[8/27, 11:25 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*Case presentation -
स्रोतस का संग दोष एवं युक्ति चिकित्सा ...*
(27-8-2022)
*स्रोतोदुष्टि में सर्वाधिक मिलने वाली दुष्टि संग दोष की आयुर्वेदीय प्रायोगिक चिकित्सा जिसमें एक नहीं अनेक स्रोतस संग दुष्टि से लिप्त है उस पर आज अपना अनुभव देंगें ...*
*12-8-22*
s.billi. 3.38, B.Urea- 57, S.Cr. 1.57, UA 11.80
[8/27, 11:26 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*25-8-22*
s.billi. 2.47, BUrea- 20.54, S.Cr. 0.77, UA 9.40
[8/27, 11:26 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*चिकित्सा क्षेत्र में रोगी की चिकित्सा के अनेक मार्ग हैं जैसे शरीर स्रोतस का समूह है, विभिन्न स्रोतस संलिप्त है और उनकी दुष्टि किस प्रकार की है जैसे संग या विमार्ग गमन । अगर दुष्टि सर्वत्र एक ही प्रकार की है तो यह निश्चय होते ही एक सरल सा चिकित्सा सूत्र भी कई बार अप्रत्याशित लाभ दे देता है।*
*जैसे अति मद्यपान जनित यकृत दुष्टि (CLD) age 46 yrs के इस रोगी में पिछले एक वर्ष से कामला कोष्ठाश्रित ही है पर अब वृक्क दुष्टि के लक्षण भी मिलने लगे थे, क्षुधानाश के साथ ही कटि पृष्ठ भाग में गुरूता और कभी कभी पाद और अक्षिकूट में शोथ हो कर कुछ घंटो पश्चात स्वयं ही समाप्त हो जाना। जलोदर रोगी को नही था और त्वक्, नेत्रादि में पीतता भी नहीं थी।*
*यहां स्रोतस का यह संग दोष है, स्रोतो दुष्टि में सब से प्रधान और अधिक मिलने वाली दुष्टि यही संग दोष है।*
*संग अर्थात मार्ग में रूकावट या स्रोतस का अवरोध है जिसके कारण दोष, धातु, उपधातु, मल, मूत्र और स्वेद आदि और शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का भी वहन नही हो पाता। संग दोष का प्रधान कारण आम दोष ही है चिकित्सा सूत्र में दीपन, पाचन, स्रोतोशोधन, अनुलोमन, लेखन, भेदन के साथ व्याधि अनुसार रसायन द्रव्यों का भी प्रयोग शोधन के उपरांत करते हैं।*
*इस रोगी को अभी केवल 10 दिन निम्न औषध दी गई है और आशातीत परिणाम मिलना आरंभ हो गया...*
*कूष्मांड स्वरस 30 ml प्रात: बेरपत्थर भस्म 500 mg मिलाकर, यह योग बस्ति शोधक, मूत्राम्लता नाशक है।*
*सरकंडा पत्र, गुडूची, पित्तपापड़ा, उशीर, नेत्रबाला, पुनर्नवा पंचांग, गोखरू, काकमाची, गुलाब के फूल, रक्त कमल, श्वेत चंदन, पाषाण भेद और हरिद्रा समभाग ले कर इनका क्वाथ बना कर देना, यह क्वाथ पिछले कुछ काल से हमारा प्रिय है जो मूत्र विरेचन, विषध्न, बल्य, मूत्रकृच्छहर रसायन, भेदन, मूत्रविशोधन, वृक्क शोथहर अनेक कर्म कर के उत्तम लाभ देता है ।*
*फलत्रिकादि क्वाथ - यकृत दुष्टि में तो हमारा अत्यन्त प्रिय योग यह क्वाथ है जो लेखन, भेदन, आमलकी- हरीतकी से रसायन, वयस्थापक, दीपनीय, रक्त शोधक, प्रमेह हर , मेदमूल वृक्कौं पर शीघ्र कार्य करता है।*
*अन्य कोई औषध नहीं दी गई, चिकित्सा में युक्ति का महत्व का और सस्ती और सुलभ काष्ठौषधियों एवं पथ्य पालन से भी अनेक गंभीर एवं कृच्छ साध्य रोगों की चिकित्सा सरलता से की जा सकती है।*
*आहार में यव और सिंघाड़ा का आटा मिलाकर रोटी दी रही है। CLD और CKD रोगों की सम्प्राप्ति निर्माण और पथ्यापथ्य पर हम अनेक case presentations पहले भी दे चुके हैं जो ब्लॉग पर उपलब्ध हैं।*
[8/27, 11:35 PM] Dr. Pawan Madan:
प्रणाम गुरु जी।
मैं कूष्माण्ड को पित्त शमन व रोपण कार्य के लिये प्रयोग करवाता हूँ।
क्या इस से वृक्क के संग दोष का निर्हरण भी कर सकते हैं गुरु जी ?
