[9/14, 12:47 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*case presentation- मूत्रोत्संग (posterior stricture urethra with Gr 1 fatty liver, renal calculus & significant residual urine) एवं आयुर्वेदीय चिकित्सा व्यवस्था...*
*vaidyaraja subhash sharma, M.D.(kaya chikitsa , Jamnagar -1985)*
*रोगी male/ 24 yrs*
*before treatment ...*
13-6-24
RGU
(retrograde urethrogram)
narrow stricture of prostatic urethra
grade 1 (13.2 cm) fatty liver
Rt. kidney mid pole 3.2 mm calculus
Rt. nephrolithiasis
significant residual urine 43 cc
[9/14, 12:48 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*after treatment..*
9-9-24
RGU
(retrograde urethrogram)
normal RGU study
Liver - normal
Rt. kidney no calculus
residual urine 14 cc normal
*इस प्रकार से रोगों की विभिन्न अवस्थाओं एवं चिकित्सा का वर्णन एक स्थान पर नहीं मिलता इसलिये इसे विस्तार से स्पष्ट करेंगे।*
[9/14, 12:48 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अनेक अनुक्त व्याधियां आधुनिक समय में इस प्रकार मिलती हैं जिनका विस्तृत वर्णन और चिकित्सा उस प्रकार से नहीं मिलता जो सरलता सी की जा सके या व्याधि को शल्य साध्य मान लिया गया है और रोगी को त्याग दें। मूत्रवहन विकृति हमारे संहिता ग्रन्थों में 2 प्रकार की मिलती है...*
*1- मूत्र की अप्रवृत्ति जन्य*
*2- अति प्रवृत्ति जन्य।*
*अप्रवृत्तिजन्य में भी दो भेद हैं एक मूत्राघात - इसमें वातकुंडलिका,वात अष्ठीला, वातबस्ति, मूत्रातीत, मूत्रजठर, मूत्रोत्संग, मूत्रक्षय, मूत्रग्रन्थि, मूत्रशुक्र , उष्णवातादि और मूत्रकृच्छ में वातादि, अश्मरी शुक्रादि सहित हैं।*
*अतिप्रवृत्ति जन्य में 20 प्रमेह*
*हमारा कर्म क्षेत्र संहिता ग्रन्थों में मूत्रवाही स्रोतस की चिकित्सा में जो आज भी प्रायोगिक है इस प्रकार से मिलता है..*
*'अपानोऽपानगः श्रोणिबस्तिमेढ्रोरुगोचरः, शुक्रार्तवशकृन्मूत्रगर्भनिष्क्रमणक्रियः' अ ह 12/9*
*'वातकुण्डलिकाऽष्ठीला वातबस्तिस्तथैव च।मूत्रातीतः सजठरो मूत्रोत्सङ्गः क्षयस्तथा, मूत्रग्रन्थिर्मूत्र शुक्रमुष्णवातस्तथैव च, मूत्रौकसादौ द्वौ चापि रोगा द्वादश कीर्तिताः'
सु उ 58/3-4*
*मूत्रवहानां स्रोतसां बस्तिर्मूलं वंक्षणौ च ।
च वि 5*
*मूत्रवाही धमनी द्वय*
*गवीनी द्वय*
*मूत्र प्रसेक*
*यह सब अंग पक्वाशय के अंतर्गत आते है जो वात का क्षेत्र है और उसमें भी अपानवात के अन्तर्गत आता है।*
*'बस्तौ वाऽप्यथवा नाले मणौ वा यस्य देहिनः, मूत्रं प्रवृत्तं सज्जेत सरक्तं वा प्रवाहतः । स्रवेच्छनैरल्पमल्पं सरुजं वाऽथ नीरुजम् । विगुणानिलजो व्याधिः स मूत्रोत्सङ्गसञ्ज्ञितः।'
सु उ 58/15-16
यहां आचार्य सुश्रुत मूत्रोत्संग में अनेक लक्षण इस प्रकार स्पष्ट करते हैं जो आधुनिक काल में stricture urethra में हमें प्राप्त होते हैं।*
*आयुर्वेद में मूत्र निर्माण की प्रक्रिया आधुनिक मत से भिन्न है अतः उस पर चर्चा ना कर मूत्र निष्कासन जो इस रोग से संबंधित है उस पर करेंगे। पुरूष और स्त्री में यह भेद है कि पुरूष में मूत्राशय से शिश्न के द्वारा मूत्र बहिर्गमन में अधिक मार्ग की आवश्यकता होती है। मूत्र मार्ग का पुरूष में प्रथम 1" से 2" भाग जिस मार्ग से मूत्र का वहन होता है वह posterior urethra है और मूत्रवाही स्रोतस के इस भाग में है..*
*opening of the bladder या neck*
*प्रोस्टेट ग्रन्थि द्वारा मूत्र मार्ग का एक भाग जिसे prostatic urethra कहते हैं और यही प्रदेश हमारे रोगी को पीड़ित कर रहा है।*
*membranous एक झिल्ली युक्त urethra*
*एक पेशी जिसे external urinary sphincter कहते हैं।*
*मूत्रवाही स्रोतस में posterior के आगे का मार्ग anterior urethra कहा जाता है और इसके अव्यव है..*
*bulber मूत्र मार्ग या bulber urethra यह वृषण एवं गुदा के मध्य का क्षेत्र है।*
*शिशन मूत्र मार्ग जिसे penile urethra कहा है।*
*मूत्र द्वार यह exit point है जिसे meatus या tip of the penis भी कह सकते हैं।*
*यह सब इसलिये स्पष्ट किया है कि मूत्रवाही स्रोतस में stricture या संकुचन कहीं भी मूत्राशय से लिंग के मुख तक हो सकता है और हमें उस स्थान का सही ज्ञान आवश्यक है और सम्प्राप्ति उसी के अनुरूप भिन्न हो जाती है। क्योंकि यहां रोगी को अश्मरी भी है।*
[9/14, 12:48 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*रूग्ण लक्षण..*
*stricture urethra अचिकित्स्य मान कर मानस भाव जन्य क्षुधाल्पता, अवसाद एव मनोद्वेग।*
*मूत्र वेग अल्प एवं प्रवाह कम*
*मूत्र मार्ग से स्वतः ही कभी कभी मूत्र की बूंदों का प्रवाह*
*मूत्र की धार फैली हुई आती थी*
*कभी कभी पक्वाशय के क्षेत्र में पीड़ा*
*मूत्र का वेग कभी कभी अनियन्त्रित बन जाता था।*
*व्याधि हेतु..*
*पूर्व में अनियमित आहार एवं दिनचर्या, दीर्घ काल तक कुछ आहार का सेवन ना भी करना, रात्रि में भोजन करने के कुछ देर पश्चात ही निद्रा।हेतुओं में एक मिश्रित अवस्था मिली जो आम दोष एवं वात प्रकोप से संबंधित थे।*
*सम्प्राप्ति घटक*
*यहां दो सम्प्राप्ति अलग अलग बनती है जिसमें एक तो fatty liver के अनुसार एवं दूसरी अश्मरी और मूत्रोत्संग या urethra में stricture के अनुसार, पर दोनों अवस्थाओं में ही संग दोष है। Fatty liver gr 1 सामान्यतः 28-30 दिन में ही आयुर्वेद उपचार से सामान्य आ जाता है इसके लिये हमने 21 दिन तक दीपन, पाचन, मेद क्षपण पर अधिक ध्यान दिया और उसके बाद stricture urethra का पूरा चिकित्सा सूत्र सम्प्राप्ति विघटन के लिये इस प्रकार बनाया..*
