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Case-presentation series: Malignant Tongue Ulcer(घातक जिह्वार्बुद) by Vaidyaraja Subhash Sharma

[10/24, 01:12] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:

 *case presentations - 

जिव्हा व्रण एवं प्रसरणशील कैंसर की आयुर्वेदीय चिकित्सा व्यवस्था *

www.kayachikitsagau.blogspot.com

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*कैंसर एक असाध्य व्याधि है जिसमें चिकित्सा के भिन्न भिन्न तल या stages है, कैन्सर, प्रसरणशील जिव्हा व्रण या मुख में होने वाले व्रण इनके प्रसरण को रोकने में हम अपनी चिकित्सा में इस तल पर अपना व्यक्तिगत अनुभव दे रहे हैं।*


*रूग्णा की यह स्थिति लगभग दो वर्ष से चल रही थी, जिव्हा में व्रण, अम्ल, लवण और कटु रस से मुख में पीड़ा युक्त असहिष्णुता, जिव्हा में पाक और आहार प्रवेश में कठिनता । FNAC में malignant cells के साथ ??? प्रश्नवाचक चिन्ह लगा दिया और biopsy के लिये भेजा गया जिसे रूग्णा के परिजनों ने कराया नही।*

[10/24, 01:12] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*squamous cell carcinoma जिव्हा के कैंसर का सर्वाधिक मिलने वाला प्रकार है। इस प्रकार का कैंसर मिलने का स्थान त्वचा की सतह पर मुख, नासा, स्वरयंत्र, थायरॉयड और गले में श्वसन और पाचन तंत्र की lining हैं।*


*जिव्हा के कैंसर के आरंभिक चरणों में विशेष रूप से जीभ के आधार पर कैंसर के साथ कभी कभी  कोई लक्षण दिखाई भी नही देते तथा जिव्हा के कैंसर का सबसे आम प्रारंभिक लक्षण जिव्हा  पर एक व्रण है जिसका रोपण नहीं होता, कभी रक्त स्राव भी होता है तथा मुख या जिव्हा में कभी पीड़ा भी उत्पन्न हो जाती है।*

*जिव्हा पर एक रक्त या श्वेत वर्ण का पैच बना रहता है,जिव्हा में व्रण बन जाता है, आहार निगलते समय पीड़ा, मुख शून्यता, गल प्रदेश में एक भिन्न सी कर्कशता, बिना किसी स्पष्ट कारण के जिव्हा  से रक्त स्राव, जिव्हा पर किसी ग्रन्थि का निर्माण आदि लक्षण मिल सकते हैं।*


*अनुक्त व्याधियों पर हम अपना मत और अनुभव दे कर चल रहे है।आयुर्वेद की चिकित्सा में अनेक बार हमारे पास ऐसे अनेक रोगी आते हैं जो radiotherapy या chemotherapy ले चुके हैं या उपद्रवों के भय से इस चिकित्सा से बच रहे हैं। दोनो ही स्थितियों में रोग पुनः उत्पन्न ना हो, जहां स्थित है वहीं स्तंभित हो जाये अथवा रोग कम हो कर शेष जीवन दीर्घकालीन और सुखपूर्वक बन जाये यह रोगी और उसके परिजनों की इच्छा रहती है।इसमें हम आयुर्वेद के माध्यम से क्या योगदान दे सकते हैं इस पर सब चिकित्सकों का अपना निजी ज्ञान और अनुभव होता है।इसका एक क्षेत्र कि व्याधि की वृद्धि ना हो और यथा संभव उसे कम कर के रोग सक्रियता को प्रतिबंधित कर दिया जाये,जो हम अपनी चिकित्सा कार्य में लेते है उसका अनुभव share करेंगे।*


*कैसे समझें आधुनिक समय में होने वाली अपरिसंख्येय अनुक्त व्याधियों को .....?*


*प्रथम दृष्टि में कैंसर रोग की तुलना आयुर्वेदीय अर्बुद से अधिकतर विद्वान करते है जो मेरे निजी मत से उचित नही क्योंकि आधुनिक समय में अवयवों में मिलने वाले कैंसर अनुक्त रोग है और आयुर्वेदोक्त अर्बुद साधारण या सामान्य अर्बुद की श्रेणी के हैं कैंसर नही, 

'गात्रप्रदेशे क्वचिदेव दोषाः सम्मूर्च्छिता मांसमभिप्रदूष्य वृत्तं स्थिरं मन्दरुजं महान्तमनल्पमूलं चिरवृद्ध्यपाकम्, कुर्वन्ति मांसोपचयं तु शोफं तमर्बुदं शास्त्रविदो वदन्ति वातेन पित्तेन कफेन चापि रक्तेन मांसेन च मेदसा च ' 

सु नि 11/13-14 

ये अर्बुद त्रिदोष,मांस और मेद के हैं तथा ग्रन्थि के समान ही है जो शनैः शनैः वृद्धि करते है, स्थिर, गोल, अल्प पीड़ा युक्त, गभीर धातुगत और पाक ना होने वाले हैं। आधुनिक विद्वानों के अनुसार साधारण अर्बुद एक कोष से उत्पन्न होते हैं जिसमें छेदन से सब का निर्हरण किया जा सकता है, अर्बुद प्रायः एक ही मिलता है, सामान्यतः इनमें व्रण की उत्पत्ति नही होती और रक्त स्राव भी नही होता, वृद्धि चिरकालीन होती है, शरीर पर विशिष्ट घातक नही होते अगर मर्म स्थान या स्वर यन्त्र में इनकी उत्पत्ति ना हो तब तथा समीपस्थ धातुओं सदृश इनकी रचना मिलती है।*


*वर्तमान की अनुक्त व्याधि कैंसर आचार्य सुश्रुत के रक्तार्बुद 

'दोषः प्रदुष्टो रुधिरं सिरास्तु सम्पीड्य सङ्कोच्य गतस्त्वपाकम्, सास्रावमुन्नह्यति मांसपिण्डं मांसाङ्कुरैराचितमाशुवृद्धिम्, स्रवत्यजस्रं रुधिरं प्रदुष्टमसाध्यमेतद्रुधिरात्मकं स्यात्, रक्तक्षयोपद्रवपीडितत्वात् पाण्डुर्भवेत् सोऽर्बुदपीडितस्तु ' 

सु नि 11/15-16 

लक्षणों से भी भिन्न हैं क्योंकि वर्तमान समय में रोगियों में मिलने वाला कैंसर अत्यन्त तीव्र गति से वर्धन करता है अर्थात द्रुत गति से प्रसरण शील जो वात के चल और सर गुण से संबंधित है।यह समस्त धातुओं में पहुंच कर अपनी स्थिति नियत कर लेता है। अगर इसे शल्य कर्म से छेदन कर के निकाल भी दें तो पुनः उद्भव संभव है, यह आवरण मुक्त होता है अर्थात इस पर किसी प्रकार का आवरण नही होता,यह अत्यन्त बलवान होने से एक होते हुये भी अन्य सभी स्रोतस और अव्यवों में secondary deposits या metastatic उत्पत्ति करने का बल रखता है, त्वचा को दूषित कर व्रणोत्पत्ति भी कर देता है जिस से अति रक्तस्राव जन्य पांडुता, भय, अवसाद तथा अनेक विकार संभव है,अनेक रोगियों में आमोत्पत्ति जन्य संग दोष कैंसर का हेतु मिलता है तथा यह कैंसर आम विष को घोर अन्न विष बना देता है 

'अरोचकोऽविपाकश्च घोरमन्नविषं च तत्' 

च चि 15/46 

यहां इस आम विष की विषाक्तता इतनी लिखी है कि इसे घोर अन्न विष कहा है और जब 

'रसादिभिश्च संसृष्टं कुर्याद्रोगान् रसादिजान्' 

अर्थात जब यह आम विष रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि मज्जादि धातुओं से युक्त होता है तो उन उन से संबंधित रोगों को उत्पन्न कर देता है।विष पर पिछले दिनों हमने लिखा भी था कि विष के 10 गुण 

'लघु रूक्षमाशु विशदं व्यवायि तीक्ष्णं विकासी सूक्ष्मं च, 

उष्णमनिर्देश्यरसं दशगुणमुक्तं विषं ...' 

