Case- presentation : 'Rakta-kotha' by Vaidyaraja Subhash Sharma & follow-up discussion on 'Dadhi-trapush' by Prof. B. L. Gaud Sir, Dr. Bharat Padhar, Prof. Satyendra Narayan Ojha, Prof. Arun Rathi, Prof. Giriraj Sharma, Prof. Sanjay Lungare, Dr. Rajaneesh Gadi & others.
[2/7, 11:43 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*रक्त कोठ (च सू 20/14)*
*.....त्वगदाहश्च त्वगदरणं च चर्मदलनं च रक्तकोष्ठश्च रक्तविस्फोटश् रक्तपित्ततं च .. रक्तमंडलानि...पित्तविकाराणामपरिसंख्येया...*
च सू -20/ 14
*अभी हम इसे case presentation में ले कर नही चल रहे, इन विकारों को कैसे लें, समझे और चिकित्सा करे और इसके व्यक्तिगत हेतुओं के अनुसार जो इसका आहार विहार और दिनचर्या है, सम्प्राप्ति और चिकित्सा बनाकर चलेंगे।*
*यह एक t v serial actress का face है जिसकी चिकित्सा हमारे यहां नवंबर 2019 से आरंभ हुई थी, पिछले तीन वर्षों से वर्ष में कई बार शीतपित्त और उदर्द होता रहा जिसके उपद्रव स्वरूप औष्ठ के ऊपर एक छोटा सा रक्त वर्ण कोठ बना जो बढ़ता जा रहा था, plastic surgery के लिये भी इस स्थान पर और रोग वृद्धि के कारण मना कर दिया गया।*
30-11-2019
[2/7, 11:43 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*निदान एवं सम्प्राप्ति - रूग्णा के अनियमित, असात्म्य एवं विरूद्ध आहार जिसमें fast food,synthetic
food,frozen food, preserved food, अम्ल, तीक्ष्ण और उष्ण पदार्थ, रात्रि जागरण, कदाचित आतप एवं तुरंत बाद A C की शीतल वायु के कारण कुपित व्यान वात, भ्राजक, रंजक और पाचक पित्त दूषित हो कर कफानुबंध कर, अग्नि को कभी सम और कभी विषम कर, रस - रक्त धातु और उपधातु त्वचा, रस और रक्तवाही स्रोतों को दूषित कर उनमें संग दोष उत्पन्न कर त्वचा में रक्त कोठ उत्पन्न करते है। इस व्याधि का उद्भव आमाश्य से हो कर अधिष्ठान यकृत एवं प्लीहा है।*
*इसका चिकित्सा सूत्र हम निदान परिवर्जन,पाचन,अनुलोमन,विरेचन,पित्त शमन, वातशमन, मधुर तिक्त शीत आहार, शीतल एवं त्वच्य द्रव्यों का लेप बनाकर चल रहे है।*
*पथ्य पर सब से अधिक महत्व दिया गया जिनमें आमलकी + seasonal गाजर का juice,गुडूची स्वरस, कूष्मांड स्वरस, नारिकेल जल, गुलकंद, broccli, हरा धनिया, कच्चे परीते का शाक, करी पत्ता, कुंदरू, सीताफल, तोरई, लौकी, मूंग, मसूर, यव का सत्तू, चुकंदर+गाजर+टमाटर+पालक+हरा धनिया सूप, पूरे दिन में दो खीरे का सेवन प्रमुख है।*
*आरोग्य वर्धिनी, गंधक रसायन, पंचतिक्त घृत गुग्गलु, मंजीठ, सारिवा, हरिद्रा खंड, खदिर, मंजिष्ठादि +कुटकी मिश्रित क्वाथ आदि ।*
*बाह्य लेप में लोध्र, वच, धनियां, रक्त चंदन, गुलाब जल। तुवरक तैल में देसी कर्पूर मिला कर लगाना ।*
*30 नवंबर से आज तक एक मास और सात दिन में कोठ का size कम हो गया और व्याधि धीरे धीरे समाप्त होने लगी है। इस प्रकार के रोग प्राय: 6 महीने की अवधि समाप्त होने में लेते है, अभी और आगे जो भी चिकित्सा में परिवर्तन करेंगे और व्याधि के updates आपको आगे देंगे और पूरा विस्तार से लिखेंगे ।*
7-2-2020
[6/15, 3:13 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*कल अमोल जी ने और आज पवन मदान जी ने अपने रोगी पर चिकित्सा जाननी चाही है। 7-2-20 को हमने एक केस पर discussion किया था और कहा था कि इसके updates देंगे, अब यह रूग्णा पूर्ण स्वस्थ हो गई है।इसके माध्यम से हमने दोष-दूष्य, अंशाश कल्पना, चिकित्सा सूत्र कैसे बनायें और औषध चयन का आधार क्या हो ? विस्तार से लिखा है, आशा है ये आगे जब रोगियों की चिकित्सा करें तो मूल को समझने में सहयोगी होगा ...*
[6/15, 3:13 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*रक्त कोठ (च सू 20/14)*
*.....त्वगदाहश्च त्वगदरणं च चर्मदलनं च रक्तकोष्ठश्च रक्तविस्फोटश् रक्तपित्ततं च .. रक्तमंडलानि...पित्तविकाराणामपरिसंख्येया...* च सू -20/ 14
*अभी हम इसे case presentation में ले कर नही चल रहे, इन विकारों को कैसे लें, समझे और चिकित्सा करे और इसके व्यक्तिगत हेतुओं के अनुसार जो इसका आहार विहार और दिनचर्या है, सम्प्राप्ति और चिकित्सा बनाकर चलेंगे।*
*यह एक t v serial actress का face है जिसकी चिकित्सा हमारे यहां नवंबर 2019 से आरंभ हुई थी, पिछले तीन वर्षों से वर्ष में कई बार शीतपित्त और उदर्द होता रहा जिसके उपद्रव स्वरूप औष्ठ के ऊपर एक छोटा सा रक्त वर्ण कोठ बना जो बढ़ता जा रहा था, plastic surgery के लिये भी इस स्थान पर और रोग वृद्धि के कारण मना कर दिया गया।*
30-11-2019 👇🏿
[6/15, 3:13 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
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*निदान एवं सम्प्राप्ति - रूग्णा के अनियमित, असात्म्य एवं विरूद्ध आहार जिसमें fast food,synthetic food,frozen food, preserved food, अम्ल, तीक्ष्ण और उष्ण पदार्थ, रात्रि जागरण, कदाचित आतप एवं तुरंत बाद A C की शीतल वायु के कारण कुपित व्यान वात, भ्राजक, रंजक और पाचक पित्त दूषित हो कर कफानुबंध कर, अग्नि को कभी सम और कभी विषम कर, रस-रक्त धातु और उपधातु त्वचा, रस और रक्तवाही स्रोतों को दूषित कर उनमें संग दोष उत्पन्न कर त्वचा में रक्त कोठ उत्पन्न करते है। इस व्याधि का उद्भव आमाश्य से हो कर अधिष्ठान यकृत एवं प्लीहा है ।*
*इसका चिकित्सा सूत्र हम निदान परिवर्जन, पाचन, अनुलोमन, विरेचन, पित्तशमन, वातशमन, मधुर तिक्त शीत आहार, शीतल एवं त्वच्य द्रव्यों का लेप बनाकर चल रहे है ।*
*पथ्य पर सब से अधिक महत्व दिया गया जिनमें आमलकी + seasonal गाजर का juice, गुडूची स्वरस, कूष्मांड स्वरस, नारिकेल जल, गुलकंद, broccli, हरा धनिया, कच्चे परीते का शाक, करी पत्ता, कुंदरू, सीताफल, तोरई, लौकी, मूंग, मसूर, यव का सत्तू, चुकंदर+गाजर+टमाटर+पालक+हरा धनिया सूप, पूरे दिन में दो खीरे का सेवन प्रमुख है।*
*आरोग्य वर्धिनी, गंधक रसायन, पंचतिक्त घृत गुग्गलु, मंजीठ,सारिवा,हरिद्रा खंड, खदिर,मंजिष्ठादि +कुटकी मिश्रित क्वाथ आदि।*
*बाह्य लेप में लोध्र, वच, धनियां, रक्त चंदन, गुलाब जल। तुवरक तैल में देसी कर्पूर मिला कर लगाना।*
*30 नवंबर से आज तक एक मास और सात दिन में कोठ का size कम हो गया और व्याधि धीरे धीरे समाप्त होने लगी है। इस प्रकार के रोग प्राय: 6 महीने की अवधि समाप्त होने में लेते है, अभी और आगे जो भी चिकित्सा में परिवर्तन करेंगे और व्याधि के updates आपको आगे देंगे और पूरा विस्तार से लिखेंगे।*
7-2-2020 👇🏿
[6/15, 3:13 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*12 june 2020 को रूग्णा अब पूर्ण स्वस्थ हो चुकी है और प्रसन्न है जबकि लॉकडाऊन के कारण कुछ दिन औषध नही ले सकी थी।*
[6/15, 3:13 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*इस की व्याधि में जो कोठ है पर इसके साथ अनुबंध वात का भी है, देखिये अंशाश कल्पना के अनुसार इसका विवेचन चरक सूत्र में वात के कुपित होने पर अरूण वर्ण, इसके अतिरिक्त चल गुण जो इसका प्रसर कर रहा है और त्वक् वैवर्ण्य साथ ही इस विकृति में एक गति है इसे चरक सूत्र 20 में 'स्रंसभ्रंसव्यास...' जिसमें व्यास का भाव विस्तार से है जो व्याधि का विस्तार कर रहा है जो वात के आत्म गुण चल के साथ सूक्ष्म से भी संबंधित है और इस समय यह व्याधि का मूल रूप धारण बनता जा रहा है कि व्याधि फैलती जाये । *
*अनेक गंभीर व्याधियों में ऐसा होता है कि जो साधारण लगती पर पर जब इनका विस्तार होता है तो रोकना असंभव हो जाता है। इसे रोकने के हमारे पास दो उपाय है एक तो कषाय रस का चयन पर वो तो स्वयं ही वात प्रकोपक है और दूसरा कफ के मंद गुण से स्थैर्य ला कर व्याधि की गति को रोके पर साथ ही ये भी ध्यान रखना है कि वो व्याधि को चिरकारी ना बना दे क्योंकि अनेक व्याधियां जो चिरकारी बन जाती हैं उसमें कफ का नैसर्गिक गुण चिरकारित्व बहुत प्रधान होता है जो मंद से संबंधित है अत: दीपन पाचन द्रव्यों का चयन भी साथ रहेगा।।*
*इस व्याधि की कल्पना हम च सू 20/14 के पित्तज विकारों में रक्त कोठ ले कर चले हैं जिसमें पित्त के नैसर्गिक गुण सर का भी वात के चल और सूक्ष्म गुण के साथ मिलना और व्यास की वृद्धि करना बिल्कुल ऐसा ही है जैसे आर्ष ग्रन्थों में वर्णित है कि घृत की अग्नि में वायु उसे अति प्रज्जवलित कर रही है क्योंकि स्नेह भी पित्त का नैसर्गिक गुण है।*
