Case presentation - 'Sjogren's syndrome'(आमज-तृष्णा)/अनुक्त व्याधि सम्प्राप्ति चिकित्सा by Vaidya raja Subhash Sharma
[4/7, 12:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
Case presentation-
Sjogren's syndrome
*sjogren's syndrome
एक अनुक्त व्याधि जो विभिन्न रोगकारक शारीरिक चिन्हों और लक्षणों का एक समूह बन कर साथ होते हैं और एक विशेष असामान्य विकार की विशेषता बताते हैं।*
[4/7, 12:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*'देहो रसजोऽम्बुभवो रसश्च तस्य क्षयाच्च तृष्येद्धि, दीनस्वरः प्रताम्यन् संशुष्कहृदयगलतालुः'
च चि 22/16
यह शरीर रस से उत्पन्न होता है और पुष्टि प्राप्त करता है तथा रस जल से उत्पन्न होता है और क्लेद एवं आर्द्रता भी जल का ही अंश है जिसका शोष हो कर ह्रदय प्रदेश, गला तथा तालु शुष्क होने लगते है । यह मात्र लक्षण नहीं निरंतर बने रहने से रोग समूह बन जाता है । रोगियों की history लेने पर आमवात, संधिवात, steroids, hydroxycholoroquine, HCQS, inflammatory आदि का सेवन अनेक महीनों या वर्षों तक करना मिलता है।*
*अनेक व्याधियों का प्रत्यात्म चिन्ह या लक्षण बताया गया है जैसे ज्वर का उदाहरण देखें,
'ज्वरप्रत्यात्मिकं लिङ्गं सन्तापो देहमानसः'
च चि 3
अर्थात देह और मन का संताप ज्वर का प्रत्यात्म लिंग है।*
*चरक निदान 7/5 में उन्माद रोग पर चक्रपाणि कहते है कि इसका प्रत्यात्म लक्षण,
'उन्मादप्रत्यात्मलक्षणमाह- उन्मादं पुनरित्यादि...'
इसकी विस्तार से व्याख्या आप चक्रपाणि एवं प्रो.बनवारी लाल गौड़ सर की चरक संहिता में देख सकते है।*
*संहिता ग्रन्थों में सभी के प्रत्यात्म लक्षण नहीं दिये पर आप स्वयं अपने ज्ञान और अनुभव से जान सकते है, सभी रोगों के पूर्वरूप नहीं दिये, अनेक स्थानों पर एक पूर्ण चिकित्सा सूत्र ना दे कर औषध के नाम दिये हैं पर आप वहां पूर्वरूप एवं चिकित्सा सूत्र पुरूषं पुरूषं वीक्ष्य सिद्धान्त के अनुसार बना सकते है।*
*'प्रत्येकं स्थानदूष्यादिक्रियावैशेष्यमाचरेत्'
च चि 28/104
आचार्य चक्रपाणि की टीका
'अनुक्तविशेषचिकित्सोपग्रहणार्थमाह- प्रत्येकमित्यादि स्थानं पक्वाशयादि, दूष्यं रसरक्तादि, आदिग्रहणादावरण ग्रहणम् स्थानदूष्यापेक्षः क्रियाविशेषस्तु कोष्ठस्थे इत्यादिनैवोक्तः'
अर्थात अनुक्त व्याधियां जिनका शास्त्रों में वर्णन नही है उनकी चिकित्सा विशेष का भी प्रावधान स्पष्ट किया है और प्रो. बनवारी लाल गौड़ जी चरक एषणा व्याख्या में सभी पक्षों को स्पष्ट करते हुये लिखते हैं कि स्थानं अर्थात आमाश्य, पक्वाश्य आदि एवं दूष्य जिनमें रस, रक्त, मांसादि धातुयें तथा क्रिया विशेषस्तु कोष्ठस्थे अर्थात स्थान और दूष्यों के अनुसार चिकित्सा भी विशेष या भिन्न होगी।*
[4/7, 12:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अनुक्त रोग कहां प्रकट होंगे ?
कोष्ठ में जिसे
'पञ्चदश कोष्ठाङ्गानि; तद्यथा- नाभिश्च, हृदयं च, क्लोम च, यकृच्च, प्लीहा च, वृक्कौ च, बस्तिश्च, पुरीषाधारश्च, आमाशयश्च, पक्वाशयश्च, उत्तरगुदं च, अधरगुदं च, क्षुद्रान्त्रं च, स्थूलान्त्रं च, वपावहनं चेति'
च शा 7/10
में आचार्य चरक ने ये 15 कोष्ठ के अंग बताये हैं। आचार्य सुश्रुत
'स्थानान्यामाग्निपक्वानां मूत्रस्य रुधिरस्य च हृदुण्डुकः फुप्फुसश्च कोष्ठ इत्यभिधीयते'
सु चि 2/12
में आमाश्य, अग्नाश्य-क्षुद्रान्त्र, स्थूलान्त्र, मूत्र स्थान -वृक्कौ, मूत्राश्यादि, रक्ताश्य -यकृत प्लीहा, ह्रदय, फुफ्फुस और उण्डूक मिल कर कोष्ठ है और आधुनिक पक्ष को देखें तो thorax, abdomen तथा pelvis मिल कर कोष्ठ बना है। यहां आमाश्य से मुख और अन्नवाही स्रोतस दोनो का ग्रहण है क्योंकि इनमें भी अपक्व अन्न आम की उपस्थिति मिलती है जैसे जिव्हा को देख आम का ज्ञान होता है।*
*कोष्ठ आभ्यंतर रोग मार्ग है इसके अतिरिक्त बाह्य रोगमार्ग शाखा है। शाखा का अर्थ
'शाखा रक्तादयो धातवस्त्वक् च, स बाह्यो रोगमार्गः'
6 धातु रक्त,मांसादि तथा त्वचा, त्वचा में ही रस धातु का समावेश है।*
*इसके अतिरिक्त एक तीसरा रोग मार्ग मध्यम रोग मार्ग कहलाता है जिसमें
'मर्माणि पुनर्बस्तिहृदयमूर्धादीनि, अस्थिसन्धयोऽस्थिसंयोगास्तत्रोपनिबद्धाश्च स्नायुकण्डराः स मध्यमो रोगमार्गः'
च सू 11/48
अर्थात ह्रदय, बस्ति, शिर, अस्थियों के संयोग, स्नायु और कण्डरायें आदि हैं।*
*जिस भी व्याधि का हम निर्णय करेंगे वह शास्त्रों में उल्लेखित है या अनुक्त हमें यह ज्ञान होना आवश्यक है कि वह कौन से मार्ग की है तभी तो हम उसकी चिकित्सा सैद्धान्तिक रूप से कर पायेंगे।*
*च सू 11/49
में यह मार्ग रोगों के उदाहरण सहित स्पष्ट किये हैं।*
*शाखानुसारी रोग-*
