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WDS99: *Radiotherapy & Agni by Vaidyaraja Subhash Sharma, Prof. Arun Rathi, Vd. Bharat Padhar, Vd. Deepika Sharma, Vd. Pawan Madaan, Vd. Bhadresh Nayak, Vd. Divyesh Desai, Vd. V. B. Pandey & Others.

[8/6, 11:50 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:


 *radiotherapy और कारण द्रव्य अग्नि ...*

*'ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ' ऋगवेद 1.1.1*

*ऋग्वेद का आरंभ ही अग्नि की प्रार्थना से होता है, और यह परमात्मा का विशेष गुण भी है। ऋगवेद के पहले अध्याय के पहले सूक्त के 9 श्लोक हैं जो अग्नि को ही समर्पित है। यह अग्नि ही तो है जिसने परमाणुओं के समन्वय के निर्माण की प्रक्रिया शुरू की और आकाश से प्रकट हुई। अग्नि की शक्ति के कारण ही विभिन्न नक्षत्र और ग्रह बने तथा संसार में समस्त सृजन अग्नि द्वारा निरंतर और पोषित है और जब प्रलय या अंत आता है, तो पूरी रचना अग्नि द्वारा भस्म हो जाती है।*

*आयुर्वेद का पिण्ड-ब्रह्माण्ड न्याय एवं पंच तत्व अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश में यह अग्नि ही है जो दूसरों की संरचना और अखंडता की अनुमति देता है और उनका संरक्षण भी करता है, ऋगवेद ब्रह्मांडीय ज्ञान का भंडार है और तेज भी कहा जाता है तथा इसका प्रत्यात्म लक्षण है 'उष्णस्पर्शवत्तेजः' जिस द्रव्य में प्रथम तो उष्ण स्पर्श हो और रूप गुण समवाय संबंध में स्थापित हो वह तेज है।*

*अगर किसी द्रव्य में उष्ण गुण संयोग संबंध के रूप में विद्यमान है तो वह तेज नही है जैसे गर्म तवा जिस पर हम रोटी सेंकते है वह गर्म है पर अग्नि वहां संयोग स्वरूप है और गैस बंद करने के कुछ समय पश्चात वह शीतल हो जायेगा।*

*यह अग्नि या तेज संसार में दो प्रकार से है l

1- नित्य जो परमाणु स्वरूप है और आग्नेय या तैजस द्रव्यों की उत्पत्ति में कारण है तथा इसका कभी विनाश नही होता तथा दूसरा है स्थूल स्वरूप l

2- अनित्य तेज या अनित्य अग्नि जो प्रत्यक्ष गम्य है और अनुभव किया जा सकता है जैसे radiotherapy, chemotherapy, घर में जलने वाले बल्ब, रसोई घर में भोजन पकाने की गैस, microvave, oven आदि।*

*सृष्टि में अग्नि मुख्यतया तीन रूपों में रहती हैं। पृथ्वी पर उपरोक्त जो अनित्य प्रकार बताया है वैसे, आकाश में सूर्य बनकर और वायुमंडल में बिजली या विद्युत बनकर। इनके अतिरिक्त संसार के हर जीव और निर्जीव में वह ऊर्जा बनकर रहती है।*

*सु सू 12 अध्याय अनित्य अग्नि या भौम तेज के चिकित्स्य स्वरूप 

'अथातोऽग्निकर्मविधिमध्यायं व्याख्यास्यामः यथोवाच भगवान् धन्वन्तरिः' 1-2

 इसी पर तो आधारित भी है बस इसमें अग्नि चिकित्सा की विकिरण विधा ना ले कर इसका उपयोग किया है जिसमें आग्नेय भाव समान ही रहेंगे ।*

*radiotherapy में अग्नि के तीन गुण विद्यमान रहते हैं जो उष्ण, तीक्ष्ण और रूक्ष हैं । जब भी radiotherapy के पश्चात हम रोगी देखते हैं तो इन गुणों के कारण उनमें पित्त और वात की वृद्धि तथा कफ का क्षय मिलता है। रक्त दुष्टि के लक्षण विद्यमान रहते है ओज क्षय मिलता ही है क्योंकि कफ का क्षय हो रहा है।*

*अब प्रश्न यह है कि क्या हम इसे दूषी विष मान सकते हैं ? 
हमारा मत है नहीं । दूषी विष का प्रयोग तब माना जायेगा जब chemotherapy दी जायेगी। *

*यहां अब क्या घटित होगा ! अचय पूर्वक प्रकोप होगा। तीव्र आतप में बाहर निकलते ही उर्ध्वग रक्तपित्त क्या है ? अचय पूर्वक प्रकोप है ।*

*अचय पूर्वक रोगों की चिकित्सा का श्रेष्ठ उदाहरण रक्तपित्त है, रक्तपित्त की कोई विशिष्ट शमन चिकित्सा नही बताई गई है और चिकित्सा के दूसरे अध्याय में चिकित्सक को युक्ति सिखाई गई है 'मात्रां देशं कालं चाभिसमीक्ष्य' । अचय पूर्वक व्याधियां आशुकारी और विनाश कारी होती हैं यह दावाग्नि के समान ही विनाश करती हैं ।*

*दूषीविष का प्रकोप प्रायः चय पूर्वक होता है 

'दूषीविषं तु शोणितदुष्ट्यारुः किटिमकोठलिङ्गं च विषमेकैकं दोषं सन्दूष्य हरत्यसूनेवम्'

च चि 23/31 

इस पर चक्रपाणि का मत साथ में है कि 'कालान्तरप्रकोपि विषं दूषीविषम्' दूषी विष एकदम से नही अपितु कुछ काल के बाद अपना प्रभाव दिखाना आरंभ करता है।*

*यहां rediotherapy की अवधि में या तुरंत बाद कोई दोष प्रकोप होते हैं तो दोषानुसार कल्पना करके 'युक्ति' जो स्वयं मे चिकित्सा ही है की जाती है। जैसे वात-पित्त शामक, रस-रक्त प्रसादक, जीवनीय, बल्य, श्रमहर, ओजोवर्धक, अग्नि सम्यग् होने पर बृंहण।radiotherapy के परिणाम स्वरूप लक्षणों में सम्प्राप्ति का निर्माण संभव ना हो कर chemotherapy के पश्चात प्राप्त लक्षणों में होता है।*

[8/6, 11:57 AM] Dr. Bharat Padhar: 

According to Rigveda, Agni holds great significance as one of the most prominent deities. Agni is the Vedic god of fire and is considered a messenger between humans and the gods. Here is some information about Agni in the context of the Rigveda:

 *Divine Attributes:* 

1. Fire and Light: 

Agni is primarily associated with fire, representing its transformative and purifying qualities. He is described as having a radiant appearance and is often depicted with fiery attributes.

2. Messenger: 

Agni is considered a divine messenger who carries offerings and prayers from humans to the gods. He acts as an intermediary, facilitating communication between mortals and the divine realm.

3. Sacrificial Rituals: 

Agni is closely associated with sacrificial rituals in the Rigveda. He is invoked during fire rituals, where offerings are made to him as a means to establish a connection with the gods.

4. Divine Priest: 

Agni is sometimes portrayed as a priest who presides over the sacrificial ceremonies. He is believed to bring the offerings to the gods and ensure their acceptance.

 *Symbolism and Role:* 

1. Symbol of Vitality: 

Agni is seen as a symbol of life and vitality in the Rigveda. Fire was crucial for survival, cooking, and protection, and Agni's presence ensured the well-being and prosperity of the community.

2. Mediator: 

Agni acts as a mediator between humans and gods, carrying their prayers and offerings to the divine realm. He is often invoked at the beginning of hymns and rituals to facilitate communication with the deities.

3.Purification & Transformation: 

Agni's association with fire represents purification and transformation. Fire is believed to burn away impurities and offer a pathway for spiritual growth and enlightenment.

4. Cosmic Order: 

Agni is seen as a cosmic force that upholds the natural order. He is believed to pervade the entire universe and maintain the balance between the earthly and divine realms.

 *Significance* :

1. Hymns: 

Agni is praised in numerous hymns throughout the Rigveda, highlighting his importance and central role in Vedic rituals and beliefs.

2. Ritual Practices: 

Agni's presence is essential in sacrificial rituals performed by the Vedic priests. He is invoked to ensure the successful completion of the ceremonies and the fulfillment of the worshippers' desires.

3. Spiritual Connection:

 Agni serves as a symbol of the connection between humans and the divine, embodying the ritualistic and spiritual practices of the Rigvedic period.

[8/6, 12:01 PM] Dr. Bharat Padhar: 

Agni is responsible for Sharira- Indriya-Satva-Atma *संयोग* (connection through energy) which is धारी, जीवित, आयु।

[8/6, 12:02 PM] Dr. Bharat Padhar: 

Transformative Nature of Agni Produces the energy to maintain connection between about four.

[8/6, 12:03 PM] Dr. Bharat Padhar: 

Purification nature helps to eliminate waste products and negative thoughts from body and mind respectively.

[8/6, 12:04 PM] Dr. Bharat Padhar: 

I have seen lot of cases where apla Agni bala is associated with depression or negative thoughts.

[8/6, 12:05 PM] Dr. Bharat Padhar: 

Messager type of Nature of Agni is helping to communicate between Sthool and Suksham Sharira.

[8/6, 12:07 PM] Dr. Bharat Padhar: 

Lightening of Agni helps to achieve शुद्ध ज्ञान and सत्वगुण
 अग्नि breaks or reduces  मोह, तामस, and thus improves progress in way of spiritual path.

बलमारोग्यमायुश्चप्राणाश्चाग्नौप्रतिष्ठिताः।
अन्नपानेन्धनैश्चाग्निर्ज्वलतिव्येतिचान्यथा ॥३४२॥

[8/6, 12:35 PM] Dr. Bharat Padhar: 

प्राणायतन में स्थित प्राण अग्नि के आधीन है। हृदय, बस्ति एवम शिर इन तीनो की प्राकृत क्रिया अग्नि के अधीन है।
शरीर में दुषी विष या creatinin, urea इत्यादि अग्निबल कम होने से बढ़ते है।

हिताभिर्जुहुयान्नित्यमन्तरग्निंसमाहितः।
अन्नपानसमिद्भिर्नामात्राकालौविचारयन्॥३४५॥
आहिताग्निःसदापथ्यान्यन्तरग्नौजुहोतियः।
दिवसेदिवसेब्रह्मजपत्यथददातिच॥३४६॥
नरंनिःश्रेयसेयुक्तंसात्म्यज्ञंपानभोजने।
भजन्तेनामयाःकेचिद्भाविनोऽप्यन्तरादृते॥३४७॥

[8/6, 12:42 PM] Dr. Bharat Padhar: 

A person with discipline and self-control should always feed his agni with the fuel of wholesome food and drink and stay mindful of the consideration of measure and time. [345]

The man whose agni is well tended, who feeds it duly with wholesome diet, who does daily meditation, charity and the pursuit of spiritual salvation, and who takes food and drinks that are wholesome to him, will not fall to approaching diseases except for special reasons. [346-347]

[8/6, 12:46 PM] Dr. Bharat Padhar: 

प्राकृत धी, धृति एवम स्मृति के बिना हितकर अन्नपान का सेवन असंभव है। अतः ज्ञान रूपी अग्नि से ही परिणात्मक अग्नि का प्राकृतिक स्वरूप संभव है। ज्ञानरूपी अग्नि सत्व गुण के अधीन है। अतः हमेशा बाह्य जगत से सर्वाधिक सत्व गुण की वृद्धि हो ऐसे पंच तन्मात्रा का सेवन हितकर है ।
 इति अग्नि अध्यायं।🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[8/6, 6:21 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

क्लीनिकल प्रैक्टिस में दोष दूषय स्रोतस से भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है आम पाचन। एक  शिक्षित सज्जन जो कि दवा के व्यापार से ही जुड़े थे डिप्रेशन निवारण हेतु जटामांसी व अश्वगंधा के प्रयोग से विगत छह माह से ठीक थे एक दिन समाचार मिला कि यकायक सिरदर्द व बेचैनी बहुत बढ गई सो पुनः एलोपैथिक की शरण में पहुंच गए। हमने बहुत सोचने पश्चात यही निष्कर्ष  निकाला कि संभवतः अजीर्ण होकर आम विष बना और प्राण वायु के साथ मिलकर सब चौपट कर दिया हमें आम पाचन पर विशेष ध्यान रखकर चिकित्सीय योग तय करना चाहिए था न कि लक्षण देखकर। (ऐसा मेरा विचार है)🙏

[8/6, 7:39 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*पाण्डे जी, आम किस दोष से संबंधित  या सदृश होती है, वात से, पित्त से या कफ से ?*

[8/6, 7:49 PM] Dr.Deepika:

 सादर प्रणाम गुरू जी, पित्त अगर आम हो तो दुर्गन्धित होती है, मुख का taste कड़वा होगा, कफ यदि आम हो तो मुख का स्वाद लवण और मधुर होगा, शरीर में भारीपन होगा, वात अगर कफ से awarit होगी तो वैसे लक्षण, पित्त से अवरित होगी तो पित्त के लक्षण होंगे।

[8/6, 8:01 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*आम किस के सदृश है ?*

[8/6, 8:01 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

आम जहां तक हम समझते हैं दूषी विष है पिच्छिल स्वभाव का है गुरू है स्रोतों में अवरोध उत्पन्न करता है और जिस भी दोष से मिलता है सामता उत्पन्न करता है । अग्निमांद्य से आम विष बनता है।

[8/6, 8:02 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*पिच्छिल और गुरू किस दोष से संबंधित है ?*

[8/6, 8:03 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

कफ दोष के सदृश।

[8/6, 8:08 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*दोष मिल गया ?👍*

 *अग्निमांद्य जाठराग्नि का तो दूष्य अन्न रस *

 *सर्वप्रथम स्रोतस अन्नवाही*

 *तीनो मिल गये तो फिर दोष दूष्य स्रोतस मानते हैं ना आप ?*

[8/6, 8:11 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ):

 जी !

[8/6, 8:12 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*प्रथम पंचनिदान के बाद ही तो चिकित्सा होगी आदरणीय पाण्डेय जी, आपने सीधा चिकित्सा की ।* 👍

 *हेतु अवश्य प्राप्त करना है जो history से मिलता है।*

[8/6, 8:16 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

🙏रोगी विगत छह माह से जटामांसी व अश्वगंधा का सेवन कर रहा था व संतुष्ट था । हमें लगता है अपथ्य का सेवन किया जिससे अजीर्ण होकर आम बना जो पुनः सिरदर्द का कारण बना ।

[8/6, 8:17 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 


*आम विष जन्यरोग प्रायः घात्वाग्निमांद्य में मिलेंगे।*

[8/6, 8:18 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*रोगी को क्या था, कैसे रोग हुआ और कैसे रोग ठीक किया यह पूरा ज्ञान होगा तो cofidence रहेगा।*

[8/6, 8:22 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

🙏जी गुरूवर। रोगी का पूरा रिकार्ड रखने की शुरुआत करने जा रहे हैं अब। 🙏

[8/6, 8:30 PM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat: 

जठराग्निमांद्य = आमदोष➡️साध्य
धात्वाग्निमांद्य= आमविष ➡️कष्टसाध्य
भूताग्निमांद्य = महागद ➡️असाध्य 
क्या एसा समझा सकता है ???

