादित्यर्थः। प्रतिश्यायो हि स्वरूपेणैव कासस्य कारणं, स च राजयक्ष्मण इत्यादि'*
*माधव निदान मधुकोष टीका-*
*'तस्यैव रोगजनकस्य व्याधेर्वैचित्र्यमाह– कश्चिदित्यादि एवमुक्तप्रकारेण व्याधिसंकरा व्याधिमेलकाः दृश्यन्ते यथा– प्रतिश्यायो न निवर्तते कासश्च जायते, अर्शो न निवर्तते जठरगुल्मौ स्यातामिति,कृच्छ्रतमत्वं चैषां, बहुविधदुःखजनकत्वात्, प्रायो विरुद्धोपक्रमाच्चेति'
मा नि मधुकोष व्याख्या 1/19-20*
*आयुर्वेद में व्याधि संकर या व्याधि सांकर्य एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्धान्त आजकल के समय में रोगों के निदान के लिये है जिसका अर्थ है दो या दो से अधिक रोगों का एक साथ रोगी में उपस्थित होना। यह स्थिति चिकित्सा को और अधिक जटिल बना देती है क्योंकि इसमें रोगों के बीच दोषों, दूष्यों और स्रोतों में समानता या संबंध हो सकता है, जिससे निदान और उपचार दोनों ही कठिनतम भी हो जाते हैं। आचार्य चक्रपाणि ने इसे "कृच्छतम" अर्थात चिकित्सा के लिए सबसे कठिन बताया है।*
*प्रो.बनवारी लाल गौड़ जी ने चरक चक्रपाणी की टीका पर अपने मत से एषणा व्याख्या में व्याधि संकर को अत्यन्त सरल प्रकार से सोदाहरण स्पष्ट किया है...*
[7/12, 12:12 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आधुनिक चिकित्सा या Allopathy में जिन रोगों को 'कोमॉर्बिडिटी' Comorbidity कहा जाता है उनमें से अनेक रोगों को आयुर्वेदीय सिद्धांतों के अनुसार 'व्याधि संकर' के अंतर्गत समझा जा सकता है। यह दर्शाता है कि कैसे एक ही व्यक्ति में कई व्याधियां एक साथ प्रकट होती हैं, एक दूसरे को प्रभावित करती हैं और चिकित्सा को जटिल बनाती हैं।*
*आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथों में व्याधि संकर का उल्लेख स्पष्ट नाम से उल्लिखित ना हो कर अलग प्रकार में मिलता है। विशेषकर उन संदर्भों में जहां रोगों की जटिलता, एक रोग से दूसरे रोग की उत्पत्ति, एक दोष से दूसरे दोष की दुष्टि, एक दूषित धातु से दूसरी धातु का दूषित होना, एक स्रोतस से दूसरे स्रोतस की दुष्टि जैसे
'स्रोतांसि स्रोतांस्येव धातवश्च धातूनेव प्रदूष्यन्ति प्रदुष्टा:'
च वि 5/9
अर्थात दूषित स्रोतस दूसरे स्रोतस को और दूषित धातु दूसरी धातुओं को दूषित कर देती है और आगे कहा है
'तेषां सर्वेषामेव वातपित्तश्लेष्माण: प्रदुष्टा दूषयितारो भवन्ति दोषस्वभावादिति'
और इनमे भी दुष्ट वातादि अपने स्वभाव से ही दूसरों को भी दूषित करने वाले होते हैं। इसमें एक विशिष्ट बात ये है कि
'प्राणवहानां स्रोतसां ह्रदयं मूलं महास्रोतश्च ...'
च वि 5/7
इसे और स्पष्टता से देखें
'रसवहानां स्रोतसां ह्रदयं मूलं दश च धमन्य:'
च वि 5/8
यहां ह्रदय को प्राण वह और रस वाही दोनो स्रोतस का मूल बताया गया है अत: उपरोक्त सिद्धान्त जो हम ले कर चले हैं कि प्राण वह स्रोतस की दुष्टि में रस वाही स्रोतस के लक्षण भी संभव है क्योंकि मूल दूषित होगा तो वह अपने निज स्रोतस सहित समीपस्थ स्रोतस, दोष समीप के दोष, धातु, उपधातु और मल सभी को प्रभावित करेगा।*
*इन सब को अपने शास्त्र ज्ञान, अनुभव और बुद्धि बल से जाना जा सकता है, साथ ही अनुचित चिकित्सा के परिणामों की चर्चा की गई है। हालांकि, 'व्याधि संकर' शब्द का प्रयोग हमेशा सीधे तौर पर नहीं होता, बल्कि इसके समकक्ष अवधारणाओं जैसे 'उपद्रव', 'दोष-दूष्य समुच्चय', या 'अनुबंध' के रूप में भी इसे समझाया गया है क्योंकि प्राचीन आयुर्वेदीय आर्ष ग्रन्थों का ज्ञान सूत्र रूप में लिखित है और इन्हे मूल ग्रन्थ पढ़कर ही जाना जा सकता है ना कि आजकल की translated भाषा में।*
*आयुर्वेद के सिद्धांत हमें यह समझने में सहायता करते हैं कि कैसे दोषों, दूष्यों और स्रोतों में होने वाले सूक्ष्म और तात्कालिक परिवर्तन भी एक साथ कई रोगों को जन्म दे सकते हैं या उन्हें बढ़ा सकते हैं जिससे उपचार के लिए एक समग्र और व्यक्तिगत दृष्टिकोण अर्थात
'योगमासां तु यो विद्यातदेश -कालोपपादितम्, पुरूषं पुरूषं वीक्ष्य स ज्ञेयो भिषगुत्तम:'
च सू 1/124 की आवश्यकता होती है।*
*व्याधि संकर के मुख्य रूप से दो कारण हो सकते हैं पर विस्तार में जाये तो जीवन शैली और कालानुरूप अब अनेक प्रकार मिलते हैं...*
*प्रयोग-अपरिशुद्धत्व -
चिकित्सा का ही अशुद्ध होना, जब किसी एक रोग का उपचार ठीक से नहीं किया जाता या सम्यक् प्रयोग नहायीं किया जाता तो यह दोषों को और बढ़ा देता है, जिससे एक नया रोग उत्पन्न हो जाता है या मौजूदा रोग जटिल हो जाता है।*
*अन्योन्यसंभवात् -
कभी-कभी एक रोग अपनी प्रकृति या समान कारणों जैसे निदान, दोष, अधिष्ठान के कारण दूसरे रोग को जन्म देता है। यहां रोग एक दूसरे के परस्परोत्पादक हो जाते हैं।*
*व्याधि संकर का निदान-चिकित्सा में महत्व -*
*व्याधि संकर की अवधारणा आयुर्वेद में निदान और चिकित्सा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जैसे....*
*जटिल निदान -
जब कई रोग एक साथ होते हैं तो उनके लक्षणों को अलग-अलग पहचानना और मुख्य रोग व उसके उपद्रवों में भेद करना चुनौतीपूर्ण समस्या हो जाती है।*
*समुचित चिकित्सा -
व्याधि संकर को समझने से चिकित्सक को सभी संबंधित दोषों, दूष्यों और स्रोतों को ध्यान में रखते हुए एक समग्र और पुरूषं पुरूषं वीक्ष्य अनुसार व्यक्तिगत उपचार योजना बनाने में सहायता मिलती है। यदि एक रोग को ठीक करने के प्रयास में दूसरे रोग को अनदेखा कर दिया जाए या उसे बढ़ा दिया जाए तो स्थिति और कठिन हो सकती है।*
*रोग की गहनता का आकलन -
व्याधि संकर अक्सर यह दर्शाता है कि रोग शरीर में गहरा बैठ गया है और उसकी मूल कई स्तरों पर फैली हुई हैं जिससे उपचार और भी कठिन हो जाता है।जिसके कारण व्याधि कृच्छ साध्य या याप्य भी बन सकती है।*
*व्याधि संकर आयुर्वेद में रोगों की मूल, सूक्ष्म और गंभीर सम्प्राप्ति को समझने का एक महत्वपूर्ण पक्ष है जो समग्र स्वास्थ्य और व्यक्तिगत चिकित्सा पर जोर देता है।*