*'गण्डपिडकालज्यपचीचर्मकीलाधिमांसमषककुष्ठव्यङ्गादयो विकारा बहिर्मार्गजाश्च विसर्पश्वयथु गुल्मार्शो विद्रध्यादयः शाखानुसारिणो भवन्ति रोगाः'।
शाखानुसारी रोग धातुओं को दूषित कर रोग उत्पन्न करते है पर इसमें एक और पक्ष भी है जिसे जानना परम आवश्यक है जैसे रक्त या शोणित का उदाहरण ले कर चलें तो,
'तत: शोणितजा रोगा:... मुखपाको...रक्तपित्त...विद्रधी'
च सू 24/11
अर्थात शोणितज रोग अर्थात जो दूषित रक्त के कारण होते हैं। यहां रक्त मिथ्या आहार विहार अथवा काल अथवा ऋतुओं के अनुसार दूषित होता है। आगे एक और पक्ष समक्ष आता है
'विकारा: सर्वं एवैते विज्ञेया शोणिताश्रया:'
च सू 24/16
शोणिताश्रया रोग जो रक्त को अपना आश्रय बना कर रोग या लक्षण उत्पन्न करते हैं और अगर इसका सही ज्ञान हो ते चिकित्सा करने पर रोगी उस रोग से मुक्त हो जाता है। उच्च रक्तचाप अर्थात hypertension को आयुर्वेदानुसार समझने के लिये चरक का ये सूत्र बहुत महत्व पूर्ण है। क्योंकि उच्चरक्तचाप रक्त को आश्रय बना कर एक अलग ही व्याधि उत्पन्न कर रहा है तभी रक्त मोक्षण एवं पित्त सदृश रक्त होने पर विरेचन से तात्कालिक उच्चरक्तचाप कम या सामान्य भी आ जाता है जो प्रत्यक्ष है।*
*मध्यम मार्ग के रोग -*
*'पक्षवधग्रहापतानकार्दितशोषराजयक्ष्मास्थिसन्धिशूलगुदभ्रंशादयः शिरो हृद्बस्ति रोगादयश्च मध्यममार्गा नुसारिणो भवन्ति रोगाः।
पक्षवध के अधिकतर रोगी विबंध से पीड़ित रहते हैं, अनेक प्रयास करने पर भी कई बार मल त्याग भली प्रकार ना होने से वो स्नान, भोजन आदि तब तक नही करते जब तक मल प्रवृत्ति ना हो और समस्त परिवार रोगी की इस प्रवृत्ति से परेशान हो जाता है।विबंध बनाये रखना पक्षवध का वात की अधिकता सर्वांग रहने का स्वभाव है जिसके कारण जिस रोग में पक्वाश्य अथवा प्राकृत अधो मार्ग से मल और वात की प्रवृत्ति ना हो उसे आनाह समझें और विबंध आनाह का ही एक भाग है और
'आनाहस्तु विबन्ध: स्यात्'
एसा भी कहा है।
'आमं शकृद्वा निचितं क्रमेण भूयो विबद्धं विगुणानिलेन प्रवर्तमानं न यथास्वमेनं विकारमानाहमुदाहरन्ति'
माधव निदान 27/17
अर्थात स्व: कारणों से प्रकुपित वायु आम और मल को शुष्क कर ग्रथित कर देती है। वर्तमान समय की कब्ज, विबंध या साधारण भाषा की constipation यही है।*
*विबंध प्रत्यक्ष रूप में हेतु एवं अंशाश कल्पनानुसार वात के रूक्ष गुण से संबंधित अवस्था है। विबंध में एक अथवा अनेक दिन तक भी मल का त्याग नही होता और मल का रूक्ष होना भी संभव है। यहां अब मध्यम मार्ग के रोग ने अतिरिक्त कोष्ठगत विकार की उत्पत्ति और कर दी तथा व्याधि बन गई असाध्य सदृश क्योंकि वात की प्रमुख चिकित्सा है अनुलोमन जो पक्वांश्य से होगा और वह हो नही रहा।*
*कोष्ठ गत विकार-*
*'ज्वरातीसारच्छर्द्यलसकविसूचिकाकासश्वासहिक्कानाहोदरप्लीहादयोऽन्तर्मार्गजाश्च विसर्पश्वयथु गुल्मा र्शोविद्रध्यादयः कोष्ठानुसारिणो भवन्ति रोगाः'।
ग्रहणी दोष कुछ समय तक रोगी में रहा, आमोत्पत्ति भी उत्पन्न होने लगी तथा व्याधि अभी कोष्ठगत थी पर आमविष बनने से कालांतर में अस्थि संधियों में पहुंच गया। अब व्याधि ने आमवात का रूप धारण कर लिया और आधुनिक का autoimmune disorder बन गया। कोष्ठगत विकार अब मध्यम मार्ग का रोग बन गया है और इसका मूल अभी भी कोष्ठ ही है इसीलिये रोग कृच्छसाध्य या असाध्य बन रहे हैं।*
[4/7, 12:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*यह मार्गों का ज्ञान अब आगे निश्चित करेगा कि sjogren's रोग का स्वभाव क्या है और इसका मार्ग कौन सा है तथा कहीं ऐसा तो नही कि किसी अन्य रोग मार्ग की व्याधि ने एक भिन्न रोग मार्ग का रोग उत्पन्न कर दिया !*
*sjogren's रोग को समझने से पूर्व जो history रोगी ले कर आता है और जो प्रधान लक्षण उसमें मिलते हैं उसे जानने के लिये सब से पहले क्लेद का मूल भाव समझना आवश्यक है।क्लेद शब्द क्लिद् धातु में घन् प्रत्यय लगकर बना है जिसका अर्थ आर्द्रता (गीलापन या moisture) और स्राव है और दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है अम्बुवाही स्रोतस।*
*इस रोग में क्योंकि क्लेद की हीनता या अति अल्पता है तो आगे हमें क्लेद वर्धन के लिये क्लेदन कर्म की आवश्यकता चिकित्सा हेतु पड़ेगी और क्लेदन द्रव्य वह हैं जो शरीर में द्रव अंश की वृद्धि कर रूक्ष, शुष्क या कठिन भावों को क्लिन्न करते है।इस प्रकार के द्रव्यों को क्लेदक भी कहा जाता है।*
*सु सू 6/8 यहां पर आचार्य डल्हण व्याख्या करते हैं कि 'क्लेदयति आर्द्रीकरोति' जो द्रव्य शरीर में आर्द्रता अर्थात नमी या गीलापन लाते हैं वह क्लेदक द्रव्य हैं।
'अम्लो....क्लेदनः प्रायशो ह्यद्यश्चेति' सु सू 42 में अम्ल रस को क्लेदन करने वाला कहा है। च सू 26 में भी आचार्य चक्रपाणि अम्ल रस को क्लेदयति तथा जरयति भुक्तमेव' क्लेदन करने वाला स्पष्ट करते हैं।आगे सुश्रुत में लवण रस को भी 'लवणः.....क्लेदनः शैथिल्यकृदुष्णः' क्लेदन के साथ शिथिल करने वाला भी कहा है।*