च चि 23/24 

अर्थात लघु रूक्ष आशु विशद व्यवायी तीक्ष्ण विकासी सूक्ष्म उष्ण और अनिर्देश्य रस जिस रस का कोई नाम नही बताया जा सकता, ये दस विष के गुण हैं। विष रूक्ष होने से वात, उष्णता से रक्त और पित्त, तीक्ष्णता से मति भ्रम, सूक्ष्म गुण से सर्वशरीर गत प्रवेश करता है, व्यवायी से सर्वशरीर में प्रसरण करता है, विकासी होने से दोष-धातु-मलों का नाश करने लगता है, विशद होने से स्थिर नही रहता, लघु होने से चिकित्सा सरलता से नही हो पाती तथा अविपाकी होने से इसका भेदन कठिनता से होता है, कैंसर में यह घोर अन्न विष तीनों दोषों को अत्यन्त प्रकुपित करता है । इसीलिये लाक्षणिक चिकित्सा कितनी भी दें बिना आम विष की चिकित्सा और निर्हरण के रोगियों को या तो क्षणिक लाभ मिलता है अथवा विष उत्तेजित हो कर तीव्र गति से प्रसरण करता है और कैंसर सदैव शरीरगत रहता है।*

[10/24, 01:12] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*नास्ति रोगो विना दोषैर्यस्मात्तस्माद्विचक्षणः अनुक्तमपि दोषाणां लिङ्गैर्व्याधिमुपाचरेत् ' 

सु सू 35/19 *

*रोगा येऽप्यत्र नोद्दिष्टा बहुत्वान्नामरूपतः तेषामप्येतदेव स्याद्दोषादीन् वीक्ष्य भेषजम् ' 

च चि 30/291*

*दोषदूष्यनिदानानां विपरीतं हितं ध्रुवम् उक्तानुक्तान् गदान् सर्वान् सम्यग्युक्तं नियच्छति' 

च चि 30/292*

*इन तीनों संदर्भो का भावार्थ समझें तो जो भी रोगोत्पत्ति होगी वो बिना दोषों की संलग्नता के नही होगी और अनंत अज्ञात रोग सामने आते रहेंगे क्योंकि रोग अपरिसंख्येय हैं वो नाम से संहिता ग्रन्थों में नही मिलेंगे तथा यह भी संभव है कि जब रोगी सामने हो तो चिकित्सक को स्मृति अल्पता से रोग का नाम ही ध्यान में ना आये तो इन कारणों से रोग निदान और रोग ज्ञान की प्रक्रिया में कोई बाधा ना आये ।अनुक्त रोग दो प्रकार से होते हैं एक कि रोग तो ज्ञात है पर विधिवत उसका निदान नही हुआ और दूसरा सर्वाधिक नवीन रोग जिसका उल्लेख कहीं संहिता ग्रन्थों में मिलता ही नही।*


*इसी के लिये भिषग् को रोग के हेतु, दोषों के ज्ञान में कुशलता, दोषों की अंशाश कल्पना, दूष्य, स्रोतस, स्रोतस की दुष्टि का प्रकार, व्याधि का उद्भव स्थान और अधिष्ठान, अग्नि की दुष्टि किस प्रकार की है आदि सहित दोष-व्याधि विपरीत आहार और औषध का ज्ञान आवश्यक है जिसके आधार पर ये सब चयन कर रोग को समाप्त कर सकते है। जैसे वर्तमान की सर्वाधिक चर्चित व्याधि covid 19 में दोष-व्याधि विपरीत चिकित्सा से आयुर्वेद द्वारा लाभ दिया गया।*


*शारीरिक अवयवों में होने वाले कैंसर की तुलना अनेक आयुर्वेदज्ञ अर्बुद से करते रहे हैं हैं पर आयुर्वेद में जो आठ महागद बताये हैं उनमें तो अर्बुद सदृश स्थिति  है ही नही और चरक ने तो अर्बुद को शोथ रोग में ही लिया है।कैंसर असाध्य है पर शोथ असाध्य नही । यदि अवयवों में यकृत और प्लीहा वृद्धि देखें, गलगण्ड या ग्रन्थि रोग देखें तो यह अर्बुद नही है पर दिखने में वैसे ही हैं और स्वतन्त्र रोग हैं। सुश्रुत में प्रदुष्ट मांस का वर्णन अवश्य मांसार्बुद में आया है।*


*यदि अवयवों होने वाले कैंसर को अगर हम कैंसर ही नाम दें जैसे यकृत कैंसर, गर्भाश्य कैंसर, जिव्हा कैंसर आदि तो सभी सम्प्राप्ति अलग अलग प्रकार से इस प्रकार बनेगी....*


*दोषों के अनुसार मुख्यतः 7 प्रकार जैसे 

वातज, 

पित्तज, 

कफज, 

वातपित्त, 

वातकफ, 

पित्तकफ और 

त्रिदोषज, 

इसके अतिरिक्त दोषों की उल्वणता के आधार पर अनेक प्रकार भी बनेंगे, धातुओ और सुविधानुसार आप इनका नामकरण मांसार्बुद myoma, मज्जार्बुद myeloma, अस्थ्यार्बुद osteoma, त्वक् अंकुर अर्बुद papilloma, वसार्बुद lipoma आदि रख सकते है पर कैन्सर सभी त्रिदोषज ही होते हैं तथा होगा कोई एक या दो दोष प्रधान, इन सभी प्रकारों के विस्तृत ज्ञान का चिकित्सा में बहुत महत्व है।*


*कैंसर कहीं भी हो उत्पन्न होने के बाद 2 गुण इसमें अत्यन्त प्रभाव रखते हैं वह है चल और सर जिनके कारण यह शीघ्र प्रसरण शील बन जाता है। सर गुण सदैव अधोगामी होता है और चल गुण में आकाश, वायु और अग्नि प्रधान होते हैं, अग्नि के कारण चल गुण उर्ध्वगामी होता है  और सामान्य cells का वायु के साथ मिलकर शीघ्रता से प्रसरण और दहन करता है और इसके इस प्रसरण गुण को रोकना चिकित्सा में हमारा पहला लक्ष्य बनता है जिसका अवरोध करता है  कषाय रस ,

 'कषायो रसः संशमनः सङ्ग्राही सन्धानकरः पीडनो रोपणः शोषणः स्तम्भनः श्लेष्मरक्तपित्तप्रशमनः शरीरक्लेदस्योपयोक्ता रूक्षः शीतोऽलघुश्च' 

च सू 26/43

 कषाय रस दोषों का शमन करता है, संधान करने वाला और संग्राही, अगर व्रण हो तो उसकी पूय को बाहर निकालता है, रोपण कर्म करता है, शोषण कर के सुखाता है, कफ, रक्त और पित्त का प्रशमन करता है, शरीर में क्लेद का चोषण कर लेता है, रूक्ष, शीत और लघु होता है। इस रस की विशेषता है कि यह वायु और पृथ्वी महाभूत से बनता है। जब cancer का प्रसरण होता है तो वायु का योगवाही स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है जिसमें वह अनेक रोगियों में पित्त के आग्नेय गुण के संपर्क में आ कर शीत गुण त्याग कर उष्णता धारण कर लेती है और रोग उर्धवगामी हो कर चारों तरफ प्रसरण करने लगता है। कषाय रस शीत है, स्तंभक है और पार्थिव गुण युक्त होने से cancer की गति को विराम लगा देता है।*

[10/24, 01:13] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*चिकित्सा हेतु कषाय रस हमें कुछ द्रव्यों में मिलेगा जिनमें प्रमुख है ....*


*मौलश्री -  

'बकुलस्तुवरोऽनुष्णः कटुपाकरसो गुरुः कफपित्तविषश्वित्रकृमिदन्तगदापहः' भाव प्रकाश पुष्प वर्ग 33, 

यह  कषाय रस में श्रेष्ठ है किंचित ही उष्ण है, यह रोग का स्तंभन करेगी ।इसकी वृक्ष त्वक और फल दोनों का उपयोग हम करते हैं।*


*शरपुंखा - 

शरपुङ्खः प्लीहशत्रुर्नीलीवृक्षाकृतिश्च सः शरपुङ्खो यकृत्प्लीहगुल्म व्रणविषापहः तिक्तः कषायः कासास्रश्वासज्वरहरो लघुः' 

