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WDS102: लीन दोष भाग-१ (Leen-dosha, Part-1) by Vaidya raja Subhash Sharma, Prof. Shrikrishna Khandal, Prof. L. K. Dwivedi, Dr. Dinesh Katoch, Prof. Prakash Kabra, Prof. Arun Rathi, Dr. Pawan Madaan, Dr. Sanjay Chajed, Vd. Atul Kale, Vd. Vinayak Dongare, Vd. Vinod Sharma, Vd. Akash Changole, Vd. Vandana Vats, Vd. Shailendra Mehata &

[3/17, 1:06 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:

 *लीन दोष -भाग 1..... 

लीन दोष की व्याख्या और clinical presentations - 

Liver Fibrosis एवं अनेक रोगों के साथ*

*वैद्यराज सुभाष शर्मा, एम.डी.(आयुर्वेद-जामनगर, गुजरात -1985)*

*(सादर आभार परम आदरणीय प्रो.बनवारी लाल गौड़ जी, जिनके द्वारा लिखित चरक चक्रपाणि पर एषणा व्याख्या ने लीन दोषों पर अनुसंधान और आधुनिक काल के रोगों में clinical दृष्टिकोण से कार्य के लिये प्रेरित किया)*

*एक युवक gym में व्यायाम करते, कोई DJ पर डांस करते, अनेक लोग असमय या समय से पूर्व ही सोते समय, स्नान करते हुये मृत हो गये। मनुष्य स्वस्थ था पर अचानक ही गंभीर व्याधि से ग्रसित हो गया... क्या है ये सब !*

*लीन दोष पर एक विस्तृत श्रंखला clinical presentation के साथ लिखने जा रहे हैं जिसमें आधुनिक काल के अनेक रोग भी हैं...*

*लीन दोष तो सभी मनुष्यों में कहीं ना कहीं मिलेंगे ही पर वो कुपित हो कर रोग लक्षण प्रकट करने में समर्थ कब होंगे ? 
च सू 28/7 पर आचार्य चक्रपाणि 'अपचार' इस शब्द को स्पष्ट करते हैं और इसकी अत्यन्त ज्ञानवर्धक एवं श्रेष्ठ व्याख्या परम आदरणीय गुरूश्रेष्ठ प्रो.बनवारी लाल गौड़ जी ने 'एषणा' व्याख्या में की है कि हित आहार और साथ में हमारे मतानुसार विहार भी जिसे मनुष्य वह मान भी रहा है है कि वह हितकर है लेने वाले भी हित आहार-विहार के नियमित प्रयोग से रोगों के भय से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाते हैं क्योंकि रोग के कारण या रोगों की अपनी प्रकृति, अहित आहार के अतिरिक्त अपथ्य भी प्रमुख कारण है।*

 *शब्दकल्पद्रुम के अनुसार संस्कृत में ली+क्तः अर्थात लय को प्राप्त एवं श्लिष्ट होता है।*

*लीन को अन्य अर्थ में ले तो लिप्त, गहराई से जुड़ा हुआ, विलीन, छुपा हुआ, चिपका हुआ एवं दुबका हुआ भी होता है।*

*लीन का अर्थ है विलय कुछ हद तक संलग्न रूप में हैं, जब दोष धातुओं के साथ जुड़ा या विलीन या अलग या संयुक्त रूप में छिपा हुआ होता है।दोष का विलय कहां होगा दूष्य के साथ जिसमें विकृति तो है लेकिन रोग के लक्षण कम से कम व्यक्त होते हैं या व्यक्त भी नहीं होते हैं ।*

*इस अवस्था में दोष सुप्त अवस्था में होते हैं और रोग की अभिव्यक्ति के लिए संप्राप्ति के चरणों को पूरा नहीं कर पाते  और दोष लक्षणों को व्यक्त करने के लिए अनुकूल परिस्थितियों की प्रतीक्षा करते हैं।*

*अगर अचय प्रकोप या आकस्मिक दुर्घटनाओं को त्याग दें तो रोग के रोगजनन में दोष विभिन्न अवस्थों से सम्प्राप्ति निर्माण करने के लिये मार्ग तय करेगा।ऐसी ही एक महत्वपूर्ण अवस्था है लीन दोष अवस्था भी है जिसे प्रायः रोग का अव्यक्त चरण माना जाता है, यदि चिकित्सक लीन दोष अवस्था को भली प्रकार से समझ ले तो सरलता से उचित उपचार द्वारा रोग को कम अथवा समाप्त किया जा सकता है। लेकिन दोष लीन है इसे clinical रूप में रोगी की परीक्षा करते हुये, प्रश्न द्वारा या सटीक history ले कर कैसे परीक्षण करेंगे ?*

    *हमारे पास आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति ये चार विधायें तो हैं ही साथ में आधुनिक investigations भी लीन दोष परीक्षण में सहायक या माध्यम हैं जिसमें प्रमुख है अनुमान प्रमाण।लीन दोष का अनुमान व्याधि में किसी रोग के पुनः पुनः या रुक-रुक कर होने वाले रोग लक्षणों के माध्यम से लगाया जा सकता है।*

*संहिता ग्रन्थों चरक, सुश्रुत और अष्टांग ह्रदय तीनों संहिताओं में लीन दोष का उल्लेख आया है।*

[3/17, 1:08 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*सु उत्तर तन्त्र ज्वर प्रतिषेध 39/65, चि 15/75, अ ह सू 8/28  आदि अनेक स्थलों पर लीन दोषों को स्पष्ट किया है।लीन दोषों का उल्लेख सूत्र रूप में जो मिलता है उसको हम निम्न अवस्थाओं के प्रकरण में विस्तार से जान सकते हैं...*

*लीन दोषावस्था ये है...*
*1- चय*
*2- एक देश में स्थित*
*3- बलवोत्तर उपरांत क्षीण हो जाना*
*4- प्रसर (जैसे रक्त में आश्रित भूताभिषंग जीवाणुओं का कुछ कुछ काल पश्चात प्रसर हो कर लीन हो जाना)*
*5- अणुवत*
*6- प्रकोप*
*7- धातु में स्थित हो जाना*
*8- बद्ध*
*9- आम के साथ मिलना*
*10- स्तम्भ*
*11- उत्क्लिष्ट*
*13- चल*
*14 - स्थिर*
*15- मंद*
*16- संक्रमण वायरस या जीवाणु प्रवेश उपरांत विभिन्न रोग उत्पन्न करने से पूर्व दोष प्रकोप एवं विलंब से लक्षण उत्पन्न होना ।*

*आयुर्वेद में चिकित्सा करना एक पूर्ण व्यवस्थित प्रक्रिया है कि रोगी का दीपन, पाचन, अनुलोमन, शोधन, शमन और रसायनादि कर्मों से रोगी को स्वस्थ करना है पर रोगोत्पत्ति से पूर्व और चिकित्सा के बाद भी दोष धातुओं में लीन और शेष रह जाते हैं तभी रोग बार बार होता है, चिकित्सा के बाद भी रोगी अपने को स्वस्थ प्रतीत नहीं करता, स्वस्थ है भी तो investigations normal नहीं है।* 

*यदि मूत्राशय को पूरी तरह से खाली नहीं किया जायेगा तो सामान्य से अधिक मात्रा में  अवशिष्ट मूत्र बस्ति मे  रह जाता है। चूँकि मूत्रवाही स्रोतस सहित मूत्राशय की मूत्र निष्कासन व्यवस्था अव्यवस्थित हो गई है जिस से अब दोष और अधिक कुपित होंगे, रोगाणु आसानी से मूत्राशय की भीतरी दीवार पर जमा हो सकते हैं और संक्रमण पैदा कर सकते हैं। यह मूत्राश्मरी के निर्माण को भी बढ़ावा देता है। यदि लंबे समय तक मूत्र निर्हरण की चिकित्सा सम्यग् रूपेण नहीं की जायेगी तो संक्रमण मूत्रवाहिनी के माध्यम से वृक्कौं में रह सकता है और chronic kidney disease जो वृक्कौं की विफलता का कारण बन सकता है।*

