[10/10, 12:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*अग्नि, आहार, धातु, दोष और जीवन का clinical पक्ष एक काय चिकित्सक के दृष्टिकोण से ...*
[10/10, 12:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*ये है बाहर दिखने वाली भ्राजकाग्नि 👇🏿*
[10/10, 12:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*एक अन्य उदाहरण जहां हेतु भिन्न है 👇🏿*
[10/10, 12:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*किस प्रकार 'पिण्ड-ब्रह्माण्ड न्याय' के अनुसार इस ब्रह्माण्ड की अग्नि इस शारीरिक अग्नि से साधर्म्य रख कर उसे प्रभावित करती है, आहार, दोष, धातु और जीवन पर उसका कैसे प्रभाव पड़ता है, यह शरीरस्थ अग्नि कहां रहती है, कितनी मात्रा में रहती है आदि आदि अनेक विषयों पर उस clinical approach के साथ चर्चा करेंगे जिसे हम नित्य अपने clinic पर रोगियों में अनुभव करते है और उसे समझ कर उसकी चिकित्सा करते हैं।आयुर्वेद में शास्त्रार्थ का कोई अन्त नही है और अनंत है क्योंकि अनेक विषय प्रत्यक्ष दृष्टिगम्य ना होकर अनुभव किये जा सकते है या आप्त पुरूषों ने अपनी दिव्य दृष्टि से उनका अनुभव लिया है और लिखा। हमने उन्ही के मार्ग पर चलकर इस विषय को लिया है।*
[10/10, 12:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*'आहारमग्निः पचति दोषानाहारवर्जितः, धातून् क्षीणेशु दोषेषु जीवितं ढातुसङ्क्षये'
अ ह ग्रहणी चि 10/91*
*अशित, पीत, लीढ और खादित इस चार प्रकार के भुक्त आहार का पाक जाठराग्नि करती है, आहार ना मिलने पर वो धातुओं और दोषों को आहार बना कर उनको क्षीण करेगा और सब के क्षीण होने पर वो जीवन को नष्ट कर देगा।*
*वाग्भट्ट के इस सूत्र की सूक्ष्मता में जाने के लिये जब चरक में जाते हैं तो 'अग्निरेव शरीरे पित्तान्तर्गतः कुपिताकुपितः शुभाशुभानि करोति; तद्यथा- पक्तिमपक्तिं दर्शनमदर्शनं मात्रामात्रत्वमूष्मणः प्रकृतिविकृतिवर्णौ शौर्यं भयं क्रोधं हर्षं मोहं प्रसादमित्येवमादीनि चापराणि द्वन्द्वानीति'
च सू 12/11
स्पष्ट होता है कि यह जाठराग्नि पित्त के अन्तर्गत है तथा प्राकृत अग्नि शुभ और कुपित अग्नि अशुभ कर्म करेगी। उदरस्थ प्राकृत पित्त सम्यक पाचन करेगा और कुपित पित्त दुष्टि। नेत्रों में आलोचक पित्त रहता है प्राकृत रहने पर सम्यक दर्शन होगा और कुपित अदर्शन या असम्यक दर्शन इसका अभिप्राय अगर आप चश्मा लगाकर पढ़ते है या देखते हैं तो आलोचक पित्त प्राकृत नही है, यही पित्त शरीर में तापमान अर्थात उष्मा को नियन्त्रित करता है प्राकृत होगा तो body temperature सामान्य रहेगा और कुपित होने पर अति या क्षीण , कई बार त्वचा में उष्मा लगती है पर तापमान सामान्य मिलता है और इसके विपरीत भी हो सकता है तो यह सब पित्त की कुपित अवस्था है।*
*इन सब के साथ ही उपरोक्त सूत्र में सब से महत्वपूर्ण स्थिति है द्वन्द्व की जो हर पल जीवन में चलता है कि यह कार्य जो हम करने जा रहे हैं वो धर्म के अनुकूल हैं या प्रतिकूल, सही है या गलत और इसी प्रकार सुख-दुख, पाप-पुण्य, इच्छा-द्वेष आदि सहित आपका वर्ण, शौर्य, भय, क्रोध, हर्ष, मोह, प्रसन्नता ये सब प्राकृत पित्त के अधीन है। आपके पास अपार धन, वैभव और भौतिक सुख होने पर भी प्रसन्नता और हर्ष नही है तो मान लीजिये आपका पित्त कुपित है*
*इस 24 तत्वात्मक शरीर में तो यह अग्नि पित्त के अन्तर्गत है पर हमें इसके मूल को जानना है और किस किस प्रकार इसकी हमारी चिकित्सा में उपयोगिता है, अपने clinic में हम इसे कहां और कैसे apply करते हैं इसके और अधिक विस्तार में आपको ले कर चलेंगे अभी तक तो हमने यह जाना कि भय, क्रोध, द्वन्द्व आदि लेकर ही रोगी भी आते है, परिवार में और समाज या संसार में आपको लोग भी इन्ही गुणों के साथ मिलते हैं तो वो कुपित पित्त या अग्नि वाले है।जिस द्रव्य में समवाय संबंध से उष्ण गुण स्पर्श और रूप सहित रहता है उसे तेज 'उष्णस्पर्शवक्तेज:' यह कहा गया है। अगर दुग्ध या दधि अभी गर्म है अर्थात उष्ण है तो यह समवाय संबंध नही संयोग संबंध है। उष्ण दुग्ध अथवा दधि जिसे अभी बनाया गया है इसका अग्नि या तेज महाभूत अनित्य और विनाशशील है, यह कार्य रूपी अग्नि है जो स्थूल और प्रत्यक्ष है और इसे भौम तेज या भौम अग्नि भी कहते हैं।*
[10/10, 12:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*यह अग्नि दो प्रकार की है एक तो सूक्ष्म या परमाणु अग्नि जो जो नित्य है तथा कभी नष्ट नही होती तथा स्थूल अपने गुणों के आग्नेय द्रव्यों को सदैव उत्पन्न करती रहती है और दूसरी अनित्य अग्नि है जो स्थूल है, आयुर्वेद में बार बार सामने आने वाले अग्नि, पित्त, अम्ल रस, अम्ली करण, संधान करण इन सब में एक कारण द्रव्य समान है वो है अग्नि। हमारा ये प्रकरण आचार्य विनोद मित्तर जी ने आमवात से आरंभ किया तो हमने भल्लातक द्रव्य बताया अब देखिये भल्लातक भी अग्नि है इसके पर्याय भा प्र हरीतक्यादि वर्ग में 'अग्निक: तथैवाग्निमुखी' कहा है तो जहां भी ग्रन्थों में इस प्रकार से मिले कि यह द्रव्य आग्नेय है, पित्तवर्धक है, अम्ल कारक है तो यह सब स्थूल, अनित्य अग्नि है, कार्यरूपी और विनाशशील है और संयोग रूप में है। *
*इस अनित्य अग्नि को जो स्थूल रूप में है जानने के लिये जब और सूक्ष्मता में जाते है तो यह तीन स्वरूपों में प्राप्त होती है...*
*1- आग्नेय शरीर - सूर्य को देखिये साक्षात अग्नि है और इसके चारों तरफ सौर मंडल में रहने वाले ग्रह और नक्षत्र चाहे हम सामान्य नेत्रों से देख भी ना पायें सब आग्नेय शरीर है।*
*2- आग्नेय इन्द्रियां - अग्नि की इन्द्रिय नेत्र है क्योंकि इस से हम रूप का ज्ञान प्राप्त करते हैं।*
*3- आग्नेय विषय - यह विषय चार प्रकार के है..*
*A- भौम अग्नि - कोयला, लकड़ी, भोजन बनाते समय जो गैस जलाई जाती है, रोशनी के लिये आप बल्ब या tube light जलायें, दिवाली या किसी त्यौहार पर बम, फुलझड़ी आदि जलाने पर जो प्रकाश उत्पन्न हुआ वो सब भौम अग्नि है।*
*B- दिव्य अग्नि - यह मनुष्य के हाथ में नही है जैसे बादल के टकराने पर बिजली चमकना, उल्कापात आदि ।*
*C- जाठराग्नि - 'विविधमशितं पीतं लीढं खादितं जन्तोर्हितमन्तरग्नि सन्धुक्षितबलेन यथास्वेनोष्मणा सम्यग्विपच्यमानं...'