*दोष, दूष्य, स्रोतस और विभिन्न रोगों के उदाहरणों सहित व्याधि संकर की व्याख्या -*
*प्रतिश्याय अर्थात जुकाम से कास खाँसी का उत्पन्न होना...*
*दोष - इस स्थिति में मुख्य रूप से वात और कफ दोष सम्मिलित होते हैं।*
*दूष्य - रस धातु (श्लेष्मा या कफ के रूप में और रक्त धातु जब संक्रमण बढ़ता है प्रभावित हो जाते हैं।*
*स्रोतस- मुख्य रूप से प्राणवह स्रोतस श्वसन प्रणाली और रसवाह स्रोतस जो पोषण और तरल पदार्थों का वहन करता है प्रभावित होते हैं।*
*रोग - आरंभ में प्रतिश्याय होता है जिसमें नाक बहना, छींकें आना जैसे लक्षण होते हैं। यदि इसकी ठीक से चिकित्सा न किया जाए या यह बिगड़ जाए तो यही दोष (वात और कफ) और दूष्य (रस) श्वसन प्रणाली में और गहराई तक फैलकर कास को जन्म दे सकते हैं। यहाँ प्रतिश्याय एक प्राथमिक रोग है जो कास को उत्पन्न कर रहा है।*
*नवज्वर में वमन कर्म से हृदयरोग-*
*दोष - कफ (और कभी-कभी पित्त) प्रधान होता है।*
*दूष्य - रस धातु (आमाशय में जमा आम) और बाद में रक्त धातु (जब हृदय प्रभावित होता है)।*
*स्रोतस - अन्नवह स्रोतस (पाचन तंत्र) और बाद में प्राणवह या रक्तवह स्रोतस (हृदय से संबंधित)।*
*रोग - नवज्वर में यदि दोष (कफ) पूरी तरह से परिपक्व या उत्क्लिष्ट न हुए हों और उन्हें निकालने के लिए अनावश्यक वमन कर्म करवाया जाए तो यह दोष शरीर में विमार्गगमन कर हृदयरोग जैसे हृदय में अवरोध या श्वास-संबंधी समस्या उत्पन्न कर सकते है। यहाँ नवज्वर की अनुचित एवं अव्यवहारिक चिकित्सा ने हृदयरोग को जन्म दिया।*
*अम्लपित्त से त्वचा विकार या रक्तपित्त-*
*दोष - मुख्य रूप से पित्त दोष।*
*दूष्य - रक्त धातु और रस धातु।*
*स्रोतस - अन्नवह स्रोतस, रक्तवह स्रोतस और स्वेदवह स्रोतस (त्वचा)*
*रोग - अम्लपित्त में पित्त की अत्यधिक वृद्धि होती है। यदि इसकी दीर्घकाल तक चिकित्सा न किया जाए तो यह पित्त दूषित होकर रक्त धातु को प्रभावित कर सकता है। जिससे विभिन्न त्वचा विकार (जैसे urticaria, एक्जिमा) या रक्तपित्त (शरीर से रक्तस्राव, जैसे नाक से खून आना) जैसे रोग उत्पन्न हो सकते हैं। यहाँ अम्लपित्त एक प्राथमिक रोग है जो समान पित्त दोष की विकृति के कारण अन्य रोगों को जन्म दे रहा है।*
*प्रमेह (आधुनिक मधुमेह अगर इसमें ग्रहण करें) से उपद्रव के रूप में वृक्क विकार -*
*दोष - कफ और वात (पित्त का अनुबंध भी)।*
*दूष्य - मेद धातु, रस धातु, मूत्र और ओज*
*स्रोतस - मूत्रवह स्रोतस, मेदवह स्रोतस और रसवह स्रोतस*
*रोग - प्रमेह (मधुमेह) एक कफ प्रधान व्याधि है जो बाद में वात की वृद्धि भी कर देती है। यदि इसकी समुचित चिकित्सा ना की जाए तो यह शरीर के विभिन्न दूष्यों और स्रोतों को प्रभावित करते हुए वृक्क विकार (renal disease), न्यूरोपैथी या नेत्रों की समस्याओं जैसे उपद्रवों को जन्म दे सकता है। यह एक गंभीर व्याधि संकर का उदाहरण है जहां एक दीर्घकालिक रोग अन्य गंभीर रोगों को उत्पन्न करता है।*
*मधुमेह (Diabetes Mellitus) और उच्च रक्तचाप (Hypertension)-*
*आधुनिक दृष्टिकोण - प्रायः यह दोनों अवस्थायें एक साथ भी पाए जाते हैं। मधुमेह (विशेष रूप से टाइप 2) इंसुलिन प्रतिरोध से जुड़ा है जो blood vessels को हानि पहुंचा सकता है और उच्च रक्तचाप का कारण बन सकता है। उच्च रक्तचाप भी मधुमेह की जटिलताओं को बढ़ा सकता है।*
*आयुर्वेदीय व्याख्या (व्याधि संकर)-*
*मधुमेह (प्रमेह)- मुख्य रूप से कफ और मेद धातु की विकृति से उत्पन्न होता है। इसमें आमदोष/ आमविष और दोष (कफ) मेद और अन्य धातुओं को दूषित करते हैं, जिससे स्रोतस अवरुद्ध होते हैं और मूत्र के माध्यम से अत्यधिक शर्करा का निष्कासन होता है।*
*उच्च रक्तचाप (रक्तगत वात / रक्त दुष्टि) - यह प्रायः वात और पित्त की विकृति से जुड़ा होता है जो रक्त धातु और रक्तवह स्रोतस को प्रभावित करता है।*
*व्याधि संकर - प्रमेह में जब कफ और मेद बढ़ जाते हैं तो वे रक्तवाहिनियों में संग दुष्टि या अवरोध उत्पन्न करते हैं, जिससे रक्त परिसंचरण में बाधा आती है। यह अवरोध वात को प्रकुपित करता है जिससे रक्त वाहिकाओं पर दबाव बढ़ जाता है और उच्च रक्तचाप उत्पन्न होता है। इसके अलावा, प्रमेह में धातुओं का क्षय (विशिष्ट रूप से ओज क्षय) और वात की वृद्धि रक्त वहन करने वाले स्रोतों की कार्यक्षमता को प्रभावित कर देती है। यहाँ प्रमेह (मेद और कफ की अधिकता से) उच्च रक्तचाप (वात और पित्त की रक्त दुष्टि से) को जन्म दे रहा है।*
*दोष - कफ, वात, पित्त।*
*दूष्य - मेद, रक्त, रस।*
*स्रोतस - मेदवह, मूत्रवह, रक्तवह स्रोतस*
*मेदोरोग और संधिवात -*
*आधुनिक दृष्टिकोण - स्थौल्य अस्थि-सन्धियों पर अतिरिक्त दबाव डालता है, जिससे कार्टिलेज का क्षय होता है और ऑस्टियोआर्थराइटिस का जोखिम बढ़ जाता है। दोनों में सिस्टेमिक इन्फ्लेमेशन भी एक साझा कारक हो जाता है।*
*आयुर्वेदीय व्याख्या (व्याधि संकर)-*
*स्थौल्य - यह मुख्य रूप से कफ और मेद धातु की अत्यधिक वृद्धि से होता है, जिसमें अग्निमांद्य और स्रोतस में अवरोध प्रमुख होता है।*
*संधिवात (संधिगत वात) - यह मुख्य रूप से वात दोष की विकृति से होता है जो संधियों में आश्रय लेकर संधियों में शूल, स्तब्धता और शोथ उत्पन्न करता है। इसमें कालांतर में अस्थि और मज्जा धातु का क्षय भी शामिल हो जाता है।*
*व्याधि संकर - स्थौल्य में वृद्ध मेद और कफ रसवह और मेदोवाही स्रोतस में अवरोध पैदा करते हैं। यह अवरोध वात के सामान्य मार्ग को बाधित करता है। जब वात अवरुद्ध होता है तो वह अपने स्वाभाविक स्थान से विचलित होकर संधियों में आश्रय लेता है और संधिगत वात उत्पन्न करता है। मेद की अधिकता से संधियों पर भार बढ़ता है, और अग्निमांद्य के कारण आम का संचय होता है, जो सन्धियों में एकत्र होकर वात को और प्रकुपित करता है।*
*दोष - कफ, वात*
*दूष्य - मेद, अस्थि, मज्जा*
*स्रोतस - मेदवह, अस्थिवह और संधियां*
