[11/28/2020, 11:57 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*क्लिनिकल आयुर्वेद - भाग 3*
*हमने पिछले दिनों 180 से अधिक रोगियों का data select कर जिनमें DM type 1, type 2, एक-किटिभ कुष्ठ, ग्रहणी दोष, राजयक्ष्मा, hepatitis B, CKD, CLD आदि शारीरिक के साथ मानसिक रोगों से भी जो ग्रस्त है एक format बना कर फोन और मैसेज भेज कर के स्वयं और अपने staff की सहायता से तीन तीन पीढ़ियों तक संक्षिप्त history ले कर रोग के हेतु को जानने का गंभीर प्रयास किया, अधिकतर लोगों के पास पहले ग्रामीण क्षेत्रों का जीवन था, धन का अभाव, investigations की सुविधाओं अभाव, कुछ लोगों का जांच ना कराने के पीछे हठी स्वभाव और विवश्ता आदि अनेक कारण मिले।वस्तुत: जिस प्रकार सैंकड़ों वर्ष देश गुलाम रहा तो आयुर्वेद में वह प्रगति और अनुसंधान संभव ही नही था और जो आयुर्वेद हमें संरक्षित मिल सका उसके लिये हमें अपने पूर्व आचार्यों का आभारी होना चाहिये।*
*गर्भ के घटक द्रव्य 6 हैं अर्थात 6 भावों से गर्भ की उत्पत्ति होती है, इसमें चार भावों के समूह से एक बीज बनता है और यह चार भाग है मातृज, पितृज, आत्मज और सत्वज शेष दो भाग इस बीज का निरंतर पोषण करते हैं वो हैं रसज और सात्म्यज भाव।इन भावों के तत्व इस प्रकार हैं और जो संदर्भ हम चरक संहिता से दे कर चल रहे हैं वे इन भावों की सत्ता को सिद्ध करने का तर्क सहित प्रमाण है जिसका अध्ययन आप ग्रन्थ में और विस्तार से चक्रपाणि टीका में भी कर सकते है और ग्रन्थों में जो तीन प्रकार से व्याधियां वर्णित हैं जैसे सहज रोग जो जन्म काल से ही है, कुलज व्याधियां जो परंपरागत कुल या वंश में चली आ रही हैं और आदिबलप्रवृत्त रोग ये सब इन्ही से संबंधित है ...*
*मातृज भाव - त्वक्, लोहित, मांस, मेद, नाभि, ह्रदय, क्लोम, यकृत, प्लीहा, वृक्क, वस्ति, पुरीषाधान, आमाश्य, पक्वाश्य, उत्तरगुद, अधरगुद, क्षुद्रान्त्र, स्थूलान्त्र, वपा और वपावहन ये कुल 20
('मातृजश्चायं गर्भः न हि मातुर्विना गर्भोत्पत्तिः स्यात्, न च जन्म जरायुजानाम् । यानि खल्वस्य गर्भस्य मातृजानि, यानि चास्य मातृतः सम्भवतः सम्भवन्ति' च शा 3/6)*
*पितृज भाव - केश,श्मश्रु, नख,लोम,दंत,अस्थि,सिरा,स्नायु,धमनी और शुक्र कुल 10
(पितृजश्चायं गर्भः नहि पितुरृते गर्भोत्पत्तिः स्यात्, न च जन्म जरायुजानाम्' च शा 3/7)*
*आत्मज भाव - भिन्न भिन्न योनियों में जन्म, आयु, आत्मज्ञान, मन, इन्द्रियां, प्राण, अपान, प्रेरणा, धारण, आकृति विशेष, विशेष स्वर जैसे लता मंगेश्कर को मधुर स्वर के कारण विशेष महत्व दिया गया, विंशेष वर्ण किसी का काला या गोरा होना, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, चेतना, धृति, बुद्धि, स्मृति, अहंकार और प्रयत्न कुल 22