भाव प्रकाश गुडूच्यादि वर्ग 219, विभिन्न रोगों सहित कुछ असाध्य रोगों के प्रसरण में अवरोध लगाने की यह हमारा प्रिय द्रव्य है  और कषाय, तिक्त और लघु होने के साथ यकृत, प्लीहा, व्रण, गुल्म जैसे रोगों के लिये अमृत है।शरपुंखा किंचित उष्ण है पर यह अल्प उष्णता हम इसे फलत्रिकादि क्वाथ में मिलाकर देते हैं तो फलत्रिकादि क्वाथ दूर कर देता है।*


*कांचनार - 

'काञ्चनारो हिमो ग्राही तुवरः श्लेष्मपित्तनुत् कृमिकुष्ठगुदभ्रंश गण्डमालाव्रणापहः' 

भा प्र गुडूच्यादि वर्ग 103 , 

इसकी छाल रसायन होने के साथ शोधन और रोपण दोनों कर्म करती है, मुख में लालास्रावी ग्रन्थियों पर इसका विशिष्ट प्रभाव मिलता है तथा त्वचा पर इसका कार्य अति प्रशंसनीय है।*


*भल्लातक - 

'भल्लातकफलं पक्वं स्वादुपाकरसं लघु कषायं पाचनं स्निग्धं तीक्ष्णोष्णं छेदिभेदनम् ' 

भा प्र हरीतक्यादि वर्ग 229, 

यह हमारा सर्वप्रिय द्रव्य है जो radio active गुण कैंसर कि चिकित्सा में रखता है। चरक में इसे कषाय स्कंध में रखा गया है, यह कषाय, मधुर, लघु, उष्ण, तीक्ष्ण और छेदन-भेदन करने वाला आग्नेय द्रव्य है।*


*त्रिफला - 

यह भी कषाय रस प्रधान है, इसके क्वाथ का प्रयोग हम स्फटिका भस्म मिलाकर गंडूष और कवल धारण के रूप मे करते हैं।*


*स्फटिका - 

'स्फटिका तु कषायोष्णावात पित्तकफव्रणान् निहन्ति श्वित्रवीसर्पान् योनिसङ्कोचकारिणी' 

भा प्र धात्वादि वर्ग 142 , 

कषाय रस प्रधान होने के साथ संकोचक गुण युक्त है, त्रिदोष नाशक एवं व्रणों का शोधन और रोपण दोनों कर्म करती है।*


*खदिर - 

'खदिरः शीतलो दन्त्यः कण्डूकासारुचिप्रणुत्तिक्तः कषायो मेदोघ्नः कृमिमेहज्वरव्रणान्*

*श्वित्रशोथामपित्तास्रपाण्डुकुष्ठकफान् हरेत्' 

भा प्र वटादि वर्ग 30-31, 

यह कषाय और तिक्त रस प्रधान द्रव्य है जो तिक्त रस होने से सूक्ष्म स्रोतस तक पहुंचती है और कषाय रस इसका अनुगमन कर प्रसरणशील व्याधियों को नियन्त्रित करता है।*


*व्याधि प्रसरण के अवरोध के लिये सर्वप्रथम निदान परिवर्जन क्योंकि मुख के कैंसर का रोगी अगर तम्बाखू सेवन करता रहेगा तो चिकित्सा निष्फल है।*


*दीपन और पाचन द्रव्यों तथा आहार -विहार*

*रक्त, त्वक् (रस) तथा मांस धातु प्रधान धातु हैं ये किसी भी प्रकार से दूषित ना हो इनकी रक्षा।*


*जाठराग्नि, रक्ताग्नि और मांसाग्नि वर्धन।*


*कषाय रस प्रधान द्रव्यों का भिन्न भिन्न व्याधि अवस्थानुसार प्रयोग।*


*दीपन- पाचन- आहार -विहार आदि का प्रयोग, इन सब से आप परिचित हैं और हम पूर्व में लिखते भी रहे है तथा मौलश्री, शरपुंखा, खदिर, कांचनार, त्रिफला, स्फटिका, फलत्रिकादि क्वाथ का प्रयोग प्रधान औषध के रूप में अलग अलग संयोग और मिश्रण के अनुसार।*


*अन्त में भल्लातक तथा सहायक औषध के रूप में बीच बीच में आरोग्य वर्धिनी, सारिवा घन वटी, इरिमेदादि तैल, चमेली के पत्ते - चबाने हेतु, कत्था मुख मे लेपार्थ भी एक से दो दिन क्षणिक लाभ हेतु, विबंध होने पर समय समय पर कुटकी+हरीतकी का प्रयोग भी किया।*

[10/24, 03:06] Dr. Ravikant Prajapati M. D, BHU.: 


🙏🙇‍♂️प्रणाम गुरुजी 🌹

मैंने तो एक बूंद मांगी थी...... आपने तो सागर ही दे दिया ...... धन्य है हम लोग जिन्हें कायसंप्रदाय रूपी विश्वविद्यालय में आप जैसे गुरुजनों का सानिध्य और स्नेह मिल रहा है.......  मार्गदर्शन के लिए हृदय से आभार गुरुजी 🙏🌹🙇‍♂️

[10/24, 03:45] Dr Satish Sharma, Indore: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻


[10/24, 04:58] Dr. Balraj Singh, Hisar: 🙏🏻


[10/24, 05:27] Sanjay Chhajed Dr. Mumbai: 

बहोत ही सटिक और सुक्ष्मता के संग विवेचन। हमारे एम डी के प्रारंभिक काल में हमारे पिताजी को squamous cell carcinoma of Buccal Mucosa हुआ था। उसकी सफल आयुर्वेदिक चिकित्सा सेही हमारा शास्त्र पर विश्वास बढ गया जो आजिवन साथ रह रहा है।

हमने यही सोचकर की कफ के स्थान पर कफ का विकृत कार्य चल रहा है जहां समय पर कोशिकाओं की मृत्यु नहीं हो रही और वे अनायास अनियंत्रित बढ़ती जा रही है। *शिर्यते तत् शरीरम्* इस सामान्य सिद्धांत को छेद देकर शरीर की विशिष्ट कोशिका  बिना क्षरण के न सिर्फ बढ़ते जा रही है पर औरो को भी साथ लेकर चल रही है। यहां हम यही समझें थे की कोशिकाओं की स्मृति विभ्रंश हुयी है। मृत्यु की स्मृति नष्ट होने से यह विनाशकारी वृद्धी हो रही है।

तभी हमने स्मृतिवर्धक सुवर्ण (हिरण्य) श्रेष्ठ लेखन वज्र, वज्रसमान वैक्रांत, लेखनादी से उत्पन्न दाह को कम करने हेतु मौक्तिक और सहस्र्रपुटी अभ्रक एक योग स्वरुप में बनाकर ब्राम्ह रसायन के अनुपान से चटाया । साथमे भल्लातक सिद्ध क्षीर का उपयोग किया। दुध+ चावल, घी, मुंग की दाल, तरोई, दुधी सब्जी के रूप में। तैल , मिर्ची आदी विदाही पदार्थ वर्ज्य कीये। ४ महीने की चिकित्सा से, बादमें १ साल के सामान्य उपचारों से संपूर्ण स्वस्थ हुये। इस आशातित लाभ से हम भी बडे उत्साहित हुवे थे। बादमें १८ साल स्वस्थ रहें और नैसर्गिक मृत्यु को प्राप्त हुए। हां एक बात जरूर, हमारे परिवार के बाकी सदस्यों के अनुपात में उनकी आयु कम रही। पर आयुर्वेद पर हमारा विश्वास बढ़ा कर गये । हम अक्सर इस योग को दोषों के आधार पर कम अधिक करते हुए कैंसर रोगियों में यश के साथ प्रयोग करते हैं।

[10/24, 05:56] D C Katoch Sir: 

बहुत सुंदर कैंसर विवेचन आयुर्वेदिक शब्दावली में। धन्यवाद सहित रविवासरिए सुप्रभात !!🙏🏽🙏🏽

[10/24, 06:00] Dr. Mansukh Mangukia: 

🙏 गुरुवर आप की कैन्सर केस प्रस्तुति हमारे लिए और मेरे जैसे चिकित्सकको के होंसला बढ़ानेवाला एवं मार्गदर्शक रहेगा।

धन्यवाद गुरूवर 🙏

[10/24, 06:02] Vd V. B. Pandey Basti U. P: 