*वयस्कों में 100 मिलीलीटर अवशिष्ट मूत्र को असामान्य स्तर माना जाता है, बच्चों में मूत्राशय की क्षमता के 10 प्रतिशत से अधिक अवशिष्ट मूत्र स्तर को असामान्य माना जाता है। इस विषय में अवशिष्ट मूत्र की मात्रा निर्धारण में विभिन्न मत भी हैं।*

*लीन दोष में लीन मल को जिसमें मल, मूत्र और स्वेद को भी ग्रहण कर लीजिये तो लीन दोष को समझना आपके लिये बहुत सरल हो जायेगा क्योंकि मलादि का अनावश्यक संचय भी दोषों को प्रकुपित इस प्रकार से करता है कि भीतर ही भीतर दोष लीनावस्था में धातुगत बने रहते हैं और अपनी अनुकूल विषम परिस्थिति मिलते ही विभिन्न रोगानुसार लक्षण प्रकट कर देते हैं। राजयक्ष्मा में मल की रक्षा भी आवश्यक है और संचित मल अन्यत्र कहीं ना कहीं दोषों को भी कुपित करेगा ही, इस विषय पर बहुत कम लोग चिंतन करते है पर रोगी देखने में यह प्रत्यक्ष मिलता भी है।*

*लीन दोष समझने के लिये रज और तम को भी include करेंगे तो अनेक आधुनिक रोगों का स्वतः ही इनमें समावेश हो जाता है।*

*अपथ्य रोग को तत्काल नहीं कालान्तर में अर्थात कुछ काल या दीर्घ काल के बाद उत्पन्न करता है, अपचार का अर्थ अहित आहार का उपयोग है।*

*अहित आहार में दो शब्द बहुत महत्वपूर्ण है, 'तुल्यदोषाणि अर्थात समान दोषकारी और व्याधिक्षमत्व।तुल्य दोष को ऐसे समझें जैसे चावल पित्तवर्धक है और किसी के लिये अहितकर या अपथ्य है तो आनूप देश में रह कर सेवन करने वाले के लिये और अधिक अहितकर हो जायेगा क्योंकि आनूप देश में पित्त का प्रकोप रहता ही है। वैसे ही चावल पित्त वर्धक है और दही भी तो दोनों का संयोग यह दोष और अधिक बलवान हो जायेगा।यह अपचार का संयोग दोष कहलाता है।*

*आहार का प्रमाण दोष दधि और चावल को अति मात्रा में सेवन करना है, आहार का वीर्य दोष गर्म करने पर और अधिक गर्म आहार पित्त को और अधिक बलवान करेगा। संसृष्ट योनि अर्थात दोषों के अनुसार अनुकूल दूष्यों का मिलना जैसे पित्त तो उष्ण है ही उसे समानधर्मी दूष्य रक्त मिल गया तो अब जो रोग होगा वो आशुकारी अर्थात तत्काल ही तीव्र लक्षण उत्पन्न कर देगा।*

*अपचार अर्थात अहित आहार में एक इसका एक गुण और देखिये वह है 

'विरूद्धोपक्रमत्वात्' 
च नि 4/27 
अर्थात विरूद्ध उपक्रम, इसका उदाहरण पैत्तिक प्रमेह है जो इस रोग की चिकित्सा से याप्य बन जाता है अर्थात जब तक चिकित्सा चलेगी तब तक रोग शान्त रहता है और चिकित्सा बंद होते ही रोग पुनः आ जायेगा क्योंकि यहां भी दोष लीन पड़े रहते हैं।पैत्तिक प्रमेह में पित्त तो शान्त पित्तहर मधुर रस से होगा पर प्रमेह का प्रधान दूष्य मेद है तो मधुर उसकी वृद्धि कर रोग को और बढ़ायेगा और मेद के विपरीत कटु द्रव्य देंगे तो वह पित्त की वृद्धि करेंगे।*

*आप व्यवहार में देखिये कि कितने ही रोगी और उनके रोग ऐसे हैं कि पूरा जीवन चिकित्सा चलती है पर रोगी स्वस्थ नहीं हो पाता अपितु समय के साथ अनेक नवीन व्याधियां और नवीन लक्षण रोगी में मिलने लगते है तथा औषधियां भी बढ़ती जाती है क्योंकि विभिन्न स्रोतस में दूषित दोष लीन हो कर पड़े रहते हैं, रोगी जैसे ही अहितकर या मिथ्या आहार विहार करता है तो दोषों को रोग प्रकट करने की अनुकूल परिस्थितियां मिलने लगती है और नवीन रोग आ जाते हैं।*

*अहित आहार दोषों को ले कर रोगों को 'गम्भीरानुगतः' बना देता। इसके कारण रोग मज्जा आदि धातुओं में स्थित हो कर रोग को चिरकालीन बना देते हैं, 'चिरस्थितः' अर्थात इसके कारण दूषित दोष अधिक काल तक शरीर में लीन रह कर रोग को कष्ट साध्य बना देते हैं।*

*...... to be continue....*

[3/17, 5:45 AM] Dr. Ashwani Kumar Sood: 

very informative interesting untouched topic 👍🏽🌺

[3/17, 6:17 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

बहुत गहन अध्ययन! गुरूवर सादर चरण स्पर्श 🙏

[3/17, 6:41 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

लीन दोष वास्तव में एक विस्तृत परंतु अनछुआ विषय है। बहुत बार हम यही सोचते हैं की लीन दोष अल्प मात्रा में होते हैं तो वे हानीकारक नहीं होते है। पर वस्तुत: वे संप्राप्ति को बनाए रखते हैं। जैसे *लेटेन्ट इन्फेक्शन* यह अधिक खतरनाक होता है।

[3/17, 7:04 AM] Dr. Deep Narayan Pandey Sir: 

अत्यंत महत्वपूर्ण बात है आचार्य श्रेष्ठ।

इसका एक उदाहरण भारत में ट्यूबरक्लोसिस इंफेक्शन का है जिसमें एक बहुत बड़ी आबादी संक्रमित है लेकिन रोग सामने नहीं दिखाई पड़ता और ना ही कोई लक्षण हैं। कुछ अनुमानों के अनुसार तो लगभग 30% लोग ट्यूबरक्लोसिस का जीवाणु साथ लेकर चल रहे हैं लेकिन बीमारी प्रकट नहीं हुई।

[3/17, 7:33 AM] Dr. Ashwani Kumar Sood: 

ऐसा प्रतीत होता है कि हर बंदा लीन दोषों से ही निर्मित है कलियुग का प्रभाव ऐसा है।

[3/17, 8:15 AM] Dr. Ashwani Kumar Sood: 

फलत्रिकादि जैसे रामबाण से आपने अवगत कराया उसी प्रकार य़ह भी ऐसा विषय है जो बहुत सी गुत्थियां को सुलझाएगा, लीन दोष विचार HISTORY TAKING का essential element होना चाहिए.

[3/17, 8:19 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

Careers of Hepatitis virus, Hepatitis B virus is known examples. This can also be observed in recurrent fevers which are out of the preview of vishamjwar.

[3/17, 8:22 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir: 

अगदंकर का परम कर्तव्य अगद प्रयोग का एक सूत्र, *छोटे रास्ते से निर्हरण।*

[3/17, 8:39 AM] VD Ajay Singh:

 सादर प्रणाम गुरु देव 
लीन दोषावस्था क्रिया काल में ही समाहित होती है या नहीं ?

[3/17, 8:40 AM] Dr. D. C. Katoch sir: 

Very right statement Dr Sood. Doshas are actually Samvayi hetu for the causation  of disease process and the disease is manifested after dosh-dusya sammoorchhana involving srotodusti (early stage Poorvaroopavastha,  advanced stage Vyaktavastha and later stage Bhedavastha). Manifestation of the disease can not take place unless and untill doshas are potent enough to cause effective dosh-dusyasammoorchha. That means duty & responsibility of dosh for the manifestation of disease is effective derangement of dhatu & srotas integrity to produce certain signs & symptoms called Pratyatm Lakshan in Ayurved. In this regard Naidanik  (pathological ) definition of Nidan (aetiological factor (s) is very clear - 

सेति कर्तव्यताको रोगोत्पादक हेतु निदानम।  Therefore, लीन दोष means that दोष, which fails to perform its duty & responsibility for effective dosh-dusya sammoorchhna and srotodusti followed by manifestation of  disease- pratyatm lakshan.