*घृत को 'दोषधातुमलस्रोतसां मन्दक्लेदप्राप्तिजननम्' सु सू 46 में घृत को दोष, धातु, मल और स्रोतस में क्लेदकर कहा है। नवीन धान्य भी 'दोषधातुमलस्रोतसां क्लेदप्राप्तिजननम्' क्लेद जनक कहा है।
'स्नेहनं स्नेहविष्यन्दमा१र्दव क्लेदकारकम्'
च सू 22/11
में स्नेह को क्लेद कारक कहा है। यवक्षार को प्रक्लेदी कहा है और 'प्रक्लेदन आर्द्रभावकरः' होता है।अभिष्यन्दि द्रव्यों को 'अभिष्यन्दि दोषधातुमलस्रोतसां क्लेदप्राप्तिजनकम्' कहा है।*
*अम्बुवाही स्रोतस पर आचार्य डल्हण ने इस रोग के मूल भाव को पूर्ण स्पष्ट कर दिया,
'अम्बुवाहीनि स्रोतांसि जिह्वागल तालुक्लोमजानि रसवाहिन्यश्च धमन्यः'
सु उत्तर तन्त्र 48/5
इसीलिये हम कहते हैं कि संहिता ग्रन्थ वर्तमान अनेक अनुक्त व्याधियां सूत्र रूप में मूल भाव को वर्णित कर के चल रहे हैं बस आपको ग्रन्थों का नियमित अध्ययन अवश्य ही करना चाहिये।*
*यहां पूर्ण वर्णन तृष्णा रोग में आचार्य सुश्रुत दे कर चले है जिसमे,
धातुक्षयाल्लङ्घनसूर्यतापात् पित्तं च वातश्च भृशं प्रवृद्धौ स्रोतांसि सन्दूषयतः समेतौ यान्यम्बुवाहीनि शरीरिणां हि स्रोतःस्वपांवाहिषु दूषितेषु जायेत तृष्णाऽतिबला ततस्तु'
कुपित वात और पित्त अम्बुवाही स्रोतस को दूषित करते है।*
*अब ध्यानपूर्वक देखिये कि इस रोग के जो लक्षण रोगी में मिलते हैं उसमें सब से प्रधान वात का रूक्ष गुण विद्यमान है और पित्त भी रूक्ष है वो कैसे ?
'पित्तं हि द्विविधं- सद्रवं निर्द्रवं च। यत् सद्रवं तत् सस्नेहं, यत्तु लङ्घनादिना क्षपितार्द्रभागं निर्द्रवं तद्रूक्षं भवति, तदिह रूक्षं तेज इत्यनेन गृह्यते... अन्ये तु रूक्षे तेजो ज्वरकरं इति पठन्ति। तत्र रूक्षे इति कषायादिभी रूक्षीकृतशरीरे इति ज्ञेयं, शेषं च पूर्ववत्'
च चि 3/217
ज्वर प्रकरण में पित्त को सद्रवं और निर्द्रवं अर्थात पित्त रूक्ष भी है और स्निग्ध भी इस रूप मे वर्णित किया है उसी प्रकार यहां पित्त का निर्द्रव अर्थात रूक्ष स्वरूप 'रूक्ष पित्त' वायु के साथ मिल कर एक महाव्याधि का स्वरूप दे देता है जिसे आधुनिक समय में autoimmune disease की संज्ञा दी गई है।*
[4/7, 12:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*sjogren's रोग में अम्बुवाही स्रोतस एवं क्लेद की दुष्टि के साथ दोषगत लक्षण प्रायः इस प्रकार मिलते हैं...*
*वात- मुख, नेत्र, नासा, कर्ण, गल, त्वचा एवं योनि में शुष्कता अथवा रूक्ष्ता।*
*रूक्ष द्रव्यों को निगलने में अत्यन्त प्रयास करना या कठिनाई से ग्रहण कर पाना ।*
*वात-पित्त- रात्रि में मुख एवं गलःप्रदेश में ष्ठीवन का अभाव एवं रूक्षता जिसके कारण ऐसा प्रतीत होता है कि जिव्हा छोटी हो कर गले के अन्तः प्रदेश मे चली गई है एवं अत्यन्त तृषा से रोगी बार बार व्याकुल हो जाता है।*
*मसूढ़ों या gums में शोथ, शूल और दाह*
*हस्त-पाद, पादतल आदि में शून्यता।*
*पित्त - नेत्रों में दाह, कई रोगियों में जैसे कोई बाह्य पदार्थ नेत्रों में दाह युक्त पीड़ा कर रहा है।*
*सूर्य की रश्मियों से असहिष्णुता हो कर पृष्ठ, वक्ष, मुख और बाहु पर पीढ़िकायें उत्पन्न हो जाना।*
*कफ - अनेक रोगियों में कर्ण मूल ग्रन्थि शोथ।*
*त्रिदोषज एवं सम्मिलित लक्षण....*
*स्नायु एवं संधि गत शूल अथवा पीड़ा।*
*संधियों में किंचित शोथ एवं जाढ्यता के साथ शूल*
*अनेक रोगियोंमें यह रोग यकृत, अग्नाश्य, फुफ्फुस, त्वक् एवं वृक्कौं को भी प्रभावित कर रोगोत्पक्ति कर देता है।*
*गात्र गुरूता, शिथिलता, अंगमर्द एवं अवसाद ।*
*मुख-गल शोष से अनिद्रा।*
*पिछले अनेक वर्षों में हमने अनेक रोगों के प्रत्यात्म लक्षण की स्वयं निर्माण वहां किया जहां ग्रन्थों नही है तो sjogren's रोग का प्रत्यात्म लक्षण बनाया, 'गल अन्तः प्रदेश, नेत्र शोष युक्त मुख ष्ठीवन अभाव' । इस रोग की सब से बढ़ी विशेषता यह मिलती है कि अनेक रोगियों में आमवात +ve नहीं मिला पर किंचित संधियों में अल्प शोथ के साथ जाढ्यता एवं शूल अवश्य मिला।*
*रूग्णा/ 64 वर्षीया*
*प्रमुख लक्षण -
प्रायः मुख में ष्ठीवन का अभाव, मुख शोष, रात्रि में जिव्हा एवं गल शोष इतना अधिक कि श्वास-प्रश्वास अभाव की प्रतीति, अनिद्रा, जिव्हा आभ्यंतर भाग में cuts, शिरो भ्रम, मुख वैरस्य, नेत्रों में रूक्षता, शुष्कता, बार बार संक्रमण एवं अनेक बार अश्रु अभाव।*
*पूर्व व्याधि वृत्त -
पांच वर्ष पूर्व आमवात लक्षण पर RA FACTOR -ve होने पर भी steroids दिये गये, कभी आमवात के लक्षण बाद में संधिवात के लक्षण रह गये थे।*
[4/7, 12:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*रूग्णा आधुनिक steroids एवं अन्य 👆🏿ये औषध ले रही थी *