*व्याधि त्वचा में है जिसका पोषण मांस धातु के प्रसाद अंश से होता है और यह त्वचा शरीर का धारण तो करती है पर पोषण नही करती इसीलिये उपधातु है इसका पोषण तब होगा जब जाठराग्नि अच्छी तरह प्रदीप्त होगी तो भोजन का परिपाक अच्छा होने से धातुओं और उपधातु त्वचा की पुष्टि होगी साथ ही भ्राजक पित्त का ये स्थान है जो वर्ण प्रसादन, कान्ति, प्रभा बनाये रखता है साथ ही यहां व्यान वायु का विशेष महत्व है जो सभी धातुओं और स्रोतस में रस-रक्त के माध्यम से आकुंचन और प्रसरण कर के औषधियों गुणों को इस व्याधि के स्थान पर पहुंचा कर रोग ग्रस्त स्थान को पुन: उसकी प्राकृत अवस्था में पूर्ववत ले आये तथा भ्राजक पित्त को आलेपन- अभ्यंग की भी आवश्यकता होती है तो हम उसका भी चयन अब नवीन प्रकार से करेंगे क्योंकि इस अवधि तक व्याधि को हम उस अवस्था तक ले आये हैं जैसा हम चाहते थे।*
*यहां हमें व्यान वायु की आवश्यकता इस प्रकार है कि वात का चल गुण अति ना बढ़े और वह अपना कार्य भी प्राकृतिक रूप से करे।तिक्त रस द्रव्य वायु और आकाश महाभूत प्रधान है जिनका व्यान वायु पर सीधा प्रभाव है ।इस प्रकार के द्रव्य अच्छा दीपन पाचन तो करते ही हैं शीत और लघु भी होते हैं, प्राय: पित्त और कफ को नष्ट कर वात की वृद्धि करते है। इनके चल गुण को कम या नष्ट करने के लिये हम इसके साथ मधुर औषध या आहार द्रव्यों को ले कर चलेंगे, ये मधुर रस वाले द्रव्य जल और पृथ्वी महाभूत प्रधान द्रव्य होते हैं वात-पित्त नाशक और कफ वर्धक होते है, स्वभाव से शीत जो इस रोग में सहायक हैं क्योंकि व्याधि पित्त प्रधान है। हमने रूग्णा का body wt. भी कम करना है तो ये बल्य और जीवनीय कर्म भी साथ करेंगे।*
*कटु रस की भी आवश्यकता है क्योंकि ये द्रव्य भी दीपन पाचन में सहायक होने के साथ लेखन कर्म अच्छा करते है, हमने देखा है कि अनेक त्वक रोगों में तिक्त रस के साथ मिल कर वातपित्त वर्धक होते हुये भी त्वक वर्ण्य में अति सहायक है, ये द्रव्य वायु और अग्नि भूत प्रधान होते हैं और कफ का हरण करते है।कटु रस में विद्यमान वात के चल गुण को भी हम मधुर रस के कफ प्रधान मंद गुण से व्यवस्थित करेंगे।*
*पित्तज विकारों में लवण और अम्ल रस प्राय: व्याधि की वृद्धि करते है, कषाय रस त्वक रोगों को अनेक स्थान पर रोकने में सहायक तो है पर विबंध कारक है जबकि पित्त की चिकित्सा का प्रधान सूत्र ही विरेचन है कि इसे अधोमार्ग से निष्कासित कर दिया जाये।*
[6/15, 3:13 PM] Vaudyaraj Subhash Sharma Delhi:
*चरक सू अध्याय 20/8 महारोगाध्याय देखिये 'स्वेदो रसे लसिका रूधिरमामाश्यश्च पित्तस्थानानि तत्राप्यामाश्यो विशेषेण पित्तस्थानम्' स्वेद, रस, लसिका, रक्त और आमाश्य ये पित्त के स्थान है और विशेषकर आमाश्य है । इसी अध्याय में नानात्मज पित्तज विकार बताकर यह स्पष्ट किया है कि जिन विकारों का वर्णन यहां नही है अगर पित्त का ना बदलने वाला स्वरूप और कर्म पूर्वरूप या आंशिक रूप में भी मिले तो चिकित्सक को दृढ़ता पूर्वक कहना चाहिये कि यह पित्तज विकार है।पित्त और रक्त समान गुण धर्मी है यहां पित्त का स्थान आमाश्य है और रक्त का स्थान यकृत प्लीहा , पित्त विकारों की चिकित्सा मधुर-तिक्त-कषाय रस प्रधान द्रव्य, शीतवीर्य युक्त स्नेह, परिषेक जिसमें जलसिंचन, अवगाहन, धारागृह या जैसे आजकल swimming pool या टब बाथ चलता है, अभ्यंग, उबटन, देश, काल और मात्रा के अनुसार पित्तशामक चिकित्सा एवं विरेचन।*
*अब देखिये कितना सूक्ष्म अंतर है पित्तज रोग और रक्तज रोग में ? चरक सूत्र का 20 अध्याय हमें सूत्र स्थान के 20 वें अध्याय विघिशोणित अध्याय से जोड़ देता है ' शीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्यैरूपक्रान्ताश्च ये गदा, सम्यक् साध्या ना सिध्यन्ति रक्तजांस्तान्विभावयेत्।।' च सू 24/17 जैसे ऊपर पित्तज विकारों में साध्य रोगों की चिकित्सा शीत वीर्य युक्त स्नेह, शीत वीर्य द्रव्य, परिषेक,अवगाहन गुण प्रधान से ना हो अर्थात सामान्य चिकित्सा से लाभ ना हो तो उन्हे रक्तज रोग समझें।*
*अब इस रक्त जनित रोग में भी दो भेद हैं 'तक: शोणितजा रोगा: ......विकारा: सर्वं एवतै विज्ञेया शोणिताश्रया:' अर्थात शोणितज रोग और शोणिताश्रय रोग एक तो मिथ्या आहार विहार से रक्त दूषित हो कर रोग और दूसरे उस दूषित रक्त को आधार बनाकर होने वाले रोग। अष्टांग संग्रहकार ने सूत्र अध्याय 1 में इसका बहुत अच्छा उदाहरण दिया है 'घृतदाहवत्' अर्थात घी से जल गया। एक रोग तो किसी को घी पीने से आ रहे है और घृत से जला तो वो अवश्य ही अति उष्ण होगा तभी घृत ने जलाया।*
*चिकित्सा में हमने जो द्रव्य प्रयोग किये वो क्यों और कैसे किये ...*
*खीरा (त्रपुस) - पित्तज और रक्तज विकारों में हमारा ये सर्वप्रिय है।मधुर, शीत वीर्य , पित्त शामक, दाह और तृषा नाशक है, रक्त पित्त भी दूर करता है। खीरे में सर्वांग द्रव्य ही आपके काम का है, इसका छिलका उतार कर कद्दू कस कर ले और निचोड़ कर स्वरस मुख और त्वचा पर लगाये, बाकी खीरा दही में मिलाकर रायता बना ले, छिलके तरबूज के छिलके के नीचे के श्वेत भाग में मिलाकर fruit & vegetable pack बना लें, खीरा salad के रूप में भोजन के साथ और ऐसे रोगियों को हम खीरे का जूस सुबह खाली पेट भी पिलाते हैं ।*
*आरोग्य वर्धिनी - स्रोतों में संग दोष के लिये ये भी हमारी प्रिय औषध है, दीपन, पाचन, शोधन, अनुलोमन, भेदन, पित्तज और रक्तज विकार दूर करने के साथ रसायन कर्म भी करती है। इसमें 50% कुटकी है।*
*कुटकी - तिक्त रस की औषध है जो वायु और आकाश प्रधान है, व्यवायी और विकासी गुण इसके औषधीय गुणों को सूक्ष्म स्रोतों में पहुंचा देता है, शीतवीर्य और लघु हो कर भी भेदन कर्म में श्रेष्ठ है, कटु विपाक अग्नि और वायु का गुण साथ में दे कर इसे दीपन बना रहा है।*
*खदिर - तिक्त- कषाय है , यह हमारे दोनो कर्म कर रहा है। कषाय रस रोग की वृद्धि रोक रहा है तिक्त रस शीतवीर्य है पित्त और रक्तज रोगों में सर्वश्रेष्ठ।*
*मंजिष्ठा - मधुर, तिक्त, कषाय और गुरू है। यह हमारे वो सारे कार्य कर रही है जिनका उल्लेख हम पहले कर चुके है।मधुर और गुरू गुण वात के चल गुण को नियन्त्रित कर रहा है, कषाय रस कोठ के व्यास को रोकेगा, तिक्त रस रक्तदुष्टि को दूर कर रहा है।*
*चिरायता - तिक्त रस, शीतवीर्य, लघु, पित्त और रक्त जन्य रोग। सब से बढ़ा गुण जब यह कुटकी के साथ प्रयोग करते है तो इसका सारक गुण पित्त का विरेचन भली प्रकार से करता है । चिरायता हमने प्रतिदिन 5 gm bd चाय की तरह उबाल कर छान कर पीने को दिया।*
*गुडूची स्वरस - तिक्त, कषाय, कटु, त्रिदोष नाशक , कुष्ठ रोग में लाभकारी होने के साथ ही मधुर विपाकी है।*कूष्मांड स्वरस - गुरू, पित्त एवं रक्त दुष्टि में लाभकारी तथा शीतवीर्य है।*
*पंचतिक्त घृत - त्रिदोष नाशक, रक्तज विकारों में अति लोकप्रिय।*
*गंधक रसायन - इसकी भावनाओं में गुडूची, हरीतकी, आमलकी, विभीतक इसे पित्तज और रक्तज विकारों में अति उपयोगी बनाते है।*
*हरिद्रा खंड - इसमें प्रधान घटक हरिद्रा, हरीतकी और निशोथ हैं, रक्तज कोठ, उदर्द, शीतपित्त आदि विकारों में इसका उपयोग आप सभी जानते है।*
*शीतल गौदुग्ध - refrigerated शीतल गौदुग्ध मिश्री मिलाकर, कभी रूह अफजा, किसी दिन vanila ice cream मिलाकर सांय काल हम 4-5 बजे लगभग अल्प मात्रा में सेवन करने के लिये कहते रहे क्योंकि हमने diat plan ऐसा बना दिया था कि ये दुग्ध वात के चल गुण की वृद्धि नही होने देगा, अल्प गुरूता शरीर के प्रकृतिक कर्मों में मंदता लाती है। इस दुग्ध के साथ पाचन औषधियां चलती रहे तो यह मुख पर अच्छा glow ला देता है।*
[6/15, 3:20 PM] Prof. Satyebdra Narayan Ojha:
*सुभाष संहिता/तंत्र , अति सुंदर व्याख्या , चिकित्सक यदि सम्प्राप्ति और सम्प्राप्ति विघटन के घटको आपकी तरह से समझे तो चिकित्सा व्यवस्था फलदायी होनी ही है , साधुवाद ,
*नमो नमः अग्रज !*
[6/15, 3:25 PM] Vd. Raghuram Shastri
Great analysis as always Guruji... Feels good to see the step wise description and analysis of the cases you present. ❤
[6/15, 3:40 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*namaskar raghu ji, आयुर्वेद चिकित्सा is not possible without understanding the basic principles of Ayurveda, this principle is the soul of Ayurveda. It is always my endeavor to explain the principles of Ayurveda with their clinical importance.*
[6/15, 3:42 PM] Prof. Mrinal Tiwari:
शब्द नही मिल रहे. Very nicely explained Sirji ! Practical approach about why we use certain drug.