[8/6, 8:33 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

जी मैं ऐसा नहीं मानता आम दोष उस नींबू के रस के समान है जो कितना भी शुद्ध दूध क्यों न हो उसे खराब कर ही देता है।

[8/6, 8:42 PM] Vd.Vinod Sharma Sir Ghaziabad: 

बहुत सही , 
ग्रहणी चिकित्सा का मूल और साध्य असाध्य समझने के लिए ये जानना बहुत आवश्यक हैं ।
    🙏🙏 
आम दोष कहां और किस  स्तर पर हैं, आमाशय में, धातुओं में या फिर भूतों (सभी पांचों पित्त) में स्थित हैं ?  यहीं से चिकित्सा का सूत्र मिलेगा ।

[8/6, 11:34 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*प्रश्न अभी अपूर्ण है, तीनों अवस्थाओं में रोगों के भी कुछ उदाहरण दीजिये।*

*महागद- 
'वातव्याधिः प्रमेहश्च कुष्ठमर्शो भगन्दरम् अश्मरी मूढगर्भश्च तथैवोदरमष्टमम् अष्टावेते प्रकृत्यैव दुश्चिकित्स्या महागदाः ' 

सु सू 33/4*

*महारोग- - 'वातव्याध्यश्मरीकुष्ठमेहोदरभगन्दराःअर्शांसि ग्रहणीत्यष्टौ महारोगाः सुदुस्तराः' 
अ ह 8/30*

*महाव्याधि- 'महाव्याधिर्वातव्याधिप्रमेहादिरष्टविधः' 

सु सू 32/6 की डल्हण टीका।*

*अचिकित्स्य रोग- 
'वातव्याधिरपस्मारी कुष्ठी शोफी तथोदरी गुल्मी च मधुमेही च राजयक्ष्मी च यो नरः अचिकित्स्या भवन्त्येते बलमांसक्षये सति' 

च इ 9/9*

*ग्रहणी तो महास्रोतस का जाठराग्निमांद्य जन्य अन्नरस से संबंधित है।*

*'एको महागद इति अतत्त्वाभिनिवेशः' च सू 19/8 महागद अतत्वाभिनिवेश में भूताग्निमांद्य निर्धारित करने के लिये क्या criteria of assessment बनायेंगे और वो भी before & after treatment ? 🤔*

Dr. Mansukh ji !

[8/7, 5:11 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat: 

🙏 प्रणाम गुरुवर !

[8/7, 6:24 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

जहाँ तक हम समझते हैं जठराग्निमांध्य ही धात्वाग्निमांध्य व भूताग्निमांध्य का कारण बनता है ।अजीर्ण जठराग्नि आमवात धात्वाग्निमांध्य व मधुमेह भूताग्निमांध्य का उदाहरण हो सकता है।🙏

[8/7, 9:18 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir: 

भैषज्य अजीर्णता का भी कोई संदर्भ /लक्षण व जनित परिणाम स्वरूप महागद का भी विचार करें। क्षुत्पिपासा उपरम यहां तक कि मरण भी।🌞🙏🏼🌞

[8/7, 10:01 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*नमस्कार मनसुख भाई, 🌹🙏 

आप तो आयुर्वेद के अति विद्वान है पर एक बार नये सदस्यों के लिये भूताग्नि का विषय स्पष्ट कर देते हैं जिस से अनेक नये ग्रेजुएट जिनका आयुर्वेद पक्ष क्षीण है उन्हे भी यह विषय समझ आ जायेगा....*

[8/7, 10:06 AM] Vd. Divyesh Desai Surat: 

✅✅
मूर्च्छा प्रलापो वमथु:,
प्रसेकः सदनं भ्रमः ।
उपद्रव भवन्त्येते,
 *मरणं* च अपि अजीर्णात:।
शायद योगरत्नाकर अजीर्ण प्रकरण का श्लोक है।👏👏

[8/7, 10:11 AM] Vd. Divyesh Desai Surat: 

जब कोई भी रोग से मृत्यु होने वाली है, तभी जो अजीर्ण होता है, इसके बारे में ये श्लोक है, यहाँ पे अजीर्ण के जो लक्षण है वो *अरिष्ट* के रूप में प्रकट होते है।👏👏

[8/7, 10:11 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*भूताग्नि को शरीर में कैसे समझेंगे ?*

*सब से पहले जाठराग्नि को समझें, जो भी आहार ग्रहण किया गया उसका पाचन आमाशय और पक्वाशय में हो कर परिणाम स्वरूप रस और मल के रूप में होता है, इस आहार रस में सातों धातु, उपधातुओं के अंश, पांचों इन्द्रियों के द्रव्य, शुद्ध धातुओं का निर्माण करने वाले तत्व रहते हैं ।*

*इस आहार रस पर पंचभूतों की अग्नि अपना कार्य कर के अपने अपने अनुसार गुणों में परिवर्तन कर के शरीर उस आहार को आत्मसात कर सके इस अनुरूप बनाती है ।

'भौमाप्याग्नेयवायव्या: पंचोष्माण: सनाभसा:,पंचाहारगुणान्सवान् स्वान् पार्थिवादीन् पंचयम्तु।यथास्वं ते च पुष्णन्ति पक्वा भीतगुणान् पृखक्।' 

अ ह 3/59-60 

शरीरगत पंचमहाभूतों की अपनी अपनी अग्नियां हैं जो आहार से संबंधित पार्थिवादि के निज गुण हैं, आहार में पंचभौतिक गुण या भाव इस प्रकार मिलेंगे.....*

*पार्थिव द्रव्यादि भाव च सू 26/11...*

*पार्थिव भाव *
*'तत्रगुरुखरकठिनमन्दस्थिरविशदसान्द्रस्थूलगन्धगुणबहुलानि पार्थिवानि '*

*गुरू, खर, कठिन, मंद, स्थिर, विशद, सान्द्र, स्थूल और गंध*

*जलीय भाव*
*'द्रवस्निग्धशीतमन्दमृदुपिच्छिलरसगुणबहुलान्याप्यानि'*

*द्रव, स्निग्ध, शीत, मंद, मृदु, पिच्छिल और रस*

*आग्नेय भाव*
*'उष्णतीक्ष्णसूक्ष्मलघुरूक्षविशदरूपगुणबहुलान्याग्नेयानि'*

*उष्ण, तीक्ष्ण, लघु, सूक्ष्म, रूक्ष,  विशद और रूप*

*वायव्य भाव*
*लघुशीतरूक्षखरविशदसूक्ष्मस्पर्शगुणबहुलानि वायव्यानि, *

*लघु, शीत, रूक्ष, खर, विशद, सूक्ष्म और स्पर्श*

*आकाशीय भाव*
*'मृदुलघुसूक्ष्मश्लक्ष्णशब्दगुणबहुलान्याकाशात्मकानि*

*मृदु, लघु, सूक्ष्म, श्लक्षण और शब्द*

*पंचभूतों की अग्नि अर्थात उपरोक्त भावों को यथावश्यक आत्मसात कर लेना।*

*इसका उदाहरण देते हैं....*
*आहार में सर्वाधिक रोगों का कारण गुरू गुण है जो पृथ्वी में प्रधान है और जल में भी है।
'गौरवं पार्थिवमाप्यं च' 
गुरू गुण पृथ्वी का विशिष्ट गुण है और वैशेषिक दर्शन में भी यह माना गया है कि दृश्य जल में गुरूत्व है। मूर्त्त द्रव्यों में पृथ्वी और जल ही गुरू सिद्ध होते हैं अत: पार्थिव और जलीय तत्व प्रधान द्रव्य शरीर में जा कर उनके आश्रित गुरूगुण के कारण विपरीत धर्मी जाठराग्नि, भूताग्नि एवं धात्वाग्नियों से चिरकाल में पचन हो कर शरीर में आत्मसात होते हैं तथा समान धर्मी कफ का वर्द्धन कर शरीर का पोषण करते हैं, मलों की वृद्धि कर शरीर में उपलेप और अवसाद करते हैं।*

*यहां भूताग्नि में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि पंचभूतों का प्रत्यात्म और नैसर्गिक गुण तो कहीं involve नहीं हो गया जो नहीं होना चाहिये अन्यथा व्याधि दुष्चिकित्स्य हो जायेगी जैसे गंध गुण पृथ्वी का है और covid 19 में इसके नष्ट होते ही पार्थिव शरीर काल से पूर्व असमय ही पंचतत्वों में विलीन हो गये।*

*वात व्याधियों में पक्षाघात और कुछ अन्य रोगों में स्पर्श जो वायु का गुण है क्षय या नष्ट हो जाना, diabetic neuropathy में भी अनेर रोगियों में स्पर्श गुण का अभाव।*

*Sjogren's syndrome देखें, 

'देहो रसजोऽम्बुभवो रसश्च तस्य क्षयाच्च तृष्येद्धि, दीनस्वरः प्रताम्यन् संशुष्कहृदयगलतालुः' 

च चि 22/16 

यह शरीर रस से उत्पन्न होता है और पुष्टि प्राप्त करता है तथा रस जल से उत्पन्न होता है और क्लेद एवं आर्द्रता भी जल का ही अंश है जिसका शोष हो कर ह्रदय प्रदेश, गला तथा तालु शुष्क होने लगते है । जल का प्रत्यात्म गुण यहां रस है और वो ही चला गया, इसका अभिप्राय जल की अग्नि मंद हो गई, स्पर्शनाश में वात की अग्नि और स्थौल्य या मेदोरोगी में पृथ्वी और जल की अग्नि मंद हो गई है।*

*भूताग्नि का अभिप्राय कि पंचभूतों के अपने जो नैसर्गिक गुण है वो उनको आहार से निकाल कर आत्मसात कर शरीर का पोषण नहीं कर पा रहे या स्थिर नही रख पा रहे अथवा अनावश्यक भावों को निकाल नहीं पा रहे ।*

*वृद्धावस्था में सुनाई कम देता है, रोगियों से ऊंचे स्वर में बोलना पड़ता है अर्थात आकाश महाभूत की अग्नि मंद है।*

*पंचभूतों की अग्नि के बाद धात्वाग्नियां अपना कार्य आरंभ करती हैं और अग्नि मंद है तो उस अन्न से बना आहार रस का पाक पूर्ण नही हो पाता और इस अपक्व आम रस जिसका क्षेत्र आमाश्य से नाभि तक है में अपक्वता से शुक्तता (fermentation) हो कर आम विष की उत्पत्ति होती है इसे ....

'स दुष्टोऽन्नं न तत् पचति लघ्वपि अपच्यमानं शुक्तत्वं यात्यन्नं विषरूपताम्' 

च चि 15/44 

में स्पष्ट किया है।अब जाठराग्नि की दुर्बलता से इस अपक्व रस का क्या होता है ? अगर यह अन्न रस बिना पक्व हुये आमावस्था में रहता है तो आमाशय और पक्वाशय में रह कर ज्वर, अतिसार, अजीर्ण, ग्रहणी आदि रोग उत्पन्न करता है और इसकी संज्ञा आम विष युक्त आम रस होती है और यह आम विष विभिन्न स्रोतों के माध्यम से शरीर में जहां भी जायेगा वहां रोग उत्पन्न करेगा। धात्वाग्नियां जाठराग्नि पर ही निर्भर है, अगर इस रस का पूर्ण पाक जाठराग्नि हो जाता है तो यह किट्ट रहित रस संज्ञक हो कर 'यस्तेजोभूत: सार: परमसूक्ष्म: स रस इत्युच्यते' सु सू 14/3 परम सूक्ष्म हो कर सूक्ष्म स्रोतों में प्रवेश कर व्यान वात की सहायता से ह्रदय में पहुंच कर व्यान वायु के द्वारा ही 24 धमनियों के माध्यम से प्रत्येक दोष धातु मल एवं सूक्ष्म अव्यवों तक पहुंचता है।*

*तीन या 13 अग्नियां आपस में इस प्रकार लयबद्ध हैं कि आप इनका कार्य अलग कर नहीं सकते क्योंकि जाठराग्नि में बल आते ही इन्हे बल मिल जाता है। अग्नि तो शरीर एक ही बस नाम कार्य के अनुसार अलग अलग रख दिये है।*

[8/7, 10:16 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*सुप्रभात - सादर नमन समस्त काय सम्प्रदाय 🌹🙏*

[8/7, 11:01 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

बहुत सरल शब्दों में आपने समझाया ।🙏

[8/7, 11:02 AM] Vd. Divyesh Desai Surat: 

👏👏आयुर्वेदमे 13 अग्नि और 3 दोषो को, 3 नाड़ी को, पृथक करना केवल गुण कर्म पे आधार रखते है, अन्यथा  पृथक करना मुमकिन नहीं है।
आदरणीय सुभाषसर  प्रत्येक अणु /विषयसे आयुर्वेदको समझाते हैं तो इतने समय के लिए आयुर्वेद स्मृतिमें आ जाता है, किन्तु प्रज्ञापराध से वापिस स्मृति का भ्रंश हो जाता है, या फिर apply करने के समय
 *Impliment Paralysis*
हो जाता है, आयुर्वेदमे जितने भी निज रोग है, इनमे तीनो दोषो का involvement होता ही है, या तो  दोषोंके गुणों की वृद्धि है, या क्षय है, व्यान वायु की हाजरी या गैरहाजरी होती ही है ।👏👏

[8/7, 11:05 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat: 

🙏 प्रणाम गुरुवर 
       में कोई विद्वान विद्वान हु नही । स्व. डो सत्येन्द्र ओझा सर से आयुर्वेद सी खना शरु किया था और आपसे भी सी ख रहे है | 
  आप शिष्य समझ कर अपना लिजिए।

[8/7, 11:12 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

लंघन करने से प्रज्ञापराध से भी बचा जा सकता है।

[8/7, 12:21 PM] Dr.Deepika: 

समस्त काय संप्रदाय गुरुजनों को सादर प्रणाम,जब हम first year mein शारीर क्रिया पढ़ते थे, तब ये प्रश्न पूछा जाता था की भूतग्नि का क्या कार्य है ?
तब ये बताते थे की ये अग्नि खाए हुए आहार के सार को शारीर स्धर्मी अंश में परवर्तित करती है।
अगर शारीर सधर्मी अंश नहीं होगा तो वो किसी काम का नहीं होगा।

[8/7, 12:22 PM] Vd. Divyesh Desai Surat: 

👏👏कैसे बचा जा सकता है? कृपया विस्तृत जानकारी दे, पांडे सर👏👏

[8/7, 12:25 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola: 

*प्रणाम गुरुवर*
🙏🙏🙏

*भूताग्नि का प्रायोगिक पक्ष, अत्यंत सरल और स्पष्ट वर्णन*
*आप हर बार आचार्य चक्रपाणि के इस उक्ति का साक्षात्कार अपने लेखन से करवाते हो,*
*प्रकृतिज्ञानानन्तरत्वाद् विकृतज्ञानस्य*
च. चि. १५ / ३ से १४ पर चक्रपाणि.
*"Medicine Is What, Physiology Makes It"*

*गुरुवर द्वारा उपरोक्त दिये भूताग्नि के विवेचन पश्चात हम सभी को चरक चिकित्सा स्थान के १५ अध्याय "ग्रहणीदोषचिकित्सा" के प्रथम १ से ४० तक के श्लोक का अध्ययन करना चाहिए*
*अग्नि एवं पाचन प्रक्रिया मस्तिष्क पटल पर छप जायेगी*

🙏🙏🙏

[8/7, 12:42 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola: 

*अग्नि निरुक्ती:*
                                                                                                                           *गतौ धातु से ( गतिसुचक ).                                                                        ऊर्ध्वगति - to Sublimate.                              
# अंगति ऊर्ध्वगच्छति इति अग्निं ।                                                           # अंगति व्याप्नोति इति अग्निं।   
                                  शरीर में विजातीय आहारद्रव्यों को सजातिय बनाने के लिए निरन्तर (जन्म से मृत्यु तक) कार्य जिस तत्व व्दारा किया जाता है, उसे अग्नि कहते है।*
                                                                              *आमाशय:*
                                                   *नाभिस्तनान्तरं जन्तोरामाशय इति स्मृतः।                                                                 
अशितं खादितं पीतं लीडं चात्र विपच्यते।*                                                च. वि. अ. ३ /१७.   
                                        
 *नाभि एवं व्दय स्तन मध्ये इस प्रदेश 
(Surface Anatomy) मे आनेवाले सभी अवयव यह आमाशय के अन्तर्गत आते है ।*

*Ayurvedic Physiolgy of Digestion and Metabolism. :*                                                                
                                                                             अन्नमादानकर्मा तु प्राणः कोष्ठ प्रकर्षति ।                                                              तदद्रवैर्भिन्नसंधातं स्नेहेन मृदुतां गतम् ।।                                                                 समानेनावधूतो अग्नि उदर्यः पवनोद्वहः ।                                                                           काले भुक्तं समं सम्यक पचत्यायुर्विवृद्धये ।।                                                                                                  च.चि 15 / 6 -7 .                                                                      *मधुरावस्थापाक*:                                                      अन्नस्य भुक्तमात्रस्य षडरसस्य प्रपाकतः ।                                                        मधुराद्यात कफो भावात् फेनभुतं उदीर्यते ।।                                                                                                                                                                                                           *अम्लावस्थापाक* :                                                                परं तु पच्यमानस्य विदग्धस्याम्लभावतः ।                                                     आशयाच्च्यवमानस्य पित्तमच्छमुदीर्यते ।                                                                                                                  *कटुावस्थापाक* :                                                                                                   पक्वाशयं तु प्राप्तस्य शोष्यमाणस्य वहि्नना ।                                                           परिपिण्डितपक्वस्य वायुः स्यात कटुभावतः।।                                                                                                                                                                                                                               च.चि. 15 / 9 -11.                                            
                                                                                                                       *Significance of Digestion and Metabolism in Mahasrotras  :                                            
1). In Mahasrotas due to action of Jatharagni and Bhutagni the food in Vijatiya form for Body is converted into nearly Sajatiya form (pre- homologues).                                 
2). In Madhurabhava Paka, which takes place in Urdhav Amashaya (main site of Kapha) due to bhinna sanghatam (break down) of food articles by the  mouth , teeth, oesophahus, stomach and their secrections, POSHAKHA KAPHA is increased, due to this poshana of KAPHA takes place. Similarly in Amlabhava Paka which takes place in Adhoamashaya (main site of Pitta)  POSHAKHA PITTA is increased, due to this Poshana of Pitta takes place. In Katubhava paka which takes place in Pakwashaya (main site of Vayu) POSHAKHA VAYU is increased, due to this Poshana of Vayu takes place.                                    
 
