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WDS 91: "Sannipataj v/s Tridoshaja Vyadhi" by Prof. B. L. Goud, Vaidya Subhash Sharma, Prof. Satyendra Narayan Ojha, Dr. Pawan Madaan, Prof. L. K. Dwivedi, Prof. Giriraj Sharma, Vd. Raghuram Bhatta YS, Vd. Hiten Vaja, Dr. Sanjay Chhajed, Vd. Bhavesh Modh, Vd. Radheshyam Soni, Vd. Atul Kale, Vd. Sadhana Babel, Prof. Deep Narayan Pandey, Prof. Mrinal Tiwari, Vd. Narinder Paul, Vd. Divyesh Desai & Others.

Admin Note:
This is detailed discussion with the blessings of great Gurus & experts. Readers are advised to consult the classical text books who have difficulty in understanding the Sanskrit.
Prof. Surendra A. Soni 

4/2, 6:43 PM] Dr. Sadhana Babel : 

One query !

सान्निपतिक एवम त्रिदोषज ?

Differnce ?

कही त्रिदोषज कही सान्निपतिक शब्द ?

Prayojan ?


[4/2, 6:58 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

सान्निपातिक ज्वर है, और त्रिदोषज गुल्म,  उनके लक्षण देखे, व्याधि की तीव्रता समझ में आती है. व्याधि के अनुसार ही समझे. कहीं कहीं प्रकृति सम समवेत लक्षणो की उत्पत्ति होती है, वहां पर भी दोनो ही सान्निपातिक/त्रिदोषज शब्द आये हैं, यथा- सान्निपातिक रक्तपित्त, सन्निपातज मूत्रकृच्छ, त्रिदोषज अर्श, त्रिदोषज हृदय रोग.‌ नैदानिक एवं चिकित्सकीय नजरिये से कोई अन्तर दिखता नहीं....

[4/2, 7:00 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 *विशिष्ट टिप्पणी के लिये महोपाध्याय आचार्य श्रेष्ठ गुरु गण को सादर अनुरोध* 🙏🙏

[4/2, 7:09 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

*नमस्कार साधना जी, चरक विमान अध्याय 6/11 पर आ जाईये, 

'तत्रानुबन्ध्यानुबन्धकृतो विशेषः- स्वतन्त्रो व्यक्तलिङ्गो यथोक्तसमुत्थान प्रशमो भवत्यनुबन्ध्यः, तद्विपरीत लक्षणस्त्वनुबन्धः, अनुबन्ध्यलक्षणसमन्वितास्तत्र यदि दोषा भवन्ति तत्त्रिकं सन्निपात माचक्षते, द्वयं वा संसर्गम्, अनुबन्ध्यानुबन्धविशेषकृतस्तु बहुविधो दोषभेदः, एवमेष सञ्ज्ञाप्रकृतो भिषजां दोषेषु व्याधिषु च नाना२प्रकृति विशेषव्यूहः' 

इसकी व्याख्या में स्पष्ट है कि कि सन्निपातिक दोषों की स्वतन्त्र अवस्था है इसमें दोष अनुबंध रूप में ना रह कर स्वकारणों से कुपित हो कर स्वतन्त्र लक्षण उत्पन्न करते है।*

*त्रिदोषज मे तीनों दोषों के कुपित होने में यह स्थिति नही मिलेगी, दो दोष स्वतन्त्र कारणों से कुपित है तो एक या दे अनुबंध रूप में मिलेगा।*

*इसका प्रभाव व्याधी की तीव्रता और साध्यासाध्यता पर भी पड़ता है।*
*संक्षेप में अनुबंध और अनुबंध्य का भेद ही त्रिदोषज 

*इसका प्रयोजन - स्वप्रकुपित हेतु - लक्षण और अनुबंध जन्यों को जानकर चिकित्सा  को स्पष्ट करना।*

[4/2, 7:21 PM] Dr. Sadhana Babel: 

प्रणाम  सुभाष सर !

🙏🙏🙏

[4/2, 7:34 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 *प्रयोजन स्पष्ट नहीं है*
*अनुबन्ध्य और अनुबंध त्रिदोषो का है अर्थात् स्वतंत्र और परतंत्र, परंतु दोनों अवस्थाओं को सान्निपातिक या त्रिदोषज शब्द से उद्धरित किया गया है*

[4/2, 7:35 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

महर्षि सुभाष जी !

ALL DISEASES ARE 'TRIDOSHAJA' BUT NOT SANNIPATAJA.
🙏🏻🌹👏🏻

[4/2, 7:35 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 *कृपया सोदारहण अन्तर स्पष्ट करें* 
*एक विनम्र अनुरोध*
डॉ सुरेन्द्र जी !

[4/2, 7:38 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 *सन्निपाते इति मेलके अर्थात् मिश्रण /संयोग से है* .
*त्रिदोष में भी तीनों दोष मिलकर ही है*

[4/2, 7:39 PM] Dr.Deep Narayan Pandey :

 Brilliant analysis! आनंद आ गया आचार्य श्रेष्ठ
सुभाष जी !❤️🙏❤️

[4/2, 7:48 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 *वैद्यराज सुभाष शर्मा जी यहाँ पर दोषों के अनुबन्ध्य और अनुबंध को स्पष्ट किया गया है, न कि सान्निपातिक रोग और त्रिदोषज रोग में भेद ।*

[4/2, 8:09 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

सान्निपातिक मूत्रकृच्छ और त्रिदोषज हृदय रोग में उल्बण दोष के आधार पर चिकित्सा तथा उद्भव स्थान के दोष का ध्यान रखते हुए (स्थानानुपूर्व्या )‌ विशेष चिकित्सा, यथा सान्निपातिक मूत्रकृच्छ में सर्वं त्रिदोषप्रभवे तु वायो: स्थानानुपूर्व्या प्रसमीक्ष्य कार्यम्, च.चि.२६/५८. ( स्थानं जयेत् पूर्वम्) .
इसके बाद ➡️
त्रिभ्योऽधिके प्राग्वमनं कफे स्यात् पित्ते विरेक: पवने तु बस्ति: . ५८. 

➡️‌त्रिदोषज हृदय रोग ➡️त्रिदोषजे आदौ लंङ्घनविधानं हृदयस्य कफस्थानतया तद्गते त्रिदोषजेऽपि कफ एवादौ लङ्घनेन जेय इति मत्वा कृतम्.
इसके पश्चात् ➡️ त्रिदोषजे तूल्बणदोषचिकित्सासूत्रमाह- हीनातीत्यादि.

[4/2, 8:10 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*सान्निपातिक ज्वर  और सान्निपातिक अतिसार का उदाहरण भी अवलोकनीय है*

[4/2, 8:12 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

प्रणाम आ. ओझा सर ।

मेरा क्षुद्र प्रयास ।

नीचे कुछ उदाहरणों में व्याधि के त्रिदोषज स्वरूप को स्थापित किया गया है । परन्तु इनकी सन्निपात संज्ञा तभी स्थापित होंगी जब तीनों दोष स्वतंत्र रूप में प्रकुपित होंगें जैसे आ. सुभाष सर ने बताया है । 
👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻

न च किञ्चिदस्ति *कुष्ठमेकदोष प्रकोपनिमित्तम्,* अस्ति तु खलु समानप्रकृतीनामपि कुष्ठानां दोषांशांश विकल्पानुबन्धस्थानविभागेन वेदनावर्णसंस्थानप्रभावनामचिकित्सितविशेषः । स सप्तविधोऽष्टादश विधोऽपरिसङ्ख्येयविधो वा भवति । दोषा हि विकल्पनैर्विकल्प्यमाना विकल्पयन्ति विकारान्, अन्यत्रासाध्यभावात् । 

सर्वं त्रिदोषजं कुष्ठं दोषाणां तु बलाबलम् ।
यथास्वैर्लक्षणैर्बुद्ध्वा कुष्ठानां क्रियते क्रिया ॥३१॥


त्रिदोषकोपनिमित्ता विंशतिः प्रमेहा भवन्ति विकाराश्चापरेऽपरिसङ्ख्येयाः


सर्वस्त्रिदोषजो यक्ष्मा दोषाणां तु बलाबलम् ।
परीक्ष्यावस्थिकं वैद्यः शोषिणं समुपाचरेत् ॥६३॥

शोथ, क्षतक्षीण, उदर, अर्श ग्रहणी आदि कई व्याधियों में त्रिदोषजत्व वर्णित है, कहीं कहीं दोनों शब्द साथ में प्रयुक्त होते हैं ।
त्रिदोषजत्व शब्द व्याधि की उत्पत्ति और अनुबंध के साथ प्रायः प्रयुक्त हुआ है जबकि सन्निपात तीनों के स्वतंत्र प्रकोप के संदर्भ में ।

सन्निपात शब्द का प्रयोग भी ज्वर, उन्माद, शोथ, उदर, ग्रहणी, पाण्डु, कास, अतिसार आदि अनेकों रोगों में हुआ है ।

सन्निपात अवस्था को चिकित्सा में तीनों दोषों के स्वतंत्र प्रकोप के कारण सभी जगह याप्य, कृच्छ्र साध्य या असाध्य कहा गया है परन्तु त्रिदोषजत्व में सर्वत्र ऐसा नहीं है ।

आ. ओझा सर ।🙏🏻🌹

[4/2, 8:13 PM] Dr.Mrunal Tiwari : 

सान्निपात इस शब्द से दोषसंघात इस प्रकार का जिसमें आत्ययिक अवस्था उत्पन्न हो जाती है।

[4/2, 8:14 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

Yes !
Mentioned in udar rog..
Prof. Mrinal !

[4/2, 8:14 PM] Dr.Ramakant Sharma : 

क्या ऐसा होना अनिवार्य है ?

[4/2, 8:14 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

 नहीं.

[4/2, 8:15 PM] Dr.Ramakant Sharma : 

Dr. Soni ! Nice.....
👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏

[4/2, 8:16 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

Ramakant Guruji !
धन्योsहम् ।🙏🏻🌹☺️


[4/2, 8:16 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*त्रिदोषज मदात्यय में सान्निपातिक ज्वर के अनुसार चिकित्सा व्यवस्था ; प्रिय सुरेन्द्र जी, ऐसे उदाहरण भी है*


[4/2, 8:17 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 गुरुजी ।
त्रिदोषप्रकोपक मद्य भी हो सकता है ।

🙏🏻🌹


[4/2, 8:20 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

समसर्वदोषे चिकित्सामाह➡️ कफस्थानानुपूर्व्या चात्र चिकित्सा कफस्थानोद्भूततया प्रथमं कफसंबन्धात् सन्निपातज्वर इव ज्ञेया*


[4/2, 8:20 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

जी, होता है, तभी उदाहरण दिया हूं ।
 
Dr. SURENDRA !


[4/2, 8:23 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*ऐसा नहीं है, सान्निपातिक मूत्रकृच्छ और त्रिदोषज हृदय रोग के प्रकरण में ऐसा नहीं कहा गया है ।*

 *अतिसुंदर प्रकार से दोनो में चिकित्सा व्यवस्था स्पष्ट की गयी है*

*प्रिय सुरेन्द्र , सान्निपातिक ज्वर और त्रिदोषज गुल्म दोनो की चिकित्सा आसान नहीं है*


[4/2, 8:32 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 *सर्वं त्रिदोषप्रभवे* तु वायोः स्थानानुपूर्व्या प्रसमीक्ष्य कार्यम् ।
त्रिभ्योऽधिके प्राग्वमनं कफे स्यात् पित्ते विरेकः पवने तु बस्तिः ॥५८॥

चक्रपाणि जी
👇🏻

 मूत्रकृच्छ्रस्य *समत्रिदोषारब्धत्वेऽपि* वातस्थानभवत्वेन वायुरेव प्रथमं चिकित्स्य इति भावः।

तीनों दोषों का स्वतंत्र प्रकोप है ।

🙏🏻🌹


[4/2, 8:32 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 जी ।
🙏🏻🌹


[4/2, 8:34 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*ऐसा नहीं है, सम त्रिदोष में चिकित्सा कैसी है और उल्बण दोषो के आधार पर कैसी है*

*स्थान, सम,  विषम दोषो को समझते हुए ही चिकित्सा व्यवस्था अपेक्षित है*


[4/2, 8:36 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 चक्रपाणि जी
👇🏻

त्रिदोषजे आदौ लङ्घनविधानं हृदयस्य कफस्थानतया तद्गते त्रिदोषजेऽपि कफ एवादौ लङ्घनेन जेय इति मत्वा कृतम्। त्रिदोषजे *तूल्बण* दोषचिकित्सा सूत्रमाह- हीनातीत्यादि। हीनत्वम धिकत्वं मध्यमत्वं च दोषाणामवेक्ष्य यत् कर्म शस्तमधिकदोषविजेतृतया तत् कार्यमिति वाक्यार्थः॥१००॥

उल्बण दोष चिकित्सा निर्दिष्ट है ।

च चि-26

🙏🏻🌹😌


[4/2, 8:38 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

सान्निपातिक मूत्रकृच्छ और त्रिदोषज हृदय रोग में स्थान और उल्बण दोषो को महत्त्व दिया गया है*

*अर्थात् नैदानिक एवं चिकित्सकीय पक्ष से त्रिदोषज एवं सान्निपातिक शब्द में कोई अन्तर स्पष्ट नहीं होता है; ऐसा मेरा मत है ।*


[4/2, 8:43 PM] Dr. Surendra A. Soni:

सभी व्याधियों को सन्निपातज क्यों नहीं कहा गया है ?
इन्हें त्रिदोषज क्यों कहा गया है ?
संभवतः हम लोग यही चर्चा कर रहे हैं और मुझे भी यह जानना है ।

नमो नमः ।🙏🏻🌹😌


[4/2, 8:43 PM] Dr.Mrunal Tiwari Sir:

 सान्निपात 
-अवस्था विशेष है,
   जिसमें त्रिदोष involvement है

  - चिकित्सा द्रुत करने के लिए निर्देश है,  जिसके बाद रोगी  प्राण त्याग कर सकता है।

[4/2, 8:46 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

सुभाष सर ने विमान स्थान का संदर्भ प्रस्तुत किया है, वह अवलोकनीय है ।

आपके वक्तव्य का कोई शास्त्रीय आधार हो तो प्रस्तुत करने की कृपा कीजिए ।

[4/2, 8:46 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 त्रिदोषज गुल्म, त्रिदोषज हृदय रोग में आशुकारी चिकित्सा व्यवस्था अपेक्षित नहीं है ? क्या सान्निपातिक मूत्रकृच्छ उपरोक्त दोनो रोगो से ज्यादे कष्टकरी है ?

*दोषों का अनुबन्ध्य और अनुबंध क्या वात व्याधियों में नहीं देखा जाता है?*

*कफज कास में पित्तानुबंध होने पर सर्व प्रथम पित्तनाशक चिकित्सा*


[4/2, 8:48 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 श्वास रोग में त्रिदोष या सन्निपात शब्द प्रयुक्त ही नहीं हुए हैं जहाँ आशुकारित्व आवश्यक है ।

🙏🏻🌹


[4/2, 8:50 PM] Dr. Pawan Madan: 


गुरु जी
🙏🌹🙏🌹🙏🌹🙏


[4/2, 8:53 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*आचार्य चक्रपाणी कहते हैं*; *प्रत्येकदोषोक्तचिकित्सा दोषसंसर्गे विकल्प्यते*


[4/2, 8:57 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 देखा जाता है तभी वहां केवल अनुबंध की बात है, अनुबंध्य की नहीं और त्रिदोषज और सन्निपात शब्द प्रयुक्त नहीं है ।

🙏🏻🌹


[4/2, 8:57 PM] Dr. Pawan Madan:

 प्रणाम आचार्य श्री

बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य।

सभी व्याधियां त्रिदोषज होती हैं, सन्निपातीक नहीं।

इसको एक अन्य तरह से समझने का प्रयास ऐसे हो सकता है
👇🏻

सभी सन्निपात अवश्य्मभावी त्रिदोषज हैं, इनमे त्रिदोषो की अतीव कारणता हैं।

पर सभी त्रिदोषज व्याधियां जरुरी नही के सन्निपातज हों, यानी जरुरी नही के सन्निपातज वाली स्तिथि को परिलक्षित कर रही हो।

मेरा अल्पमती प्रयास 🙏

मुझे ध्यान आ रहा है के एषणा मे ज्वर चिकित्सा मे भी कहिं ऐसा है, देखता हूँ अभी।

🙏🙏

[4/2, 9:03 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*शब्दो के खेल है , चिकित्सा व्यवस्था में शब्दो का खेल चलता नहीं*


[4/2, 9:03 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 😃🙏🏻


[4/2, 9:07 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*कहीं सान्निपात है तो कहीं सन्निपात ह, कहीं किटिभ है तो कहीं किटिम है , कहीं अर्जुन तो कहीं धनंजय*


[4/2, 9:09 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*त्रिदोषज गुल्म को निचय भी कहा गया है, जो की व्याधि वैशिष्ट्य को दर्शाता है*


[4/2, 9:14 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 *हिक्का - श्वास पित्तस्थान समुद्भव है और कफ वात से उत्पन्न व्याधियां हैं , कफ और वात अपने अपने स्वतंत्र कारणों से उत्पन्न है*
 *व्याधियों की एक विशिष्ट पद्धति से उत्पन्न होने के तरीके को सुंदर व्याख्या प्रस्तुत कर समझाया गया है*


[4/2, 9:25 PM] Prof.Madhava Diggavi : 

Ji sir..
kshayaj kasa is sannipatodbhava, is ghora means daruna. Yathaa doshabalam tasya sannipata hitam  hitam...

A.H.Chi-3/180.  Sarvangasundara teeka says tasya yat sannipaate hitam tadatra hitam iti.


[4/2, 9:30 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

आचार्य चरक कहते हैं; संसृष्टे कफपित्ताभ्यां पित्तमादौ विनिर्जयेत्, च.चि.२८/१८८*


[4/2, 9:34 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 🌹🙏🏻


[4/2, 9:34 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

Yes, professor saheb..


[4/2, 9:36 PM] Dr.Mrunal Tiwari:

सन्निपातो दु:श्चिकित्सयानां...।
च.सू.२५

मृत्युना सह योध्दव्यं सन्निपातं चिकित्सता ।भालुकिना 

विषम ज्वर सन्निपात से उत्पन्न है।
प्रायश: सन्निपातेन दृष्ट:पञ्चविधो ज्वर:।
सन्निपाते तु यो भूयान् स दोष: परिकीर्तितः।। च.चि ३/७५

दोष विबध्दे नष्टेऽग्नौ सर्वसंपूर्णलक्षण:।
सन्निपातज्वरोऽसाध्य: कृच्छसाध्यस्त्वतोऽन्यथा । च.चि३/१०९

सन्निपातज्वरो घोर: स विज्ञेय: सुरु:सह:।च.चि.३/११९


[4/2, 9:37 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*आचार्य चक्रपाणी कहते हैं; दोषाणामनुबंध: उत्कर्षापकर्षादिना संबंध:, तदपेक्षो योग:*


[4/2, 9:39 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 अनुबंध स्वरूप ।🙏🏻🌹


[4/2, 9:39 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*त्रिदोषलिङ्गं तत् कुष्ठं काकणं नैव सिध्यति , च.चि.७/२०*


[4/2, 9:43 PM] Dr.Mrunal Tiwari :

 संसृष्टा इति युग्मभूता:
सन्निपतिता इति त्रयोऽपि मिलिता:।


[4/2, 9:44 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

महारुजं, दाहपरीतम्, अश्मवद्घनोन्नतं, शीघ्रविदाहि, दारुणं, *मन:शरीराग्नि बलापहारिणं त्रिदोषजं गुल्मं असाध्यं आदिशेत् , 
च.चि.५/१७*


[4/2, 9:45 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

अनुबन्ध्य की प्रथम चिकित्सा है या अनुबंध की ?*


[4/2, 9:47 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*आवरण में आवरक की प्रधानता है न कि आवार्य की*


[4/2, 9:48 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed : 

शायद सन्निपात मे तिनो दोष युगपत स्वयं के कारण से दुषित होकर संप्राप्ती बनाते है और त्रिदोषज मे अलग अलग दुषित होते है, संभवत: एक दुसरे को दुषित करते हुए. 
चिकीत्सा मे इसी कारण बदलाव होगा. सन्निपात मे व्याधी उद्भव स्थान के प्रधान दोष अनुसार चिकीत्सा करे, और त्रिदोषज मे बलवान दोष अनुसार चिकित्सा करे.


[4/2, 9:49 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*दोनो में ही दोनो है*


[4/2, 9:50 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

सान्निपात में त्रिदोष और त्रिदोष में सान्निपात*


[4/2, 9:51 PM] Dr.Mrunal Tiwari :

 समैस्तु समदोषारब्धसंसर्ग: सन्निपातश्च ज्ञेय:।


[4/2, 9:52 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*विषम सान्निपातिक ज्वर के उदाहरण वर्णित है

 [4/2, 9:30 PM] Prof. Satyendra Ojha Sir: 

*आचार्य चरक कहते हैं ; संसृष्टे कफपित्ताभ्यां पित्तमादौ विनिर्जयेत्, च.चि.२८/१८८*


आपके वचन ।🙏🏻🌹


[4/2, 9:53 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

वर्धनेन् और क्षपणेन् भी कहा गया*


[4/2, 9:53 PM] Dr.Ramakant Sharma :

क्या यह संसर्ग और सन्निपात व्याधि उत्पादक भी होगा ?
क्यों होगा ?


[4/2, 9:54 PM] DR. RITURAJ VERMA:

 जी गुरुवर क्षपणेन् महत्वपूर्ण है


[4/2, 9:54 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 
☺️☺️


[4/2, 9:55 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 👌🏻👍🏻


[4/2, 9:55 PM] Dr.Ramakant Sharma :

 वर्धनेन एक दोषस्य क्यों महत्व पूर्ण नहीं है


[4/2, 9:55 PM] Dr. Sadhana Babel :

 Then what about
वातस्यानु जयेत पित्तम


[4/2, 9:56 PM] Dr. Sadhana Babel :

 अनुबंध अनुबंध्य
अकदोषज भी हो सकते है
द्विदोषज भी


[4/2, 9:57 PM] Dr.Ramakant Sharma :

 यदि पूरे श्लोक को एक साथ पढ़ेंगे तो वा अंत में आता है जो दोनों को समान महत्व देता है


[4/2, 9:58 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*आचार्य चरक का वचन आपके लिये था*


[4/2, 9:58 PM] DR. RITURAJ VERMA:

 जी ।


[4/2, 10:00 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

जी, गुरु जी, आधुनिक काल‌ के विशेषज्ञो की यही खासियत है, कुछ कही से कुछ कही से और बन गया एक मन्तव्य*
🙏🙏


[4/2, 10:03 PM] Dr.Ramakant Sharma : 

फिर उत्तरार्ध का आधा श्लोकक भी साथ ही पढ़ें तो 3 विकल्प होंगे आपके पास सन्निपात ज्वर चिकित्सा के लिए !

 फिर सफल चिकित्सा  तब होगी जब आप यह तय कर सकें की क्या करना है और यही क्यों करना है !


[4/2, 10:06 PM] Dr.Mrunal Tiwari :

 सन्निपातश्च अयं महात्ययिक: । च.चि.३/२८६ टिका


त प्रधानता के कारण है और
प्रमेह चिकित्सा करते समय कठिनता के कारण से है।


I have gone through Jwara chikitsa only.Will try to find other references regarding सन्निपात.
शुभ रात्री🙏


[4/2, 10:22 PM] Dr. Pawan Madan: 

🙏🙏🙏🙏

सन्निपात मे कारण तीनो दोष हैं l

त्रिदोषज मे कोई परतंत्र कारण भी हो सकता है।
🙏


[4/2, 10:25 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 *स्वतंत्र / परतंत्र, प्राधान्य/प्रधान,  निदान विशेष पर आधारित है, 
निदान - दोष - दूष्य की परस्पर संबंध ही कारणीभूत है*


[4/2, 10:25 PM] Dr. Pawan Madan:

 शायद इसी तरह से संसर्ग व द्विदोषज मे भेद है।
🙏🙏


[4/2, 10:27 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*त्रिदोष में कोई परतंत्र कारण क्या हो सकता है, जो कि सन्निपात में नहीं होगा*


[4/2, 10:28 PM] Dr.Mrunal Tiwari :

 संसर्ग याने एक साथ आना और संसृष्ट याने द्विदोषज ।


[4/2, 10:28 PM] Dr. Sadhana Babel :

 ...तद्वत्प्रत्याख्येयंत्रिदोषजम्|
क्रियापथमतिक्रान्तंसर्वमार्गानुसारिणम्||१९||
औत्सुक्यारतिसम्मोहकरमिन्द्रियनाशनम्|
दुर्बलस्यसुसंवृद्धंव्याधिंसारिष्टमेव च||२०||
महाचतुष्पद


[4/2, 10:31 PM] Dr. Rajeshwar Chopde: 

Subhash sir anusaar 15 dosh aur unke sthanvishesh aur un sthanvishesh par anya doshonka prakop aur sthanvishesh doshonki dushti, aise sochenge to aasaani hogi, aage Guruvarya Subhash sir maargdarshan kar sakate hai... Jyada ulazane ki jarurat nahi hai


[4/2, 10:32 PM] Dr.Mrunal Tiwari :

 त्रिदोषज - प्रत्याख्येय
सन्निपातज -अत्ययिक


[4/2, 10:32 PM] Dr. Sadhana Babel :

 त्रिदोषज 
Described hetu separately
Vat pitta kaf 
And then said if hetu seven from theses hetus then द्विदोषाज va त्रिदोषज

But सान्निपटिक hetu different from doshaj hetu


[4/2, 10:33 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma : 

*शुभ सन्ध्या प्रो. ओझा सर, प्रो. सुरेन्द्र सोनी जी एवं अन्य विद्वत पर, अभी घर आया तो फोन खोलते ही बढ़ा ज्ञानवर्धक विवेचन पढ़ने को मिल रहा है ।* 🌹❤️🙏


[4/2, 10:33 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

नमो नमः ।🌹🙏🏻☺️


[4/2, 10:33 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

शुभ संध्या वैद्यराज सुभाष शर्मा जी !🙏🙏


[4/2, 10:34 PM] Dr. Pawan Madan: 

सर क्या ऐसा हो सकता है कि
जब संतर्पंन के कारणो से पक्षाघात होता है, जो के त्रिदोषज है, पर उस व्यक्ति मे दोष प्रकोप के हेतू ना सेवन किये हों

यानी इस्मे व्याधि तो त्रिदोषज है पर कारण सीधे तौर पर दोष हेतू नही हैं।
🤔


[4/2, 10:35 PM] Dr. Sadhana Babel :

 द्व्युल्बणैकोल्बणैः षट् स्युर्हीनमध्याधिकैश्च षट्|
समैश्चैको विकारास्ते सन्निपातास्त्रयोदश||४१|
कियांता शिरसी


[4/2, 10:35 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

ऐसा कैसे होगा ?


[4/2, 10:36 PM] Dr. Pawan Madan:

 बहुत बार हम पाते हैं के रोगी ने सीधे दोष प्रकोपज हेतुओं का सेवन नही किया पर फिर भी पक्षाघात जैसी व्याधि होती है।
🤔


[4/2, 10:37 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*संतर्पणोत्थाहार विहार से कफ का प्रकोप प्रथम दृष्टी से होता है और कफ से कफानुबंध रक्तपित्त और ग्रथित रक्त जिससे आवरण जन्य पक्षाघात*


[4/2, 10:37 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 *त्रिदोषहेतुलिङ्ग* सन्निपाते तु सान्निपातिकं गुल्ममुपदिशन्ति कुशलाः । स विप्र१तिषिद्धोपक्रमत्वादसाध्यो निचयगुल्मः ॥१२॥

आ. ओझा सर ।🙏🏻🌹

मुझे इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला की सभी व्याधियों को सन्निपातज क्यों नहीं कहा जबकि त्रिदोषज कहा है ?

🙏🏻🌹


[4/2, 10:38 PM] Dr.Satish Jaimini: 

क्या कुछ मानसिक  कारण सेवन भी हो सकते हैं सर 🙏🏻🙏🏻


[4/2, 10:38 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 नमस्कार ।

आपका क्या मत है ? स्पष्ट नहीं हो रहा है ।

🙏🏻🌹


[4/2, 10:39 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

रोगातिकर्षण वात प्रकोप का एक हेतु है.
Hypertension ➡️ cerebral haemorrhage ➡️ haemorrhagic CVA ➡️ पक्षाघात

मानसिक हेतु ➡️ काम शोक भयात् ➡️ वायु: ➡️ पक्षाघात


[4/2, 10:39 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 .......मार्गस्यावर्णेन च !

[4/2, 10:40 PM] Dr. Pawan Madan: 

कई बार ऐसी पथोलोजी मिलती ही नही !


[4/2, 10:40 PM] Dr. Rajeshwar Chopde: 

Pranam Guruvarya !


[4/2, 10:40 PMA] Dr.Satish Jaimini: 

जी गुरुजी !


[4/2, 10:40 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

Carotid artery occlusion ➡️ thromboembolism ➡️ ischemic stroke


[4/2, 10:40 PM] Dr. Pawan Madan: 

इस अवस्था मे भी तीनो दोषों का प्रकोप नही है


[4/2, 10:41 PM] Dr. Pawan Madan: 

🙏🙏🙏


[4/2, 10:41 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

पक्षाघात त्रिदोषज नहीं है, वात का नानात्मज विकार है


[4/2, 10:42 PM] Dr. Rajeshwar Chopde: 

Krodhat pittam.... Raktadushti

[4/2, 10:43 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

Please don't divert the discussion....

Pawan Sir !
🙏🏻🌹


[4/2, 10:43 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

Cirrhosis of liver ➡️ coagulopathy ➡️ CVA ➡️ पक्षाघात 
हेतु मिलेंगे ही , जरुरत है खकोलने की..


[4/2, 10:44 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 Pawan sir
We are missing the basic discussion topic...

🙏🏻🌹


[4/2, 10:45 PM] Dr. Rajeshwar Chopde: 

Not so, why bleeding disorders occurs?????


[4/2, 10:45 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

जी , आचार्य श्री सुरेन्द्र जी.☺️


[4/2, 10:45 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 We will discuss separately....

Pawan Sir !
🙏🏻🌹


[4/2, 10:46 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 ☺️🙏🏻🌻

नमो नमः 

[4/2, 10:46 PM] Dr.Satish Jaimini:

 त्रिदोष रोगकारक भावओर सन्निपात में उलवनता, स्थान विशेष महत्त्वपूर्ण है जोकिचिकित्सा की सुविधाऔर सफलता का दृष्टिकोण है, अंततः दोषप्रधान्य की चिकित्सा ही उद्देश्य है ऐसा मान सकते हैं l
🙏🏻🙏🏻🙏🏻


[4/2, 10:47 PM] Dr. Pawan Madan: 

सर
क्या ऐसा है ?

त्रिदोष मे तीन दोषो का प्रकोप तो है पर दोषों के प्रकोप होम के कारण स्वयं दोष प्रकोपज हेतू नहीं है।

सन्निपात मे तीनो दोष अपने अपने हेतुओं से प्रकुपीत होते हैं।

जैसे कफ वर्धक हेतुओं से भी वात प्रकोप होता है

कुछ इसी तरह से,,,,


[4/2, 10:47 PM] Dr. Pawan Madan: 

जी सोनी सर
ध्यान रखता हूँ
एक उदाहरण लिया था मैने बात को समझने के लिये

Soni Sir !

[4/2, 10:48 PM] Dr. Surendra A. Soni:


 Please review....
☺️


[4/2, 10:48 PM] Dr. Sadhana Babel :

 सन्निपात
पुल्लिंग
1.
उतरना, गिरना।
2.
संगम, मिलना।


[4/2, 10:50 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

क्रोध ➡️ पित्त प्रकोप ➡️ रक्त दुष्टि , रक्त वृद्धि ➡️ रक्तपित्त ➡️ मस्तिष्कगत रक्तस्राव ➡️ रक्तावृत प्राण ➡️  पक्षाघात

त्रिदोषज हृदय रोग में तीनों दोषो के हेतु, लक्षण और तद्नुसार चिकित्सा व्यवस्था वर्णित है l


[4/2, 10:52 PM] Dr. Pawan Madan:

 ऐसा हम शायद सन्निपातीक गुल्म से समझ सकते हैं
इसमे स्पष्ट कहा गया है के तीनो दोष अपने अपने हेतुओं से प्रकुपीत होकर सन्निपातीक गुल्म की स्तिथि उतपन्न करते हैं
🙏🤔


[4/2, 10:52 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 I have posted reference above....


[4/2, 10:53 PM] Dr. Pawan Madan: 

जी सर


[4/2, 10:53 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 Every where it is clearly mentioned...


[4/2, 10:54 PM] Dr. Pawan Madan:

 तो सर त्रिदोषज ह्रदय रोग के बारे मे बताइये🙏


[4/2, 10:54 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

प्रकृति सम समवेत और विकृति विषम समवेत को समझे*


[4/2, 10:54 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 Already explained above....
Please go through....


[4/2, 10:55 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 This is the point Sir....

🙏🏻🌹


[4/2, 10:56 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*जहाँ भी प्रकृति सम समवेत है वहां पर हेतु लक्षणादि वर्णित नहीं है, परंतु विकृति विषम समवेत में स्पष्ट किये गये है*


[4/2, 10:56 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 Chakrapani has mentioned this at various places.....

🙏🏻🌹



[4/2, 10:58 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 तो फिर समस्या कहां है ?


[4/2, 11:04 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*निरुक्ति अलग अलग हो सकती है, परंतु समझ एक है; स्थान और स्थानिक दोष, सम दोष, विषम दोष और दोष उल्बणता को समझना युक्तियुक्त है जिससे शुद्ध चिकित्सा व्यवस्था अभिष्ट है* 

*आप सभी को शुभ रात्रि*


[4/2, 11:04 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 🙏🙏


[4/3, 12:06 AM] Prof. Shailesh Deshpande: 

सभी गुरुजनोंको सादर प्रणाम,
सन्निपात यह संज्ञा का वर्णन अन्य प्रकरणों मे भी आया है जहाँ इसका मतलब सुस्पष्ट होता है.

मर्म व्याख्या 
मर्माणि मांससिरास्नाय्वस्थिसन्धिसन्निपाताः......

टीका 
......सन्निपातः संश्लेषोऽत्यन्तमिश्रीभाव इति यावत्।

शरीरमें यद्यपि मांस, सिरा इ. अनेक स्थानोंमें एकत्र आते है, तथापि मर्म केवल ऐसे स्थानोंको कहा गया है,‌ जहाँ मांस, सिरा इ. परस्परोंसे इतने संबद्ध है की यह संबंध विशेषमें प्राण रहते है. 

इस आधार पर दोषोंकी ऐसी अवस्था विशेष जहाँ तिनो दोष आपस में अत्यंत मिश्रीत होते है, उनके अलग अलग अस्तित्वका ज्ञान मुष्किल होता है उसे सन्निपात कहना चाहीये.

 इस प्रकारसे सन्निपतित दोष एक दुसरे की भी दुष्टि करते है और दूष्योंकीभी. इस अवस्थामे सन्निपात  करनेवाले तिनो दोषोंका प्रमाण, दूषकत्व इ. बदलनेपर शीघ्र लक्षण बदलते रहते है. प्रायः इसी कारणवश सन्निपात काबूमें लाना मुष्किल है. 

It is like 1+1+1 is not equal to 3.

जिन व्याधीयोंमे सान्निपातिक अवस्था मिलनेकी probability ज्यादा है अनके सान्निपातिक भेदोंका वर्णन आचार्यों ने अलग से किया है. 

