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Case-presentation: *व्यवहारिक (practical ) आयुर्वेद*:- विविध-स्रोतस-संग-चिकित्सा by Vaidyaraja Subhash Sharma

[6/25, 6:27 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

      *व्यवहारिक (practical ) आयुर्वेद*


*यकृत वृद्धि, प्लीहा वृद्धि, prostate gland वृद्धि, free fluid in abdomen, GB CALCULUS 18.1 mm = विभिन्न स्रोतस का संग दोष ।*

*दीपन-पाचन--अनुलोमन-भेदन-लेखन-विरेचन आदि को हम आयुर्वेदीय चिकित्सा के सम्पुट किये बीज मन्त्र मानते हैं जिनका उपयोग कहां और कैसे करें ? यह जान कर असाध्य रोगों की चिकित्सा भी सरलता से की जा सकती है बस इन्हे सिद्ध कर लीजिये ।*

*आज हम आयुर्वेद के सिद्धान्तों पर चर्चा करेंगे ....*

*रोगी जब आपके पास आता है तो वह वो स्थितियां ले कर आता है जो ग्रन्थों से बाहर है, विभिन्न स्रोतस लिप्त मिलेंगे, पहले किस की चिकित्सा करेंगे, आधुनिक मतानुसार तो एक रोग शल्य साध्य है और शेष असाध्य तो क्या आयुर्वेद से उपचार संभव है ? 
बल कम होने से बीच में अन्य नवीन गंभीर  व्याधि भी आ गई तो क्या करेंगे ? 
रोगी आधुनिक चिकित्सा के लिये गया तो क्या वापिस आपके पास आने की स्थिति में होगा ?*
*कैसे परीक्षण करेंगे, हेतु, खवैगुण्य-दोष-दूष्य-स्रोतस और दुष्टि ?
 ऐसे अनेक प्रश्नों के लिये कि अनेक मित्र आयुर्वेद तल पर ही निदान एवं चिकित्सा करना चाहते हैं तो व्यक्तिगत मैसेज भेजते रहते है तो आप सभी मित्रों को उनकी सभी जिज्ञासाओं का समाधान रोगी की investigation reports सामने रख कर ही देंगे क्योंकि रोगी आपके पास वही ले कर आता है और चिकित्सा आयुर्वेद की पर आप नैदानिक पक्ष आयुर्वेद तो चाहते हैं पर कर नही पाते ! अब इस विषय को विभिन्न रोगों के उदाहरण सहित दे कर चलेंगे ।*

*रोगी की वेदना और लक्षणों के अनुसार दोष और उनकी अंशाश कल्पनाओं का हम निर्धारण निर्धारण करते हैं, वेदना शब्द 'विद्' धातु में ल्युट् प्रत्यय से ज्ञान के संदर्भ में है अर्थात जिन रोग के जिन लक्षणों का ज्ञान या अनुभूति केवल रोगी को होती है वह वेदना है जैसे अंगमर्द,दाह,शूल आदि, प्रत्यक्ष ज्ञान जो मानसिक भाव से संबधित है। संवेद, अनुभव, उपलम्भ इसके पर्यायवाची है तथा दुख का अनुभव है।*

*वेदना के कारण भी रोग अपरिसंख्येय हो जाते है अर्थात जितने ग्रन्थों में कहे हैं उसके और अधिक प्रकार आप बना सकते हैं ऐसा कुष्ठ रोग में संदर्भ है 
'दोषांशांशविकल्पानुबन्धस्थानविभागेन वेदनावर्णसंस्थानप्रभावनामचिकित्सितविशेषः, सप्तविधोऽष्टादशविधोऽपरिसङ्ख्येयविधो वा भवति । 
दोषा हि विकल्पनैर्विकल्प्यमाना विकल्पयन्ति विकारान्, अन्यत्रासाध्यभावात् तेषविकल्पविकारसङ्ख्यानेऽतिप्रसङ्गमभिसमीक्ष्य सप्तविधमेव कुष्ठविशेषमुपदेक्ष्यामः' 
च नि 5/4

 अगर पूरे प्रकरण को समझें तो सभी कुष्ठ त्रिदोषज होते हैं, 18 प्रकार के नाम अवश्य दिये है पर दोषोल्वणता या हीनता के कारण लक्षण, वेदना, आकार और वर्ण के कारण बहुत सूक्ष्मता आ जाती है इसलिये चरक ने कुष्ठों की संख्या को अपरिसंख्य कहा है।*

*वेदना के अनेक संदर्भ शास्त्र में मिलेंगे जिन्हे आप वहां देख कर और अधिक समझ सकते हैं जैसे कुछ उदाहरण, 
'शिरःपार्श्वास्थिसन्धीनां विद्युत्तुल्या३च वेदना जायतेऽतिबला जृम्भा स्फुरणं वेपनं श्रमः' 
च चि 24/102*

*'उपवासातिशोकातिरूक्षशीताल्पभोजनैः दुष्टा दोषास्त्रयो मन्यापश्चाद्घाटासु वेदनाम्' 
सिद्धी स्थान 9/84*