('आत्मजश्चायं गर्भःगर्भात्मा ह्यन्तरात्मा यः, तं जीव इत्याचक्षते शाश्वतमरुजमजरममरमक्षयमभेद्यमच्छेद्यमलोड्यं विश्वरूपं विश्वकर्माणमव्यक्तमनादिमनिधनमक्षरमपि' च शा 3/8)*
*सात्म्यज - आरोग्य, अनालस्य, अलोलुपता, इन्द्रिय प्रसाद, स्वर संपत्, वर्ण संपत्, बीजसंपत् और प्रहर्षाधिक्य कुल 8
('सात्म्यजश्चायं गर्भः, नह्यसात्म्यसेवित्वमन्तरेण स्त्रीपुरुषयोर्वन्ध्यत्व
मस्ति,गर्भेषु वाऽप्यनिष्टो भावः' च शा 3/11)*
*गर्भ की वृद्धि और पुष्टि करने वाले भाव -*
*रसज - शरीराभिनिवृत्ति, शरीराभिवृद्धि, प्राणानुबंध, तृप्ति, पुष्टि और उत्साह कुल 6
('रसजश्चायं गर्भः न हि रसादृते मातुः प्राणयात्राऽपि स्यात् किं पुनर्गर्भजन्म्' चशा 3/12)*
*सत्वज - भक्ति, शील, शौच, द्वेष, स्मृति, मोह, त्याग, मात्सर्य, शौर्य, भय, क्रोध, तन्द्रा, उत्साह, तैक्षण्य, मार्दव, गाम्भीर्य, अनवस्थितत्व कुल 17 और 18 वां अन्य भाव जो चिकित्सक मन की प्रकृति के अनुसार करे।('अस्ति खलु सत्त्वमौपपादुकं; य१ज्जीवं जीवं स्पृशतीति जीवस्पक्; जीवस्पृक्शरीरं शुक्रशोणितात्मकगर्भशरीरम्' च शा 3/13)*
*आदिबल प्रवृत्त रोग कहां से उत्पन्न होंगे माता के शोणित या पिता के शुक्र से, अति स्थूल अति निंदतीय पुरूषों में 'तदतिस्थौल्यमतिसम्पूरणाद्गुरुमधुरशीतस्निग्धोपयोगादव्यायामादव्यवायाद्दिवास्वप्नाद्धर्षनित्यत्वाद- चिन्तनाद्बीजस्वभावाच्चोपजायते'
च सू 21/4
अति स्थूलता के जो हेतु बताये गये हैं उसमें गुरू मधुर स्निग्धादि पदार्थों के साथ 'बीज स्वभाव' भी एक कारण है। बीज स्वभाव या सहज व्याधियों को साधारणत: असाध्य ही माना गया है अगर हेतु बीज स्वभाव होगा तब।गर्भ में ही शिशु की प्रकृति माता-पिता के अनुसार निर्धारित होने लगती है जो दोषानुसार बनती है अगर दोनों में से एक या दोनों मेद प्रधान होंगे तो इसका अभिप्राय यह है कि उनकी मेद धात्वाग्नि मंद है जिसके कारण एकांग या सर्वांग में मेद का संचय संभव है, व्यवहार में ऐसा देखने में बहुत आता है कि कुछ बच्चे जन्म से ही स्थूल रहते हैं और कुछ अति भोजन के बाद भी under wt. ही बने रहते है जिसमें बीज पर पित्त अर्थात अग्नि का प्रभाव है अर्थात बीज अकेला नही उसका स्वरूप विस्तृत है।इस विस्तृत स्वरूप की चर्चा चरक में विस्तार से की गई है।*
*'एवमयं नानाविधानामेषां गर्भकराणां भावानां समुदायादभिनिर्वर्तते गर्भः; यथा- कूटागारं नानाद्रव्यसमुदायात्, यथा वा- रथो नानारथाङ्गसमुदायात्; तस्मादेतदवोचाम- मातृजश्चायं गर्भः, पितृजश्च, आत्मजश्च, सात्म्यजश्च, रसजश्च, अस्ति च सत्त्वमौपपादुकमिति...' च शा 3/14