*दोष - अपान, व्यान और समान वात - रूक्ष, खर और चल गुण की प्रधानता*
*पाचक पित्त - पित्त के उष्ण गुण से निर्द्रव या रूक्ष पित्त की वृद्धि।*
*कफ - क्लेदक कफ की विकृति*
*दूष्य - अन्न रस और मेद*
*स्रोतस - रस, मेद और मूत्र*
*स्रोतोदुष्टि - संग*
*अग्नि- जाठराग्नि और धात्वाग्निमांद्य*
*व्याधिस्वभाव - चिरकारी*
*साघ्यासाध्यता - कृच्छसाध्य अथवा stricture urethra असाध्य*
*चिकित्सा सूत्र - निदानपरिवर्जन
('संक्षेपत: क्रियायोगो निदानपरिवर्जनम्' सु उ 1/25 )
संक्षेप में जिन हेतुओं से रोग उत्पन्न हुआ है उनका परिवर्जन अर्थात त्याग ही क्रियायोग या चिकित्सा है,
'वातादीनां प्रतीघात: विस्तरत: पुन:'
सु उ 1/25
वातादि दोषों का प्रतिघात यह चिकित्सा का दूसरा चरण है।*
*दीपन, पाचन, अनुलोमन, लेखन, क्षरण, भेदन, शोथध्न, मूत्रविरेचन, स्रोतोशोधन, बल्य, मेध्य और शमन*
[9/14, 12:48 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*औषध योग -*
*आयुर्वेदानुसार जब भी हम औषध द्रव्यों का चयन करें तो दोष लक्षण, दूष्यों के दूषित होने पर लक्षण और स्रोतस के किस भाग में किस प्रकार की दुष्टि होने पर लक्षण क्या है इसके आधार पर औषध द्रव्य चयन आवश्यक है और यह आयुर्वेद की वैज्ञानिकता सिद्ध करता है, जिसे इस प्रकार चिकित्सा सूत्र के साथ सम्मिलित कर यहां ध्यान से देखिये।*
*काष्ठौषधों में अनेक बार एक ही औषध योग देने पर वो शरीर में सात्म्य होने लगता है अतः मिलती जुलती औषधियों के योगों को अनेक बार बदल कर प्रयोग करते हैं।*
*मूत्रल कषाय (सिद्ध योग संग्रह किंचित परिवर्तित)*
*पुनर्नवा मूल...
रस - मधुर, तिक्त, कषाय / गुण - लघु रूक्ष / वीर्य - उष्ण / विपाक - मधुर*
*मधुर तिक्त कषाय से पित्तहर, उष्ण होने से कफ वात हर हो कर त्रिदोष नाशक है।*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रजनन*
*क्लेद पर प्रभाव - स्वेद जनन*
*ईख की मूल ...
रस - मधुर, गुण - गुरू स्निग्ध, वीर्य -शीत, विपाक -मधुर*
*वात पित्त शामक*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रल*
*कुश की मूल...
रस - मधुर कषाय, गुण - लघु स्निग्ध, वीर्य - शीत, विपाक -मधुर*
*यह भी त्रिदोष नाशक है, स्निग्ध से वात का,मधुर शीत से पित्त का तथा कषाय से कफ नाशक*
*कांस की मूल...
रस - मधुर कषाय, गुण - लघु स्निग्ध, वीर्य - शीत, विपाक -मधुर*
*प्रमुखतः वात पित्त शामक अधिक है।*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रविरेचनीय*
*गोक्षुर...
रस मधुर, गुण - गुरू स्निग्ध, वीर्य - शीत, विपाक - मधुर*
*वात पित्त शामक*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रल और अश्मरीहर*
*खुरासानी अजवायन ..
रस- तिक्त कटु, गुण - रूक्ष, वीर्य - उष्ण, विपाक - कटु, प्रभाव - मादकता लाती है और वेदना स्थापक*
*कफ वात शामक*
*मूत्रवाही स्रोतस - वात हर होने से वेदना शामक*
*रक्त चंदन....
रस - तिक्त मधुर, गुण - गुरू रूक्ष, वीर्य - शीत, विपाक - कटु*
*कफपित्त शामक*
*रक्तशोधक है*
*अनंतमूल...
रस- मधुर तिक्त, गुण - गुरू स्निग्ध, वीर्य - शीत, विपाक - मधुर*
*त्रिदोष शामक*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रजनन एवं मूत्र विरजनीय*
*सौंफ...
रस - मधुर कटु तिक्त, गुण - लघु स्निग्ध, वीर्य - शीत, विपाक - मधुर*
*वातपित्त शामक*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रकृच्छ और मूत्राघात में लाभकारी*
*धनिया...
मधुर, तिक्त, कटु, कषाय, गुण - लघु स्निग्ध, वीर्य - उष्ण, विपाक - मधुर*
*स्निग्ध उष्ण से वातहर, कषाय तिक्त मधुर से पित्त हर और कटु उष्ण सेकफ शामक हो कर त्रिदोष हर*
*सागौन के फूल...
रस - कषाय, गुण - लघु रूक्ष, वीर्य - शीत, विपाक - कटु*
*कफ पित्त शामक और बीज वातशामक*
*मूत्रवाहीस्रोतस - बीज मूत्र जनन और त्वक् मूत्र स्तंभन*
*मकोय..
रस - तिक्त, गुण - लघु स्निग्ध, वीर्य - अनुष्ण, विपाक - कटु*
*त्रिदोष नाशक*
*मूत्रल*
*कासनी के बीज...
रस- तिक्त, गुण - लघु रूक्ष, वीर्य - उष्ण, विपाक - कटु*
*कफपित्त हर*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रल*
*ककड़ी या खीरे के बीज...
रस - मधुर, गुण - लघु रूक्ष, वीर्य - शीत, विपाक - मधुर*
*पित्त शामक, वात कफ वर्धक*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रल*
*गुडूची...
रस- तिक्त कषाय, गुण - गुरू स्निग्ध, वीर्य - उष्ण, विपाक - मधुर*
*त्रिदोष शामक*
*मूत्रवाही स्रोतस - प्रमेह नाशक*
*पाषाणभेद...
रस - कषाय तिक्त,गुण - लघु स्निग्ध तीक्ष्ण, वीर्य - शीत, विपाक - कटु*
*त्रिदोष शामक*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रल और अश्मरी भेदक*
*कमल के फूल...
रस - मधुर तिक्त कषाय, गुण - लघु स्निग्ध पिच्छिल, वीर्य - शीत, विपाक - मधुर*
*कफ पित्त शामक*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्र विरेचनीय, मूत्र विरजनीय*
*20 gm को 160 ml में पकाना, 40 ml शेष रहे तब 500 mg से 1 gm क्षार, पर्पटी, नवसार या हजरूल यहूद भस्म मिलाकर प्रातः सांय दिया जाता है, यह सामान्य मात्रा है।*
*वृक्क शोथ, सर्वांग शोथ,मूत्र वर्धक और मूत्रप्रवर्तक, मूत्राघात, मूत्रकृच्छ, मूत्र कुण्डलिका, मूत्रजन्यउदावर्त, तूनी-प्रतीतूनी ।*
[9/14, 12:48 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*वरूणादि क्वाथ ( आ सा सं..) ....*
*वरूण की छाल...
रस - तिक्त कषाय, गुण - लघु रूक्ष, वीर्य - उष्ण, विपाक - कटु*
*कफवात शामक*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रल, अश्मरी भेदन करता है एवं मूत्र मार्ग में संक्रमण का प्रतिरोधी है।*
*शुण्ठि...