[8/27, 11:52 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार वैद्यवर पवन जी ❤️🙏 जो कूष्मांड हम लोग प्रयोग करते हैं यह पित्तशामक और शीत वीर्य है। कुछ वर्ष पूर्व डॉ कटोच सर ने वृक्क दुष्टि को एक नाम दिया था 'वृक्क प्रदाह' जो मुझे अति प्रिय लगा और उसे व्यवहार में ले आये कि इस प्रदाह को दूर करने के लिये कूष्मांड से परम औषध कोई और नही। कूष्मांड संग दोष दूर नही करता पर हमें यहां संग दोष दूर करने के लिये भेदन कर्म भी करना है तो हम इस प्रकार के रोगियों में प्रायः 500 mg से 1 gm तक हजरूल यहूद भस्म जो मूत्र प्रवर्तक है और बढ़ी शीघ्रता से मूत्र पीतता भी दूर करती है कूष्मांड स्वरस में मिला कर सेवन हेतु देते हैं।*
[8/27, 11:55 PM] Dr. Pawan Madan:
जी गुरु जी
अति उत्तम
कूष्माण्ड के इस दाह शामक कर्म का प्रयोग मैं बहुत रोगियों में करवाता हूँ बहुत उत्तम परीणाम प्राप्त होते हैं।
🙏💐🙏
[8/27, 11:57 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*कूष्मांड का रोपण कर्म आपके द्वारा 👏👌👍 आनंद आ गया पढ़कर क्योंकि इसके इस कर्म का उपयोग हम युक्तिपूर्वक वर्षों से करते आ रहे हैं और शत प्रतिशत परिणाम मिलता है ।*
[8/27, 11:59 PM] Dr. Pawan Madan:
जी
Ulcerative collitis में बहुत उपयोगी है।
[8/28, 12:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*👌👌👌सही कहा आपने, ulcerative colitis का मूल अग्नि अर्थात पित्त और आम दोष है। यदि ध्यान से देखें तो पित्तातिसार, रक्तातिसार और ग्रहणी रोग ये इस रोग की जीर्णता को प्रदर्शित करते है , पहले तो ये रोग जाठराग्नि तक ही संबधित रहते है तब इनमे अन्न रस की दुष्टि रहती है पर जैसे जैसे रोग जीर्ण होता जाता है तब रस और रक्त धातु की दुष्टि और धात्वाग्निमांद्य के लक्षण मिलने लगते है और रोग पूर्ण रूप से उपरोक्त रोगों का मिश्रित स्वरूप जीर्ण पुरीषवाही स्रोतोदुष्टि जन्य रक्त युक्त मल अर्थात ulcerative colitis धारण कर लेता है।*
*कूष्मांड स्वरस का उपयोग मुख पाक से ले कर गुद दाह तक सारे महास्रोतस में युक्ति पूर्वक रोगावस्थानुसार कर सकते हैं ।*
[8/28, 12:26 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*हम सभी इस संसार में क्यों आये या जन्म लिया ?*
*इसका उत्तर हमें चरक संहिता में मिलता है कि पुरूष क्यों उत्पन्न हुआ ? 'पुरूषोराशिसंज्ञस्तु मोहेच्छाद्वेषकर्मज:' च शा 1/53 पुरूष सकारण है क्योंकि यह तो मोह,इच्छा और द्वेषादि कर्मों से उत्पन हुआ है।*
[8/28, 12:42 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आयुर्वेद के नाम पर अधिकतर लोग 'मेरी प्रकृति क्या है ?' यही जानने के फेर में उलझे रहते है और बताने वाले भी भारी फीस ले कर उन्हे उलझाये रहते है, प्रकृति के नाम पर अनेक दुकाने चल रही है और बताने के नाम पर एक छोटा सा format बना कर लोगों के साथ छल किया जाता है।*
*प्रकृति परीक्षण की आवश्यकता रोगी का बल किस प्रमाण मे निर्धारित करें इसलिये आवश्यकता होती है। चरक विमान 8 में दशविध परीक्षा में प्रकृति को प्रथम स्थान में लिया है और सुश्रुत सू 35 में रोगी बल प्रमाण की परीक्षा के 14 भावों में 10 वें स्थान पर ।*
