[11/24/2020, 1:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*क्लिनिकल आयुर्वेद - भाग 2*
*कल हमने हेतु, सम्प्राप्ति और चिकित्सा के मूल सु शा 3/43 में गर्भ के पितृज भाव
'तत्र गर्भस्य पितृजमातृजरसजात्मजसत्त्वजसात्म्यजानि शरीरलक्षणानि व्याख्यास्यामः, गर्भस्यकेशश्मश्रुलोमास्थिनखदन्तसिरास्नायुधमनीरेतः प्रभृतीनि स्थिराणि पितृजानि'
और चरक शारीर 3/7 में
'केशशमश्रुनखलोमदंतास्थ्सिरास्नायुधमन्य: शुक्रन्चेति...'
केश, श्मश्रु, लोम, अस्थि, नख, दंत, सिरा, स्नायु, धमनी, रेत इत्यादि कठिन अव्यव पितृज भाव के अव्यव बताये गये हैं।*
*सु शा 3/43 मातृज भाव -
'मांसशोणितमेदोमज्जहृन्नाभियकृत्प्लीहान्त्रगुदप्रभृतीनि मृदूनि मातृजानि,
चरक शा 3/7 मे
'त्वक च लोहितं च मांसं च मेदश्च नाभिश्च ह्रदयं च क्लोम च यकृच्च प्लीहा च वृक्कौ च बस्तिश्च पुरीषाधानं चामाश्यश्चोत्तरगुदं चाधरगुदं च क्षुद्रान्त्रं च स्थूलान्त्रं च वपावहनं...'
अर्थात मांस, रक्त, मेद, मज्जा, ह्रदय, नाभि, यकृत, प्लीहा, आन्त्र, गुदा आदि ये मातृज अव्यव है पर चर्चा की थी।*
*यह जो पितृज और मातृज भाव बताये गये हैं यह क्यों बताये गये, इनके ज्ञान की निदान और चिकित्सा में क्या उपयोगिता है ?
इसकी यह चर्चा ग्रन्थकार या टीकाकार ने नही की लेकिन जब हम clinical approach के साथ इनको ले कर चलते हैं तो इन दोनों भावों का रहस्य अपने आप ही स्पष्ट होता चला जाता है जैसे
पितृज भाव - केश, श्मश्रु, लोम, अस्थि, नख, दंत, सिरा, स्नायु, धमनी, रेत इत्यादि, ध्यान से देखिये ये सब स्थिर और कठिन है। दोष, धातु, शरीर और द्रव्य सब पंचभौतिक है, शरीर में पंचतत्वों का असंतुलन ही व्याधि है जिसे पंचभौतिक द्रव्यों एवं अन्य प्रक्रियाओं से हम संतुलन में लाते हैं, आईये अब इन पितृज भावों के कठिन और स्थिर भावों को समझेंगे।*
*हेमाद्रि कहते हैं 'यस्य दृढ़ीकरणे शक्ति: स कठिन:' इस सूत्र के अनुसार जिस गुण के कारण कोई भी द्रव्य या शरीर का अव्यव एकांग या सर्वांग रूप में कठोरता या दृढ़ता उत्पन्न करे वह कठिन है।*
*अब इस गुण को हम रोगी में कैसे देखेंगे ? 👇🏿*
[11/24/2020, 1:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*19-8-20 को रूग्णा का USG - liver में 26.8 mm ganulomatous calcification यह कठिन गुण है जो अस्वाभाविक है, प्राकृतिक नही केश, श्मश्रु, लोम, अस्थि, नख, दंत ये कठोर और दृढ़ है सिरा, स्नायु, धमनी दृढ़ और स्थिर है। RK में 29/24 mm की cortical cyst दृढ़ होने से कठिन गुण में मानी जायेगी और इसे हम स्थिर में भी ले कर चलेंगे ऐसे ही LK के 35/34 mm hypoechoic area को भी हम मान कर चलेंगे। यह कठिन गुण मृदु या कोमल के विरूद्ध गुण वाला है, मातृज भाव मृदु है और चरक ने मृदु के विपरीत खर भी कहा है।*
*सम्प्राप्ति ज्ञान क्यों आवश्यक है ? 12-11-20 को हमने सम्प्राप्ति विघटन से यकृत और left kidney के कठिन गुण को समाप्त कर दिया जो usg में नही मिला और रूग्णा को दो शल्य क्रियाओं से सुरक्षित कर दिया।* 👇🏿
[11/24/2020, 1:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*कठिन भावों का भौतिक संगठन पृथ्वी महाभूत है, द्रव्यों की कार्मुकता के स्वरूप में देखें तो कठिन गुण वाले द्रव्य शरीर को बाह्य या आभ्यंतर रूप में दृढ़ और कठोर को करते ही हैं, मल, मूत्र पुरीषादि का शोषण करते है, वात वर्धक होने के साथ ही धातुओं को दृढ़ बनाते हैं।*