च सू 28/3
में चार प्रकार के आहार अशित, पीत, लीढ और खादित के पाचन में इसका उल्लेख किया गया है।*
*इस अग्नि पर चिन्तन करें तो 'पिण्ड-ब्रह्माण्ड न्याय' की सार्थकता इस शरीर में कहां पर है और रोग और स्वास्थ्य का किस प्रकार मूल है आपको अभी समझ आ जायेगी। जो भी इस ब्रह्माण्ड में सूर्य, चन्द्रमा, वायु आदि है वही आपके शरीर में भी है और आप अपने और रोगी दोनो के शरीर में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते है 'विसर्गोदानविक्षेपैः सोमसूर्यानिला यथा धारयन्ति जगद्देहं कफपित्तानिलास्तथा'
सु सू 21/7
अर्थात बाहरी जगत का चन्द्रमा कफ है,सूर्य पित्त है और वायु वात है तथा बल और शरीर को धारण करने के कारण है। जिस प्रकार चन्द्रमा अपनी किरणों से संसार को स्निग्ध और शीतल रखता है वैसे ही कफ भी शरीर को,सूर्य अपनी उष्मा रूपी किरणों से इस भूमंडल के जलीयांश को ग्रहण कर लेता है वैसे ही अग्नि या सूर्य का प्रतीक पित्त अन्न रस का ग्रहण कर लेता है। जैसे अपक्व अन्न रस से आम की उत्पत्ति, धात्वाग्नि और भूताग्नि का उदाहरण लें तो अन्न रस अपक्व रहगा तो आम उत्पत्ति का कारण बना और आमविष का शरीर में प्रसरण होने लगा,दोष कुपित हुये और संग दोष हो कर स्रोतोवरोध हो कर संधि शोथ आदि लक्षण उत्पन्न होने लगे।
'तत्र श्लेष्मलाहारसेविनोऽध्ययनशीलस्याव्यायामिनो दिवास्वप्नरतस्य चाम एवान्नरसो मधुरतरश्च शरीर मवुक्रामन्नति स्नेहान्मेदो जनयति' सु सू 15/37
कफ वर्धक आहार सेवन करने वाले, भोजन के पश्चात पुन: भोजन, व्यायाम ना करना और दिन में सोने से मनुष्यों का ठीक से पचन ना हुआ भोजन अर्थात अपक्व और मधुर आम रस शरीर में भ्रमण करता है।' परिणमतस्त्ववाहारस्य गुणा: शरीरगुणभावमापद्यन्ते'
च शा 6/16
जाठराग्नि और धात्वाग्नियों की सहायता से अन्न रस का दोष और धातु अपने अनुरूप अपने गुणों को प्राप्त कर लेते हैं। यदि अन्न रस उनके अनुरूप और अनुकूल हैं तो शरीर में उनके गुणों की वृद्धि होगी और उनका पोषण होगा। इसको और अधिक स्पष्ट करते हुये कहा है कि
'उष्मा पचति, वायुरपकर्षति क्लेद: शैथिल्यमापादयति, स्नेहो मार्दवं जनयति,काल:पर्याप्तिमभिनिर्वर्यति, समयोगस्त्वेषां परिणामधातुसाम्यकर: सम्पद्यते'
च शा 6/15
अर्थात 13 प्रकार की जो अग्नियां है जिसमें पाचक पित्त, 5 भूताग्नि और 7 धात्वाग्नियों को वायु गति दे कर रस का अपकर्षण करता है। पाचक पित्त आहार का पाक करता है, वायु भुक्त आहार को गति दे कर अपकर्षण करता है, क्लेदक कफ उसे गीला और ढीला कर देता है, स्नेह मृदु कर देता है काल उसे पचाने में सहायक है और उष्मा उसे धातुओं में परिणत करती है लेकिन अगर अन्न रस अपक्व अर्थात आम स्वरूप ही है तो शरीर की धातुयें उसका ग्रहण नही कर सकती।जिस प्रकार बाह्य जगत में वायु मेघ, शीत, उष्ण गुणोंको प्रेरित करता है और जगत की रक्षा होती है वैसे ही शरीरस्थ वात पंगु कफ, पित्त, धातुओं और मलों को संचरण करता है, स्राव कराता है उनको गति प्रदान करता है तो जीवन चलता रहता है।*
[10/10, 12:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*क्या है यह जाठराग्नि , कहां रहती है और कितनी मात्रा में ? क्या यही सही में पित्त भी है ?*
*अभी तक बाह्य अग्नि और शारीरस्थ अग्नि पर हमने इतनी चर्चा की यह जिज्ञासा सुश्रुत मे भी हुई
'तत्र जिज्ञास्यं किं पित्तव्यतिरेकादन्योऽग्निः?
आहोस्वित् पित्तमेवाग्निरिति ?
सु सू 21/8
' पित्त से अग्नि भिन्न है या शारीर की अग्नि और पित्त एक ही है ?*
*इसका उत्तर इस प्रकार दिया गया 'अत्रोच्यते- न खलु पित्तव्यतिरेकादन्योऽग्निरुपलभ्यते, आग्नेयत्वात् पित्ते दहनपचनादिष्वभिप्रवर्तमानेऽग्निवदुपचारः क्रियतेऽन्तरग्निरिति; क्षीणे ह्यग्निगुणे तत्समानद्रव्योपयोगात्, अतिवृद्धे शीतक्रियोपयोगात्, आगमाच्च पश्यामो न खलु पित्तव्यतिरेकेणान्योऽग्निर्लभ्यत इत्यनेन पित्ताग्न्योर्भेदप्रतिपादकागभावं दर्शयति ' सु सू 21/8
अर्थात पित्त से अलग कोई अन्य अग्नि शरीर में नही है क्योंकि आग्नेय भाव कारण होने से पित्त दाह तथा पाक करता है एवं इसका उपचार भी अग्नि की भांति ही किया जाता है। अगर आग्नेय गुण कम होंगे तो पित्त क्षय होगा और उसके वर्धन के लिये आग्नेय गुण युक्त द्रव्य ही दिये जायेंगे तथा पित्त और अग्नि एक ही है।*
*इसको clinically समझने के लिये आपको उदाहरण देते है, ये ul.colitis का रोगी है इसे grade 4 का ये रोग है देखिये इसके आन्त्र व्रण जिस से आप अग्नि या पित्त का दाह एवं पाक देख सकते हैं, रक्त युक्त मल देखिये इसका हेतु अग्नि या पित्त का कुपित होना है एवं अन्य उदाहरण भी देते हैं तो आपको यह स्पष्ट हो जायेगा।* 👇🏿
[10/10, 12:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*यह अन्त: अग्नि थी, अब पुन: बाह्य अग्नि का उदाहरण देखते हैं 👇🏿*
[10/10, 12:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*अग्नि में प्रधान जाठराग्नि है, कहां रहती है ये ? क्योंकि जठर तो बहुत बढ़ा है और कितनी मात्रा या परिमाण है इसका ? इसका उत्तर शारंगधर ने
'अग्नाश्ये भवेत् पित्तमग्निरूपं तिलोन्मित्तम्' पाचक पित्त ही अग्नि है और इसकी मात्रा तिल के समान है और अग्नाश्य में रहती है यह कह कर दिया है।*
*आगे रसप्रदीपकार ने इसका और विस्तार किया है
'स्थूलकायेषु सत्वेषु यवमात्र: प्रमाणत: ह्रस्व कायेषु सत्वेषु तिलमात्र: प्रमाणत: कृमिकीटपतंगेषु बालमात्रौऽवातिष्ठते, अर्थात स्थूल काय में यव मात्र, ह्स्व में तिल मात्र और कीट-पतंगों में बाल या केश की मात्रा सदृश ।*
*अग्नि के अन्य स्थान -
'स्वेदो रसो लसीका रूधिरामामाश्यश्च पित्तस्थानानि तत्राप्यामाश्यो विशेषेण पित्तस्थानम्'
च सू 20/8
स्वेद, रस, लसीका, रक्त और आमाश्य ये पित्त के स्थान कहे गये हैं उनमें भी विशेष स्थान आमाश्य है। यहां इसका और विस्तार करें तो
'नाभिरामाश्य: स्वेदो लसीका रूधिरं रस:, दृक स्पर्शनं च पित्तस्य नाभिरत्र विशेषत:।'
अ ह 12/2
नाभि आमाश्य स्वेद लसीका रक्त रस दृष्टि तथा त्वचा ये पित्त के स्थान तो हैं ही पर नाभि विशेष रूप से है।नाभि का वर्णन