[6/15, 3:49 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*नमस्कार तिवारी जी, I live Ayurveda every moment, I am born in it and I will take my last breath with it. I have become आयुर्वेदमय with all this. Perhaps this is why you understand my words easily.If you go thinking like this, you will understand everything.*
[6/15, 3:54 PM] Prof. Shrinas Gujjarwar, Shalya:
*Pranam sir*, bahot bhagyashali hai iss group me join hoke . Aapke chikitsa anubhav , vivechan, prastuti aur successful chikitsa .
Great great sir. Thank you very much for sharing your cases and Congratulations sir.
[6/15, 4:00 PM] Prof. Giriraj Sharma:
*आचार्य श्री नमन*
*आमाशय से stomach न लेकर अगर foregut (stomach and 1st part of deudenum) ले तो पित्त (bile) 1st part of deudenum स्वतः पित्त स्थान सिद्ध हो जाता है*
[6/15, 4:04 PM] Prof.Arun Rathi , Akola :
*प्रणाम गुरुवर*
*हर बार, आपके विश्लेषण पर नये शब्द खोज कर लाना बहोत जटील कार्य हो गया है।*
*आप अपने चिकित्सा अनुभव से आयुर्वेद के सिध्दांतों को प्रत्यक्ष प्रमाण सह सरल, स्पष्ट और बुध्दिगम्य बना देते हो।*
[6/15, 4:11 PM] Prof. Arun Rathi , Akola :
*आयुर्वेद में आमाशय*
*नाभिस्तनान्तरं जन्तोरामाशय इति स्मृतः।*
*अशितं खादितं पीतं लीढं चात्र विपच्यते ।।*
च. वि. अ. २ /१७.
[6/15, 6:55 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*सादर नमन आचार्य गिरिराज जी, यदि ज्वर की सम्प्राप्ति और चिकित्सा सूत्र देखे, अग्नि मांद्य,आम दोष,जाठराग्नि का बहिर्गमन, लंघन, दीपन- पाचन , अब शब्दों से बाहर निकलकर इसका प्रत्यक्ष अनुभव करें तो अनुभव इनका stomach के अधोभाग से ले तो यही अनुभव होता है। आपके कथन से सहमत हूं, वास्तव में इतना अधिक लिख दिया था कि इसमें ये सब रह गया था,*
*स्वेदो रसो लसीका रूधिरामामाश्यश्च पित्तस्थानानि तत्राप्यामाश्यो विशेषेण पित्तस्थानम्'
च सू 20/8
स्वेद ,रस ,लसीका ,रक्त और आमाश्य ये पित्त के स्थान कहे गये हैं उनमें भी विशेष स्थान आमाश्य है।यहां इसका और विस्तार करें तो 'नाभिरामाश्य: स्वेदो लसीका रूधिरं रस:, दृक स्पर्शनं च पित्तस्य नाभिरत्र विशेषत:।' अ ह 12/2 नाभि आमाश्य स्वेद लसीका रक्त रस दृष्टि तथा त्वचा ये पित्त के स्थान तो हैं ही पर नाभि विशेष रूप से है। नाभि का वर्णन ' पक्वाश्ययोर्मध्ये सिराप्रभवा नाभि:' सु शा 6/25 पक्वाश्य और आमाश्य के मध्य सिराओं का उत्पत्ति स्थल नाभि है और इसे क्षुद्रान्त्र भी कहते हैं। आहार का परिपाक तो होता ही है और पाचक पित्त के कार्य का विशेष क्षेत्र भी है।*
*जो भी आहार ग्रहण किया गया उसका पाचन आमाश्य और पक्वाश्य में हो कर परिणाम स्वरूप रस और मल के रूप में होता है, इस आहार रस में सातों धातु, उपधातुओं के अंश, पांचों इन्द्रियों के द्रव्य, शुद्ध धातुओं का निर्माण करने वाले तत्व रहते हैं, इस आहार रस पर पंचभूतों की अग्नि अपना कार्य कर के अपने अपने अनुसार गुणों में परिवर्तन कर के शरीर उस आहार को आत्मसात कर सके इस अनुरूप बनाती है और पंचभूतों की अग्नि के बाद धात्वाग्नियां अपना कार्य आरंभ करती हैं और अग्नि मंद है तो उस अन्न से बना आहार रस का पाक पूर्ण नही हो पाता और इस अपक्व आम रस जिसका क्षेत्र आमाश्य से नाभि तक है में अपक्वता से शुक्तता ( fermentation) हो कर आम विष की उत्पत्ति होती है इसे 'स दुष्टोऽन्नं न तत् पचति लघ्वपि अपच्यमानं शुक्तत्वं यात्यन्नं विषरूपताम्' च चि 15/44 में स्पष्ट किया है। अब जाठराग्नि की दुर्बलता से इस अपक्व रस का क्या होता है ? अगर यह अन्न रस बिना पक्व हुये आमावस्था में रहता है तो आमाश्य और पक्वाश्य में रह कर ज्वर, अतिसार , अजीर्ण, ग्रहणी आदि रोग उत्पन्न करता है और इसकी संज्ञा आम विष युक्त आम रस होती है और यह आम विष विभिन्न स्रोतों के माध्यम से शरीर में जहां भी जायेगा वहां रोग उत्पन्न करेगा। धात्वाग्नियां जाठराग्नि पर ही निर्भर है, अगर इस रस का पूर्ण पाक जाठराग्नि हो जाता है तो यह किट्ट रहित रस संज्ञक हो कर 'यस्तेजोभूत: सार: परमसूक्ष्म: स रस इत्युच्यते' सु सू 14/3 परम सूक्ष्म हो कर सूक्ष्म स्रोतों में प्रवेश कर व्यान वात की सहायता से ह्रदय में पहुंच कर व्यान वायु के द्वारा ही 24 धमनियों के माध्यम से प्रत्येक दोष धातु मल एवं सूक्ष्म अव्यवों तक पहुंचता है।*
[6/15, 8:01 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
*परमादरणीय श्रीयुत वैद्यराज शर्मा जी नमो नमः !
अति प्रशंसनीय विश्लेषण, मजा आ गया, आभारी हूं !*
*कफस्थानानुपूर्व्या वा सन्निपातज्वरं जयेत् , च.चि.३*
*आचार्य चक्रपाणी; कफस्य स्थानं कफस्थानम् , आमाशयोर्ध्वभाग इत्यर्थ:*
*कफवातात्मकावेतौ पित्तस्थानसमुद्भवौ.. च.चि.१८*.
*आचार्य चक्रपाणी; पित्तस्थानसमुद्भवावित्यनेन पित्तस्योर्ध्वस्थानसंबन्ध एवं, नतु वातकफवदारम्भकत्वमिति दर्शयति; पित्तस्थानशब्देनामाशयोऽभिप्रेत:*
*इन संदर्भो से आमाशय का उर्ध्व भाग कफ स्थान तथा अधोभाग पित्त स्थान समझना अपेक्षित है (?)*
[6/15, 8:05 PM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
एक प्रश्न मन में कई वर्षों से खटकता रहता है। आज इस पर विचार करने का उचित अवसर लगता है। एक उक्ति पढी हुई भी है और अनेक बार सुनी हुई भी है जिसमें कहा गया है कि "दधित्रपुषं प्रत्यक्षो ज्वर:" अर्थात् दही और खीरा एक साथ खाने का मतलब है आप ज्वर खा रहे हैं। यह उक्ति कहां है यह अभी तक मुझे पता नहीं चला ।व्याकरण, साहित्य के लोगों को भी पता नहीं है कि यह कहां पर है। इस पर द्रव्यगुण के विशेषज्ञों एवं प्रायोगिक कर्माभ्यासी चिकित्सकों को विचार प्रस्तुत करना चाहिए। यह उक्ति कहां किसकी है यह भी मिल सके तो ज्यादा ठीक है, इतना निश्चित मानिए कि मुझे गलत याद नहीं रहता, अत: यह कहीं ना कहीं है जरूर । वर्तमान में खीरे के रायते का बहुत अधिक प्रचलन है
[6/15,8:10PM]Prof.Lakshmikant Dwivedi sir
Ye to Aap se hi to Suna tha ,
" Dadhi trapusho JwarakarAnAm"
iti.