🙏🙏


[4/3, 12:52 AM] Vaidyaraj Subhash : 

*case presentation  - 

धातु क्षय जन्य ज्वर (राजयक्ष्मा एवं  TB GOLD test) तथा आगंतुज एवं त्रिदोषज व्याधि में हमारा व्यक्तिगत अनुभव *

*जनवरी 2021 के आरंभ में कुछ ही विशिष्ट रोगियों से मिले थे और नाड़ी देखी थी तब इसके ये लक्षण थे..*
*एक माह से ज्वर 98-100 डिग्री जो थर्मामीटर में तो आता था पर नाड़ी पकड़ने पर हाथ, मस्तक शीतल रहते थे पर हस्त पाद तल में दाह था,पिछले तीन वर्ष से श्वास रोग पुन: पुन: एवं कास भी,शरीर का वजन 6-7 kg कम हुआ था पर क्षुधा ठीक थी, श्रम,अंगसाद,नाड़ी की गति तीव्र थी, कटि और शिरो गुरूता, मल ग्रथित एवं स्निग्ध कभी अतिसार, पार्श्व शूल।*

*त्रिदोषज और सन्निपातज के लिये ज्वर को देखें तो आर्ष ग्रन्थों में ज्वर निम्न प्रकार से वर्णित है ...*
*अधिष्ठान के अनुसार - शारीर और मानस*
*अभिप्राय अनुसार - सौम्य और आग्नेय *
*वेगानुसार - अन्तर्वेग और बहिर्वेग*
*ऋतु अनुसार - ऋतुओं के स्वाभाव जन्य और विकृत जन्य*
*साध्यासाध्यता - साध्य,कृच्छ साध्य और असाध्य*
*दोष और काल के बलानुसार - संतत,सतत,अन्येद्धुष्क,तृतीयक और चतुर्थक *
*आश्रयानुसार - सप्तधातुगत*
*हेतु अर्थात कारणानुसार  वात, पित्त, कफ, द्वन्द्वज, त्रिदोषज और आगंतुक कुल आठ।*
*अवस्थानुसार - आम, पच्यमान और निराम तथा साम एवं निराम*
*तरूण, जीर्ण और पुनरावर्तक*
*दो अन्य प्रकार - त्वकस्थ इसमें शीतपूर्वक और दाहपूर्वक और गंभीर जिसे धातुगत भी कहा है।*

*अब चरक निदान अध्याय 1 देखें तो यहां 
'तद्यथा वातात्, पित्तात्, कफात्, वातपित्ताभ्यां, वातकफाभ्यां, पित्तकफाभ्यां, वातपित्तकफेभ्यः, आगन्तोरष्टमात् कारणात् ' 
श्लोक 17 में ना ही त्रिदोष कहा और ना ही सन्निपातज अपितु वातपित्तकफेभ्य कहा है कि यह तीनो दोषों की सम्मिलित अवस्था है।*

*आगे चिकित्सा स्थान में 
'सन्निपातज उच्यते सन्निपात ज्वरस्योर्ध्वं त्रयोदशविधस्य हि ,प्राक्सूत्रितस्य वक्ष्यामि लक्षणं वै पृथक् पृथक्' 
च चि 3/89-90 
में 13 प्रकार के सन्निपात ज्वरों का वर्णन किया है जिसमें विषम दोषों की अलग अलग उल्वणता का वर्णन है तथा अन्त में 13 वां सन्निपात का वर्णन करते हुये 
'सन्निपातज्वरस्योर्ध्वमतो वक्ष्यामि लक्षणम्' 
च चि 3/103 
में जिसमें तीनों दोष समान रूप से प्रकुपित हो कर लक्षण उत्पन्न करें उनके लक्षण बताये हैं ।हमारा मानना यही है कि उल्वणता हो या हीनता सन्निपातज स्थिति में दोष अपने स्वकारणों से ही कुपित हुये है।*

*हमने जो यह रूग्णा का case लिया 
'शैत्यं कासोऽरुचिस्तन्द्रापिपासादाहरुग्व्यथाः, वातश्लेष्मोल्बणे व्याधौ लिङ्गं पित्तावरे विदुः ' 
च चि 3/93 
तो हमारी सम्प्राप्ति के अनुसार जो चरक में ये वातकफ प्रधान हीन पित्त सन्निपात ज्वर के जो लक्षण हैं उसमें से अनेक तो रूग्णा में हैं ही नही वो इसलिये भी क्योंकि अन्य स्रोतस की भी संलिप्तता यहां है ।*

*शास्त्र ने अलग अलग स्थान पर निदान और चिकित्सा के सूत्र दिये हैं और देश-काल के अनुसार अपने बुद्धि बल से भी उनके प्रयोग करने की अनुमति दी है, जैसे आन्त्रिक ज्वर को हम सन्निपातज मानते हैं पर तीनों दोषों की उल्वणता कम होने पर जब चिकित्सा देते हैं तो investigations मे अति शीघ्र ही reports -ve मिल जाती है । यहां व्याधि का बल भी देखा जाता है, अनेक बार रोगी का बल, शीघ्र दी गई उचित चिकित्सा और पथ्य भी रोगी के शीघ्र रोग मुक्त कर देता है।*

*हेतु - gym में अत्यधिक श्रम, रात्रि भोजन देर से, अत्यधिक table work, एवं अनियमित दिनचर्या एवं आहार, रात्रि जागरण।*

*history of present illness - तीन वर्ष से प्रतिश्याय , कास और श्वास तथा मेद वृद्धि, आर्तव नियमित थे।*

*past illness - विशिष्ट नही*

*सम्प्राप्ति घटक - *
*वात - प्राण,उदान,समान और व्यान*
*पित्त - पाचक पित्त अनुबंध*
*रूग्णा में ज्वर है, थर्मामीटर में आ रहा है पर त्वचा में अग्नि बाहर नही आ रही, हथ पैर के तलों मे दाह को है पर वो भी शीत थे और मस्तक भी , ज्वर में अग्नि मंद हो जाती है पर यहां क्षुधा पर्याप्त लगती थी, ज्वर त्रिदोषज व्याधि है पर पित्त प्रधान पर इस रूग्णा में व्याधि त्रिदोषज हो कर भी पित्तानुबंधी है।ये क्यों है? इसका जवाब हम आगे लिखेंगे।*
*कफ - क्लेदक*
*धातु - रस*
*स्रोतस - रस वाही, प्राण वाही*
*दुष्टि - संग एवं विमार्गगमन*
*अधिष्ठान - आमाश्य एवं सम्पूर्ण शरीर*

*2 जनवरी को रूग्णा का TB GOLD +ve मिला, cofirm करने के लिये 11 जनवरी की report देखें ALFA TNF BLOOD 634.8 ( normal 200 तक) मिला।*
*हमने रूग्णा की चिकित्सा यह कह कर आरंभ की कि तीन महीने मे यह आयुर्वेद से ही यह normal आ जायेगा। पहले भी हमने typhoid आन्त्रिक ज्वर के रोगियों पर cases present किये है, अगर व्याधि त्रिदोषज है तो रोगियों की report प्राय: इतनी शीघ्र negative नही आती, हां लाक्षणिक लाभ मिलता ही है और व्याधि त्रिदोषज अर्थात तीनों दोषों के स्व: प्रकोपक हेतु मिल कर तीव्र लक्षण जहां ना मिले हो तो tuberculosis, आन्त्रिक ज्वर आदि जो पुन: पुन: आते है उनकी investigation reports किसी किसी रोगी में एक महीने में भी -ve आ जाती है।*


[4/3, 12:52 AM]Vaidyaraj Subhash Sharma: 

2-1-2021 
*TB GOLD +ve*


[4/3, 12:52 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 

31-3-21 
*TB GOLD -ve*




[4/3, 12:52 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma : 

alfa tnf for tuberculosis 11-1-21*

[4/3, 12:52 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma : 

*चिकित्सा में निदान हेतु हम आधुनिक तकनीकों और परीक्षणों का सहयोग भी आवश्यता पड़ने पर लेते हैं क्योंकि रोगी उन्ही को आधार मानकर चलता है, पर निदान और चिकित्सा का आधार आयुर्वेदोक्त दोष-दूष्य एवं स्रोतस ही होते है, हमारे चिकित्स्य मत से सभी का सहमत होना आवश्यक नही।* 🙏🙏🙏


[4/3, 1:42 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma : 

*पाद तल का किटिम कुष्ठ की नवीन रूग्णा - हेतु, सम्प्राप्ति और चिकित्सा सूत्र पर पहले ही बहुत लिखते रहे है, चिकित्सा में भल्लातक, गंधक रसायन, आरोग्य वर्धिनी, कुटकी+हरीतकी रात्रि सोते समय, पंचतिक्त घृत 5-5 ml दोनो समय और प्रात: पाद पर पंचतिक्त घृत की rubbing तीन घंटे पश्चात पाद तल धावन और रात्रि में कर्पूर युक्त नारियल तैल अभ्यंग।परिणाम इस प्रकार मिल रहा है..* 👇🏿


[4/3, 1:42 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
 
26 march 21




[4/3, 1:43 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*आज 2 april 21 * 👇🏿



[4/3, 1:44 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*पंचतिक्त घृत आभ्यंतर और बाह्य दोनों रूप में ही बहु उपयोगी है।*



[4/3, 6:01 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed : 

यह कुछ जमनेवाला लगता है. 
पर अभितक इस गंभीर चर्चा मे चुलेट सर सिर्फ धीरे से धक्का देकरं किसी दिशा मे ले जाना चाहते है, ऊनसे बिनती हैं की इस समस्या को स्पष्ट करे.
सभी श्रेष्ठ गुरुदेवो से करबध्द नम्र याचना है की प्रकाश डाले. हम जैसे ग्रंथोसे दूर हुए विद्यार्थीयोंके बस की बात लगती नही है.



[4/3, 6:12 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed : 

साधना  हमे लगता है की जब भी त्रिदोषोंकी एकसाथ चिकीत्सा का विषय आयेगा तब

बलवान की पहले

बढे हुए की पहले

अगर समान रुप से दुष्ट हुए हो तो वात की पहले चिकीत्सा करते है, क्यो की वही संचालक है.



[4/3, 7:55 AM] Dr. Surendra A. Soni:

 नमो नमः गुरुवर्य सुभाष जी ।
रुग्ण कोष से प्रासंगिक प्रस्तुति । पूर्ण आतुर व्यवस्था और पथ्यापथ्य की प्रतीक्षा रहेगी ताकि का चि ब्लॉग पर प्रकाशित किया जा सके ।

🙏🏻🌹☺️


[4/3, 8:08 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: *

सप्रभात एवं सादर नमन प्रो. ओझा सर एवं समस्त विद्वत परिषद 🌹🌺💐🙏 कल तो सांयकाल से प्रो. सुरेन्द्र सोनी जी के साथ आप दोनों के  ज्ञान का ऐसा महासमुद्र उमड़ा कि पूरी रात यही विषय निद्रा में भी चलता रहा।*


[4/3, 8:15 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

आभार सर 🙏🙏🙏 
अभी इस रूग्णा की चिकित्सा चल रही है, प्रसंग आया तो कल लिखा और TNF BLOOD test होने के बाद इसे पूर्ण करेंगे।*
Surendra ji !

[4/3, 8:44 AM] Dr. Surendra A. Soni:

 जब हम त्रिदोषज और सन्निपात को एक ही मानते हैं तो शंका स्वाभाविक रूप से होती है जो कि साधना मैडम जी का मूल प्रश्न था ।

निदाने ज्ञातहेत्वादिपञ्चकस्य चिकित्सोप योगितया दोषभेषजादि विशेष ज्ञानमपेक्षितं भवति, अतो वक्ष्यमाणदोष भेषजादिविशेषज्ञापकं विमानस्थानं ब्रूते।

विमानोक्त सन्दर्भ विशेष विचारणीय है जो आचार्य सुभाष सर द्वारा उद्धृत किया गया है ।

नम्र निवेदन ।🙏🏻🌹☺️


[4/3, 8:59 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

'तत्र स्त्रीपुंसयोः संयोगे तेजः शरीराद्वायुरुदीरयति, ततस्तेजोनिलसन्निपाताच्छुक्रं च्युतं योनिमभिप्रतिपद्यते' 
सु शा 3/3 
में एक उद्धरण है स्त्री और पुरूष के समागम के समय वायु तेज को प्रकट करती है फिर तेज और वायु के सन्निपात से क्षरित हुआ शुक्र योनि की और चल देता है।*

*यहीं सन्निपात उग्रता के रूप में उल्लिखित है, सुश्रुत में अर्श, भगंदर, शोफ आदि रोगों में जहां तीव्रता या उग्रता है उन व्याधियों में त्रिदोषज ना लिख कर सन्निपातज संज्ञा दी है।*


[4/3, 9:01 AM] Dr. Surendra A. Soni:

 🙏🏻🌹☺️
नमो नमः ।


[4/3, 9:10 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 


त्रिदोषहेतुलिङ्गसन्निपाते तु सान्नि पातिकं  गुल्ममुपदिशन्ति कुशला:, स विप्रतिषिद्धोपक्रमा त्वादसाध्यो निचयगुल्म:, 
च.नि.३/१२.

इह च विप्रतिषिद्धोपक्रमत्वं विकृति विषमसन्निपातेन बोद्धव्यम्. तेन, साध्यत्रिदोषज्वरादौ वातादिविरुद्धो पक्रमत्वं सदपि नासाध्य तामापादयति. 
आयुर्वेद दीपिका व्याख्या.
यहाँ पर वस्तुस्थिती कितनी स्पष्ट है .
 निदान स्थान में द्वन्दज और सान्निपातिक ज्वर के लक्षण नहीं लिखे गये, जबकि चिकित्सा स्थान में अत्यधिक विस्तार से लिखा गया, चिकित्सक की नजरिये से चरक संहिता को समझने की कोशिश करने पर ही सभी विषय स्पष्ट हो जाते हैं.
मेरे लिये शब्द है जिनके अर्थ है, परंतु नैदानिक एवं चिकित्सकीय महत्त्व को विशिष्ट रोगानुसार समझने की एक कोशिश करता रहता हूं...



[4/3, 9:42 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:


 *मिलना, संयोग और मिश्रण ही सान्निपात है जो कि किसी भी वस्तुओं/द्रव्यों/दोषो के ‌मिलने से हो सकता है*



[4/3, 12:24 PM] Vaidya Sameer Shind


Really amazing ....पहली बार TB Gold  इतनी कम समय मे negative आते देखा।
Resp. Subhash Sir !
🙏🙏🙏


[4/3, 3:18 PM] Vd Darshna vyas :

 Superb sirji👌🏻🙏🏻🙏🏻👏🏻👏🏻👏🏻🌹🌹🌹


[4/3, 3:40 PM] Dr.Satish Jaimini:

जय हो गुरुजी कमाल हैं आप🙏🏻🙏🏻🙏🏻


[4/3, 4:58 PM] Dr. Suneet Aurora, : 

🙏🏼
बाह्य प्रयोग कभी नहीं किया था, गुरुदेव ।
अब से शुरू।
आप से चिकित्सा के हमेशा नए आयाम मिलते हैं, गुरुदेव।
धन्यवाद जी। 🙏🏼


[4/3, 4:58 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 चिकित्सा व्यवस्था में शब्दों का खेल भी चलता है अन्यथा निचय गुल्म और  विकृतिविषमसमवेत जैसे शब्दसमूह का कोई अर्थ नहीं रह जाता। प्रमिताशन का प्रयोग अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार से है जिसका  प्रसंगानुसार अर्थ करना पड़ता है इसी तरह उपवेशते, उपवेश्यते, उपविशति विशेष अर्थ को द्योतित करने वाले होते हैं ।  आचार्य चरक ने  उपविशति का प्रयोग नहीं किया।

वैसे आपने विश्लेषण बहुत अच्छा किया है आशीर्वाद !


[4/3, 5:06 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

जी, गुरु जी, सादर प्रणाम 🙏🙏, कल से मैं आपके मन्तव्य की प्रतिक्षा कर रहा था, शब्दो‌ का खेल चलता है, आपने एषणा व्याख्या के बाद जो टीप्पणी लिखी है, व्याकरण की दृष्टि से अप्रतिम है.. आभार आदरणीय श्री गुरु जी 🙏🙏


[4/3, 5:06 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir

 किटिरिव भाति किटिभ है, किटि शूकर को कहते हैं और किटिभ जूं  को


[4/3, 5:07 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

🙏🙏


[4/3, 5:07 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

मैं कभी-कभी काय संप्रदाय देखता हूं यह मेरे लिए अच्छा नहीं है पर मजबूर हूं क्या करूं समय दूसरे लेखन कार्य में देना ज्यादा आवश्यक हो रहा है इस समय


[4/3, 5:08 PM] Dr. Sadhana Babel Mam: 

प्रणाम गुरुवर !

[4/3, 5:09 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

दूसरा लेखन कार्य भी हमारे लिये बहुमूल्य होने वाला है, मैं प्रतिक्षा कर रहा हूं l


[4/3, 5:13 PM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

बड़ी बेसब्री से इंतजार हो रहा है आचार्य श्रेष्ठ आपके वर्तमान में चल रहे लेखन के प्रकाशित होने का*
🙏


[4/3, 5:20 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:


 यह किट धातु से बनता है किट धातु दो अर्थों में प्रयुक्त होती है एक किट गतौ धातु और एक किट त्रासे धातु से बनता है ।
 किट जो त्रास अर्थ में है दु:ख देने के अर्थ में है जूं भी दु:ख देती है और किटिभ भी।। एक में भ  प्रत्यय है और एक में मन् प्रत्यय  है। दोनों ही सही है
केवल महर्षि चरक ने ही किटिम का प्रयोग किया है । सुश्रुत एवं वाग्भट ने किटिभ का प्रयोग किया है ।


[4/3, 5:27 PM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir:

 *कल अथाह चर्चा चली आनंद आ गया आज पढ़कर।*


[4/3, 5:48 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*‌जी, गुरु जी, आचार्य चरक  किटिभ और किटिम दोनो का प्रयोग किये हैं*


[4/3, 6:20 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir : 

*सादर प्रणाम सर, निरूक्ति का ज्ञान बहुत सहायक है 👌🙏🙏🙏*


[4/3, 6:23 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma : 

*शुभ सन्ध्या सर 💐🌺🌹🙏 किटिम कुष्ठ के रोगी बहुत अधिक मिलते है और हमारे यहां तो एक-किटिम कुष्ठ की मिश्रित अवस्था के रोगी भी बहुत आते हैं।*


[4/3, 6:23 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma : 

ओझा सर एवं सोनी जी ने ज्ञानवर्धन कर दिया 🌹🙏*


[4/3, 6:24 PM] Dr.Deep Narayan Pandey :

बिल्कुल सही कहा आपने आचार्य श्रेष्ठ
❤️🙏


[4/3, 6:24 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma : 

*आपका एवं सभी विद्वानों का आभार 🌹🌺🙏*


[4/3, 6:26 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma :

 *कुटकी-कालमेघ और चिरायता मिलाकर हम वटी बनाते है, अनेक रोगों में उत्तम परिणाम 👌👌👌*



[4/3, 6:28 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma :

 🙏🙏🙏🙏


[4/3, 6:29 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 


आज ही एक बच्चा सार्वदैहिक किटिम का आया था, लेप शुरु किया हूं, इस बच्चे में मैंने आभ्यंतर औषधि नहीं दी है, जो भी परिणाम मिलेगा, यहाँ प्रस्तुत करुंगा |


[4/3, 6:29 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

शुभ संध्या वैद्यराज सुभाष शर्मा जी एवं आचार्य गण*


[4/3, 6:31 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

ग्रीष्म ऋतु के कारण बाकुचि सदृश द्रव्यो का प्रयोग नहीं कर रहा हू l


[4/3, 6:31 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma : 

हमारे यहां तो श्री ओझा क्वाथ अनेक त्वक् विकारों में भी अच्छा परिणाम दे रहा है 👍👌👌*


[4/3, 6:31 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 


आपकी महिमा है l


[4/3, 6:32 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma : 

follow up में भी उसे ही देते है, सबसे बढ़ी बात निम्बादि क्वाथ की तरह bitter नही है।*


[4/3, 6:38 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 नमो नमः गुरूणां गुरु: !

🙏🏻🌹☺️

त्रिदोषज और सन्निपात विषय पर प्रकाश डालने की कृपा कीजिए गुरुजी ।
आदरणीय गुरु जी गौड़ साब !
🙏🏻😌



[4/3, 11:24 PM] Dr.Satish Jaimini, : 

साष्टांग प्रणाम गुरुजी आज समझ आया किटिभ 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻


[4/3, 11:30 PM] Dr.Satish Jaimini: 

ये विकृतिविषमसमवेत अभी विस्तार से परत खुलने हेतु आपकी प्रतीक्षा में है गुरुदेव🙏🏻🙏🏻🙏🏻


[4/4, 4:34 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed : 

कल जब सन्निपात पर तदविद संभाषा चल रही थी तब सभी गुरूवरों की अनुपस्थिती बडी खल रही थी. आज रविवार  को शायद हल निकले.


[4/4, 6:04 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 सन्निपात और त्रिदोष का भी विश्लेषण कर दूंगा पर अभी समय नहीं है जब भी समय मिलेगा कर दूंगा वह अधिक समय की अपेक्षा रखता है।
सामान्य दृष्टि से एक दो पंक्ति में उत्तर देना हो तब तो  यही कहना पर्याप्त है कि दोनों में अंतर है। मैं तो इस विषय में स्पष्ट हूं फिर भी आप लोगों के लिए विश्लेषण करके इस बात को सिद्ध करना पड़ेगा क्योंकि जो आपने कहा है और सुभाष जी ने जो कहा है वह ठीक है सन्निपात और त्रिदोष दोनों एक नहीं हैं, यद्यपि कहीं-कहीं पर्याय रूप में इनका प्रयोग हुआ है फिर भी  सन्निपात एक विशेष स्थिति को बताने  वाला संबोधन है
जब भी समय मिलेगा इसका विश्लेषण कर दूंगा



[4/4, 6:39 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 सन्निपात में ठक् प्रत्यय लग कर सान्निपातिक तो बनता है संभवत: सान्निपात का प्रयोग चरक में कहीं नहीं हुआ सान्निपातक अवश्य एक स्थान पर है।

[4/4, 6:44 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

त्रिदोष एवं सन्निपात में केवल एक बाल जितना सा अंतर है संभवतः किसी भी व्याख्या कार ने इसे स्पष्ट नहीं किया। इसकी व्याख्या आपको और हमको ही करनी पड़ेगी ।
व्याख्याकारों ने तो  कहीं कहीं त्रिदोष और सन्निपात को पर्याय रूप में एक स्थान पर भी कहा है मूल संहिताओं में भी आचार्यों ने इसे  पर्याय रूप में प्रयुक्त किया है पर सूक्ष्मेक्षण करने पर पता चलता है कि थोड़ा सा अंतर है ही l

[4/4, 6:50 AM] Dr. Surendra A. Soni: 

नमो नमः गुरुजी ।

🙏🏻🌹

[4/4, 6:57 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

यह सान्निपातक भी अशुद्ध है मुद्रण की अशुद्धि प्रतीत होती है इसे मैंने एषणा व्याख्या में स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है वहां देखिए।
मैंने एषणा व्याख्या में यथासंभव कोई चीज छोडी नहीं फिर भी बहुत सी कमियां उसमें हो सकती हैं

[4/4, 6:59 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

एषणा व्याख्या  वाले संस्करण में इसे सान्निपातिके ही लिखा है l

[4/4, 6:59 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

चरक संहिता चिकित्सा स्थान 26 वां अध्याय 239 वां श्लोक l

[4/4, 7:00 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai:

 🙏🙏🙏🙏🙏प्रतिक्षा रहेगी गुरूंवर !

[4/4, 7:00 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

लंबी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी तैयार रहिए l

[4/4, 7:02 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

धन्यवाद आचार्य| हम आपके विचारों का स्वागत और प्रतीक्षा करेंगे|
अभी तक मुझे भी इस विषय में स्पष्ट राह नहीं मिली| केवल इतना मानकर चलता रहा हूँ कि यदि प्रारंभ में एक दोष, उसके प्रभाव से क्रमशः दूसरा और तीसरा दोष भड़क जाए तो *क्रमागत* होते हुये *त्रिदोषज* व्याधि हो गयी| और यदि इसके उलट क्रमागत ना होकर *एक साथ एक ही समय पर* तीनों दोष भड़क जाएँ तो *सन्निपात* मान लेता हूँ|   
अगर समय मिले तो विषय पर आपसे प्रकाश डालने हेतु अनुरोध है|
🙏

[4/4, 7:05 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

प्रणाम गुरूवर, आयुर्वेद मे आकर ४० साल हुए, अब पता लगा है की सन्निपात और त्रिदोषज मे अंतर है. अब क्या है यह  जानने थोडा और

[4/4, 7:06 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 ऐसा नहीं है क्रमबद्ध रूप में भी एक के बाद दूसरे दोष का सम्यक् निपात यदि हो तो वह भी सन्निपात ही है

[4/4, 7:08 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

कृपया जिनके पास एषणा हो, उन्हे करबध्द बिनती हैं, की उपरोक्त संदर्भ  साझा करे ।

[4/4, 7:10 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

विरहिणी वाली प्रतीक्षा @Vaidya Sanjay P. Chhajed

 मैंने जो स्पष्ट कर दिया वही है @Dr.Deep Narayan Pandey

[4/4, 7:13 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

बहुत बहुत धन्यवाद आचार्य श्रेष्ठ !
असल में मेरा विचार इस बात से प्रेरित था कि शब्दकोष में *सन्निपात* के कई अर्थ हैं किन्तु एक अर्थ *एक साथ नीचे गिरना* भी है|
सम् + मि  + पत् + घञ्

[4/4, 7:15 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

प्रणाम गुरूवर, धन्यवाद !

[4/4, 7:17 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

दीपस्यापि शिखां न चापि भवने   स्वप्ने$पि या वीक्षितुं तापं सा विरहानलस्य महत: सोढुं कथं शक्यते ।।

[4/4, 7:17 AM] Vd.Shailendra Harayana: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻🌷🌷

[4/4, 7:19 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

यहां मि जगह नि होना चाहिए
मेरे विचार से

[4/4, 7:21 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

आपका कथन सही है आचार्य श्रेष्ठ !

[4/4, 7:22 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

जहां से आपने देखा है संभवत:  वह भी 
 मुद्रणकी की अशुद्धि है l

[4/4, 7:22 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

जहां से आपने देखा है संभवत:  वह भी मुद्रण की अशुद्धि है l

[4/4, 7:23 AM] Dr. Deep Narayan Pandey Sir: 

जी सत्य है. और साथ में टाइप करते समय मैं स्वयं ध्यान नहीं दे पाया.

[4/4, 7:27 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

मुद्रण की नहीं मेरी टाइपिंग की त्रुटि है l

[4/4, 7:27 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

आपने आप्टे में देखा है 
वहां यह इसी अशुद्ध स्वरूप में है l

[4/4, 7:28 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

वहां मुद्रण की ही अशुद्धि है

[4/4, 7:29 AM] Dr.deep Narayan pandey
[4/4, 7:31 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

आपका कथन सही है पंडित ईश्वरचंद्र जी ने तो सही लिखा है। तथापि आप्टे में त्रुटि है l

[4/4, 8:40 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*सादर प्रणाम गुरूश्रेष्ठ, प्रात: आपका आगमन सदैव ही ज्ञान के साथ एक विचित्र सी सुखद अनुभूति प्रदान करता है और हमें पुन: उस आयुर्वेद के मूल से सम्बद्ध कर देता है जो संस्कृत में है।*

             🙏🙏🙏🙏🙏

[4/4, 8:41 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*सुप्रभात एवं सादर नमन प्रो. ओझा सर, प्रो.सुरेन्द्र सोनी जी एवं समस्त विद्वत परिषद् को 🌹🌺💐🙏*

[4/4, 9:12 AM] Dr. Surendra A. Soni: 

सुप्रभात एवं सादर प्रणाम आचार्य सुभाष जी, ओझा सर, गौड़ साब और समस्त गुरुजन ।

🙏🏻🌹☺️

 👌🏻👌🏻🤗👏🏻🙏🏻🌹

[4/4, 9:23 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*सादर प्रणाम आदरणीय गुरु जी 🙏🙏, कहीं भी भेद नहीं बताये गये, सान्निपातिक मूत्रकृच्छ और त्रिदोषज हृदय रोग में विवरण एक सदृश है, आयुर्वेद दीपिका व्याख्या और एषणा व्याख्या में भी कोई अन्तर स्पष्ट नहीं किया गया है*

[4/4, 9:29 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*स्थानिक दोष का महत्व दोनो में ही है*

*दोषो के तर तम भाव को सान्निपात और त्रिदोषज दोनो में ही देखने की अनुशंसा है*

[4/4, 9:31 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*आचार्य श्रेष्ठ गुरु जी के अध्यक्षीय मत की प्रतिक्षा में आपका प्रिय शिष्य सत्येंद्र*

[4/4, 9:31 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 🙏🙏🌹🌹🙏🙏

[4/4, 9:33 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*सान्निपातिक  और त्रिदोषज दोनो में ही प्रकृति सम समवेत और विकृति विषम समवेत की प्रक्रिया परिलक्षित होती है, असाध्य दोनो है, और दोनो की चिकित्सा में भी समानता है*..

[4/4, 9:34 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*सादर प्रणाम गुरु जी* 🙏🙏


[4/4, 7:31 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

आपका कथन सही है पंडित ईश्वरचंद्र जी ने तो सही लिखा है। तथापि आप्टे में त्रुटि है l

[4/4, 8:40 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*सादर प्रणाम गुरूश्रेष्ठ, प्रात: आपका आगमन सदैव ही ज्ञान के साथ एक विचित्र सी सुखद अनुभूति प्रदान करता है और हमें पुन: उस आयुर्वेद के मूल से सम्बद्ध कर देता है जो संस्कृत में है।*

             🙏🙏🙏🙏🙏


[4/4, 9:33 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*सान्निपातिक  और त्रिदोषज दोनो में ही प्रकृति सम समवेत और विकृति विषम समवेत की प्रक्रिया परिलक्षित होती है, असाध्य दोनो है, और दोनो की चिकित्सा में भी समानता है*..

[4/4, 9:34 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*सादर प्रणाम गुरु जी* 🙏🙏

[4/4, 9:39 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad: 

सादर प्रणाम !
एक चिंतन मात्र
*लक्षण आधारित विभेद*
*त्रिदोषज -प्रकृति सम समवेत*
*सन्निपातज- विकृति विषम समवेत* 
*चरक चिकित्सा में ज्वर सम्प्राप्ति में निश्चित रूप से कुछ संकेत मिल सकते है ।*

*स्थान आधारित*
 *इसके सूक्ष्म विभेद को स्थान भेद के परिपेक्ष्य में भी समझ सकते है पित्तदोष प्रधान ज्वर की चिकित्सा कफस्थानम पुर्व्या (आमाशय) का चिकित्सा प्रावधान है*..

*साध्य असाध्यता के परिपेक्ष्य में*
*सन्निपातज एवं त्रिदोषज में सूक्ष्म भेद है जो साध्यता असाध्यता के विषय मे भी कुछ संकेत करता हो ,,,,,*
यथा 
*सन्निपातज असाध्यता को शीघ्र एवं ज्यादा होने की संभावना* 
*त्रिदोषज की असाध्य होने की कम सम्भावना ,,,,,,*



[4/4, 9:46 AM] Dr. Surendra A. Soni:

 विचारणीय चिन्तन आचार्य गिरिराजजी ।

👏🏻👌🏻🙏🏻🌹☺️👍🏻

[4/4, 9:47 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*सन्निपाते तु सान्निपातिकं गुल्मं*...

*आभार आदरणीय श्री गुरु जी*..
*सान्निपात शब्द प्रयुक्त नहीं किया गया है*

[4/4, 10:01 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

सन्निपातज्वर में प्रकृति सम समवेत और विकृति विषम समवेत दोनो से ही लक्षण की उत्पत्ति अभिष्ट है; 
आचार्य चक्रपाणी - च.चि.३/८९ - १०८ पर व्याख्या अवलोकनीय है.

त्रिदोषज हृदय रोग में विकृति विषम समवेत की प्रक्रिया परिलक्षित होती है इसीलिए कहा गया है; त्रिदोषजे तूल्बणदोषचिकित्सासूत्रम् - हीनातीत्यादि..

[4/4, 10:06 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad: 

सादर नमन !
प्रकृति सम समवेत लक्षण का प्राधान्य दोनो स्थिति में होते है  परन्तु उसी में कुछ लक्षण विकृति विषम समवेत भी हो तो सन्निपातज स्थिति को दर्शाता है ऐसा  मानना है ।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[4/4, 10:07 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*एषणा व्याख्या➡️ च.चि.३/८९-१०२ तक प्रकृति सम समवाय से उत्पन्न सन्निपातज ज्वर के लक्षण कहे गये हैं तथा सूत्र संख्या १०३ से १०९ तक विकृति विषम समवाय से उत्पन्न सन्निपातज्वर के लक्षण बताये गये है*

[4/4, 10:08 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*शुभ प्रभात प्राध्यापक गिरिराज शर्मा जी*..
*व्याधि विशेष से सम्बन्धित है, सामान्य नियम नहीं माना जा सकता है*

[4/4, 10:10 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*सन्निपात, त्रिदोष और निचय शब्दो का प्रयोग सान्निपातिक गुल्म में एक साथ किया गया है*

[4/4, 10:12 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*त्रिदोषज वातरक्त असाध्य है*

[4/4, 10:15 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad: 

आदरणीय आचार्य श्री ओझाजी !
असाध्य तो दोनो ही हों सकते है पर संभावना किसकी ज्यादा है किसकी कम, कौनसी व्याधि शीघ्र असाध्यता को प्राप्त होगी,,,,,
इस विषय पर मेरा मन्तव्य है ।।
🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹🌹

[4/4, 10:16 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*एक महत्त्वपूर्ण  अवलोकनीय संदर्भ➡️ त्रिदोषज वातरक्त को आचार्य गौड गुरु जी  ने हिंदी व्याख्या में सन्निपातज( वातरक्त) लिखे हैं ; जो कि मेरे मत की पुष्टि करता है*

 हेतु पर निर्भर है न कि व्याधि पर !

 *ऐसे ही त्रिदोषज हृदय रोग का सन्निपातज हृदय रोग हिंदी में अनुवाद है ; च.चि.२६/८०*

[4/4, 10:21 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad: 

त्रिदोषज होते हुए भी असाध्यता को शीघ्र प्राप्त होने की संभावना होने के कारण  आदरणीय गुरु श्रेष्ठ गौड़ जी ने  सम्भवत त्रिदोषज वातरक्त को सन्निपातज कहा हो,,,,,
हेतु के साथ चिकित्सा चतुष्पाद भी महत्वपूर्ण है रोग की साध्यता असाध्यता के लिए,,,
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[4/4, 10:22 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*रोगी का भाग्य भी महत्त्वपूर्ण है*

[4/4, 10:23 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad: 

इस विषय को काल संदर्भ, रोगीबल, औषधि बल, के परिपेक्ष्य में समझना चाहिए ।
उस काल का त्रिदोषज आज सन्निपातज भी हो सकता है ।
🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹

[4/4, 10:25 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*एक बाल जितना सा अन्तर है; इस बाल सदृश अन्तर को आदरणीय श्री गुरु जी ही स्पष्ट कर सकते हैं, प्रतिक्षा में.. तब तक राम राम..*

[4/4, 10:25 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad: 

🙏🏼🙏🏼😊🌹😊🙏🏼🙏🏼

[4/4, 10:27 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*मैं अपना मत प्रकट कर चुका हूं, मैंने काफी चर्चा कर ली है, अब गुरु जी के मत की प्रतिक्षा है*
*फिर कल का सन्निपातज आज त्रिदोषज भी हो सकता है, यह एक विषय है जिस पर सभी  व्याख्याकार मौन है, इसीलिए आधुनिक महर्षि आचार्य श्रेष्ठ महोपाध्याय गौड गुरु जी के मत की प्रतिक्षा में हूं*

[4/4, 10:36 AM] Dr.Satish Jaimini, Jaipur: 

विचारणीय तो है आचार्य !
🙏🏻🙏🏻सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण यही है कई बार साध्य रोग भी रोगी के दुर्भाग्य से कष्टसाध्य और असाध्य हो जाता है ऐसे अनेकों अनुभव हैं🙏🏻🙏🏻

[4/4, 10:47 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

यह जो संभाषा हो रही है वह अपने आप में अपूर्व है. हमने न इसके पहले कभी इस प्रकार की चर्चा सुनी ना देखी है. ६०-७० वर्ष पूर्व मे  होती होगी. आप सभी गुरुजनो का आभार. सभी से अपना योगदान देणे हेतु प्रार्थना.

[4/4, 10:48 AM] Dr.Satish Jaimini, Jaipur: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻सत्य सर !

[4/4, 10:51 AM] Dr. Surendra A. Soni: 

संसृष्टान् सन्निपतितान् बुद्ध्वा तरतमैः *समैः* ॥२८५॥
ज्वरान् दोषक्रमापेक्षी यथोक्तैरौषधैर्जयेत् ।
वर्धनेनैकदोषस्य क्षपणेनोच्छ्रितस्य वा ॥२८६॥
कफस्थानानुपूर्व्या वा सन्निपातज्वरं जयेत् ।

च सू 3

संसर्गसन्निपातचिकित्सासूत्रमाह- संसृष्टानित्यादि। तरतमैः समैरिति संसर्गे एकोल्बणे उल्बणतरैः; *सन्निपाते च वृद्धतरवृद्धतमदोषारब्धे दोषानुसारेणैव;* तथा द्व्युल्बणतरेऽपि सन्निपाते द्वौ दोषौ तरेणैव ज्ञेयौ, वृद्धवृद्धतरवृद्धतमदोषारब्धे च त्रिदोषेऽत्यर्थवृद्धा दोषास्तमैर्ज्ञेयाः।
 येन त्रिषु तमः इति यदुक्तं तत्रिषु मध्ये एकस्य प्रकर्षावधारणे भवति; यदा तु त्रिषु द्वौ प्रकृष्टौ विवक्षितौ तदा एकप्रकृष्टापेक्षया द्वयोस्तरः इत्यस्यैव विषयः। 
*समैस्तु समदोषारब्धसंसर्गः सन्निपातश्च ज्ञेयः।*

*👆🏻विमानोक्त सन्दर्भ की पुष्टि होती है ।*

 दोषक्रमापेक्षीति दोषापेक्षीत्यनेन अनेकसकलदोषगतवृद्धवृद्धतरत्वादिविशेषे चिकित्सितोपयुक्ते अपेक्षणीयत्वमुक्तं, क्रमापेक्षीत्यनेन च ज्वरितचिकित्सितोक्तलङ्घनादिक्रमापेक्षा॑ (अथवाक्रमोऽपेक्षणीय इति दर्शितम् इति पाठः !) दर्शिता। यथोक्तैरौषधैरिति लङ्घनादिभिरञ्जनपर्यन्तैः। ननु त्रिदोषजे ज्वरे चिकित्सा नोपपद्यते, यतो न त्रिदोषशमनं प्रायो द्रव्यं भवति, यद्धि वातस्य पथ्यं तच्छ्लेष्मण्यपथ्यं, यत् पित्ते पथ्यं तच्च प्रायः श्लेष्मण्यपथ्यं; यथा हि तिक्तकषायं कफपित्तहरं तद्वातकरं, यच्च मधुरं वातपित्तहरं तत् कफकरं, यत्तु त्रिदोषहरमामलकादि तत् स्तोकं प्रतिनियतरोगविषयं नावशयं ज्वरयौगिकं॑ (अथवारक्षायौगिकं इति पाठः !) च, 
*सन्निपातश्चायं महात्ययिकः,*

 तत् कथमस्य चिकित्सा कर्तव्येत्याह- वर्धनेनेत्यादि। *पञ्चविंशतिप्रकारोऽत्र सन्निपात उच्यते*

*🙏🏻ज्ञातव्य है कि त्रिदोषज के आगे भेद नहीं बताए गए हैं ।*

 द्व्युल्बणैकोल्बणैः षट् स्युर्हीनमध्यादिकैश्च षट् (सू.अ.१७) इत्यादिना; तत्र स्वमते॑ (अथवास्वमानक्षीणेषु इति पाठः !) *क्षीणद्वादशसु सन्निपातेषु* 

 *(🙏🏻पुनः 12 भेद निर्दिष्ट हैं।)* 

ज्वरारम्भकत्वं नास्ति, क्षीणा हि दोषाः स्वलिङ्गहानिमात्रविकारा नाधिकं ज्वरादिकं कर्तुं समर्थाः; शेषेषु तु त्रयोदशसु त्रिदोषहरद्रव्यस्याभावादभ्यर्हितदोषापेक्षया॑ (अथवात्रिदोषहरद्रव्यसौकर्याभावात् इति पाठः !) चिकित्सोच्यते, गत्यन्तराभावात्। तत्र वर्धनेनैकदोषस्येत्यनेनैकदोषस्य वर्धनेनापीत्यर्थः; एकशब्देन च द्वित्रिवृद्धो दोष एवा पेक्षितो न वृद्धतरो नापि वृद्धतमः। तयोर्हि अतिवृद्धयोर्वर्धनेनातिमात्रवृद्ध्याऽत्यहितमेव॑ (अथवासतोर्वृद्धयोः इति पाठः !) स्यात्। वर्धनेनैकदोषस्येत्यनेन वृद्धतरवृद्धतमदोषद्वयक्षपणकेनैकदोषवर्धनेन; यथा- वृद्धे कफे वृद्धतरयोश्च वातपित्तयोर्मधुरं, तद्धि वृद्धतरवातपित्तद्वयहन्तृतया कफं क्षीणं वर्धयदपि ज्वरं बलवद्दोषहन्तृतया हरति; तथा वृद्धे कफे वृद्धतरे च् पित्ते मधुरप्रयोगो ज्ञेयः। एवमुदाहरणान्तराणि ज्ञेयानि। 

*अतश्च वर्धनेनैकदोषस्येत्यनेन द्व्युल्बणानां त्रयाणां तथा हीनमध्याधिकदोषाणां सन्निपातानां चिकित्सोक्ता।*

 क्षपणेनैकदोषस्येत्यनेन च क्षीणद्वयसंवर्धकमपि यन्महात्ययवृद्धतरवृद्धतमदोषक्षयकरं भवति तद्भेषजं कर्तव्यं; वृद्धतमो ह्यप्रतिकृतः सद्यो हन्ति, तत्प्रतिक्रियायां च क्षीणयोर्वृद्धिरल्पात्यया, सा क्रमेण प्रतिकर्तव्येति भावः। अनेनैकोल्बणास्त्रयः सन्निपाताश्चिकित्सिताः। अस्मिन्नर्थे तन्त्रान्तरं न्यूनैकदोषसंवृद्धिरेवं वृद्धजयोऽपि वा। 

*सन्निपाते तु कर्तव्यः सन्निपातवशेन तु इति। परिशिष्टसमसन्निपातचिकित्सामाह-*

  कफस्थानानुपूर्व्या वेति। वा शब्दो व्यवस्थितविकल्पवाची, कफस्य स्थानं कफस्थानम्, आमाशयोर्ध्वभाग इत्यर्थः; आनुपूर्वी अनुक्रमः; 

तेन कफस्थानुपूर्व्या जयेदिति कफस्थानं प्रथमं जयेत्, स्थानग्रहणेन स्थानिनः कफस्यापि ग्रहणम्। कफजयस्तु साक्षान्नोक्तः, तत्स्थानस्यैवामाशयस्य ज्वरारम्भकदोषेण दुष्टस्य चिकित्स्यत्वोपदर्शनार्थम्॑ (अथवाचिकित्सोपदर्शनार्थम् इति पाठः !)।

 *उक्तं हि- ज्वरो ह्यामाशयसमुत्थः (वि.अ.३)*

 इति। एवं च समा अपि दोषा ज्वरारम्भका यस्मादामाशयं विशेषेण दूषयित्वा ज्वरं कुर्वन्ति, तस्मात् स्थानानुगुणैव ज्वरे प्रथमं चिकित्सा कर्तव्या। स्थानिदोषापेक्षया॑ (अथवास्थानस्थदोषापेक्षया इति पाठः !) हि स्थानमेव प्रथमं चिकित्स्यम्। *यदुक्तं- स्थानं जयेद्धि पूर्वं इति।* कफस्य स्थानं कफस्थानम्। तत्र॑ (अथवातस्य कफस्थानस्य इति पाठः !) लङ्घनपाचनादिक्रिया ज्वरे प्रथमं प्रतिपादिताः क्रियन्ते। एतच्च यद्यपि सर्वज्वरसाधारणं चिकित्सितं, तथाऽपि *सन्निपाते बलवत्तरवातचिकित्सापूर्वकज्वरचिकित्साप्रसक्तिनिरासार्थं समसन्निपाते प्रोच्यते।*

*ज्वरादन्यत्र हि सन्निपाते सम एव वातः पूर्वं चिकित्स्यते;*

 उक्तं हि- वातस्यानुजयेत् पित्तं, पित्तस्यानु जयेत् कफम् इत्यादि। कफस्थानानुपूर्व्या चिकित्सिते क्रियमाणे यो दोष उल्बणो भवति तत्र वर्धनेनैकदोषस्य क्षपणेनोच्छ्रितस्य वा इति चिकित्सा कार्या। एतदेव भेलेनोक्तं- सन्निपातज्वरे पूर्वं कुर्यादामकफापहम्। पश्चाच्छ्लेष्मणि सङ्क्षीणे शमयेत् पित्तमारुतौ इति। अन्ये कफस्थानमामाशयरूपं स्थानं यस्य तत् कफस्थानं पित्तमिति पश्चात्पदलोपादुष्ट्रमुखवद्बहुव्रीहिं वदन्ति, ततश्च पित्तानुपूर्व्या जयेदित्यर्थः। तदर्थानुवादकं च सुश्रुतवचनं पठन्ति- शमयेत् पित्तमेवादौ ज्वरेषु समवायिषु। दुर्निवारतरं तद्धि ज्वरार्तेषु विशेषतः (सु.चि.अ.३९) इति। तत्रैवं॑ (अथवातन्न, एवं तर्हि इति पाठः !) तर्हि स्पष्टार्थं पित्तानुपूर्व्या इत्येवमेव पठेत्। सुश्रुतवचनं हि जीर्णत्रिदोषाभिप्रायेण ज्ञेयम्, एतच्च प्रथमोत्पन्नसन्निपातज्वरचिकित्सितं कफस्थानानुपूर्व्या ज्ञेयम्। ये तु कपश्च स्थानं चेति द्वन्द्वं कुर्वते, तेषां मते कफस्यामाशयस्यापि च ज्वरस्थानस्य पूर्वं जयः कर्तव्य इत्यर्थः, स च षष्ठीतत्पुरुषेऽपि स्थानस्यामाशयस्य स्थानिकफापेक्षया क्रियमाणचिकित्सया लभ्यत एवेति नार्थविरोधः। इयं चैकदोषवर्धनादिरूपा सन्निपातचिकित्सा यद्यपि न विशुद्धा, यदुक्तं- प्रयोगः शमयेद्व्याधिं योऽन्यमन्यमुदीरयेत्। नासौ विशुद्धः शुद्धस्तु शमयेद्यो न कोपयेत् (नि.अ.८) इति, तथाऽपि सन्निपातचिकित्सायां गत्यन्तरासम्भवे सति अल्पदोषबहुगुणतया क्रियत इति ज्ञेयम्। अन्ये तु वर्ध च्छेदने, इत्यस्माद्वर्धनेनेति साधयन्ति, वर्धनशब्देन च मूलच्छेदकारकं संशोधनमुच्यते; एकग्रहणेन च न युगपद्वातादीनां बस्त्यादिशोधनं कर्तव्यं, किन्त्वेकैकेनेति दर्शयति; क्षपणेनोच्छ्रितस्येत्यनेन संशोधनविषये संशमनमुच्यते; शेषस्य तु व्याख्या पूर्ववत्। अनेन श्लोकेन *त्रयोदशविधसन्निपातारब्धज्वरचिकित्सितमुक्तं भवति।*

*सन्निपातारब्ध शब्द विशेष विचारणीय है ।*
🙏🏻
 क्षीणवृद्धदोषविकल्पकृतषड्विधसन्निपातेषु यो ज्वरस्तत्र न केवलं वृद्धस्य दोषद्वयस्यैकस्य वा वृद्धस्य ज्वरारम्भकस्य चिकित्सा कार्या, किन्तु स्वमानक्षीणवर्धनमपि तत्र कर्तव्यं भवति; स्वमानक्षीणद्वादशसन्निपातस्य तु ज्वरानारम्भकत्वमेव॥२८५-२८६॥

*परमादरणीय ओझा सर !*

*किसी महत्वपूर्ण विषय पर आपकी सहमति प्राप्त करना बड़ा दुष्कर कार्य है तथा यह और ही दुष्कर तथा कठिन हो जाता है जब आप पूर्व में असहमति/अल्पसहमति व्यक्त कर चुके हों तथापि मेरा आपकी सहमति प्राप्त करने का दुस्साहस अनवरत रहेगा क्योंकि यह भी आपसे ही सीखा है ।*
*त्रिदोषज और सन्निपात एक मानेंगें तो भ्रम की स्थिति बनती है और सन्निपात संज्ञा का महत्व समाप्त होता है । सन्निपात आज के सीरियस और क्रिटिकल शब्दों के समीप है जैसा कि पुराने वैद्यगण बातचीत में कहते थे कि रोगी सन्निपात में जा रहा है या चला जायेगा । अगर दोनों को एक मानेंगें तो सन्निपात शब्द को अस्तित्व में लाने की आवश्यकता ही क्या थी ?* *सभी व्याधियों को सन्निपातज क्यों नहीं कहा गया है ? सन्निपात के भेदों का निर्देश क्यों किया गया है ?*

*आप हम सब के लिए ऊर्जा और प्रेरणा के परम स्रोत हो, आपसे विषय पर पुनर्विचार करने का करबद्ध निवेदन ।*

🙏🏻🌹😌


[4/4, 12:27 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

ऊपर बता दिया बाल जितना 
सा ही अंतर है जहां  हृदय रोग में
 दोषज का वर्णन है ठीक उसके नीचे सन्निपात का संबोधन किया है
इसके बाद त्रिदोषजे तु हृद्रोगे यो दुरात्मा कह दिया। इस तरह के अनेक प्रसंग है कि पहले त्रिदोष और फिर सन्निपात कह देना या पहले सन्निपात और  उसके बाद त्रिदोषज कह देना आदि अनेक प्रकार की प्रकार की उलझनें हैं उन को सुलझाना है सहसा निर्णय नहीं देना। लेकिन थोड़ा अंतर जरूर है यह विमान स्थान में  विषम समवेत में भी वर्णन है
ज्वर में भी है मदात्यय में भी है अतिसार में भी है एवं अन्यत्र भी है विश्लेषण करना पड़ेगा निचय गुल्म में आचार्य ने विश्लेषण करने के लिए संकेत भी दिया है 
इसलिए धैर्य रखिए जब भी समय मिलेगा इसका विश्लेषण करेंगे यदि दोनों एक सिद्ध होंगे तो एक कर देंगे अन्यथा अलग तो हैं ही और अलग हैं तो कितने हैं यह भी बताना पड़ेगा ।
ओझाजी !

[4/4, 12:27 PM] Dr. Pawan Madan: 

प्रणाम एवं चरण स्पर्श गुरु जी।

💐🙏💐🙏

[4/4, 12:37 PM] Dr. Sadhana Babel Mam: 

Pratiksha me guruvar🙏🙏


[4/4, 12:41 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

पर्याय क्यों कहते हैं इसका उत्तर आपको ज्वर निदान के प्रथम अध्याय के तीसरे सूत्र में मिलेगा अतः पर्याय के हेतु को ढूंढने का प्रयत्न करना चाहिए यदि हेतु नहीं मिलता है तो जैसा है वैसा स्वीकार करने में कोई
दिक्कत नहीं है । इसलिए पुनः कहता हूं धैर्य रखिए पर्यायाभिधान   का हेतु मिलेगा, नहीं मिलेगा तो जो है वैसा तो स्वीकार है ही।
कल्पस्थान के पहले अध्याय के 27 वें सूत्र की व्याख्या में भी चक्रपाणि ने कुछ स्पष्ट किया है वह पर्याय के वैशिष्ट्य को बताता है ।अतः वैशिष्ट्य मिलना ही चाहिए नहीं मिलता है तो जैसा है वैसा स्वीकार कर लेंगे

[4/4, 12:43 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

जल्दी है तो तब तक आप लोग भी ढूंढिए आप सभी सक्षम हैं आचार्य हैं व्याख्याकार हैं, विश्लेषक हैं, आलोचक हैं समीक्षक हैं ।

[4/4, 12:46 PM] Dr. Pawan Madan:

 ज्वर निदान में
🙏💐🙏

[4/4, 12:51 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

प्रणाम गुरुजी ।

🙏🏻🌹☺️

[4/4, 12:53 PM] Vd.V.B.Pandey Basti(U.P.): 🙏

[4/4, 1:11 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

एतै: पर्यायैरात्मनो अभिधेयस्येतर पदार्थोपकार्यत्वेनाश्रयत्वं प्रसिद्धं दर्श्यते।
ऐसे अनेक प्रसंग हैं अतः पर्याय निरर्थक नहीं हैं ।

[4/4, 1:11 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

प्रणाम गुरूवर, उत्सुकता जरूर बहोत है, जल्दी कतई नहीं. हमारी क्षमता ही नहीं है, वरन यह सवाल पहले ही जेहन मे आता. इन संदर्भो पर कभी ध्यान गया ही नहीं. आपश्री के पास जबभी. समय पर्याप्त हो, आपके विचारों की प्रतिक्षा रहेगी।


[4/4, 3:42 PM] Dr.Bhavesh R.Modh Kutch: 

*सन्निपातः* - सम + निपातः 

*निपातः* का एक अर्थ मृत्यु बताया है ।

आधुनीक चिकित्सा क्षेत्र मे  सघन चिकित्सा मिलने या लागु पडने से पहले दरदी की मृत्यु होती है तो  *collapse* मेडिकल टर्म अक्सर इस्तमाल की जाती है, 
यह निपातः भी कुछ उस तरह का अर्थ-भाव दिखाता है ।

सन्निपातः  की स्थिति मे तीनो दोष के प्रकोप प्रसार मे दो संस्कृत शब्द   *युगपत्* व *अजस्त्रं*
 जैसा भाव भी होता होगा ।

आज की भाषा मे कहे तो *सन्निपात* यानि *Out of control* ... फिर व मानसिक स्थिति हो या शारीरिक ।

[4/4, 3:44 PM] Dr.Kapil Kapoor Sir: 

*च.चि. 26 में मूल पाठ*
में आचार्य चरक ने 

स्वाभाविकं वक्रमथारुचिश्च *त्रिदोषजे* नैकरसं भवेत्तु||१२६||      
    
 कहा है 

*परन्तु* 

इसी अध्याय के 
श्लोक संख्या २१५-२२० की टीका करते हुए

 *आयुर्वेददीपिका व्याख्या  में* 
 *आचार्य* *चक्रपाणिदत्त* *ने* 

अरोचकचिकित्सामाह- अरुचावित्यादि| कुष्ठेत्यादिना अर्धश्लोकोक्ताश्चत्वारो योगा *वातपित्तकफसन्निपातजेष्वरोचकेषु* क्रमाज्ज्ञेयाः||२१५-२२०||

 *कहा है*

[4/4, 3:45 PM] Dr.Bhavesh R.Modh Kutch: 

👍👌😊
लास्ट मे आपका हिन्दी मे लिखा ही पढ़ा मेरी संस्कृत काफि कमजोर है  पर अंत का विवेचन से *संनिपात* की टर्म  क्रिस्टल क्लियर हो गई ।
 शायद त्रिदोषज विकार मे तीनो दोष के प्रकोप एवं प्रसार मे सम युगपत् व अजस्त्रं  का अभाव होता होगा कोइ एक दोष अधिक तो कोइ एक दोष न्युन तो कोइ एक दोष तटस्थ पर विकार की संप्राप्ति मे तीनो दोषों का कुछ कुछ योगदान रहता होगा ।


[4/4, 7:28 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*परम आदरणीय श्री गुरु जी सादर प्रणाम* 🙏🙏
च.सू.१, अष्टोदरीय अध्याय में  सन्निपात  शब्द का प्रयोग हुआ है, न कि त्रिदोषज  का ..
*पञ्चशिरोरोगा* इति पूर्वोद्देशमभि समस्य वातपित्तकफ *सन्निपात* क्रिमिजा:, पञ्चहृदिरोगा इति शिरोरोगैर्व्याख्याता: .

च.सू.१७ में ➡️ वाताच्छूलं भ्रम: कम्प: पित्ताद्दाहो मदस्तृषा, कफाद्गुरुत्वं तन्द्रा च *शिरोरोगे त्रिदोषजे*.(१७/२६)

हेतुलक्षणसंसर्गादुच्यते *सान्निपातिक:*, *त्रिदोषजे* तु हृद्रोगे यो दुरात्मा निषेवते, च.सू. १७/३६.
*विद्यात्त्रिदोषं* त्वपि लिङ्गं, च.चि.२६/८०.


➡️ चत्वारोऽपस्मारा इति वातपित्तकफ *सन्निपात* निमित्ता: ,
च.सू.१९.

सर्वैरेतै: समस्तैस्तु लिङ्गैर्ज्ञेय: *त्रिदोषज:*, अपस्मार: स चासाध्यो य: क्षीणस्यानवश्च य: . 
च.चि.१०/१२.

चरक संहिता में वर्णित रोगों के अध्ययन से स्पष्ट है ➡️ *सन्निपाते इति मेलके अर्थात् मिश्रण /संयोग से है* .
*त्रिदोष में भी तीनों दोष मिलकर ही है*

[4/4, 7:33 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*जी, गुरु जी, मार्ग दर्शन हेतु साभार सादर प्रणाम* 🙏🙏

[4/4, 7:44 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*च.क.१/२७ पर आचार्य चक्रपाणी की टीका अतिसुंदर एवं अवलोकनीय है*

[4/4, 7:58 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*प्रिय सुरेन्द्र भाई , सहमति/असहमति का प्रश्न नहीं है, चरक संहिता में व्याप्त  संदर्भो को समझते हुए किसी निर्णय पर पहुंचने की एक कोशिश , जैसा की हमारे आदरणीय गुरु जी ने भी कहा की किसी भी निर्णय पर इतने जल्दी पहुंचने की जरुरत नहीं है . चर्चा इस मंच पर हम सभी के कल्याणार्थ ही है. मैं किसी पूर्वाग्रह के साथ चर्चा में भाग नहीं लेता, मेरी चर्चा में कोशिश होती है की समग्र संदर्भो के आधार पर मत प्रकट करुं.. आचार्य चरक, आचार्य चक्रपाणी और आचार्य गौड के मत के आधार पर मेरा वक्तव्य निर्धारित होता है*

[4/4, 8:17 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

सादर प्रणाम आ. ओझा सर ।

सविनय निवेदन है कि मेरे द्वारा प्रस्तुत किये गए प्रश्नों का उत्तर आपने नहीं दिया । हम अध्यापक संवर्ग के लोग हैं हमें विद्यार्थियों के प्रश्नों का उत्तर देना होता है । दोनों एक ही है, अभेद है यह तो उत्तर हो ही नहीं सकता है ।
मेरे किसी भी बिन्दु को आपने स्पर्श ही नहीं किया !

🙏🏻🌹😌
[4/4, 8:20 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
 
आपके द्वारा प्रस्तुत पोस्ट में ही सन्निपात और त्रिदोषज एक साथ लिखा हुआ है और आपने उसे उपेक्षित किया है , फिर क्या बोलूं भाई..

[4/4, 8:24 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

तो फिर सन्निपात क्यो लिखने की आवश्यकता हुई ? उसके भेद क्यों लिखे गए हैं ।
महात्यय ?
दोनों साथ होने से भी तो प्रश्न उठता ही है ।
त्रिदोषज के सन्निपात की तरह संख्यात्मक भेद हैं ?
मूल प्रश्न अनुत्तरित है महर्षि जी ।।

🙏🏻🌹😌
[4/4, 8:44 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 सभी सन्निपातिक रोग महात्यय नहीं होते.
सन्यास, वातिक प्रमेह, क्षतज कास सदृश व्याधियां भी महात्यय है.
सन्निपात से अर्थ मिलने से है अर्थात इस संदर्भ में तीनों दोषो के ‌मिलने से है.
तीनों दोषों की उल्बणता क्या है या तीनों दोषो के तर तम भाव क्या है ? 
इस आधार पर ही चिकित्सा व्यवस्था निर्धारित की जाती है.
सन्निपात में ही त्रिदोष का समावेश हो जाता है, उसी प्रकार त्रिदोष में सन्निपात का समावेश हो जाता है .
 च.सू.१९ अवलोकनीय है, जहाँ पर त्रिदोषज शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, परंतु पूर्व में और पश्चात भी सन्निपातिक को त्रिदोषज कहा गया है..

*त्रिदोषहर द्रव्य है न कि सन्निपातहर द्रव्य कहे गये*

[4/4, 8:49 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 *१२ प्रकार के विषम सन्निपातज्वर में त्रिदोषो की उल्बणता ही बतायी गयी है, और इस उल्बणता को समझना युक्तियुक्त है तभी चिकित्सा फलदायी होती है*
 त्रिदोष में सभी कुछ समाहित है।
 त्रिदोषज गुल्म या सन्निपातिक गुल्म ही कहा जा सकता था फिर भी निचय गुल्म संज्ञा दी गयी, शब्द के महत्व है ..
 **संदर्भ के आधार पर विशिष्ट शब्दो के विशिष्ट अर्थ होते हैं*

[4/4, 9:03 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

तो फिर सन्निपात शब्द की कोई प्रासंगिकता नहीं है ?

आपकी सभी पोस्ट से तो यही लगता है ।
त्रिदोषप्रकोप की उग्रता की ओर महर्षि सुभाष जी ने इंगित किया था ।
सन्निपात प्रसंग में भी त्रिदोष एक विशिष्ट तीव्रतर-तम सक्रियस्वरूप में मानने चाहिए ऐसा मेरा मानना है ।
विमानोक्त सन्दर्भ को उपेक्षित नहीं किया जा सकता है ऐसा मेरा मानना है ।
सन्निपात स्वरूप में त्रिदोष शब्द प्रयोग बताने से हम उसे एक कैसे मान सकते हैं । 
*सभी रोग त्रिदोषज हैं सन्निपातज नहीं कहा गया है ?* 
यही वो आधार है जो सन्निपात के पृथक स्वरूप को स्थापित करता है ।
त्रिदोषों की कार्मुकता तो अवस्था पाक में भी निर्दिष्ट है वहाँ सन्निपात नहीं कहा गया है ।
क्रियात्मक-त्रिदोष
विकृतिपरक-त्रिदोष
विशिष्टहेतु-लक्षण-चिह्नपरक- सन्निपात(तीव्रतर-तम-स्वरूप, महात्यय)



🙏🏻🌹😌


[4/4, 9:04 PM] Dr.Mrunal Tiwari : 

निचयात्मकः सान्निपातिकः।
सान्निपातिकश्च निचयगुल्मजन्मतया व्यपदेशेन विकृतिविषमसमवायात् संयोगमहिम्ना च दर्शयति।
च.चि.5/14 टिका

[4/4, 9:08 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

मेरे पास इन सब का संग्रह है पहले किया हुआ है काम, पर विश्लेषण नहीं किया हुआ। त्रिदोष में दोषों का समाहार है और सन्निपात में सम्यक् निपात है अतः अतः इस दृष्टि से कोई संकेत मिलेगा तो उस पर विश्लेषण कर लूंगा । मैंने लगभग 20 साल पहले मुंबई में इस विषय पर एक व्याख्यान दिया था पर वह केवल त्रिदोष शब्द स्वरूप पर था। मेरे पास वह संग्रह है।

[4/4, 9:09 PM] Dr.Deep Narayan Pande: 

*यह अत्यंत महत्वपूर्ण ऑब्जरवेशन है।*

[4/4, 9:10 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

क्या कहेंंगे कल और आज  की परीचर्चा के बारे मे, कल सुभाष सरजी के पोस्ट से सुरू हुआ सिलसिला आज सबेरे गुरुवर के  आशिर्वाद से बढकर आज दिनभर चला, ओझा सर, सोनी सर, गिरीराज जी, चुलेट सर, पवनजी, सतिष जी आदी  सभी द्वारा शास्त्र संदर्भ की आतिषबाजी हुयी है वह बडी स्तब्ध करदेनेवाली है. शायद चरक विमान मे वर्णित तद्विद संभाषा यही होती  होगी. अब बस एक ही इच्छा है, इन सिद्धांतो को चिकित्सा में प्रयुक्त करते हुए समझना है. और यह तो निश्चित ही इसी विद्यालय मे पुरी होगी.

[4/4, 9:11 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

जी गुरुजी प्रणाम ।
प्रतीक्षा रहेगी ।

🙏🏻🌹😌

[4/4, 9:13 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

आचार्य संजयजी नमस्कार ।
आप से भी दोनों पक्षों पर यथावश्यक स्वपक्ष प्रस्तुत करने का निवेदन है ।

🙏🏻😌

[4/4, 9:17 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 🙏🙏☺️☺️🙏🙏🌹🌹

[4/4, 9:18 PM] Dr.Mrunal Tiwari : 

इससे कुछ सुलझ जाता है तो देखे-
सन्निपातगुल्मे तु प्रत्येकदोषजलक्षणादतिरिक्तानि लक्षणानि तत्प्रभावश्चासाध्यत्वादिर्वक्तव्य एवेति युक्तं तस्य भेदेनोपादानम्।


[4/4, 9:21 PM] Dr. Sadhana Babel Mam:

 मन्दवातेषुशस्यन्तेशैत्यमाधुर्यलाघवात्।
लावाःकषायमधुरालघवोऽग्निविवर्धनाः॥६९॥
 *सन्निपातप्रशमनाःकटुकाश्चविपाकतः* ।
गोधाविपाकेमधुराकषायकटुकारसे॥७०॥
सूत्र/अन्नापान विधि
चटकामधुराःस्निग्धाबलशुक्रविवर्धनाः॥७५॥
 *सन्निपातप्रशमनाःशमनामारुतस्यच* ।
कषायोविशदोरूक्षःशीतःपाकेकटुर्लघुः॥७६॥
सूत्र अन्नापान विधि

[4/4, 9:22 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

हमारे समझ से परे है, इतना सुक्ष्म विचार हमने किया ही नहीं, यह कहने मे हमे हिचकीचाहट भी नहीं है. यह बहोत ही अलग स्तर है. बारबार पढना पड रहा है. आशा है सभी विद्वत जन इसमे हिस्सा ले !

[4/4, 9:23 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*आचार्य गौड गुरु जी की टिप्पणी च.नि.३/१२ पर अवलोकनीय है*

[4/4, 9:23 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

यही तीव्रता और विशिष्टता अत्यंत महत्वपूर्ण और विचारणीय है ।

🙏🏻
[4/4, 9:23 PM] Dr. Sadhana Babel Mam: 

इसमें sannipatprashamana कहा है 

कृपया मार्गदर्शन कीजिए।🙏🙏🙏

[4/4, 9:24 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

सुश्री तिवारीजी और साधनाजी कोभी बहुत साधुवाद

[4/4, 9:24 PM] Dr. Sadhana Babel Mam: 

हम तो बहोत ही छोटे है
समझो अभी एडमिशन हुआ है🙏


[4/4, 9:27 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

वर्णन शैली में प्रायः त्रिदोषहर शब्द ही प्रयुक्त होता है । सन्निपातप्रशमन में कहा गया द्रव्य उसकी अपनी विशिष्टता को बताया गया प्रतीक होता है ।

🙏🏻😌

[4/4, 9:27 PM] Dr. Vinod Sharma Ghaziabad: 

बहुत सुंदर , स्पष्ट ।
कभी ध्यान ही नही गया इस बात पर ।

[4/4, 9:27 PM] Dr. Pawan Madan: 

क्या ऐसा कहा जा सकता है

त्रिदोष की एक विशेष स्तिथि का नाम सन्निपात है, जिसमे एक विशेष प्रकार से त्रिदोशों की कारणता होती है।
🤔
[4/4, 9:29 PM] Dr.Mrunal Tiwari: 

त्रिदोषज व्याधी कब सन्निपातज हो जाता है इसका विचार त्रिदोषज गुल्म की असाध्यता में कहा गया है-

महारुजं दाहपरीतमश्मवध्दनोन्नतं शीघ्रविदाहि दारुणम्।
मनःशरीराग्निबलापहारिणं त्रिदोषजं गुल्ममसाध्यमादिशेत् ।

[4/4, 9:30 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

जी, सुरेन्द्र भाई , यहाँ पर वातघ्न होते हुए भी सन्निपातप्रशमना: कहा गया है, आचार्य चक्रपाणी यहाँ पर मौन है.

[4/4, 9:31 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

यह प्रकृति समसमवायात्मक त्रिदोष के लिए है सामान्यतया त्रिदोष 
के दो स्वरूप हैं  समसमवायात्मक एवं विकृति विषमसमवायात्मक । सामान्यतया प्रकृतिसमसमवायात्मक के लिए त्रिदोष का प्रयोग होगा एवं विकृति विषम समवेत के लिए सन्निपात होगा । लेकिन यह भी प्रत्यात्मस्वरूप नहीं है अर्थात इसमें अर्थात् इस में अंतर आ सकता है अतः प्रत्यागमन स्वरूप नहीं है  अतः दोनों का दोनों प्रकार से विचार करने पर भी इन दोनों को पृथक् पृथक् रूप में संस्थापित करना होगा अर्थात् त्रिदोष प्रकृति सम समवाय है एवं सन्निपात विकृतिविषम।  इतना होने पर भी इनके लिए सीमा रेखा नहीं है जिस प्रकार से निदान का दो अर्थों में प्रयोग होता है एक व्याधि जनक और दूसरा व्याधि बोधक । व्याधिजनक में केवल कारण रूप प्रयुक्त होता है जबकि व्याधि बोधक में निदान पंचक का ग्रहण हो जाया करता है। इसीलिए मेरा यह आग्रह था कि मुझे इस प्रपंच में अभी मत डालिए यह बहुत लंबी व्याख्या है और मैंने इसके लिए जो प्रारूप व्यवस्थित कर रखा है वह लगभग डेढ़ सौ पृष्ठों में समाहित होगा यह बात मैंने सुरेंद्रसोनी जी को बता दी थी पर आप बार-बार गुरुजी का आह्वान कर रहे हैं तो मुझे बीच में आना पड़ा लेकिन मैं ज्यादा लंबे समय तक इस चर्चा में भाग नहीं ले सकता यह मेरी मजबूरी है संकेत मैंने आपको दे ही दिए। मैंने जो सुबह 2-3 व्याख्या डाली थी ऐसी मेरे पास अनेक व्याख्यायें हैं ।मैंने जो सुबह दो-तीन व्याख्या डाली थी ऐसी मेरे पास अनेक हैं उसमें अरुण दत्त हेमाद्रि एवं चक्रपाणि के विचारों को मैंने तोड़ने मरोडने का काम किया है अतः उस में समय लगेगा।सत्य है कि समय अभी मेरे पास है नहीं !

[4/4, 9:31 PM] Dr. Vinod Sharma Ghaziabad: 

जी बिल्कुल सही कहा ,एक संदर्भ में कहा गया शब्द दूसरे संदर्भ में भिन्न अर्थ रख रख सकता है ।

[4/4, 9:32 PM] Dr. Pawan Madan: 🙏🙏🙏

पर
कहीं कहीं पर त्रिदोष व सन्निपात शब्द पर्याय रूप मे प्रयुक्त हुये दिखायी देते हैं

संदर्भ के अनुसार इनका अर्थ अभिप्राय है।

शास्त्र मे मैने ये भी देखा है के कई बार अलग अलग शद्ब पर्याय रूप मे प्रयुक्त हुये हैं, और वो सिर्फ उस पद्य या गद्य की लय के अनुसार होता है
या
उस विशेष संदर्भ मे कुछ emphasize करने के लिये होता है।
🙏🙏

[4/4, 9:33 PM] Dr.Mrunal Tiwari: 

महारुजमित्यादिना सन्निपातजलक्षणान्याह। केचिदेतल्लक्षणण व्यतिरिक्तलक्षणस्तु यः प्रत्येक दोषजोक्तसंसर्गमात्रलक्षणः प्रकृतिसमवायसन्निपातजन्यः स साध्य एव गुल्म इति वदन्ति ॥ १७ ॥

[4/4, 9:35 PM] Dr. Pawan Madan: 

🙏🙏🙏💐💐🙏🙏

बाल स्वरूप अन्तर।

[4/4, 9:35 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*विकृति विषम समवेत सन्निपातिक गुल्म को च.चि.५ में त्रिदोषजं गुल्मं असाध्यमादिशेत् कहा गया है*

[4/4, 9:36 PM] Dr. Pawan Madan: 

इसी तरह पर्याय रूप ने शब्द प्रयुक्त होने के कारण ही ये चर्चा उत्पन्न हुई है
😊

[4/4, 9:37 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 ‌जी पवन जी !

[4/4, 9:37 PM] Dr.Mrunal Tiwari: 

त्रिदोषज संप्राप्ति में जब प्रकृतिसमवायसन्निपातजन्य लक्षण रहे तो साध्य अन्यथा असाध्य रहेंगे।

[4/4, 9:39 PM] Dr. Pawan Madan: 

हेतुओं पर भी ध्यान देना आवश्यक है।

[4/4, 9:40 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

वह तो उल्वण शब्द से ही स्पष्ट है वृद्ध तो सभी हैं केवल उनमें तर तम बताने के लिए उल्वण प्रयुक्त है !
 ऐसे ही प्रसंग है जो प्रकृति सम समवाय और विकृति विषम समवाय स्वरूप में सन्निपात का या त्रिदोष का भेद करने के लिए प्रेरित करते हैं 
इसी प्रसंग में निचय गुल्म की व्याख्या देखिए

[4/4, 9:43 PM] Dr.Mrunal Tiwari: 

सन्निपात सम्प्राप्ति मे जब अग्नि नष्ट हो जाती है तब व्याधी असाध्य हो जाता है।

[4/4, 9:43 PM] DR Narinder paul, J&K: 

*जब त्रिदोष इंद्रियों को उनके अर्थों को ग्रहण करने में असक्षम बना दे या यूं कहें कि त्रिदोष जब चित पर भारी हो जाए तब उस अवस्था को सन्निपात अवस्था कहा गया है। सन्निपात का मतलब व्याधि का चित्त के साथ involve हो जाना है।*
*रोगी जो सही है उसको देख नहीं पाता ना समझ पाता है रियालिटी के साथ उसका सामंजस्य टूट जाता है यह अवस्था सन्निपात अवस्था है। शारीरिक दोषो का मानसिक दोषों पर हावी हो जाना है। त्रिदोष अवस्था मात्र केवल शरीर तक ही सीमित रहती है। त्रिदोष सन्निपात की प्रारंभिक अवस्था है। सन्निपात अवस्था त्रिदोष अवस्था से अधिक भयंकर रहती है।*

*यह मेरा अपना अनुभव है कोई स्पष्ट रेफरेंस मिलना मुश्किल है*

[4/4, 9:44 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

इसको आचार्य निचय गुल्म कह चुके हैं यह भी देखिए और निचय क्यों कहा  है यह व्याख्या भी देखिए

[4/4, 9:45 PM] Dr. Pawan Madan: 

In practice

*प्रायोगिक तौर पर क्या हमे क्या ऐसा रोगी मिलता है जिसमे लक्षण तो त्रिदोशो के अत्यंत वृद्ध अवस्था के मिलते हो पर उस की हिस्ट्री मे तीनो दोषों के वृद्ध होने के अपने अपने कारण ना हों*

@⁨Dr. Surendra A. Soni⁩ sir
@⁨Prof. Satyendra Narayan Ojha⁩ sir

💐🙏💐

[4/4, 9:47 PM] Dr. Vinod Sharma Ghaziabad: 

यदि त्रिदोष और सन्निपात  का एक सर्वमान्य विभेद निकल आता है तो ये एक बहुत बड़ी बात होगी ,।
     ये पूरे आयुर्वेद जगत के लिए बहुत महत्व पूर्ण उपलब्धि होगी ।
     चालीस वर्ष के इस सफर में इतनी सार्थक चर्चा कभी नही सुनी, न देखी ।
    सभी को साधुवाद 🙏🏾🙏🏾🙏🏾👏👏👏

[4/4, 9:52 PM] Dr.Mrunal Tiwari: 

सन्निपात में अग्नि के साथ शरीर और मन का बल समाप्त हो जाता है , इसके बाद रुग्ण प्राणत्याग देता है।

[4/4, 9:53 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

आपने अति सुंदर व्याख्या प्रस्तुत की है; सामान्यतः जो (लक्षण) यहाँ प्रादुर्भाव (उत्पन्न) होते हैं (दिखाई देते हैं), वे विकृति विषम समवाय से आरब्ध ( शुरु हुए, उत्पन्न हुए) तथा प्रकृति सम समवाय से उत्पन्न लक्षण यहाँ कहे जा रहे हैं....... संदर्भ च.चि.३/८९-१०८ पर एषणा हिन्दी व्याख्या..

Dr. Surendra !


[4/4, 9:56 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

जी गुरु जी🙏🙏

[4/4, 9:58 PM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

डॉक्टर तिवारी जी, सन्निपात के बाद रोगी प्राण त्याग ही दे ऐसा आवश्यक नहीं है।

[4/4, 9:59 PM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

*अत्यल्प हो जाता है ऐसा कह सकते हैं, समाप्त तो नहीं।*
डॉक्टर तिवारी जी!