3). Stimulation of Jatharagni activates Bhutagnis,  which activates and separates all the Bhautic constituents present in the food articles, thus they are made Sajatiya for Body Tissue from the state of Vijatiya. 
(Homologus from Hetrologus).                                                                    
4). The absorption of Annarasa takes place near by Adhoamashaya and Pakwashaya which contents both Prasadhakhya and Malakhya Dhatus, which are necessary for the Poshana of Dhatus and Malas.                                                                                    
5). In Mahasrotas itself Poshana of Annakittas i.e. Purisha and Mutra takes place and the resedue of Mahasrotas are excreted at proper time.*
                                                                                                                                                                 *Digestion And Metabolism at Tissue Level in Ayurveda i.e.*

*धातु अग्नि पाक परम्परा*
                                                       *विविधम शितं पितं लीठं खादितमं  जन्तोर्हितमन्तराग्निसन्धुक्षितबलेन, यथा स्वेमोष्मणा सम्यग् विपच्यमानं कालवदनवस्थित सर्वधातुपाकमनुपहत, सर्वधातुऊष्मारुत स्त्रोतः केवलं शरीरम्उपचयबलवर्णसुखायुषायोजति, शरीरधातुनउर्ज्यतिच ।                                                                                                                                                         
धातवो हि धात्वाहार  प्रकृतिम अनुवर्तन्ते*।। 
च.सू. 28/3.
                                                                                                                                *Here again for धातुअग्नि व्यापार, Four factors are responsible, these are 

1). अन्न रस .                                                                                             2). व्यान वायु.                                                 
3). धातुवह स्त्रोतस .                                            
4). धातुअग्नि.                                                     If these above four factors are in प्राकृतावस्था then and only then सम्यक पोषण and वर्धन of these धातू, उपधातु, धातुमल takes place.*

*सप्तभिर्देहधातारोधातवो द्विविधंपुनः।*                                                    *यथा स्वमग्निभिः पाकंयान्तिकिट्टप्रसादवत्।।*
च.चि.15 / 15. 
                                                                     *आमोत्पत्ति होने पर उपरोक्त सामान्य अग्नि व्यापार मे विकृति उत्पन्न होती है। आम उत्पत्ती होने पर शरीरार्न्तगत अवस्थापाक, विपाक से शुरु होकर धातुपोषण तक मे विकृति उत्पन्न होती है । अवस्थापाक मे विकृति होने से शरीरस्थ दोषों का पोषण सम्यक नही होता है और दोषों मे विकृति उत्पन्न होती है।*
अग्नि कार्य यह सुचारु रुप से न होने के कारण विपाक मे भी विकृति उत्पन्न होगी। सामान्यतः मधुर एवं लवण रस प्रधान द्रव्यों का विपाक मधुर, अम्ल रस प्रधान द्रव्यों का विपाक अम्ल और कटु, तिक्त, कषाय रस प्रधान द्रव्यों का विपाक कटु होता है। आमावस्था मे इन द्रव्यों का विपाक क्या होगा यह कहा नही जा सकता है। ऋतु, देश, काल, रुग्ण की प्रकृति, वय, उसकी आहारविहार परिचर्या आदि पर निर्भर होगा एवं आम यह जिस अवयव, आशय, स्त्रोतस् और धातु मे जाकर विकृति उत्पन्न कर, जो सम्प्राप्ति होगी,उसी अनुसार आम के लक्षण उत्पन्न होगे।                                   आमवात, वातरक्त, ग्रहणी, प्रायः सभी त्वचाविकार, प्रमेह, उदर आदि रोगों मे आमोत्पत्ति यह मुख्य कारण होता हैं।

अग्निकार्य दुष्टी is always their in *आम उत्पत्ति.*
*but these Disorders can never be only due jito अग्नि दुष्टी। 
So in Systemic Disorders such as Metabolic Disorders वातदुष्टी is always there. In t/t वात चिकित्सा और अग्नि चिकित्सा i.e. धातुअग्नि चिकित्सा should be kept in mind.*
*आयुर्वेदिय दुष्टीकोण से किसी भी व्याधी को समझने के लिए एवं उसकी चिकित्सा करने के लिए रोगमार्ग, स्रोतस, दोषदूष्यसंमूर्च्छणा आदि निदानपंचक का ज्ञान होना ज़रूरी है | उसी तरह विकारावस्था के पूर्व प्राकृतावस्था का ज्ञान आवश्यक है ।*                                           
                                                    *प्रकृतिज्ञानानन्तरत्वाद् विकृतज्ञानस्य ।*                                                                                                   चरक.चि.15 / 3 से 14 पर चक्रपाणि.                                                      *" Medicine Is What Physiology Makes It "*                                                
आयुर्वेद क्रियाशारीर का प्राध्यापक होने से अधिकार से कह सकता हूँ, की Applied Aspect Of Physiology का 80 - 90 प्रतिशत तक वर्णन यह चरक चिकित्सा स्थान के अध्याय -15 ग्रहणीदोष चिकित्साध्याय
और अध्याय - 28 वातव्याधी चिकित्साध्याय मे मिलता है |                                  ग्रहणीदोष अध्याय मे अग्निकार्य, अग्निदुष्टी, आहारपचन, अवस्थापाक, विपाक, अन्नरस निर्माण, जठाराग्नि, भुताग्नि, धात्वाग्नि व्यापार, धातु उत्पत्ती, धातु पोषण, ओज उत्पत्ती का वर्णन मिलता है | 
वातव्याधी अध्याय मे वायु प्रकार, दोषधातुगत वात लक्षण और वात आवरण लक्षण एवं वात व्याधी वर्णन यही मिलते है |
 यह दोनो अध्याय रोग सम्प्राप्ति समझने के लिए और उसकी चिकित्सा करने के लिए पढना आवश्यक है |                                                  *Here only we can get the Applied Aspects.*

 👆🏻👆🏻👆🏻👆🏻
*यह पोष्ट पहले भी ग्रृप पर प्रकाशित की गई है*
*नये सदस्यों के लिए पुनः पोष्ट कर रहा हूँ*

*इसे पढने से पुनः अग्नि कर्म का revision होगी*

[8/7, 12:52 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola: 

*गुरुवर वैद्यराज सुभाषजी शर्मा सर ने सही कहा है, जठाराग्नि, भूताग्नि, धात्वाग्नि, मलाग्नि, उपधात्वाग्नि आदि आपस मे इतने लयबद्ध होते  है इनका कार्य अलग नही कर सकते है*
*आहार आदि जीतने शरीर सजातीय होगे उतना कम अग्नि कार्य होगा*

[8/7, 1:32 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*कल से आगे ... आज भाग 2 .. चिकित्सा पक्ष के प्रमाण के साथ ...* 👇🏿

 *case presentation -

 radiotherapy और अग्नि- भाग 2 चिकित्सा पक्ष सहित ...*

*अग्नि का प्रयोग हम चिकित्सा में किस प्रकार करते है कि अत्यन्त गंभीर एवं असाध्य रोग जिन्हें अब तक माना जाता रहा है उसमें हम रोगी को उस उच्च सीमा तक लाभ दे सकते हैं जिस से वह दीर्घ काल तक एक quality life जी सकता है।*

*अग्नि का एक प्रायोगिक पक्ष आप इस प्रकार भी समझ सकते हैं जैसे ...*

*Anti-mutagenic or Anti-tumor Herbs -*

*भल्लातक*
*पिप्पली*
*कालमेघ*

*Immunomodulatory Herbs*

*गौमूत्र*
*पिप्पली*
*कालमेघ*
*गुडूची*

*Radioprotective Herbs - *

*शिग्रु*
*तुलसी*

*द्रव्यों में अग्नि उष्ण-तीक्ष्ण आदि विभिन्न रूप में मिलती है जैसे द्रव्यों के उदाहरण से समझाते हैं...*

*1- भल्लातक - 

'भल्लातकफलं पक्वं स्वादुपाकरसं लघु कषायं पाचनं स्निग्धं तीक्ष्णोष्णं छेदिभेदनम् ' 

भा प्र हरीतक्यादि वर्ग 229, 

यह हमारा सर्वप्रिय द्रव्य है जो radio active गुण कैंसर कि चिकित्सा में रखता है। चरक में इसे कषाय स्कंध में रखा गया है, यह कषाय, मधुर, लघु, उष्ण, तीक्ष्ण और छेदन-भेदन करने वाला आग्नेय द्रव्य है।*

*ग्रन्थि, अर्बुद आदि संगदोष जन्य गंभीर व्याधियों में इन रोगों के विरूद्ध anti tumor क्षमता भल्लातक में  होती है।*

*भल्लातक का milk  extract of produces regression of hepatocarcinoma by stimulating the host immune system and normalizing tumor markers including alpha-fetoprotein levels ऐसा प्रयोग द्वारा सिद्ध हो चुका है।*

*In microsomes, it acts as a bifunctional inducer of phase I and II biotransformation enzymes and inhibits tumor initiation by inhibiting carcinogen activation. Histologically, upon treatment with भल्लातक extract for hepatocarcinoma animals, liver sections showed an almost normal architecture. The glands regressed completely and further cell necrosis was prevented.*

*भल्लातक has been used for many decades as an anticancer drug because it improves health with the reduction or disappearance of troublesome symptoms. It provides clinical benefit with extension of survival time in various cancers including esophageal, chronic myeloid leukemia, bladder and liver cancer.*

*2- गौमूत्र - 

'गोमूत्रं कटु तीक्ष्णोष्णं क्षारं तिक्तकषायकम् लघ्वग्निदीपनं मेध्यं पित्तकृत्कफवातहृत्' 

भा प्र मूत्र वर्ग- गौमूत्र/1, 

गौमूत्र तीक्ष्ण, उष्ण और क्षार होने के साथ दीपन होने से अग्नि का ही रूप है।*

*गौमूत्र में में 95% पानी, 2.5% यूरिया, खनिज, 24 प्रकार के लवण, हार्मोन और 2.5% एंजाइम होते हैं। इसमें लोहा, कैल्शियम, फास्फोरस, कार्बोनिक एसिड, पोटाश, नाइट्रोजन, अमोनिया, मैंगनीज, लोहा, सल्फर, फॉस्फेट, पोटेशियम, यूरिया, यूरिक एसिड, अमीनो एसिड, एंजाइम, साइटोकिन और लैक्टोज होते हैं ।*

*गौमूत्र में एंटीऑक्सीडेंट गुण होते हैं और यह एक मुक्त रेडिकल स्केवेंजर है, और इस प्रकार यह ऑक्सीडेटिव तनाव को बेअसर करता है।कीटनाशक बहुत कम मात्रा में भी डीएनए के विखंडन के माध्यम से लिम्फोसाइटों और ऊतकों के एपोप्टोसिस का कारण बनते हैं, जबकि गौमूत्र उनके एपोप्टोसिस को रोककर और क्षतिग्रस्त डीएनए की मरम्मत करके लिम्फोसाइटों को जीवित रहने में मदद करता है और इसलिए, कैंसर विरोधी थेरेपी के रूप में प्रभावी है।*

*3- पिप्पली - 

*रस - कटु*
*गुण - लघु, तीक्ष्ण, स्निग्ध*
*वीर्य - अनुष्ण शीत*
*विपाक - मधुर*
*कफ-वात हर, पिप्पली को लघुपाकी माना जाता है। चरक विमान 1/16 'शुभाशुभकारिण्यो भवन्ति आपात भद्रा' उचित मात्रा में शुभ और मात्रा से विपरीत अशुभ और शीघ्र ही अपना प्रभाव दिखाती है।*

*पिप्पली वात कफहर रसायन के साथ पाचन और रेचन है।पिप्पली जब तक आर्द्र अर्थात गीली होती है तब तक मधुर लगती है पर सूखने पर कटु हो जाती है।*

*पिप्पली में सक्रिय तत्व Piperine है, एंटीऑक्सीडेंट क्षमता होने के कारण इसका सक्रिय अल्कलॉइड पिपेरिन  एंटीकैंसर फॉर्मूलेशन में एक घटक के रूप में उपयोग किया जाता है।इसमें immune stimulation की क्षमता है।*

*पिप्पली का प्रभाव प्राणवहस्रोतस पर प्रत्यक्ष मिलता है और इसे फुफ्फुस के मेटास्टेसिस में निरोधात्मक प्रभाव के लिए भी जांचा गया है।*

*4- कालमेघ - *

*रस -तिक्त*
*गुण - रूक्ष और लघु*
*वीर्य - उष्ण*
*विपाक - कटु*
*कर्म - कफपित्त शामक *

*5- गुग्गलु -*

*'गुग्गलुर्विशदस्तिक्तो वीर्योष्ण: पित्तल:सर: कषाय: कटुक: पाके कटू रूक्षो लघु: पर:....’ 