गर्भ के उत्पादक कारणों या भावों का एक समुदाय है जिनसे यह उत्पन्न होता है जैसे रथ के अनेक अव्यवों को व्यवस्थित रूप से जोड़ने पर रथ का निर्माण होता है। रोगी देखते समय जब वह हमारे सामने बैठा होता है तो उसके अनेक विकारों के हेतु हमें नही मिलते क्योंकि जब वह गर्भ में था या उस समय उसके निर्माण में अनेक घटक ऐसे थे जो प्रधान बने तथा शोणित और शुक्र पर प्रभावी रहे।*
[11/28/2020, 11:57 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*शोणित (मातृज) शुक्र (पितृज), आत्मज और सत्वज इन चारों से मिल कर यह बीज बना है, सात्म्यज और सत्वज भाव इस बीज का पोषण करते हैं इसको
'यच्चोक्तं- यदि च मनुष्यो मनुष्यप्रभवः, कस्मान्न जडादिभ्यो जाताः पितृसदृशरूपा भवन्तीति; तत्रोच्यते- यस्य यस्य ह्यङ्गावयवस्य बीजे बीज भाग उपतप्तो भवति, तस्य तस्याङ्गावयवस्य विकृतिरुपजायते, नोपजायते चानुपतापात्; तस्मादुभयोपपत्तिरप्यत्र । सर्वस्य चात्मजानीन्द्रियाणि, तेषां भावाभावहेतुर्दैवं; तस्मान्नैकान्ततो जडादिभ्यो जाताः पितृसदृशरूपा भवन्ति !!
च शा 3/17 में बहुत अच्छी तरह स्पष्ट किया गया है कि बीज का जो अंश दूषित होगा उसी के अनुसार दुष्टि हो भी सकती है और नही भी क्योंकि इन्द्रियां जैसा हमने ऊपर लिखा है आत्मज भाव में आती हैं जिसमें पूर्व जन्म में किये गये शुभ या अशुभ कर्म, दैव कृपा आदि भाव भी सम्मिलित है।*
*यदि गहनता में जायें तो बीज धर्मी तो प्रकृति है पुरूष नही जिसे सुश्रुत में बहुत उत्तम प्रकार से स्पष्ट करते हुये प्रकृति और पुरूष में क्या भेद है यह बताया गया है,
'एका तु प्रकृतिरचेतना त्रिगुणा बीजधर्मिणी प्रसवधर्मिणी चात्, पुरूष बहवस्तु पुरूषाश्चेतनावन्तोऽगुणा अबाजधर्मणोऽप्रसवधर्मणो मध्यस्थधर्माणश्चेति।'
सु शा 1/8
प्रकृति एक, अचेतन, त्रिगुणात्मक, बीज धर्मी, प्रसवधर्मी और अमध्यस्थ धर्मी है। बीज से ही वृक्ष की उत्पत्ति होगी, वृक्षों में फूल और फल आयेंगें इसी प्रकार परिवार में संतानों जन्म प्रकृति ही देगी, इस प्रकृति को सुख- दुख सदैव विचलित करते रहेंगे यह इसका धर्म ही है जिसे यह भोगती है।बंधन,मोक्ष, सुख,दुख आदि विकार प्रकृति के हैं और पुरूष को निर्गुण माना गया है पर पुरूष को मध्यस्थ धर्मी मानने से उसे अनेक लाभ इस प्रकार मिल जाते हैं जैसे चुंबक के सान्निध्य में आनेसे लोहे में चुंबक का गुण आ जाता है इसी प्रकार प्रकृति जो प्रसवधर्मी, बीजधर्मी और त्रिगुणात्मक है उसके संपर्क में आने से पुरूष में कर्ता और भोक्ता का भाव आ जाता है और मध्यस्थधर्मी होने से वह अधिकतर श्रेय ले जाता है।*
*शास्त्र का यह सूत्र कभी भी और कहीं भी प्रयोग कर के देखे, क्यों सर्वत्र परिवार और समाज में स्त्री पुरूष में द्वन्द्व चल रहा है, परिवार टूट रहे हैं और एकल परिवार की प्रवृत्ति बढ़ने का कारण आपको ऊपर लिखे वचनों स्पष्ट हो जायेगा क्योंकि प्रकृति को भी पूर्ण सम्मान चाहिये जिसकी वह पात्र है।*