*लक्षण 'लक्ष' में ल्युट् से बना है , लक्ष्यते ज्ञायते अनेनेति लक्षणम् ' जिसे चिन्ह, लिंग, पद, कलंक आदि कहा है जिसमें रोगी के लक्षण श्रोत्र, चक्षु, घ्राण और त्वचा से स्वयं रोगी, वैद्य या अन्य लोग देख सकते हैं। रसना की परीक्षा रोगी से पूछ कर या अनुमान द्वारा की जाती है जैसे मूत्र पर चींटियां आने से मधुरता की, शुद्ध रक्त का स्राव रोगी के शरीर से हो अगर इसे कौआ सा कुत्ता सेवन करे तो रक्त शुद्ध है और ना करे तो यह रक्तपित्त रोग का दूषित रक्त है।*

*कानों से आन्त्रकूजन, संधियों में स्फुटन या चट चट आवाज, स्वरभंग आदि, चक्षु द्वारा शरीर की प्राकृत या वैकृत स्थिति, पांडु रोगी की पीतता, वर्ण, कान्ति आदि। नासिका द्वारा गंध का ज्ञान और त्वचा रूक्ष,स्निग्ध, प्राकृतिक है या रूग्ण ये त्वगेन्द्रिय द्वारा ज्ञान होता है।*

*रोगी 35 वर्षीय/ male/ व्यवसाय नौकरी*
*30-3-23 USG*
*liver - mildly enlarged , coarse echotexture*
*GB - distended,sludge, few calculus & largest calculus 18.1 mm*
*spleen enlarged*
*prostate mildly enlarged 27 gm*
*mild free fluid in abdomen*
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[6/25, 6:27 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:

 *28-5-22*
*2 GB calculus 8.3 mm & 13.5 mm*
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[6/25, 6:27 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:

 *13-6-22*
*GB calculus 9.3 mm*
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[6/25, 6:27 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:

 *यह सब लाभ आयुर्वेद के जो बीज मन्त्र हम बता कर चले है दीपन-पाचन-भेदनादि उन से ही संभव है ।*

*चिकित्सा की अवधि में दूषित आहार सेवन से आन्त्रिक ज्वर typhoid आ गया 25-5-22 को typhi Dot IgG reactive मिला जो 12-6-22 को -ve आ गया।*





[6/25, 6:27 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*रोगी के लक्षण है अरूचि, मंदाग्नि, विबंध, पिछले कुछ समय में 5-6 kg. वजन कम हो गया, अम्लपित्त, उदर गुरूता, आटोप एवं कदाचित सूची वेधन सदृश शूल, त्वक् नेत्र धूसर वर्ण, मूत्र अल्प एवं किंचित पीत।*

*रोगी में जीने की इच्छा का अभाव है, मद्यपान करता रहा था, आध्यात्म और ज्ञान की बातें पढ़ कर दार्शनिक बन चुका है और अत्यन्त समझाने के बाद भी कोई investigation के लिये तैयार नही तथा उसका कथन है कि पहले के समय में भी जब test नही होते थे और वैद्य लोग चिकित्सा करते थे ।मगर हम इसे लाक्षणिक लाभ मिलने से आगे इसके लिये विवश करते रहे और इस से लाभ कितना मिला यह स्पष्ट हो गया ।*

*इस रोगी में हम सर्वप्रथम पित्ताश्य अश्मरी की चिकित्सा को प्रमुखता देंगे क्योंकि यह 18.1 mm होने से कभी भी क्योंकि अनेक स्रोतस में भी संग दोष है तो रोगी को कभी भी आपातकालीन स्थिति में ला सकती है और संग दोष की चिकित्सा के साथ ही अन्य स्रोतस का शोधन भी स्वतः ही हो जायेगा।*

*पित्ताश्य की चिकित्सा का विवरण ग्रन्थों में स्पष्ट नहीं है और यह एक विशिष्ट कर्म है और यहां अनेक अन्य स्रोतस की संलग्नता भी है और पित्त के अनेक अंश अन्य दोषों के अंशो के साथ मिल रहे हैं उन पर हम क्या क्रिया करेंगे इसे समझते है । सर्वप्रथम हम दो कार्य कर सकते है पित्त शोधन और पित्त शमन...*
*1- पित्त का हरण पित्त हर द्रव्यों से जो वृद्ध पित्त को या पित्त अल्प हो तो उसका वर्धन कर बल पूर्वक अथवा सामान्य कर्म से अपने सारक अथवा विरेचक गुण से निष्कासन कर देते हैं।*
 *2- पित्त का शमन जो पित्त संशमनीय द्रव्यों से होगा जिनकी विशेषता है कि ये किसी अन्य दोष को उत्क्लिष्ट नही करते और ना ही इनका किसी अन्य धातु पर प्रभाव होता है । यह मात्र पित्त का ही शमन करते हैं।पित्त प्रसादन और पित्त अवसादन भी पित्त प्रशमन का ही भाग है।*

*इन दोनों में हमें यह ध्यान रखना पड़ता है कि शोधन या शमन समस्त पित्त का करना है या पित्त के कुछ विशिष्ट अंशों का तथा इनकी चिकित्सा में सामान्य शोधन और विशिष्ट शोधन किस प्रकार किया जायेगा  क्योंकि अभी तक जो सामान्यतः समझा जाता है वो यह है कि पित्त में विरेचन दे दीजिये या पित्त शामक चिकित्सा दे दी जाये ।*
*हमारा चिकित्सा सूत्र पित्त के उपरोक्त संशोधन और संशमन को साथ ही ले कर चलने से स्थूल रूप से तो इस प्रकार दृष्टिगोचर हो रहा है पर इसके पीछे एक पूरा विशिष्ट ज्ञान साथ चल रहा है।*