रस -कटु, गुण - लघु स्निग्ध, वीर्य - उष्ण, विपाक - मधुर*
*कफवात शामक*
*सर्वश्रेष्ठ आम पाचन करती है, दीपन, वातानुलोमन,शूल प्रशमन तथा वेदना स्थापक*
*मधुर विपाक से वृष्य है और उत्तेजक भी जिस से prostate gland पर भी बहु उपयोगी है।*
*गोखरू -*
*पाषाण भेद -*
*मूत्रल कषाय देखें*
*अश्मरी, वृक्क शूल, मूत्र कृच्छ, वस्ति शूल*
---
*अश्मरी हर कषाय -*
*पपीते की जड़... रस -कटु तिक्त, गुण - रूक्ष लघु तीक्ष्ण, वीर्य - उष्ण , विपाक - कटु*
*कफ वात शामक*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रल*
*शतावरी... रस - मधुर तिक्त, गुण - गुरू स्निग्ध, वीर्य - शीत, विपाक - मधुर*
*वात पित्त शामक*
*मूत्रवाही स्रोतस - मूत्रल*
*prostate - शुक्रल*
*बल्य और रसायन*
*गोखरू -*
*वरूण की छाल -*
*कुश की जड़ -*
*कास की जड़ -*
*ककड़ी या खीरे के बीज -*
*पाषाण भेद -*
*इनका वर्णन ऊपर मूत्रल कषाय में लिखा है।*
---/
*तालमखाना पानीय क्षार ...*
*'क्षुरकः शीतलो वृष्यः स्वाद्वम्लः पिच्छिलस्तथा तिक्तो वातामशोथाश्मतृष्णादृष्ट्यनिलास्रजित्'
भा प्र गुडूच्यादि वर्ग 225*
*रस - मधुर, गुण - गुरू स्निग्ध पिच्छिल, वीर्य -शीत, विपाक - मधुर*
*वातपित्त शामक*
*बीजों का पानीय क्षार मूत्रल, अश्मरी, पित्ताशय अश्मरी, prostatomegaly और stricture urethra में हम पिछले लगभग 40 वर्षों से प्रयोग करते है और उत्तम परिणाम मिलता है।*
*तालमखाना बीजों को अच्छी तरह से साफ कर के fry pan में ही अग्नि पर रख जला कर राख कर ले, 5 gm तालमखानाम भस्म या राख का सूक्ष्म चूर्ण 200 ml जल में रात को अच्छी तरह घोल लें, सुबह राख नीचे बैठ जाती है और ऊपर का जल छान कर पिला दे। ऐसा ही सुबह भिगो कर शाम को करें, यह तालमखाना बीज पानीय क्षार हैं।*
*जल मिश्रित होने से यह मूत्रल तो है ही वृद्ध पित्त का भी निष्कासन करता है, stricture urethra में संग दोष का लेखन और क्षरण भी करता है।*
*अन्य क्वाथ में शुद्ध नवसार, हजरूल यहूद और श्वेत पर्पटी भी 500 mg से 1 gm तक दो बार मिला कर दी गई।*
*दिनचर्या और पथ्यापथ्य पर सर्वाधिक ध्यान दिया गया और बल्य कर्म के रूप में तालमखाना, शतावरी,गोक्षुर और शुंठि का कषायों में मिश्रित हो कर पानीय क्षार देते हुये एवं मूत्रविरेचनीय द्रव्यों के साथ दौर्बल्य नहीं मिलता जब कि भेदन हेतु कुटकी का भी प्रयोग किया गया जिस से अनुलोमन भेदन निरंतर बना रहा, यह भी स्पष्ट हो गया*
[9/14, 12:48 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अपथ्य - रात्रि जागरण, अधिक समय तक क्षुधा या तृषा वेग धारण, तिल, पालक, टमाटर, बैंगन, अचार, उष्ण तीक्ष्ण पदार्थ, चना, मैदा, अधिक स्निग्ध तैलीय पदार्थ, fast food, उड़द, राजमा आदि गुरू पदार्थ।*
*पथ्य - प्रतिदिन 1-2 मूली,तोरई,यव का सत्तू, fresh खीरा, लौकी, तरबूज का जूस आदि।*
[9/14, 3:58 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ): 🙏
[9/14, 5:57 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏 प्रणाम गुरुवर
Urethral stricture पर आपका केस पढकर आनंदित हुआ। मेरे पास आते है पर सभी में सफलता नही मिलती थी और रोगी dilation करवाता था।
मेरी चिकित्सा में हजरल यहुद नही था सिर्फ श्वेत पर्पटी और शु.नवसार ही था। आगे से यह मिक्स करके उपयोग करूंगा।
🙏🙏 धन्यवाद 🙏🙏
[9/14, 8:43 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार मनसुख भाई, तालमखाना पानीयक्षार के साथ रजः प्रवर्तनी वटी और हजरूल क्षार भी अनेक पुरूष रोगियों में हम देते है जिस से बिना विरेचन के भी यह अनुलोमन कर्म निरंतर बनाये रखती है।*
*रजः प्रवर्तिनी केवल स्त्रियों की नहीं पुरूषों के लिये भी पित्ताशय अश्मरी और GB SLUDGE में उपयोगी है। द्रव्यों की कार्मुकता का ज्ञान भली प्रकार आवश्यक है और सब से महत्वपूर्ण है उनका प्रभाव।*
[9/14, 8:44 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुप्रभात प्रियवर पाण्डेय जी 🌹🙏*
[9/14, 8:48 AM] Prof. Madhava Diggavi Sir:
Dhanyawad sir...
[9/14, 8:50 AM] Prof. Madhava Diggavi Sir:
Very much useful sir...
[9/14, 9:03 AM] Vd. Divyesh Desai Surat:
🙏🏾🙏🏾निदानपंचक सहित संपूर्ण चिकित्सा विवरण... एडिशनल द्रव्यगुण विज्ञानका रस पंचक का revision🙏🏾🙏🏾
[9/14, 9:32 AM] Dr Ershad Karnataka:
Sir please help me understand, how Rajaprahvartini Vati and Hajrul kshar (how is kshara is prepared by it) in case of Cholelithiasis. In terms of physiology-pharmacology, the medicine doesn’t reach gall bladder itself then how does it work in terms of Ayurveda.
