Case-presentation: 'प्रवृध्द मुखदूषिका'/Lupus Miliaris Disseminatus Faciei (LMDF) by Vaidyaraja Subhash Sharma
[7/14, 11:05 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*Case presentation* -
प्रवृध्द मुखदूषिका- lupus miliaris disseminatus faciei (LMDF) एवं सैद्धान्तिक शास्त्रोक्त आयुर्वेदीय निदान चिकित्सा व्यवस्था।*
रुग्ण इति वृत्त-
*रोगी पुरूष/ 22 वर्षीय / छात्र*
*यह रोगी पहली बार आया है और ये सामने है...*
[7/14, 11:05 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*Modern diagnosis हो गया है तथा biopsy की report साथ ले कर आया है, रोग निदान 'lupus miliaris disseminatus faciei' है।* 👇🏿
[7/14, 11:05 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*ऐसा माना जाता है कि यह विकार IMDF 1-2 वर्षों के भीतर स्वतः ही ठीक हो जाता है पर यहां ऐसा नहीं है।आधुनिक चिकित्सा पद्धति में इसका हेतु अज्ञात है, युवा एवं वयस्कों में होता है, मुख विशेषकर पलकों के समीप, त्वक् शोथ और स्फोट सहित पिड़िका युक्त होने वाला रोग है जो स्वस्थ होने के बाद रोगी में रोग के निशान और गहरे गढ्ढे छोड़ जाता है। अब तक antibiotic, antihistamine, steroid & vitamines सभी औषध दी जा चुकी है पर औषध की मात्रा कम करते ही अथवा औषध बंद करते ही यह स्थिति पुनः पुनः आ जाती है।*
*रोगी युवा है तो क्या यह युवान पिडिका या मुख दूषिका तो नहीं ?
शाल्मलीकण्टकप्रख्याः कफमारुतशोणितैः ।
जायन्ते पिडका यूनां वक्त्रे या मुखदूषिकाः ।।३९।।
डल्हण-
'यूनामाननं यूवाननं, तस्य पिडिका युवानपिडिकाः। पृषोदरादेराकृतिगणत्वादेकस्य नकारस्य लोपः।
मुखे पचन्ते अत एव मुखदूषिका इति'
सु नि 13/39
पर डल्हण की व्याख्या इसकी गंभीरता और धातुगत स्थिति से इसे पृथक कर देती है। युवान पिडिका क्षुद्र रोग है और इस प्रकार के क्षुद्र रोगों में सम्प्राप्ति निर्माण की अधिक आवश्यकता नहीं होती और ना ही यह गंभीर धातुगत होते हैं, तथापि वर्तमान काल में फ़ास्ट फूड कल्चर तथा विषम दिन/रात्रि चर्या ने इसके धातुगतत्व स्वरूप को भी दिखा दिया है । रुग्ण वयानुसार होने वाले हॉर्मोनल परिवर्तन अनुरूप यह युवान पिडका /मुखदूषिका प्रस्तुति है ।
*क्षुद्र रोगों में अनेक ऐसे भी हैं जो मात्र बाह्य उपचार से ही शांत हो जाते हैं।*
*क्या यह एलर्जी या असहिष्णुता है ! फिर अब देखते हैं विभेदकत्व..*
*शीतपित्त - त्रिदोषज*
*दूष्य - त्वक् (रस) और रक्त*
*स्रोतस - रसवाही*
*अग्नि - विषम*
*शीतपित्त-
वायु प्रधान पित्त, कफानुबंधी इसमें मंडल अल्प होते हैं और शीघ्र समाप्त हो जाते है।*
*उदर्द -
कफ प्रधान पित्त, वातानुबंधी तथा मंडल कुछ काल तक बने रहते है, इसमें त्वचा और मांस में गहरे गड्ढे नहीं बनते।*
*कोठ -
पित्त और कफ प्रधान तथा वातानुबंधी, इसमें मंडल बहुत सारे बनते हैं और कुछ काल तक ये भी बने रहते हैं पर यह इस रोगी के लक्षण ये साधर्म्य नहीं रखते।*
*उत्कोठ -
पित्त और कफ प्रधान तथा वातानुबंधी, यह चिरकालीन चलते हैं और इसमें भी त्वचा में गड्ढे नहीं बनते तथा पुन: पुन: होते रहते हैं।*