[6/25, 6:27 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*चिकित्सा आरंभ से पूर्व एक प्रश्न था कि क्या हमें इस रोगी की आयुर्वेदीय चिकित्सा करनी चाहिये ?*


[6/25, 6:27 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:

 *दीपन - अग्नि, वायु और आकाश प्रधान द्रव्य दीपन में अधिक प्रभावी होते हैं इसके लिये अल्प मात्रा में कुटकी जो तिक्त रस की औषध है जो वायु और आकाश प्रधान है, व्यवायी और विकासी गुण इसके औषधीय गुणों को सूक्ष्म स्रोतों में पहुंचा देता है, शीतवीर्य और लघु हो कर भी भेदन कर्म में श्रेष्ठ है, कटु विपाक अग्नि और वायु का गुण साथ इसे दीपन बनाता है।इसी प्रकार कुछ अन्य द्रव्यों का चयन किया जाता है क्योंकि निरंतर अग्नि दीप्त रहना आवश्यक है अन्यथा आम का संचय घनीभूत हो कर अश्मरी को multiple और large size का बनाता जायेगा।*

*पाचन - पाचन किसका करना है ? सामरस का या सामपित्त का यह चिकित्सा में सब से बढ़ी युक्ति है जो समझ आने के बाद बढ़े गंभीर रोगों की चिकित्सा भी सरल कर देती है क्योंकि सामरस और सामपित्त दोनों के लक्षण रोगियों में और आधुनिक समय में तो बिल्कुल ही अलग मिलते है। कितनी भी सामरस की चिकित्सा कर लीजिये पर जब तक सामपित्त सामान्य नही होगा तब तक लक्षण पुनः पुनः प्रकट होते रहेंगे ।*

*सामपित्त का पाचन आचार्य सुश्रुत ने बताया है और इस प्रकार के योग पित्ताश्य अश्मरी के निकालने के मध्य हमें बीच बीच में देने ही पड़ते है

 'मृदुभिर्दीपनैस्तिक्तैर्द्रव्यैः स्यादामपाचनम् हरिद्रातिविषापाठावत्सबीजरसाञ्जनम् रसाञ्जनं हरिद्रे द्वे बीजानि कुटजस्य च पाठा गुडूची भूनिम्बस्तथैव कटुरोहिणी एतैः श्लोकार्धनिर्दिष्टैः क्वाथाः स्युः पित्तपाचनाः ' 
सु सू 40/60-62  

सामपित्त पाचक द्रव्य साम अथवा अपक्वपित्त का पाचन करते हैं, यह द्रव्य शीत और उष्ण दोनो वीर्य युक्त हो सकते हैं तथा तिक्त रस प्रधान होते हैं जैसे रसांजन, हरिद्रा दारूहरिद्रा पाठा अतीस इन्द्रयव वत्सक आदि ।*

*पित्ताश्य उत्तेजक - यह वो कर्म है जो सान्द्र और घनीभूत हो रहे पित्त को पुनः द्रव रूप में लाता है और sludge या अश्मरी को बाहर निकालने में प्रमुख भूमिका निभाता है क्योंकि बिना उत्तेजित हुये विजातिय द्रव्य, पित्त या अश्मरी बाहर उस प्रकार नही आ सकती जैसा हम चाहते हैं।*
*यवानीचार्जकश्चैवशिग्रुशालेयमृष्टकम् । 
हृद्यान्यास्वादनीयानि पित्तमुत्क्लेशयन्ति 
च' च सू 27/170 
इस पित्त उत्क्लेशन को चरक में स्पष्ट किया है कि यवानी, शिग्रुमूल, छोटी मूली ह्रदय को तो अनुकूल लगते हैं पर पित्त का उत्क्लेशन करते हैं।*

*गुणों में यह कटु, तिक्त और उष्ण गुण युक्त होते हैं तथा इस पर हमने अनेक वर्ष कार्य कर के अनेक द्रव्यों का चयन कर लिया जैसे मूली क्षार जो यही कार्य करता है तथा चिकित्सा के अंतिम 3-4 दिनों में जब अश्मरी को निकालना हो तो यह हमारा ब्रह्मास्त्र बन कर व्याधि का नाश करता है।*

*यकृत उत्तेजक - यह सदैव ध्यान रहे कि पित्त के अनेक रूप शरीर में चल रहे हैं जो आपको एक लग रहा है पर वो है नही जैसे आमाश्य में स्थित पित्त जो क्षुधा वर्धन और पाचन में सहायक है इसे पाचक पित्त की संज्ञा दे दी गई और दूसरा वो पित्त है जो यकृत द्वारा निर्मित है और यह बहुत महत्वपूर्ण है । दोनो की भिन्नता देखनी है तो इस प्रकार समझें कि क्या पाचक पित्त के द्रव्यों मात्र से आप यकृत की चिकित्सा कर सकते हैं ? नही कर सकते क्योंकि दोनो की चिकित्सा के औषध द्रव्य ही भिन्न हो जाते हैं।*

*प्रमाथी उष्ण-तीक्ष्ण  द्रव्य जो अपने वीर्य से स्रोतोंगत मल का मथ कर निष्कासन करे*


