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CLINICAL-AYURVEDA PART- 13: 'Laghu-guna' (Lightness) - Clinical aspect by Vaidyaraja Subhash Sharma

[10/12, 2:16 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*लघु गुण- आयुर्वेद की चिकित्सा में कैसे apply करें, लघु गुण क्या है और चिकित्सा में इसकी clinical importance ?*

*गुरू गुण को लघु गुण में परिवर्तित कर DM, मेदोरोग, lipid profile को कैसे control करें इस पर before and after treatment latest investigation reports अगर समय मिला तो हम कल present करेंगे...*

*रोगी 24 वर्षीय / unmarried/ हिन्दी टी.वी सीरियल अभिनेता। जब हमारे पास चिकित्सा के लिये आया था तो गुरू गुणाधिक्य 
'सादोपलेप.........
.....गुरूस्तर्पण..' सु सू 46 
यह कफ प्रधान, मेद धातु वृद्धि, अवसाद, गुरूता, आलस्य, स्वेदाधिक्य आदि लक्षणों से युक्त था और इसका body wt. पूरा 100 kg. था। 
देखिये चित्र 👇🏿*



[10/12, 2:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*यह रोगी मेदस्वी था और टी.वी.सीरियल में आने के लिये इसकी चिकित्सा 8 महीने चली और इसका wt. 40 kg. कम हो कर 60 kg पर आ गया, शरीर में 'लंघनं देह लाघवम्' और दोष-दूष्यानुसार सम्प्राप्ति विघटन किया गया गुरूता से लघुता अर्थात लघु गुण वृद्धि होने पर इसका शरीर अब इस प्रकार है...* 👇🏿

[10/12, 2:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

गुरू और लघु, स्थूल और कृश एक दूसरे एक दूसरे के विपरीत है, साधारण भाषा में गुरू या स्थूल को भारी एवं कृश या लघुता को हल्कापन शब्द से संबोधित किया जाता है। आपका इन दोनों गुणों से युक्त शरीर अपने आसपास के वातावरण में बहुत मिल जायेंगे इन्हे अपने पास ही ढूंडिये ये आपके हर पल मिलेंगे और इसके लिये आयुर्वेद की शब्दावली को जीवन मे और व्यवहार में प्रयोग करें। 

[10/12, 2:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

इन गुणों का ज्ञान और इनकी clinical importance  का ज्ञान चिकित्सक को होना परम आवश्यक है क्योंकि ये वर्तमान और भविष्य में आ सकने वाली संभावित व्याधियों की तरफ दिशा निर्देश भी देते है। क्योंकि 
'युक्तिमेतां पुरूस्कृत्य त्रिकालां वेदनां भिषक्,हन्तीत्युक्तं चिकित्सा तु नैष्ठिकी सा विनोपधाम।' 
च शा 1/94 
वैद्य त्रिकाल के रोगों की चिकित्सा करता है अर्थात वैद्य त्रिकालदर्शी होता है। अगर आप अपनी इन्द्रियों को जागृत कर लें तो अनेक रोग कुछ विशिष्ट रोगियों  से मिल कर शरीर के दोष, धातु और आकृति देख कर ही बता सकते हैं, जैसे कि आपको fatty liver या  आधुनिक मधुमेह है। इन सब को जानने के लिये आपको चरक विमान स्थान और इन्द्रिय स्थान का अध्ययन कर के अपनी ज्ञानेन्द्रियों को सक्षम बनाना पड़ेगा।*