[9/14, 9:42 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏 गुरुवर
यह तो गोल ब्लेडर स्टोनमें विशेषरूप से लाभदायक है।
पर हजरुल यहुद urethral stricture में भी सफलता दिलाएगा यह आज आपसे जानकर आश्चर्य हुआ।
[9/14, 9:55 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*समय देर रात्रि में ही निकाल पाते हैं तो सभी जिज्ञासाओं का समाधान तब करेंगें ।*
[9/14, 9:56 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*इस पर भी रात को बतायेंगे।*
[9/14, 10:03 AM] Dr Ershad Karnataka:
I will be waiting for your response sir. Thank you
[9/17, 12:05 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आपकी जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार है...* 👇🏿
[9/17, 12:06 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*पित्ताशय अश्मरी का निर्माण कैसे होता है, आयुर्वेद के अनुसार औषध द्रव्य कैसे कार्य करेंगे ?*
*पित्ताशय अश्मरी में अंशाश कल्पना के अनुसार देखें तो इसमें पित्त का सर गुण प्रधानता 3 कर्म कर रहा है ...*
*1- अनुलोमन और अधोगमन तभी पित्त के लिये विरेचन में एक भाव सर गुण भी है जो अपक्व मल का पाक कर अधोमार्ग से प्रवृत्ति में सहायक बनाता है।*
*2- वात का अनुलोमन कराना*
*3- पित्त की वृद्धि करना,जब तक प्राकृत प्रमाण में उष्ण, द्रव और सर गुण विद्यमान रहेंगे तब तक पित्त का प्रवाहण जो शनैः शनैः अधोमार्ग की तरफ ले जाता है वो भी प्राकृत बना रहेगा पर रूक्ष, लघु और शीत गुण इनकी गति को विकृत करेंगे। रूक्ष गुण की वृद्धि होने पर सीधा प्रभाव द्रव और सर की कार्यक्षमता पर पड़ता है, द्रवता का शोषण हो कर अश्म अर्थात पत्थर वत बन कर अश्मरी स्वरूप होने लगता है, द्रव का विपरीत गुण सान्द्र है जिसमें शीत गुण पित्त को घनीभूत या गाढ़ा करने में सहायक होता है। शीत वीर्य और सान्द्र गुण में एक साहचर्य भाव है यह शरीर में बंधन या दृढ़ता लाता है पित्त के सरत्व भाव में अवरोध कर उसे सान्द्र करने में मुख्य हेतु बन जाता है जिसका शोषण ही पित्ताशय अश्मरी का स्वरूप है जिसे GB CALCULUS और यदि शुष्क ना हो कर कीचड़ या पंक वत घनीभूत सान्द्र अवस्था में बना रहे तो GB SLUDGE हो गया ।*
*इस संपूर्ण सम्प्राप्ति को विभिन्न चरणों में जानते हैं ...*
*1- पित्ताशय की अश्मरी में आवश्यक ही नही कि पित्तवर्धक आहार का सेवन अधिक मात्रा में किया हो क्योंकि इसमे आम दोष प्रमुख है, प्रथम अवस्था पाक मधुर अवस्थापाक तक क्लेदक कफ सामान्य है अब अगर इसमें स्नेह, मधुर, अम्ल, पिच्छिल, द्रवादि द्रव्यों का अतियोग होगा तो साम कफ बनेगा, दिवास्वप्न, अधिक समय तक एक स्थान पर स्थिर बैठकर कार्य करना और निद्रा का पूर्ण ना होना ये आम दोष के साथ वात के रूक्ष, लघु और शीत तीनों गुणों का सहयोग आधुनिक काल में पित्ताशय अश्मरी के निर्माण का है।*
*2- अब इस से आगे अन्नरस अम्लपाक में अम्लीभाव हो कर ग्रहणी में आयेगा जो पित्त का प्रमुख स्थान है और आहार के पूर्ण पाचन तक ग्रहणी इसे धारण करती है। मल पित्त का संचय पित्ताश्य में होता है जब आवश्यकता हो तो भोजन के पाचन के लिये पित्त अपनी नलिका द्वारा ग्रहणी में आता रहता है और अगर आवश्यकता ना हो तो यह पित्त पित्ताशय में ही सुरक्षित रहता है। पित्ताशय का पित्त अनेक द्रव्यों का मिश्रण है, इसमें कोलेस्ट्रॉल क्रिस्टल, कैल्शियम बिलीरुबिन और अन्य कैल्शियम लवण जैसे घटक होते हैं।लेकिन विभिन्न हेतुओं से इस पित्त में द्रवत्व अंश अपने विपरीत सान्द्रत्व में परिवर्तित होने लगा और सरत्व अंश आमदोष और शीत के कारण तथा घनीभूत होने से गतिशील नही रहा ।*
*उपरोक्त अवस्था में पित्ताशय पूरी तरह से रिक्त नहीं हो पाता तो पित्त में उपस्थित उपरोक्त द्रव्य,घटक या कण बहुत लंबे समय तक पड़े रहने तक गाढ़ापन, सान्द्र, कीचड़ या पंक स्वरूप हो जाते हैं और ऐसी संभावना बनी रहती है कि ये पित्तपंक अथवा भविष्य में पित्ताशय की अश्मरी में बदल सकते है जिसे पित्ताशयाश्मरी कहा जाता है।*
*पित्ताशय अश्मरी निर्माण में यकृत का भी बहुत योगदान है क्योंकि पित्त का मूल यकृत भी है जहां यह उत्पन्न होता रहता है और इसका संचय स्थल पित्ताशय है, पाचन काल में तो यह पित्तनलिका द्वारा ग्रहणी में आता रहता है और शेष समय यह पित्ताशय में एकत्र रहता है। Fatty liver में यकृत में मेद संचय होने से पित्त की गति मंद और सान्द्र गुण से प्रभावित रहती है जो पित्त के संचयीभाव का भी एक कारण बनता है।*
[9/17, 12:06 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
5-8-24
Rt. kidney calculus 44 mm
Lk. calculus 4 mm
*रोगी हमारे पास 19-8-24 को आया और शल्य क्रिया से पूर्व ही हमने यह केस लिया।*
12-9-24
USG
*अश्मरी टूट कर इस प्रकार बनी*
25.6,20.4 और 12.1 mm
Lk- 4 mm *की अश्मरी बाहर निकल चुकी थी और बिना किसी पीड़ा के सूक्ष्म powder के रूप मे।*
*कहीं kidney को कोई हानि तो नहीं हो रही है इसीलिये KFT जांच कराई*
14-9-24
s.cr. 0.79
GFR 123
*moderate hydronephrosis तो हम आयुर्वेद से ठीक कर देंगे पर KFT की report ठीक मिलने पर रोगी की चिकित्सा जारी रखी है।*
*चिकित्सा सिद्धान्त यही है जो हम यहां लिख रहे हैं और इसके आगे updates भी देंगे।*
[9/17, 12:06 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आयुर्वेद में पित्ताशय gall bladder का direct वर्ण नहीं है, ग्रन्थों में मूत्रवाही स्रोतस और शुक्राश्मरी का वर्णन है और यह कफ से बनती है।सुश्रुत संहिता में अश्मरी के हेतुओं को दो भागों में विभक्त कर दिया है
'तत्रासंशोधनशीलस्यापथ्यकारिणः प्रकुपितः श्लेष्मा मूत्रसम्पृक्तोऽनुप्रविश्य बस्तिमश्मरीं जनयति'
सु नि 3/4
अर्थात असंशोधनशील और अपथ्यकारी, नियमित रूप से शरीर का संशोधन वमन, विरेचन आदि से होता रहे तो यह अश्मरी नहीं बनेगी।*