[11/28/2020, 11:58 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*यह सम्प्राप्ति विज्ञान चल रहा है और चिकित्सा सूत्र में प्रथम पाद ही निदान परिवर्जन है अत: जब तक रोग का हेतु ही नही मिलेगा तो चिकित्सा भी निरर्थक वर्षों चलती रहती है अगर इस बीज शोणित (मातृज) शुक्र (पितृज), आत्मज और सत्वज इन चारों बीज भागों को अच्छी तरह जान लिया जाये जिन से मिल कर यह बीज बना है, साथ ही इनके पोषण करने वाले भाव सात्म्यज भाव और सत्वज भाव तो हमें अनेक प्रश्नों के उत्तर आधुनिक समय में स्वत: मिलते जाते हैं।जब शुक्र और शोणित मिलते हैं तो माता पिता की प्रकृतियों में जिस दोष की प्रबलता होगी उसी दोष के अनुसार बालक की प्रकृति का निर्धारण हो जाता हैं और यह प्रबल दोष अनेक सूक्ष्म भावों को जो बीज रूप में ही अभी हैं उनको उभरने नही देता पर इसीलिये अनेक बार लोग विरूद्ध और अहित आहार, अनियमित दिनचर्या में जीते है, देश और काल के नियमों का पालन नही करते तो भी एक अवस्था तक स्वस्थ रहते हैं तो इसमें एक बढ़ा कारण शुक्र शोणित के मिलने के समय का वो प्रबल दोष एक होता है जो अपने विरूद्ध गुण वाले हेतुओं को विकसित नही होने देता।*
*DM type 1 के तीन परिवारों में पिता और माता दोनो ही परिवार में 50 वर्ष से कम अवस्था के हैं जिन्हे प्रमेह रोग नही है पर एक समानता है एक अवस्था के बाद माता का मेदस्वी होना और पिता का विवाह से पूर्व भी अति संघर्षमय जीवन जिसमें चिन्ता,भय और असुरक्षा तथा अनियमित दिनचर्या, कुल वृत्त में भी एक समानता है कि पहले अनेक लोग investigations कराने से बचते थे क्योंकि संसाधन अल्प थे पर juvenile diabetes के बच्चों के माता पिता की history में प्रधान दोष वात तथा कफ और धातु रस और मेद ही मिली।*
*रोग की उत्पत्ति कैसी हुई, हेतु क्या था, किस प्रकार से दोष कुपित हुये ,धातुओं से मिले, कब मिले, कहां मिले अर्थात स्थान संश्रय हुआ आदि आदि पूरी प्रक्रिया को सम्प्राप्ति कहते है।
च नि 1/11 में चक्रपाणि कहते हैं 'व्याधिजन्ममात्रमन्त्यकारणव्यापारजन्यं सम्प्राप्तिमाहुः' अर्थात व्याधि की उत्पत्ति में दोषों का विविध व्यापार क्या रहा और उसके परिणाम स्वरूप किस प्रकार व्याधि का जन्म हुआ ? केवल व्याधि का जन्म या उत्पत्ति होना या उसका 'नामकरण' होना ही पर्याप्त नही है।अगर आपके पास श्वास रोगी diagnosis किया हुआ केस आये तो यह चिकित्सा के लिये पर्याप्त नही हैं उस रोगी के हेतु से ले कर दोषों की दुष्टि, पूर्वरूप, लक्षण आदि का ज्ञान होना यह दोषों का व्यापार कहलाता है और इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को सम्प्राप्ति कहते हैं।
'सम्प्राप्तिर्जातिरागतिरित्यनर्थान्तरं व्याधेः'
च नि 1/11 में जाति, आगति इसके पर्याय बताये गये है और हमें इनकी क्लिष्ट शास्त्र चर्चा में ना जा कर clinical पक्ष पर ही ध्यान केन्द्रित करना है।*