*अपनी इन्द्रियों को develop कर के आप भी किसी सीमा तक इन्द्रिय सामर्थ्यवान बन सकते हैं, इनके सहयोग से आप बहुत से विशिष्ट कार्य कर सकते हैं जो साधारण मनुष्यों से अलग हट के होते हैं  और करें कैसे ?   अपनी इन्द्रियों को जागृत करें, अगर आप चाय पीते है है तो देखेंगें fresh milk की चाय में अलग स्वाद होगा और दुग्ध पुराना होते ही अलग स्वाद देगा, किसी भी खाद्य पदार्थ में मसालों (spices) का taste अलग अलग मिलता है लवंग, काली मरिच, हिंगु, जावित्री, जीरक, तेजपत्रादि एक साथ मिलाकर देने पर भी इनकी जिव्हा में पृथक सत्ता का अनुभव होता है, कढ़ी, चना, राजमा को दोबारा गर्म कर के सेवन किया जायेगा किया जायेगा तो रसास्वाद बदल जायेगा ये सब रसनेन्द्रिय के विषय हैं जिसका संबंध जल महाभूत से है अत: रसनेन्द्रिय को जागृत करें, घ्राणेन्द्रिय का उपयोग करना सीखें पुरूषों के शरीर की गंध, आहार द्रव्यों की गंध का अनुभव करें, किसी स्थान पर जायें तो अनुभव करें वहां की गंध कि ये अनुकूल हैं या प्रतिकूल ? गंध का अनुभव अर्थात आप अब पृथ्वी महाभूत के सान्निध्य में है । रोगी को देखिये DM type 1 रोगी,  अनेक रोगियों की त्वचा और रूप देखते ही बता सकते हैं कि यह diabetic है, कफावृत उदान ( hypothyroidism) दूर से देखते ही आप अनुभव कर सकते है, यकृद्दाल्युदर, वृक्क दुष्टि होने पर रोगी की आकृति चक्षु द्वारा देखते ही आप अग्नि महाभूत से जुड़ गये है, इनको समर्थ बनाओ क्योंकि इन्ही  और अन्य इन्द्रियों से काम ले कर पंचतत्वों से लय जोड़नी है इन पंचभूतों की imbalancing ही तो रोग है और चिकित्सा भी इन्ही को जानकर की जाती है। त्रिकालदर्शी बनने का ये प्रथम पढ़ाव है कि जहां आप स्थित हैं मन और बुद्धि भी वहीं हैं जो उस हर क्षण और कर्म को अनुभव कर रही है जो उस समय हो रहा है और वो मस्तिष्क में record हो रहा होता है जिसे स्मृति समय आने पर recall कर लेती है।*

*दोषों का चय, प्रकोप और शमन व्याधियों का भूत, वर्तमान और भविष्य भी तो बता रहा है कि संभावना है। गुरू गुणाधिक्य स्थौल्य अनेक भविष्य में आने वाले संभावित रोगों की तरफ भी तो संकेत दे रहा है, अकस्मात से body wt. का कम होना किसी गंभीर व्याधि या धातु क्षय की संभावना बता रहा है। अनेक स्थल ऐसे भी है जहां तकनीक भ्रम उत्पन्न करेंगी पर इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध ज्ञान ही सत्य मिलेगा।*

[10/12, 2:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*लघु गुण शरीर में क्या कर रहा है ? गुरू गुण के विपरीत कार्य कर के लघुता ला रहा है, लघुता या लाघव दोनो एक ही भाव है जिसे 

'चत्किंचित्लाघवकरं देहे तल्लघनं स्मृतम्' 

च सू 22/9 

जिस भी क्रिया,कार्य या पदार्थ से शरीर में लघु गुण का वर्धन हो कर लघुता आये उसे लंघन कहते हैं और आगे श्लोक 18 में 

'चतुष्प्रकारा संशुद्धि: पिपासा मारूततापौ, पाचनान्युपवासश्च व्यायामश्चेति लंघनमिति ।' 

अर्थात वमन, विरेचन, निरूहण वस्ति, नस्य, तृषा अर्थात प्यास के वेग को रोकना, वायु का सेवन जैसे पंखे या शुष्क तीव्र हवा में रहना, धूप का सेवन, पाचन औषधियों का प्रयोग या ऐसे कर्म जिनसे भोजन का पाचन शीघ्र हो, उपवास (हमारे यहां व्रतों की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है) और व्यायाम इनको शरीर में लघु गुण ही मानना।*

*अरे भाई, ये जो गुण है ये कोई कठिन विषय नही है आपके प्रतिदिन की दिनचर्या, आहार, विहार, निद्रा आदि में हर पल गुण ही गुण है जिन्हें आप अनुभव नही कर पा रहे पर घटित ये ही हो रहे हैं।*

*लघु गुण अर्थ, भौतिक संगठन, स्वरूप और कार्मुकता -*

*लघु गुण का अर्थ हम स्पष्ट कर के ही चले हैं और अनेक स्थलों इसकी परिभाषा इसके कार्मुक स्वरूप से ही संबंधित है जैसे 