*इस रोग को अनावश्यक आयुर्वेदीय नामकरण की कोई आवश्यकता नही है, क्षुद्र कुष्ठ के अन्तर्गत ग्रहण किया क्योंकि जब रोगी के लक्षण देख कर सम्प्राप्ति का निर्माण करते हैं तो विचर्चिका से सामीप्य मिलता है
'सकण्डूः पिडका श्यावा बहुस्रावा विचर्चिका'
च चि 7/26
यहां 11 क्षुद्र कुष्ठ 'इत्येकादश क्षुद्रकुष्ठानि' में इसका वर्णन है और बहुस्रावी भी कहा है।*
*'राज्योऽतिकण्ड्वर्तिरुजः सरूक्षा भवन्ति गात्रेषु विचर्चिकायाम्'
सु नि 5/13 आचार्य डल्हण ने इसे जो कहा है वो अधिक निकट है और इसे अधिक स्पष्ट किया है
'विचर्चिकामाह- राज्य इत्यादि। राज्यो रेखाः, ताश्च सरूक्षा भवन्ति।'*
*'सकण्डूपिटिका श्यावा लसीकाढ्या विचर्चिका'
अ ह 14/18 में श्याव, कण्डू युक्त और स्राव युक्त लक्षण दिया है।*
*इस तरह से मुखदूषिका का प्रवृध्द स्वरुप का सामीप्य विचर्चिका से दिख रहा है ।*
*आयुर्वेदीय तल पर परीक्षण हमें रोग के मूल तक ले जाता है, कुष्ठ के हेतु में शास्त्रों में वर्णित आहार देखिये जिनमें अधिकतर 'वीर्य विरूद्ध' मिलेंगे, जैसे..*
*मछली और दुग्ध जो रस और पाक दोनों में मधुर होने से परम अभिष्यन्दि बन गये पर दूध शीत वीर्य और मछली उष्ण वीर्य।*
*मूली, लहसुन, संहजना, तुलसी और पुदीना सेवन कर लिया तो दुग्ध पान नहीं करना चाहिये।*
*'यत् किञ्चिद्दोषमास्राव्य न निर्हरति कायतः आहारजातं तत् सर्वमहितायोपपद्यते'
च सू 26/85
विरूद्ध आहार को यहां सूत्र में स्पष्ट किया है कि इस प्रकार के द्रव्य दोषों को उत्क्लिष्ट तो कर देते हैं पर उन्हे शरीर से बाहर नही निकाल पाते। यह तब होगा जब रोगी इनका निरंतर सेवन करता रहेगा।*
[7/14, 11:05 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*कुष्ठ की गंभीरता इस लिये भी है कि सभी कुष्ठ त्रिदोषज तो होते ही हैं पर इनके हेतुओँ में गुरूजनों, ब्राह्म्णों का अपमान, चोरी करना, पाप कर्म, व्यभिचार भी है।*
*कुष्ठ सात महा हो या क्षुद्र 11 इनमें तीनों दोषों का अति महत्व इसलिये भी है कि त्रिदोषज होने से दोष विशेष का ज्ञान आवश्यक है जो हर कुछ दिन में गुणों की अधिकता और अल्पता के कारण परिवर्तित होने से लक्षण विशेष भी प्रकट करते रहते हैं जैसे ...*
*दोष विशेष और कुष्ठ के लक्षण..*
*वात की अधिकता - से पीड़िका या रोगग्रस्त स्थान रूक्ष,खर,पीड़ा युक्त, नील अथवा रक्त वर्ण का होगा।*
*पित्त की अधिकता - होने पर स्राव अधिक होगा और स्थान दाह एवं रक्तिम होगा तथा कोथ या सड़न युक्त हो जायेगा।*
*कफाधिक होने पर - गुरूता युक्त, स्पर्श में शीत, कंडू सहित, कठोर, चिकना और क्लेद युक्त मिलेगा।*
*रोगी में इनमें से अनेक लक्षण मिल रहे है जैसे पिड़िका में स्फोट, स्राव हो कर गड्ढा बन जाना भी, युवावस्था पित्त काल है तो सर्वप्रथम हम पित्त की चिकित्सा को प्रधानता दे कर चलेंगे।*
*उपरोक्त सभी भावों का मिलना आवश्यक नहीं यह कम या अधिक भी संभव है जिनका निर्णय पंचभौतिक आधार पर किया जाता है।*