*गैस्ट्रोएसोफेगल रिफ्लक्स डिजीज (GERD) और क्रोनिक ब्रोंकाइटिस/अस्थमा (Chronic Bronchitis/ Asthma)-*
*आधुनिक दृष्टिकोण - GERD (अम्लपित्त) में पेट का अम्ल अन्नप्रणाली में वापस आता है। कुछ मामलों में यह अम्ल श्वसन पथ में प्रवेश कर सकता है या vagus nerve को उत्तेजित कर सकता है जिससे क्रोनिक खांसी, अस्थमा या ब्रोंकाइटिस जैसे श्वसन संबंधी लक्षण बढ़ जाते हैं।*
*आयुर्वेदीय व्याख्या (व्याधि संकर) -*
*GERD (अम्लपित्त) - यह मुख्य रूप से पित्त की वृद्धि (अम्ल गुण की अधिकता) और कफ के संचय (श्लेष्मा) से होता है जो अन्नवह स्रोतस को प्रभावित करता है। पित्त का ऊर्ध्वगमन इसके प्रमुख लक्षणों में से एक है।*
*क्रोनिक ब्रोंकाइटिस/अस्थमा (कास/श्वास) - ये मुख्य रूप से वात और कफ दोष की विकृति से होते हैं, जो प्राणवह स्रोतस में अवरोध पैदा करते हैं।*
*व्याधि संकर - जब अम्लपित्त में पित्त का ऊर्ध्वगमन होता है तो यह कण्ठ और फुफ्फुसों के मार्ग में जाकर प्राणवह स्रोतस को प्रभावित करता है। बढ़ा हुआ पित्त (जो उष्ण और तीक्ष्ण होता है) और कफ (जो श्लेष्मा बनाता है) श्वसन मार्गों में संचय और उत्तेजना पैदा कर देता हैं, जिससे कास और श्वास के लक्षण उत्पन्न होते हैं। पित्त की तीक्ष्णता श्लेष्मा झिल्ली को क्षति पहुंचाती है, जबकि कफ अवरोध पैदा करता है, और वात श्वास लेने में कठिनाई को बढ़ाता है।*
*दोष-पित्त, कफ, वात*
*दूष्य -रस, रक्त*
*स्रोतस - अन्नवह, प्राणवह स्रोतस*
*अवसाद (Depression) और क्रोनिक पेन सिंड्रोम (Chronic Pain Syndrome)-*
*आधुनिक दृष्टिकोण -डिप्रेशन और जीर्ण शूल प्रायः एक दूसरे के साथ उपस्थित होते हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। शूल से डिप्रेशन हो सकता है और डिप्रेशन pain की धारणा को बढ़ा सकता है। न्यूरोकेमिकल मार्ग भी साझा या partner हो सकते हैं।*
*आयुर्वेदीय व्याख्या (व्याधि संकर)-*
*डिप्रेशन (मनोविकार/अवसाद) - यह मुख्य रूप से तम (मानसिक दोष) की वृद्धि और वात व कफ दोष के असंतुलन से होता है जो मनोवह स्रोतस और मस्तिष्कीय क्रियाओं को प्रभावित करता है।*
*क्रोनिक पेन (दीर्घकालिक शूल) - यह मुख्य रूप से वात दोष की विकृति से होता है, जो शरीर के किसी भी भाग में शूल उत्पन्न कर सकता है। विशेष रूप से अस्थि, मज्जा, मांस या स्नायु (नर्वस सिस्टम) में।*
*व्याधि संकर - जब शरीर में वात की वृद्धि होती है (जो प्रायः मानसिक तनाव, चिंता, या अनुचित आहार-विहार से होती है) तो यह न केवल शारीरिक अंगों में दीर्घकालिक शूल पैदा करता है अपितु मनोवाही स्रोतस को भी प्रभावित करता है, जिससे चित्त में अशांति, उदासी और अवसाद उत्पन्न होता है। इसके विपरीत मानसिक तनाव और अवसाद भी वात को प्रकुपित कर सकते हैं, जिससे शूल की अनुभूति और बढ़ जाती है। यह एक द्विदिशात्मक संबंध है जहाँ दोनों स्थितियाँ एक दूसरे को पोषित करती हैं।*
*दोष - वात, तम*
*दूष्य - मज्जा, मांस, अस्थि (शूल के स्थान पर) और ओज (मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित)*
*स्रोतस - मनोवह और वातवह स्रोतस*
*क्रोनिक किडनी डिजीज (CKD) और एनीमिया (Anemia)-*
*आधुनिक दृष्टिकोण - क्रोनिक किडनी रोग में वृक्क रक्त बनाने वाले हार्मोन (एरिथ्रोपोइटिन) का पर्याप्त उत्पादन नहीं कर पाते हैं, जिससे एनीमिया हो जाता है। किडनी की समस्या से पोषक तत्वों का अवशोषण भी प्रभावित हो जाता है, जिससे एनीमिया बढ़ सकता है।*
*आयुर्वेदीय व्याख्या (व्याधि संकर)-*
*क्रोनिक किडनी डिजीज (वृक्कौ रोग/मेदोवाही-मूत्रवाही = मूत्रवहानां स्रोतसां बस्तिर्मूलं वंक्षणौ च ।
च वि 5,
मूत्रवाही धमनी द्वय, गवीनी द्वय, मूत्र प्रसेकस्रोतो दुष्टि)- यह मुख्य रूप से वात, कफ और पित्त के असंतुलन से होता है, जो मूत्रवह स्रोतस (किडनी और मूत्र मार्ग) और मेद व रक्त धातु को प्रभावित करता है। इसमें मूत्र निर्माण और निष्कासन की प्रक्रिया बाधित होती है।*
*एनीमिया (पांडु)- यह मुख्य रूप से पित्त और रक्त धातु की विकृति से होता है जिसमें रक्त की गुणवत्ता और मात्रा कम हो जाती है। जिससे शरीर में ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता प्रभावित होती है।*
*व्याधि संकर- वृक्कौ रोग में जब दोष और दूष्य (विशेषकर मेद और कफ) मूत्रवह स्रोतस में संग या अवरोध पैदा करते हैं तो यह शरीर में विषैले पदार्थों के संचय का कारण बनता है। यह संचय रक्त धातु की गुणवत्ता (रंजकता) को प्रभावित करता है और रक्तपित्त या पांडु (एनीमिया) को जन्म देता है। किडनी की कार्यक्षमता में कमी से शरीर में आवश्यक पोषक तत्वों (जैसे लौह तत्व) का अवशोषण और रक्त निर्माण प्रक्रिया बाधित होती है जिससे पांडु की स्थिति उत्पन्न होती है। वात की वृद्धि से धातुओं का क्षय भी हो जाता है, जो पांडुत्व की वृद्धि करता है।*
*दोष - वात, पित्त और कफ*
*दूष्य -रक्त, मेद और रस*
*स्रोतस- मूत्रवह और रक्तवह स्रोतस*
*काल का अतियोग, अयोग या मिथ्यायोग-*
*ऋतु के अनुसार शरीर में होने वाले परिवर्तनों को ठीक से न समझ पाना और उसके अनुरूप आहार-विहार का पालन न करना।*
*जैसे वर्षा ऋतु में मंद अग्नि और वात-पित्त-कफ के प्रकोप के कारण कई रोग उत्पन्न हो सकते हैं।*
*मानसिक कारण - मन के विकृत होने या मानसिक इच्छाओं की पूर्ति न होने से भी व्याधियाँ उत्पन्न हो सकती हैं जो आगे चलकर शारीरिक रोगों को जन्म दे सकती हैं।*
*आनुवंशिक या कुलज रोग - माता-पिता से दूषित शुक्र या आर्तव (स्त्री बीज) के कारण संतान में पूर्व-उपस्थित रोगों का पाया जाना।*
*ओज क्षय (रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी) - शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता (ओज) में कमी आने से व्यक्ति विभिन्न रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है जिससे कई व्याधियां एक साथ हो सकती हैं।*