'लघु पथ्यं परं प्रोक्तं कफघ्नं शीघ्रपाकि  च'
 
भा प्र मिश्र प्रकरण 6/202 

अर्थात लघु गुण युक्त द्रव्य हितकर, कफ नाशक और शीघ्र पचन वाले होते हैं।*

[10/12, 2:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*'लघुस्तद्विपरीत: स्याल्लेखनो रोपणस्तथा'
 
सु सू 46/518 

अर्थात लघु गुण गुरू के विपरीत शरीर कृश कारक और व्रण रोपक है।जितने भी गुण हम गुरू गुण के बता कर चले थे उसके विपरीत गुण लघु में है। कारण द्रव्यों में जो पंचमहाभूत है वो भी गुरू और लघु दो वर्गों में बांट दिये गये हैं जैसे पृथ्वी और जल 'गुरू वर्ग' तथा अग्नि,वायु और आकाश 'लघु वर्ग' । लघु द्रव्यों के भौतिक स्वरूप में आकाश, वायु और अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है इनमें लघु आकाश महाभूत का आत्मगुण है तथा वायु और अग्नि स्थिर नही है, आप इन्हे बांध के नही रख सकते इसलिये लघु हैं।

च सू 5/6 में 

'लघूनि हि द्रव्याणि वायवग्नि गुणबहुलानि भवन्ति' 
अर्थात लघु द्रव्य वात और अग्नि प्रधान होते हैं 
'लघून्यग्निसंधुक्षणस्वभावान्यल्पदोषाणि...' 

वायु और अग्नि बहुल होने से अग्नि संधुक्षण अर्थात पाचकाग्नि को दीप्त कर देते हैं तथा अति मात्रा में खाये भोजन का भी पाचन कर देते है इसलिये अल्प दोषकारक कहे जाते हैं।*

*इस आकाश, वायु और अग्नि का हमारी clinical practice में महत्व देखिये, वायु और आकाश चक्षु से नही देखे जा सकते जैसे हम पृथ्वी, जल और अग्नि को देखते हैं, मेदोरोगी, स्थौल्य या गुरूगुणाधिक्य शरीर को ऐसा ही द्रव्य या कार्य चाहिये जो उसका weight का ह्रास करे तो इस लघु गुण को प्राप्त करने के लिये हम अपने रोगियों को आकाश बहुल खुला स्थान, वायु का पूर्ण संचार हो और अग्नि गुण युक्त आतप भी हो पार्क में सूर्योदय के बाद एवं सूर्यास्त से एक घंटा पहले तालीस मिनट भ्रमण करने के लिये कहते हैं। प्रथम 10 मिनट आराम से उसके पश्चात तीव्र गति से, कुछ रोगी एक एक घंटा भी भ्रमण करते है उपर जिस रोगी का हमने 8 महीने में 40 kg wt. कम किया उसके साथ यही condition लगा कर चिकित्सा दी गई थी जिसके पीछे का भाव गुरूता को कम कर के लघुता लाना जिसमें उपरोक्त तीनों महाभूतों का ही महत्व योगदान है। लघु गुण के कारण शरीर में आलस्य और गौरव दूर हो कर स्रोतो शोधन, दीपन, पाचन, उत्साह, मल तथा कफ वर्ग से संबंधित द्रव्यों का ह्रास और व्रण रोपण होता है, लघुता का प्रभाव मन पर भी पड़ता है तभी एक भिन्न सा सकारात्मक उत्साह रोगियों में आ जाता है।*

[10/12, 2:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*लघु गुण और दोष -*

*वायु 'रूक्ष: शीतो लघु' च सू 1 और पित्त 'तीक्ष्णोष्णं लघु' अ ह 1 अर्थात वात और पित्त लघु हैं।*

*लघु गुण और धातु-उपधातु तथा मल -*

*वैद्य मोहनलाल गोठेचा जी आग्नेय होने से रक्त और अस्थि को लघु मान कर चले है तथा उपधातु में आग्नेय होने से रज को साथ ही आग्नेय होने से मूत्र भी लघु है।*

