WDS103: लीन दोष भाग-२ (Leen-dosha, Part-2) by Vaidyaraja Subhash Sharma, Prof. L. K. Dwivedi, Dr. Dinesh Katoch, Prof. Arun Rathi, Dr. Pawan Madaan, Dr. Sanjay Chajed, Vd. Atul Kale, Vd. Vd. Akash Changole, Vd. Vandana Vats, Vd. Shailendra Mehata & others
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*लीन दोष -भाग 2....
लीन दोष की व्याख्या और clinical presentations -
Liver Cirrhosis- Liver Fibrosis एवं अनेक रोगों के साथ*
*वैद्यराज सुभाष शर्मा, एम.डी.(आयुर्वेद-जामनगर,गुजरात -1985)*
*'स्वल्पं यदा दोषविबद्धमामं लीनं न तेजःपथमावृणोति|
भवत्यजीर्णेऽपि तदा बुभुक्षा सा मन्दबुद्धिं विषवन्निहन्ति'
सु सू 46/513, अर्थात वात, पित्तादि से बद्ध हुआ किंचित सा भी आम लीन हो कर (यहां दोष अल्प हैं, विबद्ध हैं और आम के साथ लीन हैं) भी पित्त के मार्ग को नहीं रोक पाता तब अजीर्ण होने पर भी क्षुधा की प्रतीती होती है और वह मिथ्या क्षुधा भोजन करने से उस मंदबुद्धि मनुष्य के प्राणों का हरण कर लेती है।*
*आचार्य सुश्रुत के इसी प्रकरण को ध्यान में रख कर आरोग्य मंजरी में आचार्य नागार्जुन ने एक बहुत ही श्रेष्ठ उदाहरण रसशेषाजीर्ण का दिया है कि भोजन के पश्चात जब अजीर्णावस्था से मनुष्य बाहर आ गया और शुद्ध उद्गार भी आ गई पर फिर भी मनुष्य आगामी भोजन काल में भोजन करने की इच्छा नहीं है, किसी आहार में कोई रूचि नहीं है, मुख में श्लेष्मा या चिकनाई सी प्रतीत होती है, सन्धियों में पीड़ा सी प्रतीत होती है और शिर में गुरूता अथवा भारीपन बना रहता है तो यह रसाजीर्ण की मंदावस्था है।*
*रसाजीर्ण जब जब बढ़ जाता है तो ह्रल्लास, उत्क्लेश, ज्वर, मूर्च्छा आदि अनेक उपद्रवों को करता है।यहां मंदरसाजीर्ण और तीव्ररसाजीर्ण दो प्रकार अवस्थायें आचार्यों ने स्पष्ट की है।*
*आचार्य चरक ने चिकित्सा स्थान के अध्याय 15 ग्रहणी अधिकार 15/45-46 में 'घोरमन्नविषन्च' को इस प्रकार कहा है,
'तस्य लिङ्गमजीर्णस्य विष्टम्भः सदनं तथा । शिरसो रुक् च मूर्च्छा च भ्रमः पृष्ठकटिग्रहः जृम्भाऽङ्गमर्दस्तृष्णा च ज्वरश्छर्दिः प्रवाहणम्*
*अरोचकोऽविपाकश्च, घोरमन्नविषं च तत्' इस को आचार्य चक्रपाणि स्पष्ट करते हैं कि
'घोरमन्नविषं च तत् पित्तेन संसृज्यमानमित्यादिना पित्तादिदुष्टस्याजीर्णस्य लक्षणमाह। एतच्च पित्तादिसंसर्गकृतं लक्षणम्, अजीर्णस्य कोष्ठमात्रगतत्वेन यक्ष्मादिविकारकरणेऽसामर्थ्योपलब्धेः। अम्लपित्तं चेति अम्लगुणोद्रिक्तं पित्तम्। अस्य तन्त्रान्तरे लक्षणमुक्तं- अविपाकक्लमोत्क्लेदतिक्ताम्लोद्गारगौरवैः। हृत्कण्ठदाहारुचिभिश्चाम्लपित्तं विनिर्दिशेत् इति यक्ष्मण स्त्रिदोषजत्वेऽपि स्रोतोऽवरोधे कफव्यापारप्राधान्यादिह कफजत्वमुक्तम्। कि-धातुयोगेन रसशेषान्नस्य गदानाह- मूत्ररोगांश्चेत्यादि। रसादिजानित्यत्र ये रसादिजा अरुच्यादय उक्तास्ते भवन्तीति ज्ञेयम्'
अर्थात् यह अन्नविष अजीर्ण है जो रसशेषाजीर्ण है तथा पित्तादि दोष से मिश्रित है।*
*यह सब लिखने का तात्पर्य यही है कि साधारणतया अनेक रोगियों में है आमाजीर्ण, विदग्धाजीर्ण और विष्टब्धाजीर्ण तक ही सीमित हैं पर वास्तविक दृष्टिकोण से देखें तो रोगी प्रायः यही लक्षण ले कर आ रहे हैं जो घोर अन्न विष के साथ हमें clinical practice में मिलते हैं, पुनः पुनः रोगी लाक्षणिक लाभ ले कर फिर से आ जाता है और पूरा जीवन चिकित्सक बदल कर औषधियों का सेवन करता रहता है।*
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*यहां पित्त को भी इस प्रकार प्रधानता दी गई है कि पित्त के साथ संयुक्त हुआ भयंकर अन्नविष अनेक पित्त जन्य रोगों को उत्पन्न करता है जैसे अविपाक,क्लम अर्थात थकान, शरीर में गुरूता, अरूचि एवं अम्लपित्तादि (चरक पर एषणा व्याख्या पृष्ठ 122, प्रो.बनवारी लाल गौड़ जी)।*
*अधिकतर रोगियों में कोई आपातकालीन स्थिति नहीं आ रही पर दोष अल्प हैं, लीन है और रोगी जो बाहर से स्वस्थ प्रतीत हो रहा है वह स्वाथ्य मिथ्या या एक भ्रामक स्थिति है जो अनेक बार investigations कराने पर स्पष्ट रूप से बाहर आ जाती है।*
*रस शेषाजीर्ण की मंद और तीव्र दोनों अवस्थाओं में रोगों एवं रोगियों का विशाल संसार मिलेगा जो दिन प्रतिदिन हम देखते हैं पर उनका भली प्रकार diagnosis ही नहीं कर पाते क्योंकि दोष प्रायः लीन,अल्प बली रहते है एवं अवसर मिलने पर बली हो कर लक्षण प्रकट करते हैं और पुनः अल्प बल में आ जाते हैं।*
*अब एक जिज्ञासा कि दोषों का संचय कहां होगा ? तो वह अपने अपने निज स्थानों पर कोष्ठ में इस प्रकार होगा जैसे आमाशय में कफ का, ग्रहणी में पित्त का और पक्वाशय में वात का।*
*सभी रोग मंदाग्नि से होते है, मंदाग्नि से अग्निमांद्य और अग्निमांद्य से आम ने कोष्ठ और सभी सूक्ष्म स्रोतस में तो स्रोतोरोध कर दिया तो अब प्रकोप एवं प्रसर कैसे होगा ? स्रोतोवरोध होने पर तो दोष अपने चय स्थान से बाहर ही नही निकल पायेंगे तो अब दोषों की गति कैसे होगी ?*
*संचय होने के बाद चय स्थान पर ही दोषों की वृद्धि होने लगी इस वृद्धि को ही प्रकोप कहते हैं जैसे दिन में आपने chinese food का सेवन किया को पित्त की वृद्धि हुई जिस से अम्लोद्गार आने लगी, अगर आमाश्य में कफ का चय हो कर वृद्धि या प्रकोप हुआ तो इसका कारण दोपहर में जो आपने छोले-भठूरे सेवन किये थे तो उनके कारण रात्रि के भोजन से अरूचि होने लगेगी, यहां दोष स्वः स्थान पर ही चय और प्रकोप के लक्षण प्रकट करने लगेंगे और यहीं पर इस प्रकोप की अवस्था में अर्थात दोषों की वृद्धि की अवस्था में आहार विहार से उत्पन्न आम आमविष में परिवर्तित होने लगता है।
अजीर्ण की सम्प्राप्ति ......
'अपच्यमानं शुक्तत्वं यात्यन्नं विषरूपणात्'
च चि 15/44
अर्थात वह अपक्व अन्न अम्लता को प्राप्त हो कर विष का रूप धारण कर लेता है और जब यह आम विष रस, रक्त, मांस, मेदादि धातुओं से युक्त होता है तो उन उन से संबंधित रोगों को पैदा कर देता है।*
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*दोष की लीन संज्ञा उनका दुष्ट होना भी कहा है। दुष्ट दुष्+क्तः से बना है जिसकी संज्ञायें कुष्ठ(शब्द कल्पद्रुम), दुर्बल, अधम, सदोष, निकम्मा, अपराधी, बदमाश, भ्रष्ट, दूषित, कलुषित, उल्लंघन करने वाला, बिगड़ा हुआ, क्षतिग्रस्त और दागदार है।*
*संक्षेप में लीन दोष अन्य दोषावस्थाओं की भांति साधारण चिकित्सा उपायों या साधनों से ना तो समझ आयेगा और ना ही शरीर से मुक्त होता तथा यह बिना सामने आये शरीर को समय समय पर अपने क्षेत्रानुसार रोग ग्रस्त करता रहेगा। वर्तमान समय में अनेक ऐसे रोग प्रत्यक्ष है जिनमें दोष लीन है, रोगी बाहर से स्वस्थ प्रतीत हो रहा है पर भीतर से है नहीं और अकस्मात ही एक गंभीर अवस्था में पुरूष को ला खड़ा करता है जैसे एक लीनदोषावस्था LIVER FIBROSIS भी है।*
*यकृत्-तन्तुरोगः यकृत्-उपरि क्षत-जन्यः रोगः अस्ति । एषा विशिष्टा स्थितिः नास्ति, अपितु अन्यस्य कस्यापि यकृतसमस्यायाः लक्षणम् अस्ति । यकृत्-तन्तुरोगः एव किमपि लक्षणं न जनयति । चिकित्सा अन्तर्निहितकारणस्य चिकित्सायाः उपरि निर्भरं भवति ।अचिकित्सितं कृत्वा रेशेः, सिरोसिसः च यकृत्-विफलतां जनयितुं शक्नुवन्ति । नियमितरूपेण चिकित्सासेवा, रक्तपरीक्षा च भवतः यकृत्-कार्य्ये परिवर्तनं गम्भीरं भवितुं पूर्वं ज्ञातुं साहाय्यं कर्तुं शक्नोति ।*
*अर्थात लिवर फ़ाइब्रोसिस यकृत के क्षतिग्रस्त होने की अवस्था है। यह कोई विशिष्ट स्थिति नहीं है बल्कि यकृत की किसी अन्य समस्या का लक्षण है यहां दोष लीन है पर दुष्ट हैं। जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं मंदरसाजीर्ण और तीव्र रसाजीर्ण और आमविष, यह प्रक्रिया भीतर ही भीतर किस प्रकार चल रही है इस रोग का प्रत्यक्ष उदाहरण है। लिवर फ़ाइब्रोसिस स्वयं कोई लक्षण उत्पन्न नहीं करता है पर उपचार अंतर्निहित कारण के उपचार पर निर्भर करता है। यदि इस अवस्था में उपचार ना किया जाये तो फाइब्रोसिस और सिरोसिस से यकृत की कार्य क्षमता असफल हो सकती है ।*
*नियमित चिकित्सा, रोगी की भली प्रकार देखभाल और रक्त परीक्षण गंभीर होने से पहले यकृत की कार्यप्रणाली में बदलाव का पता लगाने में मदद कर सकते हैं। यकृत रक्तवाही स्रोतस का मूल है और पित्त और रक्त के समानगुणधर्मी होने से रक्त की दुष्टि का प्रभाव भ्राजक पित्त पर होने से यकृत में फाईब्रोसिस होने पर त्वचा पर भी इसके लक्षण दिखने लगते हैं*
*साधारणतः LFT और USG से निदान नहीं हो पाता क्योंकि इनकी reports प्रायः normal मिलती है पर लीन दोषावस्था का ज्ञान liver fibroscan से हो पाता है।*
*यकृत्-तन्तुविकारः तदा भवति यदा यकृत् रोगग्रस्तः भवति । यतो हि यकृत् नूतनानां कोशिकानां निर्माणेन स्वस्य मरम्मतं कर्तुं प्रयतते, तस्मात् तत् कर्तुं न शक्नोति । अपि तु मृतयकृतकोशिकानां स्थाने तन्तुयुक्तं दाग ऊतकं भवति । एतत् दाग ऊतकं अन्ते यकृत् सामान्यरूपेण कार्यं कर्तुं न शक्नोति'।*
*लिवर फाइब्रोसिस तब होता है जब यकृत रोगग्रस्त होता है। क्योंकि यकृत नई कोशिकाएँ बनाकर स्वयं को ठीक करने की कोशिश करता है और वह ऐसा करने में सक्षम नहीं होता है। इसके बदले रेशेदार निशान tissues मृत यकृत कोशिकाओं की जगह ले लेते है। यह निशान अंततः यकृत को सामान्य रूप से कार्य करने से रोकते है।*
*यकृत् रेशेः मृदुमध्यमपदे न ज्ञातुं शक्यते । अस्य लक्षणं विलम्बेन दृश्यते।दुर्बलतायाः भावः यकृत्रोगस्य प्रारम्भिकलक्षणेषु अन्यतमम् अस्ति । एतदतिरिक्तं नेत्रयोः पीतत्वं, उदरस्य वेदना, शोफः, वमनं, त्वचायां अतिशयेन कण्डूः, भूखस्य न्यूनता, चिन्तनस्य निर्णयस्य च क्षमतायाः न्यूनता, आकस्मिकं शारीरभारस न्यूनीकरणं च इत्यादीनि समस्याः भवितुम् अर्हन्ति।*
*लिवर फाइब्रोसिस का पता माइल्ड या मॉडरेट स्टेज पर नहीं लग पाता। इसके लक्षण देर से नजर आते हैं। सामान्यतः दौर्बल्य अनुभव होना इस अवस्था के आरंभिक लक्षणों में से एक है।*
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अधिकतर रोगी ऐसे मिलते है जिनमें सब कुछ ठीक रहता है पर शरीर थका सा प्रतीत होना और कुछ ना खाने की इच्छा ही प्रायः रहती है जो समामान्यतः अनेक मनुष्यों में एक साधारण लक्षण है।*
*इसके अतिरिक्त बीच बीच में लीन दोष किंचित कुपित हो कर नेत्रों का पीत या पीतावभासता, उदर शूल और शोथ होना, उत्क्लेश अथवा छर्दि, त्वचा में अधिक कंडू होना, क्षुधा का अल्प हो जाना,चिंतन अथवा सोचने और निर्णय लेने की क्षमता में कमी और अचानक शरीर का वजन (body wt.) कम होने के लक्षण करने लगते है।*
*आनुवंशिककारणानां, संक्रमणस्य, अत्यधिकमद्यस्य धूम्रपानस्य च सेवनस्य, मधुमेहस्य, अतिभारस्य च कारणेन यकृत्रोगस्य समस्याः भवितुम् अर्हन्ति । यकृत् रेशेः रोगस्य सर्वाधिकं सामान्यं कारणं गैर-मद्ययुक्तं वसायुक्तं यकृत् रोगः (NAFLD) अस्ति । एतदतिरिक्तं मद्ययुक्तयकृत्रोगः, दीर्घकालं यावत् मद्यस्य प्रयोगः, स्वप्रतिरक्षा यकृतशोथः, अतिरिक्तं लोहः, वायरल् यकृतशोथः बी, सी च इत्येतयोः कारणेन यकृत् रेशेः समस्या भवितुम् अर्हति।*
*अर्थात अनुवांशिक कारणों, संक्रमण, अति मद्यपान और धूम्रपान के सेवन, मधुमेह और अति स्थौल्य या मेदोरोग के कारण यकृत दुष्टि की समस्या हो सकती है।लिवर फाइब्रोसिस का सबसे सामान्य कारण नॉन अल्कोहोलिक फैटी लिवर डिजीज (NAFLD) है. इसके अलावा अल्कोहोलिक लिवर डिजीज, लंबे समय तक मद्यपान का उपयोग करने, ऑटोइम्यून हेपेटाइटिस, आयरन की अधिक मात्रा, वायरल हेपेटाइटिस बी और सी की वजह से लिवर फाइब्रोसिस की समस्या हो सकती है। यह सब वो अवस्थायें हैं जिसमें दोष धातुगत इस प्रकार से हैं जो चिकित्सा के बाद में पूर्ण रूप से निष्कासित नहीं हो पाते अथवा धातुओं में लीन पड़े रह कर पुनः पुनः लक्षण प्रकट करते हैं।*
*यकृत्-क्षतिः प्रथमः चरणः रेशेः (Fibrosis) भवति यदा यकृत् अधिकं क्षतिं प्राप्नोति तदा यकृत्-सिरोसिस् इति कथ्यते । एषः गम्भीरः यकृत् रोगः अस्ति । अस्मिन् यकृत् प्रत्यारोपणमपि कर्तव्यम् अस्ति । परन्तु प्रारम्भिकपदे औषधानि सेवनेन जीवनशैल्याः परिवर्तनेन च रेशेः सिरोसिस् इति रोगस्य प्रगतिः निवारयितुं शक्यते ।*
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अर्थात फाइब्रोसिस यकृत के क्षतिग्रस्त होने की पहली स्टेज है जब यकृत इससे भी अधिक पीड़ित हो जाता हैं तो इसे लिवर सिरोसिस (liver cirrhosis) कहा जाता है। ये यकृत की एक गंभीर गंभीर है। इसमें यकृत ट्रांसप्लांट (Liver Transplant) तक करवाना पड़ जाता Back।हालांकि आरंभिक अवस्था में औषध और जीवनशैली में परिवर्तन करके फाइब्रोसिस को सिरोसिस तक पहुंचने से रोका जा सकता है और यह तभी संभव है जब हम लीन दोषों का ज्ञान करने में परिपक्व हैं।*
*शरीर की सब से बढ़ी ग्रन्थि यकृत ही है जो मलभूत पित्त की भी उत्पत्ति करता है। आमाशय, दोनो आन्त्र, अग्नाशय तथा प्लीहा का दूषित रक्त वहन करने वाली सिरा portal vein यकृत में प्रवेश करती हैं। समस्त शरीर में प्रसर करने वाले रक्त में जो धातुपाक जनित मल संचित होते हैं वे इसी प्रकार यकृत में आ जाते हैं। portal vein के अति सूक्ष्म अन्त से यकृत के कोष इन मलों का निर्हरण करते हैं और इनके संघटन और विघटन से पित्त का निर्माण करते हैं और यकृत से पित्त का स्राव हर क्षण होता ही रहता है।*
*यकृत से निकलने वाले पित्त का कार्य अग्न्याशय रस का उत्पादन तथा शरीर में स्नेहों का पाचन करना है। जब भी आहार रस का पचन काल होता है hepatic duct के द्वारा पित्त ग्रहणी में प्रवेश करता रहता है और जब यह काल ना हो तो cystic duct द्वारा पित्ताशय (gall bladder) में एकत्र होता रहता है। जब भी आवश्यक हो यहां संचित पित्त common bile duct द्वारा ग्रहणी में आ जाता है।यकृत का पित्त कुछ पीत, रक्त, भूरा या हरित वर्ण का द्रव्य होता है। इसकी गंध कस्तूरी के समान, रस तिक्त-मधुर तथा इसकी प्रतिक्रिया क्षारीय होने के साथ इसमें पित्त के रंजक bile pigmentsuric acid आदि होते हैं जिनमें urea वृक्कौं द्वारा मूत्रमार्ग से बाहर निकल जाता है।*
*इस पित्त का प्रधान कार्य अग्न्याशय रस की सहायता, स्नेह का पाक,आन्त्रों में जीवाणुओं को नष्ट करना, पक्व आहार रस के आचूषण या absorption में भी सहायक होना है, यह स्थूलान्त्रों में अपकर्षण की गति को बढ़ाता है। यह सब लिखने का तात्पर्य यह है कि अग्नि पित्त रूप में, यकृत और ग्रहणी का परस्पर संबंध, gall bladder और pancreas ये सब पित्त के स्थान कैसे हैं, यहां क्या कार्य हो रहा है और इन से संबंधित होने वाली व्याधियां सरलता से स्पष्ट हो जाये इसलिये है।*