[3/17, 8:40 AM] Dr Sanjay Dubey: 

सादर प्रणाम गुरुजी 🙏🙏
चरक संहिता के ग्रहणी रोग चिकित्सा में लीन दोष का जिक्र आया है...

लीनं पक्वाशयस्थं वाऽप्यामं स्राव्यं संदीपनैः। 
शरीरानुगते सामे रसे लंघन पाचनम् ।
... यहां पर पक्वाशय में लीन दोष को प्रैक्टिकली कैसे समझा जाय ?🙏

[3/17, 8:44 AM] Dr. Ashwani Kumar Sood: 

Absolutely right, Vaidyaraj ji औऱ आप जैसे विद्वान इस विषय को और सरल बना देंगे ।

[3/17, 9:20 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

यहां पक्वाशयस्थ लीन आम का उल्लेख है। हरीतकी जो पाचन के साथ अनुलोमन कराती है श्रेष्ठ औषधी है। जो आम आसानी से न निकलता हो, उसे लीन की श्रेणीं में लिया गया है।

[3/17, 9:38 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir: 

अभया पिप्पली कल्कै सुखोष्णैस्तं विरेचयेत्।

[3/17, 7:23 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 

🙏हमारा आकलन है मानसिक रोगों में लीन दोष की संप्राप्ति का विशेष महत्व होता होगा।

[3/17, 7:33 PM] Dr. D. C. Katoch sir: 

Most comprehensive लाक्षणिक चिकित्सा ( व्याधि विपरीत चिकित्सा) is described in Ayurvedic texts with the use of पंचाशत महाकषाय formulations  of Charak Samhita and  विविध औषधि गण made formulations of Sushrut Samhita. However, certain principles are involved in conceptualisation of these mahakshaye and gana.

[3/17, 10:00 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*बिल्कुल सही कहा आचार्य श्रेष्ठ 👌🙏*

[3/17, 10:01 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*और जन्म से भी प्रभु लीन दोष चले आ रहे हैं जैसे genetic disorders*

[3/17, 10:03 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*लीन दोष में history बहुत ही महत्वपूर्ण, लीन दोष पर काफी समय से हम बहुत कार्य कर रहे है और यथासंभव समय निकाल कर इस पक्ष को विस्तार पूर्वक सरलता से स्पष्ट करेंगे।*

[3/17, 10:06 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*विषम ज्वर में क्रिया काल है, दोष बलवान हो कर रोग लक्षण प्रकट करता है और पुनः दुर्बल हो कर लीन हो जाता है और फिर बलवान हो कर दुर्बल... 'लीन दोषावस्था ये है' ऊपर ध्यान से देखेंगे तो हम यह सब लिख चुके हैं।*

[3/17, 10:08 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*वैद्यवर संजय दुबे जी, आगे लेखन में यह हम ले कर चले हैं और समय मिलते ही इसे भी स्पष्ट करेंगे।*

[3/17, 10:21 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*सादर नमन आचार्य जी, बहुत बढ़िया कल्पना अभया पिप्पली का संयोग है, हम गौमूत्र हरीतकी और गौमूत्र पिप्पली दोनो ही 500-500 mg की टैबलेट बनवा कर रखते है, दोनो की 1-1 gm मात्रा भी अनेक गंभीर धातुगत रोगों में श्रेष्ठ कार्य करती है।* 🙏

[3/17, 10:31 PM] Vaidya Pawan Madaan 2: 

सादर प्रणाम गुरु जी

अति उत्तम 

अति सारगर्भित।

आपने अपचार के लिए आहार एवं विहार का स्पष्ट वर्णन किया। 🙏🏻🙏🏻

मैने अनुभव किया के इस अपचार में मानसिक अपाचार की भूमिका भी विशेष रहती है।
एवं
कुछ केसों में तो केवल वातावरण के कुछ factor ही लीन दोषों को धातुओं के साथ संप्राप्ति कराने में सक्षम रहते हैं।

1
दोष शरीर में प्राकृत कार्यों को संपन्न कराए हैं।
2
दोष जब अपनी प्राकृत अवस्था से विकृत (कम या अधिक) अवस्था में आ जाते है, पर अभी धातुओं को विकृत नहीं करते जिस से लक्षण नहीं आते।
3
ये लीन दोष जब धातुओं को विकृत करके संप्राप्ति पूर्वक लक्षण पैदा करते हैं तो व्याधि परिलक्षित हो जाती है।

गुरु जी मुझे लगता है, लीन दोषों का लक्षण पैदा करना, में खवैगुण्य का भी एक महत्वपूर्ण रोल हो सकता है।

आप का मार्गदर्शन
अति उत्तम
🙏🏻

[3/17, 10:35 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*नमस्कार वैद्यवर पवन भाई, एकदम सही कहा आपने कि मानस भाव का क्षेत्र अति महत्वपूर्ण है.. आगे लीन रोग पर जो लेखन की पूरी सीरिज है उसमें यह भी हम ले कर चले हैं कि रज और तम कितने महत्वपूर्ण रोल play करते हैं।* 🌹🙏

[3/17, 10:40 PM] Vaidya Pawan Madaan 2: 

This is a very important aspect. History taking is the most important and necessary step to know about leen dosh, I remember a case of hypothyroidism was corrected and cured on the lines of krimi chikitsa, As in the history, the leen dosha was found to be be present due to the  chronic infestation of krimi in the body.

[3/18, 6:21 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

Many a times patient  comes to us for something but he utters one very specific thing कुछ ठीक नहीं है, कुछ न कुछ होते रहता है। यह भी हमें उनके शरीर में दोष संचय / प्रकोप के साथ अपूर्ण संप्राप्ति की ओर इशारा करती है। निदान हुआ- दोष प्रकोप भी अल्प हुआ- खवैगुण्य अल्पमात्र हुआ। हेतुओं की इतिकर्त्यव्यता ना हुई व्यापी हुआ ही नहीं या फिर व्याधी व्यक्ति हुई। चिकित्सा भी की गयी। चिकित्सा भंग के साथ लक्षणों मे कमी आयी । चिकित्सा छुटी, दोष शरीर में बने रहें। स्थानवैगुण्य की तलाश में। यही लीनत्व का कारण है। ज्वर की चिकित्सा स्पष्ट रुप से इस परंपरा को इंगित करती है। 

*ज्वरादौ  लंघनम्, ज्वरमध्ये पाचनम्, ज्वरान्ते भेषजम्, ज्वरमोक्षे विरेचनम्* 

या फिर शेष दोषो के लिए शमन या व्यापी मोक्ष के पश्चात अपुनर्भव हेतु रसायन प्रयोग इसी लीन दोषों को उजागर करते हैं। व्याधी की पुनरावृत्ति ही लीन दोषों का परीचायक है। वहीं व्याधी पुनः या फिर उन्हीं दोषों द्वारा और अलग संप्राप्ति से अलग या फिर व्याधीसंकर के रुप में दोनों/ अधिक का व्यक्त होना । सन्निपात में भी कालप्रकर्ष से कुछ दोष, स्वनिदान से कुछ दोष विकृत होकर मिलना - अनेकों पद्धती से विचार कर सकते हैं।

[3/18, 8:12 AM] Dr. Vandana Vats Patiyala: 

चरण स्पर्श गुरू वर
🙏🏻
प्रातः वंदन सर्व कायसंप्रदाय विद्वान् परिषद् व चरण वन्दन आदरणीय गुरू जन। 
👏
 गुरू वर, लीन दोष का विवरण शास्त्रों में विदित है, पर आपके द्वारा लिखित, सरलता से समझ आ जाता है। आजकल के परिवेश में  व आधुनिकता वाले जीवन यापन में life style diseases  के साथ साथ auto immune disesaes भी बहुतयता में आ रहे हैं। आधुनिक चिकित्सा प्रणाली द्वारा *auto immune* यह निदान बहुत अधिक रोगियों में देखने को मिलता है जिसका उपचार वे केवल  immunosupressive ही देते है। Pityriasis rubra pilaris, जेसी so called rare diseases भी काफी होने लगी है। 
गुरु वर क्या इनको भी हम *लीन दोष*, के अनुसार समझ सकते हैं? ऐसा हो सकता है कि दोष स्वयं प्रकोपित अवस्था / स्वयं शान्त अवस्था में शरीर में छुपे रहते हो?? As the course of Auto immune disesaes, (progression and regression of disease) 
🙏🏻

[3/18, 8:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*नमस्कार वंदना जी, 

🌹🙏..अनेक ऐसे रोग हम लीन दोषों में ले कर चल रहे हैं जैसे psoriasis, आमवात आदि जो आयुर्वेद से पूर्णतया रोगी को स्वस्थ कर देते हैं... autoimmune disorders में आद्यधातु रस का बहुत अधिक महत्व है, इसके पश्चात अन्य धातु*

[3/18, 8:29 AM] Dr. Vandana Vats Patiyala: 

गुरु वर, फिर क्या शोधन चिकित्सा दोषों के प्रकोप अवस्था, (progrssion of auto immune disease) के समय दी जाए,? या जब शान्त हो? (Remession of symptoms?). 