🙏इतना विस्तृत वर्णन। गुरूवर मेरा एक सुझाव या फिर निवेदन समझिए आप जो इस मंच पर लिखते हैं उस सब का बिना किसी छेडछाड के एक ब्लाग बनाया जाए आपके नाम से उससे भी बेहतर होगा एक प्रायोगिक व सैद्धांतिक आयुर्वेद (क्लीनिकल)नाम  से पुस्तक प्रकाशित कि जाए।🙏

[10/24, 06:05] Dr. Ravikant Prajapati M. D, BHU.: 

प्रणाम सर 🙏...... जटिल रोग पर आप श्री के द्वारा सफल चिकित्सा का अनुभव साझा करने के लिए .... आभार 🙏🌹

[10/24, 06:27] D C Katoch Sir: 

मैं समझता हूं किसी भी प्रकार के कैंसर का मूल हेतु क्षोभ है जिसे चिकित्साकलिका में तीसटाचार्य ने वातप्रकोपक हेतुओं में उल्लेखित किया है। यह क्षोभ भौतिक 

(physical), रासायनिक 

(chemical), तांत्रिक (Neurologic),  मानसिक (mental) और सहज या अर्जित ओजोदुष्टिजन्य (autogenic) भावों ( factors) से कोशिकाओं (cells) के निर्माण  को अव्यवस्थित कर देता है जिसके फलस्वरूप ग्रसित उत्तक (tissue) की अनियमित 

(random, irregular) वृद्धि ही कैंसर कही जाती है। आयुर्वेद दृष्टि से किसी भी प्रकार के कैंसर में सर्वथा वातशlमक चिकित्सा, आहार, विहारऔर मनोभाव सर्वदा अभीष्ट हैं और अपेक्षित भी। कैंसरहर या कैंसरशामक चिकित्सा में योगवाही व रसायनगुण संपन्न घृत के योगों का क्षोभ हेतु का प्रतिकार करने में महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसीलिए मैं कैंसर रोगियों को कोई न कोई औषधसिद्ध घृत अवश्य देता हूं।

[10/24, 06:30] Vd V. B. Pandey Basti U. P:

 बहुत बड़ी जानकारी वो भी सरल और सहज।

[10/24, 06:32] Vd V. B. Pandey Basti U. P: 

कल्याणक घृत क्या उचित होगा।

[10/24, 06:32] D C Katoch Sir: 

निश्चित रूप से

[10/24, 06:38] Dr Divyesh Desai: 

🙏🏽🙏🏽सुप्रभात सर्वे गुरुजनो एवं आयुर्वेद महर्षियो💐💐

आज गुरुश्रेष्ठ सुभाषसर एवं नाड़ी गुरु संजय सर का squamous cell carcinoma पर केस प्रेजेंटेशन से 

1)अनुक्त रोग में भी detail हिस्ट्री से सम्प्राप्ति बनाकर इसका विघटन करने से सफलता मिलेगी.

2) महागद में अर्बुद या कैंसर या हृदरोग, किडनी फेलियर आदि रोग नही बताया, इसका मतलब आयुरवेद में इन सभी रोगों का इलाज होगा ही।

3) कार्सिनोमा या कैंसर के अलग अलग स्टेज में दोषो की उलबणताके आधार पर द्रव्यों का चयन करना पड़ेगा

4) रस के 63 प्रकार का भेद का कौन से रोगों में और कैसे चयन किया जाता है उसकी सुभाषसर ने हिंट दी है।

5) सुभाषसर हमेशा आयुर्वेद के मूलभूत सिद्धांतो को समझ ने के लिए कहते है, इसके लिए पदार्थविज्ञान, पंचमहाभूत, गुणों की विकल्प सम्प्राप्ति, षडरसों का गुणधर्म .... इन सभी विषयों का ज्ञान होगा तभी आयुर्वेद चिकित्सा कर सकेंगे।

5) सुभाषसर के ज्यादातर काष्ठ औषध ही होते है, लेकिन जो द्रव्य use करते है, इन सबका रसपंचक ओर द्रव्यगुण का सम्पूर्ण (100%) ज्ञान होने से सटीक चिकित्सा कर सकते है।

6) संजय सर ने भी अपने पिता की केस प्रेजेंटेशन में रसौषधि का चयन क्यों किया और रसौषधि से शीध् लाभ मिल सकता है, ये बताकर हम सब का हौशला बढ़ाया है।

7) आगे दो तीन दिन पहले मैंने जो हमारे आचार्यो ने  रोगों के असाध्यता के लक्षणों को बताया है इसका कैंसर और मेटास्टेसिस से लेनादेना है इस प्रश्न का भी उत्तर भी अधिकांश मिल गया है

8) लगता है आगे सुभाषसर ने गुणों पे लिखा था और हम सब ने ज्यादा इंटरेस्ट नही बताया था, ये सारी बाबतों को सुभाषसर से वापिस शिखने की और डिसकस करनेकी जरूरत है..

आज का सुबह का सत्र ही ज्ञान उपार्जन से शुरू हुआ इस लिए दोनों गुरुओं को आभार और शत शत नमन💐💐💐जय आयुर्वेद, जय धन्वंतरि, जय चरकाचार्य

[10/24, 06:41] D C Katoch Sir: 

Physical irritation mein Shatavari Ghrit or Madhuyasthyadi Ghrit, Chemical irritation mein Guduchi Ghrit, Neurologic irritation mein Brahmi Ghrit or Saraswat Ghrit, Mental irritation mein Ashwagandha Ghrit or Panchagavya  Ghrit, Autogenic irritation mein Tiktak Ghrit, Jivantyadi Ghrit or Indu Ghrit or Triphla Ghrit.

[10/24, 06:42] D C Katoch Sir: 

उत्तम विवेचन और सुझाव

[10/24, 06:46] Dr Divyesh Desai: 

जो कैंसर के निदान और चिकित्सा के बारे में  आपका अनुभवजन्य ज्ञान हम सब के लिए प्रेक्टिस में बहुत उपयोगी होता है...

 कैंसर को समझने के लिए जो बातें  शेष रह गई थी इन बातों पर आपने अच्छी तरह प्रकाश डालकर हम सबको धन्य कर दिया है 🙏🏻🙏🏻आपको भी सर कोटि कोटि प्रणाम एवं

सुप्रभात👏🏻👏🏻💐💐

[10/24, 07:03] D C Katoch Sir: 

सच्चाई यह है कि हमारे अधिकतर चिकित्सक कैंसर जैसे आयुर्वेद में अनुक्त रोग की चिकित्सा आयुर्वेद के निदानचिकित्सात्मक सिद्धांतों के अनुसार नहीं करते। केवल ऐसे नुस्खों से प्रयास करते हैं जो chemotherapy या radiotherapy को ध्यान में रख कर केवल कैंसरनाश में प्रभावकर हों। परन्तु आयुर्वेद का वैशिष्ट्य रोगप्रक्रिया  और मूल हेतु को समझना है और तदनुसार हेतुविपरीत चिकित्सा अपनाते हुए व्याधि प्रक्रिया का  प्रतिकार कर संप्राप्तिविघट्टन द्वारा व्याधिविपरीत चिकित्साफल  

(positive clinical outcome) प्राप्त करना है।

[10/24, 07:11] D C Katoch Sir: 

आपने ऐसा शाश्वत और अनंत औषधज्ञान दिया है जो चिकित्साक्षेत्र में अतीव उपयोगी है यदि चिकित्सक विवेकपूर्वक अपने रोगियों की चिकित्सा करना चाहता है।

[10/24, 08:14] Dr Divyesh Desai: 

सर, न केवल कैंसर किन्तु हरेक रोगों में भी जैसे autoimmune, Neurological डिसऑर्डर में भी गुणों के आधार पर, (दोषो की वृद्धि क्षय या अंशांश कल्पना), षडविद्ध क्रियाकाल के अनुसार आयुर्वेद सिद्धांतो को अप्लाई करने से सफलता मिलती है, सर ऐसा है कि internship के दौरान आयुर्वेदके चिकित्सा क्रम 

निदानपरिवर्जन

लंघन, दिपन, पाचन, उद्वर्तन, लेपन,

स्नेहन, स्वेदन

संशोधन, संसर्जन

संशमन

ओर अपुनर्भव हेतु

रसायन / वाजीकरण 

इस क्रम से सम्पूर्ण चिकित्सा देखने का मौका ही नही मिला या मरीजो का followup मिलता नही इस लिए आयुर्वेद चिकित्सको को आत्मविश्वास की कमी रहती है..