'पक्वाश्ययोर्मध्ये सिराप्रभवा नाभि:'
सु शा 6/25
पक्वाश्य और आमाशय के मध्य सिराओं का उत्पत्ति स्थल नाभि है और इसे क्षुद्रान्त्र भी कहते हैं। आहार का परिपाक तो होता ही है और पाचक पित्त के कार्य का विशेष क्षेत्र भी है।*
*जो भी आहार ग्रहण किया गया उसका पाचन आमाश्य और पक्वाश्य में हो कर परिणाम स्वरूप रस और मल के रूप में होता है, इस आहार रस में सातों धातु,उपधातुओं के अंश,पांचों इन्द्रियों के द्रव्य, शुद्ध धातुओं का निर्माण करने वाले तत्व रहते हैं, इस आहार रस पर पंचभूतों की अग्नि अपना कार्य कर के अपने अपने अनुसार गुणों में परिवर्तन कर के शरीर उस आहार को आत्मसात कर सके इस अनुरूप बनाती है और पंचभूतों की अग्नि के बाद धात्वाग्नियां अपना कार्य आरंभ करती हैं और अग्नि मंद है तो उस अन्न से बना आहार रस का पाक पूर्ण नही हो पाता और इस अपक्व आम रस जिसका क्षेत्र आमाश्य से नाभि तक है में अपक्वता से शुक्तता ( fermentation) हो कर आम विष की उत्पत्ति होती है इसे
'स दुष्टोऽन्नं न तत् पचति लघ्वपि अपच्यमानं शुक्तत्वं यात्यन्नं विषरूपताम्'
च चि 15/44
में स्पष्ट किया है।अब जाठराग्नि की दुर्बलता से इस अपक्व रस का क्या होता है ? अगर यह अन्न रस बिना पक्व हुये आमावस्था में रहता है तो आमाश्य और पक्वाश्य में रह कर ज्वर, अतिसार, अजीर्ण, ग्रहणी आदि रोग उत्पन्न करता है और इसकी संज्ञा आम विष युक्त आम रस होती है और यह आम विष विभिन्न स्रोतों के माध्यम से शरीर में जहां भी जायेगा वहां रोग उत्पन्न करेगा। धात्वाग्नियां जाठराग्नि पर ही निर्भर है, अगर इस रस का पूर्ण पाक जाठराग्नि हो जाता है तो यह किट्ट रहित रस संज्ञक हो कर 'यस्तेजोभूत: सार: परमसूक्ष्म: स रस इत्युच्यते'
सु सू 14/3
परम सूक्ष्म हो कर सूक्ष्म स्रोतों में प्रवेश कर व्यान वात की सहायता से ह्रदय में पहुंच कर व्यान वायु के द्वारा ही 24 धमनियों के माध्यम से प्रत्येक दोष धातु मल एवं सूक्ष्म अव्यवों तक पहुंचता है।*
[10/10, 12:36 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*अगर धात्वाग्नि मंद होगी तो उन धातुओं में यह रस भी साम रस हो जायेगा और वह धातु स्वयं भी धात्वाग्निमांद्य से साम रहेगी।*
*अनियमित आहार विहार से , रात्रि भोजन देर से करने से महास्रोतस में अपक्व अन्न रस रहने से ही खवैगुण्य होगा,दोष प्रकुपित होंगे, धातुओं में शिथिलता आयेगी और जहां खवैगुण्य मिला वहीं दोषों का स्थान संश्रय होगा और प्रकुपित दोष-दूष्य का मिलन उस स्थान पर ही उस रोग की सम्प्राप्ति को घटित करेगा, जैसे ज्वर में सम्प्राप्ति तो आमाश्य में घटित हो रही है पर प्रसर तो सर्व शरीर गत है इसलिये व्याधि मूल को जानना है।*
*D- अन्य अग्नियां - जैसे द्रव्यों और धातुओं में मिलने वाली अग्नि जिसका उदाहरण हम ऊपर दे कर चलें हैं।*
*भल्लातक को प्रकृति ने अगर आग्नेय बनाया तो ' स्वादुपाकरसं लघु स्निग्धं' भी कहा है कि यह उष्ण वीर्य के साथ मधुर भी है और कषाय भी, अग्नि महाभूत है तो balancing के लिये पृथ्वी और जल भी इसमें डाले गये और वायु भी जिस से दिव्य स्वरूप हो गया।*
*चिकित्सा की दृष्टि से इस अग्नि के पूरक कौन कौन से पदार्थ है जो 'सर्वदा सर्वभावानां सामान्य वृद्धि...' सिद्धान्त से कार्य करेंगे ...*
*आहार - उष्ण अम्ल लवण कटु तीक्ष्ण विदाही मद्य सुरा तिल दही अलसी तक्र कुलत्थ क्षार मरिच भल्लातक अचार vineger कच्चा आम्र अम्लपदार्थ आदि ये सब अग्नि है।*
*विहार - आतप उपवास शरद ग्रीष्म मध्याह्न भोजन पाचन काल आदि*
*मानसिक - क्रोध शोक भय ईर्ष्या आदि*
*विस्तार से आप ग्रन्थों में देख सकते है, ये सब अग्नि है।*
*डॉ. माधव जी हमने इसी प्रकार का उत्तर एक बार वैद्य पवन मदान जी को भी दिया था कि अग्नि व्यापार और धातुपाक क्रम को समझ कर जीवन को दीर्घायु बना सकते है इसका उदाहरण ऐसे समझें जैसे आपका body wt. 75 kg है और आप प्रतिदिन कल से एक लिटर दुग्ध पान नियमित लिये जाने वाली मात्रा के भोजन के अतिरिक्त पीना आरंभ करें और एक महीने बाद आपका wt. 80 kg हो गया तो वो 5 लिटर दूध कहां गया ??? वो डॉ माधव जी बन गया जो साक्षात आप दिख रहे हैं । इसी को समझाने के लिये अग्नि व्यापार और धातुपाक क्रम आदि बनाया गया। जो आप सेवन करेंगे वो ही बन जायेंगे यहां फिर अव्यक्त में पहुंच जाते हैं कि यह तीन गुण युक्त है सत्व, रज और तम । आहार भी संसार में तीन ही हैं होगा।अग्नि को आहार ही चाहिये क्योंकि यह प्रतिक्षण जागृत रहती है, मंद होगी तो अन्य रोग आम जनित हो कर शरीर नष्ट करेगी, विषम होगी तब भी और तीक्ष्ण होगी तो धातुओं और दोषों को नष्ट कर जीवन का नाश कर देगी, तभी अग्नि की चिकित्सा ही काय चिकित्सा कहा है।*
[10/10, 12:41 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
माधव जी को सादर समर्पित.. ⬆️⬆️
आपने अग्नि पुराण ही लिख दिया.. कमाल है , कितना कुछ एक जगह.. 🙏🙏❤️❤️
[10/10, 12:49 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
(१) अग्नि: ➡️आहारं पचति ,
(२) आहार वर्जित: ➡️अग्नि: ➡️दोषान् पचति ,
(३) दोषाभावात् ➡️अग्नि: ➡️धातून् पचति
(४) धातु सङ्क्षये ➡️ अग्नि: ➡️जीवितं पचति इति नाशयतीत्यर्थ:
[10/10, 12:52 AM] Vd.Arun Rathi Sir :
*मुझे भी प्रथम वर्ष के बच्चों को ""Applied Physiology of Agni"" के अनेक उदाहरण मिल गये है.*
[10/10, 12:56 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Catabolism ➡️ glycolysis ➡️glycogenolysis ➡️ lipolysis ➡️ gluconeogenesis ➡️ wasting of muscles ➡️ketoacidosis ➡️ death
[10/10, 1:00 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
अभी ये part 1 लिखा है सर, before & after treatment with clinical eveidences अग्नि को कैसे समझे ये भी लिखना है, patients की reports अलग अलग फोन से निकाल कर समय मिलने पर लिखूंगा क्योंकि बढ़ा परिश्रम का काम है ये।*
🙏🙏🙏
[10/10, 1:05 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
जबरदस्त काम है..