आधुनिक अनुसार तो केवल immuno supressive चलती है, जबकि हमारा चिकित्सा तो व्याधि क्षमत्व बढाने पर कार्य कारी है। 

🙏🏻

[3/18, 8:31 AM] Dr. Vandana Vats Patiyala: 

धन्यवाद सर 
रस धातु पर कार्य जरूरी है, यह एक महत्वपूर्ण विषय बताया आपने
🙏🏻

[3/18, 9:44 AM] Vd. Atul J. Kale: 

लीन दोषों में गुणों का संगठण विकृत स्वरुप में होगा ऎसे प्रतित होता है। लीनत्व अंतरीम हर धातुमें विद्यमान शुक्रधातु तक का सफर इंगित करता है। (जीन्स)
..... दोष अपने प्राकृत गुणसंगठनमें हो तो ठिक किंतु अपनी अन्य गुणोंसे बढकर एवं अग्निके प्राकृत परिणमनसे उपेक्षित होकर व्याधी अपेक्षी हो जाते है। intra और extra cellular इसका एक प्रकारसे विचार और लीनत्व intracellular के बाद DNA तक का सफर ऎसे मान सकते है क्या? अगर ये लीनत्व है और हम इस लीनत्व को दूर कर सकते है तो कोरोना के दुषीविष के धातुओं में लीनत्व को भी दूर किया जा सकता है। 
     एक विचार मनमें आया जो गुरुजनो के सामने रख रहा हूँ।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[3/18, 5:00 PM] Vaidya Pawan Madaan 2: 

You are saying true. There are many, many autoimmune diseases in which we are not able to find the direct causes and when we go deep into the history then we come to know that there is something like leen dosh already present in the body which are now producing the disease and this type of leen doshas do not activate or get stimulated by themselves. They need any stimulating factor either from outside or from inside of the body.

[3/18, 5:01 PM] Vaidya Pawan Madaan 2: 

Our immune system does not increase the immunity. Actually, the true line of treatment in Ayurveda is making the physiology towards normalcy and it is like dosha saamyata which we describe very often.

[3/18, 5:07 PM] Vaidya Pawan Madaan 2: 

नमस्ते अतुल जी 
असल में आपका कहना एक तरह से बिल्कुल सत्य ही है क्योंकि जब हम लीन दोषों की बात करते हैं तो यह एक्चुअली दोष वह हैं जो अपनी नॉर्मल फिजियोलॉजिकल स्थिति में नहीं है
 विकृत अवस्था में आने के लिए या तो उस दोष के संपूर्ण गुनो की वृद्धि होती है या तो कुछ ही गुनो की वृद्धि होती है

 जैसे हम देखते हैं कई बार केवल एक ऐसी व्याधि आती है जिसमें पित्त के तीक्ष्ण गुण की वृद्धि से ही सारे लक्षण आते हैं
इस अवस्था में वह पित्त दोष लीन अवस्था में रहता है पर अंततः क्योंकि धीरे-धीरे उसके तीक्ष्ण गुण की वृद्धि होती जाती है तो एक ऐसी अवस्था आती है जहां पर वह वृद्ध दोष अपने लक्षणों को परिलक्षित करने में समर्थ हो जाता है और एक व्याधि की तरह शरीर में दिखाई देता है।
🙏🏻🙏🏻

[3/18, 5:32 PM] Vd Shailendra Mehta: 

कुछ शंकाओं को  गुरूजनों के समक्ष रख रहा हूं...

1)-विकृत दोष लीन अवस्था को क्यों प्राप्त होते हैं ?

2)-दोष, वृद्ध या क्षीण,, या आवरण,,,सभी अवस्थाओं के,,,लीन हो सकते हैं या कुछ अन्य अवस्था में ही..लीन अवस्था को प्राप्त होते हैं..?.🙏🙏

[3/18, 5:34 PM] Vd Shailendra Mehta: 

3)क्या यह अवस्था, जन्म जन्मांतर तक ट्रांसफर हो सकती है,,,सहज व्याधि के रूप में ?

कर्म फल सिद्धांत के अनुरूप....?

 कर्मज व्याधि के रूप मे...?

[3/18, 6:36 PM] Dr. D. C. Katoch sir: 

लीन  अवस्था को यों समझें कि दोष नपुंसक हो गया है - प्रभावी दोष-दुष्य sammoorchhna करने में असमर्थ है अर्थात sammoorchhna dysfunction (loss of capability/capacity/potency to cause illness/disease.

[3/18, 6:59 PM] Vd.Vinod Sharma Sir Ghaziabad:

 👌👌🙏🙏 बहुत सही उदाहरण  ।  लीन दोष व्याधि उत्पत्ति के योग्य नहीं, क्योंकि दोष दूष्य के साथ संमूर्च्छना कर सकता । दोष हीन है बलवान नही । 
   लेकिन रोगी को अच्छा भी नही लगने देता । वो रोगी भी नही स्वस्थ भी नही । 
    उपयुक्त वातावरण -  ऋतु , क्षेत्र,अंबु के आते ही वो उग्र हो सकता है । इनसे बल पाकर रोगोत्पत्ति संभव है ।
    बीज शरीर में पड़ें है  रोगों के परंतु ये तीन कारक नही हैं, रोग होगा नही । वो सुप्त अवस्था में है। हमारे देह में कोशिका, ऊत्तक, अंगों में हैं परंतु हीन होकर पड़ें है ।
     इन अंगों में लीन, विलीन, चिपके हुए है । बरसों तक कोई रोगोत्पत्ति नही । एक काल आता है और वो सक्रिय हो जातें हैं ।
   शुभ संध्या 🙏🙏

[3/18, 7:17 PM] Vd Shailendra Mehta: 

जी Sir,,और,,,उनकी यह नपुंसकता,,, Temparory होती है ,,यह भी सही है ना 🙂

[3/18, 7:19 PM] Dr Sanjay Dubey: 

🙏🙏
सर क्या दूषी विष जैसे हैं ?

[3/18, 7:41 PM] Vd.Vinod Sharma Sir Ghaziabad: 

आदरणीय संजय जी,
   जैसे इस भूमि में अनेकों बीज पड़ें है, निष्क्रिय हैं । ऋतु और अंबु (खाद पानी) मिलने पर अंकुरित हो जातीं हैं ।
   वैसे ही शरीर में भी विष अमृत, विषाणु, कीटाणु, आनुवंशिक रोगों के बीज, माता पिता अंश, संस्कार, पूर्व जन्मों के कर्म फल, यहां तक कि पूरा ब्रह्माण्ड भरा पड़ा है।
     हमे देखना ये है कि हम इस समुन्दर से मंथन करके क्या निकाल रहें हैं और कैसे प्रयोग कर रहें है । किसको त्यागना है किसको अपनाना है ।  रोगों से कैसे बचें, रोग हो तो चिकित्सा क्या करें ?  आहार विहार क्या हो जो रोगों से बचाव करें । ये एक कला है जो आयुर्वेद सिखाता है । 
   आयुर्वेद चिकित्सा के साथ आध्यात्म और दर्शन भी सिखाता है परंतु मुख्य है आयु का ज्ञान । 
   हम जो आहार लेते हैं उनसे जो टॉक्सिंस बनते हैं उनको शरीर उनको ग्रहण नही करता और मल, मूत्र, स्वेद , सांस द्वारा बाहा निकाल देता है । 
   निश्चित रूप से हमारे शरीर में विष हैं ।
     लेकिन वें तब तक उग्र नही होते जब तक उपयुक्त वातावरण - वो ही तीन भाव - नही मिलते ।
    ये सब आप जानतें है बस याद दिलाने की कोशिश मात्र है ।
   शुभ संध्या 🙏🙏🙏