जिस तरह काय सम्प्रदाय में केसों की डिसकस होती है ऐसे ही पढ़ाया जाय तो आयुर्वेद का भविष्य अति उज्जवल है।🙏🏻🙏🏻👏🏻👏🏻

[10/24, 08:18] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*रवि जी, काय सम्प्रदाय में आयुर्वेद के प्रति एक एक सीरियस और सक्रिय सदस्य के लिये हम तन, मन, धन से समर्पित हैं क्योंकि आप जैसे अनेक चिकित्सक ही भविष्य में आयुर्वेद को और और आगे बढ़ायेंगे।*

[10/24, 08:21] Dr. Mrityunjay Tripathi, Gorakhpur: 

Thanks sir ji pranam 🙏🙏 शुभप्रभात सर जी प्रणाम 🙏🙏

[10/24, 08:30] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*अत्यन्त उपयोगी अनुभव आचार्य संजय जी, आपने सही पकड़ा है cell का स्मृति विभ्रंश 👌👌 कल इस पर भी साथ ही लिख कर चला था पर delete कर दिया क्योंकि चेतनतत्व पर पहुंच गया था और वो बहुत विस्तृत । आयुर्वेद के आध्यात्मिक चिंतन से सब के मन के लिये वो गुरू (भारी) ज्ञान हो जाता। पर आपका कथन सही है क्योंकि DNA से cell बना और प्रत्येक केश को भी पता है किस आयु में जा कर श्वेत होना है, युवावस्था में पालित्य भी सेल का स्मृति विभ्रंश है। आयुर्वेद के मूल भाव को मूल प्रकृति (सत्व रज तम) प्रकृति और पुरूष के मूल ज्ञान के तल पर जा कर ही सूक्ष्मता से जाना जा सकता है।पुरूष चेतन तत्व है और प्रकृति निष्क्रिय - ध्यान से महत्व देखें को कितनी गूढ़ता है इसमें जो असाध्य रोगों में ले गई कि cell को सक्रिय करना है जिसका माध्यम द्रव्य बनेंगे ।*

[10/24, 08:43] Dr. Mansukh Mangukia: 

गुरुवर आप जैसे गुरु हो तो गुरु (समझ नहीं आता ऐसा विषय) को लघु (समझने में सहज) बनाने में कोई दिक्कत नहीं होगी ।

🙏🙏🙏

[10/24, 08:48] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*नमस्कार डॉ पाण्डेय जी, मैने तो घर के बाहर अपने clinic या नाम का  डिग्री के साथ कोई board भी नही लगाया और ना ही किसी मीडिया के माध्यम से जुड़ा हूं, प्रो. सुरेन्द्र सोनी जी ने यहां add कर दिया और फोन पर लिखना भी काय सम्प्रदाय में आने के बाद ही सीखा। सांय 6-7 बजे clinic से वापसी, sports club में 20 मिनट जॉगिंग फिर बैडमिंटन या 30 मिनट walk, घर में आ कर स्नान और meditation, 1995 में piano बजाना सीखा था उस पर एक घंटा नये पुराने गानों को बजाता अवश्य हूं , बढ़ी कठिनाई से देर रात्रि में काय सम्प्रदाय के लिये समय निकाल पाता हूं। मैं केवल अपने रोगियों और काय सम्प्रदाय के लिये ही समर्पित भिषग् हूं।अतः चाहकर भी आपका आदेश स्वीकार नही कर सकता 🌹❤️🙏*

[10/24, 08:53] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*अत्यन्त महत्वपूर्ण पक्ष को ले कर आये आप 'क्षोभ' जो वर्तमान समय में रोगों का प्रमुख हेतु है । इसकी चिकित्सा का आधार भी यही वातशामक एवं आहार विहार आदि 👌👍🙏 सही सटीक दिशा निर्देश आ. कटोच जी। नमो नमः *

[10/24, 08:57] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*सुप्रभात दिव्येश भाई, रात्रि या कल ही समय मिल सकेगा तब आपके इन पक्षों को संक्षिप्त में लेंगे।*

[10/24, 09:56] Dr Divyesh Desai: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻बेसब्री से इंतज़ार रहेगा ,गुरुजी...

[10/24, 10:05] Shantanu Das Prof KC: 

Sir we need ur guidance always..... Appropriate clinical presentation with results r rare... In spite of ur busy schedule try to shower ur blessings 🙏

[10/24, 10:14] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*आप मेरे परम प्रिय सदस्यों मे से एक हैं पाण्डेय जी, इसलिये क्षमा शब्द क्यों ? आपका तो स्नेह लिखने के लिये बहुत प्रेरित करता है ।* ❤️🌹🙏

[10/24, 10:40] Prof Giriraj Sharma: 

सादर नमन आचार्य श्री,,,

बहुत ही शास्त्रीय तार्किक सुफल चिकित्सा के साथ  अनुभत विवेचन आपने किया है ।

मेरे पारिवारिक एक सफल वैद्य अक्सर अपने अनुभव से कहा करते थे, जिव्हा पर श्वेत व्रण मांस रक्त कफ एवं मेद विकृति का लक्षण है एवं बहुत बार यह वातरक्त के रोगी में पूर्व रूप में मिलता है ।

वातरक्त एवं श्वेत व्रण 

मांस मेदज जिव्हा अर्बुद में श्वेत व्रण ,,,,


मेरी जिज्ञासा है कि जिव्हागत अर्बुद इस रोगी को वातरक्त जन्य लक्षण भी है क्या,,,,,


🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹🌹

[10/24, 10:53] D C Katoch Sir: 

कैंसर को कैंसर ही रहने दो, कोई आयुर्वेदिक नाम न दो। केवल कैंसर रोग से ग्रस्त रोगी की दोषज, धातुज, स्रोतज और ओजस विकृति को पूर्णरूप से  विश्लेषित कर के निदान पंचक द्वारा रोगस्थिति निश्चित करें । तत्पश्चात ही यथोचित आयुर्वेदिक चिकित्सा व्यवस्था की जा सकती है, जैसा आपने प्रस्तुत किया है।

[10/24, 11:06] Dr Divyesh Desai: 

जी, सर, वातरक्त के पूर्वरूप, रूप,उपद्रव भी काफी रोगों का सूचक है। शायद अष्टाङ्ग हृदय में सारे रोगों का वर्णन करने के बाद ही वातरक्त रोग बताया है ताकि जो रोगों का वर्णन बाकी रह गया है, उन सभी का समावेश इनके अंतर्गत किया जाए।।🙏🏻🙏🏻

जय धन्वंतरि आदरणीय गिरिराज सर💐💐

[10/24, 11:09] Dr. Satyam Bhargav, Jhansi: 

Acharya charak ne bhi vata vyadhi chikitsa k baad hi vatashonit ka varna kiya hai sir.

[10/24, 11:13] Dr Divyesh Desai: 

🙏🏻🙏🏻जी ,सर.. 

ये अध्याय पढ़ने के बाद ही रक्त को भी दोष मानने को  मन करता है🙏🏽🙏🏽

[10/24, 11:24] Dr Divyesh Desai: 

अष्टाङ्ग हृदय में वातरक्त के पूर्वरूपो को भी कुष्ठके पूर्वरूपो के सदृश  बताया है, ये पूर्वरूपो को देखेंगे तो लगता है कि वातरक्त कितने सारे रोगोका समूह है।

कुष्ठके पूर्वरूप:---

अति श्लक्षण खरः स्पर्श,

स्वेदास्वेद विवर्णता,

दाह कंडु त्वचि स्वापः

तोद कोठोन्नति भ्रमः,

व्रणानां अधिकं शूलं,

शीघ्र उत्पत्ति चिरः स्थिति,

रूढानाम अपि रुक्षत्वं

निमिते अल्प अतिकोपनम,

रोमहर्ष असृज कार्ष्णय

कुष्ठ लक्षणं अग्रजम।।🙏🏻🙏🏻

[10/24, 16:43] pawan madan Dr: 

प्रणाम गुरु जी।

आपने बहुत अच्छा बताया।

मैं काफी समय से इसी तरह से सोच रहा था।

कैन्सर आमविष की भान्ति व्यवहार करता है।

बहुत बहुत धन्यवाद।

💐💐

[10/24, 17:28] D C Katoch Sir: 

क्षोभकृत विकृति  व तत्फलस्वरूप दोषधातुस्रोतअवयव गत परिवर्तन (आमविष स्थिति) ही एक ऐसी विषैली प्रक्रिया प्रारंभ करते हैं जो कालांतर में कैंसर कहलाती है।