*दोष-दूष्य सम्मूर्छना ही व्याधि है जिसमें मूल दोष पित्त के बाद दूष्य यकृत के कार्य आधुनिक समय के रोगों को समझने के लिये स्पष्ट करते हैं ।*
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*'सर्वप्राणिनां सर्वशरीरेभ्यः प्रधानतमा भवन्ति यकृत्प्रदेशवर्तिनस्तानाददीत'
सु सू 46/137
इस पर डल्हण टीका,
'यकृत्प्रदेशवर्तिशब्देन यकृत्प्रदेशे या दीर्घाकारा मांसवर्तयो भवन्ति ता इह गृह्यन्ते; एतेन समस्तशरीरप्राप्तावपि विशिष्टशरीरावयवग्रहणमुक्तम्। अन्ये तु ‘सर्वप्राणिनां सर्वशरीरेभ्यः प्रधानतमा या वर्तिर्भवति तामाददीत'
मांस वर्गीय जितने भी प्राणी हैं उनमें शरीर के शेष अवयवों की अपेक्षा यकृत सर्वश्रेष्ठ होता है। वर्तमान समय मे देखिये अधिकतर प्राणी अहित आहार द्वारा किस प्रकार इस सर्वश्रेष्ठ अंग के साथ अहिंसा, अत्याचार अथवा व्यभिचार कर रहे हैं और आयुर्वेद चिकित्सा में अनेक रोगों में सर्वश्रेष्ठ इसलिये भी है कि यकृत की सब से उचित चिकित्सा आयुर्वेद में ही संभव है।*
*आयुर्वेद में वृक्कौं रोग की भांति यकृत के रोगों का विवरण अति विस्तार से नहीं मिलता,
'सव्यान्यपार्श्वे यकृति प्रवृद्धे ज्ञेयं यकृद्दाल्युदरं तदेव'
मा नि 35/16-17
इस पर मधुकोष व्याख्या,
'प्लीहोदर एव यकृद्दाल्युदरस्यावरोधं दर्शयन्नाह– सव्यान्यपार्श्व इत्यादि सव्यान्यपार्श्वे दक्षिणपार्श्वे तदेवेति तादृशमेव'
जो विकार प्लीहा के बताये हैं वही विकार दक्षिण पार्श्व में यकृत वृद्धि से होने वाले यकृद्दाल्युदर कह कर बताये हैं। यकृद्दाल्युदर की निरूक्ति जिसमें यकृत को दालयति अर्थात दोषों के द्वारा अत्यन्त विकृत कर देता है जैसे यकृत के दलों या खण्डों में शोथ, शोष, दाह, पीड़ा आदि उपद्रवों को कर देता है।*
*यकृद्दाल्युदर में दोषों का संबंध -
यह अति महत्वपूर्ण पक्ष है जो भली प्रकार जान लीजिये,
'तत्र दोषसम्बन्धमाह– प्लीहोदरयकृद्दाल्युदरयोः पृथग्लक्षण लक्षितान् मलान् वातादीन् क्रमेणोदावर्तादिभिर्लिङ्गैर्विद्यात्, तत्र उदावर्तरुजानाहैर्वातं, मोहतृड्दहन ज्वरैः पित्तं, गौरवारुचिकाठिन्यैः कफं जानीयात्'
मा नि 35/18
यकृद्दाल्युदर में तीनों दोषों का अनुबंध होता है। Fatty liver, liver fibrosis और cirrhosis of liver ये सब त्रिदोषज व्याधि है।व्याधि के दो प्रकार है आमाश्योत्थ और पक्वाश्योत्थ यहां liver fibrosis की या cirrhosis of liver के मूल में जाये तो इनमें दोषों का संचय कहां होगा ? दोषों का संचय अपने अपने स्थानों पर कोष्ठ में इस प्रकार होगा जैसे आमाश्य में कफ का, ग्रहणी में पित्त का और पक्वाश्य में वात का। यही आयुर्वेद का एक गूढ़ clinical ज्ञान है जिसकी उपेक्षा कर दी जाती है इसीलिये चिकित्सा सूत्र का निर्माण किया जाता है कि जिन जिन दोषों का अनुबंध है उन्हें भी हम समाप्त कर दें जिस से व्याधि का पुनःउद्भव ना हो पाये।*
*रोगी का रक्त परीक्षण कराने पर LFT सामान्य है मात्र कभी कभी क्षुधा अल्पता और कभी किंचित दौर्बल्य और कभी रोगी स्वस्थ अनुभव करता है। मद्यपान प्रायः कुछ अंतराल पर करता रहा तो दोष लीन मिले जिसके मूल तक पहुंचने के लिये हमने आधुनिक संसाधन fibroscan का सहारा लिया तो cirrhosis of liver मिला जो नवीन होने के कारण अतिशीघ्र liver fibrosis की स्थिति में आ गया जिसे रोग नहीं माना जाता पर भविष्य में cirrhosis का संकेत देता है पर दोष लीन ही हैं, दुर्बल हैं, अल्प हैं।*
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
12-1-21
LFT - लगभग सामान्य
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
28-3-22
liver fibroscan - E Kpa - 40.1
liver cirrhosis
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
22-5-22
liver fibroscan - E Kpa - 19.8
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
8-11-22
liver fibroscan - E Kpa - 18.1
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
10-3-23
liver fibroscan - E Kpa - 15.8
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
18-9-23
liver fibroscan - E Kpa - 14.3
[3/21, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
18-9-23
LFT - लगभग सामान्य ही है जैसे यकृत कार्य भली प्रकार कर रहा है पर fibro scan से स्पष्ट है कि दोष अभी भी लीन हैं।
[3/21, 12:26 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अन्य रूग्णा -*
1-10-23
liver fibroscan - E Kpa - 15.3
[3/21, 12:26 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
2-12-23
liver fibroscan - E Kpa - 4.9
[3/21, 12:26 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*ग्रन्थकारों ने ज्वर मुक्ति के लक्षण लिख दिये पर एक शंका है कि ज्वर तो प्रत्यक्ष है जो हम अनुभव कर सकते हैं फिर ज्वर नहीं रहा अर्थात उसका अभाव हो गया तो वह भी अब प्रयक्ष अनुभव हो रहा है फिर ज्वर मुक्ति के लक्षण क्यों लिखे ? तो मधुकोषकार (मा नि ज्वर 2/74) कहते हैं जो कुपित या बलवान दोष थे वो अब शेष नहीं रहे अर्थात सम अवस्था में आ गये पर ज्वर बार बार आने का अभिप्राय यह है कि वह अभी भी धातुओं में लीन है, अल्प या दुर्बल अवस्था में रह गये और विशिष्ट कारणों से बलवान हो कर पुनः पुनः ज्वर उत्पन्न कर रहे हैं तो वह विषम ज्वर है। यहां साधारण ज्वर और विषम ज्वर में यही भेद स्पष्ट करने के लिये ज्वर मुक्ति के लक्षण लिखे हैं।*
*आधुनिक tuberculosis में evening rise fever कई रोगियों में मिलता ही है, recurrent fever syndromes (periodic fever syndromes) यह व्याधियों का एक समूह है जो पुनः पुनः रोगियों को ज्वर से ग्रसित रखता है। यह syndrome एक प्रकार का auto-inflammatory diseases या 'निजश्च सर्वार्धगात्रावयवाश्रिततत्वात्' च चि 12/7 तीन प्रकार का शोथ सर्वांग, अर्धांग और किसी अव्यव विशेष में आश्रित शोथ और इसमें तीसरे प्रकार का शोथ किसी अन्य रोग का उपद्रव या लक्षण भी होता है, जिसके कारण उत्पन्न होता है इसके अतिरिक्त ऐसी स्थिति आदिबल hereditary एवं gene mutation के कारण होती है।आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इस प्रकार की अवस्था में रोगियों को जीवन भर औषध सेवन करते हैं।यह एक लीन दोषावस्था है।*
*.... to be continue...*
[3/21, 12:30 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*लीन दोष पर अभी बहुत से रोग हैं और विषय यह धीरे धीरे स्पष्ट होता जायेगा।*
[3/21, 12:40 AM] Dr. M B Gururaja:
It's mind blowing results.....👏🏻👏🏻💐👍🏻
Guruji 🙏🏻🙏🏻😊
[3/21, 12:50 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*प्रणाम गुरुवर*
🙏🙏🙏
*लीन दोष पर विगत २ दिनों से दोबारा अध्ययन शुरु किया था*
*स्वल्पं यदा दोषविबद्धमामं लीनं न तेजःपथमावृणोति।*
*भवत्यजीर्णेऽपि तदा बुभुक्षा या मन्दबुद्धिं विषवन्निहन्ति।।*
सु.सूत्र. ४६ / ५२०.
*तेजःपथं जठरानलमार्गम् ।*
*लीन दोष पर आचार्य सुश्रुत के इस सूत्र पर विचार मंथन के साथ प्रज्ञापराध, विरुद्धाहार विहार, ऋतुचर्या का पालन न करना, चिंता, भय, क्रोध, अल्प निद्रा आदि से मानस दोष प्रकोप, पंचकर्म व्यापद, चिकित्सा चतुष्पाद का यथोचित न होना आदि अनेक हेतुओं पर अध्ययन कर ही रहा था*
*आपने आचार्य चरक का ग्रहणी रोगाधिकार का ref. देकर साथ मे Liver Cirrhosis - Liver Fibrosis का Case सप्रमाण देकर सारी जिज्ञासा को स्पष्ट कर दिया*
🙏🙏🙏
*आपने सह तर्क एवं संदर्भ सहित, Clinical Applied Aspects को इतनी सरलता से स्पष्ट कर दिया*
*तु सी Great हो.*
*मै आनेवाले समय मे प्रभु इच्छा पुरी करे तो समय निकाल कर आप के सानिध्य में आयुर्वेद पढने और उसे Clinical Practice मे Apply कैसे करे यह समझने और सिखने की अभिलाषा रखता हूँ।*
🙏🙏🙏
[3/21, 1:05 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सादर आभार आचार्य गुरूराजा जी 🌹❤️🙏*
[3/21, 1:07 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सब गुरूजनों की कृपा और आशीर्वाद ही है अरूण भाई 🌹🙏*
[3/21, 1:11 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*यह सौम्यता और सादगी ईश्वर सभी को और खासकर मुझे प्रदान करे*
😊😊😊
[3/21, 1:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*प्रकृति की 24 qualities है जिनमें पहली है simplicity, एक अन्य है self sufficient आयुर्वेद को जीवन में उतारते ही हम स्पष्ट होते चले जाते हैं, निर्भय और निर्द्वन्द्व हो जाते हैं। आयुर्वेद प्रकृति से जुड़ा विशिष्ट ज्ञान है इसका अलग ही नशा और जुनून है। हमें मात्र आयुर्वेदज्ञ बनना है।* 🙏
[3/21, 6:45 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
हमें यही तो समझना पड़ेगा की भले ही अवयवों का कार्य सामान्य सा प्रतीत हो रहा हो। अवयवों में कुछ परीवर्तन बनता रहता है। जब हम धात्वांतर की बात करते हैं तब यही महत्वपूर्ण होता है की धातु-अवयव स्वरूप में ही होते हैं। वसा, क्लेद आदी संज्ञाओं से हमें शरीरस्थ धात्वांतर की बातों के बारे में बताया गया है। उपधातू की दुष्टी को भी देखेंगे तब यह अंतर्निहित विकृती की निदर्शक है। प्री डायबिटीज आदी स्थिति भी हमें उस और इंगीत करती है। ग्रहणी की संप्राप्ति लीन दोष मात्र से उद्भूत है। *अति सारे निवृत्ते अपी----* । हर रोग की संप्राप्ति में हमें यह अंश मिलेगा।
[3/21, 6:49 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
हमें कौन-सी जांच करने से अंदरूनी घट रही विकृति का पता चलेगा यह चर्चा का विषय है। जैसे सर ने liver fibroscan कराया, या HbA1C / HSCRP/ Alipoprotien/ ESR/ आदी क्लिनिक में टीस प्रकार से सामंजस्य बिठाये इसपर विमर्श हो।
[3/21, 8:37 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*शल्य तन्त्र में तो बहुत कुछ अधिक प्रत्यक्ष है पर वहां भी शरीर में घट रही हर क्रिया, दोष, धातु एवं धातु स्वरूप स्रोतस और उनके मूल अव्यवों को समझने के लिये हमें चार प्रकार के प्रमाण प्राचीन आचार्यों ने दिये है और उन के आधार पर कार्य कर सामने रखने के लिये कहा है जिस से हम नवीन सिद्धान्त स्थापित कर सकें, यह सिद्धान्त,
'सिद्धान्तो नाम स यः परीक्षकैर्बहुविधं परीक्ष्य हेतुभिश्च साधयित्वा स्थाप्यते निर्णयः । स चतुर्विधः- सर्वतन्त्रसिद्धान्तः, प्रतितन्त्रसिद्धान्तः, अधिकरणसिद्धान्तः, अभ्युपगमसिद्धान्तश्चेति'
च वि 8/37
जब तक हम अनेक रोगियों पर आयुर्वेद सिद्धान्तों के अनुसार सीरियस हो कर कार्य ही नहीं करेंगे जो प्रत्यक्ष दिखा सकेंगे तो वह सब बाते रह जाती हैं जो कुछ समय बाद मनुष्य भूल जाता है और पुनः वहीं आ जाता है।कार्य कैसे किया जाये और प्रमाणों को कैसे व्यवहार मे लागू करे उसके लिये एक उपमान प्रमाण भी है क्योंकि बहुत कुछ जो है वह दृष्ट नहीं है तो अनुमान प्रमाण को आधार बना कर कार्य आगे बढ़ाया जाता है।*
*अनुमान को सूक्ष्मता से जानेंगे तभी उपमान समझ सकते हैं। उपमान की परिभाषा उदाहरण सहित देखिये,
'अन्येन अन्यस्य सादृश्यमधिकृत्य प्रकाशनं यथा माषवन्माषः विदारीकन्दवद् विदारीरोगः।
आचार्य सुश्रुत शल्य तन्त्र की प्रधानता बता कर कहते हैं कि,
'तस्याङ्गवरमाद्यं प्रत्यक्षागमानुमानोपमानैरविरुद्धमुच्यमानमुपधारय'
सु सू 1/16
अर्थात आयुर्वेद के सर्वश्रेष्ठ शल्य तन्त्र का चार प्रमाणों प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान से विरोध ना करते हुये जो उपदेश कर रहा हूं उसे आप धारण करें।*
*एक बार पूरे प्रकरण को ध्यान पूर्वक देखें तब पूरा विषय स्पष्ट हो जायेगा।सांख्य, वैशेषिक और न्याय आयुर्वेद में दर्शन का भाग यहां बहुत ग्रहण किया है।वैशेषिक दर्शन में अनुमान तथा हेत्वाभास के तीन प्रकारों का उपयोग किया गया है। आरंभिक वैशेषिक ज्ञान-मीमांसा में अणु-परमाणु संबंधी ज्ञान को प्रत्यक्ष बोध और अनुमान विधियों द्वारा विश्लेषण किया गया है जबकि न्याय सूत्र में अनुमान विधि में 'उपमान' एवं शब्द को भी शामिल किया गया है। निगमन विधि द्वारा तर्क करने की प्रक्रिया वैशेषिक और न्याय दोनों सूत्रों में समान है।*
*किसी पदार्थ के गुण-धर्म जब इन्द्रियों के संपर्क में आते हैं तो उसे प्रत्यक्ष बोध कहते हैं जैसे किसी वस्तु का रंग देखना। तर्क द्वारा विचारित अवधारणा को अनुमान कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है- दृश्ट (जिसे देखा जा सकता है) व अदृश्ट (जिसे देखा नहीं जा सकता)। जिसे वर्णित नहीं किया जा सकता वह अदृश्ट है। यद्यपि इसे वर्णन नहीं किया जा सकता, फिर भी उसे स्वीकार किया जाता है क्योंकि अदृश्ट का महत्व भी कम नहीं आँका जा सकता। अदृश्ट को यदि नहीं स्वीकारें तो इसका अर्थ यह हुआ कि काया और इन्द्रियों के संपर्क को भी नहीं माना जा रहा, फलत: संज्ञान को भी अस्वीकार किया जा रहा है। कणाद ने चुंबकीय आकर्षण, अणुओं का आरंभिक संवेग, किसी भी पदार्थ का नीचे की ओर गिरना आदि अवधारणाओं को स्पष्ट करने के लिए अदृश्ट का व्यापक उपयोग किया है। जैसे
'अग्नेयध्र्वज्वलनं वायोसितर्यक्पवनमणूनां मनसष्चशध्यं कर्मादृश्टकारितम'
अर्थात अग्नि की आरंभिक ऊपर उठती ज्वाला, वायु का आरंभिक वेग और अणु व मन का आरंभिक गमन, इन सबका कारण अदृश्ट है।*
*वैशेषिक और सांख्य दर्शन अनुमान में ही उपमान को ग्रहण करते हैं।न्याय सूत्र में 'प्रत्यक्षानुमानोपमान शब्दाः प्रमाणानि' प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण माने हैं।*
*आयुर्वेद में उपमान को अनुमान प्रमाण में ही ग्रहण किया है।*
[3/21, 8:50 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*हम private practitioner हैं और हमारे सिर पर रोगी हर समय खड़ा रहता है तथा उसे हर बात का जवाब चाहिये जैसे वृक्कौ दुष्टि में लाक्षणिक लाभ पूर्ण है, रोगी अपने को स्वस्थ मानता है, urine मे मूत्रवाही स्रोतस द्वारा उसकी report सही है और कोई प्रोटीन नही आ रहा पर तीन वर्ष तक s.creatnine का 2.5-3 तक बने रहना क्या है जबकि DTPA में दोनों वृक्कौं की report भी स्थिर है। लीन दोषों को हमने अनेक रोगियों मे दो लक्षणों से बहुत समझा है सब कुछ ठीक रहते हुये भी कभी कभी क्षुधा का अल्प हो जाना और दौर्बल्य।लीन दोष दुष्ट संज्ञा कहना सही है ये कुछ ना कुछ कर के सामान्य सदृश दिखते हैं पर हैं नहीं ।*
*अपने अपने अनुभवों से अनेक रोगियों को देख कर और चिकित्सा कर के सिद्धान्त बनाने ही पड़ेंगे।*
[3/21, 8:57 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
Sushthu Iti, श्रेष्ठ इति स्वत: सुखाय जनहित लाभप्रदानIय ।
[3/21, 10:00 AM] Dr. Pawan Madan:
🙏🏻🙏🏻Pranam and a very good morning Guruji.