*कटु, तिक्त, कषाय रस में कठिन गुण का अधिष्ठान इसलिये माना गया है कि यह वात वृद्धि कर होता है, क्योंकि पितृज भाव कठिन गुण प्रधान है तो अनेक भावों में रूक्ष, खर, लघु, तीक्ष्ण, स्थिर, विशद, सूक्ष्मादि अंश भी मिलते हैं । कठिनता उष्णता के कारण शोषण होने से होती है अत: कठिनता उष्ण वीर्य प्रधान है।*
*पितृज भावों में दूसरा गुण स्थिर भी है जिसे हेमाद्रि 'यस्य धारणे शक्ति: स स्थिर:' जिसमें स्तंभन करने की शक्ति हो, गति का अभाव हो या अल्प गति मिलते ही पुन: स्थिर हो जाये और धारण भी कर सके वह स्थिर है।स्थिर गुण भी पृथ्वी महाभूत प्रघान है सिरा, स्नायु, धमनी ये सब स्थिर है अत: पार्थिव भी हैं। मधुर, अम्ल एवं कषाय रस स्थिर गुण वाले होते हैं। अलग अलग द्रव्यों में मंद, शीत, मृदु, श्लक्षण, रूक्ष, लघु, गुरू, पिच्छिलादि में भी स्थिर गुण मिलता है। शीतवीर्य द्रव्य स्थिर गुण के होते हैं तथा मधुर विपाक स्थिर गुण वाला होता है।*
*यह सब विस्तार से लिखने का उद्देश्य यह है कि आप सामान्य-विशेष सिद्धान्त की उपयोगिता अब शरीर के अव्यवों और द्रव्यों पर भली प्रकार समझ कर उनकी स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षण और चिकित्सा में प्रयोग कर सकें।*
*अब आगे मांस, रक्त, मेद, मज्जा, ह्रदय, नाभि, यकृत, प्लीहा, आन्त्र, गुदा आदि मातृज अव्यवों को देखें, ये सब मृदु गुण युक्त हैं, स्पर्श में कोमल और शिथिलता युक्त प्रतीत होते हैं । यदि व्यवहारिक रूप से देखें तो मृदु कठिन के विपरीत ही मिलता है। इनका भौतिक संगठन जल और आकाश महाभूत आधिक्य है, द्रव्यों में भी आकाश और जल महाभूत प्रधान द्रव्य मृदु गुण युक्त होते हैं।*
*मधुर, अम्ल और लवण रस वाले द्रव्य मृदु गुण वाले होते है। द्रव्यों का प्रभाव एकांग पर भी हो सकता है और सर्वांग पर भी इसी को ध्यान में रखते हुये द्रव, सर, सूक्ष्म, गुरू, शीत, स्निग्ध, पिच्छिल, स्थिर, मंद, रूक्ष, स्थूल, श्लक्षण, गुरू गुण वाले द्रव्य भी मृदु होते हैं।*
*शीत वीर्य, मधुर विपाक वाले द्रव्य मधुर होते है। गर्भ धारण से पूर्व किस गुण वाला आहार लिया गया, रोग होने से पूर्व हेतु में जो आहार लिया गया उनकी पंचभौतिकता और गुणों का सामंजस्य आप अब सरलता से समझ सकते है कि मातृज और पितृज भावों का एक महत्व ये भी है।*
*सहज विकारों को भी पितृज और मातृज अव्यवों का संदर्भ दे कर स्पष्ट किया गया है,
'तत्रद्विविधो बीजोपतप्तौ हेतु मातापित्रौरपचार: पूर्वकृतं च कर्म तथाऽन्येषाममि सहजावां विकाराणाम्। '
च चि 14/5'
यहां पर बीज दुष्टि के कारण स्पष्ट करते हुये चरक में लिखा है कि माता पिता का अपचार अर्थात मिथ्या आहार विहार तथा पूर्वजन्म के कर्म सहज रोगों के हेतु होते हैं।*
*'केशशमश्रुनखलोमदंतास्थ्सिरास्नायुधमन्य: शुक्रन्चेति...' च शा 3
में पितृज भाव के अव्यव बताये गये हैं।*
*'त्वक च लोहितं च मांसं च मेदश्च नाभिश्च ह्रदयं च क्लोम च यकृच्च प्लीहा च वृक्कौ च बस्तिश्च पुरीषाधानं चामाश्यश्चोत्तरगुदं चाधरगुदं च क्षुद्रान्त्रं च स्थूलान्त्रं च वपावहनं...'
ये मातृज अव्यव है।ये ज्ञान रोग की सम्प्राप्ति और चिकित्सा में बहुत सहायक है। शुक्र और शोणित दूषित तभी होगें जब रोग रस रक्तादि धातुओं में उत्तरोत्तर बढ़ता चला जाता है और शुक्र शोणित को दूषित कर चुका होता है और यह बीज रूप में गर्भ में आ जाते हैं। जैसे वृक्क रोगों को ही ले तो यह बीज रूप में रहता है, जन्म के समय तो baby स्वस्थ होता है पर मिथ्या आहार विहार और काल के अनुरूप जैसे ही उस रोग के बीज को अनुकूल परिस्थिती मिलती है तो उस रोग के बीज का अंकुर फूट जाता है और रोगावस्था आरंभ करना शुरू कर देता है।*
*चरक सूत्र 20/17 में कफज बीस विकारों में
'ह्रदयोपलेपश्च कंठोपलेपश्च धमनिप्रतिचयश्च...'