[4/7, 12:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*मध्यम मार्ग की व्याधि आमवात ने परिणाम स्वरूप कोष्ठगत रोग sjogren's की उत्पत्ति कर दी और व्याधि स्वभाव मुख-गल में ष्ठीवन और आर्द्रता का अभाव।*
*sjogren's रोग की सम्प्राप्ति का सूत्र इस प्रकार बनेगा,
'पित्तानिलौ प्रवृद्धौ सौम्यान्धातूंश्च शोषयतःरसवाहिनीश्च नालीर्जिह्वामूल गलतालुकक्लोम्नः... '
च चि 22/5-6
अत्यन्त कुपित पित्त और वात सोम गुण प्रधान जलीय धातुओं एवं क्लेद का शोषण कर देते है तथा जिव्हामूल, गल प्रदेश, क्लोम और तालु में स्थित रसवाहिनी नलिकाओं का शोषण करते है।*
*यहां इस रूग्णा का हेतु मिला, 'धातुक्षयगदकर्षण' च चि 25/5 अर्थात धातु क्षय और 'गदकर्षण' जिसका अर्थ है चिरकालीन रोग जो आमवात 5 वर्ष तक रूग्णा में रहा।*
*सम्प्राप्ति घटक -*
*दोष - पित्त और वात *
*दूष्य - क्लेद, रस, मांस और ओज *
*स्रोतस - उदकवाही*
*अधिष्ठान - जिव्हा, गल, तालु*
*अग्नि - विषम*
*चिकित्सा सूत्र -*
*स्पष्ट चिकित्सा सूत्र इसलिये नही बन सका क्योंकि रूग्णा steroids और HCQS पर निर्भर थी और बंद करते ही वात रोग लक्षणों की वृद्धि होती थी तथा shogren's रोग लक्षण भी साथ थे।लगभग 10 महीने modern medicine बंद कर संधिशूल की चिकित्सा करने में लगे फिर इस रोग की उभयात्मक चिकित्सा दी गई।*
*रोग की चिकित्सा का प्रथम मूल हमें मिला स्नेहन में क्योंकि यह वात और पित्त शामक तथा धातुवर्धक है विशेषकर रस और ओज वर्धक।*
*'रसैश्चोपहित: स्नेह: समास व्यासयोग्भि: षड्भिस्त्रिषष्ट्धा संख्यां प्रयोज्या प्राप्नोत्येकश्च केवल:, एवमेताश्चतु:षष्टि: स्नेहानां प्रविचारणा: ओकर्तुव्याधिपुरीषान् प्रयोज्या जानता भवेत्।
च सू 13/ 27-28
यहां पृथक पृथक और मिलाकर 6 रसों के संयोग से 63 और बिना किसी द्रव्य संयोग के अच्छपेय अर्थात केवल स्नेह पान एक और मिलाकर स्नेह की 64 प्रविचारणायें बताई गई हैं जिनका ओकसात्म्य, ऋतुसात्म्य, व्याधिसात्म्य और रोगी की प्रकृति का विचार कर के बताई गई है। स्नेह की ये प्रविचारणायें दो भागों में विभक्त कर दी गई हैं
1 - केवल स्नेहपान जिसे अच्छपेय कहा है तथा
2 - भोज्य पदार्थ जैसे ओदन(चावल), रस, यवागू, सूप, शाक, विलेपी, दूध, दही, सत्तू, मद्य, लेहादि कुल 24 प्रविचारणायें हैं।*
*पिछले अनेक वर्षों से हम रोगियों में स्नेह प्रविचारणाओं का प्रयोग बहुत कर रहे हैं जिनमें मूंग या धुली मसूर दाल का सूप, कृशरा, ओदन, शाक, सत्तू आदि प्रमुख है। दाल के सूप, कृशरा और ओदन या शाक में रोगी प्रसन्नता से स्नेह ग्रहण कर लेता।इस रूग्णा को सत्तू में मिश्री एवं घृत मिलाकर तथा अन्य आहार द्रव्यों के साथ भी अग्नि को प्राकृत अर्थात सम रख कर एवं अतियोग ना हो जाये यह ध्यान रख कर बहुत प्रयोग कराया।*
*पूर्व की व्याधियां पुनः ना उत्पन्न हो जाये यह ध्यान रखना इस व्याधि में चिकित्सक का प्रमुख कर्तव्य है।*
[4/7, 12:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*पूर्ण स्वस्थ रूग्णा अब लाला स्राव के साथ बिना किसी औषध के ...* 👇🏿
[4/7, 12:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आहार-औषध ...*
*सर्वप्रथम शतावरी घृत का प्रयोग प्रातः सांय 5-5 ml किया गया जिस से लाभ तो किंचित मिला पर आशानुरूप नही था अतः 10 दिन बाद विचार त्याग कर क्लेदक कफ की वृद्धि का निर्णय लिया गया जो गर्म दुग्ध+चावल+गौघृत से दो दिन में ही मिल गया अतः यह निश्चय हो गया कि अति शीघ्र लक्ष्य की प्राप्ति कर लेंगे।*
*प्रातः खाली पेट एक छोटा चम्मच गौघृत पात्र में डाल अग्नि में गर्म होने पर एक कप दूध मिलाकर दिया, इस रोग में स्नेहन का प्रयोग नियमित रूप से आवश्यक है।*
*चावल में दूध और मिश्री मिलाकर प्रतिदिन एक बार, यह क्लेद कारक है।*
*आरोग्यवर्धिनी 1-1 gm दो बार, रूग्णा का भ्रमण अधिक नहीं हो पाता था अतः दीपन, पाचन, अनुलोमन, भेदन, मेद की वृद्धि ना हो, पित्त का विरेचन बना रहे इस लिये इसका प्रयोग किया गया।*
*दिन में पिण्ड खर्जूर, इक्षु रस (जब fresh नही मिला तो टेट्रा पैक), जल में मिश्री-नींबूरस-मधु मिलाकर घूंट घूंट पीना।*
*छोटा लाल बेर, यह खट्टा मीठा होता है। रूग्णा के पति ने कहीं दूर से इसका भी प्रबंध करा लिया, यह तुरंत ही लाभ देता है। कभी रात्रि में तालु शोष होता था तो पिण्ड खर्जूर और छोटा लाल बेर ये दोनो थोड़ा सा सेवन करती ही पूरी रात आराम से निकाल देते थे।*
*बीच बीच में मुनक्का, फालसा, मधुयष्ठी को चूषणार्थ, अनेक बार सांय भोजन के 3 घंटे बाद सोने से पूर्व शीतल दुग्ध में रूह अफजा और थोड़ी मलाई मिलाकर सोने से पूर्व दिया गया। इस प्रकार से किया दुग्ध पान भी गले एवं तालु में कई घंटे तक क्लेद एवं आर्द्रता का शोष नही होने देता।*