*एक तो शरीर की मूल अथवा देह प्रकृति है जो गर्भ शरीर के निर्माण की अवस्था में ही बन जाती है, यह कभी नही बदलती और इसमें परिवर्तन अरिष्ट लक्षण तथा मृत्यु का सूचक भी होता है।*
*दूसरी 6 प्रकार की जात प्रकृति हैं जो परिवर्तित होती रहती हैं जो जाति, कुल, वय, देश, काल, उभय और प्रत्यात्मनियता प्रकृति हैं।*
*प्रकृति परीक्षण कोई साधारण कार्य नही पूरी history लेनी पड़ती है और दो तीन दिन भी इसमे कम हैं।नाड़ी पर हाथ रख कर प्रकृति बताना और भी बढ़ा भ्रामक माया जाल है क्योंकि वह दोषों की तात्कालिक स्थिति है जो नाड़ी में मिल रही है और थोड़ी देर में बदल जायेगी।*
*असली प्रकृति तो मूल देह प्रकृति है जिसका पता जब आप गर्भ में थे तो माता का निवास, आहार, विहार, पारिवारिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां कैसी थी, चारों तरफ का वातावरण कैसा था आदि अनेक भावों से इसका ज्ञान होता है।*
*प्रकृति का परीक्षण करना कुछ समय लेता है पर है बहुत ही रोचक और अगर किसी की मूल प्रकृति को जान लिया जाये तो मनुष्य अनेक गंभीर रोगों से बच सकता है।*
[8/28, 12:54 AM] Dr. prajakta Tomar:
रुग्ण की व्याधी भी देह प्रकृति मे हस्तक्षेप करती है तो रुग्ण की सही प्रकृति का आकलन कैसे करे ?
[8/28, 1:38 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*प्रकृतिर्हीयतेऽत्यर्थं विकृतिश्चाभिवर्धते कृत्स्नमौत्पातिकं घोरमरि(नि)ष्टमुपलक्ष्यते '
चरक इन्द्रिय 12/60
यह साधारण सूत्र नहीं है इसमें जीवन-मरण सहित व्याधियों का रहस्य छुपा है। चरक का इन्द्रिय स्थान कोई कपोल कल्पना नहीं विभिन्न सूत्र रोगियों में प्रत्यक्ष है। सही प्रकृति का आंकलन अत्यधिक समय लेने वाला कार्य है और उस पर लय में लिखना तो बहुत ही लंबा क्योंकि इसमें बहुत से formats बनाने पड़ते है।*
[8/28, 1:47 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*हमने इसका विस्तार किया और गर्भ धारण से पूर्व की अवस्था से history आरंभ कर formats भी बनाये पर यह इतनी श्रमसाध्य स्थिति है कि practice करें या देह प्रकृति परीक्षण ! पर आयुर्वेद की नवीन पीढ़ी को इस पर कार्य करना चाहिये ।*
[8/28, 1:48 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*गुरुवर प्रणाम*
🙏🙏🙏
[8/28, 1:53 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सोऽयमायुर्वेद: शाश्वतो निर्दिश्यते अनादित्वात्, स्वभावसंसिद्धलक्षणत्वात् भावस्वभावनित्यत्वाच्च।
च सू 30/27
आयुर्वेद शाश्वत (eternal) है, अनादि होने से, अपने लक्षण के स्वभावत: सिद्ध होने से, भाव (excistence) के स्वभाव के नित्य होने से सिद्ध है और परम सत्य है ... सहयोग और अपना समय श्रम सहित दीजिये क्योंकि यह team work है तो हम इस शाश्वत ज्ञान को इस प्रकार प्रायोगिक रूप में ला सकते हैं कि संसार आश्चर्य भी करेगा और लाभान्वित भी होगा ।*
[8/28, 1:54 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*मान्यवर आप का प्रश्न तो छोडासा और सरल सा है, पर इसका उत्तर इतना आसान और सरल नही है।*
*इन्द्रियस्थान के प्रथम अध्याय मे जहाँ, "जातिकुलदेशकालवयःप्रत्यात्मनियता हि तेषां तेषां पुरुषाणां ते ते भावविशेषा भवन्ति।*
च. इ. अ.१/१५.