शुभ रात्रि वैद्यराज सुभाष शर्मा जी
[10/10, 4:01 AM] Dr. Vivek Chadha :
हमेशा की तरह सटीक सार गर्भित विश्लेषण। धन्यवाद सर।
[10/10, 6:02 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai:
हमे अनायास ही प्रा. भा वी साठे सर के अपने पी एच डी थिसिस की याद आ गयी. पुणे विद्यापीठ मे ऊन्होने यह कार्य किया था. Understanding Agni by weight loss method
[10/10, 8:48 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*मेरे यहां एक रोगी मकाऊ से आता है और सभी t v channels के award shows का organiser है, दिन मे 20 से 25 रोटी 24 घंटे में खा जाता था। भस्मक रोग का साक्षात प्रमाण शारीर का wt. लगभग 75 kg । दो विकार HT और अनंतवात ये थे उसे। जैसे एक बार चर्चा चली थी अपामार्ग के बीज हमने उत्तरकाशी से मंगाकर उसे उसकी खीर खाने के लिये दी थी तब भस्मक शान्त हुआ । इसमें दो भेद है श्वेत और रक्त इनका प्रयोग हमने अनेक मेदोरोगियों पर किया था यह मेद, कफ और वात नाशक कार्य करता है पर बाद में जिनसे मंगाते थे वो नही रहे । पर अग्नि की चिकित्सा में नये अनुभव मिले क्षुधा सम्यक होते ही अनंतवात भी चला गया और रक्तचाप 108-110/70 के लगभग रहने लगा।*
*अग्नि पर लिखने का अभिप्राय ये ही हमारा है कि इसे किस प्रकार clinically आप अलग अलग रूप से समझे।*
[10/10, 8:49 AM] DR. RITURAJ VERMA:
प्रणाम गुरुवर🙏🙏🙏
[10/10, 8:53 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*अपामार्ग रक्त और श्वेत दो प्रकार से मिलता है और दोनों के बीज का प्रभाव अलग है, नमस्कार आचार्य ऋतराज जी 🌹🙏*
[10/10, 9:02 AM] Dr.Ashwani Kumar Sood Ambala:
अग्नि मंथन good style से हो गया, very detailed indepth information वैद्य राजजी, जिन्होंने समुद्र मंथन नहीं देखा वह अन्दाजा लगा सकते हैं कि वह कैसा था ।
[10/10, 9:04 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*1992 में हमने विदेश में वैसा जीवन जीया है जब ये mobile phone नही थे और india में बात करने के लिये trunk calls book की जाती थी और letters भी 10 दिन में कम से कम पहुंचते थे, तब से अब तक आयुर्वेद कहां तक पहुंचा ? चिन्तन करता रहता हूं। पहले जो विद्वान आयुर्वेदज्ञ मिलते थे उनमें से अनेक संसार से चले गये और नई पीढ़ी आयुर्वेद में विवशता से आई । जिनमें आयुर्वेद की आत्मा का अनुभव हो ऐसे आयुर्वेदज्ञ अब गिने चुने ही रह गये, हम तो भाग्यवान है जो ग्रुप में यहां हमारे साथ ऐसे अनेक विद्वान है जो आयुर्वेद के ऋषितुल्य है जिनमें आयुर्वेद का विशुद्ध स्वरूप है, लेकिन इसके अतिरिक्त दुनिया में बहुत कम ही मिलते ।*
[10/10, 9:55 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
*भूतपूर्व विदेशी बाबू* 🌹🌹😃😃
[10/10, 10:14 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Site-specific correction of the sickle mutation in hematopoietic stem cells would allow for permanent production of normal red blood cells.
As per ayurveda perspectives, our target site is सरक्तमेद, प्लीहा, यकृत और रस-रक्तवह स्रोतस्.
तिक्त रसात्मक द्रव्य, जीवनीय द्रव्य, हरीतकी आमलकी अमृता सदृश रसायन द्रव्य, पाण्डु रोग मे वर्णित घृत कल्प..
[10/10, 10:31 AM] Dr. Pavan mali Sir :
Suprabhat sirjee.....Very deep and thorough description of Agni .... Dehadhtwagni vidyan ... book which was published long ago by mulchand khairati publication has described in depth knowledge regarding agni concept..... but your practical application of every concept is marvelous sir..🙏🏻
[10/10, 11:08 AM] Prof.Madhava Diggavi Sir:
Ji sir .. this is kayachikitsa
....rogi syad vikrutehe Moolam. Agnihi tasmat niruchyate. 🙏🏻
[10/10, 11:42 AM] Vd.Divyesh Desai :
आदरणीय गुरुदेव सुभाष शर्माजी को साष्टांग प्रणाम।
आज सुबह में योग, मर्म पॉइंट स्टिमुलेट सूर्य की हाजरी में करते समय मेरे मस्तिष्क में
सूर्य और शरीर का अग्नि,
आयु वर्ण बलं स्वास्थ्यम
उत्साहोपचयो प्रभा ..... ओर श्रीकृष्ण ने बताया हुवा
अहं वैश्वानरो भूत्वा, प्राणिनां देहमाश्रितः,
प्राणः अपान समान युक्तः
पचामि अन्नम चतुर्विधम।।
ये श्लोकों के बारे में सोचते सोचते अटक गया था और इसका गूढार्थ समझ नहीं पाता था लेकिन मेरा ये मन का प्रश्न मानो सुभाष सर ने अतीन्द्रिय से पढ़ लिया और मेरे को बिना प्रश्न पूछे ही जवाब दे दिया।।🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
कोटि कोटि प्रणाम इस सम्प्रदाय के वंदनीय समस्त गुरुजनों को👏🏻👏🏻👏🏻
जय आयुर्वेद, जय धन्वंतरि।।
*सुबह से 8 रोगी तो इसी प्रकार के clinic में अभी तक आ चुके है,चिकित्सा - अग्नि की साम्यता,रोगी की दिनचर्या बनाना, आहार का सर्वाधिक महत्व, चिकित्सा पित्तशामक - वात और कफ की balancing के साथ क्योंकि दिल्ली में बहुत pollution है जिसके कारण प्रतिश्याय, कास, श्वास के रोगी सर्वाधिक है, सितोपलादि में प्रवाल पिष्टी मिलाकर उसे हम अनार के शर्बत में mix कर के देते है।कभी इस प्रकार की अवस्था में जब कुपित अग्नि के साथ श्वास भी हो तो प्रयोग कर के देखिये । अनार का शर्बत आपको market में सरलता से मिल जायेगा।*
[10/10, 12:23 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
नमस्कार वैद्य दिव्येश जी, आयुर्वेद के अतिरिक्त धर्म एवं कर्मकांड ग्रन्थों में वात का क्रम भिन्न है, ऊँ प्राणाय स्वाहा, अपान, व्यान, उदान और समान इस प्रकार है। प्राण वायु के बाद सर्वाधिक महत्व अपान वायु का है ।* 🌺💐🌹🙏
[10/10, 12:27 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*जी बिल्कुल, गर्मियों में और गर्भिणीयों को हम पूरे नव मास सितोपलादि रूह अफजा शर्बत के साथ और पालक गाजर (non season की भी) चुकन्दर और बहुत अल्प टमाटर का सूप पिलाते है। बिना allopathic के HB%, calcium , iron सब normal range में मिलता है। *
[10/10, 12:33 PM] Dr.prajakta Tomar Indore:
Yes Dadimavleha gives wonderful results.👍🏻 I have tried in many patients. Morning sickness also gets cured.