[4/4, 10:01 PM] Dr.Mrunal Tiwari: 

Sir What I mean was ,if Agni,Sharia and Mana are involved,it is impossible to save the life😊

[4/4, 10:01 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 इसमें यह भी ध्यान देने योग्य है कि विकृति विषम समवायात्मक सर्वत्र ही असाध्य हो ऐसा नहीं होगा अपितु गंभीरं बहुधातुस्थं आदि स्वरूप तथा अन्य स्थानीय दूष्य उनके साथ होंगे तो वह असाध्य होगा  अन्यथा कृच्छ्रसाध्य या  याप्य या प्रत्याख्येय कोई सा भी हो सकता है

[4/4, 10:02 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*उदान आवृत प्राण से मृत्यु सम्भाव्य है परंतु यहाँ सन्निपातिक अवस्था नहीं है*

[4/4, 10:04 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

विलंब: संजात: शुभरात्रि:

[4/4, 10:04 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

अति उच्चकोटि प्रासंगिक व्याख्या.
 🙏🙏

[4/4, 10:04 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

सादर प्रणाम गुरु जी शुभ रात्रि आभार 🙏🙏

[4/4, 10:05 PM] Vd.Divyesh Desai Surat: 

संसर्ग सन्निपातस्च तत्त द्वी त्रि क्षय कोपतः
संसर्ग और द्विदोषज
सन्निपात और त्रिदोषज कही कही जगह पर समानार्थी शब्द के रूप में प्रयुक्त हुआ है
लेकिन संसर्ग और सन्निपात में
या तो दोषों का क्षय या प्रकोप का मिलना आवश्यक है, मतलब सन्निपात मे दोषों का क्षय या प्रकोप का लक्षणों का मिलना जरूरी है, जबकि त्रिदोषज में दोषों का क्षय या प्रकोप के लक्षणों का मिलना जरूरी नहीं है।।प्रकृति शब्द के लिए द्विदोषज या त्रिदोषज ये शब्दो का use कर सकते है लेकिन संसर्ग प्रकृति या सन्निपात प्रकृति ये शब्द का use नही कर सकते..(अष्टाङ्ग हृदय के आधार पर,)

[4/4, 10:06 PM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

डॉक्टर तिवारी जी अग्नि, शरीर और मन *प्रायः* प्रत्येक बीमारी में इंवॉल्व होते हैं। आपके ध्यान में है कि शारीरिक रोग मन को भी संताप पहुंचाते हैं और मन के रोग शरीर को भी संताप पहुंचाते हैं। और अग्नि के बारे में तो आपको ध्यान में है ही कि इसके मंद होने पर अगर सब नहीं तो अधिकांश रोग तो होते ही हैं। हालांकि आचार्यों ने मंदाग्नि से सभी रोगों के होने की बात भी लिखी है।

   [4/4, 10:06 PM] Vd.Devyesh Desai


[4/4, 10:13 PM] Dr.Mrunal Tiwari: 

Involved to the extent that they are finished or exhausted totally.The Samhita word is नष्ट🙏

[4/4, 10:13 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

वातव्याधि तथा आवरण के प्रसंग में सन्निपात शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है ।

प्रणाम सर ।🙏🏻🌻🌹

[4/4, 10:19 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

इस संदर्भ का उल्लेख इसलिए किया की सन्निपातिक अवस्था के अतिरिक्त भी मृत्यू के अन्य कारण उपलब्ध है.
नमस्कार प्रा. सोनी जी !

[4/4, 10:33 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

प्रणाम गुरुजी ।

व्यवधान के लिए क्षमा । आपने काफी कुछ स्पष्ट किया है बाकी हम सब मंथन कर ही रहे हैं ।

😌🙏🏻🌹🌻

[4/4, 10:35 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 ❎❎ , 
सन्निपात में त्रिदोष और त्रिदोष में सन्निपात..
*गलती को सुधारने के लिये आदरणीय श्री गुरु जी का आभार*


[4/4, 10:45 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*आर्ष ग्रन्थों मे शब्दों का चयन और प्रयोग किसी विशिष्ट अर्थ के हेतु ही किया है और पर्यायवाची शब्दों का भी अपना महत्व है , सन्निपात मे 'पात' शब्द चरक ने इस प्रकार प्रयोग किया है 'न विद्युत्स्वनार्तवीषु नाभ्युदितासु दिक्षु नाग्निसम्प्लवे न भूमिकम्पे न महोत्सवे नोल्कापाते' च सू 8/24 'उल्कापात' और उदाहरण देखे 'न जलोग्रवेगमवगाहेत, न कु३लच्छायामुपासीत नाग्न्युत्पातमभितश्चरेत्, नोच्चैर्हसेत्, न शब्दवन्तं मारुतं मुञ्चेत्' च सू 8/19 यहां 'नाग्न्युत्पात' भी उग्रता को इंगित करता है,इसी प्रकार एक शब्द वज्रपात का भी प्रयोग किया जाता है, यह किसी भी क्रिया की उच्चतम स्थिति है जिसमे उग्रता, तीव्रता या तीक्ष्णता इतनी अधिक है जिस पर नियन्त्रण कठिन है।*

*दोषों के मिलने के भी प्रकार शास्त्रों में तर,तम,उल्वणता भेद से स्पष्ट किये है। त्रिदोषज मे और सन्निपातिक स्थिति में यही भेद है उग्रता का और यही चिकित्सा ज्ञान में उपयोगी है।*

[4/4, 10:47 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

नमो नमः महर्षि ।

🙏🏻🌹😌

[4/4, 10:48 PM] Dr. Pawan Madan: 

प्रणाम गुरु जी
चरण स्पर्श

Clinical use.....👆🏻👆🏻🌹


[4/4, 10:50 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*पात का अर्थ गिरने से है, हां जो गिर रहा है, वह मारक क्षमता वाला है*
🙏*

[4/4, 10:53 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*सन्निपात उग्रता और मारकता के सदंर्भ में भी समझना चाहिये *


[4/4, 10:53 PM] Dr.Bhavesh R.Modh Kutch: 

*सन्निपातः* - सम + निपातः 

*निपातः* संस्कृत शब्दकोश मे इसका एक अर्थ मृत्यु बताया है ।

आधुनीक चिकित्सा क्षेत्र मे  सघन चिकित्सा मिलने या लागु पडने से पहले दरदी की मृत्यु होती है तो  *collapse* मेडिकल टर्म अक्सर इस्तमाल की जाती है, 
यह निपातः भी कुछ उस तरह का अर्थ-भाव दिखाता है ।

सन्निपातः  की स्थिति मे तीनो दोष के प्रकोप प्रसार मे दो संस्कृत शब्द   *युगपत्* व *अजस्त्रं*
 जैसा भाव भी होता होगा ।

आज की भाषा मे कहे तो *सन्निपात* यानि *Out of control* ... फिर व मानसिक स्थिति हो या शारीरिक ।

शायद त्रिदोषज विकार मे तीनो दोष के प्रकोप एवं प्रसार मे सम युगपत् व अजस्त्रं  का अभाव होता होगा कोइ एक दोष अधिक तो कोइ एक दोष न्युन तो कोइ एक दोष तटस्थ पर विकार की संप्राप्ति मे तीनो दोषों का कुछ कुछ योगदान रहता होगा ।

[4/4, 10:54 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 जी , लेकिन सभी त्रिदोषज व्याधियों को च.सू.१९ में सन्निपातज से ही सम्बोधित किया गया है और सभी त्रिदोषज व्याधियां/सन्निपातिक अवस्थाए असाध्य नहीं.

[4/4, 10:56 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*सभी त्रिदोषज व्याधियां या सन्निपातिक असाध्य नही है पूर्णत: मान्य है ✔️✔️✔️ पर सन्निपातिक में संभावना अधिक है।*

[4/4, 10:56 PM] Dr. Pawan Madan: 

🙏🙏🙏

*सन्निपात ,, 
त्रिदोष जन्य वह अवस्था है जिसमे लक्षण सामान्यत: विकृति विषम समवेत स्वरूप ले लेते हैं, व कई अवस्थाओं मे तो ये अलग ही उपद्रव की स्तिथि तक पहुंच जाते हैं।*

ऐसा मैने समझा अभी तक।

विनम्र निवेदन 🙏


[4/4, 10:59 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

Dengue जैसी व्याधियां सन्निपातिक हैं परंतु साध्य है
 *Typhoid भी त्रिदोषज होते हुए साध्य है*

[4/4, 11:01 PM] Prof. Madhava Diggavi Sir: 

Here same meaning is expected sir,, fall, collapse, failure, emergency are nicely interpreted by your explanation sir.

[4/4, 11:02 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

आज के समय में सन्निपातिक मूत्रकृच्छ पूर्णतः साध्य है
 कोविड १९ भी सन्निपातिक व्याधि है परंतु साध्य है , बहुत बार लक्षणरहित है..

[4/4, 11:06 PM] Dr. Pawan Madan: 

क्या ऐसा कह सकते है के कोविद त्रिदोषज व्याधि है एवं बहुत स्तिथियों मे ये सन्निपातीक बन सकती है।
🤔🙏🙏

[4/4, 11:06 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*जी सर, जब आयुर्वेद के ग्रन्थ लिखे गये तब technology इतनी सक्षम नही थी। कहां होता था kidney transplant ? अब साधनों से अनेक असाध्य रोगों को भी साध्य करने मे चिकित्सा विज्ञान समर्थ होता जा रहा है। *
[4/4, 11:07 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

मैं नहीं कह सकता , मेरे दृष्टि से दोनो एक ही है !
Pawan Ji !

[4/4, 11:07 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*हमने usg को साधन बना कर पित्ताश्य अश्मरी कितने रोगियों की निकाल कर प्रमाण दिये हैं।*

[4/4, 11:08 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*जी सर 👌🙏*
Dr. Madhav !

[4/4, 11:08 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

इसीलिए नये परिभाषा की जरुरत है, वैद्यराज सुभाष शर्मा जी आप ने बहुत से असाध्य को साध्य किया है

[4/4, 11:09 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*मैं तो हर पल आपके साथ हूं सर 🙏🙏🙏*

[4/4, 11:10 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

शस्त्र कर्म जहाँ पर निर्देशित है वहां पर शमन चिकित्सा से लाभ अनुकरणीय है

[4/4, 11:12 PM] Dr. Ravi Nagpal: 

Thanks Soni Sir for clearing all doubts.🙏🙏🙏

[4/4, 11:12 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*आयुर्वेद में निश्चित ही कुछ नये योगदान की आवश्यकता है इसलिये अनेक बार मैं आपसे सहमति प्रदान करता ही हूं क्योंकि चरकोक्त ज्ञान और उस पर चिकित्सा कार्य भी इतना अद्भुत है कि मैं आश्चर्यचकित रह जाता हूं, मेरे लिये आप चरक+चक्रपाणि+ हैरिसन का समावस्था का त्रिदोषज स्वरूप हैं।*  
Resp. Ojha Sir !
          🙏🙏🙏

[4/4, 11:14 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

लेप, हृद्बस्ति और शामक औषधियों से Myocardial infarction सदृश रोगो में लाभ देने पर लगता है की आचार्य चरक ने क्यो हृदय रोग में साध्यासाध्यता नहीं बतायी..🙏🌹


[4/4, 11:16 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*जी सर, उस काल में औषध भी पूर्ण वीर्ययुक्त होती थी ।*

[4/4, 11:16 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

नैदानिक दृष्टिकोण से त्रिदोष में तर तम भाव को जानना और तद्नुसार चिकित्सा व्यवस्था करना ही अपेक्षित है.्

[4/4, 11:17 PM] Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir: 

Dakshsya Sirah sandhan tak to tha .
Ganpati ko gajka sir laga dena. netra golak pratyaropan  hota hai ab bhi .
Bhala ho samrat Ashok ka, viswa Vijay ke uprant  Ahinsa dharma cakara  prasar ke krama me aoujar jabta karne se and aage agyan & daasata ke karan aaj aap ye vyakta kar rahe hai.
Vigyan/ veda me antar hai.



[4/4, 11:20 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*सादर नमन आचार्य, वेदों मे जो उल्लेख है उसके अतिरिक्त चरकोक्त सूत्रों पर हमारी चर्चा चल रही है ।*
Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir
 🙏🙏🙏

[4/4, 11:20 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

त्रिदोषज अर्श असाध्य है , परंतु आज परिस्थिती बदल चुकी है

[4/4, 11:21 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*आयुर्वेद मे वर्तमान काल के अनुरूप चिकित्स्य दृष्टिकोण से नवीन लेखन की परम आवश्यकता है ।*

[4/4, 11:23 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*युगानुरुप आधुनिक संहिता इस युग की जरुरत है*

[4/5, 1:50 AM] Vd Raghuram Y. S, Banguluru: 

*Tridosha vs Sannipata controversy – Are they same? Are they different?*

💐💐💐💐💐💐💐

*Wonderful discussions on Tridoshaja vs Sannipataja*👌👌💐❤🙏

*Pranams to all Gurus and friends who have given valuable outputs towards this discussion*🙏🙏💐❤

*References towards whether both conditions are same or different* have been given by Acharya Subhash Sharma sir, Acharya Ojha sir, Acharya Soni sir, and many other experts. I am not going to touch on this part.

*I will try to contribute something subtle and core, if they help the discussions I will feel glad*

💐💐💐💐💐💐💐

*Let us come from ground zero*

👉 While discussing *Prakriti* of an individual it has been said *tridoshaja* or *samadhatu prakriti (Charaka)*. It has *not been mentioned as Sannipataja Prakriti* If both were same, then some Acharya would have mentioned it as Sannipata Prakriti and we do not have such reference.

The term *sama dhatu* used in terms of *tridosha prakriti* confirms that *tridosha when combined in balanced proportions is all supportive and cannot cause diseases and hence have dhatu rupa*.

*This confirms that tridoshas are either in a state of balance or a state of imbalance.*

*Diseases are caused when there is proportional imbalance of doshas in association*.

💐💐💐💐💐💐💐

👉 While describing the *sankhya samprapti* of diseases, Acharyas have mentioned *tridoshaja at some point and sannipataja elsewhere*.

*There is no doubt that both these terms seem SYNONYMOUS at many instances as mentioned by Acharya Ojha sir* But since both terms are used in Shastras, there ought to be confusion if both are same or different. The classical reference is from the context of *gulma* wherein Master Charaka mentions the word *nichayatmaka* in the context of *kaphaja gulma* wherein *nichaya is mentioned as sannipataja*. 

Few verses later Charaka has mentioned the 4th variety of Gulma as *Tridoshaja and not Nichayatmaka*. Why would Charaka use both words for the same condition? *Both seem to be synonymous if we consider Charaka’s words…!*

*Most often the word Tridoshaja has been used to describe the variety of diseases caused by all three doshas*. *Why?*

💐💐💐💐💐💐💐

*Let us visit the Sadhyasadhyata prakarana from Cha. Su. Ch 10*

One of the conditions for a disease to be achikitsya or pratyaakhyaya is *a disease being tridoshaja* of course conditional, if associated with many other factors. But the point is that *sannipataja has not been mentioned here*.

💐💐💐💐💐💐💐

So, the *tridoshas show different states of existence*…

✔ *1 – Sama Tridosha* - relative balance of all three doshas – contributes to swasthavastha

✔ *2 – Vishama Tridosha* - imbalance amongst three doshas – contributes to disease manifestation. This can again be –

2a – Prakriti Sama Samaveta
2b – Vikriti Vishama Samaveta

Both these conditions are *tridoshaja but vary in their presentation*

💐💐💐💐💐💐💐

*PERSPECTIVE 1*

*Going to the context of Gulma, Charaka Chikitsa*

*सन्निपातगुल्मे तु प्रत्येकदोषजलक्षणादतिरिक्तानि लक्षणानि तत्प्रभावश्चासाध्यत्वादिर्वक्तव्यं एवेति युक्तं तस्य भेदेनोपादानम्।*

Commentary on Cha.Chi.5/16 tells that *sannipata gulma has been included in the sankhya samprapti because of the availability of symptoms other than those of each individual dosha. And also because the effect of such manifestation is difficult to cure*

*महारुजं....त्रिदोषजं गुल्ममसाध्यमादिशेत्॥च.चि.५/१७*

The commentary on shl 17 tells –

*महारुजमित्यादिना सन्निपातजलक्षणान्याह।* *केचिदेतल्लक्षणव्यतिरिक्त लक्षणस्तु यः प्रत्येक दोषजोक्तसंसर्गमात्रलक्षणः प्रकृतिसमवायसन्निपातजन्यः स साध्यः एव गुल्म इति वदन्ति॥*

We can see master Chakrapani use the word sannipata for the word tridoshaja used by master Charaka. They look synonymous here too. Further he states *according to some other opinions, the other type of sannipata occurs due to the presence of the symptoms of only doshas and not other symptoms. Such manifestation is due to prakruti sama samavayatva and is sadhya in nature*

*Bottom line*

👉 *Tridoshaja varieties of diseases, when explained in the context of a disease pertain to presence of symptoms other than those of three individual doshas, due to vicious nature of amalgamation – vikriti vishamatva. These conditions are incurable / difficult to cure**

👉 *When tridoshaja type has not been mentioned it should be assumed that it has not been explained because the symptoms of all three doshas will be present and not other symptoms – prakriti sama samaveta. These conditions are comparably curable*

For both these conditions, master chakrapani has used the word sannipataja.

*So,*

✔ *Tridosha conditions which manifest with symptoms other than those of the three doshas involved in the samprapti due to vikriti vishama samavetatva, they are called Vikriti Vishama Samaveta Sannipata. They are incurable and strong diseases due to complexity of manifestation*

✔ *The same Tridosha conditions which manifest with symptoms of the three doshas involved in the samprapti and the symptoms other than these are absent due to prakriti sama samavayatva, they are called as Prakriti Sama Samaveta Sannipata. They are less fearsome and less complicated than the above said condition and are curable*

🤔 *Then why Tridoshaja is mentioned in the classification of many diseases?*

👉 If *tridoshaja bheda of any disease is mentioned and explained*, the author just wants to tell that this is a vikriti vishama samaveta type of tridoshaja vyadhi and the reader needs to know about it.

👉 If *tridoshaja bheda of any disease is not mentioned and explained*, the author is leaving it to the guess work of the reader / student, to assume it as prakriti sama samaveta, and consider that it is a condition presenting with combination of symptoms of all three doshas – separate explanation is not needed!

👉 If *the term sannipataja has been used instead of tridoshaja* it can either be prakriti sama or vikriti vishama. In jwara we can see that both these conditions of sannipata jwara have been dealt in detail. For the other diseases probably the reference of gulma is applicable. The elaboration of sannipata (prakriti sama and vikriti vishama) in jwara prakarana is to make the student understand the gravity and multiplicity and complexity of manifestation of tridoshaja conditions.

💐💐💐💐💐💐💐

*PERSPECTIVE 2*

I would like to give a reference from *Pandu Roga Prakarana – Madhukosha Tika, Madhava Nidana*

*ज्वरारोचकहृल्लासच्छर्दितृष्णाक्लमान्वितः।*
*पाण्डुरोगी त्रिभिर्दोषैस्त्याज्यः क्षीणो हतेन्द्रियः॥मा.नि.८/७॥*

*सान्निपातिकस्तु प्रकृतिसमसम्वेतत्वेन उक्तवातजादिलक्षणैरेव बोद्धव्यः। उक्तं हि चरके ’सर्वान्नसेविनः सर्वे दुष्टा दोषास्त्रिदोषजम्। त्रिलिङ्गं संप्रकुर्वन्ति पाण्डुरोगं सुदुःसहम्।’ (च.चि.१६) इति। तस्यैव सोपद्रवस्यासाध्यत्वमाह - ज्वरारोचकेत्यादि।*

It is interesting to see that the author has not at all mentioned the symptoms of tridoshaja pandu and straight away mentions the symptoms of *asadhya pandu*. He further tells that *in the sannipataka pandu there is prakruti sama samavetatva, obviously the symptoms of all doshas are present and hence this condition has not been explained.*

So we need to understand that *wherever tridosha lakshanas have not been explained we need to assume that the symptoms of all doshas are present in mixed proportions*

He later quotes *master Charaka*.

*When someone consumes foods capable of vitiating all three doshas, all three doshas get aggravated in the body. This causes pandu roga manifesting with symptoms of all three doshas which makes the disease complicated*.

*Interesting is the tika of the same reference*.

*सर्वान्नेत्यादिना सान्निपातिकं व्याकरोति।*
*त्रिदोषलिङ्गमिति प्रत्येकदोषलिङग समुदाययुक्तम्॥*

Here we can see that the tikakara has used the word sannipata for the condition explained by Charaka. He further tells *tridosha linga* means *a condition wherein group / accumulation of symptoms of each and every dosha is present*. This probably means *totality of symptoms of each of the doshas present in a complicated amalgamation is called sannipatika and when such amalgamation is present, the condition is difficult to cure*.

*Inferences from this perspective*

👉 *When a tridosha condition manifests with symptoms of all three doshas to full strength, all symptoms of all doshas present in the combination making the picture incurable – this is also called sannipata. Here we see the prakriti sama samaveta type of amalgamation but the symptoms are full blown and makes the disease complicated and hence sannipata. Charaka too has not explained the symptoms of this subtype of pandu but directly hints towards the amalgamation being a complicated clinical picture. This is in contrast with the explanation we found in gulma. This gives us a rough idea that a COMPLICATED AND DIFFICULT TO CURE TRIDOSHAJA CONDITION MAY BE SANNIPATA!? Acharya Shubhash Sharma sir has given his opinion on this*

💐💐💐💐💐💐💐

*Summary of the discussion from my perspective*

Both terms *Tridoshaja and Sannipataja seems to be synonyms with interchangeable meaning when we look at various references to contexts in the Samhitas*. Like the Acharyas mentioning both words in the same instance or the Acharya mentioning tridosha and tikakaras mentioning the same thing as sannipata. If both are considered to be synonymous they represent each other in different contexts with hairline difference in their meanings. But *synonyms are also given to explain the same thing in different perspectives* – either in terms of composition, properties or action, as vayu or samira for vata, balasa for kapha and ushma for pitta. 
*_So we need to see if these terms need to be looked at from different perspectives. In that case we need to consider both as different faces of same coin and understand them as per situation previewing them to have a slender demarcation_*

*But what is that demarcation and line of difference between these two terms?* 🤔🤔🤔

I feel this is the *basic purpose of the discussion*. Many of you have put forth your views and *I have contributed the above said paragraphs towards this understanding* as per my little knowledge.

*Still, whether they are same or different?*

Expert Acharyas and hon friends have submitted their opinion. Putting forth my opinion I would tell Same and Different, sorry I am not playing safe…!*

👉 *Same* - because the contexts make us believe that they are one and the same. There is no clarification from the tikakaras too!

👉 *Different* – because both terms have been used in different contexts. The Acharyas would have used either tridosha or sannipata. There should be something which differentiates them. I have presented that thin line of difference in the above paragraphs. As respected Soni sir said, we are teachers and we are bound to take closer calls in answering these questions. But the problem is that we have evidence to tell that they might be the same and need to be understood as per context. But the logical brain doesn’t compromise to accept it that easily.

💐💐💐💐💐💐💐

*Before closing…Understanding the think line of difference between tridosha and sannipata…!*

👉 *Sama Tridosha contributes towards health*

👉 *Vishama Tridosha can be classified as Prakriti Sama Samaveta Sannipata and Vikriti Vishama Samaveta Sannipata*

👉 *When tridoshaja condition of a disease is not explained it means it should be understood in the lines of prakriti sama sannipata and the symptoms of all three doshas should be assumed. These conditions are curable*

👉 *When the symptoms of all three doshas are present in full blown proportions and tend to make the disease complicated, our Acharyas have mentioned and explained  the symptoms of such tridosha conditions. These are tridosha conditions with complicated picture of prakriti sama samaveta*

👉 *When tridoshaja condition of a disease is explained it means to tell that it is a case of vikriti vishama samaveta type of sannipata and is incurable in nature due to the vicious amalgamation of doshas in the pathogenesis of disease and complexity and grave nature of the symptoms*

👉 *When the acharyas directly mention sannipataja in place of tridoshaja it can be either prakriti sama or vikriti vishama type. The explanation of sadhya-asadhyatva helps us to understand what type of sannipata is present in that disease*

💐💐💐💐💐💐💐

*This is my small understanding of this topic and my humble submission to the elite panel* 💐🙏❤

💐💐💐💐💐💐💐

*_Dr Raghuram Y.S._*

[4/5, 2:21 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

Dr Raghuram ji !
 why did you not refer ch.soo.19 ? 
At time of classification of diseases, Acharya Charak mentions sannipatika/sannipataja/sannipata nimitta, but in some examples given earlier or later , the type of same diseases are classified as tridoshaja.

[4/5, 2:23 AM] Dr.Shekhar Singh Rathore Jabalpur: 

Great Raghu sir 👌🏻👌🏻

Will have to go through atleast twice to settle in mind.

[4/5, 2:29 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

Interplay between dosha manifest either prakriti sama samavaya lakshana or vikriti visham samavaya lakshana.
It depends upon the way of interplay and that is not predictable, it's understood only afer manifestations of symptoms which may be either prakriti sama samavaya janya or vikriti visham samavaya janya.
So, it's dosha reason of disease, since the combination of 3 dosha are responsible for disease, hence it's referred as sannipata, and sansarga if 2 dosha are playing role in disease process..

[4/5, 2:33 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

Okay, overall presentation is very clinical, descriptive and informative.. that thin line demarcation needs crystal clear demarcation. Thanks for awesome presentation.. such presentation is possible only by  very hard working young dynamic expert like you Dr Raghuram ji !


🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[4/5, 2:40 AM] Vd Raghuram Y. S, Banguluru: 

Guruji, at this weird hour you are replying my post🙏🙏💐❤️
Sir, at my into itself I said *I have skipped the portions contributed by* your kind self,  Resp Shubhash Sharma sir, Acharya Gaur sir, Resp Soni sir and other experts. 

I din want to contribute repetitions sir. Sorry. I just added my inputs. 🙏🙏💐

I will add the references that you hv given to my checklist sir. Thanks so much🙏🙏💐❤️

[4/5, 2:41 AM] Vd Raghuram Y. S, Banguluru: 

Noted Ojha  sir.. valuable points ❤️❤️
 Small attempts with your blessings sir. Thanks for your good words dear Guruji. Means a lot🙏🙏💐❤️


[4/5, 9:27AM] Dr.Bhavesh R modh:
मूल चरक के सूत्र है । रेफरन्स वैद्यसहचर - पं विश्वनाथजी द्विवेदी पुस्तक पृष्ठ-14


[4/5, 12:00 PM] Vaidya Hiten Vaja M.D.Ahmedabad:

 Tridoshaj evam sannipat jaise adharboot sidhdhant par gyan prapti ke teesre aayam TADVIDYA SAMBHASHA ka adbhoot prasang KAYASAMPRADAY madhyam se prapt hua hai..
Sarve Gurutulya Vidvadjan evam Surendraji ka abhar...

Tridoshaj evam sannipat dosho ke  paraspar milne ki sangya hai, 
Jo prakruti sam samvet aur vikriti visham samvet vidhi se joti hai...
Yaha hetu (rogotpadak visham ahar vihar) niryayak/kendravarti hai..

Hetu aur dosh sanyog se malarupi doshmelak utpanna hota hai, hetu ke dwara doshmelak prakruti sam samvet se aur vikruti visham samvet se sanyojit hote hai, sanyojan ki vikar adhishthan par prabhavee sthiti se lakshan ujagar hote hai...
Jab sanyojan prakruti samsamvet se hota hai to tridosh ke lakshan ko hi samashti rup me gyat kar sakte hai, aur vikruti visham samvet hota hai to tridoshaj ke samashti lakshano ke uparant bhi lakshan ujagar hote hai (kothanam shyav raktana mandalanam cha dashane )...

Tridosha + ja..
Yaha hetu (visham ahar vihar) apani vikrut praan urja ( agni khalu pittantargat - som shleshmantargat)  dosh ko pradan kar dete hai, ab yah vikrut pran rupi urja se dosh vikrut  bal prapt karke dushta hote hai aur dushinikaran ki prakriya se vikar adhishthan me prabhav utpann karke lakshan ujagar karte hai...
Aisi hastantarit vikrut pran rupi urja prayashah nijagantu hetu marg se aati hai aur adhishthan ke dosh dushya ko pratadit karti hai, parantu Satva ko pratadit karke murchchit nahi karti...tridoshaja dosh dushya ko madhyam banakar adhishthan bhed karke asadhyata utpanna kar sakta hai...satva ka partantra rupen anubandh sthiti me sanyojan karta hai...

Sannipat me hetu vikrut pran urja ke kuchh ansh ko dosho ko pradan karte hai aur apne kuchh ansh ko tridosh melak me sidha jodte hai, atah hetu se dosh dushya murchhan me dushinikaran ke uparant vishishta karanatva (vikrut urja ansh) judta hai, is prakar ka  murchhan vikar adhishthan ke satva (jisko chikitsa antargat avjan karna hota hai ) ko bhi balpurvak murchhit kar deta hai, atah satva se sanchalit vrutti bhi vikrut ho jati hai, vrutti vikruti Veg vikruti karke dharaniy se adharniy vego ko dushta karke hetu ke teesare marga Mansik ( nij agantu +) ko bhi muchhana ke saath jod deta hai, parinamatah is murchhan prakar me me pragadhata balvattar ban jati hai...Is murchhan me prakruti sam samvetata hota haito lakshan samuha ko melak se gyat kar sakte hai aur murchhan vikruti viaham samvet se hota hai to vishishta lakshan ujagar hote hai...Satva ka yaha AVAJAYA duhkar ho jata hai kyoki vah muchhit hai aur dharaniy vego ko bhi utpann karke adharniy vego ko murchhana ke sath jodata rahata hai ..atah sannipat svabhav dushkar hote hai...

Gurukrupa se Ayurved Darshan se pravrutt pratiti ko sambhashan me yagyavritti se rakha raha hu...

Gurutulya vidvad Vaidya se margadarshan ka krupa anuragi...🙏🙏

[4/5, 12:22 PM] Dr.Bhavesh R.Modh Kutch: 

🙏
हो भी शकता है मैंने तो वैद्य सहचर मे पढा व आनुषंगीक संभाषा मे कुछ जानकारी सभी को मिल शकते इस हेतु शेर किया 
हालांकि मुझे चरक मे क्रोस चेक कर लेना चाहिए था वो मेरी अति उत्साह मे कि गइ लापरवाही है ।
क्षमाप्रार्थी हूँ ।

हारित संहिता मे
मुझे भी कई बात पढने पे आश्चर्य हुआ अ.हृदय के बाद की,   अर्वाचीन  लगी थी ।

[4/5, 12:27 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

Hiten Sir !

Concept of involvement of Sattva is applicable. I am 100% agree with this.
Better if we can have few references because later this question may be raised.

Thanks !🌹🙏🏻


[4/5, 12:48 PM] Dr. Pawan Madan: 

Hiten sir...🙏👌

Hetuon ka kuch matra me ya pooran rupen dooshitikaran karna aur satva ki involvement.

Can we understand this with any hyptheical example of any case in a patient?
It may be better to understand its clinical applicability even if dont have any references for this.

🙏🙏


[4/5, 3:29 PM] Dr. Pawan Madan: 👌👌👌🙏🙏

...In the begining of your article you submitted that there is difference between naming a particular clinical case as Tridoshaj or Sannipaataj

...Toward the end ....you finalized that ....there can be a difference or can not be depending on the context where it has been used.

But you have not touched one major difference which Resp Subash Guru ji mentioned in the start of the discussion and which was further enumerated by Resp Soni sir.... the involvement of or the Causation of this condition of Teidoshaj or Sannipaataj Vyaadhi.

*Tridoshaj Vyadhi vs Sannipaataj Vyadhi*

1.
*...Sva Prakopak hetus of each of three Doshas causing disturbance or prakop of each of three Doshas......result in a condition called Sannipaata. As it is caused by hetus of each of the doshas.....the condition is almost always grave and asaadhya.*
*Aadarniya Subash Guru ji explained this with ref of vimaan guiding as anubandh evam anubandhya dosha.*

...a proper history can lead us to find the hetus possibly

2
*...Knowing the condition as Sannipaataj gives us a clue that the treatment is going to be difficult and probability of cure is very very less. We can guide our patient as per this.*

3.
*...Tridoshaj Vyadhi means when all the tridoshas get involved in the said clinical presentation. Here this is not necessary that the patient has consumed the hetus of each of the three doshas. He might have indulged more in the kaphavardhak hetus for examole which at the end disturbed  the pitta and vaata dunctions...e.g prameh changing to madhumeh.* 
*...There can be some other indirect reasons to result in a tridoshaj vyaadhi e.g. santarpanjany vyadhis or some kind of maarga avarodh.*

4.
*...Tridoshaj vyadhis may not be fatel always, there are symptoms of each dosh but they can be managed generally e.g. metabolic syndrome.*

5.
*...A tridoshaj vyadhi when becomes fatel it can be synonymicaly called as Sannipaataj as we can see in Tridoshaj Gulma.*

6
*...Treatment of tridoshaj vyadhis is possible generally as one or the 2 doshaj hetus are causes and we can apply hetu viprita chikitsa or we can do the treatment of other hetus like santarpan or sometimes maargaavrodh to manage tridoshaj vyadhis.*

7.
*....But in sannipaataj vyadhi....they are almost asaadhya as....each of the three doshaj hetus have been causing the disease.....and it is almost impossible to apply hetu viprita chikitsa as this becomes antagonistic to each other.*
*Vyadhi viprita chikitsa also becomes difficult in such a case because the disease might have progressed to a level of Dhaatupaaka. We see this in many autoimmune disorders now a days, let it be multiple myoloma or multiple sclerosis or SLE or many such syndromes.*

This is my humble submission.

I have tried to summerize all the discussion of last 2 days with the clinical understanding which I have experienced.

It may need further additions by 
Resp Ojha Sir ji
Resp Subash Guru ji
Resp Gaud Guru ji
Resp Soni sir ji

And all of you here.
We will edit and add to this.

Thanks to all for a wonderful discussion.

🙏🙏🙏💐🙏💐🙏🌹🙏💐🌹🙏🙏

[4/5, 3:52 PM] Vd Raghuram Y. S, Banguluru: 

Thanks Pawan sir🙏🙏💐

Actually till I saw this post of yours, I had forgotten that I hv posted this early in the morning...😀

Nice compilation of points from all discussions 👌💐

First of all I hv put up my understanding on this topic and hv not finalized anything. 

Regarding touching resp Guruji Shubhash Sharma sir's or any others opinion, kindly see my intro wherein I hv clarified that I am not touching the aspects which hv already been explained. Was trying to avoid repetition. 

🙏🙏🙏💐

[4/5, 3:55 PM] Vd Raghuram Y. S, Banguluru: 

Else my post would become summing up opinions rather than presentation of my thoughts. I hv mentioned couple of references what the Gurus hv presented here. I hv also mentioned their names. My appeal is to go through what additional explanation I had to offer in the post🙏🙏💐

[4/5, 4:13 PM] Dr. Pawan Madan:

 Ji......thanks....🙏🌹🙏


[4/5, 8:56 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

Raghu Sir !!

Namo namah !!

As usual, extra ordinary post with some new facts like tridoshaj prakriti mentioned not sannipataj along with pandu reference.

Thanks to you for enriching our knowledge.


🙏🏻🌹😌

[4/5, 9:03 PM] Dr. Pawan Madan: 

That has been the real addition, which I forgot to mention.

👌👌👌👌
[4/5, 9:34 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

Pranam to all gurujan !!

च नि 3 के श्लोक न. 6, 7, 8, 9, 10, 11 तथा 12 को क्रमशः लयबद्ध पढ़ा जाए तो पता चलता है कि 12वे श्लोक में आचार्य ने सूत्र रूप शैली अनुसार वर्णन किया है ।

*त्रिदोषहेतुलिङ्गसन्निपाते तु सान्निपातिकं गुल्ममुपदिशन्ति कुशलाः । स विप्र१तिषिद्धोपक्रमत्वादसाध्यो निचयगुल्मः ॥१२॥*

यहां त्रिदोष गुल्म का कुछ भी वर्णन नहीं किया है और पूर्व के श्लोकों के आधार पर हेतु और लिंग समान है इसके लिए पूर्व में वर्णित गुल्मों के संयुक्त स्वरूप को त्रिदोष शब्द से बताया गया है.....

त्रिदोषहेतुलिङ्गसन्निपाते तु सान्निपातिकं

प्रथम सन्निपात शब्द का प्रयोग त्रिदोष, हेतु और लिंग के संयुक्त स्वरूप अर्थात संयोग को बताने के लिए किया गया है और उसके सन्निपात स्वरूप को स्थापित करने के लिए सान्निपातिक शब्द का प्रयोग किया गया है । यह वर्णन भी विमानोक्त प्रतिज्ञा अनुरूप ही है ।
यदि इस प्रकार (त्रिदोष हेतु लिंग सन्निपाते)गुल्म उत्पन्न हुआ है तो वह असाध्य है क्योंकि यह विरुद्धोपक्रम है, ऐसा क्यों....? तो हमें वा, पि और कफज गुल्म में वर्णित लक्षणों और चिह्नों की गंभीरता को देखना चाहिए ।
यहाँ निचय शब्द उदरारोगवत दोषों के सांघातिक तथा घनीभूत स्वरूप को बताने के लिए प्रयुक्त हुआ है ।

त्रिदोषहेतुलिङ्गसन्निपाते तु सान्निपातिकं 
कहने का तात्पर्य यह भी है कि उन्हें इसे 'रक्तजगुल्म' से पृथक रखना था जो कि आगे बताया गया है ।

च. टी. में.....