*द्रव्यों के रस और लघु गुण -*

*'अम्लात् कटुस्ततस्तिक्तो लघुत्वादुत्तमो मत:' 
च सू 26/56 
अर्थात अम्ल रस अल्प लघु, कटु रस मध्यम लघु और तिक्त रस सब से अधिक लघु होता है।कुछ आचार्यों ने लवण रस को भी अल्प लघु माना है।*

*वीर्य और लघु गुण -*
*उष्ण वीर्य में लघु गुण का होना विभिन्न तर्कों से सिद्ध है।*

*विपाक और लघु गुण -*
*द्रव्यों में जब पृथ्वी और जल के गुण अधिक होगें तो मधुर विपाक होगा जो गुरू है और तेज, वायु और आकाश के गुण होने पर कटु विपाक होगा जो स्वभाव से ही लघु माना जायेगा। चरक ने विपाक तीन प्रकार का माना है और सुश्रुत ने केवल दो मधुर और कटु ही माना है। चरक ने सू 26/62 में 'कटुकाम्लावकोऽन्यथा' लिख कर गुरू से विपरीत लघु कहा है।*

[10/12, 2:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*चिकित्सा सूत्र और लघु गुण - *

*दोष-दूष्य की सम्मिलित अवस्था से सम्प्राप्ति बनती है और इसको भंग करना ही चिकित्सा है मगर चिकित्सा से पहले हम किन नियमों का पालन कर के उस के अनुसार औषध देंगे इसे ले कर चिकित्सा सूत्र बनाते हैं जिसमें हमारे पास ये उत्तर होता है कि हम क्या करने जा रहे हैं और क्यों ? लघु गुण वर्धन के लिये हमें हमें ऐसे द्रव्यों या कर्मों का चयन करना पड़ेगा 

'लघूष्णतीक्ष्णविशदं रूक्षं सूक्ष्मं खरं सरम्, कठिनं चैव...' 
च सू 22/12
 
एवं 

'रूक्षं लघु खरं तीक्ष्णमुष्णं ... प्रायश:.कठिनं चैव..* 
*च सू 22/14 

अर्थात लघु लघुपाकी कफघ्न और वातवर्धक, उष्ण धातुओं का क्षय कर वात वृद्धि में सहायक, तीक्ष्ण यह शोधन कर धातु क्षय कर वात को बढ़ाता है, विशद यह लेखन और शोषण करता है, रूक्ष यह धातु, मल और बल का शोषण करता है, सूक्ष्म यह स्रोतों को खोल देता है, धातु एवं मलों को कम करता है, खर अर्थात roughness यह भी लेखन कर के धातुओं को कम कर के वात वृद्धि करता है। इसी प्रकार आप इनको ग्रन्थों में विस्तार से समझ सकते है।*

*पंचभौतिकता से देखें तो हमें लघु गुण चिकित्सा क्रम में महाभूतों के अनुसार आकाश से लघु गुण प्रधान, वायु से रूक्ष और अग्नि से उष्ण गुणाधिक्य द्रव्यों को प्रधानता देनी पड़ेगी। भाव प्रकाश मिश्र प्रकरण 6 में आशु गुण - जो शरीर में शीघ्र फैले, दीपन, पाचन, अनुलोमन, स्रंसन, भेदन, रेचन, देह संशोधन, छेदन, लेखन, व्यवायी, विकासी जो बताये हैं ये सब लघुता कारक है।*
*शोधन के उपक्रम वमन, विरेचन, रक्तमोक्षण, नस्य, निरूहण वस्ति, स्वेदन लघु गुण वर्धक ही हैं। आमवात, ज्वर, ग्रहणी, ह्दय रोग, मेदोरोग, कफज रोगादि सैंकड़ों रोगों में लंघन का ही महत्व है।*

*लघुगुण प्रधान आहार -*
*तक्र, बकरी का दुग्ध, नवनीत, सैंधव, जीरक, मसूर, धान्यक, यवानि, मूलक, कांजिक, अरिष्ट, कुलथी, ताम्बूलादि सब लघु है जिन्हे विस्तार से आप द्रव्य गुण में देख सकते हैं।*