Your way of writing and explanation is superb. One can understand even the most difficult things in a good way.
There are few points which need more clarification.
1.
Leen dosh is a state of doshas which are present in the body in a different form/matra other than the normal physiological but they are not able to produce symptoms.
Or
2.
Leen dosh is a state when those doshas are present in the tissues *but they are not producing any pathological structural or physiological deformity?*
Or
leen dose are a state of those which are present in an increased pathological state in the tissues with *making a change in the structural and physiological behavior of the tissues*?
🙏🏻🙏🏻
[3/21, 12:32 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ):
गुरूवर आप का यह आलेख बहुत ही अधिक ज्ञानवर्धक है। आप का आभार 🙏
[3/21, 1:34 PM] Dr. Vandana Vats Patiyala:
चरण वंदन गुरु वर🙏🏻🙏🏻
आपके द्वारा लिखा व समझाया गया सरलता से समझ आ जाता है! परम गुरु संहिता मे सब कुछ हे, पर अज्ञानता वश हम उनका अध्यायान सही नही कर पाते ।
सर लीन दोष के शोधन हेतु, विशेषतः auto immune disease, में किस समय करना है, यह प्रश्न हम पुनः पुनः इसलिए कर रहे थे क्योंकि liver fibrosis का ही एक DMC Ludhiana diagnosed case, a girl of 23yrs only चल रहा है। रूग्णा को auto immune hepatitis, diagnosed है. सर हम यही जानना चाहते थे कि क्या रोगी के बल व पाचन को सामान्य कर हम उसे विरेचन दे सकते हैं, जब रोग अपनी शान्त अवस्था में है। 🙏🏻
Flair of disease mei patient ke SGOT, SGPT highly raised aate hei.
The family has requested not to share her information so to respect their feelings couldn't share record
🙏🏻
[3/21, 1:45 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ):
जीर्ण विवंध अथवा ग्रहणी के रोगी भी संभवतः लीन दोष से ग्रसित रहते होंगे।
[3/21, 3:32 PM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:
ज्वर का प्रत्यात्मलिंग तो दो है। ५०% का डिजिटल परिमापन है। मानस संताप का विचार ? देह संताप मात्र ज्वर .? किस डिग्री तक।...रुग्ण के भी समझ के बाहर.....।
[3/21, 4:28 PM] Dr. Pawan Madan:
This liver fibrosis is the result of Autoimmune hepatitis or it is the first latent leen dosha avastha?
We need to differentiate..
[3/21, 5:38 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
How and on which basis we will be able to differentiate Autoimmune and leen Dosha.
[3/21, 5:48 PM] Vd Shailendra Mehta:
🙏🙏दोषों (विकृत) की लीन अवस्था का स्थान सप्त कला (dhaatwaantar) कहा है, fibrosis of यकृत के example में यकृत raktsrotas मूल है, उनमें इनकी स्थिति मानने से उपरोक्त सुश्रुत जी के वचन से सामंजस्य कैसे बिठाए 🙏🙏
[3/21, 5:51 PM] Dr. Pawan Madan:
We need to differentiate these two.
We need to establish if the autoimmune pathology is the Leen dosha avastha or Not?
[3/21, 5:55 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
Any example of each
[3/21, 5:58 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
लीन दोष तो स्वयं विकार नहीं हो सकता-विकृति का कारण हो सकता है बलवत होकर dosh- dusya sammoorchhna के बाद ।
[3/21, 5:59 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*प्रणाम सरजी*
🙏🙏🙏
*Same think apply with Autoimmune disorder.*
*When ever the causative factor are present the autoimmune disorders flare up, remission and regression are their with causative factors*
[3/21, 6:13 PM] Dr. Pawan Madan:
Ji sir...🙏🏻
[3/21, 6:14 PM] Dr. Pawan Madan:
I have the same thought process.
[3/21, 6:14 PM] Dr. Pawan Madan:
That's why I have posted this query?
[3/21, 6:15 PM] Dr. Pawan Madan:
Leen Dosha Avastha
*Is a vyadhi?*
Or
*A susceptibility to vyadhi?*
[3/21, 6:16 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*Here what is your thinking process*
[3/21, 6:17 PM] Dr. Pawan Madan:
I have raised a query if you see again.*
[3/21, 6:20 PM] Dr. Vandana Vats Patiyala:
Namaskar Pawan Sir.
Your query is relevant, but how can we differentiate??
The patient very young. Earlier history nothing such to point out any abnormality. Never any pandu / kamala/ any type was seen. At such early age no jadarangi vishamta. Never USG before. By chance detected such after an attack of viral infection when SGOT, PT found highly raised.
Aab kaise pata chale ki leen dosh ya auto immune liver fibrosis ka cause.Fibrosis is a small proximal part.
[3/21, 6:22 PM] Prof. Madhava Diggavi Sir:
Leena dosha is a status of dosha awaiting for suitable provocative factor to produce disease sequele . Not only autoimmune..when vikaravighatabhavaabhava is there certainly dosha is Leena .if rogibala is pravara and rogabala is avara ..then leenatwa happens ji sir
[3/21, 6:25 PM] Dr. Vandana Vats Patiyala:
इस केस में हम रस धातु दुष्टि व अग्नि पर कार्य कर रहे हैं
[3/21, 6:26 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
Leenavastha of dosh is anuman gamya- can be suspected or expected on seeing deranged blood chemistry and other investigations without having any clinical manifestation.
[3/21, 6:37 PM] Dr. Pawan Madan:
Mam, very rightly said by you.
I try by taking detailed history. Let us say for example, in this patient of liver fibrosis, it has been diagnosed by chance. So I would like to take history from the last 20 years. I would like to know what has been the lifestyle of this patient, what type of foods he or she has been taking from the last 20 years? What type of environment she has been having these 20 years? Any diseases or any recurrent illnesses, He or she is having? Any specific symptoms of dooshivish if she is having in these last 20 years.?
Any specific food inclinations or disinclinations she is having in these last 15 to 20 years.?
With all these questions, *maybe* we could find what type of doshas or gunas of the doshas have been used mostly by the patient, And what type of gunas of doshas may be accumulating for many years in that patient and then we can decide if we can employ the opposite characters of those gunas of the particular dosha and maybe we can give some upashay to that patient.
We must try.
I have found success in some cases in this way.
[3/21, 6:38 PM] Dr. Pawan Madan:
Liver fibrosis is an example of Leena Dosha sir?
[3/21, 6:39 PM] Dr. Pawan Madan:
Good evening sir. So for an example, a symptomatic hyperglycemia can be equated with a state of Leen dosha avastha sir?
[3/21, 6:39 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
Liver fibrosis itself is disease/Vikriti- can not be equated to Leenavastha of Dosh.
[3/21, 6:39 PM] DR Narinder paul J&k:
said on first day..leena dosha is nothing..its a expressive form of a siddhanta or you can say diffrent defination of same siddhanta.
if leena dosha is there then how we can diffrentiate it with mandagni..cause mandagni and leena dosha can cause the same clinical presentation..
[3/21, 6:40 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
This will require thinking from different angles.
# प्रकृति.
# वय
# काल (नित्यगश्चावस्थिकश्च )
# चिकित्सा के बाद का प्रभाव
# रोग उपद्रव
# उदर्क etc
Mere Susceptibility or Proneness to disorder is not लीन दोष
[3/21, 6:42 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
Does it mean postprandial symptomless hyperglycemia is Leenavastha ? Nahin bhai nahin - kabhi nahin .
[3/21, 6:42 PM] DR Narinder paul J&k:
such extension siddhantas are made for those intellects who are not satisfied with minimum siddhantas.. thoss who do chintan and chintan.. ultimately they have to return to root..near to dosha imbalance, near to agni disturbances..thats all
[3/21, 6:42 PM] Dr. Pawan Madan:
First stage.....Dosha in prakrit form....physiological
Second stage....Dosha in increased or pathological state but not expressing vyadhi ... *May be leen avastha*
Third stage .... Dosha in vaikrita avastha....with dosha dooshya sammoorchana.... expressing the vyadhi with symptoms
Just a thought....
[3/21, 6:47 PM] Dr. Namrata Ladani:
काय संप्रदाय के सर्वे गुरूजनों को सादर नमस्कार 🙏🏻🙏🏻
लीन दोष जेसे गूढ़ विषय पर सदृष्टांत सिद्धांत को समझाने के लिए गुरुजी आपका सहृदय आभार 🙏🏻🙏🏻💐
एक प्रश्न मन है की दोष का दो रूप से प्रकोप होता है। चय रूप प्रकोप और अचय रूप प्रकोप।
तो क्या ये अचय रूप दोष प्रकोप होता है उसमें क्या यह लीन दोष को जवाबदार मान सकते हैं ??
गुरूजनों से निवेदन है की समझने में मार्गदर्शन करे।🙏🏻🙏🏻
[3/21, 6:54 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*Good Evening Madhavaji*
🙏🙏🙏
*In very few simple words you had explain लीन दोष*
🌹🌹🌹
[3/21, 6:55 PM] Dr. Pawan Madan:
Very true.
Expressed the same yesterday also.
[3/21, 6:57 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*मुझे लगता लीन दोष क्या है इस पर चर्चा से ज्यादा अब लीन दोषों के कारण उत्पन्न होनेवाले रोग, उनकी संम्प्रप्ति और चिकित्सा पर चर्चा कर विविध रोगों मे applied aspects की और देखना चाहिए*
[3/21, 7:09 PM] Dr. Pawan Madan:
Let us consider this case.
A 35-year male with all normal parameters in all laboratory investigations till date. His both parents are diabetic and this person is very fond of eating sweet foods for a long time. Generally, he is taking a good amount of kapha increasing diet and he is into the habits of daily routine which are all kapha increasing slowly and slowly over the years in his body.
Till a particular time, there are no symptoms at all.
The characteristics of kapha dosha have been increasing and as he is also having a genetic susceptibility, *we might consider this increase of kapha dosha in his body as a lean state and later on this lean state can manifest hyperglycemia at any stage of life after getting some stimulating or aggravating factors.*
More discussion needed in such cases.
[3/21, 7:15 PM] DR Narinder paul J&k:
मान लिया जाये की लीन दोष सिग्नीफिकेन्स रखते है चिकिस्ता में
एक केस से समझते है
एक जीर्ण अतिसार का रोगी है जिसको मल में आव पड़ती है बीच बीच में वो ठीक हो जाता है लेकिन जैसे मिथ्या आहार विहार करता है तो लक्षण आ जाते है
इन्वेस्टीगेशन से पता चलता है की इसको क्रोनिक Amoebiasis है
तो क्या आप लींन दोष जोकि Amoebiasis प्रतीत हो रहा है उसकी चिकिस्ता करोगे या मंदाग्नि की
[3/21, 7:17 PM] Dr. Pawan Madan:
Very important to discuss
[3/21, 7:17 PM] Prof. Madhava Diggavi Sir:
Sir !
Now a days I get reports of ANA test. Its reported as 1:100 as eqvivocal value. Above that is positive, below that is negative. But 100 is also taken as positive..but patient should be resent to the lab after 15 days again with payment to see the titre again.
This avastha is clinical Leena dosha .
[3/21, 7:17 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ):
As per me it's mandagni especially ras Dhatu agni mandatory for Aam formation which further changes to aam vish and NIIDM. May be his agni is alright.
[3/21, 7:18 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
Why and on what basis do you say that Kapha has increased in this case ? Mere increase of Kapha in qualitative or quantitative terms is not important but the sthansanshraye and dooshantva of dushya with that Kapha.
[3/21, 7:19 PM] DR Narinder paul J&k:
mere khyal se mandagni ki kroge..kyunki mandagni se hi vo atmosphere bna hai jisse amoeba grow hua hai..aur yeh toh sanjyog hai ho skta kuch aur grow ho skta hai ..tuberculosis bhi..
lekin being a vaidya hum agni ki chikista krenge dosho ko balance krege..kon khan grow ho rha hai yeh mattr nhi krta..kyunki yha sab kuch available hai..ap ek bar leen dosh ko bahr nikal ke chikista complete nhi kr skte ..ultimately you have to create better ecosystem..a sytem of tridosha balance
[3/21, 7:19 PM] Vd Shailendra Mehta:
Sir why not कफ संचय..
[3/21, 7:22 PM] Dr. Pawan Madan:
Sir there can be any sampraptis out of the four.
I just quoted one as an example forndiscussion
[3/21, 7:22 PM] Dr. Pawan Madan:
Can be....
[3/21, 7:23 PM] Vd Shailendra Mehta:
एक important point हम miss कर रहें हैं कि,,लीन अवस्था,,केवल विकृत दोष ही प्राप्त करते हैं,,,,इसीलिए संचय, अवस्था से भिन्न है
[3/21, 7:25 PM] DR Narinder paul
J&k:
in each chapter acharyas firstly elaborate each thing so vastly then in the end they conclude each disease in single sutra..and in whole samhita they are preparing vaidya to comeback to main sutra..the sutra of agni,the sutra of tridoshaj balance, the sutra of satva.
This is what they called a state of dwij vaidya..
[3/21, 7:28 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
Leenavastha of Dosh can be considered only after sthansanshareya of dosh in dusya- not Sanchaye, Prakop or Prasar.
[3/21, 7:44 PM] Vd Shailendra Mehta:
Yes Sir,,thanks for endorsing....
[3/21, 7:59 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*लगता अब हम Applied Aspects से ज्यादा सिद्धांतों पर चर्चा कर रहे।*
*काल्पनिक रुग्ण प्रस्तुत कर रहे है*
*रुग्ण की वय, प्रकृति, व्यवसाय, दिनचर्या, आदि को प्रस्तुत न कर केवल चर्चा कर रहे है*
*लीन दोष यह शरीर मे कही भी रह सकते है*
*वे केवल धातु मे आश्रित होगे, कला मे आश्रित होगे, शाखाओं में रहगे आदि आदि*
*लीन दोष संपूर्ण शरीर में कही भी रह सकते है, विविध स्त्रोतस, आशय, कोष्ठ, शाखा कही भी*
*लीन दोष हेतु की प्रतिक्षा मे रहते है, कार्यकारण भाव के प्रगट होते ही व्याधि उत्पत्ति मे सक्षम होकर रोग उत्पत्ति करते है*
*अब किसी व्यक्ति के माता पिता किस रोग से ग्रसित है इसका क्या संबंध है. लीन दोष का इससे कोई संबंध नही है*
*हाँ मातापिता यह अपने बच्चों की प्रकृति निर्माण मे अहम योगदान रखते है*
*हर व्यक्ति को अपने प्रकृति को ध्यान मे रखकर वय, देश,व्यवसाय आदि अनुसार कालानुरूप आहारविहार, ऋतुचर्या आदि का पालन करना चाहिए*
*इस विधी का पालन न करने पर हर व्यक्ति रोग ग्रस्त हो सकता है*
*इसमे लीन दोष ही कारण नही होगे*
[3/21, 8:08 PM] Dr. Pawan Madan:
Yes sir
Mere kapha increase is not responsible.