कफ से ह्रदय का लिप्त होना, कंठ का कफ से लिप्त होना और धमनी प्रतिचय = धमनी की गति में गुरूता, इस धमनी प्रतिचय को योगीन्द्रनाथ ने धमनी का अतिपूरण, चक्रपाणि ने धमनी उपलेप, और काश्यप ने भी इसे धमनी उपलेप ही कहा है, HT और ह्रदय रोग अगर उत्तरोत्तर धातुगत होगें तो इसी प्रकार दोषों को माध्यम बनाकर शुक्र और बीज को दूषित कर सहज रोगोत्पत्ति करेंगे।*
*अब तक पितृज और मातृज अव्यवों का संबध हमें गुणों से मिला, गुणों का संबंध पंचमहाभूतों से है, पंचभूतों का संबंध द्रव्यों से, उनके रस, वीर्य, विपाक, प्रभाव से है जो पुरूष (स्त्री-पुरूष) सेवन कर रहे हैं, अत: चक्र को समझें क्योंकि जब हम सम्प्राप्ति प्रकरण पर पहुंचेंगे तो जिस कंपवात या वेपथु रोगी का वीडियो upload किया है वहां यह सब भाव अपने आप ही सामने आ जायेंगे।*
[11/24/2020, 1:32 AM] Vd Sachin Vilas Gajare Maharashtra: 🙏🏻
एक प्रश्न -
अस्थी स्नायू पित्रुज अवयव है|
लेकिन हमारे पुत्र जो कि अभी 4 वर्ष के है,उन्हें flat foot है,जबकि हमें या हमारे पिताजी किसीको फ्लैट फुट नहीं है।
और हमारी पत्नी का फ्लैट फुट है।
तो इस बारे में कैसे विचार करे।
[11/24/2020, 1:41 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*नमस्कार सचिन जी, हमने उपर लिखा है 'कटु, तिक्त, कषाय रस में कठिन गुण का अधिष्ठान इसलिये माना गया है कि यह वात वृद्धि कर होता है, क्योंकि पितृज भाव कठिन गुण प्रधान है तो अनेक भावों में रूक्ष, खर, लघु, तीक्ष्ण, स्थिर, विशद, सूक्ष्मादि अंश भी मिलते हैं। कठिनता उष्णता के कारण शोषण होने से होती है अत: कठिनता उष्ण वीर्य प्रधान है।*
*एक हेतु यह भी हो सकता है और इसके अतिरिक्त अन्य हेतु भी जिसे पूरे विस्तार से history द्वारा जाना जा सकता है, आयुर्वेद में कठिन परिश्रम और नवीन अनुसंधान की परम आवश्यकता है जिसका आरंभ आप अपने घर से पत्नी की history ले कर करे, आपको आश्चर्य होगा कि आयुर्वेद सिद्धान्तों पर चलें तो असंभव कुछ भी नही है।*
🙏🙏🙏
[11/24/2020, 1:42 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*इसके अतिरिक्त स्थिर भाव को भी देखिये।*
[11/24/2020, 8:22 AM] Prof. Giriraj Sharma:
सुप्रभातम सर्व आचार्य गण
सादर नमन,
*मातृज एवं पितृज भाव मे आत्मज भाव भी होते है ।*
*माता के फ्लैटफूट होना मातृज भाव मे उनके पितृज भाव का बोध करवा रहा है।*
*मातृज या पितृज भाव मे ही आत्मज भाव समाहित होते है*
सामान्य अर्थ में समझने के लिए*
*1 Gametes बीज. मातृज पितृज भाव*
*2 Chromosome. सात्म्यज / रसज भाव*
*3 Genes आत्मज भाव*
🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹🌹
[11/24/2020, 8:24 AM] Prof.Giriraj Sharma:
*मृदु मज्जा (मातृज भाव) से कठिन अस्थि (पितृज भाव) की उतपत्ति का होना भी इसका उदाहरण है ।*
[11/24/2020, 8:41 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*सादर नमन आचार्य गिरिराज जी 🙏🙏🙏
पहले भाग में पितृज, मातृज, रसज, सात्म्यज, आत्मज भाव का उल्लेख कर के चले है जिन पर आगे आयेंगे। आयुर्वेद में ये एक बहुआयामी चिन्तन है जो विभिन्न प्रकार से मिलने पर उल्लेख किया जा रहा है।* 🙏🙏🙏
[11/24/2020, 8:42 AM] Prof.Giriraj Sharma:
*मेद से स्नायु की उतपत्ति*
*मेद धातु मृदु भाव है उससे सिरा धमनी मृदु भाव के साथ साथ कठिन भाव स्नायु भी उतपन्न हो रहा है।*
*काठिन्य एवं मृदु गुण आहार विहार , संस्कार जन्य भी हो सकते है । संस्कार जन्य (पाक) से काठिन्यता को मेदधातु स्नायु प्रभव करता है ।*
🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹🌹
[11/24/2020, 9:05 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
* चिकित्सा का क्षेत्र बहुत बढ़ा है - चरक में मृदु का विपरीत खर है, भावप्रकाश ने कर्कश लिखा और सुश्रुत में कर्कश श्लक्षण का विरूद्ध गुण है।*
*मातृज भाव मृदु गुण युक्त है, मृदु गुण स्पर्शेन्द्रिय का विषय है तो इसका विपरीत कठिन ही संभव है। शरीर पंचभौतिक है पर अलग अलग अव्यवों में भी भूत प्रधान है क्या अस्थियों और वृक्क दोनो अव्यवों में भूतों का संतुलन समान है ? नही है।*