*लघु गुण प्रधान औषध द्रव्य-*
*कुटकी, मदनफल, चिरायता, गुडूची, अर्क, बिल्व, कंटकारी, स्नुही, शरपुंखा, वासा, पित्तपापड़ा, पिप्पली, पीपलामूल, जीरक, समुद्रफेन आदि अनेक द्रव्य। अग्नितुंडी वटी, आनंद भैरव रस, आमवातारि रस, आरोग्य वर्धिनी, इच्छा भेदी रस, नित्यानंद रस, कांचनार गुग्गलु, त्रिफला गुग्गलु, शिवक्षार पाचन चूर्ण, एरंड भृष्ट हरीतकी आदि सब लघु गुण की वृद्धि ही करते हैं।*

*गुणों को अब तक आपने जो पढ़ा उसमें पहले गुरू गुण और आज लघु गुण हमने उस प्रकार से विस्तार किया है जैसा हम अपनी चिकित्सा के व्यवहार में लाते हैं। चरक, सुश्रुत, भावप्रकाश आदि ग्रन्थों में तो इन का उल्लेख है ही इसके अतिरिक्त वैद्य मोहनलाल गोठेचा, प्रियव्रत शर्माजी ने भी इस विषय पर अपना लेखन किया है, जिसका सहयोग हमने लिया है।*

[10/12, 2:22 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*प्रधान गुण गुरू है उसके बाद लघु, इन गुणों का क्रम भी वर्तमान में अपना महत्व रखता है, इसी प्रकार अन्य गुणों का विस्तार अपनी बुद्धि से कर सकते है अगर कोई कठिनाई हो तो आप लिख सकते है, clinical application का सूत्र हमने आपको बता दिया है।* 🙏🙏🙏


[10/12, 6:48 AM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar: 

Suprabhaat Gurudev.

बहुत ही बढ़िया प्रयोगात्मक विवेचन 🙏🙏
हम इसके आपके सदैव ऋणी रहेंगे।

मेरे कुछ रोगीयों ने रोज 1 घंटे सैर करके व भोजन में परिवर्तन (as per the recommendation of dietician) करके 20 से 30 किलो तक वजन कुछ ही महीनों में कम कर लिया।

गुरु जी ऐसे कौंन से भोज्य है जो ऐसी स्तिथि में बिल्कुल बन्द करा देने चाहिए 🙏🙏
क्युके मैंने ये पाया के डायटीशियन उनको सिरफ़ बदल बदल कर भोज्य पदार्थ खाने की सलाह देते है और बहुत हैरानी की बात है कि बिना किसी लाघवकर औषधि के उनका वजन इतना कम हो रहा है 🤔🤔


[10/12, 10:18 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*नमस्कार पवन जी, अगर दिन में समय मिल पाया तो चर्चा करेंगे* 🌹🌺🙏

[12/23, 22:48] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*गुरू और लघु, स्थूल और कृश एक दूसरे एक दूसरे के विपरीत है, साधारण भाषा में गुरू या स्थूल को भारी एवं कृश या लघुता को हल्कापन शब्द से संबोधित किया जाता है। आपका इन दोनों गुणों से युक्त शरीर अपने आसपास के वातावरण में बहुत मिल जायेंगे इन्हे अपने पास ही ढूंडिये ये आपके हर पल मिलेंगे और इसके लिये आयुर्वेद की शब्दावली को जीवन मे और व्यवहार में प्रयोग करें। इसके कुछ उदाहरण आपको दिखाते हैं...*

*मेरे साथ खड़े विश्व प्रसिद्ध हास्य कवि इनका शरीर गुरू गुण प्रधान है।*



[12/23, 22:48] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: *ये देखें लघु गुण प्रधान प्रसिद्ध हास्य कवि ..* 👇🏿





[12/23, 22:49] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*इन गुणों का ज्ञान और इनकी clinical importance  का ज्ञान चिकित्सक को होना परम आवश्यक है क्योंकि ये वर्तमान और भविष्य में आ सकने वाली संभावित व्याधियों की तरफ दिशा निर्देश भी देते है। क्योंकि  'युक्तिमेतां पुरूस्कृत्य त्रिकालां वेदनां भिषक्, हन्तीत्युक्तं चिकित्सा तु नैष्ठिकी सा विनोपधाम।' 
च शा 1/94 
वैद्य त्रिकाल के रोगों की चिकित्सा करता है अर्थात वैद्य त्रिकालदर्शी होता है। अगर आप अपनी इन्द्रियों को जागृत कर लें तो अनेक रोग कुछ विशिष्ट रोगियों  से मिल कर शरीर के दोष, धातु और आकृति देख कर ही बता सकते हैं, जैसे कि आपको fatty liver या  आधुनिक मधुमेह है। इन सब को जानने के लिये आपको चरक विमान स्थान और इन्द्रिय स्थान का अध्ययन कर के अपनी ज्ञानेन्द्रियों को सक्षम बनाना पड़ेगा।*