*दूसरा कारण मिथ्या आहार विहार है जिसके कारण कुपित कफ मूत्र के साथ मिल कर वस्ति में प्रवेश कर अश्मरी को उत्पन्न करता है, इसके अतिरिक्त अति आतप सेवन से जलीयांश की कमी या अति व्यायाम से अति स्वेदन, कैलशियम या नाईट्रोजन युक्त पदार्थ, अति गुरू,मिष्ठान्न, तले हुये पदार्थ, क्षार युक्त पदार्थों का अति सेवन, पालक, टमाटर, बैंगन, मद्यपान, वेगधारण, रात्रिजागरण, दिवास्वप्न, अध्यशन आदि भी अनेक कारण हैं।*
*दोनों स्थान की अश्मरी की सम्प्राप्ति अलग बनेगी, कुछ द्रव्य दोनों में कार्य करेंगे और कुछ द्रव्य मात्र पित्ताश्मरी में जैसे रजःप्रवर्तिनी के घटक द्रव्य हम आगे लिखेंगे।*
*अश्म या पाषाणवत शरीर में किसी प्रक्रिया के द्वारा हुये निर्माण में हम उसे तोड़ रहे है, सूक्ष्म कर रहे हैं और सारी प्रक्रिया उसे शरीर से बाहर निकालने की ही है चाहे वह पित्ताशय में हो या मूत्राशय में, मूत्राशय की अश्मरी को भी जान लेंगे तो विषय और सरल हो जायेगा।*
*1- मूत्रवाही स्रोतस की अश्मरी सभी त्रिदोषज होती हैं पर संधान या एकत्रीकरण कफ से होता है अत: कफ की प्रधानता है।*
*2- इसका पाचन पित्त से होगा।*
*3- इसे सुखा कर या शोषण कर के सूक्ष्म कण बना कर निष्कासन करना है तो यह कर्म वात करेगी।*
*4- अश्मरी मूत्र में होती है मूत्र की उत्पत्ति आमाशय और पक्वाशय में होती है जहां से मूत्र सूक्ष्म स्रोतस द्वारा वस्ति में एकत्रित होता है।*
*5- आयुर्वेदानुसार मूत्र क्या है ? भुक्त आहार का पाचन हो कर सार या प्रसाद भाग या रस बना और दूसरा भाग किट्ट बना और किट्ट भाग से ही मूत्र बना।*
*6- यह जो पूरी प्रक्रिया अब तक की घटित हुई यह आमाश्य और पक्वाश्य में हुई और यह स्मरण रखें कि आमाश्य पित्त का भी स्थान है।*
*7- आमाशय और पक्वाशय में यह कार्य पाचक पित्त और समान वात ने किये तो हमारे सम्प्राप्ति घटकों में ये दोनो दोष भी सम्मिलित हैं जो चिकित्सा सूत्र निर्माण और सम्प्राप्ति विघटन के प्रमुख घटक हैं।*
*8- सुश्रुत में अश्मरी निदान में एक महत्वपूर्ण सूत्र दिया है जिसे हम इसकी चिकित्सा में अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते हैं
'मारुते प्रगुणे बस्तौ मूत्रं सम्यक् प्रवर्तते विकारा विविधाश्चापि प्रतिलोमे भवन्ति हि'
सु नि 3/27
वात अगर प्राकृतस्थ है तो वस्ति में मूत्र सम्यक प्रकार से प्रवर्तित होता है और वात के विरूद्ध होने पर अश्मरी, मूत्राघात आदि अनेक विकार होंगे। अत: वात का अनुलोमन हर स्थिति में आवश्यक है और किस वात का ? विशेष रूप से अपान वात का जिसका मुख्य स्थान पक्वाश्य है।*
*रजः प्रवर्तिनी वटी पित्ताशय अश्मरी में कैसे कार्य करती है ?*
*रजः प्रवर्तिनी के घटक द्रव्य देखिये...*
*सोया - रस कटु तिक्त, गुण लघु रूक्ष तीक्ष्ण और वीर्य उष्ण है। दीपन, पाचन और अनुलोमन है और मूत्रल भी जिस से पित्ताश्य अश्मरी चिकित्सा में सहयोगी है।*
*एलुआ - तिक्त, दीपन, पाचन, मूत्रजनन, विरेचन और शोथ हर उस पर शीत वीर्य होने से पित्त की balancing बना कर रखता है।*
*हींग - कटु, उष्ण वीर्य, तीक्ष्ण, सर, दीपन, पाचन, संज्ञा स्थापन, लघु, जलोदर में भी कार्य करती है और विशेष रूप से वातानुलोमन है।*
*टंकण - कटु, उष्ण वीर्य, सर गुण की वृद्धि करने से सारक, मूत्रल है और क्षार वर्ग की प्रमुख औषधि है जो अश्मरी का भेदन करती है।*
*गाजर के बीज - उष्ण वीर्य है, संग दोष को दूर करने में तो इतने सहायक हैं कि आर्तव तो लाते ही हैं और अनेक बार गर्भपात भी कराने में सहायक हैं।*
*इन सभी द्रव्यों का संयोग इसको पित्ताश्य अश्मरी में अन्य योगों के साथ कार्यकर बना देता है, इसकी मात्रा 1-1 gm दिन में तीन बार कम से कम देनी चाहिये।*
*हजरूलयहूद भस्म - इसे बेर पत्थर भी कहते है और अश्मरी शरीर में किसी भी स्थान पर हो यह सभी जगह कार्य करता है और मूत्रल होने के साथ, अश्मरी शूलघ्न और भेदन कर्म भी करता है।*
*हम हजरूल भस्म में तालमखाना क्षार मिलाकर अश्मरी हर क्वाथ मिलाकर वटी अपने रोगियों के लिये बनाते हैं जो दोनो स्थान की अश्मरी में कार्य करती है।*
*अनेक बार अश्मरी को समाप्त करने के लिये उष्ण, तीक्ष्ण, लघु, रूक्ष, दहन, छेदन, भेदन, कर्षण और लेखन द्रव्यों की आवश्यकता होती है जो हमें क्षार में मिलते है। इनके साथ सर, अनुलोमन, मूत्रल और रोगी के बलाबल अनुसार विरेचन द्रव्य मिल जायें तो शरीर में स्थित किसी भी स्थान की अश्मरी आयुर्वेद चिकित्सा सिद्धान्तों पर चल कर अधिकतर रोगियों में निष्कासित की जा सकती है।*
[9/17, 12:14 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आयुर्वेद में gall bladder या pancreas का इस प्रकार वर्णन नहीं है जैसा आज के समय में मिल रहा है और इनकी व्याधियों को अनुक्त व्याधि मानकर सम्प्राप्ति बनाईये, भयभीत मत होना, शास्त्रों पर विश्वास रखें क्योंकि इनके सूत्र हर काल में सफलता देंगे।*
[9/17, 12:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार प्रियवर अशोक जी 🌹❤️🙏 इनमें जो आपने diet induced लिखा है वो हमारी भारतीत संस्कृति में अति प्रमुख भी है। कभी सोमवार, मंगलवार, एकादशी, द्वादशी, निर्जल व्रत, तीर्थ स्थानों की परिक्रमा, बिना पूजा किये दिन में 12 बजे तक निराहार रहना, अब नवरात्रि भी आगे आ रही है और पितृ पक्ष में दोपहर तक क्षुधावरोध।जैन मित्रों का दशलक्षण पर्व आदि अनेक कारण भी हैं जिनमें अगर शरीर में रोग है तो मध्यम मार्ग निकाल लेना चाहिये और हठ योगीवत नहीं बने रहना चाहिये।*
*आपकी सम्पूर्ण पोस्ट अति प्रायोगिक है क्योंकि ऐसा ही रोगियों में मिलता है 👌👏👍🙏*
[9/17, 12:30 AM] Vd. Arun Rathi Sir, Akola:
*प्रणाम गुरुवर*
🙏🙏🙏
[9/17, 12:31 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार अरूण भाई 🙏*
[9/17, 6:51 PM] Dr Ershad Karnataka:
Hi Sir, thank you for your explanation, allow me to read and understand it comprehensively.