*गुणों में मैतक्य इसलिये दिखता है कि जिसे जैसा परिणाम कार्य करने पर मिला और जिसका बाहुल्य दिखा उसने वैसा ग्रहण किया, अनेक वर्षों तक दिव्य दृष्टि, आत्म ज्ञान, रोगियों पर अनुभव करना तथा परंपरागत ज्ञान ये सब जैसे जैसे मिला तो आचार्य अपनी अपनी संहिताओं, ग्रन्थो में लिखते गये।भाव प्रकाश को ज्ञान है चरक में खर है पर वो कर्कश लिख रहे है जो उनका स्व का मत है।*
*आयुर्वेद में यही तो होना चाहिये कि हम अपने किये गये कार्य को शास्त्र के मत के साथ साथ अपने मत से कैसे समझा यह भी रखें क्योंकि अनेक ज्ञान सूत्र रूप में है जिसकी विस्तार से व्याख्या नही मिलेगी।*
[11/24/2020, 9:26 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*बहुत उत्तम व्याख्या आचार्य जी, यदि हम गुणों के अनुसार चलें जैसे कठिन तो भौतिक संगठन, कार्मुकता आदि के अनुसार ऐसा ही मिलता है।*
🙏🙏🙏
[11/24/2020, 10:56 AM] Vd. Atul J. Kale M.D. (K.C.) G.A.U.:
*आचार्य सुभाषसर* काठिण्यको लक्ष्यमें रखते हुए थोडे मेरे विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ 🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻😊
काठिण्यभाव
उष्ण गुण
रुक्ष गुण
चल गुण
सूक्ष्म गुण
की अपेक्षा रखता है
इनमेंसे उष्ण+चल+सूक्ष्म गुण काठिण्य ला सकते है
रुक्ष+सूक्ष्म+चल इन गुणोंका संयोग भी परिणामतः काठिण्य ला सकता है।
ये सभी गुण कालसापेक्षतासे ही काम करते है।
उष्ण गुण धातुओंमें परिणमन भी करता है जैसे मेदस्य खर एवं मृदुपाक: सिरा स्नायु
वायुकारण से आनेवाला काठिण्यभाव कालकी सापेक्षता ज्यादा रखता है वही अग्निसे आनेवाला काठिण्यभाव शोषण एवं परिणमनके लिए जरुरी अदिर्घ कालकी ही अपेक्षा रखता है।
स्वभाव से भी काठिण्यभाव उत्पन्न होता दिखता है।
इस परिपेक्ष्यमें द्रव्यका पांचभौतिक संघटन अपनेमें समाहित पांचभौतिक कणोंके स्वभावसे परिवर्तीत होता दिखता है। द्रव्यस्थ स्वभावतः कालसापेक्ष होनेवाला पाक (अग्नि एवं वायु के अचेतन असमवायित्वके कारण) स्वभावात् उपरमका कठिणत्व उत्पत्तीवत् अच्छा उदाहरण प्रतीत होता है।
कठिणत्व में रुक्ष ➡️खर➡️परुष➡️कठीण ये अवस्थाएँ उत्तरोत्तर होनेवाली द्रव्यस्थ अवस्थाएँ है।
इनमें चल, सुक्ष्म एवं उष्ण ये गुण बाहरसे द्रव्यमें अगर संवाहित हुए है तो ये निमित्तकारणही होते है, कार्य द्रव्यमें परिणामत: इनका अस्तित्व नहीं मिलता। उदाहरणार्थ चंदनबला तैल, चंदनादी तैल पाकोत्तर भी शीतल होता है।
कठिन द्रव्य प्रकृतीतः अगर उष्ण है तो उसकी प्रकृत्ती द्रवत्व निष्कासीत होनेके कारण और उष्णमय हो जाती है।
[11/24/2020, 11:40 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*बहुत बढ़िया विशलेषण डॉ अतुल जी, आनंद आ गया ।*
👌👍🌺🙏
[11/24/2020, 12:11 PM] Vd. Atul J. Kale M.D. (K.C.) G.A.U.:
सही पकडे है, 👏🏻👏🏻👌🏻👌🏻
गुणों को हम देख सकते है, उनसे क्रियाएँ कैसी घटित होती है ये भी देख सकते है किंतु उसके लिए सृष्टी में सब गुण कैसे कार्य करते है यही समझना होगा। तर्क, अनुमान से युक्तीतक आना ... ये अंशांश कल्पना ने लिए आवश्यक है, किंतु अनुमानमें थोडी सी भी चूक हमे अच्छे परिणाम से विमुख कर देती है। स्थुलरुपसे दी हुई दोषविपरित चिकित्सा सफल तो हो जाती है किंतु अंशांश कल्पनासे युक्ती में छोटी भी गलती हो तो सफलता नहीं मिलती।
[11/24/2020, 12:27 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
आयुर्वेद में ऐसे अनेक विषय है जो कठिन लगते है और परीक्षा में पास होने तक ही सीमित रह जाते है जबकि उनकी clinical importance बहुत अधिक है।*
*पितृज और मातृज भाव का गहन अध्ययन करने पर यह गुण आधारित भाव मिलते हैं जो मृदु, कठिन और स्थिर जन्य भी हैं।आचार्य गिरिराज जी और अतुल काले जी ने भी इन पर अत्युत्तम विचार रखे हैं। किसी भी विषय के मूल को पकड़ते ही देखिये वो कठिन विषय भी कितना सरल हो जाता है।*