[7/12, 12:12 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में 'कॉमोर्बिडिटी' (सह-रुग्णता) शब्द का उपयोग किया जाता है जो व्याधि संकर अवस्था के समान है। यह तब होता है जब एक व्यक्ति को एक ही समय में दो या दो से अधिक चिकित्सा स्थितियाँ होती हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं -*
* Shared Risk Factors -
*कई व्याधियां समान risk factors को share करती हैं जिससे उनके एक साथ होने की संभावना बढ़ जाती है।*
*उदाहरण- उच्च रक्तचाप, मधुमेह, मेदोरोग, उच्च कोलेस्ट्रॉल, धूम्रपान, अस्वास्थ्यकर आहार, शारीरिक निष्क्रियता। ये सभी हृदय रोग, गुर्दे की बीमारी और अन्य चयापचय विकारों के जोखिम को बढ़ाते हैं।*
*प्रायः जीवनशैली से संबंधित कारक कई पुराने रोगों को जन्म देते हैं।*
*जीर्ण शोथ या हार्मोनल असंतुलन भी कई बीमारियों को एक साथ उत्पन्न कर सकता है।*
*आनुवंशिक प्रवृति या Genetic Predisposition -*
*कुछ व्यक्तियों में आनुवंशिक रूप से कुछ बीमारियों के प्रति संवेदनशीलता होती है, जिससे उन्हें एक से अधिक संबंधित स्थितियाँ होने की संभावना बढ़ जाती है।*
*जरावस्था Aging का आना -*
*उम्र बढ़ने के साथ शरीर अधिक दुर्बल हो जाता है और एक साथ कई स्वास्थ्य समस्याओं के विकसित होने की संभावना बढ़ जाती है।*
*विभिन्न औषध के दुष्प्रभाव-*
*कभी-कभी एक व्याधि की चिकित्सा के लिए ली गई दवाएँ दूसरी स्थिति को जन्म दे सकती हैं या वर्तमान स्थिति को खराब कर सकती हैं।*
*जैसे कुछ अवसादरोधी दवाएं या कीमोथेरेपी अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकती हैं।*
*मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का परस्पर संबंध जिसे मनोदैहिक कहते हैं -*
*मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति जैसे अवसाद और चिंता प्रायः पुरानी शारीरिक व्याधियों के साथ उपस्थित होती हैं। वे एक दूसरे को प्रभावित कर सकते हैं जिससे स्थिति और जटिल हो जाती है।*
*इसका एक उदाहरण अवसाद से ग्रस्त व्यक्ति शराब या ड्रग्स का दुरुपयोग कर सकते हैं जिससे व्यसन (पदार्थ उपयोग विकार) हो सकता है।*
*पर्यावरणीय कारक-*
*प्रदूषण, दूषित वायु, धूल, धुआँ आदि भी श्वसन संबंधी बीमारियों और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म दे सकते हैं, जिससे कॉम्बोर्बिडिटी की संभावना बढ़ जाती है।*
*वर्तमान रोगी को व्याधि संकर ग्रहण कर आयुर्वेदीय सिद्धान्तों के अनुसार जानकर इस प्रकार सम्प्राप्ति विघटन किया गया।*
*पंचभौतिकता-*
*शरीर मे माधुर्य भाव अधिकता या उच्च रक्त शर्करा, कोलेस्ट्रॉल, TGL, LDL, ये सभी शरीर में पृथ्वी और जल महाभूत की वृद्धि तथा अग्नि और वायु महाभूत का क्षय दर्शाते हैं।*
*पृथ्वी-शरीर में गुरूता और स्थिरता (मेद की अधिकता)*
*जल - स्निग्धता और कफ की वृद्धि (रक्त में शर्करा, वसा का बढ़ना)*
*अग्नि- अग्नि की मंदता*
*वायु - गति और रूक्षता की अल्पता*
[7/12, 12:12 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*औषध -*
*1- फलत्रिकादि क्वाथ(चक्रदत्त योग और स्वः निर्मित) - सूक्ष्म चूर्ण फांट विधि से 5-5 ग्राम प्रातः सांय 200 ml जल में खाली पेट।*
*2- रसोन हरीतकी वटी (प्रो.अरूण राठी द्वारा निर्मित) - 2-2 गोली दिन मे तीन बार।*
*3- आमलकी +यष्टिमधु चूर्ण (PAB pharma) 2 -3 ग्राम बीच बीच में जब रोगी को अम्लपित्त के लक्षण मिले।*
*फलत्रिकादि क्वाथ के घटक और उनकी पंचभौतिकता -*
*त्रिफला (हरीतकी, विभीतक, आमलकी)-मुख्य रूप से पृथ्वी, जल, अग्नि का संतुलन करते हैं। हरीतकी वायु और कफ शामक, विभीतक कफ शामक, आमलकी पित्त शामक है।*
*गुडूची -अग्नि और वायु की वृद्धि करती है, पृथ्वी और जल को कम करती है (अग्निदीपन, आमपाचन)*
*निम्ब -वायु और आकाश को बढ़ाती है, जल और पृथ्वी को कम करती है (कटु, तिक्त रस प्रधान)*
*कुटकी -वायु और आकाश की वर्धक है (तिक्त रस, भेदन)*
*वासा - वायु और आकाश की वर्धक है (कफघ्न)*
*किरातिक्त - वायु और आकाश को बढ़ाती है (तिक्त रस)*
*रसोन -पृथ्वी और जल को कम करती है, अग्नि और वायु को बढ़ाती है (कटु रस, उष्ण वीर्य)*
*अग्नि -*
*इन रोगों में जठराग्नि और धात्वाग्नि दोनों ही मंद होती हैं।*
*जठराग्नि मंदता - आहार का ठीक से पाचन न होना, जिससे आम दोष और आम विष का निर्माण होता है।*
*धात्वाग्नि मंदता (विशेषकर मेदोधात्वाग्नि) - मेद धातु का उचित पाचन और चयापचय न होना जिससे साम मेद शरीर में जमा होता है।*
*आम -*
*अग्निमांद्य के कारण आम का निर्माण होता है, जो स्रोतों में अवरोध उत्पन्न करता है और पोषक तत्वों के अवशोषण तथा चयापचय को बाधित करता है। यह आम ही रक्त शर्करा, कोलेस्ट्रॉल, TGL और LDL के बढ़ने का एक प्रमुख कारण है।*
*दोष -*
*इन रोगों में मुख्य रूप से कफ दोष की वृद्धि होती है जो पृथ्वी और आप महाभूत से संबंधित है।*
*पित्त दोष की विकृति भी हो जाती है विशेषकर यदि यकृत (liver) की कार्यक्षमता प्रभावित हो।*
*वात दोष की दुष्टि भी पाई जाती है, जिससे स्रोतों में गतिरोध उत्पन्न होता है।*
*दूष्य -*
*रस धातु -आम के कारण रस धातु में विकृति।*
*मेद धातु - मेद धातु की अत्यधिक वृद्धि और असामान्य एकत्र होना*
*रक्त धातु -रक्त में शर्करा और वसा का बढ़ना*
*ओज - दूषित धातुएं ओज को भी क्षीण कर देती हैं।*
*स्रोतस एवं स्रोतोदुष्टि -*
*रसवाही स्रोतस - आम के कारण अवरोध, पोषक तत्वों का अवशोषण प्रभावित।*
*मेदोवाही स्रोतस - मेद धातु के निर्माण और वहन में विकृति, मेद का संचय।*
*रक्त वह स्रोतस - रक्त में दुष्टि और उच्च शर्करा/वसा का स्तर।*
*मूत्रवह स्रोतस (प्रमेह की स्थिति में) - मूत्राशय और वृक्कौ की कार्यक्षमता।*
*संप्राप्ति घटक दोषों के 15 भेदों के अनुसार -*
*यहां कफ दोष के भेदों की विशेष भूमिका होती है -*
*क्लेदक कफ - आहार का सम्यक् पाचन टच होना, आम का निर्माण।*
*अवलंबक कफ - मेद धातु को सहयोग देना, लेकिन अति वृद्धि पर संग या अवरोध।*