[3/18, 7:51 PM] Prof. Vd. Prakash Kabra Sir: 

*इह खलु निदान दोषदुष्यविशेषोभ्यो विकरविघातकरभावाभव: प्रतिविशेषा भवन्ति*

[3/18, 8:20 PM] Vd.Vinod Sharma Sir Ghaziabad: 

*लीन दोष का एक उदाहरण*
     
धमनी उपलेपन  (Atherosclerosis)  चालीस वर्ष होते होते  30 से 40 प्रतिशत तक मेद एकत्र हो जाता है । परंतु कोई विशेष लक्षण परिलक्षित नहीं होता ।
   ये लीन अवस्था है ।
   जब ये बढ़ कर 90 प्रतिशत हो जाती है तो लक्षण मिलेंगे। वक्ष गौरव, श्वांस  कष्ट, आदि आदि ।
    यदि लीन अवस्था में ही इसे दूर कर दिया जाय तो हृदय रोग - कफज - नही होगा । जैसे, कृषणादी चूर्ण, पुष्कर्मूलादी क्वाथ, हृदयार्णव रस देकर लेखन भेदन कर इसको दूर किया जा सकता है ।
   परंतु यदि  अगुरवादी तैल से हृदय वस्ति देकर  शोधन भी किया जाय तो ये लीन अवस्था शीघ्र दूर की जा सकती है ।
     शोधन  लीन  अवस्था में  लाभ कारी है ।

[3/18, 8:35 PM] Vd. Atul J. Kale: 

लीन अवस्था के कुछ उदाहरण उपमा से दिये जा सकते है।
      जैसे आटे में पानी डाला, गुथ्थी बन गयी। आटा पानी से संपृक्त होके हर कणमें पानी भर गया। पिण्डीत्व आया। द्रव, सर, स्निग्ध गुणोंसे आटे का क्लेदन हो गया। अब आटा और क्लेदन कर्म भिन्न नहीं कर सकते।  ज्यादा पानी पडेगा तो प्रवाहित होगा, वैसे ही दोष धातुओं में तादात्म्य पाते है। उसको अलग करना, देखना कठिण प्रतीत होता है, अपितु उसको जानने के लिए युक्ती एवं अनुमान का उपयोग किया जा सकता है। हर धातुओं में ये लीनत्व अंतत: गुणों तक सीमित हो सकता है जैसे धातुएँ अपने प्राकृत गुणों में अल्प वृद्ध या क्षयीत होती है। अतिसुक्ष्मत्व लीनत्व का एक कारण हो सकता है। धातुओंके अतिसुक्ष्म एवं गंभीर स्तरमें जाकर आश्रीत होना ऎसे कह सकते है। जहाँ दोष आराम से रह तो लेते है किंतु अपने उपद्रवी स्वभावके कारण शरीर के प्राकृत कार्य में विघ्न डालने का थोडा बहुत कार्य भी कर लेते है। इनके कारण शनैः शनैः धातुओंका स्वभाव बदलने से auto immune जैसे व्याधीयाँ उत्पन्न होत सकती है।

[3/18, 9:23 PM] Dr. Pawan Madan: 

This can be understood. Maybe like this.
Any pathological factor which is being accumulated in the body present in pathologically increased state but is not able to produce any disease symptoms.

A very general example and simily to understand this. 
Let us say there is an increase of uric acid in the body around the level of seven which is above normal. But it is not producing any pathological symptoms and this uric acid increase in this amount is present in the body for many years and not manifesting any problem. 
But later on at any state of time, with the stimulation of any internal or external aggravating factors, it can increase to a certain level or it can react with the tissues of the body even in the same levels. Then it will start producing symptoms. 
So similar is the condition of lean doshas in the body.

[3/19, 5:32 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

क्या हम लीन दोषों को समझने की प्रक्रिया में कहीं चूक तो नहीं कर रहे हैं? यह सवाल मन में इसलिए आया क्यों की या तो हम दोषों को धातुओं की सुक्ष्म स्तर पर  होने की बात कर रहे हैं या कुछ एक नैदानिक परीक्षणों में प्राप्त शारीर भावों की बात कर रहे हैं या किसी व्याधी की दिर्घकालीन संप्राप्ति घटन प्रक्रिया की बात कर रहे हैं। तीनों समान तो नहीं हो सकतें। तभी एक खयाल आया। शास्त्र मे लीन दोषों को स्पष्ट करते हुए दिये उदाहरण को हम पुनः अवलोकन करे तो - हरा घास ग्रिष्म में नष्टप्राय होता है, पर वर्षा के आते ही वह फिर से पुनर्जीवित होता है। इसमें २ बातें निहीत है - घास का आस्तित्व पहले था- काल प्रभाव से लीन हो गया- पुनः काल प्रभाव से जिवीत। इसका मंतव्य हमें यह लगता है की व्याधी - दोष दुष्य संमूर्छना -व्यक्त तो थी ही - चिकित्सा/ काल प्रभाव से दृश्यमान नहीं रही फिर निदान सेवन / काल प्रभाव से या तो उसी स्वरूप में पुनः व्यक्त हो गयी। हम शास्त्र के बहोत निकट नहीं रहते हैं। संघ के विद्वान इसपर अपनी टिप्पणी जरूर दें।

[3/19, 7:42 AM] Vd Shailendra Mehta: 

👌👌🙏🙏,,Sir,,सभा में जो प्रश्न  मेंने पूछे थे,,,उनमें ये भी  एक भावार्थ था,,,आपका हार्दिक धन्यवाद प्रोत्साहन के लिए 🌹🌹

[3/19, 7:49 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir: 

*दोष*  शब्द के जो ३ अर्थों हैं। 
 ये - 
अ) *त्रिधातु- 
आ)त्रिमल-
इ)त्रिदोष*। 
(ऐसे ही मानस का भी किंचित १)राजस व 
२) तामस विचार।)। 
अब  व्यापकता  जिस की है, उसके भी कार्यालय बना दिये समझने समझा के लिए। हम रूढ़ अर्थों में नहीं लें। तो, लीन दोष  की अवस्था *आ* व  *इ* में से  तय किया जाता है । आगे फिर विचार वृद्धि (/क्षय)  संप्राप्ति भेद से विचार करें।🌞🙏🏼🌞🦢

[3/19, 7:58 AM] Dr. D. C. Katoch sir: 

बिल्कुल ठीक मंतव्य वैद्य संजय। वस्तुत:  लीन दोष  hybernation में गए मेंढ़क की तरह ही है जो टर ट्र नहीं करता ।

[3/19, 8:01 AM] Vd Shailendra Mehta: 

👌👌🙂🙂ji Sir,,,तो इस fully grown, मेंढ़क को पहचाने कैसे (लीन दोषों के पूर्वरूप, रूप,लक्षण क्या होंगे ?)🙏

[3/19, 8:03 AM] Vd Shailendra Mehta: 

क्या  अनुचित, अपूर्ण  चिकित्सा से भी  विकृत दोष लीनत्व को प्राप्त हो सकते हैं ?
🤔🤔

और केवल लाक्षणिक चिकित्सा से भी....?

[3/19, 8:10 AM] Dr. D. C. Katoch sir: 

व्याधि की सम्प्राप्ति का पूर्ण इतिवृत समझने से और निदान पंचक द्वारा ही  लीन दोष अनुमान गम्य होता है,  प्रत्यक्षगम्य नहीं।

[3/19, 8:10 AM] Dr. D. C. Katoch sir: 

Yes, of course, indeed.
Dr Shailendra !