*....................तेन, साध्यत्रिदोषज्वरादौ वातादिविरुद्धोपक्रमत्वं सदपि नासाध्यतामापादयति॥१२॥*
ज्ञातव्य है👆🏻 आ चक्रपाणि ने उक्त टीका में *त्रिदोष ज्वर* को  विरुद्धोपक्रम होते हुए भी असाध्य नहीं माना है । अर्थापत्ति से हमें मान लेना चाहिए कि त्रिदोष-हेतु-लिङ्ग-सन्निपाते(संयोग)होने पर ही गुल्मवत सान्निपातिक ज्वर मानना चाहिए ।
सारांश रूप में हम यह अर्थ ग्रहण कर सकते हैं कि तीनों दोषों का असम्पूर्ण प्रकोप 'त्रिदोषज' प्रकार और गुल्म तथा विमानोक्त संदर्भानुसार सर्वसम्पूर्ण स्वतंत्र प्रकोप विशिष्ट 'सन्निपात' की अवस्था है जो 👇🏻

सन्निपातो दुश्चिकित्स्यानाम्,


कही गयी है ।👆🏻 
त्रिदोषो दुश्चिकित्स्यानाम्, नहीं कहा गया है ।

मेरा क्षुद्र प्रयास ।

सभी को सादर प्रणाम ।

🙏🏻🌹😌

[4/5, 10:30 PM] Dr. Pawan Madan: 

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

बहुत ही गहराई से आपने अपनी बात को स्पष्ट किया

इस असम्पूर्ण वा सम्पूर्ण प्रकोप को को क्या सिर्फ उपस्तिथ लक्षणो से जाना जा पायेगा।

मार्गदर्शन अपेक्षित !
🙏🙏

[4/5, 10:33 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

साध्यासाध्यता और इन्द्रिय स्थान के सिद्धांत उपलब्ध हैं जो हमें पर्याप्त मार्गदर्शन प्रदान करते हैं ।

🙏🏻🌹🌻

[4/5, 10:47 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*युक्ति संगत तर्क सहित व्याख्या , 👌👍🙏 प्रो. सोनी जी*

*च चि 3 ज्वराध्याय में सूत्र 89-102 में उल्वणता,मध्य और हीनता के अनुसार प्रथम 12 सन्निपात चक्रपाणी एवं गौड़ सर की एषणा व्याख्यानुसार प्रकृति सम समवेत से है और त्रिदोष की प्रधानता वाला सम सन्निपात विकृति विषम समवेत से बताया गया है। *

 *प्रकृति समसमवेत की चिकित्सा प्राय: दोष प्रत्यनीक और विकृति विषम समवेत की व्याधि प्रत्यनीक अथवा उभय प्रत्यनीक की जाती है। ये सब भी च वि 6/11 से चिकित्सा को ले कर संबंधित बनता है क्योंकि आगे पुन: इनकी चिकित्सा में जिज्ञासायें उत्पन्न होगी।*

[4/5, 10:51 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*नमस्कार रघु जी , सदैव की तरह अति उत्तम 👌👌👌👌 त्रिदोषज प्रकृति एवं सन्निपातिक प्रकृति का ना कहना 👍👌🙏*

[4/5, 11:03 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*वैद्य पवन जी !
 'दोषे विबद्धे नष्टेऽग्नौ सर्वसम्पूर्णलक्षणःसन्निपातज्वरोऽसाध्यः कृच्छ्रसाध्यस्त्वतोऽन्यथा' 
च चि 3/109-110 देखेंगे तो सन्निपात ज्वर संपूर्ण लक्षण प्रकट होने पर ही असाध्य है अथवा कृच्छ साध्य। *

*आपने लिखा सन्निपातज व्याधि they are almost असाध्य ???*
 *प्रकृति समसमवेत में हेतु, दोष, दूष्य और स्रोतस की एक क्रमबद्ध लय है जिसकी चिकित्सा द्रव्यों के रस,गुण,वीर्य और विपाक प्रधान रहती है अर्थात दोष प्रत्यनीक।*

*विकृति विषम समवेत चिकित्सा 'प्रभाव' प्रधान जिसका उदाहरण रसौषधियां और आपातकालीन चिकित्सा, ये व्याधि प्रत्यनीक प्रधान रहती हैं पर दोष प्रत्यनीक भी आवश्यकतानुसार चलने से अनेक बार उभय प्रत्यनीक।*

[4/5, 11:12 PM] Dr. Pawan Madan: 🙏🙏🙏🙏🙏

[4/5, 11:14 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*ये जो बाल बराबर अंतर है त्रिदोषज और सन्निपातिक में इसके लिये दो रात से सोया नही, दोनों मे भेद है और अवश्य है । विमान स्थान मे जो कहा है उसकी अनेक कढ़ियां मिल गई हैं जो अनेक स्थलों से जुड़ती हैं जो गहरा अध्ययन मांगती है । आप लोग शिक्षण क्षेत्र मे हैं तो आपके लिये सरल हैं और मुझे रात्रि मे विशेष समय निकालना पड़ता है। अत: थोड़ा समय चाहिये 🙏🙏🙏*

[4/5, 11:15 PM] Dr. Pawan Madan: 

जी
Almost in 2 meanings

...most of the sannipaata diseases are asaadhya
...almost in the sense...some of the sannipaataj have become saadhya or kricchrasaadhya as of now.
🙏🙏

[4/5, 11:17 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*जी पवन जी* 🌹🙏

[4/5, 11:19 PM] Dr. Pawan Madan: 🙏🙏🙏🙏🙏🙏

[4/5, 11:47 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:

 *सन्निपातिक / त्रिदोषज अवस्था के मूल घटक - *

*कब होगी त्रिदोषज अथवा सन्निपातिक अवस्था ? इसके लिये आरंभ से चलते हैं कि किस प्रकार हेतु, त्रिदोष और लक्षण के संयुक्त स्वरूप को हम समझ सकते हैं।*

*तत्रानुबन्ध्यानुबन्धकृतो विशेषः स्वतन्त्रो व्यक्तलिङ्गो यथोक्तसमुत्थानप्रशमो भवत्यनुबन्ध्यः, तद्विपरीतलक्षणस्त्वनुबन्धः अनुबन्ध्यलक्षणसमन्वितास्तत्र यदि दोषा भवन्ति तत्त्रिकं सन्निपातमाचक्षते, द्वयं वा संसर्गम् । अनुबन्ध्यानुबन्धविशेषकृतस्तु बहुविधो दोषभेदः,एवमेष सञ्ज्ञाप्रकृतो भिषजां दोषेषु व्याधिषु च नानाप्रकृतिविशेषव्यूहः' 
च वि 6/11, 
इस सूत्र में अनुबन्ध्य एवं अनुबंध के लक्षण के साथ सन्निपातिक अवस्था के स्पष्ट किया है ।*

*अनुबन्ध्य को प्रधान संज्ञा भी प्रो.बनवारी लाल गौड़ सर ने दी है। यह स्वतन्त्र होता है अर्थात अन्यों पर आश्रित नही, इसके समस्त लक्षण व्यक्त होते हैं, इसका समुत्थान यथोक्त अर्थात निर्दिष्ट कारणों से होता है तथा यह प्रधान होता है। यदि यह प्रधान अनुबन्ध्य तीनो दोषों के लक्षणों से युक्त है तो वह अवस्था सन्निपात की और दो दोष से युक्त है तो संसर्ग की कही गई है। इस प्रकार दोषों एवं व्याधियों का जो नामकरण भिषगाचार्यों ने किया है वो हेतु (नाना कारण) विशेष से किया है।*

*चक्रपाणि ने 'यथोक्तसमुत्तथान' को अपने हेतुओं से उत्पन्न कहा है, अपने हेतु अर्थात दोष स्व: प्रकोपक कारणों से कुपित होते हैं।अनुबन्ध्य दोष जो स्वतन्त्र है जब प्रकुपित होता है तो उस काल में विकारोत्पत्ति करता है और जो अनुबंधित अर्थात पराधीन है वो स्वतन्त्र के प्रकोप काल में उस से प्रेरित हो कर ही रोग उत्पन्न करने में समर्थ है।*

*स्व प्रकोपक कारणों से क्या होगा ? 
वात 'रूक्षः शीतो लघुः सूक्ष्मश्चलोऽथ विशदः खरः' *
*पित्त 'सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमम्लं सरं कटु|'*
*कफ 'गुरुशीतमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः*
*च सू 1/59-61 , 
इनके प्राकृत कर्मों की वृद्धि होगी जिसे प्रकुपित दोष कहते हैं।*

*हेतु जो कार्य करेंगें वो तीन ही हैं, कुछ तो दोषों को कुपित अथवा वृद्ध करेंगे जैसे प्रमेह में 'बहुद्रवः श्लेष्मा दोषविशेषः' च नि 4/6 हेतु से कफ की वृद्धि ,तृष्णा रोग में 'पित्तानिलौ प्रवृद्धौ सौम्यान्धातूंश्च शोषयतः'  चि 22/5 पित्त और वात मिल कर तृष्णा, गुल्म में वात वर्धक हेतु देखिये 'रूक्षान्नपानैरतिसेवितैर्वा शोकेन मिथ्याप्रतिकर्मणा वा, विचेष्टितैर्वा विषमातिमात्रैः कोष्ठे प्रकोपं समुपैति वायुः' च चि 5/5 ये सीधा ही वात दोष प्रकोपक है।*

*आजकल उष्णता अधिक है अधिक धूप में रहने से हेतु आतप खवैगुण्य एकदम कर के रक्तपित् कर देता है, कहीं construction site पर जाते ही dust अर्थात रज खवैगुण्य प्राणवाही स्रोतस में कर के श्वास रोग की उत्पत्ति का कारक बन जाता है।*

*हेतु तीसरा कार्य करते हैं धातु क्षय या धातुओं की शिथिलता जिस से अग्रिम धातुओं का पोषण नही हो पाता। ये हेतु मिल कर जितने अधिक होगें, बलवान होंगे अथवा दीर्घकाल तक इनका सेवन किया जायेगा तो उतनी ही दोषों की स्थिति त्रिदोषज अथवा सन्निपातिक होगी।*


*इन तीनों दोषों के जब ये स्वतन्त्र अवस्था में है, अनुबन्ध्य है या प्रधान हैं तो इन तीनों दोषों के जिस अंश की वृद्धि करने वाले भाव अधिक होंगे तो अधिकतम अंशों की वृद्धि होगी जो मिलकर अधिकतम उग्र लक्षणों को उत्पन्न करेंगे।*

*अनुबंध में जो दोष है वो बिना अनुबन्ध्य की प्रकोपक अवस्था के रोग उत्पन्न करने में इसलिये असमर्थ है क्योंकि उसमें बल नही है।अनुबंध की दूसरी विशेषता यह है कि वह अपने हेतु से प्रकुपित ना हो कर दूसरे के हेतु से कुपित है और प्रधान,स्वतन्त्र या कहें तो अनुबन्ध्य की चिकित्सा से ही शान्त हो जाता है और अनुबंध का उल्लेख अनुबन्ध्य और अनुबंध के सन्निपात और संसर्ग से उत्पन्न ज्वर नाम से ज्वर चिकित्सा स्थान में इसकी संज्ञा अर्थात सन्निपातिक ज्वर नाम से किया गया है।*

*सन्निपातिक, त्रिदोषज या संसर्गज अवस्था तक दोष वृद्ध हो कर ही पहुंचेंगे 
'दोषाः प्रवृद्धाः स्वं लिङ्गं दर्शयन्ति यथाबलम्, क्षीणा जहति लिङ्गं स्वं, समाः स्वं कर्म कुवेते' 
च सू 17/62 
इस सूत्र में दोषों के कई रहस्यों को उजागर किया है, स्व: लिंगं अर्थात दोषों के वैकारिक लक्षण तथा दोष अपने यथा बल के अनुसार अति वृद्ध या मध्य वृद्ध लक्षणों को उत्पन्न करते हैं और तर, तम के भेद से व्याधियों की कल्पना कैसे करें यह भी बताया गया है। एषणा व्याख्या में और अधिक स्पष्ट कर के यह भी समझाया गया है कि तीनों दोष विपरीत गुण स्वभाव के होते हुये भी एक दूसरे को नष्ट नही करते अपितु दोष विपरीत गुणों को परस्पर सात्म्य कर लेते हैं।*

*इसे और अच्छी तरह समझें तो 
'वाते पित्ते कफे चैव क्षीणे लक्षणमुच्यते, कर्मणः प्राकृताद्धानिर्वृद्धिर्वाऽपि विरोधिनाम्' 
च सू 18/52 में स्वाभाविक या प्राकृत कर्मों में कमी और विरोधी कार्यों की वृद्धि यह त्रिदोषज या सन्निपातिक अवस्था में उल्वणता को भी स्पष्ट करता है। 
वातकफोल्वण सन्निपात को देखें 
'शैत्यं कासोऽरुचिस्तन्द्रापिपासादाहरुग्व्यथाः,वातश्लेष्मोल्बणे व्याधौ लिङ्गं पित्तावरे विदुः ' 
च चि 3/92 इसमें कुल आठ लक्षण है तथा इसमें पिपासा और दाह पित्त जनित मात्र 2 लक्षण ही है तो हीन कहने से पित्त का मान कम नही हो जाता और ये हीनता अल्पकालिक भी संभव है तथा आगे चल कर सन्निपातिक में भी संभव है।*



[4/5, 11:54 PM] Vd Raghuram Y. S, Banguluru: 

Soni sir...thanks do much for your kind words...🙏🙏🙏💐💐

[4/6, 12:03 AM] Vd Raghuram Y. S, Banguluru:

 Valid points Soni sir...👌👌🙏💐


[4/6, 5:04 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

सन्निपात अर्थात मिलना , जुडना , मिश्रण , किनका ? दोषों का , किन दोषों का ? वात पित्त कफ , किस रुप में ? सम या विषम , विषम क्या ? उल्बणता दोषो का अर्थात तर तम भाव  - हीन मध्य वृद्ध आदि दोष गति, किस स्वरुप मे ? प्रकृति सम समवाय और विकृति विषम समवाय . किस प्रकार की अवस्था ? साध्य या असाध्य . 
सन्निपात में त्रिदोषो की भागीदारी, त्रिदोषो का मिलकर सन्निपातिक अवस्था उत्पन्न करना.
च.सू.१, अष्टोदरीय अध्याय में व्याधियो के भेद अर्थात प्रकार बताये गये , यहाँ पर त्रिदोषज प्रकार को सन्निपातिक/सन्निपातज/सन्निपात निमित्त कहा गया. प्रसंग वश अष्टोदरीय अध्याय के पूर्व अध्यायो में और पश्चात में भी सन्निपातिक भेदों को त्रिदोषज कहा गया, यथा त्रिदोषज शिरो रोग, त्रिदोषज हृदय रोग, त्रिदोषज गुल्म, त्रिदोषज अपस्मार आदि . 
इतना प्रपंच क्यो करना पड रहा है ? चिकित्सा व्यवस्था को निर्धारित करने के लिये.
सम सन्निपातिक अवस्था में स्थान के अनुसार यथा सम सन्निपातिक ज्वर में कफ स्थान के अनुसार चिकित्सा,  मदात्यय में कफ स्थान के अनुसार चिकित्सा व्यवस्था अपेक्षित है.
अतिसार में प्रथम वात ➡️ पित्त➡️ अंत में कफ की चिकित्सा. क्षीण दोषो को बढाना और उग्र दोषो का शमन करना, अर्थात दोषो को साम्यावस्था में लाना.
सामान्यतः जो दोष उग्र स्वरूप है, उनकी प्रथम चिकित्सा . 
अनुबन्ध्य/अनुबंध को समझते हुए प्रधान दोष की प्रथम चिकित्सा..
सन्निपात में त्रिदोषो की उल्बणता ही समझना युक्तियुक्त है तभी चिकित्सा फलदायी होती है.
*सन्निपातिक/सन्निपातज/सान्निपातिक और त्रिदोषज समानार्थी शब्द है*.. 

*आप सभी का दिन शुभ हो*
🙏🙏🌹🌹🙏🙏
 *एक चिकित्सक की नजरिये से उपरोक्त विचार प्रस्तुत* ⬆️⬆️

[4/6, 5:29 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

गुरुदेव आपसे मात्र शास्त्रसंमत सिद्धांत ही नहीं परंतू बादमें क्लिनिकल उपयोगिता भी समझने की अपेक्षा रहेगी। इतने वर्षों में त्रिदोषज और सन्निपात में रहे अंतर पर कभी ध्यान ही नहीं गया। चिकित्सा करते समय निश्चित फ़र्क हो रहा होगा, पर उसे निर्देशित कभी किया नहीं। अब जब सभी महानुभावों को पढ़ते हैं तब सुक्ष्मता के अनुभव याद तो आते हैं, पर उन्हें शब्दबद्ध करना मुश्किल हो रहा है।


[4/6, 5:41 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

अब हम और भी पशोपेश में हैं। बाल जितना अंतर और समानार्थक होना। दोनो पक्ष पढते है तब सही लगते हैं। अब तो दोनों क्लिनिशियन मैदान में हैं। एकैडेमिक तो संहिताओं का मंथन करेंगे ही पर अब जेष्ठ चिकित्सकोका दायित्व बनता है की रूग्ण में कैसे समझे यह उजागर करना !


सुप्रभात गुरुदेव , 
प्रणाम।
आप हमें ३३-३४ साल पूर्व की स्थिति में ले गये है। ग्रंथ ढुंढ रहे हैं।


[4/6, 5:47 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

जी, इसीलिए चरक संहिता में १२ प्रकार के विषम सन्निपातज्वर और १ सम सन्निपातिक ज्वर वर्णित किया गया, तात्पर्य था की किस प्रकार प्रकृति सम समवाय और विकृति विषम समवाय जनित लक्षणो को समझते हुए दोषो के तर तम भाव को स्पष्ट करना चाहिए और तद्नुसार चिकित्सा व्यवस्था..

[4/6, 5:50 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

सन्निपातज्वर की चिकित्सा सूत्र पर आचार्य चक्रपाणी की व्याख्या अति सुंदर और अवलोकनीय है . आचार्य चक्रपाणी यथोचित संदर्भो को प्रस्तुत करते हुए सन्निपातिक ज्वर के चिकित्सा व्यवस्था को समझाए हैं.
त्रिदोषज/सन्निपातिक हृदय रोग में हृदय का कफ स्थान होने से प्रथम कफ स्थान की चिकित्सा और तदनंतर दोषो के तर तम भाव के अनुसार चिकित्सा व्यवस्था बतायी गयी..
 उसी प्रकार त्रिदोषज/सन्निपातिक मूत्रकृच्छ में सर्व प्रथम वात स्थान की चिकित्सा अपेक्षित है
 *सम और विषम सन्निपात को समझना अपेक्षित है*

 सम कौन ?  दोष 
विषम कौन ? दोष

[4/6, 6 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

सन्निपात में दोष स्थान के आधार पर चिकित्सा, शोधन में भी स्थान शुद्धी, तो क्या चिकित्सा में स्थान का विचार अधिक प्रबल है?

[4/6, 6:01 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*विषमता किस रुप में* ?

*हीन, मध्य, और  वृद्ध
वृद्ध वृद्धतर और वृद्धतम
बहुत से विकल्पो के साथ तीनों दोषो का मिश्रण जिसे सन्निपात कहते हैं*

[4/6, 6:04 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

जी , त्रिदोषो के सम स्वरूप में वृद्ध होने पर स्थानिक दोष की प्रथम चिकित्सा , यथा सम सन्निपातिक ज्वर में कफ स्थान और तद्नुसार कफ की चिकित्सा अर्थात लंघन पाचनादि.

[4/6, 6:05 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

एक चिकित्सक शिक्षक ने और दो चिकित्सक शिक्षकों ने सन्निपात अर्थात् सदिच्छा से
सम्यक् प्रकार से  निपात
अर्थात् उड़ान भर कर तीनों ने संयुक्त रूप से  सान्निपातिक भावों से (सम्यक् प्रकार से मिलजुल कर)सन्निपात को सन्निपतित कर दिया है (पछाड़ दिया है)। 
 पत गतौ धातु 
जिसका एक अर्थ उड़ान भरना भी है।

[4/6, 6:06 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

महर्षि आचार्य श्रेष्ठ गुरु जी सादर प्रणाम🙏🙏🌹🌹🙏🙏
हम आपके ऋणी है, गुरु ऋण का महत्त्व हम समझते है और उसी का अनुपालन कर रहे है.. 🙏🙏

[4/6, 6:15 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

विषम सन्निपात में ➡️हीन दोष को वृद्ध कर और वृद्ध दोष को कम कर अर्थात सभी दोषों को सम अवस्था में लाकर शोधन चिकित्सा युक्तियुक्त है..
 *आचार्य संजय जी , इतना प्रपंच सिर्फ चिकित्सा व्यवस्था को शुद्ध बनाने के लिये हैं*


[4/6, 6:43 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

विषमता का यह अर्थ भी सही है।वैसे विषमता  परस्परोपघातत्व है जिसे हम गुत्थमगुत्था कहते हैं । इसमें दोष एक दूसरे को नष्ट नहीं करते हैं अपितु एक दूसरे के कार्य को प्रतिघातित  करते हैं।
नानात्मकानामिति नानारूपहेतुजनितानाम् तेन हेतुभेदबलादेव रसदोषयोर्विकृतो  विषमो वा मेलको भवतीत्यर्थ: ।

चक्रपाणि कहते हैं कि यद्यपि दोषों का परस्पर गुणोपघातत्व सामान्यतया नहीं होता फिर भी अदृष्टवशात्  कभी-कभीचक्रपाणि कहते हैं कि यद्यपि दोषों का परस्पर गुणोपघातत्व नहीं होता फिर भी कभी कभी हो ही जाता है।लेकिन रसों में तो परस्पर गुणोपघातत्व होता ही है।   
विरुद्धैरपि न त्वेते गुणैर्घ्नन्ति परस्परम्।
इसकी व्याख्या में चक्रपाणि ने सुश्रुत के चंद्रिका व्याख्याकार का मत का खंडन किया है लेकिन स्वयं ने
विमानस्थान की व्याख्या में इसे दबे मन से स्वीकार भी कर लिया ऐसा कभी-कभी व्याख्या कारों के द्वारा हो जाया करता है
 आप तीनों ही महानुभाव इसके विस्तार को
सुश्रुत के सूत्र स्थान के 
 21 वें अध्याय के 38 वें सूत्र की व्याख्या में देखिए जहां विस्तार से इसका वर्णन किया है वहां प्रकृति समसमवेत एवं विकृति विषमसमवेत का विस्तृत वर्णन है
 वहां डल्हण ने चिकित्सा
 सिद्धांत भी बताया है
यहां डल्हण कहते हैं कि परस्परोपघात किए बिना भी दोषों का सन्निपात होता है वह विकृति विषम समवेत है
 यहां भी दोनों व्याख्या कारों के मंतव्य को समझना आवश्यक है चक्रपाणि गुणों का क्वचित् उपघातत्व कहते हैं  और
डल्हण दोषों का ही संसर्ग सीधा मान लेते हैं इसमें विस्तार से विश्लेषण की अपेक्षा है

[4/6, 7:05 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

जी , गुरु जी , निश्चित रुप से सु.सू. २१/३८ की व्याख्या अति सुंदर और चिकित्सा की दृष्टि से अवलोकनीय है.. 
इस पर एक चर्चा सत्र रखना अपेक्षित है..
🙏🙏

[4/6, 7:15 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

आयुर्वेद दीपिका ➡️ नानाप्रकृतिविशेषव्यूह इति यथोक्तनानाकारणविशेषकृतो ज्वरातिसारादिरुपो व्याधिनां दोषाणां च समूह इत्यर्थ: .

एषणा ➡️ *नानाप्रकृतिविशेषव्यूह:*अर्थात् यथोक्त विविध कारणों के भेद से किया हुआ ज्वरातिसारादि‌ स्वरुप युक्त व्याधियों और दोषों का समूह*.
 सन्निपात अतिसार पर आयुर्वेद दीपिका व्याख्या➡️ अपि चेत्यादिना विकृति विषम समवायारब्ध *त्रिदोष* लक्षणमाह....
चिकित्सा सूत्र ➡️ वातस्यानु जयेत् पित्तं , पित्तस्यानु जयेत् कफम्, त्रयाणां वा जयेत् पूर्वं यो भवेद्बलवत्तम:. च.चि.१९/१२२.

आयुर्वेद दीपिका व्याख्या➡️ पूर्व ज्वराध्याये सन्निपात चिकित्सायां "कफस्थानानुपूर्व्या वा" (चि.अ.३) इत्यनेन कफपित्तवातानां क्रमेण चिकित्सोक्ता अतीसारेऽपि त्रिदोषजे कदाचित् स्यादित्याशङ्क्यात्र विशिष्टं क्रमं आह - वातस्यान्वित्यादि. अयं च क्रमो निरामसन्निपातातिसारे एव ज्ञेय: ; सामे तु प्रथममामस्यैव चिकित्सितं कर्तव्यम् . समत्रिदोषातिसारचिकित्साक्रमभिधाय विषमत्रिदोषातिसारचिकित्साक्रममाह- त्रयाणामित्यादि ..
यहाँ पर विशिष्ट अवलोकनीय ➡️ निराम सन्निपातातिसार 
➡️साम सन्निपातातिसार
➡️समत्रिदोषातिसार
➡️विषमत्रिदोषातिसार
 *मेरी सोच ➡️ सन्निपात तीन दोषों का समूह / संयोग/मेल/मिश्रण, सम त्रिदोष, विषम त्रिदोषादि को समझते हुए चिकित्सा व्यवस्था नियोजन, इति..*
 *इस विषय पर मेरे विचारों को ससंदर्भ बताने की कोशिश कर चुका हूं , अब विराम लेता हूं*
 *आभार आदरणीय श्री गुरु जी* का 🙏🙏
 *धन्यवाद मित्रों का* ☺️☺️

[4/6, 8:03 AM] DR Narinder paul J&k:
  
*व्याधि का मन के साथ जुड़ जाना या इंद्रियों के साथ जुडना और इतना गहरा सहयोग बना लेना जिसे तोड़ पाना मुश्किल हो या आसान शब्दों में यूं कहूं तो जब रोगी यह मान लेता है कि मैं ठीक होने वाला नहीं हूं,  उसके सबकॉन्शियस माइंड में यह बात फिट बैठ जाती है कि मैं ठीक नहीं हो सकता तो धीरे-धीरे रोग असाध्य हो जाता है  इसीलिए साध्य असाध्य का वर्णन, अरिष्टो  का  वर्णन इंद्रिय स्थान में है और  इसका अर्थ यही है कि जब त्रिदोष इंद्रियों के साथ जुड़ जाएं चित  के साथ जुड़ जाएं और उनका जुडना इतना प्रबल और चिरकालिन हो जाए कि एक साधारण वैध के लिए उसे तोड़ पाना मुश्किल हो।*

[4/6, 8:04 AM] Vaidya Hiten Vaja M.D. Ahmedabad: 

यथास्वकारणाकृतिसन्निपातात् सान्निपातिक cha. Su. 18
सन्निपतिता इति त्रयोऽपि मिलिताः cha chi 3
दोष नवीन मिलित अवस्थामे अपने स्वाभाविक स्वरुप को त्याग करके आवान्तर कोई अलग स्वरुप को ही धारण करते है | इसमे वात पित्त कफ़् की कोइ लाक्षणीकता नहि मिलती अपितु नया संमूर्छीत मल ही आविर्भूत हो जाता है जो विशिष्ट लक्षण को जन्म देता है |
सम्मूर्च्छितैर्मिश्रीभूतैः, तैरेव सन्निपतितैरित्यर्थः| 
सु नि १०/१०
सर्वजां सन्निपातजां; परं तथाऽपि साध्या, न हि सर्व एव सन्निपातजा व्याधयोऽसाध्याः| सर्वलक्षणां दोषसमुदायलक्षणां, न तु प्रत्येकदोषलक्षणां, दोषेभ्यो दोषसमुदायस्यान्यत्वात्, चूर्णहरिद्रासंयोगस्येव|

कैसे होता है 

हेतुलक्षणसंसर्गादुच्यते सान्निपातिकः| च सु १७/३६
हेतु (विषम आहार विहार) का धातुमे आधान होता है तब् धातुविभन्जन प्रक्रिया होती है, जिसे रोग संज्ञा दी है, यह धातु विभन्जन प्रक्रिया निज आगन्तु एवं मानस प्रकार से होती है, धातु विभन्जनका इन्द्रिय अधिष्ठान पर व्यक्तिकरण होता है वह लक्षण है | निजआगन्तु (विषम आहार विहार) उपरान्त मानस हेतु (सदवृत्त अपालन से अधारणीय वेगो का धारण) जब् आतुर समिश्रित रूप मे सेवन करता है तब् यह् बाह्यहेतु समुह अभ्यन्तर हेतु दोषमे सर्गी( नवीन स्वरुप उत्पत्ति) करण करता है| उपरान्त यह हेतु संग्रह धातुविभन्जन की व्यक्तिकरणकी प्रक्रिया को भी सीधा=प्रत्यक्ष=समानान्तर  सर्गी (नवीन स्वरुप उत्पत्ति) करण प्रदान करता है| अर्थात यह हेतुसंग्रह धातु के साथ दुष्ट दोष के साथ मिलकर सीधा संपर्क बना लेता है | त्रिदोषज मे हेतु दोष के माध्यम से ही धातु संपर्क करते है, सीधा नहि कर सकते | उपरान्त यह सर्गीकरण सम=संततता युक्त होता है | परिणामत: संमूर्छीत मल ही आविर्भूत हो जाता है जो विशिष्ट लक्षण को जन्म देता है |

यहि बात अन्य संदर्भ मे 

यथास्वकारणाकृतिसन्निपातात् सान्निपातिक cha. Su. 18
यः सन्निपातप्रभवोऽतिघोरः सर्वैः समस्तैः स च हेतुभिः स्यात्| 
 “सन्निपातो दुःश्चिकित्स्यानां” (सू.अ.२५) इति, तथा च भालुकिना- “मृत्युना सह योद्धव्यं सन्निपातं चिकित्सता” इति|

इसका कारण =

 सन्निपातचिकित्सायां गत्यन्तरासम्भवे सति अल्पदोषबहुगुणतया क्रियत इति ज्ञेयम् cha chi 3
सन्निपातजा सर्वलक्षणोपेतेत्यपि विशेषणमर्थवत्; येन न सर्वत्र सर्वजे विकृतिविषमसमवायारब्धं प्रत्येकदोषजेष्वपठितमेव लिङ्गं भवति, किं तर्हि समुदायिभ्योऽन्यत्वात् समुदायस्य चूर्णहरिद्रासंयोग इवान्यान्यपि, अत एव विकृतिविषमसमवायारब्धस्य सन्निपातस्यावश्यमेव लक्षणानि पठ्यन्ते, प्रत्येकदोषलिङ्गेभ्योऽन्यत्वादेव तेषां सन्निपातलिङ्गानाम्; एवं चिकित्साऽपि पृथगेव पठ्यते, तत एव हेतोरन्यत्वाद्दोषदूष्यस्वभावस्य व्याधेः| सु नि १३/२५ टीका 

कतिपय अन्य संदर्भ -

सन्निपातज्वरस्योर्ध्वमिति अत्रोर्ध्वशब्देनाधिकवाचिना प्रकृतिसमसमवायारब्धसन्निपातज्वराद्यान्यधिकानि विकृतिविषमसमवायारब्धज्वरस्य लक्षणानि, cha chi 3
यदिह सास्रावकलुषनिर्भुग्नलोचनत्वादि वक्तव्यं न तत् पृथग्वातादिज्वरोक्तलक्षणमेलके भवति, किन्तु विकृतिविषमसमवायारब्धे ज्वरे संयोगमहिम्ना भवतीति cha chi 3

चिकित्सकीय अभिगम

 
चिकित्सा मे जब आतुर अन्तर्गत एषणा का उपघात दीखने लगे, अथात प्राणेषणा (आहार निद्रा आनन्द उपघात ), धनेषणा (व्यावसायिक कर्म) एवं परलोक एषणा (सामाजीक कार्य) मे बाधा परिलक्षित हो तब आतुर का सत्व उपहत हो गया है ऐसा समज सकते है | 
क्योकि अनुपहत सत्व हि एषणा कर सकता है | 
चिकित्सा व्यवहार मे स्थुलत: आकलन करना हो तो उपस्तम्भ से हो सकता है | आतुर मे जब ब्रह्मचर्या=योग्य विचार या आनन्द मे क्षिणता निरन्तर क्रोधभय आदी से अभिव्यक्त होती है तब् एषणामे उपघात परिलक्षित होता है | 
एषणा का उपघात बलवर्णसुख एवं अन्त मे आयुष (देहाग्नि=कायाग्नि) का नाश करता है| अतः यहा सत्व मध्यस्थ बनता है | दोषे विबद्धे नष्टेऽग्नौ सर्वसम्पूर्णलक्षणः|
प्रत्यक् विकृति अपने विशिष्ट कारण की अपेक्षा रखती है | मानस हेतु (सदवृत्त अपालन से अधारणीय वेगो का धारण) जब् आतुर निजागन्तु के साथ समिश्रित रूप मे सेवन करता है तब् यह हेतुमेलक दोषोमे विशिष्ट मूर्छन कर देता है| जीससे विशिष्ट संमूर्छीत मल ही आविर्भूत हो जाता है |
सत्त्वमुच्यते मनः| 
तच्छरीरस्य तन्त्रकमात्मसंयोगात्| 
शरीरका तन्त्रक सत्व है | शरीर = दोष धातु मल | परन्तु धातु और मल तो दोष से ही कार्यान्वित होते है | अतः दोषका सत्व के साथ सीधा संबन्ध है | विशिष्ट संमूर्छीत मल जिसमे दोष संनिपतित रहते है वह मानसिक विशिष्ट हेतुवान होते है वह शीघ्रता से सत्व को ग्रस्त करके आयुष का ह्रास करते है | 
उपाय :
लङ्घन लाघवाय यत् ...
लघुता २४ धातु मे आती है, संनिपातित आतन्कित स्थिति मे लङ्घन मे कल्पना सिध्धान्त अनुसार प्रथम विरेचन तक जाना उचित होता है | जिससे “कायाग्निस्चाभि वर्धते” प्राप्त हो सके और आयुष अनुवृति होने लगे | साम निराम आकलन करके अगर कोष्ठ शुध्ध है तो सिधा विरेचन नहि तो वमन पूर्वक विरेचन करना अपेक्षित है | यह शमन और शोधन दोनो अभिगम से स्थिति अनुसार प्रवृत्त करना चाहिये |

गृध्रसि के आतुर मे पादेन्द्रिय के अधिष्ठान पैर मे गृध्रवत चालन से गमन धावन आसन उत्थान आदी वृत्तिया बाधित हो जाय, आतुर अपना व्यावसायिक एवं सामाजिक कर्म भी न कर सके और आनन्द से निरस्त हो जाय, उपरान्त प्रत्यात्म लक्षण के आविर्भाव से पूर्व हेतुसङ्ग्रहमे मानस हेतु (लोभ मोह भय आदी धारणीय वेगो के अधारण) का वृत्त मिले एवं बलवर्णसुखआयुष का उपघात मिले तो चिकित्सा व्यवसाय मे संनिपात निश्चित करके साम निराम देख कर वमन विरेचन उपरान्त आस्थापन (+अनुवासन) कर्म को संपादीत कर सकते है |

🙏🙏

[4/6, 8:18 AM] Dr.Ramakant Sharma, Chulet,  Jaipur: 

कृपया पुनः विचार करें एक बार  सावधानी से

[4/6, 8:31 AM] Vaidya Hiten Vaja M.D.Ahmedabad: 

🙏🙏

जी गुरुवर ...
मार्गदर्शन की गुरुकृपा बनी रहे ...