*श्लेषक कफ -संधियों में अत्यधिक कफ, गति में बाधा।*
*पित्त के भेद -*
*रंजक पित्त - रक्त में दुष्टि*
*भ्राजक पित्त- त्वचा के माध्यम से चयापचय पर प्रभाव।*
*वात के भेद -*
*व्यान वायु - रक्त परिभ्रमण में बाधा (स्रोतोरोध)।*
*समान वायु - पाचन पित्त को प्रभावित करना।*
*औषध द्रव्यों की कार्मुकता -*
*फलत्रिकादि क्वाथ -*
*हरीतकी - त्रिदोष शामक, विशेषकर वात और कफ शामक। दीपन, पाचन, अनुलोमन गुण से आम का पाचन कर स्रोतोरोध दूर करती है।*
*विभीतक -कफघ्न, रसायन,कटु विपाक से मेद का छेदन करता है।*
*आमलकी - त्रिदोष शामक, रसायन, शीत वीर्य होने पर भी अम्ल रस से अग्नि को सम्यक् करती है और मेद का क्षय करती है।*
*गुडूची - अग्निदीपन, आमपाचन, रसायन, त्रिदोषशामक, यह मेदधात्वाग्नि को बढ़ाकर अतिरिक्त मेद का चयापचय करती है और इंसुलिन संवेदनशीलता में सुधार कर सकती है।*
*निम्ब - तिक्त रस प्रधान, कृमिघ्न, कुष्ठघ्न, यह रक्तशोधक है और मेद तथा कफ का शमन करता है। मधुमेह में रक्त शर्करा कम करने में सहायक।*
*कुटकी - तीक्ष्ण, भेदन, विरेचन,यह मेद और कफ का छेदन भेदन कर शरीर से बाहर निकालने में मदद करती है, यकृत को उत्तेजित करती है।*
*वासा - कफघ्न, रक्तस्तंभक,यह रक्त संचार में सुधार कर सकती है और कफ जनित अवरोधों को दूर करती है।*
*किरातिक्त - अत्यंत तिक्त, ज्वरघ्न, कृमिघ्न, यह अग्निदीपन करती है और रक्तशोधक है जिससे मेद और आम का पाचन होता है।*
*रसोन (लहसुन) -*
*उष्ण वीर्य, कटु रस प्रधान।*
*दीपनीय, पाचनीय, भेदन, कफघ्न, मेदघ्न।*
*यह मेदधात्वाग्नि को तीव्र कर अतिरिक्त मेद को कम करता है। रक्त में कोलेस्ट्रॉल और ट्राइग्लिसराइड्स को कम करने में प्रभावी, रक्त परिसंचरण में सुधार कर स्रोतोरोध को दूर करता है। मधुमेह में रक्त शर्करा नियंत्रण में भी सहायक।*
*हरीतकी (अलग से प्रयोग) -*
*जैसा कि फलत्रिकादि क्वाथ में बताया गया है, हरीतकी अपने दीपन, पाचन और अनुलोमन गुणों से आम का पाचन कर, अग्नि को प्रदीप्त कर, स्रोतोरोध दूर करती है। यह त्रिदोषों को संतुलित करती है और विशेष रूप से कफ तथा वात के शमन में सहायक है, जो मेदोवृद्धि के प्रमुख कारण हैं।*
*इन औषधियों की कार्मुकता निम्न प्रकार से होती है -*
*अग्निदीपन और आमपाचन - अधिकांश घटक द्रव्य (गुडूची, हरीतकी, रसोन, किरातिक्त) अग्नि को प्रदीप्त कर आम का पाचन करते हैं, जिससे मेटाबॉलिज्म सुधरता है।*
*मेदछेदन और मेदधात्वाग्नि वर्धन - कुटकी, रसोन, त्रिफला मेद का छेदन कर,मेदधात्वाग्नि को बढ़ाकर अतिरिक्त वसा को कम करते हैं।*
*स्रोतोशोधन - आम के पाचन और मेद छेदन से स्रोतों में अवरोध दूर होता है, जिससे रक्त संचार और पोषक तत्वों का परिवहन सुधरता है।*
*कफ शमन - सभी द्रव्य कफ शमन में सहायक हैं जो इन रोगों का मुख्य दोष है।*
*रक्तशोधन - निम्ब, किरातिक्त, गुडूची रक्त को शुद्ध करते हैं, जिससे रक्त में अशुद्धियों और अतिरिक्त शर्करा/वसा को कम करने में सहायता मिलती है।*
[7/12, 12:12 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*चिकित्सा सूत्र -*
*निदान परिवर्जन,अग्निदीपन, आमपाचन, मेद का क्षय और स्रोतोशोधन है।*
*पथ्य -*
*जौ, पुराना चावल, बाजरा, रागी।*
*मूंग, मसूर, चना।*
*करेला, लौकी, तोरई, परवल, सहजन, पालक, मेथी, पत्ता गोभी, फूल गोभी, सीताफल*
*जामुन, आंवला, अमरूद, पपीता, सेब (कम मात्रा में)*
*अदरक, लहसुन, हल्दी, मेथी दाना, दालचीनी, हींग, काली मिर्च, धनिया*
*शीत ऋतु में जैतून का तेल, सरसों का तेल (सीमित मात्रा में)*
*छाछ, उष्णोदक, सैंधव*
*आहार विधि-*
*लघु एवं सुपाच्य भोजन क्षुधा लगने पर ही और दिन में 2-3 बार ही भोजन। सूर्यास्त से पहले अल्प एवं लघु रात्रि भोजन*
*अपथ्य -*
*अधिक मधुर रस -चीनी, गुड़, मिठाई, चॉकलेट, सॉफ्ट ड्रिंक्स, shakes, ice cream, कुल्फी*
*तले हुए खाद्य पदार्थ, पनीर, मक्खन, घी (अत्यधिक मात्रा में), फास्ट फूड, प्रोसेस्ड फूड।*
*आलू, अरबी, नवीन गौधूम और नवीन चावल ये कफवर्धक होते हैं।*
*दही, केला, नया अनाज, ये आमदोष कारक हो जाता हैं।*
*अति शीतल जल, ठंडे पेय पदार्थ ये अग्नि को मंद करते हैं।*
*विहार एवं जीवनशैली -*
*पथ्य विहार -*
*नियमित व्यायाम,तेज चलना, सूर्यनमस्कार, कपालभाति, भस्त्रिका, पश्चिमोत्तानासन, मंडूकासन, प्राणायाम आदि कम से कम 35-40 मिनट प्रतिदिन, अपने यहां रोगियों को meditation हम सिखा देते हैं।*
*7-8 घंटे की गहरी पर्याप्त निद्रा*
*धूप का सेवन*
*शरीर भार या वजन नियंत्रण नियमित व्यायाम और आहार से।*
*अपथ्य विहार -*
*दिन में सोना अग्नि को मंद करता है।*
*अत्यधिक बैठे रहना गतिहीन जीवनशैली।*
*अत्यधिक तनाव कफ और वात की वृद्धि करता है।*
*शराब और धूम्रपान शरीर में दूषी विष सदृश कार्य करते हैं।*
*दिनचर्या -*
*सुबह जल्दी उठना शरीर को प्रकृति के साथ लयबद्ध करता है।*
*सुबह उठकर किंचित उष्णोदक का पान*
*शौच आदि से निवृत्त होकर योग, व्यायाम ।*
* अभ्यंग हल्के हाथों से सूखी मालिश या कम तेल से।*
* स्नान गुनगुने जल से।*
*नियमित भोजन समय पर और संतुलित आहार।*
*रात्रिचर्या -*
*शीघ्र और लघु रात्रि भोजन सूर्यास्त से पहले या 7-8 बजे तक।*
*सोने से पहले मोबाइल, टीवी से दूरी और ध्यानयोग या ज्ञानवर्धक पुस्तक का पठन*
*पर्याप्त निद्रा अंधेरे और शांत वातावरण में।*
*सत्वाजय एवं मानसोपचार -*
*सकारात्मक दृष्टिकोण रोगों से लड़ने और स्वस्थ जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरणा*
*शौक और रचनात्मक गतिविधियां मन को व्यस्त और प्रसन्न रखने के लिये।*
*सामाजिक जुड़ाव, मित्रों और परिवार के साथ समय बिताना।*
*रोगी की आयुर्वेदानुसार जीवनशैली में परिवर्तन धीरे-धीरे और स्थायी रूप से करना चाहिये क्योंकि आयुर्वेद में औषध का भाग हमारे मत से लगभग 8% ही है और 92% तो आयुर्वेद प्रकृति से लयबद्ध होने का ही विशिष्ट ज्ञान है।*
[7/12, 5:16 AM] Prof B. L. Goud Sab:
धन्यवाद आशीर्वाद !