भा प्र कर्पूरादि वर्ग*

*गुग्गलु कटु तिक्त कषाय उष्णवीर्य रसायन बल्य लघु रूक्ष विशद गुण युक्त है। इसे त्रिदोष नाशक भी कहा है, मधुर होने से वात हर, कषाय रस से पित्तहर और तिक्त रस होने से कफ नाशक है। मगर यही गुग्गलु पुराना होने पर ‘पुराणस्त्वतिलेखन:’ लेखन कर्म करता है अर्थात शारीरिक धातुओं को शुष्क कर शरीर से बाहर निकालता है।*

[8/7, 1:33 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

28-8-22
USG - Liver - CLD with PHT
Spleen - enlarged 15.1 CM
Uterus - 16/13 mm posterior wall uterine fibroid


[8/7, 1:33 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

17-7-23
USG - Liver - normal
Spleen - enlarged 18.12 CM 
Uterus - no fibroid


[8/7, 1:33 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*उपरोक्त केवल 5 द्रव्यों का प्रयोग तीन माह तक किया और साथ में फलत्रिकादि क्वाथ से यह 👆🏿परिणाम मिला, अब शरपुंखा + फलत्रिकादि से अतिशीघ्र spleen का size भी सामान्य कर देंगे।*

*ऊपर रूग्णा की विकृति देखिये इसे है क्या रोग ? बहुत सरल उत्तर है कि इसे कुछ नहीं मात्र कुछ स्रोतस में संग दोष है।स्रोतो दुष्टि में सब से प्रधान और अधिक मिलने वाली दुष्टि संग दोष है, इसको जब तक आप नहीं समझेंगे, आयुर्वेद चिकित्सा कर ही नही सकते। संग अर्थात मार्ग में रूकावट या स्रोतस का अवरोध है जिसके कारण दोष, धातु, उपधातु, मल, मूत्र और स्वेद आदि का वहन नही हो पाता। जो वाक्य अधिकतर आप आयुर्वेद में सुनते हैं कि 'एक देशे वृद्धि अन्य देशे क्षय' उसका मूल कारण भी संग दोष है।इसका उदाहरण रोगों में प्रथम और प्रधान ज्वर है जिसमें आम उत्पत्ति के कारण आमाशय में अग्नि का क्षय होता है पर आम  की वृद्धि होती है।*

*अन्तः व्याधियों में प्रायः संग दोष पार्थिव एवं जलीय प्रधान अधिक मिलेगा तब हमें अग्नि की आवश्यकता चिकित्सा में चाहिये तो दीपन, पाचन, उष्ण, तीक्ष्ण, कटु, सर आदि रूप में प्रतिनिधि पित्त के रूप में भी यह प्राप्त होगा।*

[8/7, 1:35 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*पिछले दो दिनों में लगता है हम आप सब को 'अग्नि' में बुरी तरह तपा और पका रहे हैं 
😜🤣😂*
🌹❤️🙏

[8/7, 1:39 PM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat: 

Sirji
Target medicine protocol
Similar to rediation
Without side effects 👏

[8/7, 1:47 PM] Vd. Divyesh Desai Surat: 

सर जी आपके लेखनसे ज्ञानाग्नि की वृद्धि होती है, तो आप और भी ताप दो, कोई दिक्कत नहीं...🤠
केवल अग्नि महाभूत ही ऐसा है,जो बिना मलिन हुए दूसरे पदार्थों को भी शुद्ध कर सकते है।। तो आपके ज्ञानाग्नि का लाभ मिलता है तो...
 *वृद्धि: समानै: हि सर्वेषां* न्याय के अनुसार हमारी ज्ञानाग्नि  की भी वृद्धि होगी ।।🌹🌹

[8/7, 1:50 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*बस यही उद्देश्य था आप सब को सिखाना कि उठो, जागो, आंखें खोलिये कि आप सब श्रेष्ठ ही नही सर्वश्रेष्ठ जनों में है जो आयुर्वेदीय सम्पदा से सम्पन्न है और महारोगों की चिकित्सा में भी समर्थ है। परिपूर्ण हो आप चिकित्सा में बस मात्र विधिवत प्रयोग कर लक्ष्य भेदन करना आना चाहिये।*

*अर्जुन बनो जिसे मछली नहीं उसका नेत्र ही दिख रहा है।* 🌹🙏

[8/7, 1:54 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*मनसुख भाई मैं तो स्वयं ही काय सम्प्रदाय में प्रतिदिन आप सब से कुछ ना कुछ नवीन ज्ञान प्राप्त करता हूं और अपने को मात्र एक आयुर्वेद साधक मानता हूं 🌹❤️🙏*

[8/7, 2:01 PM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat: 

Respected sirji !
No words for u !

sirji !
U hv gv insight vision
Understanding of ayurved concept
Aplication
Implementation
Wisdom
Indeath knowledge of basic principles


Only thing for me to described as ayurved reference

Bcz I hv English version in my mind

In sjogreans syndrome apply same concept of pittangni
And treated more than five case during four months successfully
Only by your humble effects to understand deep vision 👏🌹

[8/8, 6:01 AM] Dr. Pawan Madan: 

प्रणाम व चरण स्पर्श गुरु जी।

आपके लेखन से चक्षु उन्मूलन का कार्य बखूबी हो जाता है।

इस लेख से मुझे समझ में आया के भूतग्नी वह है जो पंच भूतों के नैसर्गिक गुणा को maintain करने में सहायक है।
अर्थात अग्नि का वह part जो गन्ध, स्पर्श, रस, शब्द आदि के कार्य में सहायक है, और ये शरीर के किसी भी स्थान या कहें के हर स्थान में है?

क्या मेरा ये समझना उचित है?

ये भूतग्नि git में भी हो सकती है, liver में भी, या शरीर के अन्य किसी भी tissue या धातु में भी ?

जाठरग्नि का वह अंश जो ये कार्य करे, उसको भी हम भूतग्नि ही कह सकेंगे?

इसी तरह से जो अग्नि धातुओं मे रह क्र पंच भूतों से उनके नैसर्गिक गुणों को maintain करवाती है उसको भी भूतग्नि कहा जा सकेगा🙏

तीनों प्रकार की अग्नि को anatomically तो अलग नहीं बताया जा सकता व उनका नामकरण उनके द्वारा संपन होने वाले कार्य से ही किया जाता है, ये तो परम सत्य है।

जैसा के आपने कहा के स्पर्शनाश में वात की अग्नि नष्ट हो जाति है तो इसका प्रभाव बहु सांख्य बार एक देशीय ही होता है, शरीर के अन्य स्थानों पर नहीं तो क्या इसको भी वात की अग्नि का नाश ही कहेंगे🙏🙏

[8/8, 7:14 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

Entire ayurved is interplay of Guna. The one who understand it stands out.

[8/8, 7:30 AM] Dr.Deepika: 

सादर प्रणाम सभी गुरुजनों को कल के अग्नि प्रकरण में एक बात
पता लगी है की ये १३ प्रकार  अग्नियां एक दूसरे से जुड़ी हुई है
एक प्रश्न चिकित्सा की दृष्टि से मन में आया है की
यदि जठराग्नि के बल से ही अभी अग्नियों को बल मिलता है, फिर चिकित्सा में केवल जठराग्नि वर्धन करेंगे ? धात्वग्नि और bhootagni का वर्धन कैसे करेंगे? एक ये भी प्रश्न है की
पंचभूतो की अग्नि के बाद dhatwagni अपना कार्य करती है, ऐसा गुरू जी ने लिखा है, क्या ये एक साथ चलता है या एक sequence se चलता है ?

[8/8, 7:35 AM] Dr. Pawan Madan: Pranaam.

One point we need to understand that these 13 types agnis are connected with each other, this statement may be better said in a way.....that Agni is one type only, only the name changes as per the function.

An Agni which acts to digest food at Aamaashaya is jatharagni.
The same Agni which acts in the cells and tissues is called Dhatwagni..

[8/8, 7:36 AM] Dr. Sukhbir Verma Hisar: 

अग्नियों का बल भी तीन प्रकार से होता है 
सहज 
कालज 
युक्तिकृत

[8/8, 8:49 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*प्रिय पवन भाई सुप्रभात- सादर नमन आपके सहित समस्त काय सम्प्रदाय को भी 🌹🙏 *

*'अन्ये त्वेवमाहुः एते त्रयोदशाग्नयः, तथा सप्तसु सिराशतेषु सप्ताग्निशतानि, पञ्चसु मांसपेशी शतषु च पञ्चाग्निशतानि"इति , एवं पञ्चमहाभूतात्मकादाहाराद्यथास्वमग्निना पक्वाद्रस आहारसारः। तत्रस्थैर्महाभूतगुणैर्देहगा महाभूतगुणा रसधात्वाश्रिता यथास्वमभिवर्द्धन्ते' 

अ ह शा 3/60 में अरूणदत्त टीका में अग्नि का और अति विस्तार किया है कि 700 शिराओं और 500 मांसपेशियों की अपनी अपनी अलग अग्नि होती है।*

*ग्रहणीदोष चरक चि 15/38' इति 'भौतिकधात्वान्नपक्तृणां कर्म भाषितम् ' अनुसार अग्नियों के कर्म बताते हुये चक्रपाणि अपनी टीका में 'यान्यग्न्यन्तराणि उपधातुमलादिगतानि तान्यप्यवरूद्धानिभूताग्निष्वेव' लिखते हुये उपधातु और मल आदि की भी पृथक अग्नि बताते हैं और उसे भूताग्नि में ही ग्रहण कर लेते हैं।*

*सभी द्रव्य पंचभौतिक है और कारण द्रव्यों से बने है। सबसे सूक्ष्म DNA जो पंचभौतिक होने से अग्नि इसमें विद्यमान है, इस से cell और cell से organs इसका अर्थ सब की अपनी भूताग्नि है।*

*आपके सभी प्रश्नों का उत्तर लगभग हां ही है 👍*

[8/8, 9:01 AM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat: 

Respected sirji
How to understand cellular level
Micro level cell division
Atrophy
Dystrophy
Multifunction of cell
Destruction
According to
Dosha
Agni concept 👏

[8/8, 9:01 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*बल का आपने प्रकरण छेड़ ही दिया आचार्य सुखबीर जी तो इसका का और विस्तार भी  कर देते है क्योकि नवीन आयुर्वेद स्नातक ओज, बल, immunity, कई रोगी तो 25-25 tabs modern की भी आराम से पचा लेते हैं और किसी को एक गोली से ही शिरोभ्रम या आमाशय में दाह आदि हो जाती है ? यह स्मरण रखें कि ओज और बल दोनों अलग हैं।*

*'तत्र रसादीनां शुक्रान्तानां धातूनां यत् परं तेजस्तत् खल्वोजस्तदेव बलमित्युच्यते, स्वशास्त्रसिद्धान्तात्' 

सु सू 15/19 

रस से शुक्र धातु तक उत्कृष्ट सार भूत अंश को ओज कहा गया है। सामान्यतः बल और ओज को एक ही अर्थ में भी लिया जाने लगा है तथा रस और रक्त को भी अनेक स्थान पर ओज कहा गया पर ओज एवं बल में भिन्नता है । ओज द्रव्य है जिसकी वर्ण बताया गया है तथा रूप एवं रस भी, यह कारण है और इस से उत्पन्न हुआ कार्य या कर्म वो बल है।*

*'तत्र बलेन स्थिरोपचितमांसता सर्वचेष्टास्वप्रतिघातः स्वरवर्णप्रसादो बाह्यानामाभ्यन्तराणां च करणानामात्मकार्यप्रतिपत्तिर्भवति' 

सु सू 15/20 

जब यह कारण भूत ओज का वर्धन होता है तो बल की भी वृद्धि होगी जिस से मांस की स्थिरता, दृढ़ता और पोषण हो कर शक्ति का निर्माण होता है, स्वर और वर्ण का प्रसादन हो कर बाह्य और आभ्यन्तर इन्द्रियों में अपने अपने काम को करने की स्वतः प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। सुश्रुत के टीकाकार आचार्य डल्हण इसीलिये 'बलकारणभूतमोजः' अर्थात बल का कारण ओज द्रव्य है यह उल्लेख करते हैं।*

*बल का ह्रास होने के अनेक कारण है और उन सभी को पूर्ण रूप से देख कर हमें बल तीन प्रकार का मिलता है,*

*1- कायिक या शारीरिक, वाचिक, मानसिक, बौद्धिक परिश्रम करने का बल।*

*2- 'बलं ह्यलं निग्रहाय दोषाणां बलकृच्च तत्' 

च चि 3/166 

कुपित दोषों एवं रोगों से लड़ने की क्षमता वाला बल, इसी बल से धातुओं की पुष्टि होती है, दोष निश्चित सीमाओं से आगे नहीं बढ़ते या अपने स्थान पर वापिस चले जाते हैं । आजकल जो immunity का concept चल रहा है वो यही बल है।*

*3- किसी भी औषध या रोग को सरलता से बिना किसी विरोध के सहन करने का सामर्थ्य वाला बल।*

*आयुर्वेद का विज्ञान - सत्व, रज और तम ये त्रिगुण, पंचतन्मात्राये शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, पंचमहाभूत, वातादि त्रिदोष, सप्त धातु, स्रोतस, अग्नि, आम और ओजस इन सब पर आधारित है।*

[8/8, 9:07 AM] Dr. Pawan Madan: 

जी गुरु जी !

मैं भी यही मान रहा हूं के अग्नि प्रत्येक स्थान पर है, केवल उसके नाम, उसके tentative कर्मों के अनुसार दिये गये हैं

जो हम आहार खाते हैं, वह पंच भौतिक है व उस में भी अपनी अग्नि विद्यमान है।

[8/8, 9:11 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

👍👍👍

[8/8, 9:19 AM] Dr. Pawan Madan: 

अग्नि प्रत्येक धातु व कोश में विद्यमान है।

अग्नि प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान चाहे वह जड़ है या चेतन।

शारीर तल पर अग्नि को कुछ इस तरह से भी समझा जा सकता है।

हालांकि किसी एक द्रव्य को अग्नि नहीं माना जा सकता पर अग्नि द्रव्य पर आधारित है, द्रव्य के बिना अग्नि का अस्तित्व नहीं
जहां हम भौतिक रूप में अग्नि या आग को देखें तो वह भी वक प्रकार से द्रव्य ही है।

चिकित्सा के दृष्टिकोण से ऐसे भी समझ सकते हैं।

1.   BHOOTAGNI-

ALL THE DIGESTIVE FACTORS PRESENT IN THE FOOD MATERIALS THAT WE EAT. WITH THE HELP OF THESE AND THEIR COUNTERPARTS IN THE BODY (CALLED DHAATVAGNI) FOOD IS DIGESTED & METABOLISED. 

THEY MAY INCLUDE ALL THE VITAMINS, ENZYMES & CO-ENZYMES OBTAINED FROM THE FOOD. THEY TAKE PART IN THE CHEMICAL REACTIONS WITHOUT A CHANGE IN THEIR OWN COMPOSITIONS.

2.   JATHARAGNI--

MAY INCLUDES ENZYMES, CO-ENZYMES, HCL, BILE, PANCREATIC SECRETIONS & ALL THE FACTORS IN THE INTESTINAL TRACT HELPFUL IN THE DIGESTION OF FOOD.

3.   DHATWAGNI-

INCLUDES ALL THE FACTORS THAT TAKE PART IN THE METABOLIC REACTIONS IN THE CELLS OF THE DHATUS (TISSUES) & PERFORM THE PHYSIOLOGICAL FUNCTIONS OF THAT DHATU.                                          
IN GENERAL DHATWAGNI INCLUDES--

-PITTAS CONCERNED WITH THE 
...BHINN SANGHAAT OR BREAK DOWN, 
..DAHAN OR OXIDATION COMBUSTION, 
..TAPAN OR HEAT PRODUCTION, 
..PARINAMAN OR CONVERSION, 
..PRAVRITI OR TRANFORMATION & MUTATION REACTIONS.              

IN PARTICULAR IT INCLUDES 
...PITTAS DIRECTLY CONCERNED WITH THE FORMATION OF THE STHYAI DHATUS.                                                                                                  AN INCREASE IN THE DHATWAGNI CAUSES DECRESE IN THE MASS OF THAT DHATU & VICE-VERSA. THEY MAY INCLUDE SECRETIONS OF SOME OF THE EXOCRINE OR ENDOCRINE GLANDS.

ये विवरण चिकित्सा सौकर्य के दृष्टिकोण से है।
इस पर भी डिबेट हो सकती है।

And this is the classification based on only physiological functions in the body and based on the location of these physiological functions.

गुरु जन की कृपा बनी रहे।
🙏🙏🙏

[8/8, 9:28 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*ग्रुप में आयुर्वेद की नवीन पीढ़ी को इस प्रकार की चर्चा मे अवश्य भाग लेना चाहिये नहीं तो आयुर्वेद समझेंगे कैसे ?*

[8/8, 9:35 AM] Dr Sanjay Dubey: 

🙏
भूताग्नियां द्रव्यों  में पहले से उपस्थित रहती हैं पर जठराग्नि की प्रबलता से बल प्राप्त कर वह क्रियाशील होते हैं | इस तरह जठराग्नि शायद भूताग्नि और धाताग्नि  के लिये catalyst हैं ?