[6/25, 6:27 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*अनुलोमन - आचार्य डल्हण ' अनुलोमनो वातमलप्रवर्तन' अर्थात जो वात और मल का प्रवर्तन कर दे और 'सरोऽनुलोमनः प्रोक्तो' सु सू 46/522 आचार्य सुश्रुत जो द्रव्य दोष, मलादि का पाक कर के तथा उनके संघात का भेदन कर उनके उस स्थान या अधोभाग से निकालने में सहायक होते हैं उनको अनुलोमन मानिये तो चिकित्सा का प्रकार बदल जायेगा। इनका उदाहरण है हरीतकी, यष्टिमधु, गंधक, आमलकी आदि मगर इन सब में एक बात hidden है कि ये किस अवस्था या काल में अनुलोमन करेंगे यह नही बताया। हरीतकी भोजन के पाक हो जाने पर अनुलोमन करती है, आमलकी भी ऐसा ही करती है। गंधक वटी एक योग है जो बहुत अच्छा दीपन पाचन और अनुलोमन करता है इसे भोजनोत्तर देना ही श्रेष्ठ है अर्थात गंधक को खाली पेट देने से बचें ।*

*अनुलोमन भी देखिये कितना बृहत् है जैसे वातानुलोमन जिसमें उर्ध्व और अधोभाग की वात का अनुलोमन करते है यथा पंचलवण, हिंगु, हरीतकी आदि।वर्चो या मलानुलोमन - जो ग्रथित मल को छिन्न भिन्न कर के उसके मार्ग से बाहर निकाल देते हैं जैसे आरग्वध, हरीतकी आदि । कफानुलोमन - जो द्रव्य कफ का प्रसादन कर शरीर से बाहर निकालते है जासे अंजीर , मधुयष्टि आदि । दोषानुलोमन - जब दोष शरीर में अनेक स्रोतस में अवरूद्ध हो जाते हैं तो जो द्रव्य उनको मार्ग में सम्यग् रूप से प्रवृत्त कराते हैं वो दोषानुलोमन हैं जैसे पिप्पली, बृ पंचमूल आदि ।*

*लेखन*
*भेदन*
*पित्तविरेचन*
*मूत्रविरेचन*

*18.1 mm तक की पित्ताश्य अश्मरी की चिकित्सा क्योंकि शल्य ही एकमात्र माध्यम है मगर हम फिर भी प्रयास करेंगे क्योंकि शास्त्रों ने जो सिद्धान्त दिये है वह यहां अत्यन्त प्रायोगिक है और कम से कम 6 महीने तो मान कर चलेंगे और बीच बीच में USG से अश्मरी की स्थिति जानेंगे।*

*शनैः शनैः चल कर किस प्रकार द्रव्यों के संयोग बनाये जाते हैं और उनका प्रयोग किया जाता है यह चिकित्सा सूत्र स्पष्ट करेगा, क्योंकि पित्ताश्य अश्मरी कोई लक्षण नही प्रकट कर रही एवं संग दोष कोष्ठ में अन्य अव्यवों में भी अपनी स्थिति बनाये है तो उपश्य- अनुपश्य से यह निर्धारित किया जाता है कि अश्मरी अब किस अवस्था में जैसे मृदु है या कठिन और इसका आधार अनुमान और युक्ति रहता है जिसके लिये त्रिकटु चूर्ण का किचित अधिक मात्रा में नींबू स्वरस के साथ सेवन करा कर अनुमान लगाया जाता है। इस प्रकार के द्रव्यों का प्रयोग अनेक रोगियों में व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर निर्धारित धीरे धीरे होता जाता है।ग्रन्थों ने तो बीज दिये है और उन्हे फलित करना यह हमारे बुद्धि बल पर है।*

*पित्ताश्य अश्मरी जैसे असाध्य रोग की चिकित्सा में सम्प्राप्ति विघटन के लिये हमें उष्ण तीक्ष्ण लघु छेदन भेदन कर्षण लेखन द्रव्यों की आवश्यकता होती है जो हमें क्षार में मिलते है 'तीक्ष्णोष्णो लघुरूक्ष्ष्च क्लेदी पक्ता विदारणा:, दाहनो दीपश्च्छेता सर्व: क्षारोऽग्निसन्निभ :।' च सू , संग दोष के भेदन के लिये तिक्त प्रधान कुटकी और नवसार का मिश्रण हम बहुत प्रयोग करते हैं।*

*पित्त प्रकरण एवं clinical ayurveda जो ब्लॉग पर है उसमें हम अनेक विषयों का विभिन्न स्थलों पर उल्लेख भी कर चुके हैं।*

*रोगी की चिकित्सा चल रही है और आगे अन्य सभी स्रोतस को हम कैसे ले कर चल रहे हैं updates देते रहेंगे ।*


[6/25, 6:47 PM] Dr. Kamlesh Sharma:

 आचार्य आपका यह अप्रतिम वैशिष्ट्य है कि सिद्धांत को कितना आसान करके व्यावहारिक धरातल दे देते हैं।
 सरल सरस एवं सुग्राह्य!!!
🙏🙏🙏


[6/25, 7:04 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

🙏नि:शब्द। जितनी बार पढें उतना ही संशय दूर होता है।आपका आभार व्यक्त करते हैं। 🙏


[6/25, 7:26 PM] वैद्य नरेश गर्ग: 

प्रणाम सर🙏🙏


[6/25, 7:47 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola: 