[7/12, 5:20 AM] Prof B. L. Goud Sab:
सुश्रुत संहिता की चंपिका टीका भी अब तो शीघ्र ही आने वाली है 10 महीने से प्रकाशक के पास प्रकाशनार्थ पड़ी है धीरे-धीरे प्रक्रिया में गुजर रही है अन्यथा मैंने तो सितंबर में ही संपूर्ण पांडुलिपि दे दी थी।
[7/12, 5:29 AM] Prof B. L. Goud Sab:
कायसंप्रदाय का प्रत्येक सदस्य गुरु भी है और शिष्य भी है इन सभी गुरु एवं शिष्यों को आशीर्वाद
न हि जात्या गुरुत्वमस्ति यत: स एव आत्रेय: स्वगुरुम् अपेक्ष्य शिष्य:, अग्निवेशादीन् अपेक्ष्य गुरु:।
चक्रपाणि:
[7/12, 5:38 AM] Vd. V. B. Pandey Basti (U.P.):
सादर चरणस्पर्श 🙏
[7/12, 7:26 AM] pawan madan Dr:
Pranam Guru ji
Tons of thanks!
The most important line of treatment in case of increased bsl and disturbed lipid profile is the Pathya Apathy which you have described.
A person in the early diagnosed cases (in first 1 to 2 yrs) of this Vyadhi sankar can reverse this with such diet changes as suggested by you.
And when this becomes chronic (3 to 5 yrs or more), then some aushadhis which act on Liver helps to manage as you have mentioned about Phaltrikadi kwath.
I have been using Amlycure in high doses having similar contents, which gives promising results in the investigations.
Thanks for meeting the various Vyadhi Sankara.
I want to add one more important Vyadhi sankar.
This is Chronic allergic rhinitis ▶️ Dermatitis ▶️metabolic arthritis, these three follow one another and they need Dooshivishnaashak chikitsa in main.
Thank you Guru ji🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
[7/12, 7:32 AM] Dr.Deepika:
सादर प्रणाम, अति आभार
🙏🙏
एक प्रश्न है, जब चरक सहिता से बेसिक concept किसी रोग विषयक समझ आ जाता है
तब अति आनंद आता है
जैसे कुछ दिन से ch चि 15 को पढ़ने और समजने की कोशिश चल रही है, जिसमे आयुर्वेद की सारी physiology है, परन्तु जब चिकित्सा में बताये योगो पर पहुंचते है तब कुछ समझ नहीं आता, क्युकी ऐसा कुछ उपलब्ध ही नहीं होता, इसके लिए भी कुछ मार्गदर्शन कीजिये 🙏क्या हमें चिकित्सा के लिए कोई ओर text पढ़ना चाहिए ?
[7/12, 9:47 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏 प्रणाम गुरुवर !
जहा तक पहुंच ने में समय लग जाता वहा तक आपकी इस पोस्ट ने जल्द पहुँचा दीया। आप अप्रत्यक्ष होते हुए प्रत्यक्ष है एसा लगता है।
🙏🙏
[7/12, 10:19 AM] Vd Shailendra Mehta:
गुरुदेव 🙌🙌अत्यंत सरलता से आपने ये गूढ़ विषय समझा दिया है, एक शंका का समाधान करने की कृपा करें...व्याधि संकर की तरह लक्षण संकर भी मान सकते हैं क्या🙏
[7/12, 12:21 PM] Dr Vandana Vats:
चरण वंदन गुरू वर
🙏🏻
व्याधि संकर, combination of diseases, के विषय में विस्तृत लेखन व हमारा मार्ग दर्शन करने के लिए कोटिशः नमन। आपका हर लेखन मस्तिष्क पटल पर छप जाता है🙏🏻
व्याधि संकर आजकल की जीवन शैली का ही परिणाम है और चिकित्सा शास्त्र के लिए एक चुनौती। allopathy में तो एक रोगी की चिकित्सा करते करते दूसरे रोगों को आमंत्रित किया जाता है जो कि शरीर में घर कर जाते हैं। जबकि हमारे शास्त्र तो संपूर्ण शरीर को एक ईकाई मान चिकित्सा करतें हैं।
आजकल के समय में गहन अध्ययन व विचार से हम lifestyle diseases पर कुछ ही समय मे लाभकारी चिकित्सा कर सकते हैं।
आपके आप्त वचन, शरीर को प्रकृति के अनुसार लय बद्ध करना ही चिकित्सा व स्वस्थ का प्रथम नियम है। सनातन संस्कृति
में धर्म व विज्ञान को जोड कर ही नियम बनाए गए, जो कि सर्वदा सत्य है। आजकल वर्षा में अग्नि संरक्षण हेतु एक समय भोजन का विधान स्वास्थ्य संरक्षण हेतु बताया है जो कि धर्मानुसार सावन या फिर चौमासे (४महीने), में पुण्यकारक बताया है।
*वर्षासु प्रवलो वायुः*, और अग्नि मंद होने से सात्विक आहार प्रशस्त है।
🙏🏻
[7/12, 12:28 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
Very important discussion points are emerging about Vyadhi Sankar. Vyadhi Sankar as such results from same hetus with extension of samprapti to other srotas and dushya. Practically, same line of treatment needs to be applied with focus on samprapti vigghattan.
[7/12, 3:48 PM] Vd Sarveshkumar Tiwari:
नमस्ते Sir,
व्याधि संकर पर विश्लेषण ज्ञानवर्धक है, किंतु व्याधि संकर व निदानार्थ कर रोग मे कैसे फर्क करे और इसका चिकित्सा दृष्टि से क्या महत्व् है ?
क्या प्रमेह से उत्पन्न HTN, व्याधि संकर कहलायेगा या निदानार्थकर रोग, क्युकी same निदान से अन्य व्याधि उत्पन्न होना निदानार्थ कर है, इसमे प्रमेह की चिकित्सा से HTN मे भी उपशय मिलेगा। व्याधि संकर मे दोनो व्याधियों की चिकित्सा विपरीत होने से जटिलता अधिक होती है।
कृपया मेरी उलझन सुलझाये 🙏🙏
[7/12, 3:57 PM] Vd Sarveshkumar Tiwari:
*1.निदानार्थकर-रोग (Nidānārthaka Roga):*
यह रोग मुख्य व्याधि का लक्षण या सहायक संकेत होता है।
इसका मुख्य उद्देश्य है – मूल रोग के निदान में सहायता करना।
यह स्वतंत्र रोग नहीं होता, बल्कि उस व्याधि का प्रभाव होता है।
अक्सर, मुख्य रोग की चिकित्सा से यह भी स्वतः शमन हो जाता है।
*2.व्याधि-संकर
(Vyādhi-Sankara):*
जब दो या अधिक व्याधियाँ स्वतंत्र रूप से विद्यमान हों, लेकिन परस्पर जुड़ी हों — तो वह व्याधि संकर कहलाता है।
वे एक-दूसरे को प्रभावित कर सकती हैं या उत्पन्न, किंतु दोनों की स्वतंत्र चिकित्सा आवश्यक होती है।
यहाँ चिकित्सा का मार्ग कठिन हो जाता है क्योंकि एक की चिकित्सा दूसरे के लिए विपरीत भी हो सकती है।
"प्रमेह से उत्पन्न HTN – व्याधि संकर है या निदानार्थकर ?"