[10/10, 12:33 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
👌👌👍
[10/10, 12:36 PM] Dr.Vandana Vats Madam Canada:
प्रणाम सर🙏
बहुत बढ़िया चिकित्सा
हरी सब्जी और चुकंदर का सूप स्वाद में भी रोचक होता है और फलदाई भी।
🙏
[10/10, 2:11 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*रोगी सामने हो,आप सामने हैं और हम भी है, उस समय आयुर्वेद के ज्ञान और सिद्धान्तों को apply करना और हर प्रश्न का उत्तर दे देना मेरा वो comfort zone है, मैने अनुभव किया है कि 6-7 दिन तक प्रतिदिन लगभग 8 घंटे दिये जायें तो पदार्थ विज्ञान से काय चिकित्सा तक clinical ज्ञान सभी BAMS प्राप्त कर सकते जिस से वो आयुर्वेद की चिकित्सा में समर्थ बन जायेंगे।जब रोगी ही सामने नही है तो हम कितनी भी चर्चा करें मात्र कुछ प्रतिशत ही काम आयेगा या सभी अपने अपने कार्य को जो उन्होने किया है वो सामने रख कर चर्चा करें तो चर्चा व्यर्थ नही जायेगी।*
*ये सब ज्ञान college में दिया जाना चाहिये जहां OPD और IPD दोनो की सुविधा हो, ग्रुप में तो हम सभी कुछ विषयों की शंकाओं तक सीमित हैं ये पूर्ण ज्ञान नही है।*
*हम जिस भी रोग पर बात करें तो उसका रोगी भी सामने होना आवश्यक है और बार बार repeatation में भी तभी तो ज्ञान होगा कि चिकित्सा से लक्षणों में कितना लाभ मिला,नही मिला तो कहां कमी रही ? जब तक यह नही होगा तब तक आयुर्वेद का वास्तविक स्वरूप सामने नही आयेगा।*
*हम सब को सत्य से भागना नही चाहिये, उसे स्वीकार कर के उस पर चलने का मार्ग बनाना चाहिये नही तो पूरा जीवन सपना ही पाल कर जीवन निकल जायेगा कि अच्छा आयुर्वेदज्ञ बनना है पर बनेंगे कैसे ? जब तक रोगी, आयुर्वेद और भिषग् बार बार आमने सामने और साथ साथ नही होंगे।*
*ये मेरा व्यक्तिगत मत और अनुभव है, मैं एक private clinician हूं जिसे रोगी को लाभ देना ही है और कोई option नही है, अगर मेरे अधिकार क्षेत्र में रोगी नही है तो स्पष्ट मना कर देंगे जिस से ये लाभ मिला कि कभी किसी रोगी ने अपयश नही दिया।*
[10/10, 2:13 PM] Dr.Pawan Madan Sir :
प्रणाम गुरुवर।
अग्नि व्याख्यान के लिए अतीव धन्यवाद
💐
[10/10, 2:19 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*धन्यवाद पवन जी, अपना तो प्रयास यही है कि बहुत श्रेष्ठ आयुर्वेदज्ञों की परम आवश्यकता है अत: सभी विद्वान ऐसा मार्ग पकड़ें, दुर्दशा देख कर दुख होता है कि covid 19 में आयुर्वेद allopathic के सामने सरकारी add on बना कर रह गई बस मात्र।*
[10/10, 2:42 PM] Dr.Pawan Madan sir:
🙏🙏
,,,पित्त का यदि उष्ण गुण कुपित होता है तो तापमान बढ़ता है
,,,पित्त के यदि अन्य गुण रूप कोप होता है तो जरूरी नही के तापमान की भी वृद्धि दृष्टिगम्य हो, शायद इसीलिए कई बार पित्त प्रकुपित होने पर ऊष्मा वृद्धि तो महसूस होती है पर तापमान वृद्ध नही दिखाई देता
,,,पित्त की मानसिक गुणों में कारणता ,,,👌👌स्मरण रखने योग्य
,,,सबसे महत्वपूर्ण,,clinical utility....yadi अन्न रस अपक्व अवस्था मे है तो धातुएं उसे ग्रहण नही कर सकती।
अतीव स्मरणीय 🙏🙏💐💐
[10/10, 2:51 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
*स्वेन दोषोष्मणा पर भी विचार किजिए , यह विषय थोडा उपेक्षित है*
[10/10, 3:01 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
पित्तावृत समाने ऊष्मण: उपघात: स्यात् ,; कहा गया है.
उपघातस्तथोष्मण इति अत्र पित्तेनाप्यावृते समाने अग्न्यत्तेजनाभावादूष्मण उपघातो ज्ञेय: .
स्निग्ध के साथ उष्ण है फिर भी उष्णता कम नहीं होती है , जबकि उष्ण यदि रुक्ष के साथ है तो उष्णता की वृद्धि होती है.
इस संदर्भ मे भी मुझे आप से मार्ग निर्देश चाहिए..
[10/10, 3:04 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
(१) ➡️पित्तावृत समाने ऊष्मण: उपघात: स्यात् ,; कहा गया है.
उपघातस्तथोष्मण इति अत्र पित्तेनाप्यावृते समाने अग्न्यत्तेजनाभावादूष्मण उपघातो ज्ञेय: .
(२) ➡️स्निग्ध के साथ उष्ण है फिर भी उष्णता कम नहीं होती है , जबकि उष्ण यदि रुक्ष के साथ है तो उष्णता की वृद्धि होती है.
इस संदर्भ मे भी मुझे आप से मार्ग निर्देश चाहिए..
[10/10, 3:14 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*अब सांयकाल के बाद ग्रुप में वापिस आता हूं तब इस पर चर्चा करेंगे क्योंकि विस्तृत विषय है इसमें वात का योगवाही और स्वभाव आदि अनेक बाते है, शरीर में भी अलग अलग गुणों के दोष है पर एक दूसरे को नष्ट नही करते, विष सर्प में भी है पर उसे नष्ट नही करता, स्वभाव को भी माना गया है अत: free हो कर चिंतन करता हूं क्योंकि आज sat बहुत अधिक व्यस्त है।* 🙏🙏🙏
[10/10, 6:54 PM] Dr.Pawan Madan Sir:
🙏🙏🙏🙏
Guru ji
Shubha sandhaya..