[9/17, 8:27 PM] Dr. Pawan Madan:
प्रणाम शुभसंध्या guru ji।
यहां पर आप जो पित्त कह रहे हैं वह वस्तुत मलपित्त है, जो के bile का हिंदी रूपांतरण है, आशा है में ठीक समझ रहा हूं।
जब मधुर रस युक्त पदार्थों का अत्यधिक सेवन रहता है और वह भी बहुत लंबे समय तक, तो शरीर में आम दोष या साम कफ दोष की सर्वप्रथम सार्वदैहिक वृद्धि हो जाती है, जिसके अति जीर्ण होने की अवस्था में पित्ताशय में स्थानिक मलपित्त में जब शीत रुक्ष आदि गुणों की वृद्धि हो जाती है तो पित्ताशय पथरी बन जाती है।
मेरे साथ ऐसा ही हुआ होगा। 😊
स्पष्ट रूप से समझने के लिए अति धन्यवाद।
🙏🏻🙏🏻
[9/17, 8:30 PM] Dr. Pawan Madan:
बहुत बहुत धन्यवाद।
पर मुझे कुछ मास दवाएं खाने के बाद अंततोगत्वा सर्जरी के लिए ही जाना पढ़ा।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
[9/18, 12:53 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार पवन भाई, इसे मधुर रस नहीं माधुर्य भाव समझिये क्योंकि आप diabetic हैं, प्रायः हम आधुनिक मधुमेह और जिन्हे साथ ही पित्ताश्मरी भी हो ऐसे रोगी नहीं लेते। आपका आहार, विहार, देशाटन आदि सब आयुर्वेदीय आचरण के अनुकूल नहीं है इसलिये आपको आयुर्वेद से बाहर आना पड़ा।*
*आयुर्वेद वस्तुतः केवल औषधियों से रोग समाप्त कर दें ऐसा नहीं है, यह एक प्रकृति सा सामंजस्य स्थापित करने की जीवन शैली है।*
*शरीर पंचभौतिक है और औषध द्रव्य भी पंचभौतिक तथा रोग इन पंचभौतिक तत्वों का असंतुलन और इनमें तारतम्य भी जीवन शैली और औषध ही स्थापित करेगी यही आयुर्वेद है जिसमें आपकी प्रकृति बतायेगी कि वो किन भौतिक तत्वों से प्रभावित है और आपको कैसा आचरण करना चाहिये।*
*प्रकृति ने आपको जन्म से ही क्रोधी बनाया हो, अहंकारी बनाया हो, आलसी बनाया हो, प्रमादी बनाया हो, तो वह विकार नहीं है, देखिये चरक का इन्द्रिय स्थान वहां स्पष्ट उल्लेख है कि वह आपकी मूल प्रकृति का ही एक अंश है और उसे त्यागना ही विकार या अकाल मृत्यु का कारण भी बन सकता है।*
*हमें हमारी प्रकृति अनुरूप जो जीवन मिला, मानसिक भाव मिले उसका ज्ञान आवश्यक है और दूसरों से comparrision या competition नहीं करना है यह हमारे आचार्यों का स्पष्ट निर्देश है।*
[9/18, 1:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अगर अपने या किसी के भी जीवन को जानना हो तो चिकित्सा करने से पहले चरक संहिता का इन्द्रिय स्थान जरूर अध्ययन करें क्योंकि यह आपको भिषग् बनने के क्षेत्र में वहां पहुंचा देगा जहां आप सोच भी नहीं सकते।*
*आधुनिक सिद्धान्त research पर research हो कर बदलते रहेंगे पर शरीर के तत्व वहीं रहेंगे, भाव, कर्म, क्रियायें, विकार, रोग आदि सब वही रहेंगे और जब से संसार में यह शरीर बने हैं बदलेगा कुछ नहीं जैसे, इन्द्रियस्थान में 12 अध्याय है, प्रत्येक अध्याय कि अपनी विशिष्टता है। आरिष्ट या मृत्युसूचक एवं अशुभ लक्षणों का चिकित्सा विज्ञान में अपना महत्त्व है। सम्पूर्ण इन्द्रिय स्थान में रोगों के अरिष्ट लक्षणें का वर्णन है। चिकित्सा जगत में अरिष्ट स्थान प्राग्ज्ञान (prognosis) की दृष्टि से सर्वविदित है।*
*इन्द्रिय स्थान में वर्ण, स्वर, गंध, रस, स्पर्श चक्षु, स्त्रोत, घ्राण, रसना, मन, अग्नि, शौच, शीलता, आचरण, स्मरणशक्ति, विकृति धारणा शक्ति, बल, शरीर आकृति, रूक्षता, स्निग्धता, गौरव एवं आहार पाचन तथा आहार परिणाम संबंधी विभिन्न प्रकार के अशुभ लक्षणों का वर्णन किया गया है।*
*व्याधि का मूल रूप, वेदना, उपदेश, छाया, प्रतिच्छाया, स्वप्न, भूताधिकार, मार्ग में आरिष्ट जनक वस्तु को देखना, इन्द्रिय एवं इन्द्रिय विषय से सम्बधित शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना एवं रोग के साध्य, असाध्यता एवं रोगी के जीवन मृत्यु के निर्णय में इन अरिष्ट लक्षणों का योगदान इन विषयों का इन्द्रिय स्थान में बुद्धिगम्य शब्दों में सुन्दर वर्णन प्राप्त होता है।*
*जब तक आपको प्राकृत या normal का ज्ञान नहीं होगा तो abnormal को कैसे जानोगे ? शरीर या इन्द्रियों के इस समूह का प्राकृत ये कैसा है जानना आवश्यक है।*
*आपको स्वंय ही ही ज्ञात नहीं है कि आप मन और शरीर से स्वस्थ हो या नहीं, आपकी इन्द्रियां और उनके कर्म अस्वस्थ तो नहीं जिन्हें आप normal मान रहें हैं ? तो फिर दूसरों की अस्वस्थ अवस्था का ज्ञान कैसे करेंगे ?*
*इसीलिये आयुर्वेद के अनेक विषय इन्द्रियों से ज्ञात होते हैं और अनेक इन्द्रियातीत, अपनी इन्द्रियों का ना तो विकास किया, ना ही उन्हें जागृत किया, और ना ही उन्हे कालानुरूप technology के अनुसार सामंजस्य बिठा सके।*
[9/18, 1:37 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अगर आयुर्वेद को समझना है, सीखना है, आयुर्वेद को समझ कर चिकित्सा करनी है तो यह मूल तत्व जरूर जान लीजिये क्योंकि सम्पूर्ण आयुर्वेद अंततः इसी पर आधारित मिलेगी चाहे वह मानस रोग हो या शारीरिक अथवा शल्य तक पहुंचे हुये...*
*सत्वादि त्रिगुणों की प्रधानता और समन्वय से गुर्वादि गुणों की उत्पत्ति ...*
*सर्वभूतानां कारणमकराणां सत्वरजस्तमोलक्षण...'