*अपनी इन्द्रियों को develop कर के आप भी किसी सीमा तक इन्द्रिय सामर्थ्यवान बन सकते हैं, इनके सहयोग से आप बहुत से विशिष्ट कार्य कर सकते हैं जो साधारण मनुष्यों से अलग हट के होते हैं  और करें कैसे ?   अपनी इन्द्रियों को जागृत करें , अगर आप चाय पीते है है तो देखेंगें fresh milk की चाय में अलग स्वाद होगा और दुग्ध पुराना होते ही अलग स्वाद देगा, किसी भी खाद्य पदार्थ में मसालों (spices) का taste अलग अलग मिलता है लवंग, काली मरिच, हिंगु, जावित्री, जीरक, तेजपत्रादि एक साथ मिलाकर देने पर भी इनकी जिव्हा में पृथक सत्ता का अनुभव होता है, कढ़ी, चना, राजमा को दोबारा गर्म कर के सेवन किया जायेगा किया जायेगा तो रसास्वाद बदल जायेगा ये सब रसनेन्द्रिय के विषय हैं जिसका संबंध जल महाभूत से है अत: रसनेन्द्रिय को जागृत करें, घ्राणेन्द्रिय का उपयोग करना सीखें पुरूषों के शरीर की गंध, आहार द्रव्यों की गंध का अनुभव करें, किसी स्थान पर जायें तो अनुभव करें वहां की गंध कि ये अनुकूल हैं या प्रतिकूल ? गंध का अनुभव अर्थात आप अब पृथ्वी महाभूत के सान्निध्य में है । रोगी को देखिये DM type 1 रोगी,  अनेक रोगियों की त्वचा और रूप देखते ही बता सकते हैं कि यह diabetic है, कफावृत उदान 
(hypothyroidism) दूर से देखते ही आप अनुभव कर सकते है, यकृद्दाल्युदर, वृक्क दुष्टि होने पर रोगी की आकृति चक्षु द्वारा देखते ही आप अग्नि महाभूत से जुड़ गये है, इनको समर्थ बनाओ क्योंकि इन्ही  और अन्य इन्द्रियों से काम ले कर पंचतत्वों से लय जोड़नी है इन पंचभूतों की imbalancing ही तो रोग है और चिकित्सा भी इन्ही को जानकर की जाती है।त्रिकालदर्शी बनने का ये प्रथम पढ़ाव है कि जहां आप स्थित हैं मन और बुद्धि भी वहीं हैं जो उस हर क्षण और कर्म को अनुभव कर रही है जो उस समय हो रहा है और वो मस्तिष्क में record हो रहा होता है जिसे स्मृति समय आने पर recall कर लेती है।*

[12/23, 22:49] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*'लघुस्तद्विपरीत: स्याल्लेखनो रोपणस्तथा' 
सु सू 46/518 
अर्थात लघु गुण गुरू के विपरीत शरीर कृश कारक और व्रण रोपक है।जितने भी गुण हम गुरू गुण के बता कर चले थे उसके विपरीत गुण लघु में है।कारण द्रव्यों में जो पंचमहाभूत है वो भी गुरू और लघु दो वर्गों में बांट दिये गये हैं जैसे पृथ्वी और जल 'गुरू वर्ग' तथा अग्नि, वायु और आकाश 'लघु वर्ग' ।लघु द्रव्यों के भौतिक स्वरूप में आकाश, वायु और अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है इनमें लघु आकाश महाभूत का आत्मगुण है तथा वायु और अग्नि स्थिर नही है, आप इन्हे बांध के नही रख सकते इसलिये लघु हैं।
च सू 5/6 में 
'लघूनि हि द्रव्याणि वायवग्निगुणबहुलानि भवन्ति' 
अर्थात लघु द्रव्य वात और अग्नि प्रधान होते हैं 
'लघून्यग्निसंधुक्षणस्वभावान्यल्पदोषाणि...' 
वायु और अग्नि बहुल होने से अग्नि संधुक्षण अर्थात पाचकाग्नि को प्दीप्त कर देते हैं तथा अति मात्रा में खाये भोजन का भी पाचन कर देते है इसलिये अल्प दोषकारक कहे जाते हैं।