*वर्तमान समय और BAMS में नये syllabus के अनुसार तो लगता है धीरे धीरे आयुर्वेद का मूल स्वरूप कि आयुर्वेद को उसी की भाषा में उसी की व्याकरण के साथ समझना चाहिये, वो धीरे धीरे लुप्त होता जा रहा है क्योंकि आयुर्वेदीय शब्दावली का translation उसके भाव और आत्मा को भी खो देता है। हमारा प्रयास यही है कि इस स्वरूप को बनाये रखें, हमारे ग्रुप के एक सीनियर सदस्य ने मुझे बढ़े अच्छे विचार भेजे कि अगर covid 19 तीन सौ वर्ष पूर्व आता तो निदान और चिकित्सा के क्या मापदंड हम बनाते और चिकित्सा करते ? औषध तो आयुर्वेद की और आयुर्वेदीय criteria कोई है ही नही तो चिकित्सा आयुर्वेद की कहां हुई ? ऐसे अनेक विषयों को भी आगे हम ले कर चलेंगे।*
[11/24/2020, 3:10 PM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar:
🙏🙏🙏🌹🌹💐🌹💐
पितृज भाव,,, जो भी कठिन व स्थिर हैं
जो कठिन हैं,,, वो प्रायः कटु तिक्त कषाय रस वाला है, उष्ण वीर्य है
कठिन,,, पार्थिव प्रधान है
जो स्थिर है,,, वो शीत वीर्य वाला है एवं मधुर विपाक वाला है
मातृज भाव,,,जो भी मृदु हैं
जो मृदु हैन,, वो मधुर अमल लवण वाले हैं, शीत वीर्य हैं व मधुर विपाक वाले हैं
याने के गर्भ धारण से पूर्व या रोग होने से पूर्व जिन गुणों वाला आहार विहार किया होगा उसके अनुसार पितृज या मातृज भावो में रोग होने की संभावना होगी ये ये इन भावों को जानने की क्लीनिकल utility रहेगी,,🙏🙏
सम्प्राप्ति का एक बहुत ही महत्वपूरन अंग ,,,हेतु को हम गुणों का इतिवृत्त लेकर समझ सकते हैं
ये ज्ञान बहुत सी व्याधियों की सम्प्राप्ति समझने में मदद करेगा
🙏🙏🙏🙏🙏
मातृज भाव क्या सिर्फ मृदु गुण से मुख्यत लक्षित होंगे गुरु जी क्या?🙏🙏🙏
[11/24/2020, 3:16 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*नमस्कार वैद्यश्रेष्ठ पवन जी, हेतु पर हम पहले भी बहुत लिखते रहे है जैसे ..
'हेतुलिंगौषधज्ञानं स्वस्थातुरपरायणम्,
त्रिसूत्रं शाश्वतं पुण्यं बुबुधे यं पितामह:' च सू 1/24
आयुर्वेद का सनातन, यह त्रिसूत्र ज्ञान हेतु, लिंग और औषध पुण्य कारक ज्ञान है। यह ब्रह्मा जी ने अपनी दिव्य दृष्टि से प्राप्त किया था, यह ज्ञान स्वस्थ और रोगी दोनों से संबंध रखता है।*
*हेतु काल, इन्द्रियों के विषयों का असात्म्य संयोग और कर्म का अतियोग, हीन और मिथ्या योग है। परिणाम में जरा, क्षुधा, तृषा और मृत्यु हैं तथा प्रज्ञापराध से धी, धृति और स्मृति का विभ्रंश होता है।*
*हेतु कार्य कैसे करेगा ? हेतु सर्वप्रथम दोषों का समावस्था में नही रहने देगा उन्हे प्रकुपित करेगा, शरीर के दूष्योंको विकृत करेगा और खवैगुण्य लायेगा तो यहां हमें हेतु से तीन बाते मिली ग्रन्थों में रोगों के जो अनेक हेतु या निदान मिलते हैं उनमें सभी निदान एक जैसा कार्य नही करते कुछ दोष उत्पन्न करते है, कुछ धातुओं को शिथिल करेंगे और कुछ खवैगुण्य लायेंगे अगर हेतु दोषोंको प्रकुपित करेगा तो यह प्रकोप दोषों के चय से भी हो सकता है और अचय से भी, विभिन्न संक्रामक रोगों में अचय पूर्वक प्रकोप ही बहुधा देखने को मिलता है।*
*ये हेतु अनेक प्रकार के भेद से होते हैं...*
*निज जो दोषों को प्रकुपित सीधे ही करते है और आगंतुज जो अभिघात, अभिशाप, अभिचार और अभिषंग से विभिन्न आगन्तुक रोगों को उत्पन्न कर देते हैं।*
*सन्निकृष्ट हेतु जैसे वय, दिन, रात और भोजन के अन्त, मध्य और आरंभ में वात पित्त और कफ का प्रकोप रहता ही है तथा विप्रकृष्ट जैसे हेमन्त में संचित कफ का वसंत में प्रकोप होगा और कफज रोग उत्पन्न करेगा।*
*व्यभिचारी हेतु -
ये वो निदान है जो दुर्बल होने से पूर्ण सम्प्राप्ति बनाकर रोग उत्पन्न करने में तो असमर्थ है पर लक्षण उत्पन्न कर रोगी को विचलित कर के रखते हैं।*
*प्राधानिक हेतु -
जो उग्र स्वभाव होने से तुरंत ही दोषो को प्रकुपित कर देते हैं जैसे विष, अति मादक द्रव्य आदि ।*
*उभय हेतु -
ये हेतु दोष और व्याधि दोनो को उत्पन्न करने की सामर्थ्य रखते हैं जैसे अति उष्ण-तीक्ष्ण-अम्ल विदाही अन्न*
*विभिन्न वायरस, कृमि या जीवाणु*
*हेतु सर्वप्रथम दोषों का समावस्था में नही रहने देगा उन्हे प्रकुपित करेगा , शरीर के दूष्योंको विकृत करेगा और खवैगुण्य लायेगा और स्रोतस में अति प्रवृत्ति, संग, विमार्गगमन और ग्रन्थि निर्माण करेगा।*
*ये सब कैसे होगा ?