[4/6, 8:45 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

हमें लगता है की चुलेट सर कीसी विशेष स्थिती की और इशारा कर रहे हैं। वे जानते हैं पर खुलकर बताना नही चाहते हैं।

[4/6, 8:50 AM] Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir:

 Namaskar!
Sampoorna carca me- 1).Doshon ke prakar  ka vicara nahi. Avarana/ Aavarak/ DhAtugat vat.
Aage badhe to-
A)Dosho ke  ksheen sannipat / Vraddha sannipat ke Aadhar par mukhya trayodasha sannipat lakshna And Cikitsa Sutra ,Yoga -sutra  vyavahar me hai. 
Sannipat ka vicar karain to vyadhi nAm nirdhAran apekshA?😃🙏🏼

[4/6, 8:52 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*सन्निपात मे तीनों दोषों की उल्वणता, उग्र दोषों की प्रथम चिकित्सा 👌👌👌 🙏चक्रपाणि के मत से देखें तो च चि ज्वर में सन्निपातिक और त्रिदोषज प्रथम 12 ज्वर लें तो समानार्थी भी लगते हैं।*

*चिकित्सक के दृष्टिकोण से देखे तो उभय प्रत्यनीक अथवा व्याधि प्रत्यनीक  चिकित्सा ।*

*विमान स्थान देखें तो हेतु, दोष और लक्षण की संयुक्तता का बता रहा है कि ये कैसे मिले, यह रोगी की history और सम्प्राप्ति की तरफ संकेत है।ज्वर में सन्निपातिक स्थिति को पूर्ण लक्षण ना मिलने पर कृच्छ साध्य मान लिया है।*

*त्रिदोषज और सन्निपातिक को एक मान सकते हैं बस इतना स्पष्ट कर के कि ये हैं तो एक पर रोगारंभ प्रक्रिया इस प्रकार हुई इसलिये।*

[4/6, 8:55 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*वैद्य संजय जी, साधक है हम और आयुर्वेद सीखने की प्रक्रिया चल रही है जो आजीवन चलेगी।*
 *इन 13 सन्निपात ने ही प्रकृति समसमवाय और विकृति विषम समवाय के विषय में सूत्र रूप में ही इतना लिख दिया कि आयुर्वेद का clinical स्वरूप कितना महान है यह पता चलता है।* 👍👌✔️🙏

[4/6, 9:14 AM] Dr. Pawan Madan: 🙏🙏🙏🙏

*हर सन्निपात मे त्रिदोष समाहित है, पर हर त्रिदोषज मे सन्निपात नही।*

*Clinically, its significance is about the prognosis while explaining the disease and treatment outcome to the patient* 
And
*as well as the principle to be followed which may be different if it is only TRIDOSHAJ or tridoshaja which has reached to Sannipaatj Avastha.*

🙏🙏🙏🙏

[4/6, 9:14 AM] Prof. Manoj Sharma: 

आदरणीय विद्वान महानुभावों मुझे भी विभिन्न रोगों की सान्निपातिक  अवस्थाओं में चिकित्सा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है एवं आशातीत सफलता भी प्राप्त हुई है। इसमें मेरा दृष्टिकोण इस बात पर केन्द्रित रहा है कि अग्निबल का संरक्षण, आम का पाचन, स्रोतस् अवरोध दूर करने के लिए वातानुलोमन बलाधान पूर्वक करने पर निश्चित ही हम सान्निपातिक अवस्थाओं से पार पा लेते हैं।
आचार्य चरक द्वारा ज्वर चिकित्सा में बताये सिद्धांत 'वर्धनेनैकदोषस्य क्षपणेनोच्छृतस्य वा, कफस्थाननुपूर्व्या वा सन्निपातज्वरं जयेत्।' इस सिद्धांत में सम्पूर्ण प्रकार के रोगों की सान्निपातिक स्थितियों से चिकित्सा का मार्ग प्रशस्त किया गया है। चूंकि इस तरह की अवस्था में रोगी का बल, जोकि मुख्य रूप से अग्नि बल ही का संरक्षण परम आवश्यक हो जाता है। यहां सन्निपात की स्थिति सभी प्रक्रियाओं को जिनमें आमपाचन, स्रोतस शोधन, अग्नि का वर्धन इस प्रकार करना पड़ता है कि दूसरे सन्नद्ध दोष प्रकोप अथवा क्षीण न हो जावें। जिस प्रकार अत्यन्त छोटे शिशु को संभालने की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार औषधियों का चयन रोग एवं रोगी दशा के अनुसार करने पर यदि दैव विपरीत नहीं है तो सफलता अवश्य प्राप्त होती है।
मुझे तो चरक चिकित्सा का ज्वर देखने पर लगता है कि सम्पूर्ण रोगों की चिकित्सा का समाधान आचार्य ने यहीं पर कर दिया है।
आचार्य चरक ने उष्ण जल क गुण बताते ज्वर अध्याय में बताया है कि 'दीपनं पाचनं चैव ज्वरघ्नमुभयं हि तत्।
स्रोतसां शोधनं बल्यं रुचस्वेदकरं शिवम्।' 
यहां उष्ण जल के गुणों को दखने पर ज्ञात होता है कि कोरोना की जीतने की सम्पूर्ण सामर्थ्य इसमें है। इस सन्दर्भ में पाया भी कि जब प्रारंभ में लोगों को क्वारेन्टाइन कर दिया था, केवल गरम जल व अल्प भोजन के बल पर ठीक होकर बाहर आ गये।
लंघन एवं उष्ण जल का युक्ति पूर्वक उपयोग वरदान की तरह सान्निपातिक अवस्थाओं में कार्य करता है। लंघन के विषय में आचार्य ने ज्वर चि. 141 में उतना ही लंघन उस प्रकार कराने का निर्देश दिया है, जिसमें बल हानि न हो। अस्तु नमन है, आचार्य को जिन्होंने इतना गहरा एवं बारीक ज्ञान प्रदान किया। 🙏🙏

[4/6, 9:26 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*बहुत अच्छा लगा पढ़कर एवं आगे भी इसी प्रकार योगदान देते रहिये डॉ मनोज जी, हमारा मूल प्रश्न है कि वो क्या विशेषता है जो सन्निपातिक को त्रिदोषज से अलग बताती है ?*
 *रोगी सामने है तो कैसे पता चलेगा कि यह त्रिदोषज अवस्था का है या सन्निपातिक ? हमें चिकित्सा पक्ष पर नही पहुंचना अभी ।*

[4/6, 9:37 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

Acharya charak has not differentiated tridosh from sannipat and also clinically too there is no significance of differentiating them.

Treatment is as per sannipataj jwar and it becomes adhikar sutra for other tridoshaj/ sannipataj disease.


Wherever acharya Charak found any specific changes he has noted as in atisar and madatyaya.

 My conclusion ⬆️

[4/6, 9:45 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*जयपुर परम्परा में चरक संहिता और आयुर्वेद दीपिका व्याख्या का महत्त्व रहा है और अब एषणा हिन्दी व्याख्या भी इस क्रम में जुड चुकी है, महर्षि आचार्य श्रेष्ठ गुरु जी के सटीका सुश्रुत संहिता पर हिंदी व्याख्या की प्रतिक्षा है जो कि हमारे लिये ज्ञान देवता स्वरूप होगी*. 🙏🙏

[4/6, 9:56 AM] Dr. Pawan Madan: 

*गुरु जी*
🙏🙏🙏🙏
*दो तथ्यो से*
*एक,,,, हिस्ट्री मे क्या तीनो दोषो के स्व पृकोपक कारण मिलते हैं या नही? या केवल एक या दो दोषो के हेतू ही मिलते हैं?*

*दूसरा*
*क्या ये त्रिदोषज व्याधि अवस्था असाध्य या कठिनतर साध्य जैसी स्तिथि मे पहुंच गयी है ?*
*इसका ज्ञान साध्य असाध्य लक्षणो या इन्द्रिय स्थानोक्त लक्षणो से किया जा सकेगा ।*
*We will need to define the prognosis to know weather it is tridoshaj or sannipaataj.*

🙏🙏

[4/6, 10:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*आदरणीय गौड़ सर की विद्वता और आयुर्वेद में योगदान के कारण जयपुर आयुर्वेद का तीर्थ स्थल बन गया है।* 🙏🙏🙏

[4/6, 10:18 AM] Dr. Pawan Madan: 

नमस्कार
आपने बहुत ही बढिया कहा

लन्घन कोरोन की प्रथम अवस्था मे बहुत कारगर रहता है।
बल्कि ये कहना चाहिये की की किसी भी ज्वर की acute start मे 24 से 48 hours का लन्घन virus की virulence को कम कर पाने मे बहुत सहायक हो जाता है।



*Clinical Significance of any disease condition where we try find weather it is only a tridoshaj vyadhi or tridoahaj sannipaatik avastha.*

🙏🙏
 *Tridoshaj Vyadhi vs Sannipaataj Vyadhi*

1.
*...Sva Prakopak hetus of each of three Doshas causing disturbance or prakop of each of three Doshas......result in a condition called Sannipaata. As it is caused by hetus of each of the doshas.....the condition is almost always grave and asaadhya.*
 *This is pretty clear from tge ref Vimaan sthaan 6/11 guiding as anubandh evam anubandhya dosha.*

*...a proper history can lead us to find the hetus possibly weather they are of one or two or all three doshas. Althogh its very difficult but not impossible. I have experienced this in many clinical conditions.*

2
*...Knowing the condition as Sannipaataj gives us a clue that the treatment is going to be difficult and probability of cure is very very less. We can guide our patient as per this.*

3.
*...Tridoshaj Vyadhi means when all the tridoshas get involved in the said clinical presentation by any means weather statted from single dosha prakop leading to involvement of other doshas in the process OR directly from some other hetu. Here this is not necessary that the patient has consumed the hetus of each of the three doshas. He might have indulged more in the kaphavardhak hetus for examole which at the end disturbed  the pitta and vaata dunctions...e.g prameh changing to madhumeh.* 

4.
*...There can be some other indirect reasons to result in a tridoshaj vyaadhi e.g. santarpanjany vyadhis or some kind of maarga avarodh.*

5.
*...Tridoshaj vyadhis may not be fatel always, there are symptoms of each dosh but they can be managed generally as per the prakope of the dosha in the presenting stage of the condition or as confirmed by tge attending physician e.g. metabolic syndrome.*

6.
*...A tridoshaj vyadhi when becomes fatel it can be synonymicaly called as Sannipaataj as we can see in Tridoshaj Gulma.*

7
*...Treatment of tridoshaj vyadhis is possible generally as one or the 2 doshaj hetus are causes and we can apply hetu viprita chikitsa or we can do the treatment of other hetus like santarpan or sometimes maargaavrodh to manage tridoshaj vyadhis.*

8.
*....But in sannipaataj vyadhi....they are almost asaadhya as....each of the three doshaj hetus have been causing the disease.....and it is almost impossible to apply hetu viprita chikitsa as this* 
*becomes antagonistic to each other.*

9
*Vyadhi viprita chikitsa also becomes difficult in such a case because the disease might have progressed to a level of Dhaatupaaka. We see this in many autoimmune disorders now a days, let it be multiple myoloma or multiple sclerosis or SLE or many such syndromes.*

🙏🙏🙏💐🙏💐🙏💐

*Vaidya Pawan Madaan*

[4/6, 10:44 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

✅👌 दो दिन से संभाषा परिषद ही चल रहा है , ससंदर्भ व्याख्या को टोड मरोड कर भी प्रस्तुत कर रहे हैं, गृध्रसी में सन्निपातिक अवस्था को भी देख रहे हैं, अपने अपने मत प्रकट करने के लिये हम सभी स्वतंत्र है .  
आचार्य चरक, आचार्य चक्रपाणी और आचार्य गौड ने कहीं भी सन्निपात और त्रिदोषज में विभेद नहीं किये हैं, नैदानिक एवं चिकित्सकीय पक्ष से समानार्थी है, फिर भी यदि कोई संदर्भ ऐसा मिलता है जहाँ पर विभेद बताया गया है तो उसका स्वागत और ज्ञानाभिवर्धन के लिये आभार भी..🙏🙏

[4/6, 10:47 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

इतना संदर्भीत चर्चा हमने पहली बार देखी और पढ़ी है। आनन्द ही आनंद है।
[4/6, 11:18 AM] Vd Darshna vyas Vadodara: 

दो तीन दिन से सन्निपात और त्रिदोष मे भिन्नता या अभिन्नता  पर बहुत ही सुंदर और विद्वतापूर्ण चर्चा इस ग्रुप की shan ke समान पूज्य ઓઝા सर, पूज्य shubhash शर्मा सर,  સોની सर जो कि इस ग्रुप के निर्माता है,  raghuram sir , और bhi kai विद्वज्जन है,  पढ़ने का बड़ा anand आता है, जिसको पढ़ते हैं उनका opinion सही लगता है 😁,  हम दोनों पक्ष में है,  jaise BODY ACHE और BODY PAIN USME ACHE और  PAIN ME सूक्ष्म  FARK HAI ऐसा यहा पर भी विचार कर सकते HAI  जैसे  SHUBHAS SIR ने बताया कि बाल के बराबर 🙏🏻🙏🏻🙏🏻 हम तो आप लोगों के सामने बहुत hi कम पढ़ाई करने वाले है   kuchh गलती हो to ક્ષમા प्रार्थी હું 🙏🏻🙏🏻

[4/6, 11:18 AM] Dr. Sadhana Babel Mam: Yes

[4/6, 11:19 AM] Vaidya Hiten Vaja M.D.Ahmedabad: 

HRIDROG- CHA SU 17

Hetu lakshan sansargat uchyate sannipaatik  l
Tridoshaje tu hridroge yo duratma nishevate ll cha su 17/36

Ek hi dhatuvaishamya ki prakriya = vyadhi( Hridrog)  me vatapittakapg ke avasthantar nirdesh kiye hai ...

[4/6, 11:26 AM] Dr. Sadhana Babel Mam: 

आदरणीय आचार्य वैद्य राज सुभाष सर, आदरणीय गौड़ सर, आदरणीयओझा सर, आदरणीय रघुराम सर, आदरणीय सोनी सर, आदरणीय पवन सर एवम आदरणीय  छाजेड़ सर और सभी  विद्वान जन वैद्यगण को सादर नमन !
मैने एक त्रिदोषज और सान्निपतिक के ऊपर आशंका पूछी 

सभी का बहोत धन्यवाद इतना खूबसूरत, ससंदर्भ, सोदाहरण, क्लिनिकल एप्लीकेशन सह चर्चा हुई। जो सीखने को मिला वो अद्वितीय ।

निश्चित रूप से यह चर्चा सभी को लाभकारी होगी। इसमें कोई आशंका नहीं।
Again 🙏🙏🙏dhanyvad नमन !

[4/6, 11:59 AM] Dr. Surendra A. Soni: 

 शोकोपवासव्यायामरूक्ष१शुष्काल्पभोजनैः ।
वायुराविश्य हृदयं जनयत्युत्तमां रुजम् ॥३०॥
वेपथुर्वेष्टनं स्तम्भः प्रमोहः शून्यता द२रः ।
हृदि वातातुरे रूपं जीर्णे चात्यर्थवेदना ॥३१॥

*उक्त विश्लेषण में कोई समस्या नहीं है ।*

उष्णाम्ललवणक्षारकटुकाजीर्णभोजनैः ।
मद्यक्रोधातपैश्चाशु हृदि पित्त्ं प्रकुप्यति ॥३२॥
हृद्दाहस्तिक्तता वक्रे तिक्ताम्लोद्गिरणं क्लमः ।
तृष्णा मूर्च्छा भ्रमः स्वेदः पित्तहृद्रोगलक्षणम् ॥३३॥

*उक्त विश्लेषण में कोई समस्या नहीं है ।*

अत्यादानं गुरुस्निग्धमचिन्तनमचेष्टनम् ।
निद्रासुखं चाभ्यधिकं कफहृद्रोगकारणम् ॥३४॥
हृदयं कफहृद्रोगे सुप्तं स्तिमितभारिकम् ।

*उक्त विश्लेषण में भी कोई समस्या नहीं है ।*

तन्द्रारुचिपरीतस्य भवत्यश्मावृतं यथा ॥३५॥
हेतुलक्षणसंसर्गादुच्यते सान्निपातिकः ।
 (हृद्रोगः कष्टदः कष्टसाध्य उक्तो महर्षिभिः)

*यहाँ आचार्य ने 'हेतुलक्षणसंसर्गादुच्यते सान्निपातिकः' कहा है जो गुल्मवत विचारणीय है ।*

*त्रिदोषजे तु हृद्रोगे यो दुरात्मा निषेवते ॥३६॥*

*त्रिदोषज हृदरोगी यदि आगे और  तिलादि निदानों का सेवन करता है तो कृमिज हृदरोग रोग उत्पन्न होता है जो त्रिदोषजत्व के आगे की रोग अवस्था है, यहाँ सन्निपातशब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है तथापि यह सन्निपात ही है जो हमें अनुक्त ग्रहण सिद्धांत से ग्रहण करना पड़ेगा । सन्निपात वर्णन में आगे किसी भी तरह के निदान सेवन का संभवतः कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है परन्तु त्रिदोषज प्रकार में ऐसा नहीं है जो चरक वचनों से है । आचार्य पवन जी को स्मरण होगा कि आयुर्वेद पीठ समूह में आ. ओझा सर सन्निपातअवस्था को हमेशा  *टर्मिनल इलनेस* *कहते थे जबकि त्रिदोषज के लिए ऐसा नहीं था ।*

तिलक्षीरगुडादीनि ग्रन्थिस्तस्योपजायते ।
मर्मैकदेशे सङ्क्लेदं रसश्चास्योपगच्छति ॥३७॥
सङ्क्लेदात् क्रिमयश्चास्य भवन्त्युपहतात्मनः ।
मर्मैकदेशे ते जाताः सर्पन्तो भक्षयन्ति च ॥३८॥
तुद्यमानं स हृदयं सूचीभिरिव मन्यते ।
च्छिद्यमानं यथा शस्त्रैर्जातकण्डूं महारुजम् ॥३९॥
हृद्रोगं क्रिमिजं त्वेतैर्लिङ्गैर्बुद्ध्वा *सुदारुणम् ।*
*त्वरेत जेतुं तं विद्वान् विकारं शीघ्रकारिणम् ॥४०॥*

आचार्य की सूत्र रूप शैलीमय वर्णन में हम ये आशा नहीं कर सकते हैं कि प्रत्येक प्रसंग में सब कुछ बताया जाए । पूर्वोक्त सिद्धांतों की यथावसर, यथाविधि, यथावश्यक और यथाप्रसंग प्रयोज्यता हमे ही निर्धारित करनी है । हितेनभाई ने सत्त्व वर्णन की प्रासंगिकता बताने का अत्यंत सराहनीय प्रयास किया है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है । सन्निपात और त्रिदोषज दोनों में प्राणवायु और ओजस का तो कहीं उल्लेख ही नहीं है तो इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि इनकी कोई कार्मुकता नहीं है ।
मेरा विनम्र निवेदन है कि त्रिदोषज और सन्निपात को एक मानना आचार्यों की मूल भावना के विरुद्ध जाना है ।

मेरी क्षुद्र बुध्दि से ।

🙏🏻🌹😌

[4/6, 12:09 PM] Vaidya Hiten Vaja M.D.Ahmedabad:
 
Adhikaran tantrayukti (Tantra ko yukt karne wali adharbhut pranaalee) ka prabhed  shabdadhikaran vishesh arth pratigya sidhdhi hetu pradan kar sakta hai...

Paryaya synonym nahi pratit hote, vishishta drashtikon pradan kar sakte hai....🙏

[4/6, 12:11 PM] Vd.Divyesh Desai Surat: 

सुभाष सर, हमेशा कहते है कि 15 दोषों को नजर समक्ष रखकर चिकित्सा करो तो सारे विद्वान लोग रोग और रोगी दोनोंकी साध्यता असाध्यता की परीक्षा करते है बाद में जरूरत पड़ने पर सन्निपात या त्रिदोषज दोनोमे अगर असाध्यता या अरिष्ट लक्षणों मिलने पर रोगिको बताकर ही चिकित्सा करते है तो अपयश मिलने का सवाल ही नही होता और कोलेज के संलग्न अस्पताल में भी सन्निपात (गुजराती में सनेपात) उत्पन्न होने पर भी चिकित्सा करते ही है, सोनी सर जब बरोडा थे तब उदररोग में असाध्यता मिलने पर भी मरीजो को सीधा बोलकर ट्रीटमेंट करते थे, इसमें से काफी मरीजो को लंबे अरसे तक उपशय मिलता था....,प्राइवेट प्रेक्टिस में भी रुग्ण को असाध्यता होने पर भी दर्द निवारण हेतु चिकित्सा करते ही है, ऐसे समय पर त्रिदोषज या सन्निपात में फर्क नही होता.. 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
जय आयुर्वेद
जय धन्वंतरि
जय चरक आचार्य

[4/6, 1:56 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

सम सन्निपातिक/त्रिदोषज ज्वर में प्राण वायु और उदान वायु के भाग लेने को कतिपय लक्षणो के आधार पर समझा जा सकता है , यथा - शिरसो लोठनमिति इतस्ततो नयनम् ( प्राण वायु).
मूकत्वं मन्दवचनत्वम् , अवचनता वा ( उदान , प्राण वायु)..
जरुरत है सन्निपातिक अवस्थाओं में त्रिदोषों के अंशांश कल्पना को समझने की..
एक भी संदर्भ ऐसा नहीं है जहाँ पर त्रिदोषज शब्द को सन्निपातिक/ सन्निपातज/ सान्निपातिक से अलग  रखा गया हो.
सर्वसंपूर्ण लक्षणयुक्त सन्निपात ज्वर असाध्य है जो कि विबद्ध दोष और नष्टाग्नियुक्त भी है , अन्यथा कृच्छ साध्य.
किसी भी व्याधि में ऐसा होने पर असाध्यता मिलेगी ही..
साध्यासाध्य की  परिभाषा वर्णित है उसका अनुपालन अपेक्षित है.
सभी सन्निपातिक/ त्रिदोषज रोगो का असाध्य होना जरुरी नही है.
नैदानिक दृष्टिकोण से लक्षणोत्पत्ति दोष दूष्य सम्मूर्च्छना जनित व्यापार से होती है, चिकित्सा में भी उल्बण दोष या सम त्रिदोष ,विषम त्रिदोषा ,   निराम दोष, साम दोषादि ही देखे जाते है और तद्नुसार चिकित्सा व्यवस्था..

[4/6, 2:00 PM] Dr. Surendra A. Soni:

 व्यायामतीक्ष्णौषधरूक्षमद्यप्रसङ्गनित्यद्रुतपृष्ठयानात् ।
आनूपमत्स्याध्यशनादजीर्णात् स्युर्मूत्रकृच्छ्राणि नृणामिहाष्टौ ॥३२॥
*पृथङ्मलाः स्वैः कुपिता निदानैः सर्वेऽथवा कोपमुपेत्य बस्तौ ।*

*पृथक पृथक अथवा सभी दोष/मल स्व निदानों से..... दोष शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ तो क्या हम दोष नहीं मानेंगे ?* *यह आचार्य की वर्णन शैली है कि प्रकुपित दोषों को मल संज्ञा प्रदान की है ।*
👆🏻
*यह विमानोक्त प्रतिज्ञा अनुरूप ही है ।*

मूत्रस्य मार्गं परिपीडयन्ति यदा तदा मूत्रयतीह कृच्छ्रात् ॥३३॥
तीव्रा रुजो वङ्क्षणबस्तिमेढ्रे स्वल्पं मुहुर्मूत्रयतीह वातात् ।
पीतं सरक्तं सरुजं सदाहं कृच्छ्रान्मुहुर्मूत्रयतीह पित्तात् ॥३४॥
बस्तेः सलिङ्गस्य गुरुत्वशोथौ मूत्रं सपिच्छं कफमूत्रकृच्छ्रे ।

*सर्वाणि रूपाणि तु सन्निपाताद्भवन्ति तत् कृच्छ्रतमं हि कृच्छ्रम् ॥३५॥*

*गुल्म और हृदरोग की तुलना में अत्यंत संक्षिप्त में वर्णन कर दिया है । परन्तु उक्त श्लोक 35 पर विशेष चिन्तन की आवश्यकता है......👇🏻* 

*सर्वाणि रूपाणि-* 

*व्याधि के सभी लक्षण....* 

*तु-*

 *निश्चित रूप से...* 

 *सन्निपाताद्भवन्ति-* 

*दोषों के सन्निपात से ही होते हैं ।* 

तत् कृच्छ्रतमं हि कृच्छ्रम् ॥

*और यह स्वरूप कृच्छ्रतम में भी कृच्छ्र अर्थात असाध्य होता है ।*
३५॥*

*आचार्य चक्रपाणि उक्त श्लोक पर👇🏻-*

पृथगित्यादिना वातपित्तकफसन्निपातजानां मूत्रकृच्छ्राणां सम्प्राप्तिमाह।

श्लोक 35 👆🏻के 'सर्वाणि रूपाणि....' अनुरूप सन्निपात कहा गया है ।

*सर्वं त्रिदोषप्रभवे तु वायोः स्थानानुपूर्व्या प्रसमीक्ष्य कार्यम् ।*
*त्रिभ्योऽधिके प्राग्वमनं कफे स्यात् पित्ते विरेकः पवने तु बस्तिः ॥५८॥*

सर्वं 'त्रिदोषप्रभवे' शब्द प्रयोग किया गया है इसका यह अर्थ हम कदापि नहीं लगा सकते हैं कि 'सर्वं त्रिदोषप्रभवे' शब्द से सन्निपात ही ग्रहण नहीं करना चाहिए । कृमिज हृदरोग में केवल *त्रिदोषजे* शब्द का ही प्रयोग है 'सर्वं त्रिदोषजे' का नहीं जो पूर्व में उद्धृत किया जा चुका है । 

*त्रिभ्योऽधिके प्राग्वमनं कफे स्यात् पित्ते विरेकः पवने तु बस्तिः ॥५८॥*
👇🏻
और 'सर्वं त्रिदोषप्रभवे' में तर-तम भेद से अंशांश कल्पना अनुरूप कर्म करने का निर्देश किया गया है ।

आचार्य चक्रपाणि उक्त श्लोक पर👇🏻-*

एतदेव *वातादिभेषजं* मिलितं त्रिदोषप्रभवे कृच्छ्रे कर्तव्यम्। 

यहां भेषज मिलित लिखा है जो अशुद्धि लगती है ।

तच्च समेष्वपि दोषेषु वायोः स्थानानुपूर्व्या चिकित्सितं कर्तव्यं, 

समेषु दोषेषु स्थिति में ज्वरवत कफस्थानानुपूर्व्या के स्थान पर 
वातस्थानानुपूर्व्या चिकित्सा निर्देश दिया गया है जो ज्वरवत सन्निपात स्थिति का द्योतक है ।


न ज्वर इव त्रिदोषभवे कफस्थानानुपूर्व्या कर्तव्यं; 

👆🏻यहाँ त्रिदोषभवे शब्द भी सन्निपात स्थिति को ही बताता है क्योंकि आगे 'कफस्थानानुपूर्व्या' शब्द वर्णित है, संभवतः मूल श्लोक में 'त्रिदोषभवे' शब्द का प्रयोग सन्निपातार्थ होने के कारण आचार्य चक्रपाणि ने इसका प्रयोग  किया है ।

मूत्रकृच्छ्रस्य *समत्रिदोषारब्धत्वेऽपि* वातस्थानभवत्वेन वायुरेव प्रथमं चिकित्स्य इति भावः। 

पूर्व में भी मैंने इस संदर्भ को उद्धृत किया था । यह विमानोक्त प्रतिज्ञा अनुरूप है ।

विषमसन्निपातारब्धे क्रियामाह-

 त्रिभ्योऽधिके इत्यादि। त्रिभ्योऽधिके इति ग्रन्थः कफे तथा पित्ते तथा पवने इत्यनेन च क्रमेण सम्बध्यते॥

🙏🏻🌹😌

[4/6, 2:01 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*नैदानिक एवं चिकित्सकीय पक्ष के आधार पर सन्निपात और त्रिदोषज को समानार्थी शब्द है*
 आपकी पूरी चर्चा से भी सन्निपातिक और त्रिदोषज शब्द में कोई अन्तर दिखता नहीं है.
एक भी संदर्भ ऐसा नहीं है जहाँ दोनो को अलग माना गया हो.
सन्निपाते इति मेलके अर्थात् मिश्रण संयोग, और कुछ नहीं.. यूं तो कुछ तो लोग कहेगें 🤣😃😅😂
 सर्वमित्यादि - एतदेव वातादिभेषजं मिलितं त्रिदोषप्रभवे  कृच्छे कर्तव्यम् , तच्च समेषु अपि दोषेषु वायो: स्थानानुपूर्व्या चिकित्सितं कर्तव्यम् , न ज्वर इव‌ त्रिदोषप्रभवे कफस्थानानुपूर्व्या कर्तव्यं, मूत्रकृच्छस्य समत्रिदोषारब्धत्वेऽपि वातस्थानभवत्वेन वायुरेव प्रथमचिकित्स्य इति भाव: . विषमसन्निपातारब्धे क्रियामाह - त्रिभ्योऽधिके इत्यादि .त्रिभ्योऽधिके इति ग्रन्थ: कफे तथा पित्ते तथा पवनेन इत्येनेन च क्रमेण संबध्यते - आयुर्वेद दीपिका
उपरोक्त संदर्भ में दोष  ही महत्त्वपूर्ण है

[4/6, 2:30 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

मैंने तो पहले ही कहा था कि आपको मनाना दुष्कर कार्य है ।

नमो नमः ।😃🙏🏻🤗🌹🌻

[4/6, 2:33 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

जी ।
पर दोष के महत्व को कहाँ कम किया जा रहा है, वस्तुतः दोष प्रकोप की विशिष्ट अवस्था की चर्चा हो रही है ।

🙏🏻🌹😌

[4/6, 2:36 PM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

पूरी चर्चा का एक-एक शब्द पुनः पढ़ा है मैंने। इसके अलावा आप लोगों के महाविद्यालयों में जो टेक्सटबुक्स चलती हैं विशेषकर बड़े भारी भारी विद्वानों की, उनको भी ध्यान से देखा है मैंने। आयुर्वेद की जो डिक्शनरी लिखने वाले विद्वान हैं उनके द्वारा प्रदत जानकारी भी देखी गई। मुझे व्यक्तिगत रूप से अब त्रिदोषज व्याधि / सन्निपात में कोई क्लीनिकल अंतर प्रकट नहीं हो रहा है। हालांकि एक बात दिमाग में फिर भी आती है जो मैंने बिल्कुल प्रारंभ में लिखा था और जिसे आचार्य श्रेष्ठ प्रोफेसर बनवारी लाल गौड़ जी ने मॉडिफाई किया था। तीनों दोषों का एक साथ एक ही दिशा में भड़कना सन्निपात कहा जा सकता है। और क्योंकि तीनों दोष भड़क रहे हैं, स्वाभाविक है कि त्रिदोषज व्याधि उत्पन्न होगी। यह मेरा व्यक्तिगत विचार है जो आवश्यक नहीं कि आप लोगों द्वारा मान लिया जाए, क्योंकि क्लीनिकल अनुभव मेरे पास नहीं है। 
जहां तक संहिताओं की समझ की बात है, इन दोनों में ना तो कोई अंतर है और न क्लीनिकल लेवल पर दोनों में अंतर कर पहचानने का कोई पैमाना किसी संहिता में उपलब्ध है। बस सन्निपात दोषों के प्रकोप की सबसे ऊपर वाली डिग्री के रूप में मान सकते हैं।

अगर उपरोक्त स्थिति सही नहीं है, तो फिर आप सब लोगों द्वारा किए गए प्रयत्न के बाद भी मेरे समझ का फेर रह गया। तब बाकी रिटायर होकर बीएएमएस करना पड़ेगा तब शायद समझ में आ जाए। 😂😂

[4/6, 2:40 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

*सन्निपात दोष प्रकोप की सबसे ऊपर वाली डिग्री है ।*

🤗🙏🏻🌹

[4/6, 2:40 PM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

हां आपकी इस बात से सहमत हूं। तो सिर्फ डिग्री का अंतर रहा। बाकी दोनों एक हैं।

[4/6, 2:41 PM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

और यह डिग्री हर व्यक्ति के लिए अलग अलग हो सकती है।


[4/6, 2:47 PM] Dr. Pawan Madan: 

यहां एक बात की तरफ ध्यान देना आवश्यक है महामहिम गुरु जी

*तीनो दोषो का एक साथ आपने अपने निज हेतुओं की वजह से भड़कना सन्निपात की अवस्था तक ले जाता है।*

*एक दोष के अपने हेतुओं से एक दोष का प्रकोप होने के बाद फिर अन्य दो दोषों का भी भड़क  जाना त्रिदोषज अवस्था है।*

🙏🙏🙏

[4/6, 2:51 PM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

सब से प्रारंभ में मैंने इस संबंध में लिखा है ऊपर देख कर आपको टैग करता हूं।

[4/6, 3:35 PM] Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir: 

SannipAt har/ nashak/vidhwansak ,Rasa yoga Sutra jyada hai. Poorva par vashishtya( prefix/sufix)se  sankhya badh jaati hai,
Bajay Tridosha har/nashak/ vidhwansaka Ke.

"abhinyAs" SannipAt ka paryAya or bheda.😃🙏🏼

[4/6, 4:10 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

रसौषधियो के अतिरिक्त द्रव्यो पर भी ध्यान दिजिए , एक भी द्रव्य को सन्निपातहर नहीं कहा गया है, त्रिदोषहर द्रव्य है

[4/6, 4:58 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

तीनों दोषो के एक साथ भडकने से हीन मध्य वृद्ध दोषो के मिश्रण की सम्भावना नहीं बनती और न ही वर्धनेन् एवं क्षपणेन् सदृश चिकित्सा व्यवस्था.. 
वृद्ध वृद्धतर और वृद्धतम में भी दोषो के भडकने की ताकत अलग है और यही समझना जरुरी है जिससे वृद्धतम दोष की प्रथम चिकित्सा अपेक्षित है
 आचार्य चरक के नजरिये को समझने की कोशिश अपेक्षित है, अन्यथा हम सभी किसी एक मत पर नहीं आ सकेगें .
 *आधुनिक भगवान आत्रेय और आधुनिक महर्षि अग्निवेश भी अन्यत्र व्यस्त है , जिससे अध्यक्षीय मत नहीं मिल पा रहा है*
 *मैं अपनी सोच प्रकट कर चुका हूं , अत एव मैं स्वयं को इस चर्चा से दूर रखता हूं*

*आभार एवं धन्यवाद*  🙏🙏🌹🌹☺️☺️

[4/6, 5:16 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

तच्च समेषु अपि दोषेषु वायो: स्थानानुपूर्व्या चिकित्सितं कर्तव्यम्  समत्रिदोषारब्धत्वेऽपि || 👆🙏 *Beautiful presentation of Vaidyaraja Ranga Prasad Bhat Garu , chennai*


[4/6, 6:43 PM] Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir: 

Ye Rasa yoga Sutra vaidyone hi banaye,
Sangrah Granth likhane ka karya paramparik vaidyo/ rajavaidyo ne sankalan bhi kiya 😃na.

[4/6, 6:48 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: Ji Guru ji 🙏🙏


[4/6, 7:39 PM] Dr.Radheshyam Soni Delhi: 

प्रणाम आचार्य ओझा सर🙏 एवं सभी विद्वतजनों को यथायोग्य अभिवादन के साथ कथन है कि स्वयं आचार्य चरक भी सन्निपात और त्रिदोषज में भेद नहीं मानते। इस हेतु 2 उदाहरण प्रस्तुत हैं👇🏻

1. गुल्म निदान गुल्म भेद  में *निचयगुल्म* या *सान्निपातिक गुल्म* कहा है, वहीं चिकित्सा स्थान में इसे *त्रिदोषज गुल्म* नाम से संबोधित किया है।

2. अपस्मार निदान में अपस्मार का चतुर्थ भेद *सान्निपातिक अपस्मार* है, जबकि चिकित्सा स्थान में उसे *त्रिदोषज अपस्मार* कहा है।

इन दो उदाहरण से इतना तो स्पष्ट हो रहा है कि वो इन दोनों शब्दों को पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त करते हैं।

अपिच: बुद्धि विलसार्थ इन शब्दों पर चर्चा और शास्त्रार्थ सदैव ज्ञानवर्धक ही होगा।

प्रणाम🙏🌷😊

[4/6, 7:46 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

नमस्कार डॉ राधेश्याम जी ✅👌☺️🌹

[4/6, 8:05 PM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

बिल्कुल दुरुस्त बात है।
👍❤️


[4/6, 8:57 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

एक बार बुद्धिविलास की व्याख्या करेंगें तो आप क्या 
कहना चाहते हैं यह
समझ में आ जाएगा । वैसे सामान्यतया बोलचाल की भाषा में बुद्धिविलास का तात्पर्य है ठाले बैठे  बुद्धि से मनोरंजन करना जो कि अनावश्यक होता है।यदि कविराज गंगाधर जैसे लोग भी बुद्धि विलास के लिए ही ग्रंथ लिखेंगे ऐसा यदि हम समझेंगे तो 
यह तो बहुत ही अच्छी बात है

[4/6, 9:06 PM] Dr. Pawan Madan: 

धन्यवाद सोनी जी।

बढिया कथन कहा आपने।

विमानोक्त 11/6 मे जो आचार्य चरक ने त्रिदोषज व सन्निपातज मे भेद बताया है, उस से हमे क्या समझना चाहिये।

🤔

[4/6, 9:11 PM] Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir: 

Dravyo ke gan, yogasutra to SannipAt nashak hai na.like "dashmool","ashtadashanga","Dwatrinshadanga" 
kashAya(BattisA) so on.shringi bhragyadi kwath.Abhinyas nashakaand tryodasha SannipAt nashak👍  Vranda.BP,yr.