*प्रणाम गुरुवर*

🙏🏻🙏🏻🙏🏻

*आप का लेखन और चिकित्सा व्यवस्थापन सदैव ऊर्जा प्रदान करता है.*
🌹🌹🌹


[6/25, 8:00 PM] Dr Sanjay Dubey:

 सादर प्रणाम गुरूजी 🙏🙏
गूढ़ विषयों को व्यवॎहारिक और इतने सरल ढ़ंग से प्रस्तुति ..
आप का सानिध्य  और मार्गदर्शन हम सब का सौभाग्य है | 🌹🌹🌹


[6/25, 8:02 PM] Vd Shailendra Mehta:

 साक्षात,,,,ज्ञानवर्षा से पूरी तरह तर कर दिया,,गुरुदेवश्री ने आज,,,💐💐🧎🏻‍♂️


[6/25, 8:07 PM] वैद्य मृत्युंजय त्रिपाठी उत्तर प्रदेश: 

🙏🙏


[6/25, 8:17 PM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:

 🙏 प्रणाम गुरुवर 🙏
आपकी उपस्थिति सदैव उत्साह वर्धक होती है। आप का लेखन ज्ञानवर्धन एवं चिकित्सा के नया आयाम उजागर करता है।
🙏 धन्यवाद गुरुवर 🙏


[6/25, 8:20 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

🙏साम रस व साम पित में भेद कैसे किया जाए?


[6/25, 8:29 PM] Dr. Ashwani Kumar Sood:

 अतिउत्तम 👌🏻


[6/25, 8:32 PM] Vaidya Shrikrishna Khandel Sir:

 Really I salute Subhash ji 
We are fortunate to be taught by your practice based knowledge and many of us follow you by heart to become a good physician like you 
You are the gem of sampradaya 
Pitta prakarana is nicely eloquently elaborated by you sir salute again


[6/25, 9:28 PM] Prof. Madhava Diggavi Sir: 

This is really a torch light for Ayurveda practice in classical thinking. More scientific. Repeated reading gives more strength to all of us sir. Dhanyawad


[6/25, 9:29 PM] Vaidya Vinay Sharma: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻


[6/25, 10:43 PM] Vd. Mohan Lal Jaiswal:

 ऊँ
सादर अभिवादन वैद्यवर जी
रोग के अवस्थान्तर के अनुसार द्रव्योंऔर योगों का सटीक चयन व उनका उपशयानुपशय परक दृष्टिपात कर परिणाम की अनुभवात्मक सुन्दर प्रस्तुति।
शुभरात्रि जी


[6/25, 10:47 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman: 

*नमो नमः गुरुवर्य* 🙏🏼


[6/25, 11:06 PM] Dr. Sadhana Babel: 

प्रणाम सर 🙏🏻🙏🏻
We are too lucky to learn from you with evidence and  with सिद्धांत

🙏🏻🙏🏻🙏🏻


[6/25, 11:35 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*सादर प्रणाम एवं ह्रदय तल से आभार सर 🌹🙏 ये सब आप गुरूजनों का आशीर्वाद एवं कृपा है ।*


[6/25, 11:44 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:

 *नमस्कार डॉ पाण्डे जी, सम्पूर्ण ज्ञान आर्ष ग्रन्थों में ही वर्णित है, कहीं स्पष्ट लिखा है और कहीं सूत्र रूप में जो हर युग में और सभी रोगों में सरलता से आप apply कर सकते हैं इसीलिये हम कहते हैं कि ग्रन्थों का अध्ययन जिसमें आचार्य चक्रपाणि, डल्हण एवं अरूण दत्त की टीकायें हैं अवश्य पढ़ते रहना चाहिये ...*

*साम रस और साम पित्त में भेद इस प्रकार जानें ...*

*साम रस -
'अश्रद्धा चारुचिश्चास्यवैरस्यमरसज्ञता । 
हृल्लासो गौरवं तन्द्रा साङ्गमर्दो ज्वरस्तमःपाण्डुत्वं स्रोतसां रोधः क्लैब्यं सादः कृशाङ्गता नाशोऽग्नेरयथाकालं वलयः पलितानि च रसप्रदोषजा रोगा, 
च सू 28/9-10*

*'अन्नाश्रद्धारोचकाविपाकाङ्गमर्दज्वरहृल्लासतृप्तिगौरवहृत्पाण्डुरोगमार्गोपरोधकार्श्यवैरस्याङ्गसादाकालजवलीपलितदर्शनप्रभृतयो रसदोषजा विकाराः; सु सू 24/9*

*👆🏿इनकी हिन्दी टीका आप सीधे ग्रन्थों में देख सकते हैं।*

*चिकित्सा के दृष्टिकोण से clinical practice में हमें पित्त तीन स्वरूप में प्राप्त होता है, साम,विदग्ध और निराम पित्त ...*

*1- साम पित्त - इस पित्त का एक विशिष्ट प्रत्यात्म लिंग है जो शेष पित्त से इसे प्रथम दृष्टि में ही पृथक करता है 'दुर्गन्धमसितं पित्तं कटुकं बहलं गुरु' अ स सू 21/18 वह है दुर्गंध । यह पित्त प्रत्यक्ष मल भूत अपक्व रूप में  देखने को मिलता है जो हरित एवं श्याव वर्ण का हो सकता है, अम्लरसाधिक्य, गुरूता के साथ, अम्लोद्गार युक्त, कंठ और ह्रदय में दाह के साथ तथा स्थिर हो जाता है।*