[7/14, 11:05 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*कुष्ठ रोग के उत्पादक भाव...*
*'वातादयस्त्रयो दुष्टास्त्वग्रक्तं मांसमम्बु च दूषयन्ति स कुष्ठानां सप्तको द्रव्यसङ्ग्रहः'
च चि 7/9
कुष्ठ त्रिदोषज होने से वात, पित्त और कफ के साथ त्वक्, त्वक् कोई धातु नहीं है और रस धातु का अधिष्ठान होती है अतः आयुर्वेद में जहां त्वक् का ग्रहण होता है वहां त्वक् शब्द से रस धातु को ही माना जाता है, त्वक् केसाथ रक्त, मांस और अम्बु ये सप्त संग्रह है पर
'कुष्ठं ज्वरश्च शोषश्च नेत्राभिष्यन्द एव च औपसर्गिकरोगाश्च सङ्क्रामन्ति नरान्नरम्'
सु नि 5/34
यहां आचार्य सुश्रुत के अनुसार औपसर्गिक ग्रहण करने से कृमियों का भी इसमें समावेश है जो हेतु रूप में और उपद्रव रूप दोनों अवस्था में हो सकता है।*
*सभी कुष्ठ किस धातु में और कहां तक पहुंचे इसका ज्ञान कैसे करें ?*
*यह ज्ञान अति आवश्यक है क्योंकि तभी तो हम चिकित्सा कर सकेंगे जैसे...*
*यहां स्पष्ट किया है कि
'वातोत्तरेषु सर्पिर्वमनं श्लेष्मेत्तरेषु कुष्ठेषु '...
च चि 7/39
वात प्रधान में प्रथम घृतपान, कफ में वमन और पित्त प्रधान में रक्त मोक्षण या विरेचन अर्थात वमन, विरेचन और दोष अधिक हो तो यह बार बार साथ ही यह भी कहा है
'बहुदोष: संशोध्य: कुष्ठी बहुशोऽनुरक्षता प्राणान्
अर्थात रोगी के प्राणों की रक्षा का भी ध्यान संशोधन में करना है कहीं यह ना हो कि धातु क्षय हो कर वात की वृद्धि ही हो जाये। इसके पश्चात स्नेहपान पुन: वामक द्रव्यों का प्रयोग, विरेचन द्रव्यों का प्रयोग, आस्थापन वस्ति, अनुवासन, नस्य, धूमपान, लेप प्रयोग, प्रच्छन्न, अलाबू, जलौका, क्षार प्रयोग, अगद प्रयोग, प्रदेह प्रयोग और अंत में संशमन कर्म।*
[7/14, 11:05 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*कुष्ठ में रक्त, मांस, वसा आदि ये धातुयें तो दूषित रहती ही हैं पर प्रधान रूप से त्वचा यह कहकर चरक में शमन योगों का वर्णन किया है।
*रस धातुगत (त्वक् गत) - रोगी किसी भी वर्ण का हो, गोरा, काला, सांवला आदि पर उसका प्राकृत वर्ण विकृत हो जायेगा, स्पर्श करने पर त्वचा में शून्यता और रूक्षता मिलेगी, त्वचा पर हाथ की उंगलियां फेरने से रोमहर्ष या रोमांच सा मिलेगा तथा अनेक रोगियों में स्वेद की अधिकता मिलेगी।*
*रक्त धातु गत - कंडू, पूय अथवा जो स्राव होता हो तो अधिक मिलेगा।*
*मांस धातुगत - पीड़िकायें, ग्रन्थियां सदृश स्थिति, स्फोट, सूचिकावेधन सदृश पीड़ा, अगर व्रण है तो स्थिर और कठोरता के साथ मिलेगा।*
*अगर कुष्ठ का सीमा क्षेत्र रस,रक्त और मांस धातुगत है तथा वात और कफ की अधिकता के लक्षणों के साथ रोगी आया है तो आप निःसंकोच ऐसे रोगियों की चिकित्सा कर सकते हैं और ऐसे रोगी साध्य होते हैं।*
*कुष्ठ उत्तरोत्तर धातुओं में प्रवेश करता जाता है अगर मेद धातु गत आ गया तो रोगी में अशक्तता, अंगमर्ग, हाथ की ऊंगलियां जैसे गलने लगी हैं, व्रण बन गया तो उसका विस्तार होने लगेगा साथ ही उपरोक्त जो तीन धातुओं के लक्षण हमने लिखे हैं उनमें से भी अनेक रोगी में मिलेंगे।*