[3/19, 8:14 AM] Vd Shailendra Mehta: 

यह ठीक है 🙂,,,प्रकट दोषों /लक्षणों को किसी भी तरह लीन अवस्था में पहुंचा दो,,,,वैद्य भी खुश,,रोगी भी खुश,,,,परंतु लीन दोष,,नाखुश 🙂
 ज्वर मुक्ति,,,rechnam,,,कहां  करते हैं..सब 🙏

 ज्वर मुक्ति लक्षण,, तक...ना रोगी, ना वैद्य इन्तेज़ार करता है  ,,,temp.down हुआ,,,ज्वर ठीक,, ☺️☺️

[3/19, 8:19 AM] Dr. D. C. Katoch sir: 

रोग की चिकित्सा तो पूर्ण, अवश्यंभावी और अनैकांतिक होनी चाहिए - पर ऐसा practically हो नहीं पाता।

[3/19, 8:19 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir: 

कोरोना काल में माइक्रो स्कोप से दिखाई दिया......

[3/19, 8:23 AM] Dr. D. C. Katoch sir: 

जो दिखाई दिया उसी से अनुमान हुआ 😌

[3/19, 8:23 AM] Vd Shailendra Mehta: 

आजकल यही हो रहा है,,,सभी pathies के द्वारा,,,,मैं खुद भी अछूता नहीं हूं,,clinic में,,,जायज़  सब करना partaa है,,,,,🙏

[3/19, 8:27 AM] Vd Shailendra Mehta: 

ज्वर रोगी को लघन paachan etc. देने के बाद,,,रोगी,,,वापिस ही नहीं आता,,,,rechan के लिए,, लीन दोष लिए घूमता रहता है,,, फिर punravartan के इन्तेज़ार में 😔

[3/19, 8:28 AM] Dr. D. C. Katoch sir:

 जाने अनजाने में सब कुछ अभीष्ट और अपेक्षित नहीं-  पर हो रहा है प्रज्ञापराधवश और असम्यक चिकित्सा कार्य के परिणामस्वरूप.....

[3/19, 8:28 AM] Vd Shailendra Mehta: 

और वो samprapti, कहीं की कहीं  पहुच जाती है,  बाद में

[3/19, 8:32 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir: 

भिषक्वशता रोगी संपत्।

[3/19, 8:41 AM] Vd Shailendra Mehta: 

आदरणीय आचार्य,,🙏 

लीन दोषों का स्थान क्या होता है ?tridosh,,,सप्तधातु, ras, rakt etc,,tri mal,,,या मन..या संपूर्ण शरीर ?🙏.

ये  कहाँ लीन हो जाते हैं ?🙏

[3/19, 8:44 AM] Vd. AAkash changole, Amravati: 

दोषों का लीनत्व चरक चिकित्सा स्थान विषम ज्वर से समझा जा सकता है।
दोषों अल्पो ......... इस श्लोक द्वारा.


ज्वर चिकित्सा का अपूर्ण होना दोषो को  धातुओं में लीन करने योग्य बनाता है। यह कुपित परंतु प्रमाण में अल्प दोष धातुओं से लिप्त होकर केवल उचित हेतु की प्रतीक्षा करते हैं और विषम ज्वर को उत्पन्न करते हैं।
यहां ज्वर शब्द व्याधि के लिए प्रयुक्त कर सकते हैं।

या विविध धातुओं के लिए भी प्रयुक्त कर सकते हैं।
रसगत ज्वर, रक्तगत ज्वर मांस गत ज्वर.
दोषों का प्रभाव धातुओं पर निरंतर होता ही रहता है। धातुओं के कार्यकारी अंश के रूप में दोषों को माना जाता है।

किसी कारण से किसी भी व्याधि की अपूर्ण चिकित्सा होने पर। या फिर संशोधन योग्य दोषों को केवल शमन चिकित्सा द्वारा साध्य कर देने पर। शेष दोष धातुओं से लिप्त होकर केवल उनके कुपित करने वाले हेतु का इंतजार करते रहते हैं। और विविध लक्षणों को व्यक्त करते हैं यही लीन दोष है ।

[3/19, 8:51 AM] Vd Shailendra Mehta: 

🙏🙏👌क्या वृद्ध दोष,, लीन नहीं हो सकते,,,stambhan चिकित्सा द्वारा ?🙏

[3/19, 8:51 AM] Vd. AAkash changole, Amravati: 

लीन दोषों का भी एकदम से शोधन नहीं करना चाहिए।
धातु बल क्षीण रहता है।

[3/19, 8:53 AM] Vd Shailendra Mehta:

 और किसी दिशा/sampraapti/ट्रैक/srotas की तरफ चले जाये...

[3/19, 8:54 AM] Vd. AAkash changole, Amravati:

 वृद्ध दोष तो तरतमत्व की अपेक्षा से  लक्षण प्रकट करते है तो तुरंत पकड़ में आ जाते है। चिकित्सा भी हो जाती है।लेकिन अल्प कुपित दोष लक्षण को पकड़ना थोड़ा कठिन है ।

 दोषों का लीन होना धातु के सार असार होने पर भी निर्भर है ।


धातु सार के लक्षणों में हमें दोषों के प्रकृति कर्मों का उनके स्वाभाविक गुनो की समता काही ध्यान होता है।

 धातुओं में स्थित दोषों के कार्यकारी अंश(गुरु आदि) सम प्रमाण में होने पर ही धातुओं का कार्य सामान्य रूप से संचालित होता है ।

[3/19, 9:02 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*वैद्यवर आकाश जी,
आप तो आयुर्वेद में MD हैं, इतना अच्छा ज्ञान और आयुर्वेद की व्याख्या के साथ उत्तम लेखन भी जानते हैं तो आपको अवश्य ही काय सम्प्रदाय में नियमित रूप से लिखना चाहिये 👏👍👌❤️*

[3/19, 9:04 AM] Vd Shailendra Mehta: 

सादर प्रणाम Sir,,  आपके लीन दोष,,series का बेसब्री से इन्तज़ार है 🙏🙏🙂

[3/19, 9:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*प्रतिदिन देर रात्रि में कुछ समय निकाल कर लिख पता हूं क्योंकि लीन दोष के साथ रोगियों की investigations भी attached कर के चलेंगे तो इसलिये समय लग रहा है।*

*शास्त्रों से विमुख हो जाना और संदर्भ रहित बातें तथा उस पर प्रामाणिकता का कोई आधार नही किसी भी विषय की गंभीरता और सार्थकता को नष्ट कर देती है।*

*जल्दी इसलिये लिखेंगे कि कहीं लीन दोष की हमारे समयाभाव में बिना इसे सूक्ष्मता से जाने ही दुर्गति ना कर दी जाये... 🤣🤣🤣*

[3/19, 9:18 AM] DR Narinder paul J&k: 

agr dhyan se dekha jaye toh leen dosha puri prakriti mein vidhman hai..yeh sirf hmari vyadi kshmtatv ki power hai jo hme bchati hai..bacteria viruses fungus har jgah available hai..aajkal ke  hmare ahar mein v hai..toh mera yeh manna hai ki hum cheezo ko simple rkhe toh ayurved easily propogate ho skta hai..lekin hmara mind hmesha complicated things mein intrest leta hai, kyunki complicacy uska ahar hai, usko chintan krne ko milta hai..yha par complicecy gyi vha par chintan gya..yha chintan gya vha man gya..aur jab man shant hota hai toh pure intelligence ka birth hota hai..

[3/19, 9:26 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

लीन दोषों का शोधन हो ही नहीं सकता। शोधन हेतु दोष उत्क्लिष्ट होना अवश्यंभावी है। लीनत्व होगा तो वह स्व आशय में ही होगा। 

[3/19, 12:35 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:

 *स्वल्पं यदा दोषविबद्धमामं लीनं न तेजःपथमावृणोति।*
*भवत्यजीर्णेऽपि तदा बुभुक्षा या मन्दबुद्धिं विषवन्निहन्ति।।*
सु.सूत्र. ४६ / ५२०.

*तेजःपथं जठरानलमार्गम् ।*

*लीन दोष पर आचार्य सुश्रुत के इस सूत्र पर विचार मंथन के साथ प्रज्ञापराध, विरुद्धाहार विहार, ऋतुचर्या का पालन न करना, चिंता, भय, क्रोध, अल्प निद्रा आदि से मानस दोष प्रकोप, पंचकर्म व्यापद, चिकित्सा चतुष्पाद का यथोचित न होना आदि अनेक हेतुओं पर चर्चा करनी होगी*

[3/19, 1:01 PM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat: 

Leen dosh

Cellular level

Tissue level

Dhatugat

Capillaries level

Organ level

Marma level

Man level

Are involvement

According to analyse treatment protocol will be established....