[10/24, 17:49] pawan madan Dr: 

Ji sir...point noted.🙏

[10/24, 18:35] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*सादर नमन आचार्य गिरिराज जी 🌹🙏 अगस्त में शायद इसकी अंतिम बार औषध कूरियर की गई थी तब ये पूर्ण स्वस्थ हो चुकी थी और मात्र कुछ मेदस्वी थी । आपने उचित जिज्ञासा प्रकट कर दी है तो पता अवश्य करेंगे।*

[10/24, 19:04] Dr. Sudha Sharma, Jind: 

आज का अनुभव--कैंसर के रोगी की चिकित्सा ठीक चलते चलते ज्वर आ गया, तापमान 105 तक  था, पैरासिटामोल से कम नहीं हो रहा था, रोगी एडमिट हो गया 10दिन तक एंटिबायोटिक्स लेने पर भी आराम नहीं हुआ, रोगी का  आयुर्वेदिक उपचार चल रहा था, अभी रोगी ब्रह्मा रसायन पर था, मैंने युक्ति से ऐसा लगा कि आम दोष की वृद्धि एवं पित्तज ज्वर का विचार कर षडंगपानीय आरंभ किया, साथ में गिलोय सत्व एवं गोदन्ती भस्म, दूसरे दिन ही ज्वर शमन हो गया, आप सभी का बहुत आभार, इस ग्रुप में सभी गुरुजनों का बहुत बहुत धन्यवाद🙏🙏आप सभी से प्रतिदिन कुछ नया सीखने को मिलता है🙏🙏

[10/24, 19:20] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*'वातरक्त की सम्प्राप्ति में 

'वायुर्विवृद्धौ वृद्धेन रक्तेनावारित: पथि' बढ़े हुये तथा दूषित रक्त द्वारा वायु का मार्ग रूक जाता है जिस से 

'कृत्स्नं सन्दूश्येद्रक्तं चज्जेयं वातशोणितम्' 

च चि 29/10-11 

इस प्रकार की स्थिति में वह वृद्ध वायुशरीर के सम्पूर्ण रक्त को दूषित कर देता है। वातरक्त के हेतु देखें तो प्रमेह रोग और वात़शोणित के अधिकतर निदान सामान्य है आनूप प्राणियों का मांस, सुकुमार, मिष्ठान्न मधुर पदार्थ, सुखभोजिनाम, दिवास्वप्न आदि 

(च चि 29/6-7) ।*

*यहां जो सम्प्राप्ति घटित हो रही है उसमें मार्गावरोध है जो स्रोतस का संग दोष है और और संग दोष आमविष सम्मूर्छना से होता है तो यहां रक्त साम है, सुश्रुत इसे और स्पष्ट करते हैं 'पादयोर्मूलमास्थाय कदाचितस्तयोरपि, आखोर्विषमिव क्रुद्धं तद्देहमुपसर्पति'  सु नि 1/48 

जिस प्रकार चूहे का विष एक स्थान पर प्रविष्ट सारे शरीर में फैलता है उसी प्रकार यह वात रक्त भी प्रसर करता है। वातरक्त के पूर्वरूपों में संधिशैथिल्य, आलस्य, गुरूत्वं (च चि 29/17) आदि आम दोष की स्थिति ही बताते हैं।*


*आचार्य गिरिराज जी, आपने अति महत्वपूर्ण उद्धरण दिया है और इन पर सापेक्ष निदान के साथ कार्य आवश्यक है जो संस्थानों में संभव भी है।*

[10/24, 19:24] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*बहुत ही काम की बात सूत्र रूप में आपने लिख दी, अनेक रोगियों का निष्कर्ष इसी प्रकार है, बहुत समय से कुछ प्रकरणों के साथ क्षोभ की clinical importance पर लिखने का मन था, आज आपने उत्साह वर्धन कर दिया 🌹❤️🙏*

[10/24, 19:27] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*नमस्कार श्रीयुत् आचार्य पवन जी, liver cancer के रोगी मेरे यहां जलोदर के साथ सर्वाधिक है, रोग तो असाध्य है पर कुछ लक्षणों और उपद्रवों में आयुर्वेद से अत्यन्त लाभ मिलकर आयुवर्धन सरलता से हो जाता है।*

[10/24, 19:43] D C Katoch Sir: 

कैंसर में आयुर्वेद  Can ( कैं) yield Certain (सर) Relief (र).

[10/24, 19:51] Dr. Rituraj Verma: 

Thanks sir ji

[10/24, 21:58] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*meditation के साथ दैवव्यापाश्रय चिकित्सा भी देते है जिस से मन नकारात्मक विचारों से हट कर एकाग्र रहे। इसका बहुत प्रभाव पड़ता है। बिड़ला मंदिर, दिल्ली में ही मेरा जन्म हुआ और कर्मकांडी ब्राह्मण हूं। आपने दवाखाने में मेरा ड्रेस कोड देखा ही है धोती कुर्ता और पाद में खड़ाऊं तो कोई पंडित जी, स्वामिजी, गुरू जी, वैद्य जी पता नही क्या क्या नाम रोगियों ने मेरे रख रखे हैं नाड़ी गुरू जी 🌹🙏*

[10/24, 22:03] Vd V. B. Pandey Basti U. P: 

दैविक आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु भी पहले पात्रता हासिल करनी होती ही है।

[10/24, 22:03] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*ब्राह्मणों के 6 कर्म है , यज्ञ करना और कराना, अध्ययन करना और कराना, दान देना और लेना जिसमें तीनों में से पहला नियम अपने पर लागू करना, इनमें से जो 4 कर्म कम से कम करे वह ब्राह्म्ण है। ब्राह्मण कर्मों से ही है तभी परशुराम क्षत्रिय होते हुये भी ब्राह्म्ण कहलाये। इस ग्रुप में सभी भिषग् ब्राह्म्ण ही तो हैं बस मेरी वेशभूषा दवाखाने में पुराने युग की होती है। मैं आधुनिक युग का वैद्य बन ही नही पाया तभी अपने को पुराने model की गाड़ी कहता हूं 😂🙏*

[10/24, 22:39] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*दिव्येश भाई, जैसे रक्त का आपने उदाहरण दिया तो आयुर्वेद को समझने के लिये मस्तिष्क का एक अलग आयुर्वेदीय तल बनाना पड़ता है और इसको ऐसे समझे कि जिस रक्त की बात करेंगे वो है क्या और अलग अलग रोगों में अपने किन गुणों से करेगा क्या तभी चिकित्सा संभव हो पायेगी। हमें अति सूक्ष्मता में जाना है जैसे  अर्दित रोग का ही उदाहरण ले कर चलते हैं 'अतिवृद्ध: शरीरार्धमेकं वायु: प्रपद्यते, यदा तदोपशोष्यासृग्बाहु पादं च जानु च। 

च चि 28/38  

यहां वृद्ध वायु शरीर के आधे भाग में पहुंचकर उस भाग के रक्त का शोषण कर कोई भी एक हाथ, पैर और जानु को संकुचित कर देती है।*


* रक्त में गंध पृथ्वी से, द्रवता जल से, रक्त वर्ण और उष्णता तेज से, स्पंदन वायु से तथा लघुता वायु और आकाश से है।*

*रक्त का शोषण अर्थात रक्त के किस गुण अथवा कर्म का शोषण करेगी और जब शोषण होगा तो अग्रिम और पूर्ववर्ती धातु पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा ये ग्रन्थ में चाहे ना भी हो पर स्वयं ही ज्ञान होनी चाहिये तथा यह ज्ञान तब होगा जब मौलिक सिद्धान्तों का ज्ञान होगा। आयुर्वेद का आधार दर्शन- मौलिक सिद्धान्त ही है इनको समझते ही मार्ग स्वतः ही प्रशस्त होता जाता है।*

[10/24, 23:16] Dr Divyesh Desai: 

🙏🏻🙏🏻आयुर्वेद को वेद के  रूप में, योग के रूप में, आध्यात्मिक रूपसे न्याय, वैशेषिक, सांख्य, दर्शन, मीमांसा के दृष्टिकोण से आपके पास से पढ़ना या सीखना अपने आप मे MD थीसिस से कोई कम बात नहीं है, गुरुश्रेष्ठ🙏🏻🙏🏻