1. यदि HTN केवल प्रमेह के लक्षण या परिणाम स्वरूप प्रकट हुआ है,
जैसे कि मेद और कफ की वृद्धि से स्रोतस अवरुद्ध हुआ हो और प्रमेह की सम्यक चिकित्सा से HTN भी ठीक हो जाता है, *तो यह निदानार्थकर स्वरूप है।*
HTN यहाँ स्वतंत्र रोग नहीं, बल्कि प्रमेह का एक प्रतिफल/उपद्रव है।
2. परंतु यदि HTN ने स्वयं की प्रकृति बना ली है,
यानी रक्तदोष, वातपित्त प्रकुप्ति, तनाव, वंशानुगत प्रभाव, और अब HTN को अलग चिकित्सा चाहिए (e.g. पाचन, रक्तशुद्धि, siramokshan इत्यादि)
👉 तब इसे *व्याधि संकर* कहा जाएगा।
कृपया गुरुजं मेरी समझ पर अपने अनुभव व ज्ञान से मार्ग दर्शन करे😇
[7/12, 4:09 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*प्रणाम गुरुवर*
🙏🙏🙏
[7/12, 8:07 PM] Vd.Vinod Sharma:
बहुत ही सुन्दर विश्लेषण 👌👌👌
अतिशय धन्यवाद 🙏🙏
[7/12, 8:29 PM] pawan madan Dr:
This is very important.
Here comes the role of Hetu viprit chikitsa which acts for different conditions in the same Vyadhi sankar.
[7/12, 8:49 PM] pawan madan Dr:
नमस्ते !
मुझे लगता है, निदानार्थक रोग व व्याधि संकर में थोड़ा सा ही विभेद है, या ये भी कहा सकते हैं के व्याधि संकर एक गंभीर अवस्था है एवं निदानार्थक रोग एक सामान्य लक्षण जन्य लघु व्याधि।
,,,किसी को अम्लपित्त हुआ व इसकी वजह से हिक्का हों रही हो तो ये निदानार्थक रोग कहा जाएगा, जिसमें अम्लपित्त की चिकित्सा करने से हिक्का भी ठीक हो जाएगी
,,,अन्य अवस्था जैसा के आपने कहा, प्रमेह के कारण से यदि htn हुआ है तो प्रमेह की चिकित्सा से htn भी ठीक हो सकता है, इसको आप निदानार्थक रोग भी कह सकते हैं एवं व्याधि संकर भी।
[7/12, 9:09 PM] Vd Sarveshkumar Tiwari:
निदानार्थक रोग, vyaddhi nidan me सहायता भी करता है, व्याधि संकर जिसमे व्याधि हेतु संकर, व्याधि लक्षण संकर का समावेश है, चिकित्सा दृष्टि से जटिल है |
[7/12, 9:21 PM] pawan madan Dr:
कैसे सहायता करता है
एक उदाहरण दे सकते हैं क्या ?
[7/12, 9:34 PM] Vd Sarveshkumar Tiwari:
जब किसी प्रमुख रोग का निदान कठिन होता है, तो यदि कोई विशेष लक्षण या सहवर्ती रोग साथ में पाया जाता है, तो वह रोग हमें मुख्य व्याधि की ओर संकेत करता है। कोई रोगी उदर्द लेकर आये, साथ मे प्रमेह लेकर आता है तो इन दोनो अवस्थाओ से अनुमान लगा सकते हैं की मधुमेह जनित त्वक् विकार है। तत्पश्चात BSL/HbA1c के लिए advice कर cnfrm कर सकते हैं।
[7/12, 10:21 PM] Dr. Ashwani Kumar Sood:
very nice information Vaidyarajji 👍🏽
[7/13, 12:27 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*सर्वेश जी, HTN प्रमेह से ही अगर उत्पन्न हुआ है या रोगी की दिनचर्या, आहार, विहार मानसिक भाव क्या है यह रोगी की परीक्षा से ही ज्ञात हो सकता है। क्योंकि एकदम से ही प्रमेह को HT का हेतु मान लेना भी उचित नही।*
*यह काय चिकित्सा ब्लॉग पर भी हमने विस्तार से लिखा हुआ है कि हेतु का निर्णय कोई सरल नहीं अपितु अत्यन्त विस्तृत और विशेष है क्योंकि निदान परिवर्जन ही चिकित्सा का प्रथम सूत्र है।*
*हेतु अनेक प्रकार के भेद से होते हैं...*
*निज जो दोषों को प्रकुपित सीधे ही करते है और आगंतुज जो अभिघात,
अभिशाप, अभिचार और अभिषंग से विभिन्न आगन्तुक रोगों को उत्पन्न कर देते हैं।*
*सन्निकृष्ट हेतु जैसे वय, दिन,रात और भोजन के अन्त, मध्य और आरंभ में वात पित्त और कफ का प्रकोप रहता ही है तथा विप्रकृष्ट जैसे हेमन्त में संचित कफ का वसंत में प्रकोप होगा और कफज रोग उत्पन्न करेगा।*
*व्यभिचारी हेतु - ये वो निदान है जो दुर्बल होने से पूर्ण सम्प्राप्ति बनाकर रोग उत्पन्न करने में तो असमर्थ है पर लक्षण उत्पन्न कर रोगी को विचलित कर के रखते हैं।*
*प्राधानिक हेतु - जो उग्र स्वभाव होने से तुरंत ही दोषो को प्रकुपित कर देते हैं जैसे विष, अति मादक द्रव्य आदि ।*
*उभय हेतु - ये हेतु दोष और व्याधि दोनो को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखते हैं जैसे अति उष्ण-तीक्ष्ण-अम्ल विदाही अन्न*
*विभिन्न वायरस, कृमि या जीवाणु*
*यहां व्याधि के हेतु और व्याधि संकर के हेतुओं में अगर प्रमेह ही HT का हेतु है तो यहां प्रमेह निदानार्थकर है, प्रमेह रोग स्वयं दूसरे रोग का निदान बन गया है। इसमें पहला रोग अपने आप में एक स्वतंत्र व्याधि होती है, लेकिन उसकी उपस्थिति या उसके प्रभाव के कारण दूसरा रोग उत्पन्न होता है। इसमें प्रायः यह देखा जाता है कि यदि मूल रोग की चिकित्सा कर दी जाए, तो उससे उत्पन्न होने वाले दूसरे रोग में भी लाभ मिलता है, क्योंकि उसका मूल कारण ही दूर हो गया है।*
*पर यहां दूसरा पक्ष सापेक्ष निदान के लिये भी सामने है कि भले ही प्रमेह एक प्रमुख निदानार्थकर रोग है और HT केवल प्रमेह के कारण ही नहीं होता। अन्य कारण जैसे अत्यधिक लवण का सेवन, मानसिक तनाव, व्यायाम की कमी, स्थौल्य, मद्यपान, धूम्रपान और हम पहले भी बताते आये हैं कि हमारे भारतीय भोजन में तिल, गुड़, काजू, पिस्ता, इमली, आम का अचार, कच्चा आम, गोलगप्पे का पानी, कांजी आदि भी HTN के हेतु होते हैं। यदि प्रमेह के रोगी को ये अन्य हेतु भी प्रभावित कर रहे हैं तो यह कई हेतुओं का एक साथ मिलकर एक व्याधि उत्पन्न करना जो व्याधि संकर का ही एक पक्ष है बन जायेगा।*
*व्याधि संकर में दोनों व्याधियों की चिकित्सा विपरीत होने से व्याधि सुख साध्य नहीं कृच्छ साध्य या याप्य होती है। यही तो व्याधि संकर का एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। लेकिन यह हमेशा हर परिस्थिति में लागू नहीं होता कि उनकी चिकित्सा बिल्कुल विपरीत ही हो। कई बार वे पूरक हो सकती हैं।*
*रोगी की स्थिति, संप्राप्ति जिसमें हेतु, दोष-दूष्य, स्रोतस आदि की परीक्षा कर ही निर्णय लिया जाता है कि यह निदानार्थकर है या व्याधि संकर।*
*आपको एक उदाहरण देते है जैसे मिट्टी सेवन से पांडु, यहां हेतु मृत्तिका, अब पाण्डु से कामला और यह कामला कुछ काल में ही cirrhosis of liver या यकृत कैंसर जैसी गंभीर व्याधि, blood clotting, kidney disorder, pancreatic disorders, gb calculus, neurological problems और उत्पन्न कर देगा।*
*क्या पाण्डु की चिकित्सा से लाभ मिल जायेगा ?*
[7/13, 12:27 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*Sood Sir ! आभार प्रभु ❤️🙏*
[7/13, 12:29 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*आभार विनोद भाई 🙏*
[7/13, 12:31 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*नमस्कार वंदना जी, जैसी जीवन शैली और मानसिकता समाज में व्याप्त है तो व्याधि संकर की प्रधानता ही अधिक है।*