But this is one starting factor in one of the sampraptis of Madhumeha..
[3/21, 8:10 PM] Dr. Pawan Madan:
*जब चर्चा होती है तो बहुत्व आयामों का प्रयोग करना ही पढ़ता है।*
[3/21, 8:10 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*आयुर्वेद मे व्यक्ति के सभी तत्व जैसे प्रकृति, वय, देश, काल, व्यवसाय आदि को ज्ञात कर पश्चात चिकित्सा सुत्र निर्धारण किया जायेगा*
*यहाँ केवल रोग या अग्नि की चिकित्सा कर कुछ नही होगा*
*इस तरह के रुग्ण यह प्रायः दुषित अन्नजल पान करते है या हस्त पाद आदि मलिन रहते है कारण व्यवसाय भी रह सकता है, इस तरह के रुग्ण मे आप रोगा, अग्नि किसी की भी चिकित्सा कर लो कोई लाभ नही होगा*
*श्रेष्ठ युक्ति निदान परिवर्जन होगा*
[3/21, 8:13 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*चर्चा के लिए वास्तविक रुग्ण प्रस्तुत होने चाहिए वह भी विविध आयाम के साथ हवाहवाई बाते नही*
🙏🙏🙏
[3/21, 8:17 PM] DR Narinder paul J&k:
chikista mein nidan parivarja, aahar, vihar sb aa hi jate hai..chikista akele dravybhut se nhi ki ja skti acharyashresht
[3/21, 8:18 PM] Dr. Pawan Madan:
*वो भी करते हैं श्रीमान जी, कभी भी हवा हवाई बात नहीं करते हैं। माफ कीजिएगा, ये शब्द आप पहले भी कई बार मेरे लिए प्रयोग कर चुके हैं, मैं चाहूंगा के आप बारम्बार इस प्रकार से आहत करने का व्यवहार को त्याग कर, चर्चा को continue करें।*
[3/21, 8:24 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*निदान परिवर्जन यह चिकित्सा विधा की पहली सिडी है, यह तो मुझे ज्ञात है.*
*पर निदान परिवर्जन से रोग की चिकित्सा होगी या अग्नि की या रोगी की*
*"हाँ निदान परिवर्जन से रुग्ण की चिकित्सा होगी यह पता है"*
[3/21, 8:28 PM] DR Narinder paul
J&k:
nidan karn grahn krne se rogi mein jo rog ho rha hai uski bhi chikista hogi..rog bhi toh agni disturbance ki vjah se hua hai..aur grahn kisne kia hai rogi ne..galt rogi ne kia hai..hum direction kisko de rhe hai..rogi ko..toh chikista uski bhi hogi..sbhi ki hogi
[3/22, 8:30 AM] Dr Arun Tiwari:
🙏आजकल दोषों को लीन करने में एंटीबायोटिक्स (अधूरा कोर्स, सही एंटीबायोटिक का चयन न करना) का अंधाधुंध प्रयोग प्रमुख कारण है।बैक्टिरिया का resistancce होना भी लीन दोष है। कुछ महीनों से ऐसे बहुत से बालक रोगी आ रहे हैं जो ज्वर, कास, प्रतिश्याय से 15 -20 दिन में बार बार पीड़ित हो रहे हैं।🌹
[3/22, 9:00 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुप्रभात सादर नमन आचार्य अरूण तिवारी जी एवं समस्त काय सम्प्रदाय 🌹❤️🙏 आपका कथन उचित दिशा में भी है जैसे
'दोषोऽल्पोऽहितसम्भूतो ज्वरोत्सृष्टस्य वा पुनः । धातुमन्यतमं प्राप्य करोति विषमज्वरम्'
सु उत्तर तन्त्र 39/66
इस से पूर्व वाग्भट्ट का कथन है कि कोई भी ज्वर विषम ज्वर की श्रेणी में आ सकता है और यहां सुश्रुत का कथन है कि ज्वर के आगंतुक कारण में प्रायः जैसे विषाणु आदि धातुवैषम्य के बिना भी व्याधि कर देते है। यहां धातुओं की आगे विषमता बाद में होती है।*
*कल बढ़े ध्यानपूर्वक सभी के मत, जिज्ञासायें, तर्क और चिंतन लीन दोष पर देखा और समझा... अभी हमारा लेखन चल रहा है जिसको आगे पढ़ने के बाद अधिकतर प्रश्नों का समाधान स्वयं ही हो जायेगा क्योंकि वहां हम ससंदर्भ लीन दोष को अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ स्पष्ट कर के चले हैं।*
*अनेक जिज्ञासायें प्रश्नवाचक चिन्ह इसलिये जागृत है कि माधवकार एवं मधुकोष व्याख्याकार, चक्रपाणि, डल्हण, अरूणदत्त आदि आचार्यों ने इसे किस प्रकार स्पष्ट किया है वो पक्ष अगर आप सब ध्यान से देखें और संदर्भ सहित तो आधुनिक वर्तमान रोगों का समावेश हम लीन दोष में कर के चले हैं तब स्वतः ही स्पष्ट हो जाता।*
*एक उदाहरण देते हैं क्या विषम ज्वर एक सम्पूर्ण सम्प्राप्ति घटित व्याधि नहीं है ? इसमें तो दोषों का चय, प्रकोप आदि षड्क्रियाकाल सब घटित है फिर भी यह हो रहा है।*
*आचार्य सुश्रुत ने
'दुष्टं तु भुक्तं कफमारुताभ्यां प्रवर्तते नोर्ध्वमधश्च यस्य विलम्बिकां तां भृशदुश्चिकित्स्यामाचक्षते शास्त्रविदः पुराणाः'
सु उ 56/9
यहां विलम्बिका रोग में स्पष्ट किया है कि भुक्त भोजन कफ और वायु से दूषित या दुष्ट हो जाता है आचार्य डल्हण एवं आतंक दर्पण के व्याख्याकार दूषित होने को 'दुष्टमित्यत्र लीनमिति' अर्थात लीन होना कहते हैं। अगर विलम्बिका का गहनता से अध्ययन कर ले तो liver fibrosis सहित अनेक व्याधियों के अन्तर्गत लीन दोष क्या है जान जायेंगे।*
*विलम्बिका रोग भी एक सम्प्राप्ति घटित रोग है, आमवात, एक-किटिम कुष्ठ (psoriasis) भी ऐसे ही है।लीन अनेक रोगों की गहनता और उन पर कार्य करने से प्रत्यक्ष स्वरूप में आने लगता है।*
[3/22, 9:05 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
Suprabhatam, Shubhamastu to all Ayurveda friends - चर्चा on लीन दोष with wide range of inputs/ideas from वैद्यगण has been very interesting and mind blowing. Will request admn or Acharya Khandel Ji to sum up the conclusion about Leenavastha of Dosha for the bebefit and future reference of all members.
[3/22, 9:07 AM] Dr. Pawan Madan:
सुप्रभात व नमस्कार गुरुजी
🙏🏻🌹🙏🏻
आपका कथन का अभिप्राय क्या यह है कि लीन दोष,, दोष दूष्य sammoorChanaa जनित व्याधि का एक प्रकार ही है 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
[3/22, 9:07 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
Namo Namah Vaidyavar Subhash Bhai. Shubh Shukravaar !! 🙏🏼
[3/22, 9:08 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:
एषा त्रिदोष मर्यादा - मोक्षाय च वधाय च।
[3/22, 9:09 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*विषम ज्वर जो कुछ कुछ दिनों के अन्तराल में आ रहा है उस को देखिये ।रोग कर के लीन हो जाना और 5-7 दिनों बाद फिर आ जाना यह क्रम निरंतर बने रहना।*
*विलम्बिका भी देखिये ।*
[3/22, 9:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सम्मूर्छना का पुनः पुनः भंग होना।*
[3/22, 9:15 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
Today I will present a case report, if get time, about iatrogenic leen dosh and manifestation of a new symptom complex due to continued self medication beyond the prescribed period of Ayurvedic treatment for Kaphanusangi Sarvasandhigat Vaat .
[3/22, 9:16 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*एक बार अगर हम साधारण ज्वर, धातुगत ज्वर और विषम ज्वर इन सब की अलग अलग सम्प्राप्ति बनायें तो लीन दोष और अधिक स्पष्ट होते हैं।*
[3/22, 9:17 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
वास्तव में लीन दोष होता है बड़ा छुपा रूस्तम 😜
[3/22, 9:19 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:
विषम ज्वर में धातुगत अवस्था में दोष/धातु पाचन के योग सूत्र व्यवहार में अन्यत्र लीन दोष की अवस्था में धातु गतत्व में भी व्यवहृत करते हैं। धातु पाचन के लिए।
[3/22, 9:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*जी आचार्य जी, विषम ज्वर दो प्रकार से हैं निज और आगंतुक।निज में तो धातुगत अवस्था आरंभ से ही है और आगंतुक मे प्रायः बाद में आती है। आपका कथन उचित है 🌹🙏*
[3/22, 9:25 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:
*त्रिशती*, हृदयंगम कर ज्वर व ज्वरोपद्रव को जो समझ कर चिकित्सा में प्रवृत्त होते हुए अन्य व्याधियों में चिकित्सा में दक्षता जाती है।
[3/22, 9:31 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*काय सम्प्रदाय के सदस्यों से निवेदन - नव स्नातक जो BAMS हैं वे भी निर्भय बनें और चर्चा मे भाग लें, अपना मत रखें या किसी पक्ष पर आपके क्या विचार हैं लिखें, इस से आयुर्वेदीय ज्ञान एवं साहित्य का संवर्धन होगा।*
*यहां ग्रुप मे अत्यन्त प्रतिष्ठित विद्वान हैं जिनसे आपको भरपूर सहयोग मिलेगा और आप सब आगे आयुर्वेद मे समर्थ बनेंगे।*
🌹🙏
[3/22, 9:32 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अत्यन्त बहुमूल्य कथन 👌👏👍❤️🙏 क्योंकि आयुर्वेदोक्त ज्वर मात्र ज्वर नहीं अनेक गंभीर व्याधियों को भी इंगित करता है और अनेक व्याधियों का समूह भी।*
[3/22, 9:40 AM] Dr. Sanjay Khedekar:
*समस्त काय संप्रदाय के गुरुजन एवं सदस्यों को सादर प्रणाम 🙏🏻। आजकल लीन दोषों के लिए सबसे अधिक मात्रा में कारण जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण एवं उपजाऊ जमीन का प्रदूषण हो रहा है। बहुत से लोग हर महीने व्याधी ग्रसित हो रहे लेकिन कारण समझ में नहीं आ रहे। अधिक वैक्सिनेशन के कारण भी बहुत से बच्चे बिमार हो रहे हैं। लीन दोष गर विष के संप्राप्ति में मुख्य भूमिका निभाते हैं। अगद एवं रसायन सेवन सापेक्ष विचार इसमें लाभप्रद सिद्ध हो सकता है।🙏🏻🙏🏻*
[3/22, 9:44 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अति महत्वपूर्ण पक्ष 👌👏👍 शास्त्रों में जैसे रोगों में सभी व्याधियों के पूर्वरूप नहीं दिये है तो हमें स्वयं ही ज्ञात कर लिखने पड़ेंगे इसी प्रकार हमें साधारण से विशिष्ट रूप में आगे बढ़ना है।*
[3/22, 9:51 AM] Dr. Sanjay Khedekar:
सादर प्रणाम गुरुजी। यह जो नये हेतु जैसे प्रदूषण, वैक्सिनेशन इनके सापेक्ष निदानपंचक का निर्माण एवं चिकित्सा सूत्रों निर्माण अति आवश्यक है।* *इसका पूर्ववर्ती ग्रंथों में सम्मिलन हो तो बहुत से कार्य आसान हो सकते हैं।*🙏🏻🙏🏻
[3/22, 10:54 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
Janpadodhwans के प्रकरण में यही बातें विस्तार पूर्वक क्रमबद्ध ढंग से बताई गई हैं
[3/22, 11:30 AM] Dr. Sanjay Khedekar:
सादर प्रणाम गुरुजी। 🙏🏻🙏🏻
[3/22, 11:59 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
Dhanyavaad Vd Sanjay
[3/22, 12:11 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
ऐसे अव्यक्त विकारों के लिए deranged clinical and bio-chemical parameters को ही आधार मानकर विशिष्ट पूर्वरूप
(लीनावस्था के चिन्ह ) निर्धारित कर देने चाहिए ।
[3/22, 1:03 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*लीन दोष:*
*तत्रस्थाश्च विलम्बन्ते कदाचिन्न समीरिताः ।*
*नादेशकाले कुप्यन्ति भुयो हेतुप्रतीक्षिणः ।।*
च. सू.अ.२८ /३२.
*दोष जब रोग उत्पत्ति मे सक्षम नही होते या रोग उत्पति पश्चात चिकित्सा करने के बाद हिन बल हो जाते है पर पुरी प्राकृत स्वरुप को प्राप्त नही होते, तब वे वही पर स्थित होकर प्रेरणा न मिलने पर कभी विलम्ब कर जाते है, (सुप्त अवस्था मे रहते है), पुनः रोग उत्पत्ति के लिए अपने हेतु की प्रतिक्षा करते है*
*इस तरह के दोष मुख्यतः रस रक्तदि घातुओं, मलादि मे या इनके स्त्रोतसों मे सुप्तावस्था मे रहते है*
*तत्रस्थश्च विलम्बेन भूयो हेतुप्रतीक्षिणः।*
*ते कालदिबलं लब्ध्वा कुप्यन्त्यन्याश्रयेष्वपि ।।*
अ. हृ. सू.अ. १३
*इन लीन दोषों को अपने कुपित होने के कारण मिल जाता है तो अदेश और अकाल मे वे रोग उत्पन्न करने समक्ष होते है*
*इस विषय पर गुरुवर श्री श्रीकृष्णजी खाण्डल सर ने बहोत स्पष्टतः चरक सूत्र अ. २८ पढने का निर्देश दिया है*
*अग्रज श्री दिनेशजी कटोच ने अपने one line statements से इस विषय पर अलग अलग उपमा देकर यह स्पष्ट किया है की जब तक लीन दोष यह दोषदुष्यसंमूर्छना नही करेगें तब तक अनुमान गम्य होगें*
*गुरुवर श्री सुभाषजी शर्मा सर ने तथ्यों के साथ एक case study present कर इस विषय की Applied Aspects को बहोत ही विस्तृत तरह से प्रमाणित कर दिया है.*
[3/22, 1:23 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
आप ने तो लीन हो चुके विशेषज्ञों के लीनदोष संबंधी भावों को सारगर्भित ढंग से व्यक्त कर दिया। साधुवाद, धन्यवाद भवताम !!
[3/22, 1:33 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
🙏🙏🙏
😄😄😄
[3/22, 1:39 PM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
अब जाके लीन दोषो विलीन हुए।
गुरुवर वैद्यराज सुभाष शर्माजीने समझाया पर स्थिर नही हुआ था तब कटोच सर ने और आपने स्थिरत्व प्रदान कीया ।
🙏🙏
[3/22, 2:17 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
आप की टिप्पणी से मन को बड़ा सुख मिला वैद्य मनसुख - यथा नाम, तथा कर्म को पूरी तरह चरितार्थ कर दिया 😊
[3/22, 7:23 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*आ.हृ.सू.अ.13,
दोषोपक्रमणीयाध्याय मे दुष्ट दोषों की चिकित्सा करते समय कुछ सूत्र दिये है. ( इन्हें हमे लीन दोषों से उत्पन्न विकारो या रोगों मे विशेष ध्यान देकर पालन करना )*
# *तत्रान्यस्थानसंस्थेषु तदीयामबलेषु तु। कुर्याच्चिकित्साम्---।* *---- स्वामेव बलेनान्याभिभाविषु।।*
*आगन्तु शमयेद्दोषं स्थानिनं प्रतिकृत्य वा।*
*प्रायस्तिर्यग्गता दोषाः क्लेशयन्त्यातुरांश्चिरम् ।।*
*कुर्यान्न तेषु त्वरया देहाग्निबलवित् क्रियाम्।*
*शमयेत्तान् प्रयोगेण सुखं वा कोष्ठमानयेत् ।।*
*ज्ञात्वा कोष्ठप्रपन्नाश्च यथासन्नं विनिर्हरेत् ।*
आ. हृ.सू.अ. १३ / २० -२३
*दूसरे दोष के आशय में स्थित आगन्तु दोष यदि दुर्बल हो तो उसे स्थान में स्थित दोष संबंधी चिकित्सा पहले करनी चाहिए, यदि आगंन्तु दोष बलवान हो तो पहले आगंतुक दोष की चिकित्सा करनी चाहिए*
*तिर्यक् मार्ग मे स्थित (मध्यम मार्ग रोग - मर्म आदिमे) दोष चिरकाल तक रोगी को कष्ट देते है, अतः शरीर बल एवं अग्नि बल का विचार कर धैर्य पूर्वक चिकित्सा करनी चाहिए. मलतब लंघन या पाचन आदि विधीयों से अथवा स्नेहन तथा स्वेदन विधीयों से सरलता से उन दोषों को कोष्ठ की ओर ले आए और जब वह दोष कोष्ठ में आ जाए तो उन्हें विरेचन आदि विधीयों से शरीर से बाहर निकलने का प्रयास करें.*
*कोष्ठ : अभ्यंतर रोग मार्ग*
*शाखा : बाह्य रोग मार्ग*
*तिर्यक् : मध्यम रोग मार्ग*
[3/22, 8:25 PM] Dr. Ashwani Kumar Sood:
👍🏽✅
[3/22, 8:43 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
Sushthu, Apratim Iti 👍🏼
[3/23, 5:40 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
*औषध अन्न विहाराणाम् उपयोगम् सुखावहम् ---- सा च चिकित्सा विकाराणाम्।*
या
*निदान परीवर्जनो इव आदौ चिकित्सा* आप इन बातों का जिक्र करना चाहते हैं क्या सर ? चिकित्सा द्रव्य और अद्रव्य दोनों तरीके से की जाती है। और अद्रव्य सिर्फ निदान परीवर्जन या विहार तक सिमीत नहीं है इसमें मंत्र, संगीत, मणी, साधु सेवा, गुरू सेवा, प्रार्थना, अभ्यर्चना, इतना ही नहीं प्राणी सेवा भी समाविष्ट है। हमें महाराज दशरथ के उदाहरण को नहीं भूलना चाहिए। पर इस समय चर्चा लीन दोष और उसपर कैसे उपचार हो इस विमर्श पर चल रही है।
[3/23, 6:23 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
I think we are getting carried away. Subhash sir just quoted a case - while explaining leen dosha - he has used fibroscan. It doesn't mean that liver fibrosis is leen Dosha. Don't even equate with autoimmune or paroxismal diseases. We need to explore every patient. *Leen dosha per say can not be a primary pathology* once you understand and accept this a lot confusion can overcome. It's a secondary stage - Post disease- due to many reasons quoted by Subhash sir, Katoch sir, Madhav ji , Arun Bhai and everybody who participated - there is incomplete management of the causative Dosha. A part still remained - which is pathologic but - due to lack of strength - stayed in citu - as well reminded by Kabra sir- waiting for external support to be reactivated. The initial underlying pathology might not be there with it's full flare - so can continue with same or can create a new pathology. We can not equate parixismal/ recurrent diseases like shwas / pratishyay/ rheumatism etc to leen dosha. In these cases pathology by virtue is not ceased out. It continued. In leen dosha pathology is broken only dosha component that to weakened one persists. Someone was talking about agni is mul. & leen dosha is nothing. I think one must go back & read. As Arunji has said, we all started to re read - re think on the concept. When it's well visible how can we deny the very existence of leen dosha?