[6/15, 8:11 PM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
अब भी मैं ही कह रहा हूं और यह प्रमाणित भी हो गया कि कई वर्षों से यह मन में विचार है क्योंकि आप पहले मुझसे सुन चुके हैं
[6/15, 8:12 PM] Prof. Shrikrishna Khandal Sir:
श्री वैद्य सुभाष जी आपने जो कुछ लिखा वह सुदीर्घ काल की एकनिष्ठ चिकित्सा का नवनीत है
इसे तृणघृत न्याय कहते हैं जैसे
गौ तृणमूल खाकर उसे दुग्ध में रूपांतरित करती है
गुरु भी शास्त्र उपासना कर अनुभव नवनीत शिष्य को देता है
ज्ञान का यह निष्ठापाक है
वन्दन स्वीकारें !
[6/15,8:40 PM] Dr. Bharat Padhar:
[6/15, 8:50 PM] Dt.Bharat padhar:
It is mentioned in *Vaiyakaran Mahabhashya--Bhagavatpatanjali Virchit Navahanvik* book on page 604
[6/15, 8:59 PM]Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
धन्यवाद। मैंने आज भी प्रोफेसर आजाद मिश्र जोकि व्याकरण के बहुत अच्छे विद्वान हैं लखनऊ में हैं उनसे पूछा था उन्होंने कहा सुना हुआ तो लगता है पर कहां है यह पता नहीं कल देखकर बताऊंगा !
[6/15, 9:00 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
*नड्वलोदकं पादरोग:*
[6/15, 9:02 PM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
अब यह तो स्पष्ट हो हो गया कि यह उक्ति तो है तब इसका प्रयोग हम करें या नहीं करें। दही और त्रपुस का एक साथ प्रयोग करें या नहीं करें !
[6/15, 9:04 PM] Prof.Satyendra Narayan Ojha:
*नहीं करें , विकारोत्पत्ति में कारणभूत है , इसलिए नहीं करना है*
[6/15, 9:08 PM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
मैं तो 1986 से ही इसका प्रयोग नहीं करता हूं , न तो मैं खुद करता हूं और न रोगियों को बताता हूं ,उन्हें मना भी करता हूं l
[6/15, 9:10 PM] Dr. Shashi Jindal, Chandigarh:
Tratus (kheera) is guru and vishtabhi, it may increase vayu due to srotovrodh when consumed with dadhi, and becomes virudh sanyog. as karkatadi varg dravyas are also contraindicated with parad and its yogas ??
[6/15, 9:12 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
दधि न शीलयेत् , अर्थात् निरंतर सेवन न करें..
*त्रपुसैर्वारुकं स्वादु, गुरु विष्टम्भि शीतलम् (मतम्) ११०. (अत्र) त्रपुसं तु मुखप्रियं च रुक्षं अतिमूत्रलं (वर्तते).च.सू.२७*
[6/15, 9:25 PM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
बात दही की नहीं है दधित्रपुष के एक साथ प्रयोग की है
[6/15, 9:31 PM] Dr. Bharat Padhar, Jaipur:
The lactic acid bacteria (LAB) present in small numbers on fresh cucumbers produce lactic acid by fermentation. The lactic acid inhibits the growth of undesirable microorganisms. Sugar is the most essential nutrient for fermentation where sugars, glucose and fructose are converted to lactic acid by LAB. Curd itself having excess amount of Lactic acid, the combination of both with more lactic acid may have harmful effect to produce fever
Respected Oza sir can explain the role of excessive lactic acid to produce fever. May be some link of lactic acid with fever in modern medicine.
[6/15, 9:45 PM] Dr. Rajaneesh Gadi:
सर तक्र तो नित्यसेवनीय भोजनांग है..
Consumption of Lactic acid bacilli or lactic acid containing food products do not cause fever..
[6/15, 9:52 PM] Dr. Bharat Padhar, Jaipur:
Excessive may be harmful. Not normal quantity.
In Gujarat it is said that consumption of cucumber in Shravan month and Buttermilk and Bhadrapad month is cause if fever. May be due to their season specific effect
[6/15, 10:00 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
*दधि शरद ऋतु में वर्जित है.*
*दधि रक्तज रोगो का एक कारण है*
*नियम पूर्वक दधि न लेने से ज्वरादि रोग होते हैं. दधि के साथ लिए जाने वाले द्रव्यो में त्रपुस नहीं है , अर्थात दधि के साथ त्रपुस लेने पर नियम बाह्य होने से ज्वरादि रोगोत्पादक हो सकता है*
[6/15, 10:02 PM] Prof. Giriraj Sharma:
The body makes lactic acid when it is low in the oxygen it needs to convert glucose into energy. Lactic acid buildup can result in muscle pain, cramps, and muscular fatigue. These symptoms are typical during strenuous exercise and are not usually anything to worry about as the liver breaks down any excess lactate.
muscle pain, cramps, and muscular fatigue. These symptoms may feel like having fever....
पंजाब क्षेत्र में दधि का प्रयोग बहुतायत होता है विशेषकर वहां पर gout के रोगी भी बहुत पाए जाते है ,,,,
[6/15, 10:11 PM] Dr. Sharad Trivedi, Himachal:
हिमाचल में दही, परांठा रोजाना
[6/15, 10:15 PM] Prof. Giriraj Sharma:
परन्तु एक सफल वैद्य की राय थी कि पंजाब में रहो तो दही जरूर एक समय भोजन में लेना,,,,
लगभग 5 साल मैंने दही नित्य सेवन किया ,,,,
तो दही उस स्थान, वातावरण के लिए उचित भी बताते है
[6/15, 10:16 PM] Dr. Sharad Trivedi, Himachal:
आनूप प्रदेश है l
[6/15, 10:18 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*धन्यवाद सर !
आमाश्य में मधुर अवस्था पाक हो कर अम्ल अवस्था पाक भी होता है, आमाश्य का अधोभाग पित्त स्थान अपेक्षित है।*
[6/15, 10:20 PM] Prif. Satyendra Narayan Ojha:
जी, सादर प्रणाम l
[6/15, 10:25 PM] Dr. Rajaneesh Gadi:
दही से gout कैसे होगा
[6/15, 10:31 PM] Prof. Giriraj Sharma:
*Copy paste*
Rapid weight loss or fasting can cause excess lactic acid(curd) buildup, which hinders uric acid excretion by the kidneys thereby triggering a gout attack. Dieting also may cause a loss of potassium, which can increase urate levels in the blood.
[6/15, 10:32 PM] Prof. Satyendra Narayn Ojha:
*दही से नहीं होगा , पंजाब में राजमा, छोले और अन्य दाल अत्यधिक खाते है जिससे hyperuricemia हो सकती है l*
[6/15, 10:33 PM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:
Isiliye Trapush(kheera kakadi) ka pitta nikal kar khate hai.
Trapush vrantmukh bhAg ko kat kar Trapush mukh par pracchan kar vrant bhag ko punah abhimukh rakh kar Gharshan karne se swet varna ke zhaga nikalte hai ,iske bad cover (vrant bhAg yathasthitirakh 0.5 CM nice se kAt kar dono tukade nikal kar shesha kheera ko khate hai.
Anyatha pitta kar mAnte hai. Mewar me.
[6/15, 10:34 PM] Porf. Satyendra Narayan Ojha:
सभी जगह ऐसा ही करते हैं
[6/15, 10:35 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*सादर प्रणाम सर ! गर्मी के दिनों में दधि में अधिक पानी मिलाकर पतला रायता खीरे का जिसमें हिंगु और जीरक का छौंक लगा हो वर्षों से मेरा प्रिय आहार दोपहर के भोजन में है और बढ़ा कटोरा भर कर मुंह लगाकर पीता हूं पर ज्वर इसने किया नही और ना ही रोगियों में देखा गया।*
*संभव है यह घटना किसी एक क्षेत्र की हो जहां खीरा या जल ही प्रदूषित है और वहां की स्थानीय कहावत बन गई हो। कई लोग तरबूज नही खाते और कुछ उसके उपर जल नही पीते पर तरबूज का जूस जिसमें जल मिला हो हम स्वयं भी सेवन करते हैं और रोगियों को भी पीने को कहते हैं जिसमें भुना जीरक, काली मिर्च और काला नमक मिलाया जाता है।संभव है प्रक्षेप द्रव्य इसे सात्म्य कर देते है।*
[6/15, 10:36 PM] Prof. Giriraj Sharma:
Curd cause of lactic acid formation ....
Dr. Rajaneesh ji !
[6/15, 10:40 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
Rajneesh Ghadi ji ,
Diet for gout: low-fat yogurt can help. Lifestyle and diet significantly influence the incidence of gout and uric acid levels. New research found that low-fat yogurt and milk reduce the risk for gout and are associated with low serum uric acid (SUA).
[6/15, 10:42 PM] Prof. Giriraj Sharma:
*Copy paste*
Another way to treat high uric acid is by consuming low fat dairy products in your diet.
*Go for low fat milk and curd and prevent high uric acid in blood.*
[6/15, 10:42 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
*त्रपुस दही के साथ लेने से ज्वरोत्पत्ति*
[6/15, 10:47 PM] Dr. Vivek Chaddha, Caneda:
प्रणाम गुरुजनों को
सर्वप्रथम धन्यवाद प्रोफ़ेसर ओझा जी का जिन्होंने मुझे इस ग्रुप का सदस्य बनाया
बहुत दिनों से इच्छा थी अपने विचार रखने की लेकिन सुबह जब उठता हूँ (कनाडा में) तो मैसेज पढ़ने और समझने में एकांत की इच्छा से दोपहर हो जाती है और तब तक भारत में मध्यरात्री हो जाती है
आज आदरणीय सुभाष शर्मा जी का विवेचन पड़ा कितनी बार कहना मुश्किल है लेकिन आनंद आ गया।
पित्तज और रक्तज रोगों में सूक्ष्म अंतर और ना बदलने वाले स्वरूप में दृढ़ता पूर्वक पितज विकार मानना
कितनी आसानी से समझा दिया।
अद्भुत सर !