*जब मौसम गर्म था तब चरकोक्त धान्याम्बु को हमने अपने तरीके से बनाने के लिये कहा, 1 tsp धनिया चूर्ण 200 ml जल मे आधा घंटा भिगो दिया फिर थोड़ी मिश्री मिलाकर mixer में चलाकर छलनी से छान लिया और मधु मिलाकर रखा। दिन में घूंट घूंट कई बार पी सकते है और दो बार भी बना सकते हैं।*
*भल्लातक क्षार लगभग 1 gm थोड़ा सा घृत और मधु मिलाकर दिन में तीन बार। सर्वाधिक लाभ हमें भल्लातक क्षार और सारिवा के चूर्ण ने दिया। कुछ वर्ष पूर्व प्रो.गिरिराज जी ने बताया था कि सारिवा में natural steroids है तब से हम इसे संधिवात, आमवात, रक्तज विकारों में आधुनिक औषध बंद कराने के लिये अपने औषध द्रव्यों के साथ भरपूर देते है।*
*इसके अतिरिक्त समय समय पर अनेक द्रव्यों का भी प्रयोग किया गया तथा क्लेदक कफ, रस एवं ओज का वर्धन, स्नेह, अम्ल एवं अल्प क्षार का प्रयोग, अग्नि साम्यता कथा वात एवं पित्त का शमन इस रोग की चिकित्सा है।*
*यह रूग्णा बहुत लंबे समय से बिना किसी औषध के भी अब पूर्ण स्वस्थ है।*
[4/7, 1:41 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*प्रणाम गुरुवर*
🙏🙏🙏
*प्रभु कृपा से आप मिले, अत्यंत वैज्ञानिक विश्लेषण*
🙏🙏🙏
[4/7, 4:13 AM] Vd. Divyesh Desai Surat:
आयुर्वेद रूपी रत्नाकर में डुबकी लगाकर आपने मोती निकाल कर हम सब को दिया है।🙏🏽🙏🏽🙏🏽
[4/7, 5:23 AM] Dr.Deepika:
सादर वंदन गुरुवर, आपका आभार व्यक्त करने के लिए शब्द
ही कम रह जाते है🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[4/7, 5:30 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏 प्रणाम गुरुवर 🙏
आप का आशिष और प्रसाद सदैव इस तरह मिलते रहे ।
[4/7, 6:56 AM] Dr.Pradeep kumar Jain:
Very nice presentation informative for us 🙏🙏🙏
[4/7, 8:17 AM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat:
No words to say
Only Genius sirji👏
[4/7, 9:59 AM] Dr.Harsh ambasana:
अत्यंत ज्ञान वर्धक, धन्यवाद गुरूजी, सादर प्रणाम🙏🏻🙏🏻💐
[4/7, 10:01 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आभार प्रो. राठी जी,
सुप्रभात - सादर नमन समस्त काय सम्प्रदाय 🌹❤️🙏*
[4/7, 10:04 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सब गुरूजनों की कृपा है जो आयुर्वेद को जानने का मार्ग प्रशस्त किया दिव्येश भाई 🌹🙏*
[4/7, 10:04 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार मनसुख भाई 🌹🙏*
[4/7, 10:07 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आभार प्रदीप जी, आयुर्वेद में रोगों के मूल का ज्ञान आवश्यक है और रोग की भी अपनी प्रकृति होती है जिसे रोग का निज स्वभाव कहते हैं, यह अब कहीं पढ़ाया नही जाता इसीलिये विस्तार से लिखा।*
[4/7, 10:09 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*जीनियस नही भद्रेश जी अत्यन्त साधारण सा वैद्य, हर रोगी कुछ नया सिखा कर जाता है और हम उस से सीख कर यहां लिख देते हैं बस 🌹🙏*
[4/7, 10:14 AM] Vd. Mohan Lal Jaiswal:
ऊँ
सादर अभिवादन वैद्यवर जी सहित समस्त गुरुदेव जी व समान्नित सदस्यगण।🚩👏
[4/7, 10:15 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आयुर्वेद को पढ़ना, श्रवण करना, चिकित्सा में औषध देना और कुछ बातें व्यवहारिक जीवन में उतारना आदि सब भिन्न है। सब से प्रमुख है हर पल, हर सांस और चिंतन के साथ आयुर्वेद को जीना कि मैं कुछ नही केवल आयुर्वेद हूं, सदैव था और रहूंगा.. नित्य और शाश्वत, तो कुछ अलग feel करेंगे और अलग ही हो जायेंगे ... ❤️🙏*
[4/7, 10:16 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सादर सस्नेह नमन आदरणीय आचार्य मोहन लाल जी 🌹🙏*
[4/7, 10:22 AM] Dr.Pradeep kumar Jain:
गुरुजी आप बहुत बड़े एवम हमारे लिए आदर्श हो
हमे आपके ज्ञान की नितांत आवश्यकता है 🙏🙏🙏🙏
[4/7, 10:51 AM] Prof. Vd. Prakash Kabra Sir:
सुंदर !
[4/7, 11:37 AM] Dr. Balraj Singh:
Gurudev pranam. Aapse bhut learn krte h.wheat allergy ko Ayurvedic ke anusar kaise smjhe &treat kre.Pl guide🙏🏻
[4/7, 11:58 AM] Dr. Vandana Vats Patiyala:
🙏🙏
चरण वंदन गुरुवर
कोटि कोटि धन्यवाद, आयुर्वेद को आत्म सम्यक् कर समझना और हम शिष्यों को सरल स्वरूप में सिखाने के लिए आपका परिश्रम अद्भुत है, गुरु देव!!
नमन🙏🌷🙏
[4/7, 12:03 PM] Dr. Vandana Vats Patiyala:
🙏
सर यह जो क्लेदकारक आहार के संयोग tips, आपने बताए, निश्चित रूप से बहुत उपयोगी है
🙏
[4/7, 12:15 PM] Dr. Vandana Vats Patiyala:
सर, अक्षि रूक्षम् में अक्षि तर्पणार्थ त्रिफला घृत का प्रयोग काजल की तरह लगाकर किया जा सकता है। क्या मधुमिश्रत दुग्ध का प्रयोग किया जा सकता है?