[4/6, 9:47 PM] Dr.Radheshyam Soni Delhi: 

प्रणाम पवन सर🙏🌹

चरक विमान अध्याय 6 *रोगानीक विमान*  में बताए इस अनुबंध्य एवं अनुबंध के भेद में मुझे इतना ही समझ में आ पा रहा है कि अनुबंध्य भेद में जब तीन दोषों के लक्षण मिले तो उसे सन्निपात एवं 2 दोषों के लक्षण मिले तो उसे संसर्ग कहते हैं। और इनके लक्षण स्पष्ट होते हैं, जबकि अनुबंध के लक्षण स्पष्ट नहीं होते और इनका शमन भी अनुबंध्य की चिकित्सा से अनुबंध्य के शमन के साथ ही हो जाता है। 
अनुबंध के लिये अलग से विशेष चिकित्सा की आवश्यकता प्रायशः नहीं होती।🙏🙏

इस में सान्निपातिक और त्रिदोषज में भेद का उल्लेख है, ऐसा मुझे समझ में नहीं आ पाया🤔


[4/6,10:09 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma
 *सन्निपातिक अवस्थाओं में त्रिदोषों की अंशाश कल्पना 👌👌👌 *

 *देखा जाये तो मूल यही है जिसे ले कर त्रिदोषज और सन्निपातिक अवस्था में भेद पर चर्चा की स्थिति उत्पन्न हुई।क्योंकि दोनों स्थितियों में दोषों के कितने अंशों की सर्वाधिक वृद्धि हो कर उग्रता की चरम सीमा पहुंची । इसमें हेतु,दोष और लिंग तीनों की क्या भूमिका और किस प्रकार है ? यही प्रकरण है।*

*आप आप्त है मेरे लिये तो विशेष रूप से आपकी हर बात स्वीकार्य है वो भी मेरे सरल और सच्चे ह्रदय से ❤️🌹🙏 पर अभी मेरा कार्य सभी व्याधियों मे इस विषय को ले कर चलता रहेगा क्योंकि यह बहुत अनुसंधान का बढ़ा विषय है मुझे नही लगता कि इतनी शीघ्रता से मैं अपना कोई निर्णय अभी दे पाऊंगा।*

          🌹❤️🙏

[4/6, 10:28 PM] Dr. Pawan Madan: 

 सत्य वचन गुरु जी।
🙏🌹🙏
 अब आने वाले दिनो मे ओ पी डी मे बस त्रिदोषज व सन्निपातज को ही ढूंढ़ती रहेंगी आंखे। 

शायद इस से कुछ और पता चले।

🙏🙏

[4/6, 10:35 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 


*बहुत ही अच्छे संदर्भ 👌👌👌✔️✔️ हर स्थान पर यही महत्वपूर्ण है , तर, तम और अंशांश कल्पना जो व्याधि का नामकरण या स्थिति इसकी उग्रता के अनुसार बता रही है।*


[4/6, 10:50 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*वात, पित्त और कफ तीनों के नैसर्गिक गुण 7-7 हैं कुल 21 हैं, वात 'रूक्षः शीतो लघुः सूक्ष्मश्चलोऽथ विशदः खरः' *
*पित्त 'सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमम्लं सरं कटु|'*
*कफ 'गुरुशीतमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः*
*च सू 1/59-61*

*समस्त अंशाश कल्पना का मूल यही है, इनके आधार पर हम किसी भी रोगी में बढ़ी सरलता से व्याधि में यह निर्णय कर ..*

*अनुबन्ध्यानुबंध विशेष*
*स्वतन्त्र: अर्थात व्यक्त लिंग*
*यथोक्त समुत्थान अर्थात अपने हेतु से उत्पन्न , इसका अर्थ दोष स्व:प्रकोपक कारणों से कुपित होते हैं उन्हे ढूंढ़ना ।*
*यथोक्तप्रशम: - अपनी चिकित्सा द्वारा ही प्रशमनीय ।*
*आदि के द्वारा त्रिदोषज/ सन्निपातिक निर्णय स्वयं ही कर सकते है बस इसके लिये कुछ बिंदुओं को निर्धारित कर लें तो।*

*कोई समस्या नही है, ओझा सर, सोनी जी सब चरक और चक्रपाणि ही को बोल रहे है और ऊपर जो राधेश्याम जी को एषणा का चित्र भेजा वो भी यही है, चरक को clinical रूप मे आज के समय इस प्रकार कार्य कर के लाने का इस से श्रेष्ठ उदाहरण और क्या होगा।*

*ग्रन्थ पढ़े और उस पर प्रत्यक्ष कर्माभ्यास कर के सामने लाना को अति श्रेष्ठ है।*

*ओझा सर से निवेदन है कि आपस मिलकर एक proforma बनाया जाये इस से group के सभी सदस्यों के  ज्ञान की वृद्धि तो होगी ही साथ ही चरक की clinical importance का आभास भी होगा।*


            🙏🙏🙏🙏

[4/7, 6:29 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

सुभाष सर , सुप्रभात। वैसे भी आपके निदान प्रक्रिया में  त्रिदोष विचार दोष प्रकारों के माध्यम से होता ही है, अंशांश कल्पना के साथ , तभी चिकित्सा सूत्र बनता है


[4/7, 7:20 AM] Vd. Atul J. Kale M.D. (K.C.) G.A.U.: 

सुप्रभात
सभी आचार्य, मित्रोंको प्रणाम. 

दोषोंकी गतीयाँ अनुमानस्वरूप ही है, आयुर्वेदमें प्रत्यक्ष अल्प है ही। इन गतीयोंका, वृद्धादी लक्षणोंका आकलन अौर उसे समझना अब तक हर वैद्यमें भिन्न भिन्न ही है। 

ये गतीयाँ भी इतनी अनगिनत प्रतित होती है की उसको समझना इतना सरल नहीं है। जैसे ब्रह्माण्डको समझना मुष्किल वैसे पिण्डको भी समझना कठीण. 

      उद्भवस्थान, दोषोंकी गती (वेग), दिशा, प्रमाण, आशय, प्रकोप, प्रसर, मार्ग, स्थानसंश्रय, व्यक्तीस्थान, अनुबंध, अनुबंध्य ये सब युक्तीपूर्वक समझना, दोषोंकी गतीयोंका अंशांश कल्पनाने साथ समझना, दोषोंका विरुद्ध अौर कहीं समगुणी होते हुए भी उनमें रहनेवाला साहचर्य
      इन चीजोंको समझना अौर हर रुग्णमें इतनी गहनतासे विचार (रुग्ण संख्या ज्यादा है तो) करना मुष्किलसा प्रतित होता है।


[4/7, 8:25 AM] Dr. Surendra A. Soni: 

आचार्य राधेश्याम जी ।

गुल्म विषयक पूर्ण विवरण मैं पूर्व में प्रस्तुत कर चुका हूँ जो संभवतः आपने देखा नहीं है, वह अवलोकनीय है ।

अपस्मार-

*इह खलु चत्वारोऽपस्मारा भवन्ति वातपित्तकफसन्निपातनिमित्ताः ॥३॥*

चक्रपाणि-

चत्वार इति वचनमागन्तुसम्बन्धेऽप्यपस्माराणां चतुष्कप्रतिपादनार्थम्; 

*आगंतुक अनुबंध के कारण चतुर्थ अपस्मार का प्रतिपादन किया गया है ।*

अपस्मारो हि नोन्मादवत् स्वतन्त्रेणागन्तुना क्रियते॥३॥

*उन्मादवत आगन्तुक अपस्मार का स्वतंत्र वर्णन नहीं किया जाता है ।*

पुनः सान्निपातिक प्रतिज्ञा पर चरक स्थिर है गुल्मवत.....
👇🏻
*समवेतसर्वलिङ्गमपस्मारं सान्निपातिकं विद्यात्, तमसाध्यमाचक्षते ॥(४)॥*


पुनः आगन्तुक उन्माद विषय में निर्दिष्ट करते हैं ।
👇🏻

तेषामागन्तुरनुबन्धो भवत्येव कदाचित्,

*आगन्तुक अनुबंध अपस्मार कदाचित होता है ।*

 तमुत्तरकालमुपदेक्ष्यामः ।

*जिसका बाद में वर्णन किया जाएगा ।*

तस्य विशेषविज्ञानं यथोक्तलिङ्गैर्लिङ्गाधिक्यमदोषलिङ्गानुरूपं च किञ्चित् ॥९॥

*उसके विशेष लक्षण इस प्रकार है ।*

1. यथोक्तलिङ्ग- वा, पि, कफ के निर्दिष्ट लक्षण
2. लिंग्याधिक्य- इनके अतिरिक्त लक्षण
3. आदोषलिंग- दोषों के अतिरिक्त लक्षण

चक्रपाणि-
👇🏻

एतेन, सर्वापस्मारे *(सान्निपातिके)* भूतसम्बन्धो भवति, न च स्वतन्त्रोऽपस्मारो *(दोषापस्मार)* भौतिको भवतीति दर्शयति। 

उत्तरकालमिति चिकित्सिते, यद्यपि चापस्मारचिकित्सितेऽपि प्रपञ्चो न वक्तव्यः, तथाऽपि तत्रोन्मादविध्यतिदेशादुन्मादोक्तविस्तार (अथवा उन्मादोक्तविस्तर उक्तत्वादिहोक्तम् इति पाठः !) एवेति कृत्वा इहोक्तं- तमुत्तरकालमुपदेक्ष्यामः इति; उक्तं हि- यस्यानुबन्धं त्वागन्तुं दोषलिङ्गाधिकाकृतिम्। पश्येत्तस्य भिषक्कुर्यादागन्तून्मादभेषजम् (चि.अ.१०) इति।

*सान्निपातिक/आगन्तुक अपस्मार में आगन्तुक उन्माद की चिकित्सा प्रयोज्य है अतः चिकित्सा स्थान में त्रिदोषज अपस्मार की चिकित्सा निर्दिष्ट है न की सन्निपातज अपस्मार की ।*

 यथोक्तलिङ्गैरिति पञ्चमीस्थाने तृतीया, तेन यथोक्तापस्मारलिङ्गेभ्यो लिङ्गाधिक्यं लिङ्गातिरिक्तत्वं; तच्चादोषलिङ्गानुरूपं दोषलिङ्गासदृशमित्यर्थः। किञ्चिदिति न सर्वं, किन्तु स्तोकं दोषलिङ्गविलक्षणं लिङ्गमागन्त्वनुबन्धे भवति। एतेन च स्वातन्त्र्येणागन्त्वपस्मारसम्भवो न भवतीति दर्शयति; यदि हि स्वतन्त्र एवागन्तुः स्यात्तदा न स्तोकमागन्तुलिङ्गं स्यात्, किन्तु सर्वमेव॥९॥

त्रिदोषजे अपस्मारे-
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तैरावृतानां हृत्स्रोतोमनसां सम्प्रबोधनम् ।
तीक्ष्णैरादौ भिषक् कुर्यात् कर्मभिर्वमनादिभिः ॥१४॥
*वातिकं बस्तिभूयिष्ठैः पैत्तं प्रायो विरेचनैः ।*
*श्लैष्मिकं वमनप्रायैरपस्मारमुपाचरेत् ॥१५॥*

आगन्तुक/सन्निपातज अपस्मार-
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*यस्यानुबन्धस्त्वागन्तुर्दोषलिङ्गाधिकाकृतिः ।*
*दृश्येत तस्य कार्यं स्यादागन्तून्मादभेषजम् ॥५३॥*

चक्रपाणि की अत्यंत महत्वपूर्ण टीका-
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दोषलिङ्गाधिकाकृतिरिति अपस्मारोक्तदोषलिङ्गेभ्योऽधिकाऽऽगन्तून्मादसदृशी आकृतिर्यस्य स तथा; तेनागन्तुलिङ्गं दोषजेषु भवति, नच दोषलिङ्गं विनाऽऽगन्तुलिङ्गता सम्भवति; ततश्चागन्त्वपस्मारः पृथङ् न भवति, किन्तु दोषजस्यानुबन्धरूपः पश्चात्कालीनः स आगन्तुः; तेन चत्वारोऽपस्माराः (सू.अ.१९) इति यदुक्तं तस्यागन्तुरनुबन्धो भवत्येव कदाचिदिति। अनेनानुबन्धरूपतैव भूतापस्मारे दर्शिता; न तून्मादवत् स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं भूतानाम्। अन्यत्राप्युक्तम्- अपस्मारो महाव्याधिः स स्याद्दोषत एव तु इति। अन्ये तु भीमदन्तादयः स्वतन्त्रागन्त्वपस्मारलक्षणचिकित्सानिर्देशार्थमत्र ग्रन्थं वर्णयन्ति; न सङ्ख्यानियमश्च दोषजापस्माराणामेवं भवति॥५३॥

*उक्त टीका निदानस्थानोक्त टीका का विस्तार है । इसी आधार पर निधार्रित किया जा सकता है कि त्रिदोषज और सान्निपातिक में अंतर है । पोस्ट बड़ी हो रही है इसलिए उक्त टीका का अर्थ नहीं लिख रहा हूँ, यह विद्वज्जन ज्ञेय है ।*

🙏🏻🌹😌

💐

[4/7, 8:47 AM] Dr. Pawan Madan: 

सुप्रभात सोनी जी

बहुत ही उपयुक्त एवं चरणबद्ध ढंग से आपने बताया।

आपकी ये शैली मुझे अत्यंत प्रिय है।

अतीव धन्यवाद।
🙏🌹🙏

[4/7, 8:48 AM] Dr. Surendra A. Soni: 🙏🏻☺️

[4/7, 8:51 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*नमस्कार वैद्य अतुल जी, 'शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगो धारि जीवितम् नित्यगश्चानुबन्धश्च पर्यायैरायुरुच्यते' च सू 1/42 यही आयु है जिसे चक्रपाणि ने स्पष्ट करते हुये 'शरीरं पञ्चमहाभूतविकारात्मकमात्मनो भोगायतनम्, इन्द्रियाणि चक्षुरादीनि, सत्त्वं मनः, आत्मा ज्ञानप्रतिसन्धाता, एषां सम्यगदृष्टयन्त्रितो योगः संयोगः' ये कहा है और हमारे सभी 24 तत्वात्मक पुरूषों के विषय मे जब तक हम जीवित है, इसका ज्ञान ही आयुर्वेद है और सब क्लिनिकल।*

*अगर हम आधार सुदृढ़ कर के चलें तो आगे सब हमारे लिये सरल बन जाता है और short cut पकड़ कर मात्र conclusions ही समझे तो बीच के मंथन की क्रिया जो ज्ञान दे रही है, उठने वाले प्रश्नों के समाधान दे रही है वो गायब हो जाती है तभी आयुर्वेद कठिन लगता हैं।*

*अंशांश कल्पना ही तो वात या प्रधान, द्वन्द्वज या त्रिदोषज अथवा सन्निपातिक भेद में अंतर बता रही है जो दोषों के गुणों पर ही आधारित है तथा इन्हे clinically कैसे समझें हमने काफी समय पूर्व आरंभ किया था पर शायद अधिकतर लोगों की रूचि ना होने के कारण हमारा उत्साह क्षीण पड़ने से लिखना बंद कर दिया।*
*अब अनेक नवीन सदस्य भी जुड़ गये हैं तो हम गुणों के प्रथम प्रधान युग्म गुरू-लघु को पुन: यहां दे रहे है जिस से शरीर और औषध सहित द्रव्यों में अंशाश कल्पना को कैसे apply करे हर कोई सरलता से कर सकता है।*
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[4/7, 8:56 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

सोनी जी और सभी विद्वतजन, क्या त्रिदोषों का हरेक व्याधी में इस प्रकार से  स्वतंत्र रूप से  त्रिदोषज और अनुबंध रूप में सन्निपातज संप्राप्ति संभव है?


[4/7, 9:01 AM]Vd.Sameer Mukund Paranjpe


[4/7, 9:04 AM] Vd. Sameer Mukund Paranjpe: परतंत्र त्रिदोष प्रकोप

[4/7, 9:07 AM] Dr. Vivek Chadha Canada: 

इतनी सरलता से उदहारण सहित आपसे बेहतर कोई नहीं समझा सकता। अति धन्यवाद वैद्यराज जी 🙏🙏


[4/7, 9:08 AM] Vd. Sameer Mukund Paranjpe: ये सान्निपात नही है

[4/7, 9:08 AM] Dr. Pawan Madan: प्रणाम सर

हमे आपसे ये व्यवहारिक पक्ष सीखने मे अत्यंत रूचि है, इसलिये सविनय विनती है के आप जब भी आपको यथेष्ट ही आप कृपा बनाये रखें।

🌹❤️🌹
[4/7, 9:09 AM] Dr. Pawan Madan: धन्यवाद समीर जी

[4/7, 9:53 AM] Dr.Radheshyam Soni Delhi:

 सुप्रभात आचार्यवर🙏🌹

More study more confusion😛

इस गूढ़ विश्लेषण से तो आचार्य की प्रतिज्ञा भंग हो जाएगी🤔

*इह खलु चत्वारो अपस्मारा:।* ये प्रतिज्ञा निदान स्थान में है।

और फिर चिकित्सा उन्होंने 4 अप्समारों की ही बताई जिसमे आचार्य चक्रपाणि की टीका के अनुसार आप कह रहे हैं कि उन्होंने सन्निपातिक को आगंतुज मान कर उसकी चिकित्सा का निर्देश आगंतुज उन्माद के अनुसार करने को कहा है।
तो फिर चिकित्सा स्थान में अपस्मार के 5 भेद बताए गए हैं ऐसा माना जाना चाहिए। और यदि ऐसा मान लिया जाए तो फिर प्रतिज्ञा हानि है।

Dr. Surendra Ji !

ये तो और भी संशय उत्पन्न करने वाली बात हो गई🤔


[4/7, 9:57 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

मुझे ऐसा लगता है कि जो लोग जो साथी विद्वान इन दोनों शब्दों में अंतर मान रहे हैं उनसे आग्रह करना उचित होगा कि दोनों के क्लीनिकल अंतर तो स्पष्ट करें -- कल भी मैंने आग्रह किया था। एक एक अंतर स्पष्ट करना और प्रत्येक का संदर्भ साथ में देते हुए चलना सबसे उपयोगी मार्ग हो सकता है। अन्यथा हम अनंत विचार विमर्श पर निकल चुके हैं......
और उदाहरण ऐसे देते हुए चलें जो इस सिद्धांत का पालन करें कि ---
*दृष्टान्तो नाम यत्र मूर्खविदुषां बुद्धिसाम्यं* 
-- चरक.वि.8.34

एक एक अंतर लिखें बिना अनंत चर्चा चलती रहेगी।
 *अंतर स्पष्ट करने से मेरा तात्पर्य क्लीनिकल डिफरेंस से है, जिसके आधार पर रोगियों को देखकर दोनों के मध्य डिफरेंशियल डायग्नोसिस करके हम सम्यक निष्कर्ष पर पहुंचें। साथ में उदाहरण भी और संदर्भ भी*


[4/7, 10:05 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

यही मेरा भी मत है , किसी भी विषय के नैदानिक एवं चिकित्सकीय महत्त्व को समझाना ही अपेक्षित है..

[4/7, 10:07 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

बहुत-बहुत धन्यवाद आचार्य श्रेष्ठ। हमारा अंतिम उद्देश्य चिकित्सा है तो डिफरेंशियल डायग्नोसिस शास्त्रों के आधार पर यहां प्रस्तुत की जानी चाहिए।

[4/7, 10:07 AM] Dr. Pawan Madan: 

जी कल मैने clinical difference के बारे मे लिखा था।

🙏🙏

[4/7, 10:07 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

एक ऐसा अनंत चर्चा जिससे कुछ भी उत्पन्न नहीं होगा

[4/7, 10:08 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

उस प्रकार से लिखने के लिए निवेदन कर रहा हूं जिस प्रकार मैंने अभी ऊपर निवेदन किया है डॉक्टर साहब
 घूम फिर कर नहीं अपितु बिल्कुल सुस्पष्ट संदर्भ और दृष्टांत सहित

[4/7, 10:09 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

निश्चित रुप से , जिस प्रकार लोग तोड मरोड के प्रस्तुतीकरण कर रहे हैं , उससे से तो कुछ भी निष्कर्ष नहीं निकलेगा

[4/7, 10:09 AM] Dr. Pawan Madan: 

अपनी तरफ से मैने स्पष्ट करने की कोशिश की थी के इन दोनो का अन्तर जानने से प्रक्टिस मे क्या फरक पढ सकता है।
🙏🙏

[4/7, 10:10 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

चर्चाएं लंबी चल जाती है निष्कर्ष अंत में आता नहीं है तो आनंद नहीं आता। ज्ञान में बढ़ोतरी भी नहीं होती। ज्ञान में बढ़ोतरी करने के उद्देश्य से मैंने ऊपर निवेदन किया है।

[4/7, 10:14 AM] Dr. Pawan Madan:

 @⁨Dr.Deep Narayan Pandey Sir⁩ sir

आदरणीय सर

आप त्रुटी इंगित करैं, मै यथासंभव प्रयत्न करूंगा।

🙏🙏
[4/7, 10:14 AM] Dr. Pawan Madan: 

आदरणीय सुभाष गुरु जी ने बहुत ही सुन्दर तरीके से स उदाहरण और भी बताया था।
🙏🙏

[4/7, 10:22 AM] prof.Giriraj  Sharma
सादर प्रणाम                             
यह प्रज्ञा का विषय है कि रोगी को देखकर उसके तीव्र लक्षणों को देखकर त्रिदोषज है परन्तु फिर भी कृच्छसाध्य जैसे समझकर चिकित्सा  का प्रयास करना ज्वर में संताप सामान्य लक्षण है परन्तु किस डिग्री पर संताप है यह डिग्री त्रिदोषज एवं सन्निपातज के महीन भेद का द्योतक है ।             त्रिदोषज एवं सन्निपातज के महीन अर्थ को समझने के लिए सम्भवत यह एक सूत्र उपयोगी हो सकता है  
1 दोष विबद्धता,,,,,                       
2 अग्नि नष्ट,,,,,,,,,,                    
3  सर्व सम्पूर्ण लक्षण ,,,              
4 चिरात पाकात दोषणा,,,,,,,,,,, ,,    
प्रायः ये लक्षण असाध्यता के द्योतक होते है परन्तु यहां सन्निपात में वर्णीत है ।


[4/7, 10:27 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

प्रसंगवश ➡️ पञ्च उन्माद: परंतु चत्वारोऽपस्मार: क्यो ? 
 उत्तर ➡️ अनेनानुबंधरुपतैव भूतापस्मारे दर्शिता; न तु उन्मादवत् स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं भूतानाम् ..
संपूर्ण चरक संहिता में नैदानिक एवं चिकित्सकीय पक्ष को ही उद्धरित/प्रतिपादित किया गया है.. भूतोपस्मार के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है..

[4/7, 10:30 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*किसी भी विषय के लिखने के पीछे उद्देश्य क्या है ? आचार्य ने कोई भी अर्थहीन संदर्भ नहीं दिया है*

[4/7, 10:38 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad: 

🙏🏼🙏🏼🌹👌🏻👍🏻👌🏻🌹🙏🏼🙏🏼
सादर प्रणाम आचार्य श्रेष्ठ,,
संहिताओं में जो भी समान प्रतीत होने वाले शब्द प्रयुक्त हुये है तो उनके प्रयुक्त करने में एक महत्वपूर्ण उद्देश्य निहित होता है , 
पर्याय होना सिर्फ शब्द समूह नही है बल्कि उसमें छिपे उसकी कार्मुक्तता का द्योतक होता है ।
संहिताओं में रक्त धातु को कही पर रक्त, कहीं शोणित आदि शब्दो से उल्लेखित किया है वैसे ही त्रिदोषज एवं सन्निपातज का उल्लेख करते हुए भी निश्चित सूक्ष्म विभेदिय दृष्टिकोण होगा ।
एक ही रोग में कही त्रिदोषज तो कहीं सन्निपातज कह देना भी चिकित्सा सिद्धांत, ओषध योग के प्रभावजन्य भी हो सकता है ।
🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹🌹

[4/7, 10:40 AM] Dr. Pawan Madan: 

Namaskar sir.

Perfect...👍🏻👍🏻👌👌

आचार्यों ने कहीं भी कुछ नही अर्थहीन नही लिखा / बताया है।
🙏🙏

[4/7, 10:41 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

वैद्यराज सुभाष शर्मा जी के लेखन में गुणानुसार चिकित्सा व्यवस्था प्रतिपादित की गयी है.
दोषो के गुण, कर्म और द्रव्यो के गुण, कर्म के आधार पर फलदायी चिकित्सा सम्भव है, ऐसा हमें वैद्यराज सुभाष शर्मा जी के प्रस्तुतीकरण से स्पष्ट होता है..
अंशांश कल्पना के समीचीन ज्ञान के आधार पर ही सन्निपातिक अवस्था में त्रिदोषो के सम, विषम - हीन मध्य वृद्धादि विकल्प के आधार पर विशिष्ट चिकित्सा व्यवस्था संपादित की जाती है.. 
संसर्ग और सन्निपात सिर्फ एक नाम अर्थात् संज्ञा है जिनमे दोषो के विभिन्न प्रकार से भाग लेने के कारण सामान्य/विशिष्ट लक्षणों की उत्पत्ति अभिष्ट है. 
सम्प्राप्ति विघटन ही चिकित्सा है और सम्प्राप्ति का प्रथम घटक दोष है और जिस के लिये दोषप्रत्यनीक चिकित्सा वर्णित है.

[4/7, 10:45 AM] Dr. Pawan Madan: 

🌹❤️🌹

आभार सर जी

[4/7, 10:47 AM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

सन्निपातिक रोगो में दोषो के अतिरिक्त किसकी चिकित्सा है ? त्रिदोष के अतिरिक्त सन्निपातिक अवस्था में और कौन से भाव भाग ले रहे हैं ? 
च.सू.१९ में सिर्फ सन्निपातिक प्रकार ही बताया गया, न कि त्रिदोषज, परंतु पूर्व और पश्चात् के अध्यायों में नैदानिक और चिकित्सा दृष्टि से त्रिदोष के तर तम भावो को स्पष्ट किया गया जिससे चिकित्सा व्यवस्था शुद्ध हो..

[4/7, 10:50 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad: 

1.त्रिदोष के मृदु एवं उल्वण लक्षणों की चिकित्सा का विभेद
 आचार्यो द्वारा इतने योग सिर्फ दोषज भेद मात्र के लिए नही अपितु वो उनके मृदु एवं क्रूर लक्षणों के लिए भी है ।

[4/7, 10:55 AM] Dr. Pawan Madan: 

The difference is of the severity of doshas and their involvement with dhaatus.

The difference will only be in the prognosis.

एक उदाहरण
सभी कुष्ठ त्रिदोषज हैं
पर क्या सभी कुष्ठ अति गम्भीर, असाध्य हैं,,🤔

[4/7, 10:56 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad: 

तरुण ज्वर में कषाय का निषेध
 परिपक्व दोष में सर्पि पान

[4/7, 10:59 AM] Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir: 

Yah kashyay Kashaya syat sa varjyah.....
Not All kalpa/ kwatha.

[4/7, 10:59 AM] Dr.Bhadresh Naik Gujarat: 

Dosha pratynic means stage of nidan
Javar  acute or chronic
Acute stage langhan
Chronic stage ghrutpan

Atishar  acute and chronic
Vatrakta
Gambhir and uttan
Treatment protocol will change on stage

[4/7, 11:07 AM] prof.Giriraj  Sharma

प्रणाम गुरुजी 
कषाय कल्पना / कषाय रस पर नीचे अम्ल रस वर्णीत है


[4/7, 12:34 PM] Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir: 

Kintu haritaki ! sanstut -
AmRatottar/ Nagaradikwath ( Kashaya).
Nikhil doshaja jware.


[4/7, 1:17 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

सुप्रभात आचार्यवर🙏🌹

More study more confusion😛

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*It may be individual opinion.*
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इस गूढ़ विश्लेषण से तो आचार्य की प्रतिज्ञा भंग हो जाएगी🤔

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*प्रतिज्ञा भंग नहीं की जा रही है इसी लिए निदानस्थानोक्त टीका में आगन्तुक का समावेश कदाचित विशिष्ट लक्षण दृष्टिगोचर होने पर सन्निपातज में मानने की बात कही गई है और उन्मादवत चिकित्सा कही है और अगर ऐसा नहीं है तो केवल 3 प्रकारों का ही त्रिदोषज चिकित्सा सूत्र ही मात्र क्यो बताया जाता ? त्रिदोषज में 3 दोष आगए हैं चतुर्थ विशिष्ट सन्निपातज जो कि निदानस्थानोक्त है उसकी आवश्यकता होने पर उसकी पृथक चिकित्सा निर्दिष्ट की है ।*
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*इह खलु चत्वारो अपस्मारा:।* ये प्रतिज्ञा निदान स्थान में है।

और फिर चिकित्सा उन्होंने 4 अप्समारों की ही बताई जिसमे आचार्य चक्रपाणि की टीका के अनुसार आप कह रहे हैं कि उन्होंने सन्निपातिक को आगंतुज मान कर उसकी चिकित्सा का निर्देश आगंतुज उन्माद के अनुसार करने को कहा है ।
तो फिर चिकित्सा स्थान में अपस्मार के 5 भेद बताए गए हैं ऐसा माना जाना चाहिए। और यदि ऐसा मान लिया जाए तो फिर प्रतिज्ञा हानि है।

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*पुनः निवेदन है प्रतिज्ञा हानि नहीं है, सब शास्त्रीय सन्दर्भ प्रस्तुत किये गए हैं, सभी अपने विवेकानुसार निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं । अगर प्रतिज्ञा हानि है तो आचार्य स्वयं कर रहे हैं ।*
*Chakrapani teeka must be reviewed. I didn't opined myself.* 
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ये तो और भी संशय उत्पन्न करने वाली बात हो गई🤔

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*आचार्य के वचनों का अनावश्यक समामेलन कर संशय निवारण कितना योग्य है ?*
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*आचार्य राधेश्याम जी ।*🙏🏻

[4/7, 1:39 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

मेरे द्वारा प्रस्तुत तथ्यों पर आप मौन धारण कर लेते हो आचार्य जी ?
मेरे द्वारा उठाए गए प्रश्नों को उपेक्षित करते हो ?
सान्निपातिक प्रकृति क्यों नहीं मानी गई ?
त्रिदोषज प्रकार के आगे सन्निपात के भेदों की तरह भेद क्यों नहीं बताए गए हैं ?
यह मेरे प्रति अन्याय नहीं है क्या ? आपके आप्तत्व स्वरूप की प्रतिष्ठा के लिए क्या यह शोभायमान है ?

आ. ओझा सर जी ।🙏🏻🌹😌

[4/7, 1:43 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

ये सर्वप्रथम विस्तृत वर्णन मुझे आदरणीय ओझा सर द्वारा प्रश्न करने पर मेरे द्वारा प्रस्तुत किया गया था जिसकी कोई प्रतिक्रिया अद्यतन प्राप्त नहीं हुई है ।

🙏🏻🌹

प्रकृतिसमसमवायरूपः सन्निपातजः। विकृतिविषमसमवेतः त्रिदोषजः।


[4/7, 4:11 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

हमारा कालेज हास्पिटल Dedicated Covid19 center होने से व्यस्तता बढ गयी है.
(१) शारीरिक एवं मानसिक दोष ही प्रकृति के कारण है ; अत्र च समैर्दोषैर्वृद्धैर्गर्भजन्मै न भवतीति‌ विकृतदोषत्रयप्रकृतेरनभिधानादिति ज्ञेयम् (आचार्य चक्रपाणी).
(२) सन्निपात के भेद दोषो के तर तम भाव पर आधारित है.
(३) च.वि.६/११ में दोषो के अनुबन्ध्य और‌ अनुबंध की चर्चा है , तीन दोषो के अनुबन्ध्य से सन्निपातिक अवस्था और द्वय दोषो के अनुबन्ध्य से संसर्ग . इस अनुबन्ध्य/अनुबंध के कारण बहु दोष भेद की सम्भावना है, अर्थात् चिकित्सा व्यवस्था में आने वाले विशिष्टता को स्पष्ट करने के लिये स्वतंत्र आदि की चर्चा की गयी ..
संसर्ग और सन्निपात का ज्ञान तब तक अधूरा है जब तक दोषो के तर तम भाव न जाने जाय .. संसर्ग  द्वन्दज और सन्निपात त्रिदोषज है , आप सन्निपातिक हृदयरोग लिखें या त्रिदोषज हृदय रोग , कोई फर्क नहीं पडता है , अवलोकनीय है ; सम त्रिदोषज /सन्निपातिक हृदय रोग में हृदय कफ का स्थान होने से कफस्थानानुपूर्व्या चिकित्सा और विषम सन्निपातिक / त्रिदोषज हृदय रोग में हीन , मध्य और वृद्ध दोषो के अनुसार चिकित्सा..
 *चरक संहिता चिकित्सक की नजरिये से लिखा गया है*

[4/7, 4:41 PM] Dr. Pawan Madan: 🙏🙏🙏🙏

आदरणीय गुरु जी

क्या इसी क्रम मे त्रिदोषज कुष्ठ रोग को भी हम सन्निपातज कुष्ठ कह ही सकते हैं।

[4/7, 4:53 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

कह सकते हैं , कुष्ठ में दोषो के बलाबल के आधार पर ही चिकित्सा व्यवस्था उद्धरित है.
बलाबल अर्थात् हीन मध्य वृद्ध आदि ..

[4/7, 5:15 PM] Vaidya Hiten Vaja M.D.Ahmedabad: 

👍
संसर्संसर्ग संनिपात दोषो के परस्पर मिलने के प्रकार है | जो हेतु पर अवलंबित है | 
तीन दोष परस्पर त्रिदोषज एवं संनिपात स्थितिमे मिल सकते है |
मिलना प्रकृति संसंवेत एवं विकृति विषम समवेत स्थिति मे हो सकता है | जो हेतु पर निर्भर है | विकृति विषम समवेतसे विशिष्ट लक्षण उत्पन्न होते है |
संनिपातमे तीसरी धातुविभन्जन की प्रक्रिया मानसभी सम्मिलित रहति है | जीससे स्थुल मूर्छन का सूक्ष्म धातु (सत्व, ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रियादी) पर प्रभाव पडने लगता है | और स्थुल और सूक्ष्म धातु का विघटन होने लगता है | परिणामतः इन्द्रिय कार्यगत विकृत गम्भीर लक्षण प्राप्त होते है | जो दुश्चिकित्स्य या अन्तकालीन प्रतीत होते है | एसे विशिष्ट लक्षणो के सर्वलक्षणसंग्रह हेतु विशिष्ट स्थान (अर्थ प्रतिष्ठा हेतु) इन्द्रिय स्थान निर्देशित तन्त्रकार ने किया | पन्नरुपिय एवं गोमयचुर्णीय लक्षण चिकित्सा – निदानादी स्थानगत निर्देशित दोषमेलकके स्वरुप से नहि निर्मित  हो सकते, क्योकि यहा मूर्छनमे सूक्ष्म धातु दोषमेलक साथ सम्मिलित रहति है | 
पन्नरुपियादी लक्षण अर्थात इन्द्रिय स्थान सभी २८ संमूर्छन एवं उसके औपद्रविक आवान्तर मूर्छन प्रकारके लिये समान है| सभी २८ मूर्छन (ज्वर,पाण्डु,गृध्रसी,अतिसार,अर्श,उदर आदी) यह वर्णस्वरिय से गोमयचुर्णीय तक के धातुविभन्जन को प्राप्त होते है |
दोषमूर्छनमे सूक्ष्म धातुके साथ स्थूल दोष के जुडने हेतु दोषमेलक का सूक्ष्म शरीर के साथ संबन्ध प्रस्थापित कर सके एसा संनिपात मेलक स्वरुप होना स्वाभावित प्रतीत होता है | अतः मूर्छना के अन्तर्गत नये नये हेतु जैसे जैसे मिलते जाते है वैसे वैसे दोषमेलक प्रकार भी स्वरुपान्तर को प्राप्त होता जाता है | कार्य निश्चित कारण की सर्वथा अपेक्षा रखता है | प्रत्येक लक्षणभी निश्चित प्रकार के हेतु सेवन रुपी कारण की अपेक्षा रखता है, और वैसे है दोषमेलक के स्वरुपान्तर भी निश्चित कारण की अपेक्षा रखते है | दोषज हेतु से त्रिदोषज कि निष्पत्ति उपरान्त आतुर अगर सत्व उपहतकर मानस धातुविभन्जन हेतु ( सद्वृत्त अपालन से धारणीय वेग के अधारण से अधारणीयवेग धारण रूप ) का सेवन करने लगे तो त्रिदोषज दोषमेलक ही संनिपात रूप दोषमेलकमे परिवर्तीत हो जाता है | संनिपातमे जब अतितिव्रता से हेतुसेवन जारी रहता है तो पन्नारुपीयादी लक्षण उत्पन्न होते है | ज्वर, पाण्डु, गृध्रसी, अतिसार, अर्श, उदर आदी मूल २८ मूर्छन एवं उसके औपद्रविक आवान्तर मूर्छन प्रकारमे  हेतु के स्वरुप भेद अनुसार दोषमेलक के स्वरुप(त्रिदोषज-संनिपात)मे भी अन्तर आता रहता है, और यह अन्तर अरिष्ट रूप मे अन्त मे समाप्त होता दृष्टीभूत होता है |
कायसंप्रदाय ज्ञानयज्ञ मे समिध रूप विनम्र प्रयास |

[4/7, 5:45 PM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:

 🙏 गुरु हितेन वाजा सर 🙏

[4/7, 6:17 PM] Dr. Pawan Madan: 

🙏🙏

..सन्निपात मे मानस भी सम्मिलित
🙏🙏🙏

[4/7, 6:26 PM] Vd. Atul J. Kale M.D. (K.C.) G.A.U.: 

ज्वराध्यायमें द्वंद्वज ज्वरकी व्याख्याके पश्चात सन्निपातज ज्वरके बहोत सारे सूत्र आए है जो वृद्ध, मध्य, हीनादी से वर्णित है। (च.चि.३/८९-१०८) वरन् त्रिदोषज अवस्थाका भिन्न उल्लेख यहाँ नहीं मिलता। 
      वैसेभी एकही आशयमें सभी दोषोंके सभी गुणोंका वृद्ध होना कठीण है या हो ही नहीं सकता। इसलिए अंशांशकल्पनासेही सन्निपात भी होता है।

[4/7, 6:29 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*जी , इसलिए दोषो के अंशांशकल्पना से ही संसर्ग और सन्निपात होते हैं*
 सन्निपातिक उन्माद और सन्निपातिक अपस्मार में मानस दोष भी भाग लेते हैं..
 *एक दोषज,  द्वन्दज और सान्निपातिक व्याधियां अपने सभी लक्षणो के साथ और /या उपद्रव युक्त है , तो अरिष्ट या मृत्यु का कारण हो सकती है*
 आयुर्वेद दीपिका ➡️ व्याधिश्चेति व्याधिरेव रिष्टं यथा- *वाताष्ठीला* सुसंवृता दारुणा हृदि तिष्ठति इति.
एषणा ➡️ व्याधिश्च इस वचन से व्याधि ही अरिष्ट के रुप में होती है  , अर्थात् जो *वात जन्य अष्ठीला* अत्यधिक रुप में बढकर हृदय में स्थिर हो जाती है . वह शीघ्र ही रोगी के प्राणो का हरण कर लेती है.