[3/23, 7:09 AM] Dr. Pawan Madan:
A very very good morning Dr Sanjay sir ji you have rightly said we should not be carried away from the topic. I am raising such questions so that with the discussions we could make it more clear and see what is the practical utility of this concept in the clinic and are there few states of pathology or states of cases in which we can apply in this concept and have a better understanding of the line of treatment which we want to do.
All respected teachers have been guiding in a perfect way and I'm very thankful to each of them.
There are few points which need more clarification.
1.
Leen dosh is a state of doshas which are present in the body in a different form/matra other than the normal physiological but they are not able to produce symptoms.
(*Right or Wrong?*)
Or
2.
Leen dosh is a state when those doshas are present in the tissues *but they are not producing any pathological structural or physiological deformity?*
Or
leen dosh are a state of doshas which are present in an increased pathological state in the tissues with *making a change in the structural and physiological behavior of the tissues*?
Would request you to kindly help me to solve these queries so that we can further discuss the practical cases in which we when applied, the concept of leen dosha, they helped to do the treatment in the perfect way.
🙏🏻🙏🏻
[3/23, 7:14 AM] Dr.Deepika:
सादर प्रणाम गुरू जी, आपके लिखे हुए लेख से दिमाग की बत्ती जल सी जाती है, इसके लिए सदैव आभार आपका, ये प्रमाण वाली बात कुछ clear नहीं हो पा रही, ज्यादातर रोगी को dwa se Jo लाभ मिलता है उसकी बजाय वो reports में परिवर्तन देखना ही पसंद करते हैं, ऐसा हमसे बहुत बार प्रमेह इत्यादि व्याधियों में जल्दी जल्दी नहीं हो पाता।🙏🙏
[3/23, 7:31 AM] Dr. Pawan Madan:
Example,
I have a patient of kamla 35 yrs agar. He had Kamla 3 to 4 months back with a high bilirubin. We gave the treatment and he was okay symptomatically as well as in the investigations.
Now after 3 to 4 months his symptoms have started coming again as he got Kamla before?
This is a real case and not hawa hawaai or hypothetical case.
Can this be understood as a case of lean dosha avasta?
(Condition apply, we can say)
[3/23, 7:57 AM] Dr. Pawan Madan:
Another question..
Is it true that wherever the word LEEN has been used by Acharyas in various texts, it employs or depicts this concept of Leen Dosha??
Like
1
*Grahani roga*
लीनम पवकाश्यस्थम,,,,,
Charak CHIKITSA 15/75
2
*ज्वर*
क्षीणे दोषे ज्वरः सूक्ष्मो रसादिष्वेव लीयते॥६६॥
लीनत्वात्कार्श्यवैवर्ण्यजाड्यादीनादधाति सः।
Ashtanga Hriya निदान स्थान 2
3
*विलंबिका*
दुष्टं तु भुक्तं कफमारुताभ्यां प्रवर्तते नोर्ध्वमधश्च यस्य |
विलम्बिकां तां भृशदुश्चिकित्स्यामाचक्षते शास्त्रविदः पुराणाः ||२१||
(सु. उ. तं)
4
*श्वास रोग*
लीनश्चेद्दोषशेषः स्याद्धूमैस्तं निर्हरेद्बुधः ।
हरिद्रां पत्रमेरण्डमूलं लाक्षां मनःशिलाम् ॥७७॥
चरक चिकित्सा 17
5
*अपस्मार*
तत्रावस्थिता इति हृदये इन्द्रियायतनेषु च लीनत्वेनावस्थिताः। ते च लीनाः सन्तः कामादिभिरीरिताः पुनर्हृदयमिन्द्रियायतनानि च विशेषेण पूरयन्ति यदा, तदा अपस्मरति अपस्मारवेगयुक्तो भवतीति वाक्यार्थः॥४॥
👆🏻चरक निदान 8/४ पर चक्रपाणि का वक्तव्य
These are a few references, there can be many more.
I want to apply the concept in the treatment of various cases.
[3/23, 8:43 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ):
🙏एक मेरा विचार अपने व्यक्तिगत अनुभव के अनुसार -तुलसी दास जी ने रामायण (सुंदर कांड)में लिखा है काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ यहाँ नरक का अर्थ हमने जीर्ण रोग समझा है और काम क्रोध मद लोभ सब व्यक्तित्व के अनियंत्रित मानसिक विकार जो लीन रूप में सभी में संचित रहते ही हैं किन्तु अनुकूल आहार विहार पाकर भेदावसथा में पहुँच कर रोग (नरक) का मार्ग प्रशस्त करते हैं। 🙏
[3/23, 8:58 AM] Dr. Ashwani Kumar Sood:
क्या हम नर्क को लीन अवस्था मान लें
[3/23, 8:59 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुप्रभात सादर नमन पवन भाई एवं समस्त काय सम्प्रदाय, लीन दोष पर सभी विद्वानों की चर्चा बहुत ही सार्थक है और पूरी तरह clinical applable है।*
*लीन दोष अर्थात स्वः प्रकोपक करणों से दूषित दोष जो अल्प या दुर्बल हैं तथा कभी भी अनुकूल परिस्थितियां प्राप्त कर कुछ काल के लिये बली हो सकते हैं।*
*अग्निमांद्य कहां होगा ? जाठराग्नि या भूताग्नि का तो व्याधियां भी जाठराग्निगत या भूताग्निमांद्य जनित रहेगी।*
*लीन दोष कहां स्थित रहेंगे ! धातुओं में । सामान्यत: अतिसार, अग्निमांद्य, अजीर्ण, अम्लपित्त, परिणाम शूल, प्रवाहिका, विसूचिका,अलसक,विलम्बिका आदि ये लंबी श्रंखला उन रोगो की है जो जाठराग्नि गत है और धात्वाग्नि गत नही और इनमे भी एसे लक्षण उत्पन्न होते है जो जाठराग्नि गत विकृत आम जन्य है और धातुगत ना होने से विष स्वरूप हो कर गंभीर लक्षण नही उत्पन्न कर रहे तथा पथ्य, आहार विहार, दिनचर्या और साधारण औषधियों से भी ठीक हो रहे है।ग्रहणी दोष और ग्रहणी रोग, ये दोनो अलग स्थितियां है इसीलिये चरक ने ग्रहणी रोग में आम विष का उल्लेख किया है कि अजीर्णादि को जाठराग्नि से धात्वाग्नि तक पहुंचने से रोका जाये नही तो यह आमविष अन्य धातुओं में और स्रोतस में गंभीर व्याधियां उत्पन्न करेगा।*
*विलम्बिका और ग्रहणी दोष ये दोनों जाठराग्निमांद्य तक ही अभी सीमित है पर दोष इन अवस्थाओं में भी लीन है जिसका उदाहरण ग्रन्थकार दे कर चले हैं।बस यह सदैव स्मरण रखें तो अनेक रोगों में जो चाहे ग्रन्थों में ना भी वर्णित है पर क्रिया यही घटित हो रही है।*
*संहिताकार कहीं भी 'मक्षिका स्थाने मक्षिका' नहीं कह रहे है और स्वः के बुद्धिबल से भी निर्णय का अधिकार देते हैं।जैसे जैसे हम अनेक रोगों में कार्य करते जाते है तब वहां प्राप्त परिणामों के अनुसार लीन दोष क्षेत्र का विस्तार हो जाता है।*
[3/23, 9:38 AM] Dr. Pawan Madan:
Pranaam v Charan sparsh Guru ji
Aapne sahi maargadarshan Diya, par yadi ham sva ke budhibala se kuch baat rkhate hain to shayad ye baatein hawa hawaai jaisi lagti Hain.
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
[3/23, 9:48 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
वैद्य पवन सर
आपका आपको अर्पित।
कामला के लीन दोषो से ही तो कामला का पुनरावर्तन हुआ है। हिपेटाइटिस सी में जबतक हिपेटाइटिस सी के अनुकुल आहार विहारका बल नही मिलता तबतक कामला लीन रहता है सालो तक एवं आनुवंशिक तक हो जाता है , ऐसा ही होता है।
आपसे सिखा था।
[3/23, 10:14 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सदैव प्रसन्नचित एवं यशस्वी रहें पवन भाई, MD के शिक्षण काल में जामनगर मे स्वः मत, निज अनुभव पर बहुत जोर दिया जाता था, departmental seminars में तो स्थिति अति गंभीर हो जाती थी क्योंकि सभी विद्वान और सब के अपने solid तर्क पर सभी तर्कों, बुद्धि बल, शास्त्र ज्ञान एवं सदर्भ सहित प्राप्त अनुभव से अपना पक्ष सफलता पूर्वक रखते थे।आप भी अत्यन्त कर्मठ, धैर्यवान एवं विद्वान हैं अतः उदासीन भाव कदापि ना लायें 👍❤️🌹🙏*
[3/23, 11:18 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*लीन दोष को समझने के लिए चरक निदान स्थान के प्रमेह निदान को भी पढना चाहिए*
*इह खलु निदानदोषदुष्यविशेषेभ्यो विकारविघातभावाभावप्रितविशेषा भवन्ति।.........निर्वृत्तिहेतुर्युक्ताः।।*
च. नि.४/४.
*रोगोत्पत्ति के कारण : जब ये तीनों निदानादि विशेष (निदान, दोष, दूष्य) परस्पर संबंध स्थापित नहीं करते (अनुबन्धित नही होते) अथवा कालप्रकर्ष से (विलम्ब) अनुबन्धित होते हैं या अबल अंश स्वरूप वाले होकर अनुबन्धित होते हैं, उसे समय विकारों की उत्पत्ति नहीं होती है, अथवा देर से उत्पन्न होते हैं अथवा तनु (हल्के ) रूप में होते हैं या सभी लक्षणों वाले ना होकर कुछ ही लक्षणों वाले होते हैं, इसकी विपरीत अवस्था में विपरीत लक्षणों वाले रोग होते हैं।*
*इस प्रकार विघात के भाव या अभाव के विशेष सभी रोगों की उत्पत्ति में हेतु होते हैं।*
👆🏻👆🏻👆🏻
*उपरोक्त विश्लेषण यह गुरुवर श्री. गौड़ सरजी की एषणा टिका से है*
*गुरुवर ने अपनी एषणा टिका मे*
*१). विकारविघात भाव,*
*२).विकारविघाताभाव, व*
*३). प्रतिविशेष*
*इन पर विशेष टिप्पणी की है, इसे पढना चाहिए*
*दोष यह प्रायः चिकित्सा चतुष्पाद के श्रेष्ठ न होने से लीन अवस्था को प्राप्त करते है*
*क्यों श्रेष्ठ चिकित्सा निम्न है*
👇👇👇
*प्रयोगः शमयेद्व्याधिमेकं योऽन्यमुदीरयेत्।*
*नाऽसौ विशुद्धः शुद्धस्तु शमयेद्यो न कोपयेत्।।*
आ.हृ.सू.अ.१३/१६.
*जो औषध प्रयोग (चिकित्सा) एक रोग अथवा एक दोष को शांत करता है और दूसरे रोग या दोष को उभार देता है वह प्रयोग विशुद्ध (उत्तम) नहीं कहा जा सकता है. शुद्ध प्रयोग तो वह है जो एक रोग या दोष को शांत तो कर दे किंतु दूसरे रोग को न उभाड़े.*
*एक बात ओर है, चरक संहिता मे वैद्यों को प्रोत्साहित करने के लिए एक सुत्र दिया है.*
*यत्तु रोगसमुत्थानमशक्यमिह केनचित्।*
*परिहर्तु न तत् प्राप्य शोचितव्यं मनिषिभिः।।*
च.सू.अ.२८/४४.
*जिस रोग का कारण किसी से अनेक उपाय करने पर भी दुर न किया जा सके, ऐसे रोगियों को प्राप्त कर बुद्धिमान वैद्य को शोक नहीं करना चाहिए*
*समाज मे स्वयं को बुद्धिमान वैद्य की तरह अपने को प्रस्तुत करनेवाले वैद्यों ने च. सू.अ. २८/४४ श्लोक को कण्ठस्थ कर लेना चाहिए*
[3/23, 11:42 AM] Vd Shailendra Mehta:
Resp.गुरुजन,,,,, त्रिशंकु राजा की तरह विकृत दोष लीन अवस्था में, dhatwaantar space/सप्त कलाओं में ही निवास करते हैं,,और कहीं नहीं (Resp.Madan Sir ने already सुश्रुत ref. Post किया है ),,,अनुकूल परस्थितियों में ही वह धातु या srotas या tri mal etc.में, त्रिदोष(मुख्यतःvaat) की सहायता से, प्रवेश पा कर लक्षण उत्पन्न करते हैं ,,,,उचित और संपूर्ण चिकित्सा ना होने पर पुनः वहीं लीन हो जाते हैं...🙏
[3/23, 11:44 AM] Vd Shailendra Mehta:
यह लीन अवस्था,,, संचय,,,, वृद्ध,, क्षय,,,प्रकोप,,,etc.अवस्थाओं से निश्चित ही भिन्न है,,,अन्यथा इसका वर्णन ही ना होता, brihtriya mey🙏
[3/23, 11:47 AM] Vd Shailendra Mehta:
य़ह अवस्था किसी भी व्याधि,,,उसकी samprapti,,के किसी भी चरण में,,हो सकती है
[3/23, 11:52 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*वैद्यराज शैलेन्द्रजी नमस्कार*
🙏🙏🙏
*कला क्या है*
👇👇👇
*कला विवेचन*
*कला निरुक्ति :*
*कला अंशः*।
*धातुसारशेषो 'अल्पत्वात् कलासंज्ञः'*
अरुणदत्त, अष्टांग हृदय शारीर ३.९
*धातु आदि के विशिष्ट गुणयुक्त सार अंश ।*
*धात्वाशयान्तर मर्यादाः।* सू.शा.४/५.
*धात्वाशयान्तरेषु क्लेदोsवतिष्ठते यथा स्वमूष्मभिर्विपक्वः,स्नायुश्लेष्म जरायुच्छन्नःकाष्ठ इव सारो धातुसारशेषो रसशेषोल्पत्वात् कलासंज्ञः।*
अ.स.शा. ५/३०.
धातु एवं आशय के मध्य का जो क्लेद अपने-अपने ऊष्मा से पक कर स्नायु, श्लेष्मा और जरायु से उस प्रकार निर्मित होता है जैसे काष्ठ के भितरी भाग से सार भाग, उसी को कला कहते हैं।
यह धातु आदि का जलयुक्त सार अशं होता है।
कला is explain as an interface between *dhatus and ashaya* that provides a barrier between the two.So it should be a tissue membrane as it separates each dhatu from its ashaya.
कला are minute particles present in the body which are concerned with the process of formation of dhatus and malas. One of the meaning of *कला is minute constituent hence biologically active constituent* of one dhatu giving birth to another type is termed as कला.
These are membranes with special function we can correlate the Kala structurally with fascia, septum, fibrous membrane, mucous membrane or serous membrane *but functionally, we can correlate them with cells or formative elements*
*कला स्वरुप :*
# *स्नायुभिश्च प्रतिच्छन्नान् सन्सतांश्च जरायुणाः ।*
*श्लेष्मणा वेष्टितांश्चपि कलाभागस्तु तान् विदुः ।*
सु. शा. ४ / ७
*स्नायु से ढके हुए और जरायु से व्याप्त तथा कफ से वेष्टित भाग को कला कहते है ।*
*आ. गुरुवर श्री. श्रीकृष्णजी खाण्डल सर ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है, हिन बल दुष्टदोष कोष्ठ से ( अभ्यंतर रोग मार्ग से ) शाखा मे ( बाह्य रोग मार्ग मे : धातुमलादि मे) स्थित होकर अपने हेतु की प्रतिक्षा करते है*
*लीन दोष समझे तो बहोत सामान्य और सरल सिद्धांत है, ज्यादा पिष्टपेषण से कुछ नही होनेवाला है, केवल भ्रम होगा*
[3/23, 11:59 AM] Vd Shailendra Mehta:
लीन दोषों को कहीं भी sannikrishta या viprakrishta हेतु नहीं कहा है,
[3/23, 11:59 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
यथा दुष्टेन दोषण .....के अनुसार रोग की प्राप्ति/आगति/ उत्पत्ति अर्थात samprapti दोष- दूष्य sammoorchna से ही प्रारम्भ होती है , दोष के संचय, प्रकोप, प्रसर की अवस्था में नहीं ।
[3/23, 12:00 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*इस विषय पर वैद्यराज आकाशजी ने बहोत ही सरल शब्दों मे विश्लेषण किया है*
[19/03, 8:49 am] Vd. Akash Changole MD. KC. (Jamnagar):
ज्वर चिकित्सा का अपूरा होना दोषोको को धातुओं में लीन करने योग्य बनाता है। यह कुपित परंतु प्रमाण में अल्प दोष धातुओं से लिप्त होकर केवल उचित हेतु की प्रतीक्षा करते हैं और विषम ज्वर को उत्पन्न करते हैं।
यहां ज्वर शब्द व्याधि के लिए प्रयुक्त कर सकते हैं।
या विविध धातुओं के लिए भी प्रयुक्त कर सकते हैं।
रसगत ज्वर, रक्तगत ज्वर मांस गत ज्वर.