*इन्द्रियस्थान के पहले अध्याय मे जहाँ पर जातिकुलदेशकालवयःप्रत्यात्मनियता आदि प्रकृति के ६ भाव विशेष कहे गये है, उसके आगे के श्लोकों का अवलोकन करने के बाद मिलेगा*
# *विकृतिः पुनर्लक्षणनिमित्ता च, लक्ष्यनिमित्ता च, निमित्तानुरुपा च ।*
च. इ. अ. १/१६.
*यहां से आगे स्वस्थ व्यक्ति और रुग्ण व्यक्ति के प्रकृति में परिवर्तन होने वाले लक्षणों का वर्णन मिलता है.*
*रोगों के हेतु, दोषदुष्य संमूर्छना, संप्राप्ति, लक्षण उत्पत्ति आदि के लिए निदान स्थान, चिकित्सा स्थान और इन्द्रियस्थान का ज्ञान की आवश्यकता होती है*
*इस विषय मे इन्द्रियस्थान का विशेष ज्ञान अवश्य होना चाहिए*
🙏🙏🙏
[8/28, 1:56 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*शतप्रतिशत सही है Sir*
🙏🙏🙏
[8/28, 2:06 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*इस तरह के प्रश्नों का उत्तर लगन, परिश्रम, चिकित्सीय अनुभव और समन्वय के बिना नही मिल सकता है*
Dr. Prajaktaji !
[8/28, 5:14 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
गुरुदेव बड़ा ही सटिक विवेचन है। हम इसमें कुछ जोड़ना चाहते हैं। चरक कहते हैं *आतुरम् परीक्षेत प्रकृतित: विकृतित: ; दुष्यम् देशम् बलम् कालम् प्रकृति अनलम् वय: सत्वम् सात्म्यम् तथा आहारम् अवस्थाश्च पृथक् विधा।* यह सिर्फ प्रकृति को ही नही बल्कि सभी दशविध भावों को प्रकृतिस्थ तथा विकृति के हर अवस्था में पृथक - अलग अलग समझने को बता रहे हैं, यह दशविध भाव हर स्थिती और अवस्था में रोगी तथा रोग के बलाबल को समझने हेतु मात्र उपयूक्त है। काय संप्रदाय इस बिंदु पर विचार करें , यह मात्र दशविध नहीं अपितू अनेकानेक पहलुओं वाली विधा है l
[8/28, 5:26 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
एक और प्रश्न सभी के लिए
१. *दर्शनम् स्पर्शनम् प्रश्नै: वा परीक्षितै ही रोगिणाम्।*। २.*आतुरम् परीक्षेत प्रकृतित: विकृतित: ; दुष्यम् देशम् बलम् कालम् प्रकृति अनलम् वय: सत्वम् सात्म्यम् तथा आहारम् अवस्थाश्च पृथक् विधा।*
३. *रोगाक्रान्तस्य शरीरस्य स्थानम् अष्टानी परीक्षेत, नाडी मुत्र मल जिव्हा शब्द स्पर्श दृक आकृति।*।
इन सभी जगह पर रोगी / आतुर / रोगाक्रांत का निर्देश है,
क्या स्वस्थ की परीक्षा नहीं होती ?
या नहीं करनी चाहिए ?
या जरूरत नहीं या फिर संभव नहीं?
ऐसा क्या बदलाव आता है जो रोगी होते ही परीक्ष्य बन जाता है?
सूभाष सर, गोंड सर से विशेष अनुरोध है की वे हम सभी को संप्रकाशीत करें।
[8/28, 8:42 AM] Dr. Santanu Das:
Sir kusmanda swaras se
Potassium badhega ya neheen?.. Specially in CRF case.... Normally Na n k r also very imp part in CRF.....