[8/8, 9:36 AM] Dr. Pawan Madan: 

ये एक बात है।

पर जाठरग्नि के बिना भी कार्यकारी होती हैं।

इसको शायद ऐसे समझ सकते है।

5 भूतों मे से अग्नि कम हो गयी व जल व पृथ्वी भूत बढ गये
🤔

[8/8, 9:42 AM] Vd Kavita Agrwal: 

अच्छा पर शायद सुखाने से और अधिक अग्नि सूर्यप्रकाश आदी द्वारा शोषित हो गयी तो जल पृथ्वी के अंश कम हो गये ऐसा भी होगा क्या ?🙏

[8/8, 9:42 AM] Dr. Santanu Das: 

Regarding Agni what i feel :
Agni sthula pachak rasa ka neheen (it is not much realted to " Sthula pachak Rasa ) but it is ' shakti dene bali Adrusya nd sukhma Agni shakti hi hei (it in visible minute energy supplay) 🙏

As per the view of " Madhab kar ".....
"Samagni srestha uchhyate ".... Trisosa ki samya avastha samagni janak hei (Equilibrium state of Doshas is Equilibrium of Agni)🙏

[8/8, 9:46 AM] Dr. Pawan Madan: 

सही है

पर कोई भौ अदृश्य वस्तु किसी व्यक्त द्रव्य के द्वार्रा ही अपने कार्य को manifest  करती है

[8/8, 9:49 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

🙏It may be quite more simple if Agni of the  Sharrir is to be assumed As Energy of the ब्रह्मांड .As per rule of Energy its inter changeable but cannot be destroyed .

[8/8, 9:49 AM] Vd Kavita Agrwal: 

साथ ही अग्नि द्रव्य का पांचभौतिक संगठन भी बदलनेकी क्षमता रखती है 🙏हमारी सोच

[8/8, 9:50 AM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat: 

Low fire/aam utppati
High fire/ hyperthyroidism cell destruction

Visham fire/ gi tract disorders

   Abnormal Fire of saptaghatu leads to individuals ghatu rog

Hyperplasia
Metaplasia
Atrophy
Dystrophy r to focus on Agni. 
Dosh
Dhatu
 Absence of Agni leads to death

[8/8, 9:51 AM] Vd Kavita Agrwal: 

शांतेग्नो म्रियते

[ अब शरीर में कोई अच्छा बदलाव नहीं सिर्फ़ decay hi hoga 🙏

[8/8, 9:57 AM] Dr. Santanu Das: 

Shushruta has given an eye opening comments in (Shu su 46/ 501).
Irsha bhaya krodha...... Na samyak paripakameti.
Above... Ahara sambandhi, Vihara sambhandhi, He indicates... " Manas hetu " which quite related with
Brain n nerve (Mastiska n Nadi mandal ) 🙏

[8/8, 10:03 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

Let me interfere as per my clinical experience it's Always Mandagni which simply creates AmmVish and this aam vish is stick and guru it combines with various Dosh Dhatu and mal to make a Samprapti of almost all the chronic diseases. 🙏

[8/8, 10:15 AM] Dr. Santanu Das: 

" Bisharupatam iti yatha bisham bahu vikari bhabati.... (chakrpani ch. Chi 15) exact shloka no forgotten 🙏,
Here " bisham bahu vikari bhabati " it is important indication about " bahu vikari visha " not only Ama visha but also " Arna visha " which is related " Rasa seshajirna "
Madhab kar indication :
" Anatmabanta pasubat bhunjyate... It leads to ajirna,
1. Anatmabanta
2.Pasubat.....
these two things r real indicative of Ajirna ( praptena.. By end products ) 🙏

[8/8, 10:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*'विषरूपतामिति यथा विषं बहुविकारकारि भवति तथा तद्रूपताम्, अनेन सर्व एवाजीर्णभेदा अवरुद्धा ज्ञेयाः' 

च चि 15/44 पर चक्रपाणी टीका 👌🙏*

[8/8, 10:44 AM] Dr Sanjay Dubey: 

🙏
आम किसी भी स्तर पर बन सकता है -
जठराग्नि - GIT में Digestion के लेवल पर
धात्वाग्नि - Tissue metabolism 
भूताग्नि - molecular metabolism 

ये आमअन्न, आमरस, आम दोष, आम धातु, आममल और आम विष सबकुछ अलग अलग स्तरों पर बनाते हैं |

[8/8, 10:51 AM] Dr. Santanu Das: 

Sir Thx
Forgotten sloka ref no 🙏..
Here sir 2 types of "  vikari (irregularities) mentioned.

1.Visama bikari (hopefully vayu as yoga bahi vikara, may be samana or vyana).

2.Bahu vikari (many complication ) may be due to vayu + pitra + kapha...., samana + apana vyana, pachaka pitta, kledaka kapha
🙏

[8/8, 10:59 AM] Dr Sanjay Dubey:

 विरुद्धाध्यशनाजीर्णाशनशीलिनः पुनरामदोषमामविषमित्याचक्षते ...

[8/8, 11:12 AM] Dr. Santanu Das: 

Visha vikari.....
Vybai vikasi guna of visha r important here, where vayu carry it so speedily that 
"visuchi" like Darun vyadhi developed.🙏

[8/8, 12:56 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola: 

# *1 : अग्नि केवल १३ नही है, मलाग्नि, उपधात्वाग्नि आदि अनेक प्रकार हैं*

# *2 : सभी स्त्रोतस् मे अग्नि की भूताग्नि और स्त्रोतस के अनुसार अग्नि  विद्यमान होगी*

*रसवह स्रोत्रस : यह पर*
#१. *रसाग्नि*
#२. *भूताग्नि मे भी मुख्यतः आपाग्नि, क्यों की रसधातु आप प्रधान पचं भौतिक द्रव्य है*
#३. *रस के मल कफ की अग्नि मलकफाग्नि*
# ४. *रस के उपधातु रज की रजाग्नि और स्तन्य की स्तन्याग्नि*
*इसी प्रकार सभी स्त्रोतस मे स्वद्रव्यानुसार भूताग्नि, स्वद्रव्याग्नि, स्वमलाग्नि, स्वउपधात्वाग्नि आदि  विद्यमान होगे*

# 3 :. *अब प्रश्न है कौन से अग्नि का कार्य पहले होगा, इसका कोई एक नियम नही है, नियम केवल यह है की जो द्रव्य शरीर मे प्रवेशीत होगा वह कितना शरीर सजातीय है उसी के अनुरुप उस का संघात भेद होकर अग्नि की क्रिया होगी*
*उदाहरण :*
# १. *अगर आप गुरु गुण प्रधान द्रव्य जैसे मांस या कोई दाल जीसमे protein ज्यादा है तो वह protein शरीर विजातीय होने से उस पर सभी अग्नियों की क्रिया होगी, वही पर आप Amino Acid का सेवन करोगें तो यह raw protein की अपेक्षा किंचित अधिक शरीर सजातीय होने से अग्नि की क्रिया कम होगी, यहाँ केवल भूताग्नि और धात्वाग्नि की क्रिया होगी, यहाँ पर मल भाग का निर्माण भी कम होगा*

# २. *आप ज्वार, आलु, गेहुं, शक्कर या glucose का सेवन करोगें तो इन सभी मे carbohydrates की अवस्था यह अलग होगी, इनका शरीर विजातीयता या सजातीय भी अलग अलग होगी, इसके अनुरूप ही अग्नि की क्रिया होगी*

# ३. *आप रक्तपान किजिए या Blood group match कर blood transfusion करे दोनों जगह द्रव्य के शरीर सजातीयता के अनुरुप ही अग्नि की क्रिया होगी*

*"अग्नि का मुख्य कार्य शरीर विजातीय तत्वों को शरीर सजातीय बनाना है और शरीर मे जीस तत्व की शरीर अवस्था अनुसार मांग है उस अनुरुप मे उस तत्व के निर्माण में भाग लेना*

[8/8, 1:04 PM] Dr. D. C. Katoch sir: 

वस्तुत: अग्नि स्वयं द्रव्य है- कारण रूप में और कार्य रूप में भी, अग्नि किसी अन्य द्रव्य पर आधारित नहीं।

[8/8, 1:07 PM] Prof. Giriraj Sharma: 

सादर नमस्कार !
पंच महाभूतात्मक अग्नि ,,,
पंचमहाभूत विकार है या सिर्फ भूतात्मक अग्नि,,,,
 यथा,,,
दोष धातु मल सभी पंचमहाभूत विकार है । इनमे जठराग्नि, धातुगत अग्नि आदि होती है ।

भूत अग्नि को इनके समकक्ष रखा जाए । अर्थात विकार समझा जाए,,,

[8/8, 1:13 PM] Dr. Pawan Madan: 

Ji sir...🙏🙏🙏

Ye dravya roop agni bhi any dravya me aashrit ho kar vibhinn prakaar ke kaary karti hai.

[8/8, 1:14 PM] Prof. Giriraj Sharma: 

शरीर निर्माण पूर्व पंचमहाभूत अग्निया अपना कार्य करती है तब शरीर निर्मित होता है ।
पंचमहाभूत अग्नि प्रलयोदयौ का मूल है ।
संभवत
🙏🏻🙏🏻🌹🙏🏻🙏🏻

[8/8, 5:40 PM] Dr.Deepika:

 सादर प्रणाम सर, आपके कहने का meaning मैने ऐसे समझा है
१) यदि किसी को I/V drip इत्यादि लगाते हैं तब जठराग्नि को bypass करके केवल bhutagni और dhatwagni ही कार्य करती है
२) हर धातु उपधातु srotus, मल की अपनी अग्नि है।
यदि हमने किसी रोगी में ये जान लिया की eg पांडु रोग है, रक्त धातु का निर्माण सही नहीं हो रहा
मल रुप पित ज्यादा बन रहा है
रक्त धातु की अग्नि मंद है
अब इसकी चिकित्सा के लिए तो हम सीधा रक्त धातु की अग्नि को बढ़ा नहीं सकते, हमें जठर अग्नि का ही वर्धन करना होगा,
क्या इससे रक्त की अग्नि स्वयं ठीक हो जाएगी? या फिर ये गलत है? हम direct रक्त धातु की अग्नि का वर्धन कर सकते हैं ?

[8/8, 6:25 PM] Dr. D. C. Katoch sir: 

पर अग्नि तो अपना ही कार्य करेगी,  दूसरे का नहीं और ऐसा पांचभौतिक कार्य द्रव्यों में भी होगा ।

[8/8, 6:29 PM] Dr. Pawan Madan: 

Ji sir.
Mujh ko bhi aisa hi samajh me aaya hai.
🙏🙏

[8/8, 6:32 PM] Vd.Vinod Sharma Sir Ghaziabad: 

प्रणाम पांडे जी 🙏
   बहुत सही, परन्तु वायु का सम्यक अनु लोमन के स्थान पर वात की सम अवस्था ही समाग्नि के प्रति उत्तर दायी है ।
    और  वात की सम अवस्था भी आहार पर निर्भर है और मन की स्थिति पर भी -- 
    काम शोक भयाद वायु - जब भी वात रोगी की चिकित्सा करें तो मानसिक पक्ष की  भी परीक्षा अपेक्षित होगी ।

[8/8, 6:43 PM] Vd.Vinod Sharma Sir Ghaziabad: 

जी शुभ संध्या 🙏
   यहां मल रूप पित्त बढ़ा हुआ है तो रक्ताग्नी वर्धन क्यों करेंगें ?? 
   ये तो वृद्ध अग्नि का परिचायक है, पित्त तो स्वयं अग्नि रूप है और वो बढ़ा हुआ है पहले ही ।
  नहीं ये गलत होगा ।
 यहां हम पित्त नाशक चिकित्सा करेंगें ।  शोधन भी शमन भी ।  वृद्ध अग्नि को साम्य करेंगें । 
    तभी तो ताप्यादी लौह , कपरदक भस्म, काम दुघा मुक्ताशुक्ती आदि के योग देकर पित्त शमन करते हैं ।
   विरेचन देते है ताकि पित्त का निरहरण किया जा सके ।
     *रक्ताग्नि वर्धन से पित्त बढ़ेगा*।
    🙏

[8/8, 7:35 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P.): 

सम्यक मल शोधन मानसिक तनाव वाले रोगी को तो चरम सुख की अनुभूति कराता है।

[8/8, 7:55 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola: 

# 1. *धात्वाग्नि क्या है, कायाग्नि या जठाराग्नि के अशं ही है*
# 2. *जब हम Iv infusion दे रहै तब वह द्रव्य 80- 90 प्रतिशत के ऊपर शरीर सजातीय होगा और 100 प्रतिशत शरीर सात्यम होगा।*
*तो यह पर उस पर जठाराग्नि की क्रिया नही होगी*

*पाण्डूरोग केवल रक्ताग्नि के विकृती जन्य है ऐसा नही है, धातु पाचन प्रक्रिया के अन्य घटक भी होते है*
*रक्ताग्नि विकृति किस तरह से है, क्षयात्मक या वृद्धि जन्य इस पर विचार करना पढेगा*
*रक्ताग्नि पर कार्य करने वाले द्रव्य जैसे बिल फल मज्जा, पटोल पत्र या पंचाग,सारिवा, नागरमोथा, पाठा, कुटकी आदि द्रव्य अच्छा कार्य करते है*
[8/8, 10:03 PM] Dr.Deepika: अति आभार सर🙏🙏
[8/8, 10:09 PM] Dr.Deepika: सादर प्रणाम सर,मेरा मतलब mal रूप विकृत पित्त से था
जैसे किसी धातु की अग्नि मंद होती है तो मल की उत्पत्ति अधिक होनी चाहिए,जैसे मांस धातु की अग्नि मंद होती है तो मल रुप कर्ण मल ज्यादा बनता है
अगर अग्नि तीक्ष्ण होगी तो मल shosh कर देगी।
जैसी अग्नि और वायु के संपर्क में यदि एक अंगूर को बाहर धूप में रख दिया जाए तो वो शुष्क द्राक्षा बन जाता है। बाकी गुरुजन ही बता सकते हैं।🙏🙏
[8/8, 10:09 PM] Prof. Giriraj Sharma: नमस्कार
पांडू संभवत रसज व्याधि है ।।
[8/8, 10:47 PM] Dr. Santanu Das: Yes true...
Pandu chiefly Rasabaha srotas vikriti
[8/8, 11:36 PM] Dr. Pawan Madan: नमस्ते सर।
स्थूल रूपत्मक ये विभाजन उचित ही है, पर इस से और भी ज्यादा factors हैं जो इस में include करने आवश्यक हैं।
🙏🙏🙏
[8/8, 11:43 PM] Dr. Pawan Madan: प्रणाम गुरुवर 🙏

अग्नि को और समझने क्व लिये कुछ संदर्भ एकत्रित करने की कोशिश की है।
आप मार्गदर्शन करें
🙏

WHAT IS AGNI?
1. 🤙🏻
NAARYANA UPANISHADA –
There is VIDYUT ROOP AGNI distributed in all the body from the heart. SAADHAKAGNI from the HRIDYA reaches to the MASTISHKA and control five types of VAATA, 
2. ❇️
GEETA CHAPTER 15 - KRISHNA says – I AM PRESENT IN THE HEARTS OF THE ALL in VAISHVAANAR ROOP.
3. ✳️
 CHAPTER 15/14
SUSHRUTA – there is SAADHAKAGI OR SAADHAKA PITTA present in the heart – DALAHANA on SUTR 15/2
4. 👉
RIGVEDA FIRST CHAPTER – detailed description of KAAYAGNI, KAAYAGNI is controller of MAHAT, AHNKAAR AND 11 INDRIYS
5. 🤷‍♀️
ARUNDATTA says in chapter 13 – YOGIS can know that the AGNI appears in the HRIDYA in the form of SAADHAKAGNI
6. 💐
BHAGWAT PURAAN SKANDHA 2 ASTHAAN 10 SHLOKA 25 – SADHAKAGNI appears in the heart due to the movements of the muscle of the heart AT FIRST then it reaches to MASTISHKA and all body via circulation. With the order from AATMAA there appears SAADHAKAGNI then VYAANA VAATA
7. 🌀
SUSHRUT SHARIR 4 – 
तस्यान्तरेण नाभेस्तु ज्योतिःस्थानं ध्रुवं स्मृतम् | 
तदाधमति वातस्तु देहस्तेनास्य वर्धते ||५८|| 
ऊष्मणा सहितश्चापि दारयत्यस्य मारुतः | 
ऊर्ध्वं तिर्यगधस्ताच्च स्रोतांस्यपि यथा तथा ||५९||
Due to the movements of heart there appears JYOTI in the form of AGNI. NAABHI word here refers to the heart as per SU SHA 7 and as per DALAHANA, as well as per CHARAKA and VAAGHBHATTA