जब जठराग्नि द्वारा पाचन पूर्ण रूपेण ही जाता है तो पक्व आहार रस बनता है जो ह्रदय द्वारा संप्रेषित किया जाता है।
क्या इसी को य: तेजोभूत: सार परम सूक्ष्म रस,,, कहते हैं🙏
[10/11, 12:07 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*सादर नमन सर, समवाय संबंध और संयोग संबंध दोनो भिन्न अवस्थायें है, आवरण, लक्षण या व्याधि में संबंध संयोग संबंध है जैसे कोई घृत से जल गया तो वह घृत अत्यन्त गर्म था, शीत कर के किसी पर गिरेगा तो वह जलेगा नही। शरीर में इसे समझने के लिये त्रिदोष के एक एक अंश को हम अगर महाभूतों के आधार पर समझे तो वह इस प्रकार है..*
*वात 'रूक्षः शीतो लघुः सूक्ष्मश्चलोऽथ विशदः खरः' *
*पित्त 'सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमम्लं सरं कटु|'*
*कफ 'गुरुशीतमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः*
*च सू 1/59-61*
*वात - वात+ आकाश*
*पित्त - अग्नि+जल*
*कफ- जल +पृथ्वी*
*वात ........*
*रूक्ष - वायु महाभूत, भा प्र ने वायु+ अग्नि *
*लघु - आकाश+वायु+ अग्नि भी मानते हैं क्योंकि अग्नि अस्थिर है।*
*शीत - जल+वायु + पृथ्वी को भी साहचर्य भाव से मानते हैं।*
*विशद- पृथ्वी, अग्नि,वायु और आकाश*
*खर - पृथ्वी+ वायु*
*सूक्ष्म - वायु+आकाश+ अग्नि*
*पित्त ......,*
*उष्ण - अग्नि महाभूत*
*तीक्ष्ण - अग्नि महाभूत*
*सर - जल*
*कटु - वायु+अग्नि*
*द्रव - जल*
*अम्ल - पृथ्वी+अग्नि (जल + अग्नि = सुश्रुत)*
*कफ .......*
*गुरू - पृथ्वी + जल*
*शीत - जल+वायु + पृथ्वी को भी साहचर्य भाव से मानते हैं।*
*स्निग्ध - जल महाभूत, जल+पृथ्वी (सुश्रुत)*
*मधुर - जल+पृथ्वी*
*स्थिर - पृथ्वी *
*मृदु - जल+ आकाश*
*पिच्छिल - जल*
*वायु लघु है, सूक्ष्म है लेकिन इसके शीत गुण में जल और पृथ्वी भी है, यह योगवाही है। अगर हम दोषों को अंशाश कल्पनाओं में भी महाभूतों के तल पर देखे तो हर विषय स्पष्ट हो जाता है कि आवरण या लक्षणों में कौन कौन से अंश है।*
[10/11, 12:26 AM] DR. RITURAJ VERMA:
धन्यवाद गुरुवर
[10/11, 12:27 AM] DR. RITURAJ VERMA:
अंश अंश कल्पना बहुत कठिन लगता है कई बार
[10/11, 12:48 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*इसके लिये base strong करना पड़ेगा, जैसे मैने पहले भी कहा है कि दोष तीन नही 15 मानकर चलिये और हर दोष का स्थान अच्छी तरह याद रहना चाहिये जैसे प्राण वायु को ह्रदय, उर: प्रदेश, श्वास नलिका, जिव्हा, नासिका, अक्षि, कर्ण, फुफ्फुस, अन्ननलिका, कंठ, मूर्धा आदि मानकर चलिये और इसके कर्म अगर स्पष्ट है, दोषों के अंश किस किस महाभूत से बने हैं तो चिकित्सा सूत्र भी उसी के अनुसार बनेगा।*
*वास्तव में आयुर्वेद को इस प्रकार से clinically पढ़ाया नही गया तभी यह कठिनाई आती है। दोषों के तर तम भेद कोई कठिन नही है वहां ये महाभूत ही तो हैं। जैसे गणित के सूत्र हैं ऐसे ही बहुत से सूत्र चिकित्सा करते करते मैने रोगों के लिये बनाये थे जिसके आधार पर अनुक्त व्याधियों को इन्ही अंशाश कल्पनानुसार लेता गया और ठीक करता गया। मैने इसी आधार पर तो गंभीर, असाध्य एवं शल्य साध्य रोग ठीक किये और यहां present करता रहता हूं।*
[10/11, 12:51 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*व्याधि के नामकरण में मत जाईये, रोगी की परीक्षा कर के स्वयं दोष-दूष्य, स्रोतस, उनकी दुष्टि और अग्नि अनुसार व्याधि का निर्धारण करिये ।*
[10/11, 7:34 AM] Dr.Ashwani Kumar Sood Ambala:
Today's topic and explanation on AGNI , you have give a new perspective
Taking so much time from busy schedule for making AYURVED more palatable for all of us- benevolent act is really abmirable
[10/11, 8:44 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
दोषवाही स्रोतस् ➡️ दोष + दोषाग्नि + दोषवाही व्यानरुप वायु ➡️ दोषाग्नि उत्तेजक भाव ➡️ समान वायु ➡️ दोषवाही स्रोतस्.
अग्नि के विभिन्न पहलुओ पर चिकित्सक की नजरिये से प्रस्तुतीकरण अति प्रशंसनीय है, आपका सूक्ष्मतम अध्ययन और यथोचित विश्लेषण हमें हमेशा प्रोत्साहित करता है.
गुण कर्म के आधार पर यथोचित द्रव्यो का चयन यदि चिकित्सासिद्धांत के अनुरूप ही होंगे तभी चिकित्सा व्यवस्था से लाभ मिलता है, ऐसा आप विभिन्न रुग्ण पर सिद्ध कर चुके है.
साधुवाद और आभार.. 🙏🙏
[10/11, 9:04 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
(१) ➡️पित्तावृत समाने ऊष्मण: उपघात: स्यात् ,; कहा गया है.
उपघातस्तथोष्मण इति अत्र पित्तेनाप्यावृते समाने अग्न्यत्तेजनाभावादूष्मण उपघातो ज्ञेय: .
(१) ➡️पित्तावृत समाने ऊष्मण: उपघात: स्यात् ,; कहा गया है.
उपघातस्तथोष्मण इति अत्र पित्तेनाप्यावृते समाने अग्न्यत्तेजनाभावादूष्मण उपघातो ज्ञेय: .
Zollinger–Ellison syndrome
a condition in which a gastrin-secreting tumour or hyperplasia of the islet cells in the pancreas causes overproduction of gastric acid, resulting in recurrent peptic ulcer , indigestion and malabsorption..
Overproduction of gastric acid ➡️ hyperchlorhydria ➡️ acidic pH of intestinal secretion while intestinal secretion must be alkali to convert zymogen to active enzymes ➡️ indigestion and malabsorption⬅️ ऊष्मा उपघात ⬅️ अग्नि उत्तेजक भाव की अल्पता ⬅️ आवृत समान ⬅️zymogens are not converted into active enzymes⬅️अम्ल ,उष्ण व द्रव गुण प्रधान पित्त वृद्धि ⬅️ ( अतिसार ⬅️द्रव गुण वृद्धि ⬅️hyperchlorhydria , peptic ulcer ⬅️अम्ल गुण वृद्धि ⬅️hyperchlorhydria ) ⬅️ Gastrinoma/ gastrin secreting tumor
[10/11, 9:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*सटीक सम्प्राप्ति विघटन, ऐसा ही है 👌🙏*
[10/11, 9:48 AM] Dr.Ashwani Kumar Sood Ambala:
बहुत अच्छा interpretation
[10/11, 9:55 AM] Dr.Ashwani Kumar Sood Ambala:
Many pts of SARS COVID19 who have mild to moderate infection on CT show patchy fibrosis and dry cough , इसकी संप्राप्ति विघटन व चिकित्सा पर कुछ प्रकाश डालें, क्या सीधे रसायन शुरू करना चाहिए ?
[10/11, 10:16 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏 नमो नमः । आचार्य चरकस्वरुप सत्येंद्र ओझा । सर
[10/11, 12:29 PM] Vd Raghuram Shastri, Banguluru:
Ati adbhut Guruji👌👌💐❤
*Does Pittaja Grahani too follow this pattern sir?*
*Does ZE Syndrome fall into the category of Pittaja Grahani apart from pittavrita samana?*
*Apart from its separate samprapti, does Pittaja Grahani occur even in another pathway of pittavrita samana?*
(As you said the previous time the symptoms hv to match in order to consider correlation of conditions. But just a question of curiosity sir)
[10/11, 12:39 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Presence of peptic ulcer due to hyperchlorhydria indicates involvement of aamaashaya :origin of vyadhi is aamaashaya , it's hypersecretion of gastrin leads to excess secretion of gastric acid..