*इस आकाश, वायु और अग्नि का हमारी clinical practice में महत्व देखिये, वायु और आकाश चक्षु से नही देखे जा सकते जैसे हम पृथ्वी, जल और अग्नि को देखते हैं, मेदोरोगी, स्थौल्य या गुरूगुणाधिक्य शरीर को ऐसा ही द्रव्य या कार्य चाहिये जो उसका weight का ह्रास करे तो इस लघु गुण को प्राप्त करने के लिये हम अपने रोगियों को आकाश बहुल खुला स्थान, वायु का पूर्ण संचार हो और अग्नि गुण युक्त आतप भी हो पार्क में सूर्योदय के बाद एवं सूर्यास्त से एक घंटा पहले तालीस मिनट भ्रमण करने के लिये कहते हैं। प्रथम 10 मिनट आराम से उसके पश्चात तीव्र गति से, कुछ रोगी एक एक घंटा भी भ्रमण करते है उपर जिस रोगी का हमने 8 महीने में 40 kg wt. कम किया उसके साथ यही condition लगा कर चिकित्सा दी गई थी जिसके पीछे का भाव गुरूता को कम कर के लघुता लाना जिसमें उपरोक्त तीनों महाभूतों का ही महत्व योगदान है। लघु गुण के कारण शरीर में आलस्य और गौरव दूर हो कर स्रोतो शोधन, दीपन, पाचन, उत्साह, मल तथा कफ वर्ग से संबंधित द्रव्यों का ह्रास और व्रण रोपण होता है, लघुता का प्रभाव मन पर भी पड़ता है तभी एक भिन्न सा सकारात्मक उत्साह रोगियों में आ जाता है।*

*लघु गुण और दोष -*

*वायु 'रूक्ष: शीतो लघु' च सू 1 और पित्त 'तीक्ष्णोष्णं लघु' अ ह 1 अर्थात वात और पित्त लघु हैं।*

*लघु गुण और धातु-उपधातु तथा मल -*
*वैद्य मोहनलाल गोठेचा जी आग्नेय होने से रक्त और अस्थि को लघु मान कर चले है तथा उपधातु में आग्नेय होने से रज को साथ ही आग्नेय होने से मूत्र भी लघु है।*

*द्रव्यों के रस और लघु गुण -*

*'अम्लात् कटुस्ततस्तिक्तो लघुत्वादुत्तमो मत:' 
च सू 26/56 
अर्थात अम्ल रस अल्प लघु, कटु रस मध्यम लघु और तिक्त रस सब से अधिक लघु होता है। कुछ आचार्यों ने लवण रस को भी अल्प लघु माना है।*

*वीर्य और लघु गुण -*

*उष्ण वीर्य में लघु गुण का होना विभिन्न तर्कों से सिद्ध है।*

*विपाक और लघु गुण -*

*द्रव्यों में जब पृथ्वी और जल के गुण अधिक होगें तो मधुर विपाक होगा जो गुरू है और तेज, वायु और आकाश के गुण होने पर कटु विपाक होगा जो स्वभाव से ही लघु माना जायेगा। चरक ने विपाक तीन प्रकार का माना है और सुश्रुत ने केवल दो मधुर और कटु ही माना है। चरक ने सू 26/62 में 'कटुकाम्लावकोऽन्यथा' लिख कर गुरू से विपरीत लघु कहा है।*

[12/23, 22:50] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:

 *चिकित्सा सूत्र और लघु गुण - *

*दोष-दूष्य की सम्मिलित अवस्था से सम्प्राप्ति बनती है और इसको भंग करना ही चिकित्सा है मगर चिकित्सा से पहले हम किन नियमों का पालन कर के उस के अनुसार औषध देंगे इसे ले कर चिकित्सा सूत्र बनाते हैं जिसमें हमारे पास ये उत्तर होता है कि हम क्या करने जा रहे हैं और क्यों ? लघु गुण वर्धन के लिये हमें हमें ऐसे द्रव्यों या कर्मों का चयन करना पड़ेगा ।