Dipan

Pachan

Panchakarma 

Nidan parvargan

Marma chikitsa

Apunarbhav chikitsa

R subject to be concerned about leen dosh.

Hyperplasia
Hypoplasia
Multiplay cell
Hypertrophy
Cell division
Destruction
Regeneration
Mutilation  r the subject to be debet.

[3/19, 4:31 PM] Dr. Pawan Madan: 

धात्वन्तरस्थो लीनत्वान्न सौक्ष्म्यादुप लभ्यते |
अल्पदोषेन्धनः क्षीणः क्षीणेन्धन इवानलः ||६५|| - 
Su U, Jwar chikitsa - 

This refernce gives a clear definition of the Leen dosha as well as the characteristics of leen dosha.

DALHAN making this clear -

यदि वेगापगमेऽपि न विमुच्यते तर्हि किमिति नोपलभ्यत इत्याह- धात्वन्तरस्थो लीनत्वादित्यादि| एकस्माद्धातोरन्यो धातुः धात्वन्तरं तत्रस्थः, अन्ये तु धात्वन्तरशब्देन सप्त कलाः कथयन्ति| लीनत्वादेकदेशस्थितत्वात्| सूक्ष्मत्वात् अणुत्वात्| अल्पदोषेत्यादि अल्पदोष इव इन्धनत्वेन क्षीणोऽल्पीभूतो ज्वरः; ‘अल्पदोषा एव इन्धनं यस्य स अल्पदोषेन्धनः’ इत्यन्ये||६५||

 Possible etiological factors of leena doshas-- 

व्यायामादूष्मणस्तैक्ष्ण्याद्धितस्यानवचारणात्|
कोष्ठाच्छाखा [१] 
मला यान्ति द्रुतत्वान्मारुतस्य च||३१|| 
- Charak Sutra 28

[3/19, 4:36 PM] Vd Shailendra Mehta: 

👌👌waah Sir,,क्या ref. Post किया है.. aapshri ने,,,लीन दोष का स्थान,,,dhatwantar स्थित Saptkala,,,🙏🙏

[3/19, 5:52 PM] Vd. Atul J. Kale: 

सभी आचार्य एवं टीकाकार गुण एवं सिद्धातों के आधार पर बात करते है। इसी से कोई भी अवस्था समझने में आसानी होती है। रेफरन्सेस पूर्णतया समझनेके लिए कारगर होते है, मार्गदर्शक होते है। हमे भी उन सिद्धातों का, मार्गदर्शन का उपयोग करके सूक्ष्मता से विषयप्रवेश करना होगा ऎसे लगता है।

[3/19, 6:32 PM] Vd.vinayak dongare:

 सस्नेह प्रणाम 🌹🙏
कुछ शंका है ! मार्गदर्शन करने की कृपा करे 🙏

१ दोषोंका चय होना और *दुष्ट* दोषों का लीन होकर रहना, इसमें क्या अंतर है ? 
२ *दुष्ट दोषों का* लीन होकर रहना और आधुनिक वैद्यक का 
"Incubation Period" एक समान है या अलग है ?

[3/19, 7:12 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P.): 

जैसा हम समझते हैं दोषों का चयन होना विरूद्ध आहार विहार (निदान सेवन) के कारण होता है जो कि निदान  विरूद्ध आहार विहार और औषधीय योग से ठीक भी हो जाता है।दोषों का लीन होकर रहने के लिए रोगी की प्रकृति व अवस्था विषेश रूप से उत्तर दायी है जैसे दुष्ट पीनस का रोगी जरा सा भी कफ वर्धक आहार विहार से श्वास कास बढने लगता है।। दुष्ट दोष तो शरीर में लीन होकर  ही रहेंगे। incubation period हमारी समझ से रोग की अवस्था पर आधारित है।🙏

[3/19, 7:29 PM] Vaidya Shrikrishna Khandel Sir: 

डोंगरेजी आदरणीय सुभाषजी एवं पवनजी ने एक संदर्भ श्रीमान गोड़ साहब का दिया ही है लेकिन आपका प्रश्न अलग है 
चय प्रकोप स्वस्थान में होता है लीन दोष शाखा में रहते है और तब तक लीन अव्यक्त पड़े रहते जबतक हेतु सेवन का बल देशबल कालबल नहीं होता है 
ऐसा चरक सूत्र २८ के अंतिम पृष्ठ पर अंकित है ।

[3/19, 7:34 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

चय वृद्धि है स्वस्थान में और लीन धात्वांतर में होता है ।

[3/19, 7:40 PM] Vd.Vinod Sharma Sir Ghaziabad: 

बिल्कुल सर, 
 मैंने भी यही कहा था । लीन दोष, उत्कलिष्ट हेतुओं की अपेक्षा करता है, जो देश, काल, आहार, विहार, बल, मानसिक बल , धातुओं के ऊपर निर्भर करता है ।
    लीन हुए दोष अंग से लेकर कोशिका तक कहीं भी हो सकतें हैं ।

[3/19, 7:43 PM] Vd.Vinod Sharma Sir Ghaziabad: 

एक बात और --
   लीन, विलीन, लिप्त, में क्या भेद है ।
   जैसे प्रचलन में है कि अमुक की आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई ।
   कैसे भेद करें ?

[3/19, 7:51 PM] Vd.vinayak dongare: 

जी, जी खाण्डल सर. 🌹🙏
सर जी मैने *दुष्ट* दोष इस शब्द का प्रयोग इसी हेतु से किया था। 

केवल "दोष" संज्ञा और (हेतुओंसे) "दुष्ट" हुए दोष अलग होते है, यह बताने का मेरा हेतु था। 
बहुत बार, बोल चाल में, मनमें "दुष्ट दोष" होता है लेकिन लिखते बोलते समय केवल "दोष" संज्ञा का उपयोग होने से, मुद्दा स्पष्ट नही हो पाता। 
जैसे आपने अधिक स्पष्ट किया की,"स्वभाव उपरम वाद" से दोषों  की चयावस्था काल/देश के बदलाव में स्वयं ही प्रशम होते है। 

लेकिन शाखाश्रित/धातु अवयवादी आश्रित *दुष्ट दोष*; अल्प मात्रा/हीन गुण की वजह से, (जो तीव्र स्थान वैगुण्य की वजह से,अधुरी चिकित्सा या अपुनर्भव तक नही पहुंची); वही (धातु आदि में), तीव्र हेतु संयोग के इंतजार में पड़े रहते है।

सरजी, आपने जो समाधान किया है उस के लिए , मन: पूर्वक धन्यवाद।

[3/19, 7:59 PM] Vd.vinayak dongare:

 इसी तरह और एक शंका है ! 

क्या *"कोई व्याधि के स्वाभाविक हेतु, धातु अवयव आदि में, लीन होकर रह सकते है"* ?

अगर होते हो तो क्या वही, *स्थान वैगुण्य को* तो नही बनाते होंगे ? (जो दीर्घकाल व्यतीत होनेपर व्यक्त होते है और उस समय असाध्य भी रहते हो ?)

[3/19, 8:00 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman: 

कुछ उदाहरण से इसे समझ सकते हैं 


लीन - लीनगर्भ

विलीन - गुढ जैसे पारद मे अभ्रक का ग्रास होने से वह एकरुप बन जाते है l या खानो में अनेक धातु अन्य धातु के साथ मिश्रीत होते हैं उन्हे भी लीन ही माना जाता हैं l

लिप्त - श्लिष्ट - यथा स्रोतःसु आम:

[3/19, 8:01 PM] Vd.vinayak dongare: 

*वि* यह उपसर्ग भी है न !? जो विशेषता/अधिक्य को दर्शाता है ?

[3/19, 9:38 PM] Dr. D. C. Katoch sir: 

Waiting period for Dosh after sthsnsanshraye to induce/produce illness with the facilitation of certain sannikrisht hetus (even any kind of chikitsa apchar) can be considered as Leenavastha of the dosh.