Intestinal secretion is alkali in nature helping conversion of zymogens to active enzymes for digestion and absorption.
Presence of excess amount of gastric acid in intestine make it's pH acidic so pancreatic and intestinal bicarbonate secretion is increased to counter acidic pH and to get alkali pH , but it's not happening and in turn intestinal volume is increased manifesting diarrhoea...
In Pittaja grahani sampraapti starts at grahani itself as in inflammatory bowel diseases, you know that peptic ulcer occurs even in inflammatory bowel diseases..
[10/11, 12:41 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
*The reason behind pathophysiology help in understanding of Ayurveda perspectives in modern time existing diseases*
[10/11, 12:42 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Sometimes , we may be confused pattika grahani with paittika atisaara.
[10/11, 12:42 PM] Dr.Satish Jaimini, Jaipur:
गुरुदेव ओझा जी सर एक निवेदन और है कि वातज ग्रहणी दुष्टि में trushnadi घृत उपलब्ध न हो तो हिंग्वाष्टक को घृत के साथ दे सकते हैं क्या मुझे ऐसा प्रतीत होता है इससे भी विश्वकव्रजती को कुछ राह आसान हो जायेगी🙏🙏
[10/11, 12:44 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
दे सकते हैं, वातिक गुल्म के संदर्भ को देखें
[10/11, 12:47 PM] Vd Raghuram Shastri, Banguluru:
Application and understanding of grass root basics is essential🙏🙏Your explanation in terms of Amashaya and Grahani and mention of peptic ulcers occuring in inflammatory bowel diseases clarifies things and gives direction of understanding interlocked phenomenas and drawing line of difference🙏🙏 Thanks sir
[10/11, 12:49 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
The presence of dyspepsia always needs to note whether it's due to ulcer or non ulcer..
[10/11, 12:49 PM] Vd Raghuram Shastri, Banguluru:
In fact my query was for my clarification and for your approval guruji. I m a learner in your institute🙏💐❤
[10/11, 12:50 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
But Ayurveda deals with maximum causes of ajeerna..
[10/11, 12:51 PM] Dr.Satish Jaimini, Jaipur:
गुरुजी ulcerative colitis में रक्तपित्त की चिकित्सा दे सकते हैं क्या जहाँ bleeding हो🙏🙏
[10/11, 12:51 PM] Dr.Satish Jaimini, Jaipur:
पिप्पलीमुल भी सर🙏🙏
[10/11, 12:52 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Correct ulceration , correct the underlying cause , correct your approach to understand diseases
[10/11, 12:56 PM] Prof.bSatyendra Narayan Ojha Sir:
रक्तपित्त और जीवादान में अन्तर समझे*
*कृपया च.सि.६/७८-८४ देखें*
*सभी रक्तस्राव रक्तपित्त नहीं होते*
[10/11, 1:00 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
च.चि.१५/१३० , पैत्तिके ग्रहणीदोषे रक्तं यद् च रक्तं उपवेश्यते ➡️ नागराद्यं चूर्णम्.
[10/11, 1:07 PM] Dr.Satish Jaimini, Jaipur:
जी गुरुजी ये मैंने देखा तो था लेकिन तवसम्मतमयद होने के बाद बात मजबूत हो जाती है🙏🙏
[10/11, 1:10 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
च.चि.१९/६९-१०१, कुल ३३ श्लोक रक्तातिसार के लिये वर्णित है, कृपया देखें.
कहीं भी रक्तपित्त शब्द का प्रयोग आचार्य ने नहीं किया है..
[10/11, 1:13 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
रक्तपित्त और अन्य रक्तस्राव जनीत व्याधियो मे व्यवच्छेद निदान महत्त्वपूर्ण है.
दुःख है की हम संहिताओ से दूर भाग रहे हैं, हमने उनके चिकित्सकीय महत्त्व को समझा ही नहीं..
[10/11, 1:19 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
पित्तातिसारी + एतां क्रियां मुक्त्वा + पित्तलानि अन्नपानानि निषेवते ➡️ तस्य महाबलं पित्तं ➡️ रक्तं प्रदूषयेत् ➡️ आशु रक्तातिसारं तु कुर्यात्..
[10/11, 1:28 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
रक्तपित्त, च.चि.४ में देखें
*तैर्हेतुभि: ➡️ समुत्क्लिष्टं पित्तं ➡️ रक्तं प्रपद्यते ➡️ तद्योनित्वात् प्रपन्नं च ➡️ वर्धते तत् प्रदूषयत् ➡️ तेन पित्तोष्मणा स्विद्यमानधातुभ्यश्च्युतेन द्रवरुपेण धातुना युक्तं सपित्तं भूयोऽतितरां वृद्धिं गच्छति इति योजना ➡️ रक्तपित्त*
[10/11, 1:30 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
अति सुंदर व्याख्या , मन प्रसन्न होते हैं, यदि मन का इन संदर्भो से सम्पर्क किया गया है..*
[10/11, 1:49 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*ul. colitis के अनेक रोगियों में पित्तातिसार, रक्तातिसार और ग्रहणी रोग ये इस रोग की जीर्णता को प्रदर्शित करते है, पहले तो ये रोग जाठराग्नि तक ही संबधित रहते है तब इनमे अन्न रस की दुष्टि रहती है पर जैसे जैसे रोग जीर्ण होता जाता है तब रस और रक्त धातु की दुष्टि और धात्वाग्निमांद्य के लक्षण मिलने लगते है और रोग पूर्ण रूप से उपरोक्त रोगों का मिश्रित स्वरूप जीर्ण पुरीषवाही स्रोतोदुष्टि जन्य रक्त युक्त मल अर्थात ulcerative colitis धारण कर लेता है, श्रीयुत् आचार्य सतीश जी।*
[10/11, 2:02 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*हम जो भी दे आयुर्वेद में देते है उसके लिये हमारे पास दो कारण होने चाहिये ..*
*ये क्यों दे रहे हैं ?*
*और क्या तथा कैसे काम करेगा ।*
*चिकित्सा मे हमारे पास इसका स्पष्ट जवाब होता है और इसी को विज्ञान कहते है, आयुर्वेद पूर्ण विज्ञान है इसमें कार्य-कारण वाद का होना ही वैज्ञानिकता सिद्ध करता है कि जो हुआ उसके पीछे कारण है। वही कारण तो जानना है और जब पता चल गया तो निदान परिवर्जन तथा साथ में कार्य-कारणानुसार थोड़ी सी औषध। कितना सरल तो है आयुर्वेद आचार्य जी।* 🙏🌹🌺
[10/11, 2:09 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*आयुर्वेद एवं आधुनिकता का श्रेष्ठ समन्वय, नई पीढ़ी इस प्रकार भली प्रकार से व्याधि को समझ पाती है।*
[10/11, 2:12 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*बहुत महत्वपूर्ण विषय लिया है आपने सर, पर यहां सदस्य अपना उत्साह नही दिखाते क्या करें ?*
[10/11, 2:24 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
आचार्य चरकोक्त रक्तपित्त को मैं Bleeding disorders & coagulopathy (ग्रथित रक्त) से तुलनात्मक अध्ययन करता हूं.
Coagulopathy के लिये अलग से रक्तावृत वात, वातरक्त भी देखना चाहिए.
[10/11, 2:27 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
DIC को कफज रक्तपित्त में जब रक्त स्कंदित, घनीभूत एवं मांसपेशी प्रभ होता है, से तुलना कर सकते हैं..
[10/11, 2:29 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
*रक्त संघात अर्थात् coagulation , रक्त संघात जन्य विकार अर्थात् coagulopathy*
चिकित्सा➡️ रक्त संघात भिन्नत्ति⬅️ कटु द्रव्य
[10/11, 3:39 PM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar: अद्भुत क्लास
🙏🙏
[10/11, 3:40 PM] Dr.Rajeshwar Chopde:
I treated 2 cases of ul. Colits with Matrabasti with self prepared Jatyadi Tail 30-50 ml graduly increased in the morning & Siddha Ksheerbasti with Vatankur 10-15, yastimadhu 10 gm & Pippali 500mg in the evening after food
[10/11, 3:55 PM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar:
Good evening sir.