बहुत धन्यवाद।
[6/15, 10:49 PM] Prof. Giriraj Sharma:
गुजरात मे छाछ की महत्ता अनन्य है
[6/15, 10:52 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*जो मनुष्य जहां जन्म लेता है या जहां रहता है उसे वहीं का आहार अधिक सात्म्य रहता है, south india में लोग सरसों का साग और मक्के की रोटी खायेंगे तो तीन दिन क्षुधा नही लगेगी और पंजाब का आदमी पंजाब में dosa और idli के सहारे जीवन नही जी सकता।*
*हमारे ऋषि मुनियों और पूर्वजों से बढ़ा वैज्ञानिक कोई नही रहा।*
[6/15, 10:53 PM] Prof. Lakshmi Kant Dvivedi:
Jab pitta nikaldiya to dadhi ke sath bhi jwar kar nahi hona cahiye .
Dosh nirharan ke bad to nahi Anyatha sanskar ka mahatva kya rahajayga.
Like dadhi ke gholme shodhit Trapush ka raytajisme veshvar (kasmard / garam masala) namak Sharkara etcbhi dalte hai.
To ye Rayta to jwarkar Nahi hoga .
Dravyanter hone se.
[6/15, 10:56 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*डॉ विवेक जी नमस्कार, बहुत अच्छा लगा आपके विचार पढ़कर कि हमारा परिश्रम और ग्रुप में लिखना सार्थक रहता है।*
[6/15, 11:03 PM] Dr. Bharat Padhar, Jaipur:
Sir, I am not claiming or trying to prove that curd can produce fever. I just gathered the information that lactic acid present in cucumber and curd may be in combination have some harmful effect, due to Samyoga virruddha.
It's a hypothesis. May I be totally wrong. I just shared the views for expert opinion and further discussion if any link can be established by this information.
[6/15, 11:09 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
*You are right , dear , but I didn't get any convincing article in favor of curd and cucumber combination can cause fever , but as per Ayurveda principle , I am convinced that consumption of trapus with dadhi is not good for health*
[6/15, 11:11 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
*For more description , I would like to submit my humble request to Guru ji*
[6/15, 11:25 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
*शुभ रात्रि वैद्यराज सुभाष शर्मा जी*
*आज आपकी लेखनी चरम सीमा पर थी, आपको पढकर अतिरिक्त ज्ञान की प्राप्ति होती है*
[6/15, 11:28 PM] Vadiyaraj Subhash Sharma Delhi:
*शुभ रात्रि सर, प्रेरणा स्रोत आप हैं जिनसे बहुत कुछ सीखता हूं।*
[6/16, 12:20 AM] Prof. Arun Rathi, Akola:
*त्रपुसं कण्टकिफलं सुधावासः सुशीतलम्।*
*त्रपुसं लधु नीलञ्च नवं तृट्क्लमदाहजित्।।*
*स्वादु पित्तापहं शीतं रक्तपित्तहरं परम्।*
*तत्पक्वमम्लमुष्णं स्यात्पित्तलं कफवातनुत्।।*
*तद् बीजं मूत्रलं शीतं रुक्षं पित्तास्त्रकृच्छ्रजित्।।*
भा.प्र. आम्रादिफलवर्गः ४७ - ४८.
*पक्व खिरा फल यह अम्लरसयुक्त, उष्ण, पित्तजनक और कफ, वात नाशक होता है।*
*दधित्रपुसं प्रत्यक्षो ज्वरः।*
*क्या यह कहावत, पक्व खिरा फल और दही के एक साथ सेवन के लिए तो नही है।*
[6/16, 5:33 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:
dadhi and takra both are loaded with lactobacillus, but dadhi is abhishyandi and srotoavrodhak, not takra. Kheera is vishtanbhi . When we consume kheera and dadhi both will cause avrodh in vayu gati, pratilom gati etc.
Both are guru, combination will be ati guru.
Dadhi is ushna veerya and kheera sheet veerya, veerya virudh.
Dadhi and kheera both are advised not to take at night even separately.
Sanyog of dadhi and kheera is virudh, I think no doubt.
But in mridu koshtha, pitt prakriti people may not be so harmful.
[6/16, 5:42 AM] Dr. Sanjay Chhajed, Mumbai:
गुरुदेव, आप शायद साधित तक्र के साथ ककडी(खिरा) लेते हो.
संभावना यह भी है के त्रपुष और आजके काल मे मिलने वाली खिरा वस्तुत: दो अलग द्रव्य हो, क्योंकी बझार मे खिरे की कयी प्रजातिया मिळती है, पर रायते के लिये श्रीमतीजी किसी एक प्रकार विशेष का उपयोग करती है, सभी का नही.
[6/16, 5:53 AM] Vd. Bhavesh Modh:
दधाति इति दधि
यहाँ गुजरात मे पालितणा नामक एक जैन पर्वतीयक्षेत्र है जहाँ पर्वत पे सीढ़ियों से चढ़ना उतरना होता है, श्रद्धालु यात्रीक जो भी पर्वत चढ़कर उतरते है उन्हे, सीढ़ियाँ उतरते हि मीट्टी के बने पात्र मे सीधा ही अगली रात का जमाया - बनाया हुआ करीब करीब 1 C.M. परत वाला दधि खाने को देते है, लाजवाब स्वाद व अनुभव होता है।
जैन संप्रदाय की परंपरा स्वस्थस्य स्वास्थयम् रक्षणम् हेतु वाली होती है ।
यह जो दधि भरे पात्र है, वह केवल पर्वत चढ़कर उतरने वाले के लिए फ्री ऑफ कोस्ट डिस्ट्रीब्यूशन किए जाते है ।
अधिकांश पहली बार इतनी ऊंचाई चढके उतरने के बाद पैरो के Calf muscle मे ऑक्सीजन के अपूर्ण दहन से लेकटीक एसीड जमा होता है जो दरद का कारण बनता है
अब प्रश्न है की दधि मे भी लेकटीक एसीड होता है, तो इन *यात्रियों को दधि खाने को क्यूँ देते है* ? एक मिरिकल या आश्चर्य यह भी है की यहाँ पर दधि खाने से बाद मे सीढ़ी चढ उतर करने का परिश्रम जन्य पैर दरद भी नही होता है ।
दधि को वातनाशक भी माना गया है । दधि हृद व रोच्य भी बताया गया है ।
[6/16, 5:59 AM] Dr. Sanjay Chhajed:
प्रणाम सर, दधि से नही एक विशिष्ट संयोग से, काल प्रकर्ष से ज्वरोत्पत्ति की बात है.
इस दौरान एक बात और उठी, रात्री मे दहि लेना क्या?
*न नक्त्ं दधि भुन्जीत* यह तो आयुर्वेद मे प्रवेश लेने के पहले व्यवहार मे देख रहे थे. आज भी महाराष्ट्र मे रातको द्ही कम ही खाया जाता है.
पर कुछ जातियो/ समाजमे दही भात से अंत करने का रिवाज है, जो आयुर्वेद सिद्ध है, भारत के अनेको प्रांतौ मे रात्री दधि सेवन का रिवाज है.
राजस्थान के जैन समाज मे रातका भोजन सबेरे अग्राह्य है, पर अगर उसमे दही दालकर रखे तो ग्राह्य.
जैसे सुभाष सर ने कहा, हमारे देश मे स्थान प्रकर्ष से आहार नियम बने है, उनकी उपयोगिता निश्चीत है, भले हम शास्त्र की कसौटि पर उसे नही समझ सकते है
[6/16, 7:26 AM] Dr. Suneet Arora, Ludhiana:
In my practice, I have seen numerous patients with allergic rhinitis/ sneezing/ chronic sinusitis who have dahi/curd phobia.
A couple of spoons curd in, and sneezing/ palate itch/ sinusitis aggravated within minutes. Curd has a contraindicated list, until it is _saatmya_, where one sees some people enjoying curd in night, in monsoon, without any symptoms of complications.
I remember a colleague who was just diagnosed with diabetes, and he refused to have curd in lunch, speaking shlokas about its harm.
Secondly, the takra of ayurveda is rarely seen at homes. People mix water in dahi (fresh/sour), add some spices, and take a digestive drink.
Practically, takra / jeera chaach is a good anupaan in gastro diseases.
[6/16, 7:43 AM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
यह अच्छा विश्लेषण है समन्वयात्मक भी है और सिद्धांतानुमत भी है
[6/16, 7:45 AM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
तक्र में और छाछ में भी अंतर है। यह विश्लेषण भी उत्कृष्ट है
[6/16, 7:48 AM] Dr. Suneet Arora, Ludhiana:
Also, the _kheera_ we get in market are _desi_ (probably organic) and regular (probably GMO).
The _guna-dharma_ of GMO food is yet to be documented.
In dahi loving regions like Punjab and Gujarat, the _desh-kaal_ rules may create variations in general sayings.