*छोटे बच्चों में दंतोद्गम काल में मल के साथ उपरोक्त वर्ण में यह पित्त प्रायः मल के साथ निकलता देखा जाता है, पाण्डु रोग में हरित पीत वर्ण, वाहनादि में यात्रा के समय, अनेक स्त्रियों में गर्भावस्था काल में कुछ विशिष्ट द्रव्यों में अरूचि के कारण भी यह बहुत देखने को मिलता है।*

*2- विदग्ध पित्त - ' विदग्धन्तु तद् अम्लिका कण्ठह्ददाहकृत्' यह अधिक अम्लता को प्राप्त कर ह्रदय प्रदेश और कण्ठ में दाह करता है और इसकी उद्गार भी अम्लीय होती है। विभिन्न समारोह में दिन में गोलगप्पे, टिक्की, पावभाजी, chinese food, दाल मखनी शाही पनीर, पूड़ी, कचौड़ी, छोले भठूरे और ऊपर से मिष्ठान सेवन कर शैय्या पर चले जाना के सहस्त्रों रोगी आप अपने आस पास प्रतिदिन इस स्थिति से ग्रसित देख सकते है । अगर दुर्गंध हो तो इसे सामयुक्त मानें ।*

*3- निराम पित्त - यह कुछ ताम्र वर्ण का, उष्ण, 'रसे कटुकमस्थिरम्' रस में कटु और स्थिर, गंधहीन, भोजन में रूचि उत्पन्न करता है तथा भुक्त अन्न का पाचन करता है और साथ ही बल की वृद्धि करता है।*

*पित्त प्रकोप या पित्त वृद्धि वह साम हो या विदग्ध हमें इन हेतुओं से मिलती है, अनुक्त रोगों में इन्हे कैसे समझें इसका उदाहरण हम hepatitis B में दे कर चल रहे हैं जिस से अन्य रोगों में आप apply कर सकें ...*
*शरद, वर्षा और ग्रीष्म ऋतु, मध्याह्न काल और मध्य रात्रि*
*आहार की विदाह अवस्था*
*क्रोध, उपवास, भय और ईर्ष्या*
*उष्ण, तीक्ष्ण गुण*
*अम्ल, लवण और कटु रस*
*स्त्री प्रसंग या मैथुन*
*विभिन्न क्षार*
*वेगावरोध*
*अनेक औषध एवं रसायनिक द्रव्य *
*इन सभी में लगभग अनगिनत हेतुओं का समावेश हो जाता है। Hepatitis B रोग भी कामला के अन्तर्गत ही मान कर चला जाता है, इसका वायरस रक्त में स्थित हो कर रक्त के मल पित्त को सामावस्था में बनाये रखता है जिसके परिणाम स्वरूप यकृत में संग दोष उत्पन्न होता है और याकृत पित्त को वहन करने वाले स्रोतस पित्त का विमार्गगमन कर उसे रक्त में मिला देते हैं इसीलिये साम पित्त के लक्षण हारीत और श्याव वर्ण viral load अधिक होने पर इसकी त्वचा में दूर से ही दृष्टि गोचर था।*


[6/25, 11:59 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*आपका एवं समस्त काय सम्प्रदाय का एक साथ ही ह्रदय से आभार , प्रतिक्रिया स्वरूप जो आपसे इतना स्नेह प्राप्त होता है।* 🙏🌹❤️🙏


[6/26, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*नमस्कार डॉ पवन जी, ग्रहणी रोग के रोगियों पर before & after treatment क्या प्रमाण present करेंगे ? सम्पूर्ण प्रकरण में अनुक्त व्याधियों का सार छुपा है जरा पढ़ कर देखें तो स्पष्ट हो जायेगा ।*
*सामान्यत: अतिसार, अग्निमांद्य, अजीर्ण, अम्लपित्त, परिणाम शूल, प्रवाहिका, आदि ये लंबी श्रंखला उन रोगो की है जो जाठराग्नि गत है और धात्वाग्नि गत नही और इनमे भी एसे लक्षण उत्पन्न होते है जो जाठराग्नि गत विकृत आम जन्य है और धातुगत ना होने से विष स्वरूप हो कर गंभीर लक्षण नही उत्पन्न कर रहे तथा पथ्य, आहार विहार, दिनचर्या और साधारण औषधियों से भी ठीक हो रहे है। ग्रहणी दोष और ग्रहणी रोग, ये दोनो अलग स्थितियां है इसीलिये चरक ने ग्रहणी रोग में आम विष का उल्लेख किया है कि अजीर्णादि को जाठराग्नि से धात्वाग्नि तक पहुंचने से रोका जाये नही तो यह आमविष अन्य धातुओं में और स्रोतस में गंभीर व्याधियां उत्पन्न करेगा।*

*ग्रहणी रोग में महास्रोतस या कोष्ठगत अनेक अव्यवों की विकृति का समावेश हो जाता है, आवश्यकता इसे ध्यान पूर्वक समझने की है।*

*चरक संहिता में ग्रहणी रोग और ग्रहणी दोष दोनों स्थितियों का प्रयोग किया है।
'ग्रहणीमाश्रितोऽग्निदोषो ग्रहणीदोषः, एवं चाश्रयाश्रयिणोरभेदोपचाराद् ग्रहणीदोषशब्देन ग्रहण्याश्रितोऽग्निदोषोऽपि गृह्यते' 
च चि 15/1-2 पर आचार्य चक्रपाणि ने आश्रय और आश्रयी भाव मे  भेद नही मान कर ग्रहणी में आश्रित अग्निदोष को  ग्रहणी दोष माना है।*