[7/13, 12:54 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*शैलेन्द्र जी, व्याधि संकर की तरह लक्षण संकर भी होते हैं जैसे आदिबल रोगों में प्रायः देखने को मिलते है, क्रोधी पिता और माता सरल पर संतान का स्वभाव कुछ और ही मिलता है।*
*किसी व्यक्ति को प्रमेह या आधुनिक DM एक निज रोग, जिसमें दोष और धातुओं का भरपूर योगदान है और साथ ही उसे कोई बाहरी आघात लग जाए तो घाव भरने में अधिक समय लग सकता है और संक्रमण का खतरा भी बढ़ जाता है। यहां आभ्यंतर दोष विकृति और बाह्य आघात के लक्षण मिलकर एक कृच्छ साध्य भिन्न सी ही स्थिति बनाते हैं।*
*प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक निज प्रकृति जन्म से ही शरीर और मन के आधार पर होती है, जो उसके प्रधान दोष से निर्धारित होती है। जब कोई रोग होता है या इसे विकृति अथवा विकारावस्था कहें तो उसके लक्षण व्यक्ति की मूल प्रकृति के साथ मिलकर एक विशिष्ट रूप धारण करते हैं, जैसे यदि कोई पित्त प्रकृति का व्यक्ति है और उसे वात दोष का प्रकोप होता है, तो उसे वात के लक्षण संधि शूल, पित्त के स्वभाव दाह के साथ मिलकर दाह और शूल सम्मिलित अनुभव हो सकते हैं। यह भी एक प्रकार का लक्षण संकर है जहां मूल प्रकृति रोग के लक्षणों को प्रभावित करती है।*
*आयुर्वेद में लक्षण संकर का इस प्रकार के नाम से तो उल्लेख नहीं है पर लक्षण संकर को विभिन्न दोषों, धातुओं, या मल की विकृति के विकारी संघटन के रूप में देखा जाता है जो एक व्यक्ति में एक साथ कई तरह के लक्षण उत्पन्न करते हैं।*
*लक्षणों का समूह ही व्याधि है और इसी के द्वारा निर्मित सम्प्राप्ति का विघटन हम करते है जिसे चिकित्सा कहते है तथा इन सब कठिन विषयों को निरंतर शास्त्र पठन, अभ्यास, बुद्धिबल, अनुभव और चिंतन मनन से जाना जा सकता है।*
[7/13, 12:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*बढ़ा विषय और लंबा लेखन करना पड़ेगा, इसे नोट कर लिया है तथा आगे मूल भाव सहित विस्तार से स्पष्ट कर देंगे दिव्येश भाई।*
[7/13, 12:59 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*आपका स्नेह आनंदकर है मनसुख भाई ❤️*
[7/13, 12:59 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*धन्यवाद वैद्यवर पवन जी 🙏*
[7/13, 1:35 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*प्रणाम गुरुवर*
🙏🙏🙏
*हेतु, उनके प्रकार एवं वैशिष्ट्य के सुन्दर एव सरल विवेचन से हेतुओं का रोग सम्प्राप्ति मे महत्व समझ आ गया है.*
🙏🙏🙏
[7/13, 4:50 PM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat:
Right sirji
It's difficult to co relate sign and symptoms of mordern science with ayurved perspective
On other hand disease and secondary complications in mordern science
Like Dm
Dm nureophathy
Dm retinopathy
Cad
Renal failure
If blood sugar in within limits with medicine
Why secondary complications occur
So Dm related complications we can corelate with sankar laxan
On other hand
Ayurved different approach for treating is unique concept
Sirji u hv rightly mention on different assessment base on ayurved perspective
Sirji u always legend and indepth of ayurved principle
At the end
Ayurved is a complete package of analysis of man
Atma
Indriya
Body
Dosh
Mal
Upghatu pradoshaj
Prakruti
So astand hruday rightly mention
Dosh
Dushay
Kal
Vay
Prakruti
Agni
Age
Kal
Desh key factors to established line of treatment
We do right analysis
Selection of drugs
No ways to failure to treat disease
Once again thanks vd shubhash sharmaji sir of Enlightenment of ayurved wisdom🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹
[7/13, 6:38 PM] Vd Sarveshkumar Tiwari:
गुरुजी से चर्चा मे आदरणीय प्रा बनवारी लाल गौड़ sir व आदरणीय वैद्य सुभाष शर्मा sir का भी जिक्र आया, की वे आयुर्वेद मे बहुत अग्रणी कार्य कर रहे हैं। 🙏 मैंने बताया की मुझे इन दोनो गुरुवो से काय संप्रदाय Discussion के जरिये आयुर्वेद का अनुभव नियमित मिल रहा है। ये जानकर वे प्रसन्न हुए और कहा इस क्रम को जारी रखे। 😇😇
[7/13, 6:59 PM] Dr. Ashwani Kumar Sood:
You are absolutely right sign and symptoms of modern medicine cannot be co related .
But as you have said, "if blood sugar is within normal range why secondry complications occur". The reason behind it was explained in BOYD'S PATHOLOGY that we read in 1979 which says if sugar remains normal then even a diabetic will develop GLYCOGEN STORAGE in renal tubules known as KIMMELSTIEL WILSON SYNDROME and lesions are known as ARMANI ABSTEIN lesions .
Dr. Bhadresh !
[7/13, 7:13 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U.P.):
Sir 🙏As per our principal it's very simple that Samaagni Samyak Deepan Pachan Nirramavastha will keep the BMR normal whether Diabetic or Non Diabetic
🙏
[7/13, 7:30 PM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat:
Right sirji
Medical science only playing with number game only
Only base on blood value parameters
Definitely it's limition of science......
Sood Sir !
[7/14, 9:12 AM] Vd. V. B. Pandey Basti (U.P.):
🙏 हमारी समझ से धातु क्षय जनित विकारों की सर्वश्रेष्ठ या फिर एक मात्र चिकित्सा रसायन ही है वो भी रोगी को निरामावसथा में लाकर और ये केवल शास्त्रीय आयुर्वेदिक चिकित्सा से ही संभव है।
[7/14, 3:42 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*प्रिय पाण्डेय जी, इतना सरल भी नहीं समझना चाहिये, यह एकमात्र रसायन ही केवल धातु क्षय की चिकित्सा नही है। इससे पहले और इसके साथ-साथ, आयुर्वेद के एकल नहीं अनेक समग्र सिद्धांतों जैसे निदान परिवर्जन, अग्नि दीपन, आम पाचन, दोष शमन, स्रोतोशोधन, बृंहण और पथ्यापथ्य का पालन करना भी उतना ही आवश्यक है। ये सभी मिलकर ही धातु क्षय जनित विकारों को दूर करते हैं।*
*व्याधि प्रत्यनीक चिकित्सा का भी अपना भिन्न महत्व है,धातु क्षय के कारण जो विभिन्न और विशेष विकार उत्पन्न हुए हैं जैसे अस्थि क्षय उनके लिए अलग से विशिष्ट औषधियों और प्रक्रियाओं का उपयोग किया जाता है।यहां केवल रसायन चिकित्सा ही पर्याप्त नहीं है।*
[7/14, 3:44 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*प्रभु, आपने बहुत ही गूढ़ बात लिखी है क्योंकि यह प्रायः बहुधा मिलता है 🙏*
Sood Sir !
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Presented by-
Vaidyaraja Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
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