'लघूष्णतीक्ष्णविशदं रूक्षं सूक्ष्मं खरं सरम्, कठिनं चैव...' 
च सू 22/12 
एवं 
'रूक्षं लघु खरं तीक्ष्णमुष्णं ... प्रायश:.कठिनं चैव..* 
च सू 22/14 
अर्थात लघु लघुपाकी कफघ्न और वातवर्धक, उष्ण धातुओं का क्षय कर वात वृद्धि में सहायक, तीक्ष्ण यह शोधन कर धातु क्षय कर वात को बढ़ाता है,विशद यह लेखन और शोषण करता है, रूक्ष यह धातु, मल और बल का शोषण करता है, सूक्ष्म यह स्रोतों को खोल देता है, धातु एवं मलों को कम करता है, खर अर्थात roughness यह भी लेखन कर के धातुओं को कम कर के वात वृद्धि करता है। इसी प्रकार आप इनको ग्रन्थों में विस्तार से समझ सकते है।*

*पंचभौतिकता से देखें तो हमें लघु गुण चिकित्सा क्रम में महाभूतों के अनुसार आकाश से लघु गुण प्रधान, वायु से रूक्ष और अग्नि से उष्ण गुणाधिक्य द्रव्यों को प्रधानता देनी पड़ेगी। भाव प्रकाश मिश्र प्रकरण 6 में आशु गुण - जो शरीर में शीघ्र फैले, दीपन, पाचन, अनुलोमन, स्रंसन, भेदन, रेचन, देह संशोधन, छेदन, लेखन, व्यवायी, विकासी जो बताये हैं ये सब लघुता कारक है।*
*शोधन के उपक्रम वमन, विरेचन, रक्तमोक्षण, नस्य, निरूहण वस्ति, स्वेदन लघु गुण वर्धक ही हैं। आमवात, ज्वर, ग्रहणी, ह्दय रोग, मेदोरोग, कफज रोगादि सैंकड़ों रोगों में लंघन का ही महत्व है।*

*लघुगुण प्रधान आहार -*

*तक्र, बकरी का दुग्ध, नवनीत, सैंधव, जीरक, मसूर, धान्यक, यवानि, मूलक, कांजिक, अरिष्ट, कुलथी, ताम्बूलादि सब लघु है जिन्हे विस्तार से आप द्रव्य गुण में देख सकते हैं।*

[12/23, 22:50] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*लघु गुण प्रधान औषध द्रव्य-*

*कुटकी, मदनफल, चिरायता, गुडूची, अर्क, बिल्व, कंटकारी, स्नुही, शरपुंखा, वासा, पित्तपापड़ा, पिप्पली, पीपलामूल, जीरक, समुद्रफेन आदि अनेक द्रव्य। अग्नितुंडी वटी, आनंद भैरव रस, आमवातारि रस, आरोग्य वर्धिनी, इच्छा भेदी रस, नित्यानंद रस, कांचनार गुग्गलु, त्रिफला गुग्गलु, शिवक्षार पाचन चूर्ण, एरंड भृष्ट हरीतकी आदि सब लघु गुण की वृद्धि ही करते हैं।*

*गुणों को अब तक आपने जो पढ़ा उसमें पहले गुरू गुण और आज लघु गुण हमने उस प्रकार से विस्तार किया है जैसा हम अपनी चिकित्सा के व्यवहार में लाते हैं। चरक, सुश्रुत, भावप्रकाश आदि ग्रन्थों में तो इन का उल्लेख है ही इसके अतिरिक्त वैद्य मोहनलाल गोठेचा, प्रियव्रत शर्माजी ने भी इस विषय पर अपना लेखन किया है, जिसका सहयोग हमने लिया है।*








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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday (Discussion)' a Famous WhatsApp group  of  well known Vaidyas from all over the India. 




Presented by




Vaidyaraj Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)

New Delhi, India

email- vaidyaraja@yahoo.co.in


Compiled & Uploaded by

Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
 +91 9669793990,
+91 9617617746

Edited by

Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC) 
Professor & Head
P. G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com



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