*चरक विमान 6 में चार प्रकार की अग्नियों में से ये तीन अग्नि दोष है...जिसे च चि 15/71 में 'यश्चाग्निः पूर्वमुद्दिष्टो रोगानीके चतुर्विधः तं चापि ग्रहणीदोषं समवर्जं प्रचक्ष्महे' इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है।*
*1- व्याधि कफ प्रधान होगी तब अग्नि का बल हीन होगा तो मंदाग्नि*
*2- पित्त प्रधान होने पर अग्नि भस्मक जैसे रोग उत्पन्न कर देती है तो तीक्ष्णाग्नि*
*3- वात क्योंकि विषम है उसके प्रधान होने पर अथवा मेदोरोगी में अग्नि का आवरण होने से अग्नि विषम हो जाती है।*

*आचार्य चक्रपाणि ने ग्रहणी अधिकार 15/38-41 में लिखा है कि अग्नि से होने वाले सभी विकार जैसे ...*

*4 ग्रहणी विकार*
*3 अग्नि विकार - ये हम ऊपर लिख कर चले हैं, अग्निमांद्य, अजीर्ण आदि सब ग्रहणी दोष हैं 

*हरिवंश पुराण, पर्व 1 अध्याय 40/48-58 में आयुर्वेद के कुछ सूत्र इस प्रकार क्रम से  उपलब्ध हैं जो आयुर्वेद आर्ष ग्रन्थों में भिन्न भिन्न स्थानों पर हैं तो सही पर हरिवंश पुराणकार ने उसे एक नया आयाम दे कर अनुसंधान का बढ़ा बृहद् क्षेत्र दे दिया और वह है समस्त क्षेत्र को वात, पित्त और कफ तीन वर्गों में सीमित कर देना, इसमें सूत्र देखें .....*
*'रसाद् वै शोणितं जातं शोणितान्मांसमुच्यते मांसात्तु मेदसो जन्म मेदसोऽस्थीनि चैव हि अस्थ्नो मज्जा समभवन्मज्जातः शुक्रमेव च शुक्राद् गर्भः समभवद् रसमूलेन कर्मणा तत्रापां प्रथमो भागः स सौम्यो राशिरुच्यते गर्भोष्मसम्भवोऽग्निर्यो द्वितीयो राशिरुच्यते शुक्रं सोमात्मकं विद्यादार्तवं विद्धि पावकम् भागौ रसात्मकौ ह्येषां वीर्यं च शशिपावकौ 'कफवर्गे भवेच्छुक्रं पित्तवर्गे च शोणितम्' कफस्य हदयं स्थानं नाभ्यां पित्तं प्रतिष्ठितम् देहस्य मध्ये हृदयं स्थानं तन्मनसः स्मृतम् नाभिकोष्ठान्तरं यत् तु तत्र देवो हुताशनः मनः प्रजापतिर्ज्ञेयः कफः सोमो विभाव्यते पित्तमग्निः स्मृतं ह्येतदग्नीषोमात्मकं जगत् एवं प्रवर्तिते गर्भे वर्द्धितेऽम्बुदसंनिभे वायुः प्रवेशं संचक्रे सङ्गतः परमात्मना ततोऽङ्गानि विसृजति बिभर्ति परिवर्द्धयन् स पञ्चधा शरीरस्थो भिद्यते वर्द्धते पुनः प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव च प्राणः स प्रथमं स्थानं वर्द्धयन् परिवर्तते अपानः पश्चिमं कायमुदानोर्ध्वं शरीरिणः व्यानो व्यायच्छते येन समानः संनिवर्तयेत् ।*

*समस्त द्रव्यों का विभाजन वर्गों में विभाजित कर सकते है,*
*1- वात वर्ग *
*2- पित्त वर्ग*
*3- कफ वर्ग *
*जिस प्रकार शुक्र कफ वर्ग और शोणित पित्त वर्ग में है इसी प्रकार विभिन्न वायरस का भी हम वर्ग निर्धारित कर सकते हैं जैसे HBV पित्त वर्ग का वायरस है और पित्त स्थान में स्थान संश्रय कर पित्त के द्रव गुण की वृद्धि कर पित्त को साम बना देता है। पित्त व्यवहार में भी देखा जाये तो समानधर्मी कर्म करने वाले, समान औषध, आहार विहार , पित्त समान हेतुओं से प्रकुपित होने वाले अनेक द्रव्य समूह और हेतुओं के वर्ग का एक क्षेत्र है जिसमें अनगिनत द्रव्यों का समावेश है।*