दोषों का प्रभाव धातुओं पर निरंतर होता ही रहता है। धातुओं के कार्यकारी अंश के रूप में दोषों को माना जाता है।
किसी कारण से किसी भी व्याधि की अपूर्ण चिकित्सा होने पर। या फिर संशोधन योग्य दोषों को केवल शमन चिकित्सा द्वारा साध्य कर देने पर। शेष दोष धातुओं से लिप्त होकर केवल उनके कुपित करने वाले हेतु का इंतजार करते रहते हैं। और विविध लक्षणों को व्यक्त करते हैं यही लीन दोष है
[19/03, 9:02 am] Dr Subhash Sharma:
*वैद्यवर आकाश जी,आप तो आयुर्वेद में MD हैं, इतना अच्छा ज्ञान और आयुर्वेद की व्याख्या के साथ उत्तम लेखन भी जानते हैं तो आपको अवश्य ही काय सम्प्रदाय में नियमित रूप से लिखना चाहिये 👏👍👌❤️*
[3/23, 12:03 PM] Vd Shailendra Mehta:
गुरुदेव केवल एक शंका दूर कर दे कि,,,लीन दोषों का स्थान निर्धारण करने की आवश्यकता क्यूँ पडी होगी आचार्यों को 🙏🙏
[3/23, 12:06 PM] Vd Shailendra Mehta:
उनका अस्तित्व क्यूँ माना गया 🙏
[3/23, 12:07 PM] Vd Shailendra Mehta:
शायद इस अवस्था में, लक्षण हीन होने से, यह achikitsya होंगे
[3/23, 12:10 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*रोग उत्पादक हेतु, दुष्टदोष, दुष्य का योग्य अनुबंधित न होना, रोगों की यथा समय योग चिकित्सा ना होना, दुषी विष आदि अनेक कारणों व्दारा दुष्ट दोष लीन अवस्था को प्राप्त होते है*
[3/23, 12:25 PM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*वैद्यराज शैलेन्द्रजी मे शारीर क्रिया का आदमी हूँ।*
*आप मुझे कायाचिकित्सा तज्ञ समझ रहे हो*
😄😄😄
*इसके आगे के श्लोक भी पडीयेगा, conditions apply है, स्पष्ट निर्देश दिये है चरक संहिता मे*
*सभी तथ्यों को समग्रता मे लिजिए*
*ज्वर मोक्ष के लक्षण उपस्थित होने के बाद कुछ निर्देश दिये हैं संहिता मे*
[3/23, 1:39 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
*इतने सारे उदाहरण एवं गुरूवर्य श्री सुभाष जी शर्मा जी के अनमोल मार्गदर्शन से और सभी के संवाद-प्रतिसंवाद से यह निष्कर्ष मिलता हैं की अपुनर्भव चिकीत्सा में कोई दोष लीन अवस्था में रह जाये तो वह अपुनर्भव चिकित्सा नही कहलाएगी किंतु वह विद्वान वैद्य की चिकित्सा त्रुटी कहलाएगी। सभी प्रयत्न करने के बाद भी यदि व्याधी चिकित्सा नही हो रही हैं तो उसे उस रुग्ण का दुर्भाग्य समझे और वैद्य स्वयं को इस दुख से दुर रखकर अन्य रुग्ण की चिकित्सा व्यवस्था में जुट जाए।* 🙏🏼🙏🏼😌
[3/24, 9:07 AM] Vd. AAkash changole, Amravati:
*लीन दोष*
विचार्चिका और श्वास का साथ साथ होना।
एक की चिकित्सा करो तो दूसरा नाराज।
[3/24, 12:34 PM] Dr Sanjay Dubey:
लीनान-श्लिष्टान् अनुत्कलिष्टान् स्वस्थानाद ।
चलितान् न निर्हरत- वमनादिभी न शोधयत् ।(अरुण दत्त)
[3/24, 7:46 PM] Vd. AAkash changole, Amravati:
प्रकृति और दोष संबंध और दोषो का लीनत्व*।
कोई भी स्वस्थ व्यक्ति का स्वस्थता की दृष्टि से परीक्षण करने पर उसके प्रकृतिस्थ दोषकर्मो का अनुमान लगाना थोड़ा सुलभ है।
यही व्यक्ति विकारग्रस्त होने पर लक्षणों के अनुसार हम दोषों का चयन करते हैं। ईस दशा में हम विकृति को प्राप्त हुए दोष का विवेचन करते हैं।
रुग्ण चिकित्सा करते वक्त प्राकृतिस्थ दोष कर्मों को बाधा न पहुंचाते हुए विकृति को प्राप्त हुए दोष का समाधान निकालना पड़ता है। इस तरह के कई संदर्भ गुल्म चिकित्सा में मिलते हैं।
एक उदाहरण के तौर पर समझते हैं।
मेरा एक रुग्ण पुरुष.
पित्त प्रधान प्रकृति का। इस आतुर को एक बार स्कंध से लेकर मन्या तक जो अक्षकश्ती के ऊपर का
मासल प्रदेश होता है वहां पर हाथ लगाते ही वेदना अनुभूति हुई। परीक्षण करने पर वहां अल्प शोथ प्रतीत हुआ। स्पर्श असहत्व तो था ही।
इस आतुर को अविपत्तिकर चूर्ण वटी एक गोली सुबह है एक गोली शाम को खाना खाने के बाद दी गई। जिससे अगले दिन ही पूरा उपशय मिल गया।
इस रुग्ण को बार-बार बार-बार उष्ण असहत्वा, अल्प मुखदुशिका होती रहती है। हस्त पाद दाह अल्प रहता है।
आतुर जीस प्रकृति का होता है उस प्रकृति का कारण भूत दोष सभी धातुओं पर सत्ता अर्जित करता है। यू मांन कर चलिए कि आप उस सत्ता को जीत नहीं सकते। आप उसे सिर्फ विकृत अवस्था में सम कर सकते हो। या फिर दूसरे विकृत दोष की चिकित्सा इस तरह से कर सकते हो जिससे प्रकृति निर्माण करने वाला दोष कुपित न हो।
गुलम चिकित्सा पढ़ते वक्त वहां स्पष्ट संकेत है की हर गुल्म में vaaत ही होता है लेकिन जिस दोष का अनुबंध हो उस अनुबंध की चिकित्सा करते वक्त वात की तरफ एक निगाह जरूर होनी चाहिए।
यहां सिर्फ उदाहरण के तौर पर वात को गुल्म की प्रकृति कह सकते हैं।
कहने का तात्पर्य इतना ही है,
आप जिस दोष की प्रधानता से बने हैं उसे दोष के गुणों की आपके सभी धातुओं पर कुछ ना कुछ सत्ता रहती ही है। अगर इस सत्ता को पहचानने में भूल हुई तो वातव्याधि को केवल वात व्याधिही समझ के ट्रीट किया जाएगा और पित्त निरंतर कुपित होता रहेगा। उसे पित्त का धातुओं पर छुपा प्रभाव होता ही रहेगा और न जाने किस किस तरह से वह अपने लक्षणों को प्रकट करते रहेगा।
लीन पित्त के बारे में मुझे इतना ही कहना था।
[3/24, 7:49 PM] Vd. AAkash changole, Amravati:
पहले कच्चा टाइप करना पड़ता है ताकि कोई गलती की गुंजाइश न हो और हो भी तो आप तो हो ही।
इस बात का संकेत कुछ इस तरह से मिलता है की जिसकी प्रकृति पित्त की हो वह व्यक्ति तीखा खाना और ज्यादा पसंद करता है।
मैंने कई बार यह देखा है कि इस रुग्ण को केवल विकृत अवस्था में ही शीत गुण का सेवन करना अच्छा लगता है। लेकिन प्रकृति अवस्था में उसे न जाने क्यों उष्ण गुण सेवन करने की इच्छा प्राप्त होती है।
फिर एक अनुमान लगाया कि हमारे प्रकृति के निर्माण में जो दोष प्रधान है उसे कुछ हद तक विरुद्ध गुण से द्वेष होता है। क्योंकि वह विरुद्ध गुण प्रकृतिस्थ दोष की सत्ता को छेड़ने की कोशिश करता है। और प्रकृति ऐसा होने देना नहीं चाहती।😃😃😃😃😃
[3/24, 7:53 PM] Vd. AAkash changole, Amravati:
कल्प विश्लेषण
मधुर तिक्त मृदु विरेचन
वात शमन _ शूल शोथ
पित्त प्रकृति निशोत्तर आदि द्रव्य विरेचन है । शर्करा वात को शमन करने में कार्यकारी।
[3/24, 10:53 PM] Vd. Atul J. Kale:
गुरुजी लि न बीजस्वरुप हो सकता है, बीज कारण है, कार्यका आधार.
[3/25, 2:41 PM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
अपना आहार विहार शरीर में रोग उत्पत्ति का कारण बनेगा ही।और कोई न कोई रोग उत्पन्न होगा ही। तब कहा जाएगा की लीनदोष उसका कारण है।
यह तो होना था।
यह pre-diabetes वाली बात हो गई।
प्रेग्नेंसी है या नही । दो में से एक ही जवाब होना चाहिए। प्रि-प्रेग्नेंसी यह संतुष्टीदायक उत्तर नही है ।
नये चिकित्सको को भ्रमित करने का प्रयास बारबार मत करिए ।
गुरुवर वैद्यराज सुभाष शर्माजी ने और डो कटोच सर और अन्य गुरुजनोंनें उदाहरण के साथ समझाने बाद भी इसमें अटके हो। कृपया बहार आइए।
[3/25, 3:47 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आज होली पर रंगोत्सव की समस्त काय सम्प्रदाय को शुभकामनायें, आज वसंत पूर्णिमा है।
'वसन्तशब्देन वमनं प्रति चैत्र एव बोद्धव्यः; येन, दोषचयाद्यर्थं पञ्चकर्मप्रवृत्त्यर्थं चाभिधातव्य-प्रावृडाद्यृतुक्रमेण फाल्गुनचैत्रौ वसन्तो भवति'
च सू 6/26
पर आचार्य चक्रपाणि, हेमन्त और शिशिर में संचित कफ को वमनादि से बाहर निकालने का यह श्रेष्ठ काल है, वसंत को वमन के लिये चैत्र मास से बताया गया है। रंगोत्सव पर chemicals से निर्मित रंगों से भी लीन दोष बली हो कर विकारोत्पन्न में सक्षम हो सकते हैं।*
*प्रथम तो यह कि लीन दोष वो 'दूषणात् दोषः' हैं जो स्वयं दूषित हो ही चुके हैं, बल में अल्प है और छिपे रहते हैं तथा अवसर पाते ही बली हो कर लक्षण प्रकट करेंगे और व्याधि उत्पन्न कर पूर्ववत लीन हो सकते है इसलिये इन्हें उत्क्लिष्ट कर इनका शोधन कर शरीर से निर्हरण आवश्यक है।*
*इनके दूषित होने और हो कर लीन होने और कुपित होने के अनेक कारण हैं जिसके लिये पूर्ण विषय को समग्रता से जानना आवश्यक है...*
*1- दोषों के स्वः प्रकोपक कारण जैसे मिथ्या आहार विहार।*
*2- आदिबल अथवा आनुवंशिक कारण*
*3- स्त्री-पुरूष से लिंग भेद और शारीरिक संघटन*
*4- सामाजिक परिवेश जन्य जैसे शाकाहारी, मांसाहारी, त्यौहारों पर भोजन, उपवास अधिक होना, अनेक परिवारों में रात्रि भोजन देर से करना आदि।*
*5- मनुष्य की विभिन्न आदत - जैसे सिगरेट, तम्बाखू, मदिरापान, अति विचारवान हो कर सोचते रहना आदि*
*6- देश, क्षेत्र और पर्यावरण जैसे साधारण, आनूप और जांगल देश के साथ दिल्ली जैसा क्षेत्र जहां pollution की भरमार है इसे हम चौथा देश नारकीय देश मानते हैं।*
*7- आर्थिक स्थिति - कितने रोगी पंचकर्म अथवा स्वर्ण योग का लाभ अधिक समय या बार बार ले सकते हैं।*
*9- अच्छी चिकित्सा सेवा एवं व्यवस्था - अनेक पर्वतीय क्षेत्रों पर तो आपातकालीन व्यवस्था अभी तक नहीं है और ग्रामीण क्षेत्रों में गांव से शहर तक पहुंचने से पूर्व ही किसी तरह रोग की चिकित्सा ना कर दबा देना।*
*10- आयुर्वेद के प्रति अशिक्षा - सभी स्कूलों में प्राईमरी से ही आयुर्वेद किसी ना किसी रूप में शिक्षण का अभिन्न अंग बने जिस से रोगी स्वयं, रोग हेतु और स्वस्थ का मूल भाव क्या है ये जान सके।*
*11- जनसंख्या अधिक होना - आबादी बढ़ गई पर वनस्पतियों, आहार और औषध के लिये क्षेत्र कम होता जा रहा है जिस से गुणवत्ता कम कर के chemical युक्त एवं hybrid आहार औषध बढ़ती जा रही है।*
*12- आयुर्वेदज्ञों द्वारा इस प्रकार के लीन दोषों पर उपेक्षा, इस पर चर्चा में रूचि ना रख कर ऐसे विषयों से बच कर दूरी बना लेना।*
*13- लीन दोष पर clinical कार्य का उपलब्ध ना होना जिस से अधिक से अधिक लोग प्रेरित हो कर स्वंय भी सिद्धान्तों का निर्माण कर सके।*
*14- विभिन्न antibiotics, analgesic, antiinflammatory अथवा अनेक औषधियों का बिना सोचे समझें ही (इनका प्रयोग भी अनेक बार आवश्यक हो जाता है पर ज्ञान के साथ) तुरंत लाक्षणिक लाभ के लिये अनावश्यक प्रयोग।*
[3/25, 3:51 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अचय प्रकोप और लीन दोष प्रकोप में भी भेद है।*
[3/25, 4:04 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
दोष की लीनावस्था ना तो संचय है, ना प्रकोप है, ना प्रसर है, ना आशयपकर्ष है। यह अवस्था स्थान संश्रित दोष द्वारा dosh-dusya sammoorchhna को पूर्ण ना कर पाने से अनुत्पन्न रोग की पूर्व अवस्था है अर्थात स्थान संश्रित दोष की अकार्मुकता या हीनबलता की स्थिति है।
[3/25, 4:17 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
आभार वैद्यवर अशोक जी, क्योंकि लीन कोई मृत प्राय नहीं बस अल्प बली है, इसको रसशेषाजीर्ण अच्छी तरह समझ कर ही जाना जा सकता है।इस पर हम पहले भी लिख चुके हैं कि आचार्य सुश्रुत इसी प्रकरण को ध्यान में रख कर आरोग्य मंजरी में आचार्य नागार्जुन ने एक बहुत ही श्रेष्ठ उदाहरण रसशेषाजीर्ण का दिया है कि भोजन के पश्चात जब अजीर्णावस्था से मनुष्य बाहर आ गया और शुद्ध उद्गार भी आ गई पर फिर भी मनुष्य आगामी भोजन काल में भोजन करने की इच्छा नहीं है, किसी आहार में कोई रूचि नहीं है,मुख में श्लेष्मा या चिकनाई सी प्रतीत होती है,सन्धियों में पीड़ा सी प्रतीत होती है और शिर में गुरूता अथवा भारीपन बना रहता है तो यह रसाजीर्ण की मंदावस्था है।*
*रसाजीर्ण जब जब बढ़ जाता है तो ह्रल्लास, उत्क्लेश,ज्वर, मूर्च्छा आदि अनेक उपद्रवों को करता है।यहां मंदरसाजीर्ण और तीव्ररसाजीर्ण दो प्रकार अवस्थायें आचार्यों ने स्पष्ट की है।*
*रोगों की मंदावस्था भी अल्प बली दोषों से ही होती है।जिसका उदाहरण आगे चरक में ग्रहणी रोग में इसी विषय पर दिया गया है।*
[3/25, 4:33 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*पंचकर्म तीन उद्देश्य की प्राप्ति के लिये किया जाता है..*
*स्वस्थ मनुष्य में - 1- दिनचर्या में 2- ऋतुचर्या में और 3- वेगावरोध जन्य लक्षणों को दूर करने के लिये।*
*रसायनादि कर्म के पूर्ण लाभ पाने से पूर्व।*
*तीसरा विभिन्न रोगों के अनुसार।*
*लीन दोषों में प्रथम विधान पंचकर्म के यथासंभव कर्मों द्वारा शोधन का भी है यहां स्वस्थ व्यक्ति का criteria of assessment बनाना आवश्यक है।*
[3/26, 12:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*लीन दोष - व्याधि का अधिष्ठान कहां ?*
*रज और तम के दृष्टिकोण से देखिये कि क्यों अब IVF अधिकतम हो रहे हैं और अधिकतर sittings fail !*
*शरीर में मातृ बनने की वय क्या है पर विवाह ही अब महानगरों में 32 वर्ष के आसपास भी एक average वय आ चुकी है।*
*Priority तो कैरियर है ही जो आज की एक आवश्यकता भी बन चुका है तथा हमारे पास अनेक रूग्णायें ऐसी आ रही हैं जो 38-40 वर्ष में प्रथम गर्भधारण की इच्छुक हैं पर गर्भिणी बन नहीं पा रही। क्योंकि प्रकृति की व्यवस्था कुछ और है पर यहां मानस भाव रज और तम अधिक प्रभावशाली हो गये।*
*उसी प्रकार से धात्वाग्नि और धातुयें प्रभावित हो रही है या समय से पूर्व गर्भ धारण कर भी लिया तो संतान अभी नहीं चाहिये और क्रिया गर्भपात ।*
*स्वस्थ रहने के लिये जो पैरामीटर बना लिये वो अप्राकृतिक हैं पर शरीर तो प्राकृतिक है और इसकी व्यवस्था भी। दोष प्रकुपित हैं पर विविध उपायों से अल्पबली, हैं तो शरीरस्थ ही। सम्प्राप्ति में सम्मूर्छना नहीं कर रहे पर लीन हो गये विशेषकर मानस दोष। इसे हम आगे स्पष्ट करेंगे पर ये भी चिंतन करें कि लीन दोष का अधिष्ठान वास्तव में हैं कहां ?*
[3/26, 5:14 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
लीन दोष अगर शरीर मे कही रहते हो तो उनका स्थान धात्वांतर - कला स्थित होना अधिक संभवीत है। दोष अमूर्त द्रव्य है इस हेतू उसे आकाश की अपेक्षा नहीं है। उर्जात्मक दोषोंकी बिगड़ी हुई स्थिति - जो संमूर्छना टुटने के पश्चात अल्पबल - शरीर में खवैगुण्य की राह देखते हुए - कालप्रकर्षादी निदान की अपेक्षा में - शरीर में प्रवर्तमान हो सकते हैं। लीन दोष काल प्रकर्षादी दोषप्रकोपक कारणों की प्रतिक्षा में है परंतु- अहो,रात्री या भुक्त के कारण होनेवाले देहव्यापार स्थित दोषप्रकोप से व्याधीकारक नहीं होते हैं यह भी ध्यान में रखना चाहिए।
[3/26, 6:04 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
हर व्यक्तिमें लीन दोष होते ही है।
लीन दोषको अनुकूल माहौल मिलने पर वह उभर कर बली होकर जो व्याधि उत्पन्न करते है।
तब उनकी चिकित्सा करनी होती है।
लीन दोष की चिकित्सा होती ही नही है ।
क्यु ????