शास्त्रों में तो क्रमबद्ध और विस्तार से नही लिखा, जहां रोगों की सम्प्राप्ति भी लिखी वहां तो ये सब इस प्रकार से नही लिखा गया जबकि हो यही रहा है जो हम यहां कह रहे है तो इस विषय को अच्छी तरह स्पष्ट कर के चलेंगे स्व कारणों दोष प्रकुपित होकर कैसे रोग के लिंग/लक्षण या रोग उत्पन्न करेंगे ? खवैगुण्य स्रोतस में कैसे उत्पन्न होगा और उसे कौन सा हेतु करेगा और हेतु से जो दोष प्रकुपित हुआ है वो किसी विशेष दूष्य रक्त, मांस या मेदादि को ही क्यों target करेगा या दूषित करेगा ? क्योंकि आद्य धातु रस है और उसका स्रोतस रसवाही स्रोतस है तो प्रकुपित दोष सब से पहले रसवाही स्रोतस के सम्पर्क में आ रहे हैं जिस से उन्हे खवैगुण्य तो इसी स्रोतस में करना चाहिये पर ये यहां ना हो कर किसी अन्य स्रोतस में हुआ और व्याधि भी अन्य स्रोतस में हुई, इसके पीछे क्या कारण है ?*
*ये सब विषय clinical है इसलिये हम विषय को स्पष्ट करने के लिये एक रोग का शास्त्र से उदाहरण ले कर चलेंगे जैसे प्रमुख व्याधि प्रमेह को ही ले लेते है।*
*'आस्यासुखं स्वप्नसुखं दधीनि ग्राम्यौदकानूपरसाः पयांसि,
नवान्नपानं गुडवैकृतं च प्रमेहहेतुः कफकृच्च सर्वम्' च चि 6/4
इस पर चक्रपाणि का मत है
'आस्यासुखमिति सुखजनिका आस्या न दुःखजनिका, एवं स्वप्नसुखं च ज्ञेयं; शय्यादिदोषेण दुःखस्वप्नं दुःखास्या च न प्रमेहहेतु:,गुडवैकृतं गुडकृता भक्ष्याः।'*
*आस्या सुख सुखद आसन अर्थात जैसे गद्दे आजकल चल रहे हैं और जिन पर घंटो बैठे रहना सुखद लगने से शरीर के कुछ भाग निष्क्रियवत रहते है, स्वप्न सुख - इसी प्रकार के नर्म-मुलायम गद्दों पर शयन करना, अगर आसन और शय्या सुखद नहीं होगे तो शरीर चलायमान रहेगा और शारीरिक गतिविधियां बनी रहेगी जिस से प्रमेह की संभावना कम रहेगी।दही का अधिक सेवन, ग्राम्य, जल से संबधित तथा जल के समीप रहने वाले पशु पक्षियों के मांस रसों का अधिक सेवन, दुग्ध का अति सेवन, इसमें दुग्ध से बने पदार्थ भी ग्राह्य हैं, नये अन्न का अधिक सेवन, गुड़ से बनी विभिन्न कल्पनायें जैसे मिश्री, राब, खांड, चीनी आदि आजकल विभिन्न शर्बत, packed fruit juices, सीरप आदि भी इसमें ले लीजिये और मिठाईयां भी तथा इनके अतिरिक्त जो भी आहार कफ कारक हो, विभिन्न हो सकते हैं जैसे गुरू, मधुर, स्निग्ध, इक्षुरस, द्रव पदार्थ, घृत में बने पकवान, हेमन्त, वसन्त और शिशिर ऋतु, भोजन करने के तुरंत पश्चात, प्रात: काल का समय, अम्ल, लवण, शीत, अव्यायाम, आलस्य, गौधूम, उड़द, शीत, अभिष्यन्दि, पिच्छिल, कृशरा, मधुर फल, अध्यशन, mango या banana shake या केला, खर्जूर, अतिसंतर्पण, अत्यधिक हर्ष उल्लास में आ जाना, पंचकर्म में विरेचन आदि का अयोग हो जाये तब भी, मंदाग्नि और अजीर्ण होने पर भी कफ वृद्धि संभव है। इसके अतिरिक्त रात्रि में अति जल का सेवन - क्योंकि रात्रि में रहीं जाना तो है नही या वैसे भी अति जल का सेवन, हमने देखा है कई लोग प्रात: उठते ही दो-तीन लिटर तक पानी पी जाते हैं जो कफ वृद्धि का कारण बनता है। covid 19 काल में लोग दिन भर घर में बैठे है, tv देख रहे है और शारीरिक गतिविधियां अल्प रह गई है जो सब कफ प्रकोपक, कफ दोष वर्धक, कफ दोष को दूषित करने वाली या कफ दोष का संचय या चय पूर्वक प्रकोप करने वाली है।*