आयुर्वेदको आप जैसे टीचर मिल जाये तो आयुर्वेदका कोई भी तजज्ञ दूसरी pathy की और भागेगा ही नहीं👏🏻👏🏻

सर, आप हमेशा लिखते हैं कि अध्यापन मेरा क्षेत्र नही किन्तु आप *श्रेष्ठतम*  *शिक्षक* है, BY BIRTH YOU ARE A GREAT TEACHER💐💐हमे इस विद्यालय में आप जैसे आयुर्वेद गुरु मिलने का गर्व है👏🏻👏🏻

[10/25, 09:44] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*सुप्रभात एवं सादर नमो नमः सर 🌹🙏 गंभीर विषयों के बीच अनेक बार हल्के फुल्के विषय मन में लघुता ला देते है। चिकित्सा में मूल उद्देश्य तो आयुर्वेदीय आधार पर रोगी तक पहुंच कर उसे रोग मुक्त करना और पुनः रोग की संभावना ना हो यह प्रयास है जिसके लिये चिकित्सा के चतुष्पाद का उत्तम होना आवश्यक है।*


*अगर सूक्ष्मता में जायें तो 

'भिषग्द्रव्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम्, 

गुणवत् कारणं ज्ञेयं विकारव्युपशान्तये' च सू 9/3 

अत्यन्त प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण सूत्र है और हम सभी जानते हैं कि चिकित्सक, द्रव्य, परिचारक और रोगी का गुणवान होना भी आवश्यक है क्यों ? क्योंकि धातु साम्यता ही चिकित्सा का प्रयोजन है और यह धातुसाम्यता क्या औषध करती है ? जी नही, चरक में स्पष्ट निर्देश है कि 'चतुर्णां भिषगादीनां शस्तानां धातुवैकृते, प्रवृत्तिर्धातुसाम्यार्था चिकित्सेत्यभिधीयते '

 च सू 9/5 

अर्थात रोगी की धातुओं के विकृत हो जाने पर प्रशस्त वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक मिल कर जो क्रिया धातुओं को समान करने के लिये करते हैं वह चिकित्सा है।*

*वाग्भट्ट इस चिकित्सा के दो भेद कर देते है जो आधुनिक काल में प्रत्यक्ष गोचर होते है, शुद्ध चिकित्सा और अशुद्ध चिकित्सा 

'प्रयोगः शमयेद्व्याधिमेकं योऽन्यमुदीरयेत्, नाऽसौ विशुद्धः शुद्धस्तु शमयेद्यो न कोपयेत्' 

अ ह सू 13/16 

इसे ध्यान से समझे तो ये चारों चतुष्पाद मिलकर अथवा इनमें से कोई भी धातु साम्यता क्रिया करते हुये एक रोग अथवा दोष को शान्त कर दे और दूसरे को बढ़ा दे तो वह शुद्ध नही है अपितु जिस दोष या रोग के लिये प्रयुक्त है उसका निर्हरण या शमन तो करे ही और अन्यों को कुपित ना करे तो वह श्रेष्ठ और शुद्ध चिकित्सा है।*

*अगर चारों पाद उत्तम गुणों से युक्त होंगे और युक्ति अनुसार प्रयुक्त होंगे तो परिणाम भी अति शीघ्र और शुद्ध रूप में मिलेगा।रोग की साध्यासाध्यता भी चतुष्पाद पर निर्भर है, चिकित्सा यदि अशुद्ध होगी या गुणों से पूर्ण नही होगी तो रोग जीर्ण होकर कृच्छ साध्य या असाध्य रहेगा ।*

[10/25, 09:47] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*सुप्रभात आचार्य संजय जी, मूल उद्देश्य रोगी को आयुर्वेद की परिभाषा पर स्वस्थ करना और चिकित्सा के चतुष्पाद सर्वोत्तम होना है। एक बात हमने इतने वर्षों में देखी कि चिकित्सक और रोगी का भाग्य भी अति महत्वपूर्ण है।* 🌹🙏

[10/25, 09:49] L. k. Dwivedi Sir: 

"विद्या समाप्तो भिषजस्य तृतीया जातिर्भवति।"

[10/25, 10:24] Dr Bhadresh Nayak, Surat: 

Respected sir !

Every thing depends on mindset

Belief system

Value of life

Liability

Responsibility

Respond

Positive attitude

Attitude towards disease

Will

Examples for others (i will survive in critical condition so y can)

Physician will and courtesy huminity and satva are main pillar of success

Medicine selection and quality are imp

So chatushpad is vital to quoncre any disease

After all karma and luck are required

Confidence to vaidhya and himself make different👏

[10/25, 10:29] pawan madan Dr:

 Good mng sir.

👏🏻👏🏻👏🏻

[10/25, 10:57] Vd V. B. Pandey Basti U. P: 

Well. LET'S GROW TOGETHER.

[10/25, 11:39] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*नमस्कार आचार्य भद्रेश जी, अगर गहनता में जायें तो इन सब का समावेश चतुष्पाद के अन्तर्गत ही होता है , जीवन के नैतिक और व्यवहारिक मूल्य भी इसी का भाग है।*

🙏🙏😊

[10/25, 18:33] Prof. M. L. Jaysawal Sir: 

सम्मान्य वैद्य प्रवर सुभाष शर्मा जी,

शुभ सन्ध्या सादर नमन जी

कैंसर पर आप सारगर्भित विवेचन  व चिकित्सात्मक अनुभव वरेण्य है।

कषाय रस के चरकीय गुणकर्मों पर विचार करने पर यह इसके प्रतिरोधन में यथेष्ट है,यहाँ चरक ने, अलघु, कहा है जो विशिष्ट चरकीय संज्ञा है चाहे तो सीधे अलघु#गुरु लिख सकते थे परन्तु कषाय रस का threshold विशिष्ट श्रेणी का है जो वायु के सान्निध्य से पूरी तरह गुरु नहीं है तथा पृथ्वी के साथ वायु के योग से कुछ गुरुता के साथ अल्प लघुता है। ऐसे ही लवण रस के कर्म में चरक ने नात्यर्थ गुरु कहा है।

कषाय रस पूर्ण गुरु होता तो कैंसर में हितकर नहीं होता। आप जिन द्रव्यों का उल्लेख किया है वे समग्र रुप में समीचीन हैं । यहाँ हम इसी सिद्धांत पर कुछ अन्य द्रव्यों को योजित कर रहें हैं.....


आहार द्रव्य-- अजादुग्ध 

छागं कषायमधुरं शीतं ग्राहि पयो लघु।रक्तातिसारघ्नं क्षयकासज्वरापहम्।।च.सू.- 27.222 

सु. सू.-46 में भी इसे सर्व व्याधि प्रशमन् कहा है। गोदुग्ध जीवनीय शक्ति वर्धन में श्रेष्ठ है तो अजा दुग्ध व्याधि प्रशमन में प्रमुख(best in curative aspect)है।

घृत...आहारीय दृष्टिकोण से।

पुराण घृत...

औषधीय दृष्टिकोण से। हमारे मित्र सम्मानित वैद्य जयदेव शर्मा जी के पास लगभग 55-60 वर्ष पुराण लाक्षा रस समान वर्ण गन्ध घृत को देखा व एक रुग्ण में प्रयोग कराया।

मधु...सन्धातृच्छेदनं रुक्षं कषायं मधुरं मधु।।च.सू.26.245

कुमठ गोंद(घृत भर्जित)Acacia Senegal श्वेत बब्बूल।

च. चि.रसायन पादाध्यायोक्त द्वितीय बब्राह्म रसायन....फलश्रुति पढे....जो सर्व विष को अगर करे।

औषध द्रव्य.....

वृहत बकुल (शिवमल्लिका) Osmanthum fragrance

मुखगत, तालु, गम, गल कैंसर

रोहितक.. रक्तार्बुद, यकृत, प्लीहा कैंसर। 

दुग्धिका लघु Euphorbia thymefolia...स्तन कैसर

अपक्व बिल्व फल कोलनकैंसर

मधूक त्वक् पैरो टिड ग्लैंड कैसर

निम्ब नीरा Margosa tadi...रक्त, त्वक कैंसर।

भारद्वाजी(वन्य कार्पास)thespesia lampas ,

कर्कन्धु मूल त्वक्(झणबेर),अशोक त्वक् .......गर्भाशय कैंसर।

जयहिंद.