Thanks for the daily guidance.
This is a very interesting condition.
Pitta aavritta samaan
Here the pitta gunas increase first then they suppress the samaana vaata karma resulting in decreased pitta karma (ऊष्मा का उपघात).
So in th ZE syndrome even if there is ऊष्मा उपघात even then also there is manifestation of ulcer etc due to the increase of gastric acid due to the over stimulation of pancreas.
Is that a right understanding sir?
I clearly understand that Ushma and Pitta are not the same.
Want to clear the doubt...🙏
[10/11, 5:04 PM] Dr.Rajeshwar Chopde:
In this case this Basti is given for 3 months with Parpati kalpa & Kutaj Ganawati & Bilwa murabba for 6 months, uptill since 15 yrs pt has no recurrence
[10/11, 5:18 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Pawan ji
Gastrinoma ➡️Gastrin secreting tumar ➡️ hyperchlorhydria➡️ peptic ulcer.
*A gastrinoma is a tumor usually in the pancreas or duodenum (the first segment of the small intestine) that produces excessive levels of the hormone gastrin, which stimulates the stomach to secrete acid and enzymes, causing peptic ulcers. These tumors arise from cells in the pancreas that produce gastrin.*
[10/11, 5:26 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Hyperchlorhydria➡️ acidic pH of intestine⬅️ to counter acidic pH , secretion of bicarbonate ➡️ विकार विघात अभाव➡️ acidic pH of intestine ➡️ अग्न्यत्तेजनाभावात् ➡️ inactive enzymes ➡️ ऊष्मण उपघातो ज्ञेय: ➡️ indigestion and malabsorption.
[10/11, 5:40 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Dr.Rajeshwar ji
Treatment plan as per underlying pathology.. ✅👌🌹☺️
[10/11, 5:58 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Inflammatory bowel diseases may manifest hematemesis , melaena and hematochezia , see treatment plan in such cases..
*न्यग्रोधोदुम्बराश्वत्थशुङ्गानापोथ्य वासयेत् , ९९.*
अहोरात्रं जले तप्ते घृतं तेनाम्भसा पचेत् , तदर्धशर्करायुक्तं लिह्यात् सक्षौद्रंपादिकम् , च.चि.१९/१००.
*अधो वा यदि वाऽप्यूर्ध्वं यस्य रक्तं प्रवर्तते.*
[10/11, 6:01 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
*Professor Madhav Diggavi Garu, rightly said that making clinical application of guna karmaadi is to be learnt from Vaidyaraja Subhash Sharma ji* 🙏🙏👌👌✅✅🌹🌹
[10/11, 6:03 PM] Dr.Rajeshwar Chopde:
Thanku boss
[10/11, 6:04 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
You should be impressed with combination
[10/11, 6:05 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
*easily availablity and easy to administer*
[10/11, 6:17 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Ji , it's great combination to heal ulcer and prevent bleeding..
[10/11, 6:20 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
But , here Ghrita kalpa is mentioned and that too should be used with honey...
[10/11, 6:20 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
With sharkara too
[10/11, 6:22 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Ghrita, honey and sharkara not only help in healing ulcers but also responsible for santarpana..
[10/11, 6:25 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Understanding of purpose behind combination , making Ghrita kalpa and administering with sharkara and honey should be helpful..
[10/11, 6:28 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
Shatavari ghrit mentioned in yonivyaapat is indicated in raktaja atisaara not that one mentioned in raktapitta, pichchha basti mentioned in arsha is different than pichchha basti mentioned in atisaara
[10/11, 6:42 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
*Making formulation as per underlying pathology is sine qua non of Charak Samhita*
[10/11, 6:50 PM] Dr.Kapil Kapoor Sir:
घृत +
शर्करार्ध + क्षौद्रपादिकम् ।।
🙏🏻💐
[10/11, 6:56 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*बढ़ी अच्छी व्याख्या की है आपने सर, चरक के योगों पर जितना अधिक कार्य करते हैं आगे आगे और मार्ग प्रशस्त होते जाते हैं* 👌🙏🌹
[10/11, 8:00 PM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:
Like shatapalghritam.
There are recomandation to prepare "shatapalghritam" with Anupan dravya insted of Ksheer Shatpal Ghritam.
Prefixid with Anupan drava.Rogadhikar badaljata.
Like Dashmool Shatpal Ghritam.and ashtanga hridaya me aate aate.
Putikadaru Dashmool shatpalam is "ghritamindukantam" jise adyatve Imunobooster batarahe.....😁🙏🏼
[10/12, 1:12 AM] Dr.Shekhar Singh Rathore Jabalpur:
Excellent 🌹🙏🏻🙏🏻
As always.
ग्रुप में अनावश्यक पोस्ट्स की भरमार आजकल चल रही है। 2 - 3 सौ ऐसी पोस्ट्स डिलीट करने के बाद इत्मीनान से अभी आपका लेखन पढ़ा। इतनी पुस्तकें फिजियोलॉजी की होनेबपर भी, ऐसा प्रेजेंटेशन किसी मे नही मिलता।।
धन्योहम।।
कृपया धृष्टता ना समझें 🙏🏻 छोटा सा निवेदन है - अम्ल रस का संगठन सुश्रुत और चरक में समान, याद आता है मुझे।
प्री पी जी की तैयारी के समय मेरी एक मित्र से शर्त लग गई थी इस बात पर। मैं हिंदी टीका से पढ़ रहा था, उसमे सुश्रुत का मत अलग बताया था, किंतु मूल में चरक के समान ही था।।
क्या सुश्रुत में अन्य स्थल पर ऐसा मतांतर मिलता है ?
🙏🏻🙏🏻
[10/12, 1:33 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*चरक और सुश्रुत का पूरा ref. अम्ल रस के भौतिक संगठन का दीजिये कृपया।* 🙏🙏🙏
[10/12, 6:51 AM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar:
प्रणाम सर !
सुप्रभात !
इसका अर्थ ये हुआ के यहां पित्तवृद्धि तो होती है पर ऊष्मा का उपघात भी होता है।
🤔
[10/12, 8:13 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
*प्रणाम पवन भाई*. 🌹🌹
*शुभ प्रभात वैद्यराज सुभाष शर्मा जी एवं आचार्य गण नमो नमः ॐ नमः शिवाय*
🙏🙏
निश्चित रुप से, पित्त के अम्ल गुण और द्रव गुण वृद्धि, द्रवत्व से ऊष्मा का उपघात और अतिसार सदृश लक्षण ,और अम्लाधिक्य से peptic ulcer की उत्पत्ति.
[10/12, 9:27 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
The same happens in zolinger Ellison syndrome ➡️ hyperchlorhydria➡️ increased intestinal secretion due to acidic pH ➡️ inactive enzymes ➡️ indigestion and malabsorption➡️ diarrhoea & steatorhea (uncommon ).
[10/12, 9:28 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
*I always believe in one health science with various ways of learning, understanding and interpretation*
[10/12, 9:38 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
*आचार्य चक्रपाणि; द्रवत्वादूष्माणमुहत्येति यद्यपि पित्मुष्णमग्ने: समानतया वर्धकं भवतिति युज्यते, तथाऽपि द्रवत्वादूष्माणमाग्निरुपं हन्तीत्यर्थ:* ..
*तत् (पित्तं) प्रकुपितं ➡️ औष्ण्याद् द्रवत्वात् सरत्वाच्च ➡️ increased intestinal volume➡️ भित्त्वा पुरीषम् ➡️ अतिसाराय प्रकल्पते*..
[10/12, 9:39 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha Sir:
*वैद्यराज पवन मदान जी* ⬆️⬆️
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday (Discussion)" a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
Presented by
Vaidyaraj Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by
Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
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