अकेला मधु आंखो में बहुत लगता है।
[4/7, 12:51 PM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat:
I suggested to kept temarind (imli) to kept near mouth for every hour to induce salivation.
[4/7, 12:53 PM] Dr. Vandana Vats Patiyala:
*चक्षुष्यं*
*नानाद्रव्यात्मकत्वाच्च योगवाहिपरं मधु*
🙏
[4/7, 1:11 PM] आयुर्वेद:
शत शत नमन गुरुश्रेष्ठ
आप एक शास्त्र लिखे अब जरूरी होगया है l
[4/7, 1:19 PM] वैद्य मृत्युंजय त्रिपाठी उत्तर प्रदेश:
प्रणाम गुरु जी 🙏🙏
[4/7, 6:39 PM] Dr. Ramesh Kumar Pandey:
गुरुवर सादर प्रणाम 👏👏
इस अनुक्त व्याधि का संपूर्ण रुप से विवेचन करते हुए उसकी सफल चिकित्सा बताकर आपने हम सब पर अनुग्रह किया है।
आपको शत शत शत नमन
👏👏
[4/7, 8:22 PM] Dr. Pawan Madan:
प्रणाम व चरण स्पर्श गुरु जी।
इस अनुक्त व्याधि के संदर्भ में आपने बहुत ही महत्वपूर्ण सिधान्तो की तरफ ध्यानाकर्षण करवा दिया।
किसी भी अनुक्त व्याधि का चिकित्सा सूत्र बनाने के लिये उस के हेतू तक जाना अत्यंत आवश्यक है।
❤️
[4/7, 8:28 PM] Dr. Pawan Madan:
जी गुरु जी
चरक सूत्र 24/16 बहुत ही महत्वपूर्ण है।
शोणित आश्रय रोग यदि उचित रूपेण व्यवाअर में आ जाए तो बहुत से वात विकारो की चिकित्सा हो पायेगी।
🙏🙏
[4/7, 8:34 PM] Dr. Pawan Madan:
गुरु जी
SS के लगभग सभी केसों में RA factor negative ही रह्ता है।
In many cases, there are sym of arthritis but in many there are also no joint pains.
Different SS patients present in different ways and we need to think of the different samprapti in each case.
🙏🙏🙏
[4/7, 8:43 PM] Dr. Pawan Madan:
जी
भल्लातक क्षार ने सम्प्राप्ति भंग करने में विशेष सहायता दी होगी।
आहार व अन्य क्लेद कारक द्रव्य कुछ समय के लिये तो प्रभाव दिखाते हैं पर जो दोष दूष्य सम्मूर्च्छनाजन्य धातु दुश्टि हो जाति है, उसको reverse करने पर ही अपुनर्भव प्रभाव लिया जा सका।
बहुत बहुत धन्यवाद गुरु जी।
आपका मार्गदर्शन ने कई रहस्य खोल दियें
🙏🙏❤️❤️🙏❤️🙏🙏
[4/7, 8:47 PM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat:
Bhallatak ushna and tixna vyavai vikshi hone ke BD used Krna kya soch rkhna chahiye
Pitt ushna gun km hone ke Bad use karna chahiye?
Guruji krupya margdarshan kre👏
[4/7, 8:50 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आदरणीय खाण्डल सर जब भी मेरे यहां आते हैं तो लगता है साक्षात आयुर्वेद ऋषि सामने बैठे हैं और उन से जो ज्ञान मिलता है वह अलौकिक है।* 🌹🙏
[4/7, 8:52 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अगर जामनगर में गुरूजनों से ज्ञान नही मिल पाता तो हम आयुर्वेद के मूल और सार तत्व से वंचित ही रह जाते, आज वही काम आ रहा है काबरा भाई 🌹🙏*
[4/7, 8:53 PM] Dr. Pawan Madan:
भल्लातक क्षार, क्युंकि क्षार बन गया है, इसिलिए शायद पित्त वृधि नही करेगा, बल्कि धातुगत आम विष को समाप्त करने का काम करेगा
ऐसा मुझे लगता है
गुरु जी ही राह दिखाएँगे।
🙏🙏🙏
[4/7, 8:55 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*wheat allergy को आयुर्वेद में कैसे और किस रोग में समझें तो यह with evidence case presentations के रूप में चिकित्सा और सम्प्राप्ति सहित प्रयास करेगे कि आज या कल देर रात्रि लिख देंगें।*
*
[4/7, 8:58 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*organic मधु कश्मीर से मंगा कर प्रयोग करें वंदना जी, नेत्रों में कम लगेगा। त्रिफला घृत हम नेत्रों में प्रयोग नही करते उसके बदले असली गुलाब अर्क जो गुलाब सिंह जैहरी मल, दरीबा कला, चांदनी चैक दिल्ली से मिलेगा प्रयोग कर के देखिये। रेट शायद 100 ml 300/ के करीब है पर है pure।*
[4/7, 9:00 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*थोड़ी मात्रा को ठीक है भद्रेश जी पर अधिक मात्रा hypertension के रोगियों में देने से बचें।*
[4/7, 9:01 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
👌👌👌 *एकदम सही*
पवन जी !