[4/7, 7:03 PM] Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir: 

"Te vyapinaopi......." Likhane ke bada bhi ashambhava keise.😃🙏🏼
[4/7, 7:06 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

क्या सन्निपात या त्रिदोषज कहने से चिकित्सा में फर्क पड़ता है? जहां तक हम समझते हैं, अंशांश   कल्पना के साथ गुणों में होनेवाले बदलाव ही चिकित्सा का मूल बनाते हैं। सुभाष सर के साथ साथ जितनी भी केस यहां दर्ज हुयी है, सभी में इसिको आधार  बनता दिखा है। भले शास्त्र को समझने  हेतु इसका अलग महत्व होगा, पर हम ओझा सर से सहमती रखते हैं, चिकित्सक के सोच में इनमें अंतर करना बहुत आवश्यक नहीं है।

[4/7, 7:07 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*आचार्य संजय जी , नैदानिक एवं चिकित्सकीय दृष्टी से अन्तर नहीं है*

[4/7, 7:09 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

वायव्य छाया निंदक और मृत्यु में कारण मानी गयी है , उर:प्रदेश से हरित , पीत , रक्त,  कृष्णादि वर्ण के श्लेष्मष्ठीवन भी अरिष्ट माने गये है
 *ससंदर्भ चर्चा में भाग लेने का मजा अलग है*

[4/7, 7:15 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

*ब्रह्मदेवस्तु सन्निपातप्रकोपस्य हेतूनत्र पृथगाह; यथा,-*

*“विषमाध्यशनात्यशनं लकुचामफलं शिलोच्चये सलिलम्। पिण्याकमाममूलकसर्षपशाकं यवैः कृता च सुरा।। कृशशुष्कामिषशाकं यावकमशनं च पर्वते वासः। व्यापन्नाम्बुसुरादधिकन्दं पिडकोच्छ्रितिर्देहे।। मृद्विषगरादिभक्षणमनार्तवं दुर्दिनं पुरोवातः। अन्नपरिवर्तभूतावेशौ पीडा ग्रहर्क्षसम्भूता।। अनुचितभेषजगन्धाघ्राणं पापस्य कर्मणोऽभ्यासः। स्नेहस्वेदादीनां मिथ्यायोगः पुराकृतं कर्म।। स्त्रीणां विषमप्रसवो मिथ्यायोगः प्रसूतानाम्। स्नेहस्वेदादीनां रसायनस्यापि च व्यापत्।। *एते हेतव उक्ताः प्रकोपणे सन्निपातस्य”- इति।*

सु. उ. त.-39/15-18 पर आचार्य डल्हण

🙏🏻🌹

[4/7, 7:16 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

दोष का मूल स्वरुप समझना इस हेतु अवश्यंभावी है। दोष व्यापिन/ विभु स्वरूप है। इसका सीधा मतलब यही है की वे अमूर्त स्वरुप के है। इनकी अमूर्तता स्विकार करेंगे तभी उनकी युगपत, एकस्थानीय उपस्थिति तथा एक-दुसरे के संग संसर्ग सन्निपात आवरण आदी संकल्पना सिद्ध हो सकती है। इनको मूर्त मानना अनेक स्थितिओ को असंभव श्रेणी में ले जायेगा।
जैसे कारण द्रव्य अमूर्त है , दोष भी।
 आपसे पूर्ण रूप से सहमत, परन्तु हमें आपके समान संदर्भ इतनी सहजता से ज़ेहन में नहीं आते।

[4/7, 7:24 PM] Dr. Surendra A. Soni: 

प्रणाम आचार्य !

अगर सन्निपात की चिकित्सा में कोई उपयोगिता नहीं है तो इसे छात्रों को पढ़ने पढ़ाने की क्या आवश्यकता है । यह भी आयुर्वेद का सरलीकरण ही होगा ।

🙏🏻🌹😌

[4/7, 7:28 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

हम यह नहीं कह रहे की सन्निपात की उपयोगिता नहीं। पर सन्निपात हो या त्रिदोषज चिकित्सा तो अंशांश विकल्पना से होती है

[4/7, 7:32 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

एक सामान्य संदर्भ प्रस्तुत करता हूं ➡️ संसर्ग: सन्निपातश्च तद्दि्वत्रिक्षयकोपत: , अ.हृ.सू.१/१२.
सर्वांगसुंदरा➡️ त्रयाणां दोषाणां वृद्धानां क्षीणानां वा संयोग: सन्निपात:.
 आयुर्वेद रसायन ➡️ ..... इति द्वित्वत्रित्वयो: संसर्गसन्निपाताभ्यां यथासंख्यं सम्बन्ध: , न तु क्षयकोपाभ्याम्..
 *अष्टांग हृदयकार भी तीन दोषों के वृद्ध एवं क्षीण स्वरूप के साथ होने वाले संयोग को सन्निपात कहे हैं*

[4/7, 7:57 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

आचार्य सुरेन्द्र सोनी जी , मैं अपना मत प्रस्तुत कर चुका हूं , मेरे मत से संसर्ग और सन्निपात दोषो के संख्या का खेल है , मैं अब यहाँ विराम लेता हूं . 
*अब राम राम , शुभ रात्रि वैद्यराज सुभाष शर्मा जी एवं आचार्य गण*

[4/7, 8:05 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*नमो नम: सर 🌺🌹💐🙏 चर्चा बहुत सार्थक है और ग्रुप में चर्चा के सभी शब्द ज्ञान के मार्ग प्रशस्त करते हैं।*



[4/7, 8:08 PM] Dr. Sadhana Babel Mam:

 विषमाशनादनशनादन्नपरिवर्तादृतुव्यापत्तेरसात्म्यगन्धोपघ्राणाद्विषोपहतस्य चोदकस्योपयोगाद्गरेभ्यो गिरीणां चोपश्लेषात् स्वेदवमनविरेचनास्थापनानुवासनशिरोविरेचनानामयथावrयोगाrथ्यासंसर्जनाद्वा स्त्रीणां च विषमप्रजननात् प्रजातानां च मिथ्योपचाराद्यथोक्तानां च हेतूनां मिश्रीभावाद्यथानिदानं द्वन्द्वानामन्यतमः सर्वे वा त्रयो दोषा युगपrकोपमापद्यन्ते,ते प्रकुपितास्तयैवानुपूर्व्या ज्वरमभिनिर्वर्तयन्ति||२८||च निदान 1

[4/7, 8:09 PM] Dr. Sadhana Babel Mam: 

🙏🙏🙏pranam sir


[4/7, 8:15 PM] Prof.Giriraj Sharma  

सादर नमन आचार्य श्री
*सन्निपातिक स्थिति त्रिदोषज से आगे की कठिन और उग्रतम स्थिति है,*
🌹🌹🌹🙏🏼🛕🙏🏼🌹🌹


[4/7, 8:26 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

चलते चलते ➡️ यदा त्रयाणां निदानं सेव्यते तदा त्रयो दोषा: , ........... सर्वे त्रयो दोषा इत्यनेनैव लब्धेऽपि युगपदितिवचनं क्रमप्रकोपप्रतिषेधार्थं , युगपदेव प्रकोपमापद्यन्ते न क्रमेणेत्यर्थ:.. आचार्य चक्रपाणी च.नि.१/२८ पर , सन्निपातज ज्वर के संदर्भ में..
➡️त्रिदोषलिङ्गसन्निपाते तु सान्निपातिकं विद्यात् , च.नि.७/७ ( तीनों ही दोषों के लक्षणो के मिलने पर ( सन्निपाते) तो सान्निपातिक उन्माद जानना चाहिए..


[4/7, 8:29 PM] Dr. Bhargav Thakkar:

 आपका प्रश्न सान्निपातिक प्रकृति क्यों नहीं मानी गई ? 

देख मेरे मन में एक और प्रश्न आया के त्रिदोष के तर कम के आधार पर प्रकृति क्यों नहीं मानी गई ?  🙏🏻


[4/7, 8:39 PM] Dr. Pawan Madan:

 शुभ सन्धया गुरु जी
आपका कहना सर्वथा ही उचित है।
त्रिदोष मे भी 3 दोष हैं
सन्निपात मे भी 3 दोष ही है
बात सिर्फ ये की किन्ही किन्ही अवस्थाओ मे विशेषता सन्निपात ही क्यू कहा गया है बजाय के त्रिदोष के।
चर्चा इस के लिये है।
🙏🙏🙏


[4/7, 8:40 PM] Dr. Pawan Madan: 

एवं विभिन्न हेतुओं से हुआ तीनो दोषो का संयोग कभी त्रिदोषज है या किन्ही विशेष परिस्तिथि मे सन्निपातज है।*
🙏🙏💐🌹💐🌹


[4/7, 8:43 PM] Dr. Pawan Madan:

 *त्रिदोषज कहना*
या 
*सन्निपातज कहना*
*इसकी 2 क्लीनिकल उपयोगिता है*
*एक,,,,रोगी या उसके परिवार को साध्य असाध्यता बताने के लिये*
*दूसरा,,,उचित चिकित्सा सूत्र को स्थापित करने के लिये।*

*शास्त्र मे कुछ भी बिना क्लीनिकल use के नही कहा गया, ऐसा ओझा सर जी ने बार बार हमें याद दिलाया है।*
क्षमस्व 🙏


[4/7, 8:48 PM] Dr. Pawan Madan: 

शुभ सन्ध्या गुरु जी !

आज आपके इस केस से त्रिदोषज व सन्निपातज का क्लीनिकल differenve स्पष्ट रूप से समझ मे आया।

Love you Guru Ji.
🌹💐🌹


[4/7, 8:48 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

च.सू.१९ में सिर्फ सन्निपात ही कहा गया न कि त्रिदोषज


[4/7, 8:49 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 बहुत ही अच्छी चर्चा चल रही है सभी को  धन्यवाद इसमें थोड़ा सा विचार और करलें। शायद आप निष्कर्ष के नजदीक पहुंच गए हैं । संयोग और समवाय में पर्याप्त अंतर है ।
इस संदर्भ में चरक विमान 1/12 मूल सूत्र एवं उसकी व्याख्या भी अवलोकनीय है।
 यह भी विचारणीय है कि यदि केवल संयोग ही स्वीकार कर लेंगे तो चरक विमान 1/11 का मूल सूत्र एवं चक्रपाणि की व्याख्या की निरर्थक हो जाएगी ।
वैद्यराज सुभाष शर्मा जी पदार्थ विज्ञान के भी विशेषज्ञ हैं अतः संयोग एवं समवाय के संदर्भ में इन दोनों सूत्रों की व्याख्या का विश्लेषण करेंगे तो संभवत:  विषय अत्यंत स्पष्ट हो जाएगा।

और जब यह सब स्वस्थ हो जाए तो उसके बाद चरक विमान 110 की व्याख्या का विश्लेषण किया जाना चाहिए यदि ऐसा नहीं करेंगे तो जो दोषों का प्राकृतगुणोपमर्दन कहा है वह भी निरर्थक हो जाएगा
मुक्त्वैवं  वादसंघटृमध्यात्ममनुचिंत्यताम्


[4/7, 8:49 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

त्रिदोषज और सन्निपातज समानार्थी है*

[4/7, 8:50 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 निदान की तरह हैं जिसके दो प्रकार के अर्थ होते हैं


[4/7, 8:50 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

जी


[4/7, 8:52 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 यह संयोग पूर्वक निपात नहीं है अपितु सम्यक् निपात है


[4/7, 8:54 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 यह  चिन्ह ही तो 
 सन्निपातहै


[4/7, 8:55 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 इस चिह्न के दो प्रकार के अर्थ होते हैं वे दोनों अर्थ कर लें वही सन्निपात है


[4/7, 8:56 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 डल्हण ने इसे स्पष्ट कर दिया है यह मैं पहले भी संकेत कर चुका हूं


[4/7, 9:03 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

एषणा ➡️ .... दोष के मेलक (मिश्रण) की दो अवस्थाएं ( प्रकृति सम समवाय और विकृति विषम समवाय)  है .
प्रकृति सम समवाय➡️ तीनों दोषों के पृथक् पृथक् कहे गये लक्षणों के सन्निपात को देखकर सन्निपातज ज्वर समझना चाहिए..


[4/7, 9:03 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 समानार्थी नहीं हैं  समानार्थवत्  कहीं-कहीं व्यवहृत होते हैं। 
जैसे गिर्राज जी ने कहा था कि मल को  भी कहीं कहीं दोष के पर्याय के रूप में प्रयुक्त कर लिया है।
और स्वयं प्रवृत्तं तं दोषमुपेक्षेत 
 हिताशनै: में तो मल को भी दोष कह दिया है


[4/7, 9:04 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 हां जी इसके आगे की बात भी विकृति विषम समवाय आत्मक के रूप में कहें

[4/7, 9:06 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir: 

जहांपनाह तुसी ग्रेट हो । बस यही कह सकते हैं। धन्य आप और आपके रूग्ण,  जो आपपर इतना भरोसा करतें हैं। और आप उस भरोसे पे हरबार खरे उतरते हैं।


[4/7, 9:06 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 सतीश जी ऐसे हाथ मत जोडिए क्या विकृति विषम रूप में आप अंश अंश कल्पना कर सकते हैं विमान स्थान के पहले अध्याय की व्याख्याओं को देखिए


[4/7, 9:09 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

और जो विकृति विषम समवेत त्रिदोषकृत ज्वर है, उसका लक्षण चिकित्सा स्थान में क्षणे दाह: क्षणे शीतं इत्यादि वचन द्वारा कहा गया है.
नि:सन्देह श्याव और रक्तवर्ण के कोठ का उत्पन्न होना आदि वहां वातादि ज्वर में कहीं नहीं है !


[4/7, 9:14 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

विषय का उपसंहार ➡️ यहाँ तो विकृति विषम समवाय स्वरुप दोष के प्रभाव के अनुमान से विकार के प्रभाव का अनुमान नहीं होता.


[4/7, 9:15 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 ऐसा नहीं है सौ प्रतिशत अंतर पड़ता है कल मैंने डल
हण की व्याख्या  के संदर्भ का संकेत दिया था ।
इसके अतिरिक्त यह भी विचार करिए की महर्षि चरक ने जब त्रयोदशविध सन्निपात बता दिए तो उसके बाद क्षणे दाह: क्षणे शीतं क्यों कहा?


[4/7, 9:16 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 इसलिए आप अंशांश कल्पना यहां इस रूप में नहीं कर सकते।


[4/7, 9:18 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

क्षणे दाह: क्षणे शीतं .... त्रयोदशविध सन्निपात का ही भेद है , जिसे आपने सम सन्निपात ज्वर कहा है


[4/7, 9:19 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

विषम सन्निपातज्वर में प्रकृति सम समवाय से उत्पन्न लक्षण.

सम सन्निपात ज्वर में विकृति विषम समवाय से उत्पन्न लक्षण


[4/7, 9:20 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 ऐसा मत कहिए इसकी व्याख्या पढ़िए चक्रपाणि भी और एषणा भी


[4/7, 9:21 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

प्रकृति सम समवाय ➡️ के १२ प्रकार 
विकृति विषम समवाय➡️ के एक प्रकार


[4/7, 9:21 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

हां यह सही है धन्यवाद आशीर्वाद


[4/7,9:21PM]Dr.SatishJaimini Jaipur: 


गुरुजी प्रणाम मेरे पास और कोई चारा नहीं हाथ जोड़ने के अलावा😃😃 विकृति विषम में अंशांशकल्पना दुरूह तो है गुरुदेव किंतु क्या ऐसी अवस्था मे भी या भ्रामक स्थिति में भी चिकित्सा उपक्रम त्रिदोष के अतिरिक्त कुछ बन सकता है ये कैसे समझें गुरुदेव चरणों मे निवेदन🙏🏻🙏🏻🙏🏻


[4/7, 9:23 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

आपकी टिप्पणी ➡️ क्षणे दाह: क्षणे शीतं ➡️ ये विकृति विषम समवाय सन्निपात ज्वर के लक्षण हैं जो प्रत्येक दोष के मेलक से उत्पन्न लक्षण हैं, .....


[4/7, 9:24 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

सादर प्रणाम गुरु जी 🙏🙏


[4/7, 9:34 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

आपने लिखा है ➡️ अर्थात् दो की प्रधानता से (तीन) एवं एक की प्रधानता से (तीन , इस तरह ) छ: सन्निपात तथा हीन , मध्य और अधिक से भेद से छ: प्रकार एवं समान रुप से बढे हुए सन्निपात का एक प्रकार इस प्रकार कुल तेरह प्रकार के सन्निपात विकार होते हैं


[4/7, 9:39 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 आप तो बिना रिटायर हुए आयुर्वेद का बढ़िया अध्ययन कर रहे हैं यह आयुर्वेद का सौभाग्य है कि आप इतर विषय के होते हुए भी श्रेष्ठ रूप में आयुर्वेदिक विषयों की सैद्धांतिक रूप में व्याख्या करते हैं ।
आपने बड़े-बड़े विद्वानों की बात लिखी वह संभवत: पूरी नहीं की। क्या कहना चाहते थे पता‌ नहीं, पर किसी बात को कहते समय यदि विश्लेषण करते समय विद्वानों में मत की भिन्नता है तो उनकी बुद्धि पर किसी प्रकार का संशय नहीं हो सकता ऐसा
आत्रेय और मैत्रेय में भी हुआ है तथा अमरकोश की रामाश्रमी टीका देखिए वहां अधिकांश शब्दों की व्याख्या करते समय अपने पूर्ववर्ती
विद्वान् मुकुट का अनेक शब्दों में विरोध प्रकट किया है मत का खंडन किया है इसी तरह से व्याकरण में मनोरमा व्याख्या
और मनोरमा कुचमर्दिनी व्याख्या एक दूसरे के पूर्णत: विरुद्ध हैं फिर भी उनका महत्त्व कम नहीं है।
अतः आप आयुर्वेद में बीएएमएस मत करिए आप तो आयुर्वेद में पहले से ही पीएचडी हैं अब तो डिलिट् की ओर बढ़ रहे हैं इसलिए इससे आयुर्वेद की श्रीवृद्धि हो रही है धन्यवाद


[4/7, 9:40 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 आधी बात मत पढ़िए इसकी चक्रपाणि व्याख्या की ऊपर की दो लाइन और उनकी एषणा व्याख्या ही पढ़ लीजिए


[4/7, 9:42 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

पढा है मैंने , परंतु थक जाने से कितना टाईप करुं


[4/7, 9:43 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

२५ भेंदो को स्पष्ट किया गया है


[4/7, 9:44 PM] Dr.Deep Narayan Pandey: 

आचार्य श्रेष्ठ आपका स्नेह बना रहे वही मेरे लिए बहुत बड़ी डिग्री है।

बड़े-बड़े विद्वानों की टेक्स्ट बुक से मेरा तात्पर्य आयुर्वेद और विशेष रूप से कायचिकित्सा के सिद्धांतों पर कुछ पुस्तकें मेरे पास हैं जो आजकल महाविद्यालयों में बच्चे अपने पठन-पाठन में उपयोग करते हैं। विचित्र स्थिति यह है कि उन पुस्तकों में भी इस स्तर की ना तो व्याख्या प्राप्त होती और ना ही विश्लेषण। ‌

आपके यहां पधार जाने से इस विषय में एक दृष्टि स्पष्ट होगी और हम सबको मान्य होगी। अत्यंत कठिन प्रश्न है यह जिस पर विचार विमर्श चल रहा है और उस पर आपका हाथ लगाना जरूरी था। 
🙏❤️🙏


[4/7, 9:45 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 टाइप की जरूरत ही नहीं है 
 व्याख्या में सबसे पहले ऊपर ही  कह दिया प्रकृति समसमवाय और विकृति विषम समवाय ।सारी व्याख्या उसी पर आधारित है


[4/7, 9:45 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

जी


[4/7, 9:46 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 शुभ रात्रि


[4/7, 9:46 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*शुभ रात्रि गुरु जी* 🙏🙏


[4/7, 10:00 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed: 

प्रणाम गुरूवर, हमारे लीए यह भी बिल्कुल नयी सोच है की, विकृती विषम समवेत संप्राप्ति होगी तब अंशांश विकल्पना संभव नहीं। बहोत सिखना पड़ेगा।


[4/7, 10:02 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

वैद्यराज सुभाष शर्मा जी , इस रुग्ण में व्याधि सम्मुच्चय अर्थात् व्याधि मेलक है , न कि सन्निपात*


[4/7, 10:13 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

 *व्याधिसङ्करा व्याधिमेलका:*


[4/7,10:16PM]Prof.SatyendraNarayan Ojha: 

प्रतिश्यायो ही स्वरुपेणैव कासस्य कारणं , स च राजयक्ष्मण इत्यादि..


[4/7, 10:17 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:

HT ➡️ cardiomegaly (left ventricular hypertrophy) 

COPD ➡️ pulmonary hypertension ➡️ cardiomegaly (right ventricular hypertrophy)


[4/7, 10:24 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

है न‌‌, कोई उदाहरण दिजिए

[4/7, 10:24 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad: 

*सादर नमन आचार्य श्री*
*इस रोगी का स्वतंत्र रोग या प्रथम रोग प्रतिश्याय रहा होगा ,''''''*
*जीर्ण प्रतिश्याय से फिर उपद्रव  कास श्वास,हिक्का""""*
*फिर उपद्रव रोग के उपद्रव COPD, UTI, शोथ, जलोदर आदि,,,,,,*

*आप जैसे प्रसिद्ध चिकित्सको के पास उपद्रव रोग वाले रोगी ज्यादा आते है ,,,,,,,*
*सिर्फ उसके इतिहास वृत से इसे जाना जा सकता है या इन उपद्रवों में स्वतंत्र प्रथम व्याधि के लक्षण दृष्टिगोचर होते है क्या,,,*
2 *चिकित्सा में उपद्रव एवं स्वतंत्र रोग चिकित्सा में दोनो को कैसे चिकित्सा में संतुलित रखे,* 
3 *प्रायः उपद्रव की स्तिथि में रोगी आते है तो उन्हें रोग समुच्चय कहे या फिर उपद्रव युक्त प्रतिश्याय,,,,,*


🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[4/7, 10:30 PM] Dr. Pawan Madan: 
जी
क्युकी विकृति विषम समवेत मे तो दोष अनुरूप लक्षण ही नही आयेंगे तो अनशन्श कलपना भी ना हो सकेगी
🙏
[4/7, 10:34 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

HT ➡️ left ventricular hypertrophy ➡️ left heart failure ➡️ decreased cardiac output ➡️ decreased effective arteriolar volume ➡️ renal hypoperfusion ➡️ activated RAAS ➡️ salt and water retention ➡️ edema 
Left heart failure ➡️ increased hydrostatic pressure ➡️ transudation ➡️ decreased plasma volume and increased interstitial fluid volume ➡️ edema.
 
COPD ➡️ pulmonary hypertension ➡️ right ventricular hypertrophy ➡️ right heart failure ➡️ systemic venous congestion ➡️ raised JVP, congestive hepatomegaly, edema, ascites, indigestion, flatulence etc ..

[4/7, 10:35 PM] Dr. Pawan Madan: 

जी गुरु जी ।
कोशिश करता हूँ ।

विचर्चीका त्रिदोषज कुष्ठ है पर सन्निपातज अवस्था मे नही पहुंचा, पर वो ही केस मे अत्यंत वृद्ध अवस्था मे गलित कुष्ठ की अवस्था मे आ जाता है तो उसको सन्निपातज अवस्था माना जायेगा।

[4/7, 10:37 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

*कफ प्राया विचर्चिका*
वैद्यराज पवन जी, कुछ भी मत अनुमान लगाओ.. 

[4/7, 10:38 PM] Dr. Pawan Madan: 

ठीक है गुरु जी ।

आप विचर्चीका की जगह पर psoriasis शब्द रख लै।
😊

[4/7, 10:39 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha:
 
*किटिमं‌ वातकफाधिकम्*

एककुष्ठं वातकफाधिकम्
 
[4/7, 10:40 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

तीर नहीं तो तुक्का 😅

[4/7, 10:42 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

कुष्ठ विशेष ➡️ दोष 
दोष विशेष➡️ कुष्ठ

[4/7, 10:43 PM] Dr. Pawan Madan:

 हर कुष्ठ रोग त्रिदोषज है
ये चरक चिकित्सा कुष्ठ मे प्रथम सूत्र है।

दोषाधिक्य का निर्णय केवल चिकित्सा सौकर्य के लिये किया गया है।

वैसे भी किसी भी त्वक रोग मे दोष आधिक्य की स्तिथि बदलती रहती है। ऐसा कुष्ठ चिकित्सा मे स्पष्ट लिखा है।

बाकी यदि ये सब आपको तीर तुक्का लगता है तो इस से ज्यादा मैं और कुछ नही कह सकता।

मै अपने सब शब्द वापिस लेता हूँ

आप गुरु श्रेष्ठ हैं आप सर्वदा उचित ही कहते हैं।
🙏🙏🙏😔😔😔

[4/7, 10:47 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

उपेक्षा करने से साध्य कुष्ठ भी विभिन्न प्रकार के उपद्रव युक्त होते हैं ।

[4/7, 10:52 PM] Prof. Satyendra Narayan Ojha: 

कहते हैं ➡️ तै: कुष्ठै: कार्यरुपै: हेतु: नाम दोष: अनुमियते, हेतु: च दोष रुप: तान् कार्यरुपकुष्ठविशेषानवगमयति इति अर्थ: ।



[4/8, 12:24 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma : 

*आपसे सदैव कुछ प्राप्त ही होता है, विचारों का मंथन, नवीनता, किसी भी विषय पर आरंभ से अंत तक एक सुदृढ़ पकड़, आपका स्नेह, 24 ct gold जैसा pure व्यक्तित्व, कर्मठ और कभी ना थकने वाला ऊर्जावान शिक्षक ... सोचता हूं कि इस जन्म में तो आपका कर्ज कभी नही चुका पाऊंगा, आपका साथ पा कर जीवन धन्य हो गया है। आयुर्वेद को पढ़ने के दृष्टिकोण बदल गये और रोगी देखने का आनंद भी अलग।*
आ. ओझाजी  !
              ❤️🙏🙏🙏❤️

[4/8, 4:59 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed : 

बलवन्त उपद्रव की चिकित्सा पहले करे ।

[4/8, 5:04 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed : 

अंशांश कल्पना हेतु दोष के साथ गुणों का अधिक विचार होता है ऐसा हम समझते थे। गुण लक्षणों: संबंध: को आधार मानते हुए। हर संप्राप्ति में गुणों को खोजते थे। पर गुरूवर कहते हैं तो नये सिरे से देखना होगा।



[4/8, 7:14 AM] Dr. Surendra A. Soni: 

https://kayachikitsagau.blogspot.com/2018/09/wds59-dosha-pak-dhatu-pak-role-of-visra.html

आचार्य हितेन जी ।
दोष/धातुपाक सिद्धांत प्रकरण को समझने के लिए श्रेष्ठ उत्कृष्ट सिद्धांत हैं ।

🙏🏻🌹👌🏻


[4/8, 7:24 AM] Dr. Surendra A. Soni: 

प्रणाम आचार्य !

 अगर चिकित्सक चिन्तन तक सीमित रहते हैं तो फिर किसी को भी किसी तरह की कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।


🙏🏻☺️🌹

[4/8, 7:32 AM] Dr. Surendra A. Soni: 

प्रणाम आचार्य जी ।

च नि 7/7 को उद्धृत कर आपने सब कुछ कह दिया और पूरी चर्चा का conclusion ही कर दिया है ।
बिना कुछ कहे ही सब कुछ कह दिया है।
धन्योsहम् ।

नमो नमः ।🙏🏻🌹🤗🙏🏻🌻




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Above discussion held on 'Kaysampraday"(Discussion) a Famous WhatsApp-discussion-group  of  well known Vaidyas from all over the India. 



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Compiled & Uploaded by

Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center, Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
 +91 9669793990,
+91 9617617746

Edited by

Dr. Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC) 
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150














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[1/20, 00:13] Vd. Subhash Sharma Ji Delhi:  1 *case presentations -  पित्ताश्य अश्मरी ( cholelithiasis) 4 रोगी, including fatty liver gr. 3 , ovarian cyst = संग स्रोतोदुष्टि* *पित्ताश्य अश्मरी का आयुर्वेद में उल्लेख नही है और ना ही पित्ताश्य में gall bladder का, आधुनिक चिकित्सा में इसकी औषधियों से चिकित्सा संभव नही है अत: वहां शल्य ही एकमात्र चिकित्सा है।* *पित्ताश्याश्मरी कि चिकित्सा कोई साधारण कार्य नही है क्योंकि जिस कार्य में शल्य चिकित्सा ही विकल्प हो वहां हम औषधियों से सर्जरी का कार्य कर रहे है जिसमें रोगी लाभ तो चाहता है पर पूर्ण सहयोग नही करता।* *पित्ताश्याश्मरी की चिकित्सा से पहले इसके आयुर्वेदीय दृष्टिकोण और गर्भ में छुपे  सूत्र रूप में मूल सिद्धान्तों को जानना आवश्यक है, यदि आप modern पक्ष के अनुसार चलेंगें तो चिकित्सा नही कर सकेंगे,modern की जरूरत हमें investigations और emergency में शूलनाशक औषधियों के रूप में ही पड़ती है।* *पित्ताश्याशमरी है तो पित्त स्थान की मगर इसके निदान में हमें मिले रोगियों में मुख्य दोष कफ है ...* *गुरूशीतमृदुस्निग्ध मधुरस्थिरपि

Case presentation: Vrikkashmari (Renal-stone)

On 27th November 2017, a 42 yrs. old patient came to Dept. of Kaya-chikitsa, OPD No. 4 at Govt. Ayu. College & Hospital, Vadodara, Gujarat with following complaints...... 1. Progressive pain in right flank since 5 days 2. Burning micturation 3. Dysuria 4. Polyuria No nausea/vomitting/fever/oedema etc were noted. On interrogation he revealed that he had h/o recurrent renal stone & lithotripsy was done 4 yrs. back. He had a recent 5 days old  USG report showing 11.5 mm stone at right vesicoureteric junction. He was advised surgery immediately by urologist. Following management was advised to him for 2 days with informing about the possibility of probable emergency etc. 1. Just before meal(Apankal) Ajamodadi choorna     - 6 gms. Sarjika kshar                - 1 gm. Muktashukti bhasma    - 250 mgs. Giloyasattva                 - 500 mgs. TDS with Goghrita 20 ml. 2. After meal- Kanyalohadi vati     - 2 pills Chitrakadi vati        -  4 p

Case-presentation: Management of Various Types of Kushtha (Skin-disorders) by Prof. M. B. Gururaja

Admin note:  Prof. M.B. Gururaja Sir is well-known Academician as well as Clinician in south western India who has very vast experience in treatment of various Dermatological disorders. He regularly share cases in 'Kaysampraday group'. This time he shared cases in bulk and Ayu. practitioners and students are advised to understand individual basic samprapti of patient as per 'Rogi-roga-pariksha-vidhi' whenever they get opportunity to treat such patients rather than just using illustrated drugs in the post. As number of cases are very high so it's difficult to frame samprapti of each case. Pathyakram mentioned/used should also be applied as per the condition of 'Rogi and Rog'. He used the drugs as per availability in his area and that to be understood as per the ingredients described. It's very important that he used only 'Shaman-chikitsa' in treatment.  Prof. Surendra A. Soni ®®®®®®®®®®®®®®®®®®®®®®® Case 1 case of psoriasis... In this

WhatsApp Discussion Series: 24 - Discussion on Cerebral Thrombosis by Prof. S. N. Ojha, Prof. Ramakant Sharma 'Chulet', Dr. D. C. Katoch, Dr. Amit Nakanekar, Dr. Amol Jadhav & Others

[14/08 21:17] Amol Jadhav Dr. Ay. Pth:  What should be our approach towards... Headache with cranial nerve palsies.... Please guide... [14/08 21:31] satyendra ojha sir:  Nervous System Disorders »  Neurological Disorders Headache What is a headache? A headache is pain or discomfort in the head or face area. Headaches vary greatly in terms of pain location, pain intensity, and how frequently they occur. As a result of this variation, several categories of headache have been created by the International Headache Society (IHS) to more precisely define specific types of headaches. What aches when you have a headache? There are several areas in the head that can hurt when you have a headache, including the following: a network of nerves that extends over the scalp certain nerves in the face, mouth, and throat muscles of the head blood vessels found along the surface and at the base of the brain (these contain delicate nerve fibe

WhatsApp Discussion Series 47: 'Hem-garbh-pottali-ras'- Clinical Uses by Vd. M. Gopikrishnan, Vd. Upendra Dixit, Vd. Vivek Savant, Prof. Ranjit Nimbalkar, Prof. Hrishikesh Mhetre, Vd. Tapan Vaidya, Vd. Chandrakant Joshi and Others.

[11/1, 00:57] Tapan Vaidya:  Today morning I experienced a wonderful result in a gasping ILD pt. I, for the first time in my life used Hemgarbhpottali rasa. His pulse was 120 and O2 saturation 55! After Hemgarbhapottali administration within 10 minutes pulse came dwn to 108 and O2 saturation 89 !! I repeated the Matra in the noon with addition of Trailokyachintamani Rasa as advised by Panditji. Again O2 saturation went to 39 in evening. Third dose was given. This time O2  saturation did not responded. Just before few minutes after a futile CPR I hd to declare him dead. But the result with HGP was astonishing i must admit. [11/1, 06:13] Mayur Surana Dr.:  [11/1, 06:19] M gopikrishnan Dr.: [11/1, 06:22] Vd.Vivek savant:         Last 10 days i got very good result of hemgarbh matra in Aatyayik chikitsa. Regular pt due to Apathya sevan of 250 gm dadhi (freez) get attack asthmatic then get admitted after few days she adm

DIFFERENCES IN PATHOGENESIS OF PRAMEHA, ATISTHOOLA AND URUSTAMBHA MAINLY AS PER INVOLVEMENT OF MEDODHATU

Compiled  by Dr.Surendra A. Soni M.D.,PhD (KC) Associate Professor Dept. of Kaya-chikitsa Govt. Ayurveda College Vadodara Gujarat, India. Email: surendraasoni@gmail.com Mobile No. +91 9408441150

UNDERSTANDING THE DIFFERENTIATION OF RAKTAPITTA, AMLAPITTA & SHEETAPITTA

UNDERSTANDING OF RAKTAPITTA, AMLAPITTA  & SHEETAPITTA  AS PER  VARIOUS  CLASSICAL  ASPECTS MENTIONED  IN  AYURVEDA. Compiled  by Dr. Surendra A. Soni M.D.,PhD (KC) Associate Professor Head of the Department Dept. of Kaya-chikitsa Govt. Ayurveda College Vadodara Gujarat, India. Email: surendraasoni@gmail.com Mobile No. +91 9408441150

WhatsApp Discussion Series:18- "Xanthelasma" An Ayurveda Perspective by Prof. Sanjay Lungare, Vd. Anupama Patra, Vd. Trivendra Sharma, Vd. Bharat Padhar & others

[20/06 15:57] Khyati Sood Vd.  KC:  white elevated patches on eyelid.......Age 35 yrs...no itching.... no burning.......... What could be the probable diagnosis and treatment according Ayurveda..? [20/06 16:07] J K Pandey Dr. Lukhnau:  Its tough to name it in ayu..it must fall pakshmgat rog or wartmgat rog.. bt I doubt any pothki aklinn vartm aur klinn vartm or any kafaj vydhi can be correlated to xanthelasma..coz it doesnt itch or pain.. So Shalakya experts may hav a say in ayurvedic dignosis of this [20/06 16:23] Gururaja Bose Dr:  It is xantholesma, some underline liver and cholesterol pathology will be there. [20/06 16:28] Sudhir Turi Dr. Nidan Mogha:  Its xantholesma.. [20/06 16:54] J K Pandey Dr. Lukhnau:  I think madam khyati has asked for ayur dignosis.. [20/06 16:55] J K Pandey Dr. Lukhnau:  Its xanthelasma due to cholestrolemia..bt here we r to diagnose iton ayurvedic principles [20/06 17:12] An

Case-presentation- Self-medication induced 'Urdhwaga-raktapitta'.

This is a c/o SELF MEDICATION INDUCED 'Urdhwaga Raktapitta'.  Patient had hyperlipidemia and he started to take the Ayurvedic herbs Ginger (Aardrak), Garlic (Rason) & Turmeric (Haridra) without expertise Ayurveda consultation. Patient got rid of hyperlipidemia but hemoptysis (Rakta-shtheevan) started that didn't respond to any modern drug. No abnormality has been detected in various laboratorical-investigations. Video recording on First visit in Govt. Ayu. Hospital, Pani-gate, Vadodara.   He was given treatment on line of  'Urdhwaga-rakta-pitta'.  On 5th day of treatment he was almost symptom free but consumed certain fast food and symptoms reoccurred but again in next five days he gets cured from hemoptysis (Rakta-shtheevan). Treatment given as per availability in OPD Dispensary at Govt. Ayurveda College hospital... 1.Sitopaladi Choorna-   6 gms SwarnmakshikBhasma-  125mg MuktashuktiBhasma-500mg   Giloy-sattva-                500 mg.  

Case-presentation: 'रेवती ग्रहबाधा चिकित्सा' (Ayu. Paediatric Management with ancient rarely used 'Grah-badha' Diagnostic Methodology) by Vd. Rajanikant Patel

[2/25, 6:47 PM] Vd Rajnikant Patel, Surat:  रेवती ग्रह पीड़ित बालक की आयुर्वेदिक चिकित्सा:- यह बच्चा 1 साल की आयु वाला और 3 किलोग्राम वजन वाला आयुर्वेदिक सारवार लेने हेतु आया जब आया तब उसका हीमोग्लोबिन सिर्फ 3 था और परिवार गरीब होने के कारण कोई चिकित्सा कराने में असमर्थ था तो किसीने कहा कि आयुर्वेद सारवार चालू करो और हमारे पास आया । मेने रेवती ग्रह का निदान किया और ग्रह चिकित्सा शुरू की।(सुश्रुत संहिता) चिकित्सा :- अग्निमंथ, वरुण, परिभद्र, हरिद्रा, करंज इनका सम भाग चूर्ण(कश्यप संहिता) लेके रोज क्वाथ बनाके पूरे शरीर पर 30 मिनिट तक सुबह शाम सिंचन ओर सिंचन करने के पश्चात Ulundhu tailam (यह SDM सिद्धा कंपनी का तेल है जिसमे प्रमुख द्रव्य उडद का तेल है)से सर्व शरीर अभ्यंग कराया ओर अभ्यंग के पश्चात वचा,निम्ब पत्र, सरसो,बिल्ली की विष्टा ओर घोड़े के विष्टा(भैषज्य रत्नावली) से सर्व शरीर मे धूप 10-15मिनिट सुबज शाम। माता को स्तन्य शुद्धि करने की लिए त्रिफला, त्रिकटु, पिप्पली, पाठा, यस्टिमधु, वचा, जम्बू फल, देवदारु ओर सरसो इनका समभाग चूर्ण मधु के साथ सुबह शाम (कश्यप संहिता) 15 दिन की चिकित्सा के वाद