*इस से अग्रिम धातुओं के कुष्ठ असाध्य बतायें हैं जिन पर चर्चा हम भविष्य में करेंगे कि इन्हें भी किस प्रकार कृच्छ साध्य बनाकर रोगी को लाभ दिया जा सकता है।*
[7/14, 11:05 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सम्प्राप्ति घटक -*
*वात - समान वात (ये स्वेदवाही, अंबुवाही स्रोतों का नियन्त्रण तो करती ही है, आमाश्य, पक्वाश्य और अग्नि संधुक्षण कर अग्नि को बल प्रदान करती है), व्यानवात (संपूर्ण शरीर गत, रस, रक्त और स्वेदवाही स्रोंतों पर विशेष प्रभाव)*
*पित्त - पाचक और भ्राजक*
*कफ - क्लेदक *
*दूष्य - रस (त्वक्) रक्त, मांस, अंबु और लसीका*
*स्रोतो दुष्टि - संग*
*उद्भव स्थान - आमाश्य, रोगी जब हमारे पास आया तो रोगी की अग्नि विषम थी।*
*अग्नि- विष्माग्नि और धात्वाग्निमांन्द्य*'
*व्याधि अधिष्ठान - त्वक् - मांस*
*रोगमार्ग - बाह्य*
*साध्यासाध्यता - कृच्छ साध्य*
*चिकित्सा सूत्र -
निदानपरिवर्जन,
दीपन,
पाचन,
स्नेहन,
कृमिहर,
शोधन,
मृदु विरेचन,
रक्त शोधन,
शमन,
रक्त एवं त्वक् प्रसादन सहित बाह्य उपचार और
रसायन।*
*माधव निदानकार कुष्ठ की साध्यासाध्यता में स्पष्ट करते हैं कि
'साध्यं त्वग्रक्तमांसस्थं वातश्लेष्माधिकं च यत्, मेदसि द्वन्द्वजं याप्यं वर्ज्यं मज्जास्थिसंश्रितम्'
49/31
कुष्ठ के पूर्व रूप से ले कर रस, रक्त, मांस और मेद चार धातुओं तक पंचकर्म अर्थात वमन, विरेचन आदि कार्य करता है लेकिन अस्थि और मज्जागत कुष्ठ असाध्य होता है।*
*पथ्य -
दिन में दो तीन बार स्नान, जल का सेवन उचित मात्रा में, खीरा, तरबूज, ककड़ी, चैरी, आलूबुखारा, तोरई, लौकी, बंदगोभी, टिण्डा, परवल, मूंग, मसूर, यव सक्तुक और कूष्मांड स्वरस, पुराना चावल आदि*
*अपथ्य -
उष्ण वीर्य एवं वीर्य विरूद्ध द्रव्यों के अति एवं नियमित प्रयोग से बचना, वेगधारण, गुरू आहार, दिवास्वप्न, अम्ल और कटु पदार्थ जिनमें अचार, ketchup, vineger, fast food, preserved एवं flavoured पदार्थ, प्रयोग, तिल, गुड़, इमली, पिस्ता, अचार, काजू, fast food, कुलचा, भठूरा आदि।*
*औषध व्यवस्था...
चिकित्सा काल में इस प्रकार दी जा रही है...*
*पंचतिक्त घृत - 5 ml से बढ़ा कर 20 ml तक दिन में दिया गया। इसमें गुडूची, निम्ब, पटोल आदि तो हैं ही साथ में त्रिफला के कल्क में पाक होने से इस प्रकार के कुष्ठों में यह रसायन कर्म का लाभ भी देता है, त्रिदोष नाशक होने के साथ सभी प्रकार के कुष्ठौं में अत्यन्त प्रभावकारी है।*
*आरंभ के तीन दिन 5-10-20 ml पंचतिक्त घृत दे कर कुटकी+हरीतकी से विरेचन दे कर औषध आरंभ की।*
*आरोग्यवर्धिनी वटी 2-2 गोली, दीपन-पाचन, स्रोतोशोधक, रक्त, मांस, त्वचा विकृति सहित कुष्ठ रोगों में परम उपयोगी।*
*हरिद्रा खंड - 5-5 gm. दो बार, इसमें निशोथ होने से इस रोग में मृदुविरेचक कार्य करता रहता है जिस से वृद्ध दोषों का निष्कासन तो होता ही है साथ में कंडू और कोठ दूर कर त्वक वैवर्ण्य भी दूर करता है।*
*महामंजिष्ठादि क्वाथ - 10-20 gm. क्वाथ विधि से बना कर दिया, यह अत्यन्त शीघ्र कार्य कर के व्रण,दाह और पीड़ा को दूर करता है।*
*गंधक रसायन - 250-250 mg.