[11/24/2020, 3:16 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*जो हम ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर पढ़ते हैं कि स्व प्रकुपित कारणों से दोष दूषित होते हैं तो कफ जो दूषित होगा उसके कुपित होने के कारण हमने ये उपर लिख दिये हैं कि इनसे होगा। कुछ हेतु हमने लिखे नही जैसे आजकल लोग बीयर पीते है, अति मद्यपान के रूप में जल का अधिक सेवन कर लेते हैं ये भी कफ वृद्धि का कारण है तो चरक में हमें प्रमेह में प्रमुख दोष मिला कफ 'प्रमेहहेतु: कफकृच्च सर्वम् ' च चि 6/4 जैसा हम उपर लिख कर आये है।*
*प्रमेह के हेतु पूर्ण नही हुये हैं क्योंकि 'जातः प्रमेही मधुमेहिनो वा न साध्य उक्तः स हि बीजदोषात्,*
*ये चापि केचित् कुलजा विकारा भवन्ति तांश्च प्रवदन्त्यसाध्यान्
च चि 6/57
में कुछ अतिरिक्त हेतु भी मिलते हैं जिसकी चक्रपाणि टीका इस प्रकार है
'मेहानामसाध्यताप्रकारान्तरमाह- जात इत्यादि,प्रमेही यः प्रमेहिणो जातः सोऽप्यसाध्यो भवति,अत्रापि हेतुमाह- स हि बीजदोषादिति; *
*प्रमेहारम्भकदोषदुष्टबीजजातप्रमेहित्वात् ।*
*अर्थात मधुमेह से पीड़ित माता पिता से जो भी संतान उत्पन्न हुई है यदि उसे प्रमेह रोग हो जाये तो वह बीज दोष के कारण असाध्य हो जायेगा या वंश परंपरा में प्रमेह रोग चला आ रहा है तो वो भी असाध्य होगा।*
*इस पूरे प्रकरण में बीज दोष और कुलज विकार हमें दो और अतिरिक्त हेतु मिले तो हम सभी हेतुओं को मिलाकर चलें तो ये हेतु इस प्रकार बने...*
*1- आहार जन्य - दूध, दही, नया अन्न, गुड़ और अनेक कफ वर्धक हेतु जो हमने लिखे।
*2- विहार जन्य - सुखप्रद आसनों या शय्या पर आस्या सुख या स्वप्न सुख, अति निद्रा, आलस्यादि।*
*3- मानस भाव जन्य - अति हर्ष- उल्लास*
*4- बीज दोष जन्य - जिसे हम सहज प्रमेह कह सकते हैं।*
*5- कुल में रहने वाली प्रवृत्ति - कुलज प्रमेह*
[11/24/2020, 9:22 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
*नमो नमः आचार्य श्री* 🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🌹🌹
*आपके अनमोल एवं सरलता पूर्वक विषय को ग्रहण करने जैसा मार्गदर्शन को धन्यवाद।*
*मातृज एवं पितृज भावो को देखकर काफी समय से एक दूविधा मन में हैं। मांस धातु को मातृज बताया गया हैं। मातृज होने के कारण मांस धातु में सदा मृदुता/कोमलता रहनी चाहीये। नियमित या अत्याधिक व्यायाम से मांस धातु मृदु नही रह पाता। अब जो धातु मृदु नही रहा ऊसे पौरुषीय माना जाता हैं। क्या मांस धातु की इस पौरुषीय स्थिती को पितृज भाव से जोडा जा सकता हैं? यदी ऐसा हैं या ऐसा नही हैं तो मांस धातु को सर्वथा मातृज भाव में क्यूँ मानना चाहीये? कृपया मार्गदर्शन करें।* 🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🌹🌹
[11/24/2020, 9:53 PM] वैद्य मेघराज पराडकर गोवा:
मांस में व्यायाम से दृढ़ता आती है, परंतु वह अस्थि जैसा कठोर नही बनता । मातृज अवयवोंका पंचभौतिक संघठन पृथ्वी एवं आप प्रधान है । पितृज भावोंका पृथ्वी, तेज एवं वायु प्रधान । अतः मांस को सर्वथा मातृजही मनना युक्तियुक्त प्रतीत होता है, ऐसा मुझे लगता है ।
[11/24/2020, 10:21 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
धन्यवाद आचार्य।🙏🏼🙏🏼🌹🌹सभी आचार्यगण सें इसपर और भी मार्गदर्शन चाहुंगा। यदी स्नायु कंडरा पितृज भाव से हैं तो मातृज भाव के मांस धातु से पितृज भावो की उपधातु की निर्मिती क्यु होती हैं ? यदी स्त्री अधिक व्यायाम करें और मांस धातु को अधिकदृढ बनाये तो स्वयं का प्रजा उत्पादन का कार्य कैसे खो देती हैं ? यंहा पर हॉर्मोन के बारें में विचार किये बिना आयुर्वेद के दृष्टिकोण से विश्लेषण कैसे करें ?