[4/7, 9:04 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*ऋतराज जी मैं तो clinician हूं और पूरा दिन रोगियों में व्यतीत होता है, जो भी लेखन है वे केवल किसी तरह समय निकाल कर काय सम्प्रदाय के सदस्यों के ज्ञानवर्धन हेतु है। मैने तो किसी मंच पर हाथ में माईक ले कर कभी कुछ बोलने का साहस भी नही किया शास्त्र तो कहां लिख पायेंगे. बहुत साधारण सा वैद्य हूं और आप सब का प्यार मिलता है यही सर्वोत्तम है।* ❤️🙏
[4/7, 9:06 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सब ईश्वर कृपा है, वो ही माध्यम बना कर यह कार्य करा रहा है 🌻🙏*
[4/7, 9:11 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*कई वर्षों के गहन अध्ययन और कार्य के बाद अनेक सिद्धान्त स्पष्ट हुये कि हर व्याधि का भी अपना स्वभाव है, प्रत्येक व्याधि का प्रत्यात्म लिंग है पर उनमें से अनेक का जो ग्रन्थों नही में लिखा तो नही पर है और उसे सामने लाओ तो, हर व्याधि का एक मार्ग है आदि आदि । यह सब स्पष्ट होते ही निदान और चिकित्सा सरल बन गई और अनुक्त व्याधियां भी साधारण रूप से समझ आने लगी।*
[4/7, 9:11 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*जिसने यह जान लिया वो अनेक रोगों का विशेषज्ञ बन सकता है पवन जी 👍*
*आपका कथन पूर्णतः सही है पवन भाई 👌👌👌*
*भल्लातक क्षार इस रोग में मास्टर स्ट्रोक है।*
[4/7, 9:22 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*भद्रेश जी यह भल्लातक क्षार अन्य क्षारों की तरह तीक्ष्ण नही है और नारिकेल लवण की तरह अन्तर्धूम विधि से बनता है तथा इसमें अन्य द्रव्य भी हैं।*
[4/7, 9:23 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*भल्लातक क्षार - *
*भल्लातकं त्रिकटुकं त्रिफलां लवणत्रयम् अन्तर्धूमं द्विपलिकं गोपुरीषाग्निना दहेत् स क्षारः सर्पिषा पीतो भोज्ये वाऽप्यवचूर्णितः य हृत्पाण्डुग्रहणीदोषगुल्मोदावर्तशूलनुत्'
च चि 15/177-178 *
[4/7, 9:24 PM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat:
👏
[4/7, 9:25 PM] Dr. Pawan Madan:
जी गुरु जी
पिछले 25 सालों मे ये ही पाया है।
🙏
[4/7, 9:26 PM] Dr. Pawan Madan:
🙏
[4/7, 9:26 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*इसमे त्रिफला भी है और मधु घृत के साथ मिलाकर 1-1 gm ही दिया गया था, जिस दिन बन कर आया था हमने बिना हाथ में रख कर 3 gm नमक की तरह चाटा था और जलने बाद इसमे तैल नही और अधिक तीक्ष्णता भी नही।*
[4/7, 9:28 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*हमारे आदरणीय प्रो. लक्ष्मीकान्त द्विवेदी जी ने इसे मसि संज्ञा प्रदान की थी 👌🙏*
[4/7, 9:41 PM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:
नारिकेल क्षार/नारिकेल लवण दोनो ही लिखा है, बाजार में दोनो ही उपलब्ध है।।
चरक संहिता में, भस्म को क्षार कहते हैं।
कृष्ण वर्ण हो तो मषी संज्ञा देते हैं। सुश्रुत संहिता में आचार्य डह्लण ने, कृष्ण सर्प का उद्धरण देकर समझा या है। अस्तु *भल्लातक लवण/क्षार*, दोनों कल्पों का सापेक्ष तुलनात्मक, अध्ययन की अपेक्षा है। *नारिकेल क्षार/लवण* की तरह।
[4/7, 9:49 PM] Vd. Mohan Lal Jaiswal:
ऊँ
सादर प्रणाम वैद्यवर जी
भल्लातकक्षार की फलश्रुति बहुअंशों में यवक्षार से साम्य रखता है।
हृद् पाण्डुग्रहणीरोग प्लीहानाह गलग्रहान्.... आदि यावशूको व्यपोहति के रुप में चरकोक्त है।
अतः आप जिन रुग्णों में भल्लातकाक्षार के प्रति असह्यता हो उनमें वास्तविक यवक्षार प्रयोग घृतमधु अनुपान से कर परीक्षण देखें जो शुद्ध यवक्षार सतीश जैमिनी जी द्वारा निर्मित या गुरुदेव गौड सर जी की फार्मेसी में प्रामाणिक रुप से उत्पादित है।
अधिकांश बाजार में तो अन्य स्रोत से उत्पादित यवक्षार है जो उतना श्रेयस्कर नहीं है।
[4/7, 11:03 PM] Prof. Madhava Diggavi Sir:
We could understand many classical based scientific ayurveda clinical practice in this presentation sir. Dhanyawad. Many of these presentations are drug induced disorders. Especially blockers. Anukta vyadhi vijnaaneyam is best explained here sir. In samprapti, garavisha are causing annavaha ambuvaha srotomoola dushti. When exactly Dosha turn the process into autoimmune depends upon nidana _ dosha_ dushya interaction. Vikaravighatabhaavabhava has a role to play in autoimmunity. By reading your presentation every one will understand scientifically sir. Bhallataka madhura, kaphaprasadaka, rasayanam. Its excellent samhita based clinical practice. Dhanyawad sir !
[4/7, 11:21 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमो नमः 🌹🙏*
*अत्यन्त आभार वैद्यवर माधव जी 🌹🙏 आपने जिस प्रकार मेरे लेखन की गूढ़ता एवं सिद्धान्तो को समझा उस से मेरा परिश्रम सफल हो गया क्योंकि इस पोस्ट में मैं आयुर्वेद के ऐसे अनेक सिद्धान्तों को भी स्पष्ट कर के चला हूं जो अभी तक अप्रकाट्य थे।*
[4/8, 12:03 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*sjogren's का और स्वरूप भी है जिसमें स्रोतस के संग दुष्टि में कारण आमदोष है इसे आमजन्य तालु शोष मान कर चलिये। इसमें भी एक प्रकार की तृष्णा में वात-पित्त का संसर्ग होता है यह आमदोष के कारण उत्पन्न होती है तथा आग्नेय संज्ञक है जिसके कारण आर्द्रता और क्लेद सहित उदकवाही स्रोतस को दूषित कर उदक का शोषण करती है,
'तृष्णा याऽऽमप्रभवा साऽप्याग्नेयाऽऽम पित्तजनितत्वात् लिंगं तस्याश्चारुचि राध्मानकफप्रसेकौ च'
च चि 22/15
इसमें अरूचि, आध्मान आदि लक्षण मिलते हैं। जब अन्न रस का पाक पूर्ण नही होगा तो आम स्रोतस का संग दोष उत्पन्न करती है जिस से शरीर में तर्पण भली प्रकार ना हो कर वात और पित्त कुपित हो कर क्लेद का शोषण कर के गल-तालु में शुष्कता उत्पन्न करेंगे। यह एक त्रिदोषज स्थिति है।*
[4/8, 12:56 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आपका मार्ग सही है दीपिका जी, इसी प्रकार आयुर्वेद के पथ पर चल कर सफलता प्राप्त करते रहें 👏👌👍*
[4/8, 12:58 AM] Dr. Rajeshwar Chopde:
Gurujii Pranaam swikar kare.. Good night !
[4/8, 1:02 AM] डॉ ऋतुराज वर्मा :
आमज तृष्णा !
[4/8, 1:03 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सप्रेम नमन आचार्य राजेश्वर जी ।* 🌹🙏
[4/8, 1:03 AM] डॉ ऋतुराज वर्मा :
यही तो समझना हैं गुरूवर !
[4/8, 1:05 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आमज तृष्णा का ही यह स्वरूप है प्रभु, आमज तृष्णा में लालास्राव कहा है पर रूग्णा का पहला चित्र देखिये जिव्हा साम थी, तालु-गल शोष हो कर तृष्णा थी पर लाला स्राव नही था, आमज तृष्णा में रोगी में लालास्राव हो ही यह आवश्यक नही।*
डॉ ऋतुराज वर्मा जी !