'लेलितकप्रयोगो रसेनजात्या: समाक्षिक: परम:'
च चि 7/68 गंधक+आमलकी स्वरस+मधु का प्रयोग चरक में भी है, कुष्ठ एवं त्वक रोगों की परम गुणकारी औषध है।*
*महासुदर्शन चूर्ण+ शरपुंखा चूर्ण फाण्ट विधी से ।*
*सारिवा, मंजिष्ठा, हरिद्रा और खदिर का प्रयोग भी चूर्ण के रूप में 3-5 gm तक बीच बीच में किया ।*
*कुटकी चूर्ण 100* (दीपन-भेदन-तिक्त-शीत-कफपित्त नाशक)
*पुनर्नवा 90* (दीपन-शोथघ्न-पाण्डुघ्न हर क्योंकि हमें बीच बीच में मृदु विरेचन भी देना है)
*अमृता 80* (तिक्त-पाक में मधुर- दीपन-बल्य-लघु और सब से बढ़ी बात रसायन भी)
*नागरमोथा 70* (दीपन-पाचन-तिक्त)
*शुंठि 60* (लघु-पाचन-कटु होते भी पाक में मधुर- कफवात हर- यह महौषध मानी गई है)
*गोखरू 50* (दीपन-मधुर-शीतवीर्य- बल्य)
*कूठ 40* (वात-रक्त-विसर्प- कफ नाशक)
*यह चूर्ण 3 gm + पंचनिम्ब चूर्ण 2 gm दिन में दो बार जल से ।*
*भल्लातक का प्रयोग cap serenkottai के रूप में प्रयोग किया जो 1000 mg का है और इसमें भल्लातक 60 mg है बाकी आधा आधा गौदुग्ध और नवनीत है। इसका एक कैपसूल सुबह और एक रात्रि भोजन के एक घंटे बाद दिया गया।*
*युवान पीड़िका में लिखे लोध्र, वच और धनिया का paste बना कर लेप कराया तथा एक घंटे तक लगा रहा और जब लेप dry हो गया तो मुख से हटा कर के face wash कराया।*
*strech mark cream - इसे प्रातः स्नान के पश्चात धीरे धीरे ऊंगलिये से मलने के लिये कहा, इसके घटक द्रव्य चित्र में लिखे हैं।*
[7/14, 11:05 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*कुंकुमादि क्रीम - इसे रात्रि में लोध्र, वच और धनिया का लेप सूख कर मुख धोने के बाद रात्रि कोलगाया।*
*घटक द्रव्य -*
*कुमकुमादि तेल, नलपरमादि तेल थोड़ी मात्रा में मुलेठी, लेवेंडर, खीरा, गाजर के बीज, नींबू, हल्दी, संतरा, पपीता, मंजिष्ठा, एलोवेरा, मेथी और लाल चंदन, अर्क रूप में*
*शीत वीर्य, पित्तशामक विशेषकर भ्राजक पित्त पर उत्तम कार्य, त्वचा को ओजस्वी, pigmentation रहित बनाती है और वैवर्ण्य दूर कर देती है।*
[7/14, 11:05 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*रोगी को आशातीत लाभ मिल गया है और अब चिकित्सा अंतिम चरण में है।*
[7/14, 11:12 PM] Prof. Madhava Diggavi Sir:
Thank you so much sir.. it's a good experience to understand the case.
[7/14, 11:12 PM] Vd.Abhishek Thakur:
👏🏻👏🏻🙏🏻 जय आयुर्वेद 🚩
[7/14, 11:21 PM] Vd Devashish Panda:
Samprapti Vighatanam Eva Chikitsa....
This is Asli Ayurveda Guruji🙏
[7/15, 6:47 AM] Vd Shailendra Mehta:
धन्यवाद,
गुरुदेवश्री,,,🧎🏻♂️💐
[7/15, 7:09 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*प्रणाम गुरुवर*
🙏🙏🙏
[7/15, 7:24 AM] Dr. Ashwani Kumar Sood:
Thanks for dedicating time and experience.
****************************************************************************************************************************************************************************************************************************
Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday (Discussion)' a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.****************************************************************************************************************************************************************
Presented by-
Vaidyaraja Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by-
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by-
Dr. Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
P.G. Dept of Kayachikitsa
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, Gujarat, India.
Email: kayachikitsagau@gmail.com
Comments
Post a Comment