[11/24/2020, 10:32 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*व्यायाम से मांस को दृढ़ तो कर लिया पर वो कितने वर्ष दृढ़ रहेगा ? व्यायाम का त्याग करते ही या वृद्धावस्था में वो पुन: अत्यन्त मृदु हो जायेगा ।*
[11/24/2020, 10:52 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*सु शा 3/43 मातृज भाव -
'मांसशोणितमेदोमज्जहृन्नाभियकृत्प्लीहान्त्रगुदप्रभृतीनि मृदूनि मातृजानि' -
इसे मृदु के अतिरिक्त अन्य भाव से कैसे समझेंगे वो आगे और स्पष्ट कर देंगे पवन जी।*
[11/24/2020, 10:55 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
*आचार्यश्री शुक्र धातु की स्थिरता आयु में सर्व काल स्थिर हैं कैसे जाने।* 🙏🏼🙏🏼
[11/24/2020, 11:02 PM] Vaidya Ashok Rathod Oman:
*शीर्यते तत् शरीरम में धातूंओ स्थिर अवस्था वय के अनुसार सदा बनी रेहने के लिये हम(जिने ज्ञान हैं वे) सदा प्रयत्न करते हैं किंतु वह शरीर स्थिर अवस्था तक कितनी बना रहेगा। यदी स्वयं स्थिर गुण स्थिर नही रह पाता हैं तो स्थिर गुण को स्थिर क्यु मानना चाहीये।* 🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🌹🌹
[11/24/2020, 11:08 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*फिर तो जीवित रहने का भी क्या लाभ और चिकित्सा करने का भी क्या लाभ ? जब ये शरीर नष्ट ही हो जाना है । हमने इस गुण विज्ञान को स्पष्ट करने के लिये ही पिछले दिनो प्रयास किया था पर उसे बोरिंग विषय मान कर लोगों ने उत्साह नही दिखाया तो हमने उसे बंद कर दिया।*
*गुणों को पंचभौतिकता भौतिक संगठन और कार्मुकता के साथ देखेंगे तो यह प्रश्न ही नहीं उठेंगे।*
🙏🙏🙏🙏
[11/24/2020, 11:18 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*आचार्य अशोक जी, अनेक विंषय अगर graduation में ही स्पष्ट हो जायें तो ये समस्याऐं ना आये, अभी तो तो आगे आगे हम जिस प्रकार आयुर्वेद सिद्धान्तों को ले कर चलेंगे वो बहुत गूढ़ विषय है जिसमें चरक के सूत्र स्थान के बाद आपको सीधा चिकित्सा स्थान पर जाना पड़ेगा। कोई भी चर्चा तभी फलीभूत हो सकती है अगर सभी लोग स्वयं भी शास्त्र अध्ययन करते रहें और आयुर्वेद के आरंभिक ज्ञान को निरंतर पढ़ते रहें।*
[11/25/2020, 12:15 PM] Vd.Divyesh Desai Surat:
आदरणीय गुरुवर्य सुभाष सर,
जैसे बलवान दोष निर्बल दोष की compare में अपना प्रभाव दिखाकर अपने लक्षणों को उत्पन्न करता है, वैसे मातृज, पितृज, सात्म्यज आदि भावो में जो डोमिनेंट है वो अपना प्रभाव से रोगोत्पत्ति करेगा?
2) अगर बीज में खराबी है या genes या क्रोमोजोम में भी डिफेक्ट है फिर भी हम रोगोत्पादक हेतु का सेवन नही करेंगे तो क्या रोगों से बच सकते है?
3) Hereditary or Genetic disorders में पंचकर्म या आयुर्वेद से बीज की दृष्टि को दूर कर सकते है?
आपने सर जो details दिया है इससे तो लगता है कि जो अच्छा फ्यूचर या ताकत आयुर्वेद के सघन अध्ययन या रिसर्च में है वो अन्य pathy में नही है🙏🏻🙏🏻🙏🏻आपके प्रैक्टिकल ,एविडेंस बेस प्रत्युत्तर का बेसब्री से इंतजार रहेगा...साथ में आयुर्वेद का ओर गहराई से अभ्यास करने का उत्साह रहेगा।।🙏🏻🙏🏻👏🏻👏🏻
[11/25/2020, 12:57 PM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar:
🙏🙏🙏
*जी गुरुजी*
*अभी तक जो हमने समझा वो ये के मातृज या पितृज भावों को जान कर उनके गुणों को जानना जरूरी है*
और
*जब उन गुणों का माता या पिता के द्वारा अत्यधिक मात्रा में प्रयोग होता है तो तो वे गुण उत्तरोत्तर धातुओं में प्रवेशित हो कर शुक्र धातु को प्रभिवत करते हुई संतान के बीजभाग पर असर करते हए भावी व्याधि के होने की कारणता या संभावना को लक्षित करते हैं।*
मातृज भाव गुण,,, मृदु
पितृज भाव गुण,,, कठिन व स्थिर
*क्या ये उचित है गुरु जी?*
[11/25/2020, 1:21 PM] Dr. Suneet Aurora, Punjab:
🌹🙏🏼🌹
गुरुदेव ने मृदु मातृज भाव व कठिन पितृज भाव के साथ हेतु को बहुत अच्छे सरल रूप में समझा दिया।
गुरुओं से ही प्रेरित होकर पुनः शास्त्र देखे तो एक विचार आया-
कि मातृज/ पितृज भाव मात्र माता/ पिता से उत्पन्न ही नहीं, अपितु सृष्टि के शक्ति/शिव; yang/yin; feminine/ masculine; estrogens/ androgens की 'ऊर्जा' के भी manifestation हैं।।
और ये भी कि मानस भाव जो abstract ऊर्जा रूप ही है, वे भी एक मुख्य हेतु रूप में शरीर दोष-दूष्य-स्रोत-खवैगुण्य उत्पन्न करेंगे।।
🙏🏼
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
Presented by
Vaidyaraj Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990
+91 9617617746
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990
+91 9617617746
Edited by
Dr. Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
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