[6/16, 7:48 AM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
१. मैंने तो स्वयं ने स्पष्टीकरण चाहा था और अब आप मुझसे स्पष्ट कराना चाह रहे हैं यह कहां तक उपयुक्त है
२. वैद्यराज सुभाष शर्मा जी ने दही के साथ खीरे का रायता यह उपर्युक्त लेख में लिखा था अब स्वयं लिख रहे हैं कि मैं पतली छाछ के साथ रायता बना कर लेता हूं तो इसमें दधित्रपुष वाली बात तो स्वत: ही समाप्त हो गई।छच्छिका शीतला लघ्वी है जबकि दही उष्ण है एवं कफपित्तकृत् है अत:उपयोगी होते हुए भी विधिं हित्वा दधिप्रिय नहीं होना चाहिए।
४. ग्रीष्म में दही का अपने स्वयं के स्वरूप में सेवन करना निषिद्ध है संस्कार करके सेवन कर सकते हैं।
५.प्राचीन आचार्यों ने इसे विरुद्ध आहार में नहीं बताया, केवल व्याकरण के ग्रंथ में यह उल्लेख है पर यह विचारणीय तो है।
६.कोई भी विकृति सतत अभ्यास से होती है चरक विमान एक, लेकिन इससे विरुद्ध द्रव्य के प्रयोग की छूट नहीं मिल जाती
७. बहुत सी ऐसी परिस्थितियां हैं जिसमें विरुद्धं वितथं भवेत् भी कहा गया है इससे भी विरुद्ध आहार के प्रयोग की छूट नहीं मिल जाती।
८. किसी व्यक्ति के विरुद्ध आहार का सेवन करने पर भी यदि विकाराजनन है तो वह उसके विकारविघातकर भाव का कार्मुकत्व है ।इसका तात्पर्य यह हुआ कि उसकी व्याधिक्षमत्व की संचित निधि तो खर्च हो ही रही है
९. वर्तमान काल में खीरा ग्रीष्म ऋतु में मिलने लगा है लेकिन प्राचीन काल में ऐसा नहीं था।
१०. ऋतु क्षेत्राम्बुबीज की दृष्टि से खीरे के बीजवपन का काल जुलाई का महीना है और यह अगस्त के अंत तक फल देता है।११. तब तक दही के प्रयोग का निषेध काल प्रारंभ होने को रहता है
१२. खीरे के लघु फल पित्तापह हैं जबकि पक्व फल उष्ण एवं पित्तल हैं
१३. इस संबंध में बहुत कुछ लिखा जा सकता है पर समासत: इतना ही पर्याप्त है कि यदि प्रचलन में वृद्धवैद्यव्यवहार के आधार पर व्याकरणशास्त्रियों ने इसे निषिद्ध बताया है तो इसे दही के साथ क्यों लें
१४. लघु और नव फल का रायता बनाकर लेने में हो सकता है कि कोई नुकसान ना हो पर जो सिद्धांतत: प्रमाणित है और नवीन संदर्भ में जब तक पुन: प्रमाणित नहीं हो जाता तब तक दही के साथ क्यों ले
१५. संस्कार करके तो कुछ भी कर सकते हैं पर दही और त्रपुस को तो निषिद्ध ही मान लें।
१६. विशेष विश्लेषण तो द्रव्य गुण वालों और स्वस्थवृत्त वालों को करना चाहिए।
१७. मैं प्राचीन शास्त्र के तो और भी बहुत से विश्लेषण प्रस्तुत कर सकता हूं पर आधुनिक विज्ञान के विश्लेषक भी इस पर विचार करें कहते हैं कि खीरे में भी पोटेशियम पर्याप्त होता है और दही में भी पोटेशियम पर्याप्त होता है यह भी सुनते हैं की खीरे के अधिक प्रयोग से हाइपरकलेमिया होता है। जब दोनों एक साथ मिल जाएंगे तो हानि नहीं करेंगे क्या? अब इसके आगे का विश्लेषण तो अन्य सभी विद्वानों से अपेक्षित है
[6/16, 7:49 AM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
इसमें एक और निवेदन है आगे का विचार विश्लेषण आप सभी लोग करें मुझे सिद्धांतों को बोलने में समय नहीं लगता लेकिन टाइप करने में समय लगता है इसमें भी 2 घंटे लगे हैं इसलिए आगे के समय का सदुपयोग आप लोग स्वयं करें
[6/16, 8:23 AM] Prof. Shantanu Das:
I hv seen in many case suffered by Anurjata cause , symptoms with sneezing....,when they hv taken Dahi (Curd) they fell the problems,but when they hv taken Takra.....no symptoms seen ........ perhaps in both Dahi & Takra....abhisyandi the chief factor (Dahi)as Takra is laghu so no suggestive symptoms (without ice).. .....seen .....
[6/16, 8:24 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
*सादर प्रणाम गुरु जी, आपके इस प्रस्तुतीकरण से विषय वस्तु स्पष्ट हो चुकी है, दधि त्रपुस साथ में निश्चित रुप से नहीं लेना है, त्रपुस में पाये जाने वाला पोटेसियम मूत्रवह स्रोतस के लिये उचित है, मूत्राश्मरी को निकालने में उपयैगी है, परंतु दधि में अतिरिक्त पोटेसियम है, तथा संयुक्त रुप में लेने पर hyperkalemia होना सम्भाव्य है, अत एव त्रपुस दधि साथ लम्बे समय तक देने पर* :
*Hyperkalemia decreases proximal tubule ammonia generation and collecting duct ammonia transport, leading to impaired ammonia excretion that causes metabolic acidosis*.
*आचार्य महर्षि गण के कथन में कि त्रपुस दधि साथ लेने से ज्वरोत्पत्ति होती है , कोई संदेह नहीं है , अपितु साथ में न लिया जाना ही युक्तियुक्त है*
*अतिरिक्त ज्ञान वृद्धि हेतु हम आपके आभारी है*
[6/16, 8:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*सादर प्रणाम सर, आपके लिखे वचन ज्ञानामृत वर्षा है।आनंद आ गया ।*
[6/16, 8:36 AM] Prof. Satyendra Nrayan Ojha:
*वैद्यराज सुभाष शर्मा जी संस्कारित करके प्रयोग मे लाते है , अत एव उनके दृष्टिकोण से स्पष्ट किया जाना भी अपेक्षित है , सादर प्रणाम वैद्यराज सुभाष शर्मा जी*
[6/16, 8:43 AM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
वह तो स्पष्ट ही है अब इसमें कोई आवश्यकता नहीं है उन्होंने तो स्पष्ट कर ही दिया कि छच्छिका के साथ प्रयोग करते हैं, उनका व्याधिक्षमत्व एवं अन्य पथ्याहार प्रयोग स्वयं श्रेष्ठ है अतः रोग नहीं होता, पर व्याधिक्षमत्व की संचित निधि तो खर्च होती ही है।न लें तो ज्यादा श्रेष्ठ है क्योंकि छच्छिका में भी दधि के कुछ तत्त्व तो आते ही हैं। वैसे विश्लेषण हो जाए तो अच्छी बात है
6/16, 8:45 AM] Dr. Rajaneesh Gadi:
पीनसे चातिसारे च शीतके विषमज्वरे
अरुचौ मूत्रकृच्छे च कार्श्ये च दधि शस्यते.. च सु २७/२२६
यह गलत है क्या ? दही अगर चतुर्विध पीनस का प्रभावात् भेषज है.. तो उसे खाने से पीनस कैसे होगा
[6/16, 8:47 AM] Vadiyaraj Subhash Sharma Delhi:
*जी सर, कोई रोग नही पर व्याधि क्षमत्व की संचित निधि का अपव्यय तो हो ही रहा है, अति श्रेष्ठ वचन। इसे व्यवहार में भी लायेंगे ।*
[6/16, 8:47 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
*जी , निश्चित रुप से व्याधि प्रतिबंधकत्व बल में क्रमश: ह्रास होकर potassium homeostasis में बदलाव संभव है जो की व्याधि उत्पत्ति में कारणीभूत हो सकता है*
[6/16, 8:48 AM] Dr. Rajaneesh Gadi:
न नक्तं दधिभुंजित .. यह श्लोक न वेगान्धारणीय अध्यायमे .. अध्याय विषय, पूर्वोक्त श्लोकादि . पश्चात श्लोकादि संदर्भ छोडकर अचानक आया है.. इसी लिए बहुत सारे विद्वान इसे प्रक्षिप्त मानते है.. कृपया गुरुजन इसका स्पष्टीकरण खरे
[6/16, 8:49 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
*देश , काल , प्रकृति आदि का ध्यान देना भी अपेक्षित है , दधि को दोष देना शास्त्र सम्मत नहीं है , नमस्कार वैद्य राज रजनीश जी , मैं आपसे सहमत हूं , धन्यवाद*
[6/16, 10:23 AM] Dr. Pawan Madaan:
प्रणाम सर !
सर्वदा की भांति हमारे लिए उत्तम मार्गदर्शक विवरण।
आपके बहुत बहुत धन्यवाद गुरुवर।
मजिने ये पाया है के आप अपने चिकित्सा के पाठ्य में broccli का प्रयोग भी करवाते है। मैने घर मे कई बार ये सब्ज़ी के रप में खाई है पर ज्यादातर मुझे ये रूक्ष प्रतीत होती है।
आप इससे क्या गुण कर्म होने की अपेक्षा रखते हैं?
क्या ये रक्तशोधक का कार्य करती है?
कुंदरू मैने नही देखा।
ये चुकंदर टमाटर गाजर पालक हर धनिया का सूप
परंतु सर मेने ये जान के हमे प्रत्येक मौसम में उसी मौसम के शाकादि कहने चाहिए। विपरीत करने पर मैने बहुत रोग होते देखे है, जैसे मटर का गर्मियों में, बैंगन का सर्दियों में इतियादी प्रयोग।
आपने यह गाजर के जूस advice किया। इसलिए दिमाग मे ये बात है। हो सकता है मेरा सोचना गलत हो ।
कृपया मार्गदर्शन करें।
[6/16, 10:33 AM]Dr. Pawan Madaan:
यहां मुझे *व्यास* शब्द का एक नया भाव मीका जैसा के आपने बताया व्याधि का तीव्रता से फैलने वरना मैं इसे सिर्फ dilatation समझता था।
तिक्त रस का बयान वायु पर सीधा प्रभाव।।।
कटु तिक्त कषाय रस का judicial प्रयोग।
[6/16, 10:40 AM]Dr. Pawan Madaan:
सुभाष सर ! आपकी हर एक एक बात को पढ़ने में बहुत आनद आ रहा है।
मैं अभी तक ये ही समझ के जब पित्तज रोगों का शीतादि से उपशय न मिले तो उसको रक्तज रोग माने ये के उपश्यात्मक निर्णय रहा है। जैसा के विषधिशोणितीय में बताया गया है।
यहां *'पित्त का न बदलने वाला सबरूप और कर्म पूर्वरूप या आंशिक रूप में मिले'* मुझे इस वक्तव्य कक और भी अधिक समजहने की जरूरत लगती है?🙏
शोणितज
शोणिताश्रय रोग
धन्यवाद !
[6/16, 10:46 AM]Dr.Pawan Madan :
प्रणाम गुरुदेब
दही में खीरा डाल कर रायता बहुत बार खाया है। ऐसा अनुभव तो नही हुआ
बहैत बार संयोग से गुण बदल भी जाते हैं
[6/16, 10:51 AM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
आप तो और भी बहुत से विरुद्ध आहार हैं उनको करिए फिर भी आपके गड़बड़ नहीं होगी तो क्या औरों के भी नहीं होगी
[6/16, 10:53 AM] Dr Shashi Jindal, Chandigarh :
In this season I blend whole curd with whipper blade of hand blender, then use it . It does not show its abhishyandi gun, because globules of curd break into small molecules of takra.
[6/16, 11:01 AM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
डॉक्टर मदान जी आपकी अग्नि तीव्र है इसलिए विरुद्धं वितथम् भवेत् !