सु शा 1/3
अर्थात अव्यक्त सब भूतों का का को कारण है पर इसके स्वयं होने में कोई कारण नही है और सत्व, रज और तम गुण वाला है। यहां सत्व, रज और तम को गुण की ही संज्ञा दी गई है। इन्हें गुण इसलिये कहा है कि यह राशि पुरूष को सुख दुखन जन्म मरण के चक्र में इस प्रकार बांधते हैं जैसे पशु को डोरी से बांधते हैं और जीवात्मा की मुक्ति में सहायक भी हैं।*
*सत्व सुख, रज दुख और तम मोह के प्रतीक हैं, ये एक दूसरे पर आश्रित हैं और एक दूसरे से मिलकर रहते हैं।सत्व लघु है, रज उपष्टम्भक अर्थात उत्तेजक है और तमो गुण गुरू है। इन तीनों की साम्यावस्था ही प्रकृति है और क्षय- वृद्धि विकृति है।*
*सत्व बुद्धि को प्रकाशित करने के साथ 5 ज्ञानेन्न्द्रियां, 5 कर्मेन्द्रियां, अहंकार, मन में भी रहता है जिसके कारण विषय, स्वकर्म और ज्ञान की सामर्थ्य बनी रहती है।*
*रज पित्त प्रधान और चल गुण की प्रधानता युक्त है, सत्व और तम निष्क्रिय हैं जब तक उन्हे रज का साथ नही मिलता क्योंकि यही उन्हे प्रेरणा देता है, दुख अर्थात प्रतिकूल वेदना का कारण रज ही है।*
*तमो गुण गुरू है यह निष्क्रियता, मंदता और जड़ता का कारण है, मोह, अज्ञान, इन्द्रियों का अपने विषयों को ग्रहण ना कर पाना, अल्प बुद्धि का होना तथा अपने गुरू गुण से सत्व और रज को दबा कर रखना, धी, धृति, स्मृति की अल्पता और मोह सहित विषाद इसके लक्षण है।*
*इनकी गुणों में सत्व अपनी क्रिया रजो गुण के चलत्व से और उसका नियन्त्रण तम से करता है। रजो गुण की क्रिया सत्व के प्रकाश और तमोगुण की मर्यादा से तथा तमो गुण की क्रिया सत्व के प्रकाश और रज के चलत्व से होती है। ये तीनों प्रकृति के निर्माण में संतुलन रख कर सूक्ष्म एवं स्थूल द्रव्यों की उत्पत्ति में सहायक है।*
*जैसा हमने बताया कि मूल तत्व अव्यक्त सत्व, रज और तम से युक्त है और आगे इस से महान और अहंकार उत्पन्न हो कर पांच तन्मात्रायें उत्पन्न होती है जो पंचमहाभूत की उत्पत्ति का कारण बनते हैं।*
*इन सब को अब विस्तार से समझें कि इस त्रिगुणात्मक मूल प्रकृति में किस गुण की बहुलता से क्या स्वरूप है, कौन से भूत की प्रधानता होती है और कौन से गुण की उत्पत्ति होती है...*
*सत्व - लघुता एवं प्रकाश, क्षमा, प्रसन्नता, संतोष विवेक, अनासक्ति आदि।*
*रज - प्रवृत्त या गतिशील बनाये रखना, प्रेरक एवं दुख।*
*तम - गुरूता, निष्क्रियता, मंद, अज्ञान, भय, अपनी गुरूता से सत्व और रज पर आवरण रखना, विषाद-मोह।*
*गुण गुरू - मूल प्रकृति तम - प्रधानता पृथ्वी जल*
*गुण लघु - मूल प्रकृति सत्व - प्रधानता वायु आकाश (रस वैशेषिक कार अग्नि में भी लघुता मानते हैं)।*
*शीत - मूल प्रकृति तम+सत्व - प्रधान भूत जल (शीत गुण वायु का भी है)- ।*
*उष्ण - मूल प्रकृति रज और सत्व - प्रधान भूत अग्नि*
*स्निग्ध - मूल प्रकृति सत्व और तम - प्रधान भूत जल*
*रूक्ष - मूल प्रकृति तम और रज - प्रधान भूत वायु (च सू 26/11 में 'उष्णतीक्ष्णलघुरूक्षविशद...' अग्नि को भी माना है और रस वैशेषिक में 'रौक्षवैशद्ये पार्थिववायव्ये '30/14 अनुसार पृथ्वी को भी माना है)*
*मंद - मूल प्रकृति तम - प्रधान भूत पृथ्वी और जल ।*
*तीक्ष्ण - मूल प्रकृति सत्व और रज - प्रधान भूत अग्नि ।*
*स्थिर - मूल प्रकृति तम - प्रधान भूत पृथ्वी - ।*
*सर - मूल प्रकृति सत्व और तम - प्रधान भूत जल*
*मृदु- मूल प्रकृति सत्व और तम - प्रधान भूत जल और आकाश (मार्दवमान्तरिक्षमाप्यं र वै 3/115)*
*कठिन - मूल प्रकृति तम - प्रधान भूत पृथ्वी*
*विशद - मूल प्रकृति रज और तम - भूत पृथ्वी, वायु, अग्नि और आकाश।*
*पिच्छिल - मूल सत्व और तम - प्रधान भूत जल*
*श्लक्षण - मूल सत्व और रज - प्रधान भूत अग्नि*
*खर - मूल रज और तम - प्रधान भूत पृथ्वी, अग्नि और वायु।*
*सूक्ष्म - मूल रज और तम - प्रधान भूत वायु, आकाश और अग्नि।*
*स्थूल - मूल तम - प्रधान भूत पृथ्वी ।*
*सान्द्र - मूल तम - प्रधान भूत पृथ्वी ।*
*द्रव - मूल सत्व और तम - प्रधान भूत जल।*
*यही सब चिकित्सा में रोगी की प्रकृति परीक्षा और उस रोगी की चिकित्सा हम कैसे करेंगे उसके मापदंड स्थापित करते है कि रोगी की मानस और शारीरिक प्रकृति कैसी है और उसकी परीक्षा और चिकित्सा कैसे होगी।*
*net पर बहुत से छद्मचर आयुर्वेद के बहुरूपिये प्रकृति परीक्षण और चिकित्सा के नाम पर आयुर्वेद का व्यापार कर रहे हैं वो सब ढोंगी है और उन्होने आयुर्वेद शास्त्रों का अध्ययन किया ही नहीं, आप तो आयुर्वेदज्ञ हैं अतः मूल आयुर्वेद को आचरण में लाईये।*
[9/18, 6:06 AM] Vd. Divyesh Desai Surat:
🙏🏾🙏🏾प्रणाम, गुरुश्रेष्ठ🙏🏾🙏🏾शायद आपने शुरू से ही गुर्वादि गुणों का पंच भौतिकत्व और सत्वादी गुणों से तुलनात्मक अभ्यास करने पर भार दिया था, ताकि शरीर और मन दोनों पर द्रव्य (आहार और औषध द्रव्य) का क्या प्रभाव पड़ता है, जो आयुर्वेद का base है,वो सिखाना चाहा था, लेकिन तमोगुण प्रधान हम सभी ने इसमें ज्यादा रुचि नहीं बताई थी, फिर भी आप जैसे सत्व गुण प्रधान गुरुजी ने ये सब गुणों का details आप के केस प्रेजेंटेशन में कर ही दिया है, जो हमारा तम गुण का आवरण दूर करने में निश्चित ही सहायक होगा ।।
सुप्रभात एवं सहृदय वंदन🙏🏾🙏🏾👏👏
[9/18, 7:22 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
प्रणाम गुरुदेव, बिल्कुल सही। इंद्रीय स्थान अनेकों कारणों से दुर्लक्षित स्थान है। बहोत वैद्यों का यह मानना है की वह मात्र अरिष्ट विषयक है। अगर हम सुक्ष्मता से देखे तो वह आयुर्वेद का क्लिनिकल गाईड है। रुग्ण की जांच किस किस तरह से की जा सकती है इसका संपूर्ण विवरण हमे इस स्थान में मिलता है। जैसा आप श्री ने सही ही कहा है, हमारी सोच जहां खतम होती है, इंद्रीय स्थान उसके आगे की बात करता है। कीसी भी रुग्ण का कालसापेक्ष प्रोग्नोसिस, -प्रहर, / दिन/ सप्ताह/ पक्ष / मास आदी काल में रुग्ण मृत्यु को प्राप्त होगा यह बताने की क्षमता आज के आधुनिक वैद्यकीय युग में अकल्पनीय लगती है। पर हममें से जिन वैद्यों में आयसीयु में काम किया होगा वे इसका महत्व और सटिकता पहचानते हैं।