🙏🙏🙏🙏🙏
[8/9, 5:53 AM] Dr. Hemant Gupta: All the above references from Vedic Grant has validate something fundamental and common factor about AGNI. According to definition of "Dravya" i.e Yatrashrita karma guna karanam samvayi yat tad dravyam. AGNI guna could be Ushna (temperature) but it could also be without ushnatva. Fundamental is wherever there is "parinaman" in "Anoraniyan to Mahatomahiyan" as sukshma as transformation of one  thought to other is due to AGNI. In clinical application we could choose herbs with Ushna, teekshna gunas like chavya, chitrak etc. We can also understand AGNI in interplay of Mansik gunas or even in Adhystmik gunas.
[8/9, 6:00 AM] Dr. Hemant Gupta: Transformation is fundamental to life. There are four stages of any change from one bhava to other. Those are  1. Pradhwanshabhav 2. Atyantabhav 3. Anyonyabhav 4. Pragbhav. It is in Anyonyabhav where there ultimate AGNI. This can be awakened by raising Sattwa through meditation. Jai Guru Dev.
[8/9, 6:13 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): What a deep point analysis for awakening AGNI .🙏
[8/9, 6:14 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 🙏अध्यात्म का मूल समझ में आ गया।गुरूवर सादर अभिनंदन 🙏
[8/9, 9:28 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat: अग्नि को साथ लेकर अगर वात , पित्त और कफका पंचभौतिक बंधारण निश्चित इस तरह समझ सकते है।
 *वात*
प्राण - धारण गुण प्रधान - पार्थिव 
अपान - सर गुण प्रधान - आप
समान - अग्नि संधुक्षण - आग्नेय
व्यान - तिर्यक गमनीय - वायव्य 
उदान - उर्धगमनीय - आकाशीय 

 *पित्त*
पाचक - पार्थिव
रंजक - आप्य 
आलोचक - आग्नेय 
भ्राजक - वायव्य 
साधक - आकाशीय

 *कफ* 
अवलम्बक  - पार्थिव्य
बोधक - आप्य 
क्लेदक - आग्नेय 
श्लेषक - वायव्य 
तर्पक  - आकाशीय 
आकाशाग्नि से वायव्याग्नि,  वायव्यग्नि से आग्नयाग्नि,  आग्नेयाग्नि से जलीयाग्नि, जलीयाग्नि से पार्थिव्याग्नि बल प्राप्त करते है ।
[8/9, 9:37 AM] Prof. Giriraj Sharma: वायु प्राणो,,, आचार्य चरक , च शा 5/4,5 
प्राण गुण वायु महाभूत
[8/9, 9:40 AM] Dr. D. C. Katoch sir: Pandu is  primarily Rasaj Vyadhi according to Acharya Charak, secondarily Raktakshayaj according to Acharya Sushrut and tertiarily Majjapradoshaj according to Acharya Hareet.
[8/9, 10:30 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat: तस्य पुरुषस्य पृथिवी मूर्तिः, आपः क्लेदः, तेजोऽभिसन्तापः, वायुः प्राणः, वियत् सुषिराणि, ब्रह्म अन्तरात्मा । 
 यहा षड्धात्वात्वमक पुरुषकी बात है । वायु: प्राण: । वायु से पंचमहाभूतात्मक वायु लेना चाहिए और उनसे प्राणादि वात पंचक प्राण , उदान ,समान , व्यान और अपान लेना चाहिए।  ऐसा मेरी समझमे आता है। अगर ऐसा नही है तो सभी गुरुजनोको विशेष प्रकाश डालने के लिए प्रार्थना ।
🙏
[8/9, 10:57 AM] Prof. Giriraj Sharma: सादर नमस्कार आचार्य
वायु शब्द संहिताओं में
1. वायु महाभुत
2. वायु प्राण
3. दोष (वात)
के संदर्भ मिलते है ।
आचार्य चरक ने यहां पर वायु महाभुत को संदर्भित किया है ।
🙏🏻🙏🏻🌹🙏🏻🙏🏻
[8/9, 10:57 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola: 

*नमस्कार अनुज प्रो. गिरीराजजी*

🙏🙏🙏
 
*पाण्डु रोग मे रक्त विकृति होती ही है.*
*पाण्डु रोग मे रस और रक्तवह स्त्रोतस मे विकृति होती ही है*

*दोषाः पित्तप्रधानास्तु यस्य कुप्यन्ति धातुषु ।*
*शैथिल्यं तस्य धातूनां गौरवं चोपजायते ।।*
*ततो वर्णबलस्नेहा ये चान्येऽप्योजसो गुणाः ।*
*व्रजन्ति क्षयमत्यर्थं दोषदूष्यप्रदूषणात्।।*
*सोऽल्परक्तोऽल्पमेदस्को निःसारः शिथिलेन्द्रियः।।*
*वैवर्ण्यं भजते, तस्य हेतुं श्रृणु सलक्षणम्।।*

च. चि आ. १६ / ४ से ६.

[8/9, 11:02 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola: 

*प्रणाम सरजी*

🙏🙏🙏

*व्यायाममम्लं लवणानि मद्यं मृदं दिवास्वप्नमतीव तीक्ष्णम्।*
*निषेवमाणस्य प्रदूष्य रक्तं दोषास्त्वचं पाण्डुरतां नयन्ति ।।*

सु. उ. तं.अ.४३

[8/9, 11:11 AM] Prof. Giriraj Sharma: 

आदरणीय सादर नमन
लक्षण स्वरूप में तो पांडू क्षीण शुक्र में भी उल्लेखित है ।
रोग विशेष
लक्षण विशेष
उपद्रव विशेष 
भी चिंतन का विषय है ।।

[8/9, 11:22 AM] Prof. Giriraj Sharma: 

अत्युष्णे वा दिवा पीतो ,,,,शूल पांडुता वा समृच्छति

 स्नेह व्यापद
[8/9, 11:26 AM] Dr. D. C. Katoch sir: 

Yes, Raktakshayaj pandu as well as Raktapradoshaj pandu.

[8/9, 11:38 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

Krimi janit pandu also most common in clinical practice.

[8/9, 11:53 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat: 

🙏 प्रणाम आचार्य 
       यहा दोषो मे  पंचमहाभूत एवं अग्नि की बात कर रहा हुॅ।

[8/9, 12:11 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola: 

*इस पोष्ट मे लिखा है, पाण्डू रोग यह केवल रक्ताग्नि विकृति जन्य है ऐसा नही है*
*पाण्डू रोग की अनेक  संम्प्राप्ति से उत्पत्ती हो सकती है*

*रोग उत्पत्ती के अनेक हेतु हो सकते है*
*यह उपद्रव स्वरूप लक्षण  भी हो सकता है*
*संम्प्राप्ति के घटकों मे यह कितना गंभीर धातुगत है यह भी चिकित्सा व्यवस्था को प्रभावित करेगा*

[8/10, 1:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*पाण्डु अगर जन्म लेते ही मिला तो क्या मानेंगे ? रस प्रदोषज या रक्त प्रदोषज ? थैलेसीमिया मेजर अथवा hapatitis B में सीधा ही कामला या थैलेसीमिया माईनर में जन्म लेते ही पाण्डुता ? अथवा स्वतन्त्र कामला ?*

*प्रश्न आगे से आगे करने का नहीं अपितु हम अब जहां हैं वहां हमने रोगी देखा तो क्या मिला ?*

*पाण्डु आदि बल प्रवृत्त जैसा पाण्डवों के पिता राजा पाण्डु को था !*

*पाण्डु रोग या लक्षण ? जैसा

'पाण्डुरोगोपसृष्टानामुत्तमं शर्म चोच्यते श्लेष्माणं शमयेत् पीतं मारुतं चानुलोमयेत्' 

च सू 1/58*

*'पूतिर्घ्राणास्यगन्धश्च दन्तशूलमरोचकः हनुमन्याग्रहः कण्डूः क्रिमयः पाण्डुता मुखे' 

च सू 5/29*

*'अथवा पाण्डु उपद्रव स्वरूप जैसा वृक्क दुष्टि में भी मिलता है।*

*कभी सभी investigations normal आने पर भी पाण्डु मिलता है तो हमने कुछ नही केवल KFT with GFR test कराया तो प्रायः abnormal भी मिला ।*

*पाण्डु रक्त प्रदोषज भी है तो अधिष्ठान रस अर्थात त्वक् में ही बनाता है जिस से रस दुष्टि होती ही है।*

*रस प्रदोषज -*

*'अश्रद्धा चारुचिश्चास्यवैरस्यमरसज्ञता ।हृल्लासो गौरवं तन्द्रा साङ्गमर्दो ज्वरस्तमः पाण्डुत्वं स्रोतसां रोधः क्लैब्यं सादः कृशाङ्गता नाशोऽग्नेरयथाकालं वलयः पलितानि च रसप्रदोषजा रोगा' 

च सू 28/9-10*

*रक्त प्रदोषज -*

*'वक्ष्यन्ते रक्तदोषजाः कुष्ठवीसर्प -पिडका रक्तपित्तमसृग्दरः गुदमेढ्रास्य -पाकश्च प्लीहा गुल्मोऽथ विद्रधिः नीलिका कामला व्यङ्गः पिप्प्लवस्तिल कालकाः दद्रुश्चर्मदलं श्वित्रं पामा कोठास्रमण्डलम् ।रक्तप्रदोषाज्जायन्ते' 

च सू 28/11-12*

*जब भी जीवाणु संक्रमण होगा तो वह रस-रक्त को ही दूषित करेगा जैसे आन्त्रिक ज्वर का उदाहरण देखें, 

'रसं रक्तं च दोषाश्च कोपयन्त्यचिरादपि, क्षिणवन्ति चान्तिमं भागं क्षुद्रान्त्राणां शनै: शनै:, ततोऽन्त्रक्षत संवृद्धौ क्वचिद्द् रक्तस्य नि:स्रव:' 

आन्त्रिक ज्वर के जीवाणु शरीर में प्रवेश कर रससरक्त को दूषित कर इस ज्वर की उत्पत्ति करते है और  क्षुद्रान्त्र के अंतिम भाग को दूषित कर क्षत कर देते हैं। जिस से कदाचित रक्त स्राव भी हो जाता है।*

*जितने भी प्रदोषज विकार हैं उनका आरंभ देखें तो रस-रक्त प्रदोषज उनका प्रवेश द्वार है और अन्य धातुगत उनकी परिणिती अर्थात परिणाम result या नियति है कितना ही तर्क- वितर्क या प्रयोग कर के देख लीजिये ।*

*रस और रक्त के अतिरिक्त और तीसरा भेद भी है 'रस+रक्त प्रदोषज' विकार जो हमें clinical practice में प्रतिदिन मिलता है और इसकी चिकित्सा भी सम्मिलित है।*

*आधुनिक में थैलेसीमिया माईनर और थैलेसीमिया मेजर पर यह भेद मान लिया पर हम चर्चा में ही उलझ गये और अपना कार्य कर के सामने रखने का साहस क्यों नहीं कर पा रहे ?*

[8/10, 1:30 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*अभी तक हमारे नये आये BAMS के सदस्यों से हम प्रश्न करें कि अन्न रस और रस धातु में क्या अंतर है ? प्रसाद और किट्ट में क्या भेद है ? पोषक और पोष्य भाव क्या हैं ? यही स्पष्ट नहीं है । *

[8/10, 1:32 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*'रस-रक्त' के मिश्रण  का उदाहरण आर्ष ग्रन्थों में भी स्पष्ट किया है जैसे स्तन्य क्या है ? स्तन्य का कारणभूत द्रव्य रस(रस-रक्त) है जो व्यान वात के द्वारा सर्वशरीर प्रसरण़ील रहता है। स्तन्य रस का प्रसाद भाग है 

'रसात् स्तन्यं ततो रक्तमसृजः कण्डराः सिराः मांसाद्वसा त्वचः षट् च मेदसः स्नायुसम्भवः'

 च चि 15/17 

आचार्य चक्रपाणि ने यहां धातुपोषण क्रम 

'धातूनां पोषणमभिधायोप धातुपोषणमाह- रसात् स्तन्यमित्यादि रसात् स्तन्यं प्रसादजं, तथा रक्तमपि रजःसञ्ज्ञं रसादेव प्रसादभागजन्यम्'

 यह स्पष्ट कर दिया है।*

*सु नि 10 में 

'रस प्रसादौ मधुर:पर्वाहारनिमित्तज:, कृत्स्नदेहात् स्तनौ प्राप्त: स्तन्यमित्यभिधीयते। विशस्ते ष्वपि गात्रेषु यथा शुक्रं ना दृश्यते। सर्वदेहाश्रितत्वाच्च...',
 
अर्थात जैसे शुक्र सर्वशरीर में रहता है यह उसकी तरह सर्व शरीर में रहता है।*

[8/10, 1:37 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*वायु और वात पर चर्चा अत्यन्त रोचक चल रही है इसके लिये आप सभी विद्वानों का आभार ❤️🌹🙏*

[8/10, 1:38 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*वायु एवं वात का शुद्ध स्वरूप - भाग - 1*

*यदि वात की संरचना  वात + आकाश से हुई तो शुद्ध *वात*  *कैसे बना , इसका *प्राण*  *से क्या सम्बन्ध है ?*
*और फिर प्राण का निर्माण किस प्रकार हुआ, शरीर में 5 प्रकार की वात फिर क्या है ?*

*इस प्रकार की जिज्ञासायें पुन: पुन: उत्पन्न होती रहती हैं अत: इस पूरे प्रकरण को हम मूल से समझाते हैं तभी यह स्पष्ट होगा। अव्यक्त जो सब भूतों का तो कारण है पर उसका कोई कारण नही है इस क्रम को जानना आवश्यक है, अव्यक्त के बाद ही आयुर्वेद के कार्य-कारण वाद की उत्पत्ति होती है। जैसे एक समुद्र समस्त जलीय वस्तुओं और प्राणियों का आधार है वैसे ही यह अव्यक्त समस्त संसार की उत्पत्ति का कारण है, मूल प्रकृति अव्यक्त को ही कहते है। यह अव्यक्त महान अर्थात बुद्धि तत्व को उत्पन्न करता है जो सत्व,रज और तम युक्त है, बुद्धि अभिमान अर्थात अहंकार को उत्पन्न करते है जो सत्वादि त्रिगुण सहित सात्विक या राजस और तामस होता है।*

*राजस+ तामस अहंकार मिलकर पंच तन्मात्रायें शब्द स्पर्श रूप रस और गंध इन पंचतन्मात्राओं को सूक्ष्म भूत भी कहा गया है और इन तन्मात्राओं से आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी महाभूत और सात्विक+राजस अहंकार 5 ज्ञानेन्द्रियां, 5 कर्मेन्द्रियां और मन की उत्पत्ति होती हैं।*

*शरीर और चिकित्सा की दृष्टि से प्रमुख प्रश्न शरीर में जो वातादि पंच तत्व है या त्रिदोष है वो विशुद्ध स्वरूप में हैं या इनका एक दूसरे में प्रवेश रहता है। इसे ऐसे ले कर चलें कि पंचभूतों से त्रिदोष बने है और पंचभूतों का एक दूसरें में प्रवेश है तो दोषों का भी एक दूसरे में प्रवेश मिलेगा।*