हमे पता ही नही ।
हम लीन दोषकी चिकित्सा कभी करते ही नही।
क्युं की लीन दोष रोग विकार व्याधि उत्पन्न करेगें ही नही । लीनदोष वाले मरीज हमारे पास आते ही नही ।
[3/26, 6:07 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
लीन जब लीन अवस्थामें है तब रोग विकार व्याधि करते ही नही।
[3/26, 7:28 AM] Dr. Pawan Madan:
Pranam and Charan Vandan Guru ji.
*Leen dosh is a state of doshas which are present in the body in a different form/matra other than the normal physiological but they are not able to produce symptoms.*
*Leen dosh is a state when doshas are present in the tissues anywhere in the body* but they are not producing any pathological structural or physiological deformity.
*Leen doshas could be present anywhere in the body practically with a vulnerability to do dosha dooshya sammoorchana when stimulated by any or required internal or external factor.*
🙏🏻🙏🏻
[3/26, 8:08 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुप्रभात पवन जी, एक बार अपस्मार भी देखिये ।*
[3/26, 8:09 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*विषम ज्वर का तृतीयक आदि बहुत समय तक चलना ।
[3/26, 8:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
लीन अल्प बल के हैं।*
[3/26, 8:13 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
अल्प बल के पुनः कुपित हो कर धातु दूषित कर लक्षण करते हैं और फिर अल्प बली हो कर शांत यह प्रक्रिया अपस्मार - विषम ज्वर मे निरंतर लंबे समय तक चलती है।*
[3/26, 8:15 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
अपस्मार मे रज और तम है, दोष अमूर्त्त से मूर्त की प्रक्रिया में कैसे रत हैं पहले यह तो देखें।*
[3/26, 8:16 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
संतत और सतत ज्वर में लीन दोष द्वारा acute febrile illness उत्पन्न करने के सटीक उदाहरण हैं।
[3/26, 8:23 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏गुरुवर !
यहा चिकित्सा तो विषम ज्वर की ही करनी है । चिकित्सा करने पर भी अपुनर्भव नही कर सकते। चिकित्सा करने पर दोष लीन हो जाएगा । फीर लीन दोष को अनुकूल आहार विहार से बल मिलने पर पुनः विषम ज्वर होगा।फिर विषम ज्वरकी चिकित्सा करेंगे।
इस तरह विषम ज्वर का पुनरावर्तन होता रहेगा ?????
🙏
[3/26, 8:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुप्रभात सादर नमन - 🌹🙏
इसी कारण जो हम लिख कर चल रहे हैं हमारे अनेक ग्रन्थकारों ने संतत ज्वर को विषम ज्वर में लिया ही नहीं हैं और कई तो केवल तृतीयक और चतुर्थक को ही मात्र मान कर चले हैं, केवल लीन के कारण।*
[3/26, 8:26 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*एक बार विषम ज्वर को विस्तार से देखिये कि क्यों इस पर अनेक ग्रन्थकारों मे इतना अधिक मतभेद है ? हमारे लिखने यही तो उद्देश्य है कि लीन का मूल भाव क्या है।यह मतभेद पहले भी था।*
[3/26, 8:36 AM] Vd Shailendra Mehta:
Sir,मेंने पिछली पोस्ट में, चरक आचार्य के ज्वर मुक्ति उपरांत rechan,,इस सिद्धांत पर बल दिया था,वह लीन (अवशिष्ट, अल्पबलि) दोषों को, जो भविष्य में punarbhav को प्राप्त कर सकते हैं, निर्मूल करने के सन्दर्भ में ही था 🙏🙏
[3/26, 8:59 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सामान्य ज्वर, विषम ज्वर एवं धातुगत ज्वर इन सब की अलग अलग सम्प्राप्ति बनाईये।
'धातुस्थाः सर्वं एवैते विज्ञेया विषम ज्वराः'
सिद्धान्त निदान में गणनाथ सेन जी ने सुश्रुत का उदाहरण देते हुये स्पष्ट किया है कि विषम ज्वर में ज्वर धातुओं में लीन या प्रछन्न रूप में रहता है अतः सभी धातुगत ज्वरों को भी विषम ज्वर ज्वर में मान लेना चाहिये क्योंकि इनके वेग विषम होते हैं।*
*आयुर्वेद का विषम ज्वर मात्र ज्वर नहीं अनेक व्याधियों की सम्प्राप्ति को भी स्पष्ट करता है जो आधुनिक रोगों के रूप में विद्यमान है।*
*कल हम यह लिख कर चले थे कि पंचकर्म क्यों ? पंचकर्म तीन उद्देश्य की प्राप्ति के लिये किया जाता है..*
*स्वस्थ मनुष्य में -
1- दिनचर्या में
2- ऋतुचर्या में और
3- वेगावरोध जन्य लक्षणों को दूर करने के लिये।*
*रसायनादि कर्म के पूर्ण लाभ पाने से पूर्व।*
*तीसरा विभिन्न रोगों के अनुसार।*
*'ऋत्वहोरात्रदोषाणां१ मनसश्च बलाबलात् ।
कालमर्थवशाच्चैव ज्वरस्तं तं प्रपद्यते'
च चि 3/75,
ऋतु और दिन-रात स्वभाव के अनुसार भी दोष बलवान हो जाता है और विषम ज्वर को उत्पन्न करता है। यहां मन के बल को भी विशेष रूप से लिया गया है कि सत्वगुण और सत्वसार में रोग की वृद्धि अधिक नहीं होती।*
[3/26, 9:18 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
आप में से अनेक विद्वान लीन को स्पष्ट रूप से समझे बिना ही चिकित्सा करने चल दिये, विषम ज्वर में दोष लीन है पर विषम ज्वर की सम्प्राप्ति तो बनती ही है ना ! इसका अर्थ लीन अल्प बली होते हुये भी दोष-दूष्य सम्मूर्छना घटित सम्प्राप्ति में विद्यमान है।*
*अगर आज ज्वर समाप्त हो गया तो क्या सम्प्राप्ति विघटन हो गया, अब ज्वर तीसरे दिन फिर आ गया और यह तीन दिन का क्रम 6 महीने चला तो क्या बार बार सम्प्राप्ति विघटन या सम्मूर्छना का यह कोई खेल चल रहा है।*
*प्रिय शैलेन्द्र जी हमने लीन दोष के आरंभ होने पर पहले ही यह लिखा था कि ज्वर मुक्त हो गया यह तो प्रत्यक्ष ही है फिर ज्वर मुक्ति के लक्षण क्यों लिखे आचार्यों ने ! अनेक और रोगों में तो नहीं लिखे।*
*विषय की गंभीरता को समझे कि हम 40 वर्ष चिकित्सा करने के बाद लीन दोष क्यों ले आये ? हम कोई हठी नहीं है जो इस विषय पर अटक गये।आज भी 8 घंटे clinical practice और कम से 2 घंटे रात्रि में ग्रन्थों का अध्ययन हमारी प्रतिदिन की चर्या है।*
*ग्रन्थों में वर्णित सिद्धान्तों को प्रत्यक्ष प्रायोगिक रूप में ला देना जिस से आप सब भी अपने चिकित्सा क्षेत्र में प्रयोग कर सकें यही हमारा ध्येय है।*
*आज बहुत से मित्र हमें यही कहते हैं कि जीवन में भल्लातक प्रयोग करना, ut. fibroids, pcod, hepatitis B आदि कठिन रोगों की चिकित्सा करना उन्होने काय सम्प्रदाय से ही सीखा है।*
*पहली बार इन विषयों पर सम्प्राप्ति बना कर लिखा था तो लोग हमें पागल 🤣😂 समझते थे क्योंकि इस तरह ना तो पढ़ाया जाता था और ना ही practice में लाना सिखाते थे।*
[3/26, 9:33 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अनेक पुराने वैद्यगण blood cancer की चिकित्सा विषम ज्वर मान कर ही चलते थे और सफलता पूर्वक अपने रोगियों को दीर्घायु प्रदान कराते थे। विषम ज्वर को आधुनिक संदर्भ मे धातुगत आधार पर जान लीजिये बढ़े गंभीर रोग और उनकी चिकित्सा भी इन्ही में लीन है।*
[3/26, 9:40 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुप्रभात पवन जी, एक बार तृतीयक विषम ज्वर की सम्प्राप्ति, अंशाश कल्पना एवं घटक सहित बना कर सामने रखें ।* 🌹🙏
[3/26, 9:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुप्रभात नाड़ी गुरू संजय जी, आप से निवेदन है कि आप अपस्मार रोग की सम्प्राप्ति, घटक सहित बना कर दे दीजिये हम फिर चर्चा करेंगे क्योंकि विषय तब अधिक स्पष्ट हो सकता है जब उस रोगी की सम्प्राप्ति हमारे समक्ष होगी।*
[3/26, 12:01 PM] Dr. Pawan Madan:
Ji Guru ji
*अपस्मार*
तत्रावस्थिता इति हृदये इन्द्रियायतनेषु च लीनत्वेनावस्थिताः। ते च लीनाः सन्तः कामादिभिरीरिताः पुनर्हृदयमिन्द्रियायतनानि च विशेषेण पूरयन्ति यदा, तदा अपस्मरति अपस्मारवेगयुक्तो भवतीति वाक्यार्थः॥४॥
👆🏻चरक निदान 8/४ पर चक्रपाणि का वक्तव्य
Here *tatra avasthitaa* means the place of consciousness, which is heart as well as the place of sense organs and the lean doshas remain here without causing any symptoms and
when these leen doshas which are present in an inactive stage gets stimulated by the factors as mentioned in in the shloka 4, they get aggravated and they react with the place of their location and cause a temporary dosha dushya sammoorchana which produces symptoms.
After some time these aggravated leen doshas again decrease up to a threshold value when they are not able to produce dosha sammoorchanaa and thus not able to produce symptoms and then this stage may be called as a repressed stage.
Please guide if this is a right understanding..🙏🏻🙏🏻
[3/26, 1:50 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
तत्रावस्थिता से धमनीभि: श्रिता (अपस्मार में लीन दोष का स्थान) लेना हैं । च. चि. १० - ६
यही दोष आगे जा के हेतु सेवानाधिक्य से प्रबल होकर हृदय को पीड़ा देकर अपस्मार रोग का कारण बनता हैं।🙏🏼
[3/26, 2:11 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
हेतु सेवानाधिक्य -
१. अहितकर एवं अशुचिभोजन,
२. रजस्तमोभ्यां विहिते सत्त्वे दोषावृते हृदि ।।
३. चिन्ताकामभयक्रोधशोकोद्वेगादिभिस्तथा। मनस्यभिहते नृणामपस्मार: प्रवर्तते।।
[3/26, 6:39 PM] Dr. Pawan Madan:
Ji Guru ji, jaise hi samay milta hai, koshish karta hoon.
[3/26, 6:40 PM] Dr. Pawan Madan:
You are right, but Chakrapaani has also said this -- तत्रावस्थिता इति हृदये इन्द्रियायतनेषु च लीनत्वेनावस्थिताः।
[3/26, 6:49 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
*धमनीभिरिति यद्यपि सामान्येनोक्तं, तथाऽपि हृदयपीडायोग्यतया हृदयाश्रिता एव धमन्यो विशेषेण गृह्यन्ते|*
यह भी चक्रपाणी ही कहते है जी।
[3/26, 7:05 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
*Some interesting facts from modern science:*
• Chronic epilepsy damages the structural integrity of the heart and its vasculature, *“The Epileptic Heart.”*
• Epilepsy confers a 3-fold higher risk for sudden cardiac death than in the general population beyond SUDEP (Sudden Unexpected Death in Epilepsy).
• T-wave alternans can detect arrhythmia risk to improve diagnosis and guide therapy.
• Vagus nerve stimulation can afford dual protection by reducing seizure and suppressing cardiac electrical instability.
[3/26, 7:09 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
And आचार्य चरक indicates very interesting treatment for चिरकारी अपस्मार as following:
प्रयुञ्ज्यात्तैललशुनं पयसा वा शतावरीम्|
ब्राह्मीरसं कुष्ठरसं वचां वा मधुसंयुताम्||६४||
*दुश्चिकित्स्यो ह्यपस्मारश्चिरकारी* कृतास्पदः |
तस्माद्रसायनैरेनं प्रायशः समुपाचरेत्||६५||
[3/26, 7:47 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
सभी धमनी ह्रदय से संबंधित है। किंबहुना ह्रदय से निकलनेवाली नाडी, जो धमन युक्त है । वहीं धमनी है।
[3/26, 7:48 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
धमनी का कोई और उद्भव स्थान नहीं हो सकता है।
[3/26, 7:57 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
प्रणाम नाडीगुरुजी, सभी धमनी हृदय से संबंधित हैं पर सभी अपस्मार से संबंधित नही हैं। धमनीयां जो हृदयपीड़ा में कारण होंगी वहीं धमनीयां यहां पर अपेक्षित हैं।
[3/26, 10:07 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
जी अपस्मार व्याधि में स्मृति का विषेश सम्बंध हैं, बुद्धि पर असर बाद में होता हैं।
Apasmar implies "loss of memory", charactersied by loss of conciousness (entering into darkness) and disgusting movements of limbs caused by derangement of the intellect (बुद्धि) and the mind.
*अपस्मारनिरुक्तिः*
*स्मृतेरपगमं प्राहुरपस्मारं भिषग्विदः|*
तमःप्रवेशं बीभत्सचेष्टं धीसत्त्वसम्प्लवात्||३||
आयुर्वेददीपिका व्याख्या (चक्रपाणिदत्त कृत)
स्मृतेरपगम इत्यादिनाऽपस्मारसञ्ज्ञां व्युत्पादयन्नपस्मारस्वरूपमाह| स्मृतेरपगममेव विशिनष्टि- तमःप्रवेशमिति| बीभत्सचेष्टमिति तमःप्रवेशेन ज्ञानाभावत्वाद्बीभत्सचेष्टा [१] फेनवमनाङ्गविक्षेपणादिका यस्मिन्नुपगते तं बीभत्सचेष्टम्| बीभत्सचेष्टे स्मृत्यपगमादौ च हेतुमाह- धीसत्त्वसम्प्लवादिति| सम्प्लवः विभ्रमः, स्वरूपान्यथात्वमिति यावत्||३||
१. ‘बीभत्सविचेष्टनवद्वदनाङ्गविक्षेपणादनुमितं बीभत्सचेष्टम्’ इति पा.
[3/26, 10:40 PM] Dr. Pawan Madan:
*Respected Guru Ji*
The definition of Visham Jwara is made based on the manifestation of Fever Vega.