[9/18, 7:53 AM] Dr. Pawan Madan:
चरण स्पर्श गुरु जी
आपने उचित कहा, आज से करीब 25 साल पहले तक हमारा आहार व बिहार आयुर्वैदिक नहीं था।
और अभी हमें बहुत देशाटन करना पडता है, उस में भी हमारा आहार संतुलित ही रहे, ऐसी हमारी भरपूर कोशिश रहती हैं।
व्यवहार में , घर में, चिकित्सा में सर्वदा आयुर्वेद ही निवास करता है।
मेरा पुत्र जो के अब 23 साल का है, उसको शायद ही जीवन में कभी 1 या 2 बार कोई एलोपैथिक दबा देनी पड़ी हो, आयुर्वेद से ही उसका व हमारा जीवन बना है।
परंतु जैसे आपने कहा, जो पुरुष प्रकृति से जैसा बना है, वह उसमे या उसकी प्राकृत अवस्था को समझाना बहुत जरूरी है।
स्वयं की डायबिटीज को, स्वयं की प्रकृति के बारे में जानने में हमने काफी समय लिया, गुरुजनों के मार्गदर्शन से, एवं अपनी समझ से 4 साल तक, सम्पूर्ण रूपेण आयुर्वैदिक आहार विहार व आयुर्वैदिक चिकित्सा से स्वयं के ऊपर रिसर्च किया, पर क्योंकि कुछ चीजें प्रकृति में समाहित हो कर ही परिलक्षित होती हैं, फिर उनको स्वीकार कर, मैनेज करने की स्थिति में आना ही पढ़ता है।
गुरु जी, सम्मान सहित निवेदन है है के, अपना पूरा जीवन आयुर्वेद में ही जीने में लगाया है, और उसके लिए बहुत कठिन अवस्थाओं में से भी गुजरे हैं, पर आयुर्वेद शत प्रतिशत हर एक अवस्था की चिकित्सा नहीं कर पाता, ये भी एक सत्य है, एवम् अनुभव से इस सत्य के साथ चलना मैंने सीखा है
आदरणीय गुरु जी
बहुत ही विनम्रता एवं सम्मान के साथ ये कहना चाहता हूं के पिछले 25 सालो से आहार तो विशेषता आयुर्वैदिक ही रहा है, विहार में भी जहां तक संभव हो सका किया।
जैसा के आपने कहा के आप डायबिटीज व पित्ताशय अश्मरी के रोगी नहीं लेते, आप स्वयं ने भी बहुत से असाध्य अवस्थाओं में रोगी नहीं लेना चाहिए ऐसा हमें सिखाया है, क्योंकि बहुत सी ऐसी अवस्थाएं व रोग स्थितियाँ बन जाती हैं जिसमे सब तरह से उपचार करने पर भी सफलता प्राप्त नहीं होती, जैसा के चरक विमान में एक संभाषा में स्पष्ट वर्णन किया गया है।
कुछ कारण दैव या पूर्व जन्म कृत हो सकते हैं, एवं हर दैव कर्म जन्य परिणाम को अपने पुरुषकार से change नहीं किया जा सकता, ये भी सत्य है, ऐसा मैने अब तक के अनुभव से जाना है,
आपने मुझे एवं यहां प्रत्येक जन को अपने मार्गदर्शन से बहुत अनुग्रहित किया है, इस के आपका कोटि कोटि धन्यवाद।
आज से इंद्रिय स्थान को फिर से पढ़ने व समझने को कोशिश करेंगे, क्योंकि अभी मेरी practice में मुख्यत ऐसे ही रोगी आ रहे हैं जिन में हर संभव कोशिश करने पर भी संप्राप्ति समझ में नहीं आती, जैसे 2 से 3 साल के बच्चे में atopic dermatitis।
2 साल के बच्चे में नेफ्रोटिक सिंड्रोम
आपने सही कहा, ऐसे सब रोगियों व अन्य ऐसी असाध्य दिखने वाली अवस्थाओं को समझने के लिए इंद्रिय स्थान में जाना होगा, जैसा आपने मार्गदर्शन किया
पर इंद्रिय स्थान को समझने के लिए, आप गुरुजन के मार्गदर्शन की हर पल आवश्यकता रहेगी, वरना समझ नहीं पाऊंगा, आदर सहित निवेदन है के मुझ आयुर्वेद के विद्यार्थी को आप निरंतर इसी तरह समझाते रहेंगे।
बहुत बहुत धन्यवाद।
सुप्रभात एवं चरण स्पर्श।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
[9/18, 9:00 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुप्रभात वैद्यवर पवन जी,
दिनचर्या, ऋतुचर्या, अलग अलग स्थान पर भ्रमण, वहां जा कर मौसम, वायु, अन्न, जल, मसाले, लोगों से मिलकर चर्चा, हमारी सोच, जिस कार्य के लिये आये हैं उसके प्रति कर्तव्य निष्ठा का प्रेशर, अधिकतम लोगों को अपने कार्य से संतुष्ट करना, उनकी जिज्ञासाओं का समाधान, खुली हवा से बाहर आ कर दूसरे स्थान पर बंद कमरें में AC का जीवन, ट्रेन, बस या गाड़ियों में दूर दूर तक सफर करना आदि आदि .. इन सब को हम वात, पित्त और कफ से जोड़ लेते है और प्रकृति की लय तथा साथ ही शरीर की भी लय को साथ लें क्योंकि यह शरीर प्राकृतिक है किसी मशीन या chemicals से नहीं बना।*
*अब बात करें शरीर में biological clock, biorhythms या microbiome आदि की तो आयुर्वेद में इन सब को वातादि तीनों दोषों के अन्तर्गत ग्रहण किया है, अगर रात्रि जो अंधकार का समय है और उसमें हम light on कर के सोते है या समझें कि जब प्रकाश और अंधेरे के बाहरी संकेतों को अप्राकृतिक रूप से पेश किया जाता है, तो हमारी master clock भ्रमित हो जाती है और इससे स्वास्थ्य संबंधी समस्यायें पैदा होंगी है।*
*यह भी आयुर्वेद का अति विशाल पढ़ने और कार्य करने का क्षेत्र है क्योंकि दिनचर्या - रात्रिचर्या शब्द का मूलतः भाव क्या है इसे गंभीरता से जानने की हम सभी को आवश्यकता है।*
[9/18, 9:04 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*दिव्येश भाई, इन्द्रिय स्थान जब जब भी पढ़ेंगे तो हर बार कुछ नया मिलेगा और हमारी सोच को कुछ अलग ज्ञान देता जायेगा 👌🙏*
[9/18, 9:08 AM] Vd. Mohan Lal Jaiswal:
ऊँ
सादर प्रणाम वैद्यवर जी
आर्ष ज्ञान सद्गुरुदेव से ही लक्षित होता है।🚩👏
[9/18, 9:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमो नमः आचार्य जायसवाल जी 🌹❤️🙏*
[9/18, 9:14 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*गीता को स्वयं पढ़ना और कोई गीता को पढ़ा समझा कर दिमाग में बिठा दे, ये दोनों ही स्थितियां भिन्न हैं।*
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday (Discussion)' a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
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Presented by-
Vaidyaraja Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by-
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by-
Dr. Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
P.G. Dept of Kayachikitsa
Govt. Akhandanand Ayurveda College, Ahmedabad, Gujarat, India.
Email: kayachikitsagau@gmail.com
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