*इन आकाशादि पंचमहाभूतों के गुण वो अपने में तो रहते ही हैं पर दूसरे महाभूतों में भी विद्यमान रहते हैं, पर विशिष्ट लक्षण उस महाभूत का अपने में विद्यमान रहता है अर्थात इनका एक दूसरे में प्रवेश बना रहता है इसे सु शा 2/28 में 
'अन्योऽन्यानुप्रविष्टानि सर्वाण्येतानि निर्दिशेत्, स्वे स्वे द्रव्ये तु सर्वेषां व्यक्तं लक्षणमिष्यते।' 
सूत्र में बताया गया है। यही आयुर्वेद का पंचीकरण सिद्धान्त है जैसे पृथ्वी महाभूत है इसमें आधा भाग 50% पृथ्वी का है और बाकी चार भाग अन्य महाभूतों के है अर्थात पृथ्वी में पार्थिव लक्षण अधिक मिलेंगे पर अन्य महाभूतों के लक्षण भी अवश्य मिलेंगे जो अव्यक्त या अल्प रहेंगें।*

*इसे सभी मतों ने स्वीकार किया है कि इस संसार में जितने भी पदार्थ है वो पंचभौतिक हैं और यह पंचभूत मिश्रित स्वरूप में रहते हैं अलग रह ही नही सकते जैसे अन्य एक मत है कि वायु में इयके निज गुण के अतिरिक्त आकाश का शब्द गुण भी मिलता है, अग्नि का मूल गुण रूप है इसमें शब्द स्पर्श और रूप तीनो मिलते है, जल का अपना गुण रस है पर इसमें आकाश वायु और अग्नि के शब्द स्पर्श और रूप भी साथ में मिलेंगे, आकाश तो सर्व व्यापी है पर उस में भी पृथ्वी तत्व सूक्ष्म रूप में तथा वायु का संचार जल और तेज के साथ होनेके कारण माना गया है।*

*वायु को 'अनुष्णशीतस्पर्शवान् वायु:' ऐसा कहा गया है यह रूप रहित भी है।यह वायु योगवाही है अग्नि से संबंध होने पर उष्ण एवं जल के संबंध होने पर शीत गुण युक्त हो जाती है और इसका अपना कोई निजी शीत-उष्ण गुण नही है।*

*जब तक यह वायु सूक्ष्म भूत अर्थात तन्मात्रा की स्पर्श संज्ञा में थी तब यह कारण द्रव्य थी, नित्य थी और इसका विनाश नही हो सकता तथा अन्य वाय्वीय भावों को उत्पन्न वाली होती है। इस वायु को परमाणु स्वरूप कहा गया है। यह वायु का विशुद्ध स्वरूप है।*

*अब यह वायु कार्य रूप हो जायेगी जो आयुर्वेद शास्त्रों में वर्णित है और पंचमहाभूतों के पंचीकरण सिद्धान्त के साथ और यह स्थूल रूप है इसका जैसे आप श्वास लेते हैं या त्यागते हैं, AC, कूलर या पंखे की हवा, आंधी चलना और शरीर में जो पांच प्रकार की वायु कही गई है वो यही है, यह कार्य रूप है जो समय के साथ नष्ट होती रहती है जैसी अग्नि जली और बुझ गई।*

*इस वायु को हम त्वचा जो इसकी इन्द्रिय है उसके माध्यम से अनुभव कर सकते है।*

[8/10, 1:42 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*वायु एवं वात का शुद्ध स्वरूप - भाग -2*

*(अमूर्त्त वायु का स्थूल या मूर्त्त स्वरूप कैसे समझे )*

*वायु के दो स्वरूप हैं कारण रूपी वायु और कार्य रूपी वायु । कार्य रूपी वायु शरीर में वात संज्ञक बन जाती है।महर्षि कणाद ने भौतिक राशियों (अमूर्त) को द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय के रूप में नामांकित किया है। इनमें एक उदाहरण गुण से ही ले कि ये कैसे अमूर्त को मूर्त - गुण के एक भेद 'गुरू गुण' से बना देता है, गुरू गुण युक्त द्रव्यों का भौतिक संगठन एवं कार्मुक स्वरूप । इस संसार में जितने भी पदार्थ है वो पंचभौतिक हैं और यह पंचभूत मिश्रित स्वरूप में रहते हैं अलग रह ही नही सकते जैसे अन्य एक मत है कि वायु में इयके निज गुण के अतिरिक्त आकाश का शब्द गुण भी मिलता है, अग्नि का मूल गुण रूप है इसमें शब्द स्पर्श और रूप तीनो मिलते है, जल का अपना गुण रस है पर इसमें आकाश वायु और अग्नि के शब्द स्पर्श और रूप भी साथ में मिलेंगे, आकाश तो सर्व व्यापी है पर उस में भी पृथ्वी तत्व सूक्ष्म रूप में तथा वायु का संचार जल और तेज के साथ होनेके कारण माना गया है।*

*वायु को 'अनुष्णशीतस्पर्शवान् वायु:' ऐसा कहा गया है यह रूप रहित भी है।यह वायु योगवाही है अग्नि से संबंध होने पर उष्ण एवं जल के संबंध होने पर शीत गुण युक्त हो जाती है और इसका अपना कोई निजी शीत-उष्ण गुण नही है।*

*जब तक यह वायु सूक्ष्म भूत अर्थात तन्मात्रा की स्पर्श संज्ञा में थी तब यह कारण द्रव्य थी, नित्य थी और इसका विनाश नही हो सकता तथा अन्य वाय्वीय भावों को उत्पन्न वाली होती है,इस वायु को परमाणु स्वरूप कहा गया है और यह वायु का विशुद्ध स्वरूप है।*

*अब यह वायु कार्य रूप हो जायेगी जो आयुर्वेद शास्त्रों में वर्णित है और पंचमहाभूतों के पंचीकरण सिद्धान्त के साथ तो यह इसका स्थूल रूप है इसका जैसे आप श्वास लेते हैं या त्यागते हैं, एयर कंडीशनर, कूलर या पंखे की हवा, आंधी चलना और शरीर में जो पांच प्रकार की वात प्राण, उदान, समान, अपान और व्यान कही गई है और शरीर के विभिन्न स्थानों में रह कर अपने कर्म करती रहती है वो यही कार्य रूप है जो समय के साथ नष्ट होती रहती है जैसी अग्नि जली और बुझ गई।*

*इस वायु को हम त्वचा जो इसकी इन्द्रिय है उसके माध्यम से अनुभव कर सकते है। इस वात ही नही अन्य दोषों का अनुभव भी शरीर में हम कैसे करेंगे
 
'तत्रास्थनि स्थितो वायुः, पित्तं तु स्वेदरक्तयोःश् लेष्मा शेषेषु, तेनैषामाश्रयाश्रयिणां मिथः, यदेकस्य तदन्यस्य वर्धनक्षपणौषधम्, अस्थिमारुतयोर्नैवं, प्रायो वृद्धिर्हि तर्पणात् श्लेष्मणाऽनुगता तस्मात् सङ्क्षयस्तद्विपर्यात्, वायुनाऽनुगतोऽस्माच्च वृद्धिक्षयसमुद्भवान्, विकारान् साधयेच्छीघ्रं क्रमाल्लङ्घनबृंहणैः।' 

अ ह सू 11/26-28, 

क्योंकि दोष, धातु, मल ही तो शरीर का मूल है इसके लिये वाग्भट्ट ने आश्रय-आश्रयि संबंध को स्पष्ट किया है और उदाहरण दिया कि अस्थि वात का तथा स्वेद और रक्त पित्त  के आश्रय है। शेष रस, मांस, मेद, मज्जा, शुक्र, पुरीष आदि कफ के आश्रय हैं।*

*वात का ज्ञान और अनुभव मिलेगा वात प्रधान द्रव्य, वायु के गुण, वात के कर्म, वात सामान्य, वात विशेष और समवाय से वात किसमें रहता है इस से । जैसे प्राण वात के कर्म देखें बुद्धिन्द्रिय, मनोधारण, श्वास, देह धारण, ह्रदय धारण, क्षवथु, ष्ठीवन, आहारादि कर्म, अन्न प्रवेश, उद्गार यह सब बता रहे हैं कि यह प्राण वात या वायु कर रही है, वो है और यहीं है जो अपनी उपस्थिति अदृश्य रह कर भी बता रही है।*

[8/10, 1:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*to be continue ...*

[8/10, 7:27 AM] Dr.Deepika: 

सादर प्रणाम गुरू जी,
इस पोस्ट से मुझे ये समझ आया की एक धातु दूसरी धातु पर प्रभाव डालती है, जैसा की पहले यहां पढ़ा है
अगर पूर्व धातु में कुछ दुष्टि होगी तो उसके पश्चात बनने वाली धातु में भी विकृति धीरे धीरे आ जायेगी और इसका reverse भी यानी true होगा,
जैसे कल की opd में एक १.५ वर्ष का बालक जिसका hb ६gm hi रहता है, पहले ऐज बार
३gm होने पर BT करवाना पड़ा
History लेने पे पता लगा की बालक मिट्टी खाता है
यहां मिट्टी से
कृमिज निदान
रस धातु दुष्टी
क्योंकि मिट्टी का प्रभाव यकृत जो की रक्त वह का मूल है पर भी होगा, इसलिए रक्त धातु दुष्टी भी हुई
इस निदान के कारण शारीर में रूक्षता की वृद्धि भी होगी
क्या ये ठीक सोचा है 
थैलेसीमिया अभी check नहीं karwaya उस रोगी का
🙏🙏

[8/10, 8:46 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat: 

🙏 प्रणाम गुरुवर

[8/10, 8:57 AM] Vd. Divyesh Desai Surat: 

आदरणीय सोनी सर ने हरेक निदान से हरेक रोग की अलग अलग सम्प्राप्ति बनती है, ये समझाया था, पांडु के माधव में निदान बताया है...

व्यवाय(व्यायाम)अम्लम
लवणानि मद्यम, मृदं दिवास्वपनं अतिव्तीक्षणं
निषेवमाणस्य प्रदुष्यम *रक्तं*, दोषास्त्वची पांडुरतां नयन्ति।

इसमे जो व्यवाय या व्यायाम से पांडु उत्पन्न होगा वो सभी धातु का इन्वॉल्वमेंट बताता है, जो वात प्रधान पांडु होगा, अम्ल, मद्य ओर लवण रस के अधिक सेवन से पांडु होगा वो रस रक्त मांस की दृष्टि और पित्त प्रधान पांडु होगा, मिट्टी से जो पांडु होगा वो त्रिदोष पाण्डु या मिट्टी के रस के अनुसार रस धातु की दृष्टि और *संग* या अवरोधजन्य पांडु होगा, दिवास्वप्न से जो पांडु होगा ये कफ प्रधान पांडु होगा या फिर अग्निमांद्य जन्य पांडु होगा...
ये जो पांडु के निदान बताये है उसमें से कौन सा निदान का अधिक सेवन होता है, या कौन सा निदान प्रबल है, इसके हिसाब से पांडु की उत्पत्ति होगी या दुष्य अलग अलग होगा, वैसे पांडु के सारे निदान में से कितने निदान मिलते है, कितनी प्रबलता है इस पर पांडु रोग का आधार रहता है, यही बात सारे रोगों के लिए भी लागू होती है,
जब सुरेन्द्र सोनी सर बरोडा थे, करीब 4/5 साल पहले तभी सर के साथ इसकी opd में 
निदानसेवन से अलग अलग सम्प्राप्ति का पॉइंट मिला था ।।
👏👏
सुप्रभात सर्वे गुरुजनो को💐🌹💐

[8/10, 9:02 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*दीपिका जी, इसी प्रकार रोगी में सब कुछ खोजिये और शास्त्र पढ़ते रहें तो धीरे धीरे अनुभवजन्य ज्ञान प्राप्त होता जायेगा और आप में आत्मविश्वास भी बढ़ेगा।*

*'सप्त सिराशतानि भवन्ति...' सु शा 3 ...स्थूल शिरायें 700, रस-रक्त का वहन अति सूक्ष्म शिराओं द्वारा होने से अपरिसंख्य।*

*नाभि से निकलने वाली 40*

*10 वातवाहिनी जो पोषक रस लेजाती हैं और पुष्टि वात की करती है।*

*पित्तवाही 10 भी पित्त की पुष्टि पोषक रस ले जा कर करती हैं।*

*कफवाहिनी कफ का पोषण पोषक रस से करने वाली 10 सिरायें होती हैं।*

*रक्त की पुष्टि 10 रक्तवाहिनी भी सिरायें पोषक रस को यकृत-प्लीहा में ले जा कर रक्त का पोषण करती हैं।*

*clinical दृष्टिकोण के रूप  में देखते हैं तो जो रसवाही स्रोतस हैं वो रक्त का वहन कर रहे हैं, 'द्विविधो रसः स्थायी पोषकश्चेति' च चि 15 में आचार्य चक्रपाणि ने स्पष्ट किया है। प्रत्येक सिरा हर दोष और रक्त को ले कर जा रही है।*

*सब से प्रथम स्थायी और पोषक रस का प्रकरण जब तक नहीं समझेंगे तब तक आयुर्वेद का अतिमहत्वपूर्ण और रोचक सिद्धान्त स्पष्ट नहीं होगा।लिखने में यह बहुत ही बढ़ा विषय है।*

*आप लोगों को कभी यह विषय भली प्रकार पढ़ाये ही नही गये और ना ही समझाये इसीलिये कठिनाई आ रही है।*
[8/10, 9:14 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*दिव्येश भाई आचार्य सुरेन्द्र सोनी जी ने उचित कहा है 👌👏 थोड़े परिश्रम से आप यह सब सीख सकते हैं बस प्रयास कर के शास्त्रों से और जो आधुनिक काल में हेतु मिल रहे है उनका एक चार्ट बना लीजिये और सब से प्रथम शरीर के किस स्रोतस में रोग की जड़ हो सकती है अर्थात किस स्रोतस में खवैगुण्य हुआ होगा ? यह जानिये, यह कोई कठिन नहीं अति सरल कार्य है बस समय और श्रम मांगता है जैसे आगे कुछ उदाहरण से स्पष्ट कर देते है।*

*'कुपितानां हि दोषाणां शरीरे परिधावताम्, यत्र संगः खवैगुण्याद्व्याधिस्तत्रोपजायते' 
सु सू 25/10, 

इस पर आचार्य डल्हण की व्याख्या है 

'खवैगुण्यात् स्रोतोवैगुण्यादित्यर्थः'*

*आचार्य चक्रपाणि 'खवैगुण्य खवैगुण्यादिति स्रोतोवैगुण्यात् ' च चि 15/37 दोनों आचार्यों के मत से खवैगुण्य स्रोतस की विगुणता है क्योंकि खवैगुण्य स्रोतस में ही होगा जो उनके प्राकृत कर्मों में व्यवधान उत्पन्न करेगा।*

*'मूत्रोत्संग के लक्षणों में भी खवैगुण्य को स्पष्ट किया है 'खवैगुण्यानिलाक्षेपैः किञ्चिन्मूत्रं च तिष्ठति मणिसन्धौ स्रवेत् पश्चात्तदरुग्वाऽथ चातिरुक् ' 

च सि 9/33 *

*ये खवैगुण्य अर्थात स्रोतस की विगुणता कैसे हो रही है ? इसे हेतु कर रहा है और इसे आरंभ से समझ कर चलें तो पूरा विषय स्पष्ट हो जायेगा कि हेतु खवैगुण्य किन किन प्रक्रियाओं से कर रहा है । ये हेतु अनेक प्रकार के हैं जैसे ...*
*निज - जो दोषों को प्रकुपित सीधे ही करते है और आगंतुज जो अभिघात, अभिशाप, अभिचार और अभिषंग से विभिन्न आगन्तुक रोगों को उत्पन्न कर देते हैं।*