विषमो विषमारम्भक्रियाकालोऽनुषङ्गवान्| - ASH HRI 2/69
GENERAL SAMPRAPTI OF VISHAMA JWARA
कृशानां व्याधिमुक्तानां मिथ्याहारादिसेविनाम्|
अल्पोऽपि दोषो दूष्यादेर्लब्ध्वाऽन्यतमतो बलम्||६४||
सविपक्षो ज्वरं कुर्याद्विषमं क्षयवृद्धिभाक्|
दोषः प्रवर्तते तेषां स्वे काले ज्वरयन् बली||६५||
निवर्तते पुनश्चैष प्रत्यनीकबलाबलः| - ASHT HRIDY – 2
दोषोऽल्पोऽहितसम्भूतो ज्वरोत्सृष्टस्य वा पुनः |
धातुमन्यतमं प्राप्य करोति विषमज्वरम् ||६६|| - SU SAM 39
VISHAM JWAR ME LEENATVA
धात्वन्तरस्थो लीनत्वान्न सौक्ष्म्यादुपलभ्यते |
अल्पदोषेन्धनः क्षीणः क्षीणेन्धन इवानलः ||६५|| - SU UTT 39
क्षीणे दोषे ज्वरः सूक्ष्मो रसादिष्वेव लीयते||६६||
लीनत्वात्कार्श्यवैवर्ण्यजाड्यादीनादधाति सः| - ASH HRI NIDAN 2
*When the Doshas get weakened, they remain in the recessive stage. In this stage the JWARA (not only fever) which is present, is only present in minute form in various tissues. And though there is no evident fever, but a few other symptoms of Jwar are present like* – *KRISHATAA, DAURBALYA, VIVARNTA, GAURAV etc.*
*Here the word LEEN may depict that the DOSHA have been accumulated or consolidated or limited to a small particular place, and they are not circulating much in the body.*
*TRITIYAK JWAR*
दोषोऽस्थिमज्जगः कुर्यात्तृतीयकचतुर्थकौ||६४|| - CH CHI 3/64
कफपित्तात्त्रिकग्राही पृष्ठाद्वातकफात्मकः|
वातपित्ताच्छिरोग्राही त्रिविधः स्यात्तृतीयकः||७१|| - CH CHI 3
----------------------------मेदोनाडीस्तृतीयके||७०||
ग्राही पित्तानिलान्मूर्ध्नस्त्रिकस्य कफपित्ततः|
सपृष्ठस्यानिलकफात्स चैकाहान्तरः स्मृतः||७१|| - ASH HRI NID 2
*TRITEEYAKA JVARA SAMPRAAPTI*
-When Doshas traverse from throat (Kantha) to stomach in two days and night, on the third day they produce Triteeyaka Jvara.
-The channel of Meda is more distal to Maamsa, so the Doshas reach there relatively in more time and Jvara occurs after one day (at the third day from the previous paroxysm), this is Triteeyaka Jvara.
It has following subtypes....
*Trika Graahi Jwara* - due to aggravation of Kapha and Pitta. Onset is said to from sacroiliac region.
*Prishtha Graahi Jwara* - due to aggravation of Vaata and Kapha. Onset is said to from back.
*Shiro Graahi Jwara* - due to aggravation of Vaata and Pitta. Onset is said to from head.
*TRITEEYAKA VIPARYAYA* -
-When Dosha are situated in throat, chest and stomach, they produce Jwara opposite to Triteeyaka Jvara which has remission on third day. It remains for first two days.
*All the above descriptions indicate the appearance of the symptom of fever as Jwara Vega, though the Doshas are already present in the Dhatus and in the stage of Dosha Dhatu sammoorchana, and when these Doshas get a lift due to some factors, they manifest fever. Though we can say, other features of Jwara (other than fever) may be present during that phase of NO Fever.*
This is as per my understanding, tried my level best.
Thanks sir..🙏🏻
[3/26, 10:51 PM] Vd. Atul J. Kale:
बहुतही बढियाँ 👏🏻👏🏻👏🏻
[3/26, 11:17 PM] Vd. Atul J. Kale:
When I think about doshas, I always try to visualize. Many of our siddhantas from योग to कण, gives an appropriate base to our Ayurveda.
Kan means particles shows there importance in संहती. समसंहननो नर:, संहती निबिडत्व like that. Panchbhautik siddhanta, swabhavoparamovad
all these siddhantas & Vadas can show us the picture which is behind.
कण is beyond cellular level as we can say the cytoplasm is also made up of कण. Accordingly the space between two adjustant particles matters.
If वाय्वाग्नि present in कण are in their normal form, अल्पविगुणदोष will not be allowed to vitiate.
In Jwara condition we can observe in our body that Agni in each & every cell is not in its normal condition. So शरीरगौरव, उत्साहहानी, तम we can observe.
So in mild असंहत धातुs there is small space which can accommodate अल्पबलविगुण दोषाs.
In today's era we know all about cellular structures and so on.
We always think about references. But we have to elaborate sutra on the basis of rational Siddhantas by taking new inventions in account. We have to use new era tools to understand Apta and Anuman.
Perfection in treatment is possible only then when we explore more Pratyakha. नहीं तो सबकी चिकित्सा भिन्न, कार्यकारणभाव भिन्न, चिकित्सासूत्र भिन्न ये चित्र बनाही रहेगा। we have to come out of our comfort zone.
[3/26, 11:31 PM] Dr. Pawan Madan:
👊🏻🤛👊🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
Perfectly said.
Precisely, in other language, it's the *Quanta* as described by the Quantum Physics.
The Quanta exists as *a mass energy particle entity*.
This Quanta has the same properties as Dosha ... Practically.
Quanta cant be proved, can't be taken hold of, can't be described as mass or shape or energy or light perfectly.
This need more research.
[3/27, 1:04 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार पवन जी, आपका परिश्रम सार्थक है और आयुर्वेद में आपके द्वारा किये जा रहे कार्य पर गर्व है। 👌👌👌*
*आपके मत से ही यहां दोष दुर्बल हैं, इस अवस्था में ज्वर (केवल बुखार नहीं) जो विद्यमान होता है और वह विभिन्न tissues में केवल सूक्ष्म रूप में विद्यमान होता है, यद्यपि कोई स्पष्ट ज्वर नहीं है, लेकिन ज्वर के कुछ अन्य लक्षण उपस्थित हैं जैसे कृशता, दौर्बल्य, विवर्णता, गौरव आदि।*
*क्या यह लक्षण आपके कथनानुलार दुर्बल, लीन दोष ही उपस्थित नहीं कर रहे ?*
[3/27, 1:07 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*और यह क्रिया 10,12 दिन या प्रतिमाह निरंतर चलती रहती है, यह सब वही तो आपने लिखा है जो हम अब तक कहते आ रहे हैं पवन भाई लीन का प्रबल और निर्बल हो कर निरंतर बने रहना।*
[3/27, 1:09 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
अपस्मार और उन्माद के हेतु का सही विवरण 👌*
[3/27, 1:14 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अपस्मार में दूष्य स्मृति है 👍*
[3/27, 1:19 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अपस्मार की सम्प्राप्ति के घटक -*
*दोष - शारीरिक - त्रिदोष*
*मानसिक - रज और तम*
*दूष्य - स्मृति*
*स्रोतस - संज्ञा वाही*
*स्रोतोदुष्टि - संग एवं विमार्गगमन*
*व्याधि अधिष्ठान - ह्दय, मस्तिष्क और संज्ञावाही स्रोतस*
*अग्नि - विषम*
*व्याधि स्वभाव - कृच्छ साध्य या असाध्य*
[3/27, 1:20 AM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
*नमो नम: गुरुवर्य श्री। संहिता का निरंतर अभ्यास करते रहने से पता चल रहा हैं की शंकाओं का समाधान भी उपलब्ध हैं। आपके आशीर्वाद से यह निरंतर अभ्यास करने का ध्यास हमेशा के लिए दिनक्रम में जुड़ गया हैं।*🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🌹🌹🙇🏽♂️
[3/27, 1:26 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सैंकड़ो में अब शास्त्र पढ़कर और सिद्धान्तों को समझ कर उन पर कार्य और चर्चा करने वाले आयुर्वेदज्ञ बहुत कम ही मिलते हैं इसीलिये शास्त्र और संदर्भ सहित प्रायोगिक चिकित्सा पर चर्चा का अभाव होता जा रहा है पर प्रसन्नता होती है कि इस चर्चा में जिस प्रकार वैद्य अरूण राठी जी, आपने एवं भाई पवन मदान जी ने जिस प्रकार शास्त्र संदर्भ सहित अपना मत एवं योगदान दिया, इसे इसी प्रकार आगे भी बनाये रखें ❤️🙏*
[3/27, 1:27 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*बहुत ही बढ़िया कहा पवन भाई 👍*
[3/27, 1:33 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अतुल जी आपने उत्तम प्रकरण छेड़ दिया है, वीर्य सामान्यतः दो ही माने जाते हैं शीत और उष्ण पर आचार्य सुश्रुत प्रधानता 8 वीर्य को देते हैं क्यों ? क्योंकि वो इन आठों की पंचभौतिकता साथ ले कर चलते हैं और यह जिसने जान लिया उसके लिये आयुर्वेद को समझना जिसमें पंचभूतों से ही दोष, दूष्य, स्रोतस, द्रव्य और उनके द्वारा चिकित्सा बनी है यह जानना सरल हो जायेगा।*
*हमारा यहां काय सम्प्रदाय मे चर्चा का अगला प्रकरण भी यही है, कृपया इसी प्रकार अपना साथ बना कर अमूल्य योगदान देते रहें।*
[3/27, 1:56 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*षडक्रियाकाल को भी समझ लिया जाये तो लीन दोष को समझना और सरल हो जायेगा।*
*रोग आरंभ होने से उत्पन्न हो कर व्यक्ति की अवस्था यह सम्प्राप्ति है और आचार्य यादवजी त्रिक्रम जी भेदा वस्था को सम्प्राप्ति के बाद की या उपद्रव की अवस्था मान कर चले थे पर रोग के वात, पित्त, कफानुसार या त्रिदोषज भेद को हम सम्प्राप्ति में ग्रहण कर सकते है।*
*यदि ध्यान से देखें तो चय, प्रकोप, प्रसर और स्थान संश्रय से पूर्व कहीं धातुओं या दूष्यों की कहीं कोई प्रमुख भूमिका नही है, यह सब दोषों का ही हो रहा है और जो भी लक्षण मिल रहे हैं वो सब एक प्रकार से पूर्वरूपवत ही हैं।*
*व्याधि तो दोष और दूष्यों की सम्मूर्छना है जिसमें विभिन्न प्रकार के लक्षणों का सामूहिक रूप प्रकट होता है और यह स्थान संश्रय होने के बाद होता है।*
*सम्प्राप्ति विघटन चिकित्सा है जो स्थान संश्रय होने के बाद व्यक्ति में या व्यक्त अवस्था में की जायेगी तो यह क्रियाकाल 6 भेदों में इसी लिये रखा गया है कि अपने ज्ञान, अनुभव और युक्ति के अनुसार प्रथम चार अवस्थाओं में जहां दोषों की भूमिका ही है दोषों का आप शमन भी कर सकते हैं और शोधन भी।*
*इसका उदाहरण ऐसे लें जैसे दोषों का संचय अपने स्थान पर होता है, यहीं पर चय हुये दोष का प्रकोप भी होता और यहीं दोष की वृद्धि होती है और उस वृद्ध दोष के लक्षण भी यहीं मिलेंगे, जब दोष का संचय और प्रकोप दोनो ही दोष की वृद्धि है तो दोनो में भिन्नता कैसे माने ? संचित दोष जब अपने लक्षण संचित स्थान पर प्रकट करेगा तो विरूद्ध गुण वाले द्रव्यों या कर्मों से शांत हो जायेगा । सामान्यतः दोष की चयावस्था में लक्षण प्रायः आम के कारण मिलते हैं जो स्रोतोवरोध करती है।*
*यहां अगर दीपन-पाचन ही करा दिया जाये तो यह कर्म भी क्रियाकाल के प्रथम अवस्था की क्रिया या चिकित्सा दीपन पाचन कर्म से मानी जायेगी।*
*अगर प्रथम तल पर उपचार नहीं किया तो यहीं पर दोषों की वृद्धि हो कर और दोष अपने स्थान से उन्मार्गी होने लगेंगे तथा तब यही प्रकोप के लक्षण प्रायः कोष्ठ में ही मिलेगे तो जरूर पर अपने चय स्थान क्षेत्र में साथ साथ अवश्य मिलेंगे , इस बात का ज्ञान होते ही क्या करें कि दोष कुपित हो रहे है ? वायु को साम्यावस्था में लाना है क्योंकि उसका चल गुण संचित दोष को अति तीव्रता से कुपित होने और प्रसर में भी सहयोगी बनेगा।तीसरी प्रसर अवस्था वह है जब दोष अपने साथ अपने अन्य अंश, अन्य दोषो में उनके एक या अधिक अंश भी साथ ले कर चलता है । इस अवस्था में दोष और आमविँष शाखाओं में प्रसरण करने लगते हैं।*
*इसीलिये रोग के विषय में कहा गया है कि रोग सभी त्रिदोषज होते हैं , वो जो दोष संचित हुआ था ना वो प्रकुपित हो अन्य दोषों को साथ ले कर चला और कहीं तो रूकेगा ही और जहां रूकेगा अर्थात स्थान संश्रय लेगा वहां अपने लक्षण पूर्ण रूप से व्यक्त करने लगेगा।*
[3/27, 7:17 AM] Dr.Deepika:
सादर प्रणाम सर, बहुत अच्छा प्रस्तुत किया आपने, इसका ये अर्थ ले की लीन दोष शारीर में दोष धातु sammurchan की stage में रहते है, परंतु उनका बल हीन है, ऐसे में व्याधी के लक्षण प्रकट नहीं होते, समय आने पर किसी भी कारण से यदि दोष बली हो जाएं तो व्याधि के लक्षण प्रकट हो जाते हैं।🙏🙏
[3/27, 7:18 AM] Dr. Pawan Madan:
Pranaam Guru ji.
Ji bilkul.
Wo lakshan Jo paida ho rahe hain wo sharir me prakupit dosho ki vajah se hi hain.
[3/27, 7:28 AM] Dr.Deepika:
सादर प्रणाम गुरू जी,
क्या लीन दोष की उत्पत्ति में एंटीबायोटिक का प्रयोग एक कारण है ?
ज्वर तो देह और मन दोनों का संताप है, क्या जो मानसिक रोगी
एंटी depressents आदि खा के ठीक दिखाई देते हैं, वास्तव में लीन दोष उनके मन वाही स्रोतों में
सदा के लिए leenatav को प्राप्त हो गए हैं?
[3/27, 7:51 AM] Dr. Pawan Madan:
*दोष जब तक लीन अवस्था में रहते हैं, वो लक्षण प्रस्तुत नहीं करते*
[3/27, 7:55 AM] Dr. Pawan Madan:
*अष्टांग हृदय के अनुसार दोष जब क्षीण अवस्था में रहते हैं तब वो बुखार के इलावा बाकी लक्षण प्रस्तुत करते रहते हैं।*
*शायद यहां दोषों का लीन अवस्था में होना व दोषों का क्षीण अवस्था में होना, इन दो अवस्थाओं में कुछ भेद है।*
[3/27, 8:00 AM] Prof. Madhava Diggavi Sir:
Ji sir..dosha expressing the lakshana is an issue but it will not stop there. Because pratyaneeka Bala of the host is a big factor in allowing the expression of disease. When genetic factor augments to the environmental factors then only expression is possible. Leenatwa is also dosha avastha and it is not swastha avastha ...may be subnormal or weak or dormant..but
'bhooyo hetu prateekshanah'.
Leena dosha and its placement in shat kriyakaala also to be determined by vaidya . Diagnostic markers macroscopically is also a issue for us.
[3/27, 8:06 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
Steps for disease manifestation can be understood as following-
i) Healthy person (Agni- Dosh-Dhatu-Mala samya);
ii) Unhealthy host- environment interactions
(Mithya Aahar Vihar, Manobhav, Agantuj hetu)
iii) Earliest physiological disturbance leading to accumulation of causative factor for inducing/ producing morbidity (Dosh Sanchaye);
iv) Proliferation or aggravation of accumulated/ inherent physiological attributes
(Dosh ka Chaye Prakop / Achaye Prakop) ;
v) Diffusion or trans-portation of disturbed physiological entities
(Prasar of dusht/vaikrit Dosh);
vi)Localization of disturbed physiological entities in cells/tissue /organ/system
(Kha Vaigunya) to induce pathogenetic changes
(dosh-dusya sammorchhana prarambh);
vi) Failure or inability or incapacity of the pathogenetic factors for disease manifestation/signs & symptoms (Leenavastha of dusht/vaikrit Dosh).
vii) Progression of pathogenetic process to produce a clinical condition (Dosh-dusyasammorchhana janit srotodushti aur vishist vyadhi lakshan- Vyaktavastha) ;
vii) Resolution or control of the disease with or without treatment or advancement of the pathogenetic process to cause complications, unmanageable clinical condition or death
(Bhedavastha- Purna vyadhi utpatti, Updrav or Arisht lakshan utpatti, Asadhya Jeerna Vyadhi or Mritue).
[3/27, 8:16 AM] Dr. Pawan Madan:
Good morning and pranaam sir.
Perfect conclusion!!!
Best way to understand Ayurveda principles in practice.
We need to broaden our view as you explained.
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
[3/27, 8:20 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
समस्त काय सम्प्रदाय को सुप्रभात सहित सादर नमन, आयुर्वेद में इसी प्रकार से मंथन एवं चर्चा और अधिक ज्ञान एवं कार्य के मार्ग प्रशस्त करती है।*
*चर्चा में भाग लेने वाले सभी विद्वानों एवं धैर्य पूर्वक इसे पढ़ने वाले सभी का आभार।*
*अब इस विषय को यहीं विश्राम दे कर आगे बढ़ा जाये 🌹❤️🙏*
[3/27, 8:29 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
Namo Namah sahit Suprabhat, Shubhamastu Varisth Vaidyavar-
बहुत गहन प्रस्तुति और चर्चा हो रही है- इस ज्ञान गंगा में डुबकी लगा कर सभी की जिज्ञासा और पिपासा शांत होगी और आंतरिक प्रश्नों का उत्तर स्वत: मिल जाएगा ।
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Above discussion held on 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp-discussion-group of well known Vaidyas from all over the India.
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Compiled & Uploaded by
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shree Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746Edited by
Dr.Surendra A. Soni
M.D.,PhD (KC)
Professor & HeadP.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: kayachikitsagau@gmail.com
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