[3/19, 10:00 PM] Dr. Vandana Vats Patiyala: 

प्रणाम सर, अपने बताया कि लीन दोषों का शोधन हो ही नहीं सकता। शोधन हेतु दोष उत्क्लिष्ट होना अवश्यंभावी है। सर, अगर हम auto immune diseases, में भी लीन दोष मान कर चले तो क्या रोग की  व्यक्तावस्था (progrssion, flare of disease) जिसमें दोष दूष्य आश्रित होता है, में शोधन विदित है ?

 दूसरा जब रोग का (silent, regression phase) होता है, तब क्या शोधन मना है ? 
🙏🏻

[3/19, 10:07 PM] Prof. Vd. Prakash Kabra Sir: 

व्याधी घटक मे सम्मीलीत दोष उत्क्लेषीत अवस्था के बगैर शोधन करना ठीक नही है ।

[3/19, 10:21 PM] Vd Shailendra Mehta: 

🙏🙏इसमें धातु सारता और बल पर बहुत ध्यान देना होगा,,,अन्यथा लीन दोष utklesh कर,,शोधन karney में  रोगी की हानि भी सम्भव है ।

[3/19, 10:41 PM] Vd. Atul J. Kale: 

धात्वान्तर इस टर्मको भी समझना होगा, आश्रयार्थ. 
धातु
प्रवेशात
मध्यमसार
अवरसार
विकृत*विगुणीत


हमेशा ये विचार आता है की आखीर दोष जाते है तो कहाँ जाते है ?
 कहाँ जाकर बैठे है ? 
धातुएँ विगुण है याने असल में हुआ क्या है ? 
शैथिल्य है, असंहती है तो उसको नाप सकते है क्या ? 
धातुओंमें संगठण का तरतम भाव एवं धातुस्थित अग्निभाव चय, प्रकोप, लीनत्व के तरतम को संचलित करता है क्या ? 
पूर्वकालमें अनुमानीत अनल्प था किंतु आज प्रत्यक्ष का दायरा बढा है। हर धातुकोषिकाएँ हम सूक्ष्मतासे देख पा रहे है। तो *हातके कंगणको आरसी क्या* के अनुसार हम लीनत्व, चयत्व, प्रकुपित्व दिखा सकते है क्या ?
ये सोचना पडेगा। धातुओं में कुछ तो बदलाव होगा ही जिससे दोषों का संश्रय हुआ और ये नापने का माप मिल गया तो हमारी चिकित्सा और सटिक हो जाएगी।

[3/19, 10:44 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

लीन दोष धात्वांतर में रहते हैं, शोधन तभी संभव होता है जब दोष शाखा छोड़कर कोष्ठ में आये।
 *शमयेत तान् प्रयोगेन वा, सुखम् वा कोष्ठम् आणयेत, ज्ञात्वा कोष्ठ प्रपन्नाश्च यथासन्नम् विनिर्हरेत ।।*  
बहेनजी हम थोडे संहिता संदर्भ आदी के खिलाड़ी नहीं है। शब्द में हेरफेर हो सकता है पर अर्थ निश्चित यही है। जब तक दोष शाखा छोड़कर कोष्ठ में नहीं आयेंगे, किसी भी व्याधी/ अवस्था में शोधन तो नहीं होगा।
 *वृद्ध्याऽभिष्यंदात् पाकात ------कोष्टम् वायोश्च निग्रहात।* यह आवश्यक है।
Dr Vandana !

[3/20, 5:51 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

when we talk about leen dosha it can be anything so latent which can remain in the body in post disease era - without causing any menace. Waiting for right situation to happen. Can we identify them biochemically or microscopically ? That's a question, needed to be explored . This can be done by meta analysis of multiple studies carried out post treatment. We can select multiple cases of Repeated fever, Rheumatism, Skin & other allergies, Psoriasis, Asthma, Diabetes etc. I would like to draw attention to one fact - Despite of the fact that Diabetes / Hypertension are well under control for years, even at times without medication but certain retinal changes are permanent & can be observed. Even ECG does shows such changes. You are absolutely right to suggest that we should be position to identify underlying variation  in various tissues & organs  when these parts are in non pathological state post an episode of pathology which make them prone to next episode. Like HSCRP is pretty indicative of increased oxidative status of Myocardium. For years we are focussing on simple test like ESR  to determine the status. I can recall that at many places it's relationship with AMA was suspected / indicated. Altered Alipoprotiens as precursor of DM / IHD are known markers, much before the manifestation of disease. There can be markers which needs to be explored. Me & my team are trying to explore various investigations and their Ayurvedic Perspectives in our latest online series - *AYURVEDIYA STHAN PARIKSHAN* . I can tell you for sure there are many vaidyas who are searching on the same lines.

[3/20, 7:05 AM] Dr.Deepika:

 सादर प्रणाम सर,
किसी व्याधि के उदाहरण के साथ अगर लीन दोष को समझा जायेगा तो थोड़ा easy रहेगा🙏🙏

[3/20, 7:28 AM] Vd Shailendra Mehta:

 Resp.Mam,,,
विकृत दोष, लीन अवस्था में व्याधि उत्पन्न नहीं कर सकते,,,वो जब nirleen  हो, तभी लक्षण प्रकट करेंगे 🙏



 मेरा मतलब भविष्य में उत्पन्न होने वाली व्याधियों से था ।

[3/20, 8:31 AM] Vd Shailendra Mehta:

 गुरूजनों को praatah नमन,,🙏🙏,,,,मेरे निज विचार, लीन अवस्था को प्रेरित करने के संभावित हेतु सम्बंधित---
1)-दोषों का प्राकृत संचय, प्रकोप, प्रशम - A.काल/ऋतु 
2)वय
3)दिन-रात्र 
4)भोजन परिपाक के परिणाम के 
 अनुसार होता ही है। 
यदि इस प्रक्रिया मे व्यवधान न आए या न आने दिया जाये तो दोष prasham अवस्था के बाद स्वभावतः पुनः प्राकृत/सम अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं।
परंतु प्रज्ञापराध, ऋतुविपर्यय, प्रारब्ध etc जन्य disturbance होने पर जो -प्रमाणतः, बलतः, कर्मतः, अल्प दोष बच जाते हैं,,वो लीन अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं।
B. अपूर्ण चिकित्सा/विपर्यय(by any pathy)जन्य--
आयुर्वेदिक चिकित्सा में सदैव deepan, paachan,शोधन/nirharan(योग्य अयोग्य विचार पूर्वक), शमन,, रसायन/apunarbhav इन सिद्धांतों का पालन करने  को कहा है,,,यह उचित रूप में न होने पर उन विकृत दोषों का जो अंश बच जाता है,,,वो  भी लीन अवस्था को प्राप्त हो जाता है।🙏🙏

[3/20, 10:04 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P.): 

सही आकलन।

[3/20, 10:16 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P.): 

एक बात और मेरी समझ से ये लीन दोष धातुक्षय जनित रोग के मूल स्रोत धीरे धीरे बन जाते हैं।

[3/20, 10:50 AM] Dr.Deepika:

 सादर प्रणाम सर, 
केवल क्षय जनित रोगों का ही क्यों ?

[3/20, 11:07 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P.): 

🙏दोष तो क्षय ही करेंगे फिर चाहे वात पित कफ हों या फिर रज व तम।

[3/20, 11:11 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*मेदो रोग में तो दोष वृद्धि करते हैं ।*

[3/20, 11:16 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:

 *क्षीणा जहति लिंगं स्वम् ।         
लीना -   भूयो हेतु प्रतीक्षण: ।

[3/20, 11:59 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P.): 

जी गुरूवर मधुमेह में Hypothyroidism  में मेद धातुगत  अग्नि के मंद होने के कारण ऐसा होता है।


*"लीन दोष "का थोडा संदर्भ देना चाहूंगा*।

चरक निदान अध्याय ४/४










To be Continued.........




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Above discussion held on 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp-discussion-group  of  well known Vaidyas from all over the India. 

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Compiled & Uploaded by

Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shree Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
 +91 9669793990,
+91 9617617746

Edited by

Dr.Surendra A. Soni

M.D.,PhD (KC) 
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: kayachikitsagau@gmail.com
 

Comments

  1. ऋतुराज सर,आप बहुत मेहनत करते है आपको प्रणाम एव चरण स्पर्श🕉️💐🙏

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