*आज अनेक रोग वायरस या जीवाणु जनित भी बहु मात्रा में मिल रहे हैं ,अगर हम जीवाणु या  वायरस की प्रकृति, प्रवृत्ति, स्थान संश्रय कहां करता है और दोष - धातुओं मे आक्रमण के तरीके को समझ ले तो इनका वर्ग निर्धारित कर चिकित्सा में अतिशीघ्र सफलता प्राप्त कर सकते हैं जैसे आन्त्रिक ज्वक (typhoid fever) का आन्त्र में स्थान संश्रय कर रस- रक्त को दूषित मल-मूत्र में भी अपनी उपस्थिति बना कर रखता है। influenza का वायरस प्राण वह स्रोतस में स्थान संश्रय कर श्वास प्रश्वास के माध्यम से भी दूसरे में प्रसरण करता है। आक्षेपक ज्वर (cerebrospinal fever) का जीवाणु मस्तिष्क मूल में स्थान संश्रय कर त्रिदोष को कुपित करता है , इसी प्रकार हम विभिन्न वायरस का समावेश त्रिदोष वर्ग में कर उसके स्वभाव को जान आयुर्वेद दोषानुसार चिकित्सा कर सकते हैं क्योंकि यह जीवाणु या वायरस ग्रहणी क्षेत्र में भी मिल रहे हैं, व्याधियां उत्पन्न कर रहे है जिनका उल्लेख आयुर्वेद में नही है पर चिकित्सा आयुर्वेदानुसार कर रहे है इसीलिये हम अनेक अनुक्त व्याधियों को प्रकाश में लाते रहते हैं।*

*छठी पित्तधरा कला ग्रहणी - ग्रहणी रोग जन्य आमवात जैसी व्याधियों को भी उत्पन्न कर रही है जिसे autoimmune समझ कर अधिकांश चिकित्सक उलझे हैं और मूल भाव समझ ही नही पा रहे।*


[6/26, 1:02 AM] Vd. Divyesh Desai Surat: 

👏🏻👏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏽🙏🏽
आगे शोभन वसानी सर की बुक अणु अणु में आयुर्वेद, जो कि गुजराती भाषा में है, वो केवल पढ़ा था , वो आप के एक एक अक्षर में आयुर्वेदके गूढ़ रहस्य रूपी ज्ञान को देखने का या महसूस करने का हम सभी को सौभाग्य प्राप्त हुआ है, इसके लिए सदैव आपके ऋणी रहेंगे।
कोटि कोटि नमन🙏🏽👏🏻🙏🏻💐💐


[6/26, 5:35 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ):

आभार गुरूवर सादर चरण स्पर्श। बहुत सारे संशय दूर हुए। 🙏


[6/26, 6:59 AM] Dr. Vandana Vats Madam Canada:

 सादर प्रणाम गुरुवर 🙏
  आपके आशीर्वाद, अविरल ज्ञान गंगा, मार्गदर्शन, व्यवहारिक आयुर्वेद समर्पित लेखन से हम सब धन्य है। आपका लेखन और समझाना  बार बार पढकर हममे सदैव उत्साह और नई ऊर्जा उत्पन्न करता है। कठिन विषयो को भी आप सरल बनाकर वर्णित करते है। हमारे लिए आपका मार्गदर्शन आप्त ग्रन्थों के समान है।
नमन
🙏💐🙏


[6/26, 7:04 AM] Dr. Pawan Madan:

 *प्रणाम व चरण स्पर्श गुरु जी।*

*आपका एक एक शब्द अक्षरश सत्य है व मैं भी इन सभी पर श्रद्धापूर्वक निष्ठा रखते हुये पालन करता हूँ।*

मेरा प्रश्न आदरणीय सूद सर के वक्तव्य के संदर्भ में था, के ग्रहणी रोग को हम subjective आधार पर लक्षणो के माध्यम से चिकित्सा पूर्व व चिकित्सा पश्चात सिद्ध या वर्णित कर सकते है, बहुत से रोगों में जरुरी नही के lab investigations के साक्ष्य दिये जा सकें, और यदि ये न दियें जा सकें तो इसका अर्थ ये नही है के , सब व्यर्थ है।


[6/26, 8:14 AM] Vaidya Sameer Shinde
MD(K. C. ) satara:

 प्रणाम आचार्य
अतिसुंदर चिकित्सा सिद्धांत विवेचन।
सामरस एवं सामपित्त पाचन का सिद्धांत सच मे अत्यंत विचारणीय। 
🙏🙏🙏


[6/26, 8:30 AM] Dr. D. C. Katoch sir:

 Good Morning  Vd Subhash Ji,  your brilliant scientific analysis in Ayurvedic perspective  has thrilled a lot  and shaken the antakaran of Ayurvedists in the group as how to drive Ayurvedic diagnosis and treatment in clinical practice. Sushthu iti, saadhuvaad, Namo Namah.


[6/26, 9:16 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:

 आदरणीय सुभाष सर, प्रणाम। आपका एक वाक्य दिलमे घर कर गया। शास्त्र मे तो सबकुछ बीज रूप मे है। उसे परीश्रम, अभ्यास और चिंतन से सिंचकर वृक्ष बनाना है। यह वैयक्तिक क्षमता पर निर्भर है। यही कारण है की भले ही सभी को एकसाथ एकही शास्त्र पढ़ाया जाता है, फि रभी हर एक व्यक्ति अपने समझ के अनुसार पाता है।






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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday (Discussion)' a Famous WhatsApp group  of  well known Vaidyas from all over the India.
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Presented by-



Vaidyaraja Subhash Sharma

MD (Kaya-chikitsa)

New Delhi, India

email- vaidyaraja@yahoo.co.in


Compiled & Uploaded by-

Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
 +91 9669793990,
+91 9617617746

Edited by-

Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC) 
Professor & Head
P.G. Dept of Kayachikitsa
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, Gujarat, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150






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