*सन्निकृष्ट हेतु- जैसे वय, दिन, रात और भोजन के अन्त, मध्य और आरंभ में वात पित्त और कफ का प्रकोप रहता ही है तथा विप्रकृष्ट जैसे हेमन्त में संचित कफ का वसंत में प्रकोप होगा और कफज रोग उत्पन्न करेगा।*

*व्यभिचारी हेतु - ये वो निदान है जो दुर्बल होने से पूर्ण सम्प्राप्ति बनाकर रोग उत्पन्न करने में तो असमर्थ है पर लक्षण उत्पन्न कर रोगी को विचलित कर के रखते हैं।*

*प्राधानिक हेतु - जो उग्र स्वभाव होने से तुरंत ही दोषो को प्रकुपित कर देते हैं जैसे विष, अति मादक द्रव्य आदि ।*

*उभय हेतु - ये हेतु दोष और व्याधि दोनो को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखते हैं जैसे अति उष्ण-तीक्ष्ण-अम्ल विदाही अन्न*

*विभिन्न वायरस, कृमि या जीवाणु*

*इस पूरे प्रकरण में अब देख सकते हैं कि बिना दोषों के चय के भी अचय पूर्वक खवैगुण्य हो रहा है और दोष प्रकोप बाद में होगा ।*

*अब इसे किसी भी रोग के उदाहरण में apply कर के देखते हैं तो हम यहां प्रमेह का उदाहरण ले कर चलेंगे*

*'आस्यासुखं स्वप्नसुखं दधीनि ग्राम्यौदकानूपरसाः पयांसि नवान्नपानं गुडवैकृतं च प्रमेहहेतुः कफकृच्च सर्वम्' 

च चि 6/4 
तथा आगे चलें तो 

'जातः प्रमेही मधुमेहिनो  वा  न  साध्य  उक्तः स हि बीजदोषात् ये चापि केचित्  कुलजा विकारा भवन्ति तांश्च प्रवदन्त्यसाध्यान्' 

च चि 6/57 

और आगे आचार्य चक्रपाणि का कथन है *'

*मेहानामसाध्यताप्रकारान्तरमाह- जात इत्यादि,प्रमेही यः प्रमेहिणो जातः सोऽप्यसाध्यो भवति, अत्रापि हेतुमाह- स हि बीजदोषादिति;  प्रमेहारम्भकदोषदुष्टबीजजातप्रमेहित्वात् ।*

*अब इन सब हेतुओं को देखे तो जो च चि 6/4 में कफ वर्धक हेतु प्रतीत हो रहे थे वो श्लोक संख्या 57 और चक्रपाणि के अतिरिक्त मत से अब इस प्रकार बन गये ,*
*1. आहार जन्य- दूध, दही, नया अन्न, गुड़ और अनेक कफ वर्धक हेतु जो हमने सर्वप्रथम लिखे।*
*2- विहार जन्य - सुखप्रद आसनों या शय्या पर आस्या सुख या स्वप्न सुख, अति निद्रा, आलस्यादि।*
*3- मानस भाव जन्य - अति हर्ष- उल्लास*
*4- बीज दोष जन्य - जिसे हम सहज प्रमेह कह सकते हैं।*
*5- कुल में रहने वाली प्रवृत्ति - कुलज प्रमेह*

*अब ये उभय हेतु बन गये हैं जो दोष तथा व्याधि दोनों को भी उत्पन्न करने का सामर्थ्य रखते हैं।*

*इन हेतुओं से खवैगुण्य कैसे हो रहा है ? कफ के अंश देखें तो कफ 

'गुरुशीतमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः

'च सू 1/59-61 

 कफ वर्धक आहार का अति सेवन पर इस कफ का कोई एक अंश कुपित हो कर मेदोवाही स्रोतस में खवैगुण्य उत्पन्न करेगा जो प्रमेह का कारण बनेगा क्योंकि अगर कफ के सारे अंश कुपित हो तो अनेक कफज रोग उस रोगी को हो जायेंगे। प्रमेह में के निदान तो कफवर्धक है फिर समस्त कफज रोगों में यही निदान क्यों नही लिखे ? क्योंकि कुछ हेतु कुछ रोगियों में दोनों कार्य एक साथ कर रहे हैं जो दोष के एक विशिष्ट अंश को प्रकुपित कर, खवैगुण्य भी कर रहा है, एक विशिष्ट धातु जैसे यहां मेद को दुर्बल अथवा शिथिल भी कर रहा है और इसके स्रोतस में दुष्टि भी ला रहा है। दोष दूष्य सम्मूर्छना तो षडक्रिया काल की व्यक्त अवस्था है।*

*ऊपर हेतु देखें तो कुलज और  बीज गत प्रमेह जो धातु शैथिल्य एवं स्रोतस दुष्टि के साथ आता है वो जन्म के कुछ काल के साथ अपने पूर्ण रूप में व्यक्त होने लगता है ।*

*आप अलग अलग व्याधियों के निदान देखिये और चार्ट बनाईये, दोषों की अंशाश कल्पना के अनुसार व्याधि के दूष्य, स्रोतस में जायें तो स्वतः ही विषय स्पष्ट होने लगेगा पर उस से पहले आवश्यक ये भी है कि अनेक व्याधियों के पूर्वरूप नही लिखे पर वो रोगियों में होते है तो वह हमें स्वः निजी बुद्धि बल से बनाने चाहिये तब खवैगुण्य और अधिक स्पष्ट होता जायेगा।*

*शीतल एवं प्रदुषित जल = cold drinks में बाजार से ice मिला कर सेवन की तो शीत गुण ने वात और कफ को प्रकुपित किया, रसवाही - प्राणवाही स्रोतस में खवैगुण्य किया जो आगे चल कर वातज कास में परिणित हुआ। इसी जल के शीत गुण नें तथा अचय पूर्वक प्रदुषित जल ने वात को प्रकुपित किया तथा शरीर की जलीय धातु, अम्बुवाही स्रोतस और पुरीषवाही स्रोतस में खवैगुण्य किया और अतिसार भी उत्पन्न किया।* 

*मल स्निग्ध आ रहा है और रोगी को शीतता प्रतीत हो रही है तो वात प्रधान कफज व्याधियां भी इसी प्रकार होती हैं और अनुबंधी भी।एक ही हेतु शीत द्रव्य वात का चल, कफ का स्निग्ध, शीत और पिच्छिल गुण भी बढ़ा सकता है।*

[8/10, 9:16 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*'हेतु जन्य सटीक  सम्प्राप्ति' जो सीख ले वो चिकित्सा में सदैव सफल रहेगा ।*

[8/10, 9:19 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*थैलेसीमिया मेजर और माईनर में मेजर के रोगी मत लेना अपयश मिलेगा और थैलेसीमिया माईनर के रोगी सब ले लीजिये तथा इसमें चक्रदत्त का फलत्रिकादि क्वाथ शरपुंखा मिलाकर अवश्य देना ।* 

👍👍

[8/10, 9:55 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

सही बात है गुरूवर हेतु स्वतंत्र व परोक्ष दोनों होते हैं। परोक्ष हेतु कभी-कभार औषधियों विशेष रूप से Zole gp जैसे Ompremazole आदि का अथवा कायम चूर्ण आदि का जो नित्य सेवन करते रहना भी होता है। हेतु के अतिरिक्त रोगी की प्रकृति निर्धारण व रोग की अवस्था साम निराम  को भी जानने से चिकित्सीय योग चुन्ना सरल हो जाता है।🙏

[8/10, 9:56 AM] Dr.Deepika: 

काय चिकत्सा ब्लाग पे धातु पोषण से related discussion है, कृपया लिंक send kijiye, mil nhi pa रहा .

[8/10, 10:07 AM] Vd. Divyesh Desai Surat: 

👏👏प्रणाम ,
गुरुश्रेष्ठ आज आपने मेरे विचारों में जो थोड़ा संशय था, वो दूर कर दिया,
आगे मैंने आयुर्वेदके छात्रों को कहा था
आयुर्वेद एक मैथेमैटिक्स है और 1/1 श्लोक मैथेमेटिक्स के सूत्र जैसा है
कुपितानां हि दोषाणाम... ये पूरे रोगविज्ञान का मूलभूत एवं प्रधान सूत्र है, जिसमे अलग अलग रकम डालने से (अंशांशकल्पना) नई नई संख्या  (व्याधि) प्राप्त होगी, आज आपने ये भी क्रिस्टल क्लियर कर दिया ।।
अन्योन्य प्रवेश ये चाहे महाभूतों का हो, दोषो का हो या धातुओ का या हो ये जानना अत्यंत महत्वपूर्ण और जरूरी है । दूसरे बिनजरूरी और अनावश्यक कार्यो की वजह से संहिता का पठन या अभ्यास नही हो सकता, ये अभ्यास यहाँ काय सम्प्रदाय की पाठशाला में हो जाता है, साथमे उचित अर्थ एवं प्रैक्टिकल के साथ।👏👏प्रणाम काय सम्प्रदाय के गुरुजनोंको / शिक्षकों को💐💐

[8/10, 10:15 AM] Dr. Ashwani Kumar Sood: 

In my opinion one should consider common health problems and then  jump to uncommon and rare problems.  In paediatric age gr in this case malnourishment and worms should be ruled our first as in our country these two are common  cause of  ANEMIA. In previous BT the attending physician might have checked for Mentzer's index with CBC. It's not advisable to jump for THALASSEMIA.

[8/10, 10:29 AM] Vd. Divyesh Desai Surat: 

जी हाँ, साथमे ब्रह्मांड में स्थित भुताग्नि का भी असर पड़ता है।👏👏

[8/10, 10:38 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P.): 

फल बाहर रखने पर भी सड़ने लगता है आपने कारण स्पष्ट किया भूतागनि का असर । मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी यह भूतागनि असर दिखाती आपस मे बोल चाल खत्म कर देने पर भी रिश्तों मे सड़न आ जाती है विशेष रूप से पति पत्नी के रिश्ते में। 🙏

[8/10, 11:22 AM] Dr. Shekhar Singh Rathore Jabalpur: 

शान्ते अग्नौ म्रियते....मृत शरीर के‌ सड़ने में कौन सी अग्नि...??

[8/10, 11:23 AM] Dr. D. C. Katoch sir: 

Vd Divyesh Bhai, Ayurved mathematics से अधिक algebra है जो शरीर- स्वास्थ्य और रोग की geometry aur chemistry को समझने और समझाने में समर्थ है।

[8/10, 11:27 AM] Dr. Shekhar Singh Rathore Jabalpur: 

अग्नि शांत होने और नष्ट होने में क्या अंतर है...?

[8/10, 11:27 AM] Vd Kavita Agrwal: 

शांत हो गयी याने अब उसका वो कार्य नहीं रहा विकृत कार्य रहेगा ??
क्या ये सोचे 🙏

[8/10, 11:27 AM] Dr. Ramakant Sharma Jaipur: 

पंचभूत अग्नि

Dr. Shekhar !

[8/10, 11:28 AM] Vd Kavita Agrwal: 

याने जिसमें स्थित थी उसे ही नष्ट करने का ?

[8/10, 11:31 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U.P.): 

आत्म नियंत्रण समाप्त हुआ।

Dr. Divyesh !

[8/10, 11:48 AM] Vd. Divyesh Desai Surat: 

✅✅💐💐💐
वेद है, वो हि बड़ी बात है, आदरणीय कटोच सरजी, जिसमे सभी विषयों का समावेश हो जाता है।।🌹🌹

[8/10, 11:48 AM] Vd Shailendra Mehta: 

आदरणीय,,,जो द्र०य नित्य है,,,उसका नष्ट होना कैसे स्वीकारें,,,,,यथा,,आत्मा,,मन,,,ई०

[8/10, 11:59 AM] Dr. PM Sharma: 

आयुर्वेदोक्त प्राणादि पांच वायु के अतिरिक्त पंच प्राण और भी हैं, जैसे कूर्म, देवदत्त, धनंजय इत्यादि।
इसमें से धनंजय वायु, मृत्यु के बाद कुछ घंटो में शरीर का त्याग कर देता है और इस कारण से शरीर सड़ने लगता है। 
ऐसा पतंजलि योग सूत्र में बताया गया है l

 महर्षि पतंजलि कृत योगसूत्र में प्राणायाम के अंतर्गत जब १० प्राणों का वर्णन जहां आया है, वहीं अन्य प्राणों का भी कार्य विनिश्चय किया है

[8/10, 9:52 PM] Dr.Deepika: 

धातु स्नेह परंपरा
एक धातु अगली धातु का पोषण करती है
धातु बल अभाव में जब सार किट्ट विभाजन सम्यक नहीं होता तब मल भी बल होते है जैसे यक्ष्मा

धातु पोषण अनुलोम तो होता ही है परंतु आवश्यकता पड़ने पर प्रतिलोम भी होता है। यही धातुओं की परस्पर स्नेह परंपरा है।
यह पोषण अनेक जगह केदारी कुल्या न्याय, अनेक जगह
क्षीर दधी न्याय, अनेक जगह खलेकपोत न्याय से होता है।

परंतु पार्थिव से पार्थिव की वृद्धि अटल सत्य है।
उपस्नेह एवम उपस्वेद  से पोषण
प्रत्येक धातु के लिए
स्थूल भाग   स्थाई धातु एवम उपधातु पोषण
सूक्ष्म भाग  अस्थाई धातु, next धातु पोशक अंश
किट्ट भाग   धातु मल का पोषण

धातु अग्नि पाक परंपरा
४factors responsible
अन्न रस
व्यान वायु
धातु वह srotus
धातु अग्नि
If all these factors are in प्राकृत अवस्था,then सम्यक पोषण take place
शरीर विजातीय तत्व को शरीर सजातीय करना अग्नि का कार्य है, शरीर सजातीय तत्व पे अग्नि का कार्य कम होता है। भूतग्नी का कार्य mahasrotus एंड धातु वह srotus दोनों जगह होता है। धातु अग्नि यह काय अग्नि का ही अंश होते हैं।

[8/10, 10:53 PM] Dr. Ramakant Sharma Jaipur: 

👏👏👏👏👏👏👏

[8/10, 11:59 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola: 

*अग्नि एवं घातुपाचन प्रक्रिया पर  यह ब्लॉग वास्तव मे बहोत ही श्रेष्ठ संगोष्ठी का उदाहरण है*
*गुरुवर प्रो. रमाकांतजी चुलेट सर, अनुज प्रो. सुरेन्द्रजी सोनी, प्रो. संजयजी लुगांरेजी, प्रो. गिरीराजी शर्मा आदि के अथक प्रयास और शास्त्रोक्त चर्चा का यह प्रतिफल है, जो श्रेप्ठतम संभाषा का फल है*

🙏🙏🙏

*इस ब्लॉग को पढने का आनंद ही अलग है*

[8/11, 5:15 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

दिव्येशभाई, आयुर्वेद निश्चित ही गणित की तरह है। जरूरत मात्र आंखें खुली रखने की है। उक्त को कालसापेक्ष में समझो और अनुक्त को दिशादर्शन से समझो। संहिता दिये का प्रकाश है, दृष्टी नहीं, अभ्यासात प्राप्यते दृष्टी । यही सत्य है। सुभाष सर इसे निरंतर प्रयास, परीश्रम कहते हैं। आप जो भी देखो आयुर्वेद ढुंढो, बस हो गया। बड़ा बंदिस्त है आयुर्वेद, ३ दोष-१५ प्रकार, ७ -८ धातु, ३ मल, कुछेक उपधातु, १३ स्त्रोतस, ४ प्रकार की स्त्रोतोदुष्टी, २० गुण, ३ विपाक,२ वीर्य --बस  हो गया सब कुछ इसी में सिमटा है। Just mix & match.






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Above discussion held on 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp -discussion-group  of  well known Vaidyas from all over the India. 

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Compiled & Uploaded by

Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
ShrDadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
 +91 9669793990,
+91 9617617746

Edited by

Dr.Surendra A. Soni

M.D.,PhD (KC) 
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150




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