[8/28, 8:51 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुप्रभात नाड़ी गुरू आचार्य संजय जी, आपके अधिकतर प्रश्न और जिज्ञासायें सदैव ही कार्य करने पर प्रेरित करते हैं और अधिकतर पर वो कार्य आधे अधूरे व्यस्तता के कारण लिखे हुये रह जाते है पर आपने आज पुनः ऊर्जा दे दी , वस्तुतः इस पूर्ण क्रम को संक्षेप में समझें तो इस प्रकार है...*
*रोग ज्ञान के विषय*
*रोग ज्ञान की विधियां*
*रोगी बल प्रमाण - इसमें प्रकृति, विकृति , सार , संहनन आदि 10 भाव ।*
*रोग बल परीक्षा - प्रश्न, दर्शन, स्पर्शन आदि सहित अष्टविध परीक्षा जिसमें नाड़ी , मूत्र, मलादि की परीक्षा ।*
*दोषों का अंशाश कल्पना अनुसार ज्ञान, स्रोतस की परीक्षा आदि ।*
*इन्ही के विस्तार करने पर समस्त भाव आ जाते हैं ।*
[8/28, 8:56 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*पूर्ण स्वस्थ इस संसार में कोई नहीं है और जो अपने को स्वयं स्वस्थ मानते हैं हमारे यहां तो वो लोग भी आते हैं कि परीक्षण कर के बतायें कोई व्याधि तो नहीं ? शरीर स्वस्थ है तो मानसिक भावों में साम्यता नहीं मिलती । हमारा मानना है कि हम शरीर (मानसिक भावों सहित) की परीक्षा कर रहे हैं उस में ही रोगी है और रोग भी ।*
[8/28, 9:06 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*इसके लिये KFT test कराते रहना चाहिये, potassium बढ़ने के और भी कारण हो जाते है जिसमें खीरा, आलू आदि है इसीलिये हम हजरूल यहूद भस्म का प्रयोग करते है ।*
Dr. Shantanu !
[8/28, 9:47 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
For apt purpose use of Kooshmand is described in Samhitas and you are using it accordingly. Nevertheless Kushmand Swaras has Manoshamak, Amashayik Pradah shamak, Hriddrav shamak and overall antacid effects . Negating the tikshna, ushna and amlarasta of Rakta by virtue of its alkaline nature, Kushmand & Dhania swaras is very effective remedy for hot flushes found in menopausal women, mental agitation, nidra bhransh and acid-peptic disease, mild to moderate hypertension of psychlogical origin. I consider Kushmand as best Aajasrik Rasayan for Pittolvan Rajasik sharir-mansik conditions.
[8/28, 12:43 PM] Vd. Mohan Lal Jaiswal:
ऊँ
सर्व वल्ली फलों में पक्व कुष्माण्ड सर्वश्रेष्ठ होने के साथ इसकी सबसे बडी विशेषता यह चेतोविकारनाशक होने के साथ ही "सर्वदोषप्रशमनष"द्रव्य है।
ध्यातव्य हो कि सर्वदोषप्रशमन द्रव्य वृहत्र्त्रयी में जांगम व वानस्तिक द्रव्यों में कुल लगभग 13-14 ही आये हैं जो बहुदोष -शारी.दोष, मानसिक दोष, अप् दोष, कृमिदोष, विषदोष, मलमूत्रदोष आदि बहुदोष पर कार्यकारी(Broad spectrum Substance)अत्यन्त पोषण गुणों से युक्त व स्वयं पचकर अल्प मलकारी होते हैं।
परन्तु प्रयोगकर्त्ता विशेष ध्यान दें कि यह क्षारीय होते हुये(पक्वफलावरण के ऊपर श्वेतक्षारीय परत जमा होना इसकी परिपक्वता का सूचक)भी मेध्य, बल्य, बृंहणीय, परम बस्तिशोषक होने से संगदोषनाशक, वृष्य आदि विविध गुणकर्मों से भरपूर है। अपक्व कुष्माण्ड का प्रयोग न करे़ं।
शारदीय नवरात्रि सें देवी जी को इसके पक्व फलों को अर्पितकर यज्ञ में समर्पित किया जाता है।
शीत प्रकृति के लोगों को स्वरस कोष्ण या संस्कारितकर दें।
ऊँ सद्गगुरुदेवाय नमः।🚩😌
[8/28, 12:43 PM] Vd. Mohan Lal Jaiswal:
ऊँ समादरणीय वैद्य वर जी
सादर प्रणाम
वदराश्म भस्म भी क्षारीय +कुष्माण्ड स्वरस क्षारीय = सिनर्जिक एक्शन प्रभूत अश्मरीघ्न कर्म ।
कुष्माण्ड(पेठा)- परमबस्तिशोधक
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday (Discussion)' a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
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Presented by-
Vaidyaraja Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by-
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by-
Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
P.G. Dept of Kayachikitsa
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, Gujarat, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
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