[6/16, 11:02 AM] Dr. Pawan Madaan :
प्रणाम !
[6/16, 11:12 AM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
यहां देखिए आचार्य कितने सयाने हैं कितने परफेक्ट हैं यहां जिस क्रिया का प्रयोग किया है वहां भवति नहीं कहा यदि यह कहते तो यह अर्थ हो जाता कि निश्चित रूप से ऐसा हो जाता है । लेकिन भवेत् पद का प्रयोग किया है यह क्रिया पद बताता है की विरुद्ध भी बेकार हो जाना चाहिए । इसलिए जरूरी नहीं कि सर्वदा ही विरुद्ध आहार आपके निरर्थक हो जाएगा कभी-कभी हानि भी कर सकता है ।
इसलिए आचार्य को कोई दोष ना दें इसलिए आचार्य ने भवेत् कहा है । ये बहुत छोटी-छोटी बातें हैं पर शास्त्र को गहराई से पढ़ें तो इनके गंभीर अर्थ प्रतीत होते हैं l
[6/16, 11:17 AM] Prof. Arun Rathi, Akola:
*प्रणाम गुरुवर*
[6/16, 11:27 AM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
क्यों जी मैं ही क्यों ?आप विश्लेषण करिए, आप खाते हैं, मैं तो खाता ही नहीं ! मैं तो शास्त्र के वचनों का परिपालन करने वाला व्यक्ति हूं, महर्षि सुश्रुत कहते हैं कि अमीमांस्य: कथंचन । जो आचार्य ने वाक्य कह दिया उसकी मीमांसा क्यों ? हां सूक्ष्मानुसंधान पूर्वक परिणाम में अंतर आता है तो उस सिद्धांत को संपूर्ण प्रक्रिया के साथ समुपस्थापित करिए। केवल दो टुकड़ों को रगड़ देने से द्रव्य का पित्तकारक भाव जोकि उसम संपूर्ण द्रव्य में स्थित रहते हैं, वह कैसे निकल जाएंगे। यह कैसे संभव है लोग कहते ऐसा करने पर कड़वापन नहीं आता। फिर भी जो द्रव्य गुण जानते हैं वह इसका विश्लेषण करें हो सकता है कि आपकी बात सही हो
[6/16, 11:43 AM] Vadiyaraj Subhash Sharma Delhi:
*हार्दिक आभार सर, आपका हर व्यक्तव्य बहुत कुछ सिखाता है। आपसे लेखन शैली, विचारों की अभिव्यक्ति, अपने पक्ष को किस प्रकार से कहना आदि आदि । मेरे मत से आप एक असाधारण विद्वान नही अपने आप में ही एक पूर्ण संस्थान (institute ) हैं।तभी आपको जितना पढ़ा या सुना जाये तृष्णा और अधिक बढ़ जाती है।*
नमस्कार !
[6/16, 12:02 PM] Vadiyaraj Subhash Sharma Delhi:
*पवन जी नमस्कार, कुछ दिन पूर्व मैने लिखा था कि हमें अपनी इन्द्रियों को जागृत करना चाहिये, अनेक स्थानों पर जो काम technology और मशीन करती है वो हम भी कर सकते है क्योंकि मशीनें भी तो हमारे जैसे लोगों ने ही बनाई हैं।कभी भी घर में जब भी फूल गोभी, बंद गोभी, मूली या broccoli बने तो घ्राणेन्द्रिय का अनुभव लें, इन सब में एक typical & similar गंध है और यह गंध sulpher अर्थात गंधक की है। हमें इस गंधक का उपयोग कैसे करना है आना चाहिये।*
*शुंठि, मरिच, पिप्पली, जायफल, लवंग, जावित्री आपके यहां गरम मसाले के रूप में गर्मियों में भी दाल-शाक में प्रयोग होती है, बारह महीने ही होती हैं क्योंकि यह औषध भी हैं और आहार भी। हमारे यहां औषधियों गुणों से आहार को भी औषध बना दिया जाता है और कहीं अनुपान का नाम दे कर भी।बकरी का प्रिय आहार बेर की झाड़ी में कांटों के बीच लगे पत्ते है उसमें से वो अपना आहार निकाल लेती है और कांटा उसे छूता भी नही , बस ये कौशल चिकित्सा में भी वैद्य को आनी चाहिये ।*
[6/16, 12:06 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*चुकंदर, पालक, गाजर और अल्प टमाटर के सूप से हम बिना लौह या मंडूर दिये भी HB% तीन सप्ताह में 8 से 11 तक ला देते हैं दिन में दो से तीन बार पिलाकर , रोगी को अश्मरी ना हो इसके लिये भोजन में तब मूली का प्रयोग साथ कराते हैं और DM 2 रोगियों में b sugar ना बढ़े तो मेथिका फांट शीत कर के दो समय पिलाते है तो b sugar भी नही बढ़ती।*
[6/16, 12:14 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*पित्त का ना बदलने वाला स्वरूप आदि .... पवन जी आपको ये सब ज्ञान है तो, ये तो आपके लिये अति साधारण बाते है।*
[6/16, 12:25 PM] Prof. Shreekrishna Khandal:
श्रद्धेय गौड़ सर ने सूक्ष्म रूप से एक बात कही जिसे सुभाष जी ने रेखांकित भी किया था वह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि
व्यभिचारी विरुद्धाहार रोग तो तुरंत नहीं करते किन्तु संचित व्याधिक्षमत्व का क्षय अवश्य करते हैं चरक में इसी बात का सू 26/85 में उल्लेख है
त्रपुष दधि का संदेश भी ऐसा ही है जो अतर्क्य है !
[6/16, 12:27 PM] Prof. Arun Rathi, Akola:
*विरुद्धआहार : Incompatible Foods.*
*यत्किञ्चिदोषमुत्क्लेश्य न निर्हरति कायतः |*
*आहारजातं तत् सर्वमहितायोपपघ्यते ||*
च .सू 26/85.
जब कोई आहार या औषधी द्रव्य सेवन करने के उपरान्त , वातादि दोषो को स्वाभाविक स्थान पर आस्त्रावित अर्थात उत्क्लेशीत करते है , पर उन्हे शरीर से बाहर नही निकालते , ऐसे सभी द्रव्य अहितकर होते है | इन्हे ही विरुद्ध आहार कहा जाता है | इस तरह से आचार्यो ने 18 प्रकार के विरुद्ध आहार के प्रकार बताये है |
Here the issue is that kind of sustained दोषोत्क्लेश due to अनुक्त विरुद्धाहार which leads to cause अहित ( रोग) in the long run.
*विरुद्धाहार means the state of dietary indiscrimination which is not apparent but results from food incompatibility with the intrinsic factors like अग्नि, प्रकृति, सार etc and does not cause सद्यरोग, but low grade and long term accumulation of उत्क्लिश्ट दोष।*
*Such pathogenesis is seen in autoimmune diseases.*
1. देश विरुद्ध : (Against The Habitat)
2. काल विरुद्ध : (Against The Time Or Season)
3.अग्नि विरुद्ध : (Against The Digestive Enzymes Or System)
4. मात्रा विरुद्ध : (Against The Quantum)
5. सात्म्य विरुद्ध : (Against The Adaptability)
6. दोष विरुध्द : (Against The Doshas)
7. संस्कार विरुद्ध : (Against The Preparation Method Or Rules) 8. वीर्य विरुद्ध : (Against The Potency)
9. कोष्ठ विरुद्ध : (Against The Bowel Habits)
10. अवस्था विरुद्ध : (Against The Physiological Status) 11. क्रम विरुद्ध : (Against The Order) 12. परिहार विरुद्ध : (Against The Things To Be Avoided) 13. उपचार विरुद्ध : (Against The Observance) 14. पाक विरुद्ध : (Against The Proper Cooking Methods) 15. संयोग विरुद्ध : (Against The Combination) 16. हदय विरुद्ध : (Against The Palatability)
17. सम्पद विरुद्ध : (Against The Quality Of Food Stuff) 18. विधि विरुद्ध : (Against The Dietary Rules)
[6/16, 12:32 PM] Dr. Pawan Madaan:
जी गुरु जी
मेने बस रसनेन्द्रिय की तरफ ध्यान दिया। अब से घ्राणेन्द्रिय का भी ध्यान रखूंगा l
जी।।।
आपका विशेष मार्गदर्शन बहुत आनंददायक रहता है।
[6/16, 12:40 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*सादर प्रणाम सर, एकदम उचित कथन, चरक में 28/6 में बहुत अधिक हित आहार लेने वाले लोगों पर कहा है कि हित आहार वाले भी रोगी और निरोगी दोनो होते है और जो अहित आहार सेवन करने वाले वो निरोगी भी और रोगी दोनो हो सकते हैं। आगे आत्रेय अग्निवेश की शंका का समाधान करते हुये पर स्पष्ट करते हैं कि अहित आहार तत्काल दोष कारक नही होता, ना ही समस्त अहित आहार दोष वाला होता है। अहित आहार जो देश, काल, संयोग, वीर्य, प्रमाण और अतियोग, विरूद्ध चिकित्सा से, गंभीर धातुओं में पहुंचा हो, बहुत समय से सेवन किया जा रहा हो आदि कारणों से अहित करेगा।*
[6/16, 12:46 PM] Prof. Sanjay Lungare:
*न मत्स्यान् पयसा सहाभ्यवहरेत्,*
च सू २६/८२
मत्स्य कभी भी दुग्ध के साथ नहीं लेना चाहिए।
*उभयं ह्येतन्मधुरं मधुरविपाकं महाभिष्यन्दि*
*कस्मात्? उभयमित्यादि। हि यस्मादुभयं मत्स्याश्च पयश्चेत्युभयं रसे मधुरं मधुरविपाकाच्च महाभिष्यन्दि भवति ।*