*सुश्रुत ने कफज तृष्णा भी बताई है और इसी के सदृश ।*
*शास्त्र में लिखे रोगों के सभी हेतु रोगी में मिले या सभी लिखे लक्षण रोगी में मिले यह आवश्यक नही।*
[4/8, 7:49 AM] Dr. Pawan Madan:
प्रणाम गुरु जी।
SS में आम दोष व गर विष का अत्यंत महत्व पूर्ण role है। इसिलिए भल्लतक क्षार यहां important काम किया।
🙏🙏
[4/9, 8:42 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*भल्लातक ऐसे कई कार्य कर देता है जो सोच भी नहीं सकते, यह रोपण कर्म भी अतिशीघ्रता से करता है और सब से बढ़ा लाभ इसका रसायन कर्म है जो साथ ही साथ चलता रहता है।*
[4/11, 6:15 AM] Dr.Deepika:
गुरु जी सादर प्रणाम,आज कुछ concentration के साथ इस post ko पढ़ने पर एक प्रश्न बार बार मन में आ रहा है, आपने लिखा की इस रुग्ण को १०माह तक संधि शूल की चिकित्सा दी, वो steroids और एचसीक्यू पर निर्भर थी क्योंकि इस रोग के बाकी लक्षण वात पित्त के हैं, रूक्ष पित्त और वात ने शोषण किया है, फिर संधि वात की चिकित्सा में आम पाचन आदि करते समय पित्त वृद्धि से इन लक्षणों की वृद्धि का भी भय रहा होगा, ऐसी परिस्थिति में कैसे संधि वात को मैनेज किया होगा, ये
जानने की इच्छा है?🙏🙏🙏
[4/11, 9:12 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*दीपिका जी, सभी व्याधियां त्रिदोषज होती है बस किसी एक या दो दोष की उल्वणता होने पर उनको उसी अनुरूप संज्ञा दे दी जाती है।*
*लक्षण और चिकित्सा में यह देखा जाता है कि कहां दोष की वृद्धि हुई और कहां क्षय ? यह दोषों के कर्म से जाना जाता है। त्रिदोष के मिश्रित कर्मों को समझने का प्रयास करे।*
*1- दोष हरण*
*2- दोष वर्धन*
*3- दोष जनन*
*4- दोषध्न *
*5- दोष क्षय करण *
*6- दोष शमन *
*7- दोष विशोधन *
*8- दोष प्रशमन*
*9- दोष मार्दव करण*
*10- दोष पाचन*
*11- दोष विष्ययंदन*
*12- दोष अनुलोमन *
*13- दोष विरेचन *
*14- दोष रेचन*
*15- दोष उत्क्लेशन आदि *
*चिकित्सा में यह concept सदैव मस्तिष्क में रहना चाहिये कि हमें इनमें से किस किस का चयन करना है।*
*अगर कफ की उल्वणता या क्षय है तब क्या करेंगे ? चयन इस प्रकार करेंगे...*
*कफ वर्धन*
*कफ शमन*
*कफ का कोपन*
*विष्यनंदन*
*कफ हनन*
*कर्षण*
*क्लेदन*
*शोषण*
*कफज व्याधि हर*
*अनुलोमन*
*विरेचन*
*विलयन*
*निरोधन*
*विच्छेदी करण*
*संग्राहण*
*प्रसेक आदि *
*इसी प्रकार वात के प्राकृत कर्मों से हम एक कर्मों की श्रंखला बना कर चलते हैं जो क्षय-वृद्धि सिद्धान्त अनुसार बनती है। यदि स्वयं ना बना सके तो लिख दीजिये।*
*त्रिदोषज, द्वन्दज या चिकित्सा में धातु साम्यता ही प्रमुख उद्देश्य होता है।*
[4/11, 9:13 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुप्रभात- सादर नमन समस्त काय सम्प्रदाय 🌹🙏*
[4/11, 9:20 AM] Dr. Balraj Singh:
Gurudev pernam. From where we can read these definitions. Pl guide 🙏🏻
[4/11, 9:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*हम सदैव कहते हैं कि आप सीधे संहिता ग्रन्थ पढ़े बृहद्त्रयी और लघुत्रयी उनमे इन से भी अधिक बहुत कुछ मिलेगा। जैसे आधुनिक चिकित्सा मे radio-therapy, chemo-therapy, immuno-therapy आदि आ गई है। इनसे दोषों के कर्मों मे किस प्रकार वृद्धि-क्षय होगा और उनका नामकरण क्या होगा ? यह सब भी आप शास्त्रों से निकाल कर अपना सकते हैं क्योंकि आयुर्वेद मे इनके नाम में ही कर्म और चिकित्सा भी छिपी है।*
[4/11, 9:28 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*इस प्रकार के नामों की व्याख्यायें शिवदास सेन, चक्रपाणि, अरूणदत्त और डल्हण और अब प्रो. बनवारी लाल गौड़ सर आदि आचार्यों ने की हैं।*
*ग्रन्थ पढ़े तो सब मिलेगा*
[4/11, 9:29 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ):
अष्टांग ह्रदय सूत्र स्थान। एहिलौकिक व परलौकिक दोनों सुख प्राप्त कीजिए आयुर्वेद को परम धर्म मानकर।
[4/11, 9:29 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*पढ़ने से अधिक इनको समझना है।*
[4/11, 9:33 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ):
🙏जी गुरूवर समझने हेतु भी श्रद्धा व पात्रता दोनों चाहिए होगी।
[4/11, 9:33 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*चरक सू 28/7 में चक्रपाणि टीका देखे, 'व्याध्युत्पादप्रतिबन्धकत्वमिति' यावत्। व्याधि उत्पाद प्रतिबंधक- इसे समझें इसमे आधुनिक कालीन चिकित्सा का संसार है।*
[4/11, 9:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*इस भाव को तीनो दोषों की व्याधियों पर लागू कर के देखिये, कुछ नवीन मिलेगा।*
[4/11, 9:35 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
रोग और रोगी में दोषों की द्रव्यत:, गुणत: और कर्मत: स्थिति को अगर हम समझ लें तो उपरोक्त चिकित्सा-उद्देश्यों को यथावश्यक उपक्रम और औषधि का प्रयोग कर के आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।
[4/11, 9:36 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏 प्रणाम गुरुवर
यह तो immunity हो गई।
[4/11, 9:42 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आधुनिक immunotherapy सब को सात्म्य नही होती जो कैंसर मे दी जाती है, भल्लातक रसायन भी नही देनी चाहिये यही तो बता रहे हैं ।*
****************************************************************************************************************************************************************************************************************************
Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday (Discussion)' a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.****************************************************************************************************************************************************************
Presented by-
Vaidyaraja Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by-
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by-
Dr. Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
P.G. Dept of Kayachikitsa
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, Gujarat, India.
Email: kayachikitsagau@gmail.com
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