जय आयुर्वेद

सद्गुरु देव आचार्य प्रियव्रत शर्मा जी सादर नमः

ऊँ नमः शिवाय

मोहनलाल जायसवाल

[10/25, 19:00] D C Katoch Sir: 

अति उपयोगी ज्ञान समझा किया है आपने। आभार!!

[10/25, 19:07] Dr Naresh Garg, Jaipur: 

प्रणाम सर बहुत उपयोगी जानकारी

[10/25, 19:47] Dr. K. M. Agrawal Sir: 

सक्षिप्त रूप से सम्पूर्ण चरक संहिता एवं निघन्टु का अवलोकन करा दिया आपने जायसवाल जी

अभिनन्दन🙏🙏🙏🙏

[10/25, 19:47] Dr. Mansukh Mangukia: 

🙏 प्रणाम 🙏

अविरत ऐसे ही ज्ञानगंगा बहाते रहे ।

[10/25, 21:17] Dr Divyesh Desai: 

🙏🏻🙏🏻✅✅Anubhav  Janya Upyogi Gyan💐💐

[10/25, 21:28] Prof. M. L. Jaysawal Sir: 

 मित्रप्रवर दिनेश जी,

शुभ रात्रि, सादर अभिवादन जी

[10/25, 21:40] Prof. M. L. Jaysawal Sir: 

 मित्रप्रवर दिलीप जी, कृष्ण मुरारी जी, श्री मान मनमंगुकिया जी, वैद्य दिव्येश भाई, डा. नरेश जी

शुभरात्रि, सादर नमस्कार सर्व काय संम्प्रदायस्थ वैद्य महानुभावों सहित

मोहनलाल जायसवाल गुरु कृपा ।

[10/25, 21:59] pawan madan Dr:

 प्रणाम गुरुवर 🙏🙏


बहुत ही उपयोगी प्रक्टिकल अनुभव।

धन्यवाद व आभार।

[10/26, 08:34] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*सादर सप्रेम नमन एवं आभार युक्त अभिनंदन आचार्य जायसवाल जी 🌹❤️🙏 अतीव आनंद आ गया, आपने विषय और उस पर किये कार्य का और अधिक विस्तार कर दिया जिसकी आयुर्वेद जगत को भविष्य में कैंसर रोगियों पर यथा रोगावस्था बहुत आवश्यकता पड़ेगी ।*


*प्रो. सुरेन्द्र सोनी जी ने बताया था कि आप प्रकाण्ड विद्वान आचार्य प्रियव्रत शर्मा जी के शिष्य हैं और परम विद्वान और हम सभी का सौभाग्य है कि उसी परंपरा का सहयोग और विशिष्ट ज्ञान हमें आपके आपके माध्यम से यहां प्राप्त हो रहा है। आयुर्वेद में विषयों की गंभीरता समझ कर गहनता में जा कर व्यक्त करने वाले विद्वान अब बहुत ही कम रह गये हैं । आप इसी प्रकार अपने अनुभव एवं ज्ञान का प्रदान करते रहेंगे तो आयुर्वेद जगत सदैव ऋणी रहेगा ।*

[10/26, 09:20] Prof Deep Narayan Pandey, Jaipur: 

अद्भुत विश्लेषण प्रोफेसर जायसवाल जी।

❤️💐

[10/26, 09:23] Prof Deep Narayan Pandey, Jaipur: 

पुराणघृत का प्रयोग किसी योग को बनाने में कर दिए जाने के पश्चात गुण धर्मों में आया हुआ परिवर्तन ध्यान रखना आवश्यक है। पुराणघृत के सानिध्य में की गई विविध कल्पनाएं और पुराणघृत समान नहीं हैं।

[10/26, 10:19] L. k. Dwivedi Sir: 

स्नेह कल्प विनिर्माण में , पुराण गुड़ की  तरह पुराण घृत प्रयुक्त करना परिभाषा संमत है।

 स्नेह मूर्च्छना संदर्भित है।

[10/26, 11:13] Prof. Laxmidhar Shukla: 

Nice clarification

[10/26, 11:54] Dr Vandana Vats:

 प्रणाम गुरुवर, अद्भुत विश्लेषण किया आपने ।

🙏🙏.

गर्भाशय अर्बुद में क्या अजा दुग्ध में अशोक त्वक भावित क्षीर पाक बनाया जा सकता है?

🙏

[10/26, 12:13] Dr. Sudha Sharma, Jind: 

Mam garbhashya arbud mein ydhi ksheer pak use karenge to brhangniya karm karega, isliye mujhe esa lagta hai ki arbud mein ashok twak kseerpak karya nhi karega kyuki arbud mein to lekhniya dravyao ka prayog hitkar rhta hai, ydhi koi truthi ho to margdarshan kijiaga🙏

[10/26, 12:27] Dr Divyesh Desai:

 मैडम, यदि ca cervix या यूटेरस के कैंसर में erosion है, उत्सेध नही है, ब्लीडिंग हो रहा है, दाह होता है तो अशोक क्षीरपाक मैने use किया है, लेकिन दुग्ध में अजा दुग्ध का प्रयोग करवाया था..।

ब्लीडिंग बंध होने के बाद या दाह कम होने के बाद (5 से 7 दिन में) क्षीरपाक  बंध करवाया था, अगर उपद्रव प्रबल हो तो पहले उसको ट्रीट करना चाहिये।।👏🏻👏🏻

[10/26, 14:07] Dr Vandana Vats:

 प्रणाम सर 

धन्यवाद 

🙏

प्रश्न यह है कि क्या अजा दुग्ध को औषध संस्कारित कर क्षीरपाक बनाना  उचित है?


या केवल पेय, अनुपान रूप मे ही व्याधिक्षमत्व वृद्धि के लिए श्रेष्ठ है ?

[10/26, 15:57] Dr Divyesh Desai:

 मैडम, हमारा मकसद उपशय प्राप्ति का है, तो औषधि सिद्ध अजा क्षीरपाक न केवल पेय या अनुपान के रूप में किन्तु औषधि के रूप में भी दे सकते है, जैसे हमारे रजनी सर ने उष्ट्र दुग्ध को पथ्य या औषधि रूप में भी mucormycosis में दिया था, यहां अजादुग्ध में अशोक, लोध्र, नागकेसर मिलाकर देने से अनुपान के रूप में भी और रोग शमन हेतु भी प्रयुक्त कर सकते है।🙏🏻🙏🏻

[10/26, 16:12] Dr. Sudha Sharma, Jind:

 Mam question fibroid ut. Ke regarding tha,meine khi nhi padha aja dugdh advisable in treatment of fibroid, it controls the bleeding associated with fibroid ut.

[10/26, 16:32] Prof. M. L. Jaysawal Sir: 

शुभसन्ध्या, सादर नमस्कार नाड़ीगुरु जी ।

पुराण घृत तिक्त रस व अप्रिय गन्ध के कारण कैपसूल में पूरित करके देना सुगम है।

[10/26, 16:36] Prof. M. L. Jaysawal Sir: 

 डा.वन्दना जी,

सादर नमस्कार

अजा क्षीर को क्षीरपाक विधि से व अनुपान रुप में दिया जा सकता है।

[10/26, 16:51] Prof. M. L. Jaysawal Sir: 

 सम्मान्य दीप पाण्डेय जी,

शुभ सन्ध्या सादर अभिवादन जी

घृत औषध कल्पनाएं सामान्य घृत में ही की जाती हैं।

पुराण घृत तिक्त रस, अरुचिकर व अप्रियगन्ध के कारण कैपसूलेटेड करके सेवन हितकर होता है।

[10/26, 16:57] Prof. M. L. Jaysawal Sir: 

शुभसन्ध्या, सादर प्रणाम वैद्यवर सुभाष जी !

आपकी शास्त्रीय व चिकित्सकीय  ज्ञान गरिमा अप्रतिम है।

[10/26, 19:33] Dr Divyesh Desai:

 🙏🏻🙏🏻गुरुवर सुभाषसर के साथ 100% सहमत💐💐

आपको भी अभिनंदन गुरुवर आचार्य जयसवाल जी👏🏻👏🏻💐💐





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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday (Discussion) a Famous WhatsApp group  of  well known Vaidyas from all over the India. 




Presented by















Vaidyaraj Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)

New Delhi, India

email- vaidyaraja@yahoo.co.in


Compiled & Uploaded by

Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
ShrDadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
 +91 9669793990,
+91 9617617746

Edited by

Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC) 
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com






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