*रसपाकतस्तुल्यानां संयोगेऽतिमात्रं तद्समानं भवति।* *तेषां संयोगाद् तथा अतिमात्रं विरूद्धत्वम्।*
पय तथा मत्स्य यह समान रसपाक तुल्यता कारणवश संयोगोपरान्त *अतिमात्रा विरूद्ध* की श्रेणी में आते हैं। महाभिष्यन्दि के लिए यही *अतिमात्रा विरूद्ध* कारण होता है।
इसी को द्रव्य विरोध कहा है।
*एतच्च द्रव्यप्रभावादेव विरोधि।*
अभिष्यन्दि गुण से मार्गावरोध उत्पन्न होता है।
*महाभिष्यन्दित्वान्मार्गोपरोधाय च। च सू २६/८२*
*स्रोतसां मार्गमावृत्य मन्दीकृत्य हुताशनम्।* सु सू ३९/१७
मन्दाग्नि तथा स्रोतोरोध की ज्वर सम्प्राप्ति में मुख्य भूमिका होती है।
यही अभिष्यन्दत्व पुनरावर्तक ज्वर के लिए भी कारणीभूत होता है।
*गुर्व्यभिष्यन्द्यसात्म्यानां भोजनात् पुनरागते।* च चि ३/३४२
अब दधि तथा त्रपुस के संदर्भ में,
*दधि तु मधुरं सृष्टमूत्रपुरीषं गुर्वम्लमभिष्यन्दि श्लेष्मपित्तशोफवर्धनं , त्रिदोषकृन्मन्दजातम इति।* डल्हण सु सू ४५/६५
*महाभिष्यन्दि मधुरं कफमेदोविवर्धनम्।* सु सू ४५/६६
*मन्दकं दध्यभिष्यन्दकरानां* च सू २५/४०
*ज्वर--- । चोग्रा विधिं हित्वा दधिप्रिय:।* च सू ७/६१-६२
विधिविरूद्ध या घृत,शर्करा,मुद्ग,क्षौद्र, आमलकी रहीत अगर दधि सेवन होता है तो ज्वरादि व्याधियां उत्पन्न होती है।
*त्रपुस* संहिताओं में वर्णित दधि भूञ्जनार्थ द्रव्य निश्चित नहीं है।
अब त्रपुस,
*सूर्यवल्लीत्रपुसैर्वारूककर्कारूकूष्माण्डप्रभृतीनां तैलानि मधुराणि मधुरविपाकानि-- शीतवीर्याण्यभिष्यन्दीनि सृष्टमूत्राण्यग्निसादनानि चेति* सु सू ४५/१२०
*फलोद्भवानि तैलानि यान्युक्तानीह कानिचित्।*
*गुणान् कर्म च विज्ञाय फलानीव विनिर्दिशेत ।* सु सू ४५/१२८
*---- तथा त्रपुसचीनाकचिर्भिटं कफवातकृत्। भेदी विष्टम्भ्यभिष्यन्दि स्वादुपाकरसं गुरू।* अ सं सू ७/१२३
१. दधि भुञ्जन कुछेक द्रव्यों के साथ अभिष्ट है।
२. अन्यथा ज्वरादि व्याधि अवश्य संभव है।
३. व्यापन्न दधि ज्वर का हेतु होता है।
*व्यापन्नाम्बुसुरादधिकन्द*
४. दधि तथा त्रपुस दोनों ही रसपाकतुल्य है तथा दोनों ही अभिष्यन्दि है। इसी कारण दोनों का संयोग अतिमात्रविरूद्ध को उत्पन्न
करता है। दोनों गुणों से अभिष्यन्दि है तथा संयोगोपरान्त महाभिष्यन्दि होते हैं।
५. महाभिष्यन्द ➡️ स्रोतोरोध
दधि + त्रपुस ➡️ व्यापन्न दधि ➡️ ब्रम्हदेवस्त् सन्निपात ज्वर हेतु ➡️ ज्वर
इसीलिए वल्लीफल दुग्ध सहित वर्ज्य है।
*वल्लीफल--- नैकध्यमश्नीयात् पयसा।* सु सू २०/८
इस प्रकार हमें दधि तथा त्रपुस का संयोगात् अतिमात्रा विरोध समझना चाहिए।
६. *सहेत्याभिधानं केवलाम्लादियुक्तस्यैव विरोधितोपदर्शनार्थं तेन अम्लपय:संयोगे गुडादिसंयोगे*
*अनेकद्रव्यसंयोगादत्र विरोधिनाम्अविरोध।*
इस न्याय के आधार पर हो सकता है कभी कभी इतर द्रव्य मिलाने पर यह विरोध नहीं रहता तथा ज्वर की उत्पत्ति नहीं दिखाई देती हों।
[6/16, 12:51 PM] Prof. Banwari Lal Gaud Sir:
बिल्कुल सही कहा आपने पर तत्काल नहीं करते अर्थात अभिव्यक्त नहीं करते, विकृति का प्रारंभ तो उसी समय से कर देते हैं , इसे चक्रपाणि ने स्पष्ट किया है अन्यथा सद्य: अपार्थक हो जाता। अतः वह विकृति तो करेगा ही करेगा जैसा कि खांडल साहब ने कहा कि वह अन्य हेतु की अपेक्षा करते हुए वहीं पड़ा रहेगा और इसी को चक्रपाणि की व्याख्या में आगे चिरस्थित की व्याख्या में यह सब कुछ और भी अधिक स्पष्ट कर दिया गया है।
रसरी आवत जात पर सिल पर होत निशान।
जिस दिन रस्सी शिला पर पड़ती है उसी दिन से निशान करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है अब यदि उसमें निरंतरता नहीं होती तो वह अभिव्यक्त नहीं होगी अन्यथा विकृति तो पहले दिन से ही प्रारंभ हो जाएगी
[6/16, 12:54 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
*द्रव्यगुण विशेषज्ञ के विश्लेषण पश्चात् त्रपुस+ दधि प्रयोग प्रशस्त नहीं है , सिद्ध है !*
[6/16, 1:56 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Delhi:
*अब काय सम्प्रदाय विद्वानों की सर्व सम्मति से से यह सिद्धान्त सिद्ध हो गया है कि खीरे और दधि का प्रयोग आयुर्वेद मतानुसार निषिद्ध है और कालांतर में व्याधि क्षमत्व का ह्रास करता है।*
[6/16, 1:57 PM]Prof. Lakshmikant Dwivedi :
Pranchan lagate hai, caku se 3-4 minat Gharshan se ,(Shukra sharir vyapt hote huve maithunant me virya shkhalsn ki tarah ) swet zaagha nikalte hai. Unhe prathak krate tatha jo dadhi ka mathit- ghol milate hain, veshvar (kashmard/garammashala ) lavanadi milane se .chonk ( krata bana ) laga dete.vasansanskarit (dhungarte) "Rahta" sAkshat jwar nahi hoga .
Vyakaran ka Siddhant to Dwivacan ko ingit karne keliye udaharan hai vaa bahuvachan ke liye ,vicarain.
Sanskar ka gunadhan me mahatva hai.
Ghrita- madhu jab dravyantar samyoga se doshmukta ho jate ,to dadhi-trapush me kyo nahi,
Dadhi me "mandak" avastha bheda se abhishyandi bataya. "Rayta" banane ke kaam nahi liya jata.
[6/16, 2:04 PM] Prof. Shrikrishna Khandal:
भैषज्य कल्पना की युक्ति से जब विष भी अमृत हो जाता है तो फिर दधि त्रपुष तो दुर्बल सा निदान है लक्ष्मी कान्त जी की बात वैयाकरणो के बाद हुये आविष्कार से निस्यूत है अतः मान्य होनी चाहिए
[6/16, 2:15 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
**विश्लेषण अवलोकनीय है तथा आचार्य श्रेष्ठ की स्वीकृति/अस्वीकृति की प्रतिक्षा* .
*आचार्य श्रेष्ठ खाण्डल गुरु जी ने अपनी स्वीकृति दे दी है .*
*श्रीयुत् पाण्डेय जी विचारमंथन पश्चात अपने मत को स्पष्ट करेगें ऐसा प्रतित होता है*
[6/16, 2:31 PM] Prof Giriraj Sharma:
दही ज्वर कारक है एवं तक्र विषम ज्वर में पथ्य,,,,,
संस्कारजन्य गुणान्तर के ऐसे बहुत से उद्धरण संहिताओ में मिलते है ।
[6/16, 3:14 PM] Prof. Satyendra N. Ojha:
अगस्त्य हरीतकी में तुल्य मधु घृत होते हुए भी विरूद्ध नहीं है।
*-- तुल्यमानत्वेऽपि चात्र घृतमधुनोर्द्रव्यान्तरयोगस्य विद्यमानत्वात् न विरूद्धत्वम्; द्रव्यान्तरयोगे सति मधचघृतयोस्तुल्यमानताऽपि न विरूद्धा न भवति।*
च चि १८/५७-६२ पर चक्रपाणि।
च्यवनप्राश की टिका में चक्रपाणि लिखते हैं।
*अत्र षट्पलत्वेन समयोरपि मधुसपर्पिषोर्द्रव्यान्तरयुक्तत्वेनाविरूद्धत्वम्।।*
कुछ अन्य उदाहरण भी है,
१. यद्यपि "त्रीणि द्रव्याणि नात्युपयुञ्जीत पिप्पलीं क्षार लवणम्" (वि.अ.१) इत्युक्तं, तथाऽपीह *द्रव्यान्तर संयुक्तानां* पिप्पलीनामभ्यासो *न विरुद्ध:*
च.चि. १/३ ३२-३५ पर
२.पयसेति तृतीययैव सहार्थे लब्धे पुनः सहेत्यभिधानं केवलाम्लादियुक्तस्यैव विरोधितोपदर्शनार्थं; तेन, *अम्लपय:संयोगे गुडादिसंयोगे* सति *विरुद्धत्वं न दुग्धाम्रादीनाम् !*
चक्रपाणी च.सू.२६/८४
३. *क्षीररसोनयोश्च यद्यपि सहोपयोगो विरूद्ध:, तथाऽपि व्याधिमहिम्ना महर्षिवचनादविवाद:।*
चक्रपाणि च चि ५/९४-९५ पर
उपरोक्त उदाहरण यह दर्शातें है कि यद्यपि दधित्रपुस संयोग का विरूद्धत्व शास्त्रसंम्मत है, अपितु लोकव्यवहारक्रियमानत्वात् *द्रव्यान्तर संयोग, संयोगमहिम्ना तथा व्याधि या अवस्था महिम्ना* आदि भावों का भी ध्यान रखना चाहिए ।
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
Presented by
Vaidyaraj Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
ShrDadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
B. A. M. S.
ShrDadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by
Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
Nice explanation sir
ReplyDeleteCollected many pearls of experience.Thanks🙏
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