[11/28/2020, 11:58 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*काय सम्प्रदाय में अनेक बार पूछा गया है कि अवस्था के आरंभिक काल से type 1 DM को कैसे ग्रहण करें ? एक तो प्रमेह की तुलना DM से करने का स्वभाव त्यागना होगा पर जो सिद्धान्त आदिबल प्रवृत्त रोगों में लागू होते है उन्हे समझना होगा। जैसे दोष दूष्य की सम्मूर्छना से व्याधि होती है वैसे ही शुक्र-शोणित सम्मूर्छना से गर्भ का निर्माण, आत्म तत्व का संयोग इसकी वृद्धि और पुष्टि का कारण बनता है पर यदि यह शुक्र-शोणित दोषों से दूषित हैं तो वह दोष दुष्टि का कारण बनेगा तथा दोष अधिकता के साथ धातुओं में उत्तरोत्तर प्रवेश कर शुक्र या शोणित धातु तक पहुंच जायेगा तो वह रोग का वहन करेगा और जिस अव्यव में है संतान के उस अव्यव को भी दूषित करेगा।हमारे यहां अनेक रोगी ऐसे भी आये हैं जहां hepatitis B virus माता से पुत्री में आया है और जहां माता पिता दोनों को था वहां संतान में आया, ऐसे रोगियों की भी हम investigation reports एकत्र कर रहे हैं।*
*आयुर्वेद में यह अनुसंधान का बहुत बढ़ा क्षेत्र है और इस पर बहुत कार्य करने की आवश्यकता है।*
*सारांश - *
*चिकित्सा और औषध उचित है, रोगी पथ्य का पालन भी कर रहा है और रोग ठीक नही हो रहा इस पर कहीं व्याधि का हेतु आदिबल तो नही है ? इसका ज्ञान history ले कर जानना आवश्यक है।*
*आदि बल व्याधियां अनेक हैं जिन्हे आप अपने ज्ञान से समझिये।*
*आदिबल व्याधियों में वायरस संक्रमण भी दोष को दूषित करेगा।*
*बीज को पूर्ण चार घटक का मान कर चलने से चिकित्सा सरल हो जाती है।*
*Genetic के आधुनिक सिद्धान्तों से आयुर्वेद के अनेक सिद्धान्तों का तालमेल नही होगा क्योंकि यहां आत्मजादि भाव भी हैं।*
*आधुनिक investgations के साधनों का प्रयोग आयुर्वेद में सहायक बनाकर हम इसमें बहुत अनुसंधान कर सकते है और अच्छी संभावनायें हैं।*
*प्रकृति और पुरूष सिद्धान्त समझकर और इसका ज्ञान दूसरों को दे कर हम परिवार,समाज और संसार को सुखी बना सकते है क्योंकि जो भाव बीज रूप में मिले हैं और स्वभाव प्राकृतिक रूप से मिला है उसमें परिवर्तन नही किया जा सकता पर गुणवत्ता वर्धन का प्रयास किया जा सकता है,अत: उसे उसी रूप में स्वीकृति देनी चाहिये।*
*to be continue...*
[11/29/2020, 6:45 AM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar:
प्रणाम गुरुदेव
बहुत ही गहरी विवेचना।
गुरु जी इन संदर्भो के अनुसार सुश्रुत ने जो प्रकृति का वर्णन किया है, क्या वो प्रकृति को स्त्री रूप में कह रहे हैं ??
ये प्रकृति यदि त्रिगुण है, व प्रसव धर्मी है पर साथ ही इसमे अचेतन कही गयी है ? इसको कैसे समझें
यहां 'अमध्यस्थधर्मी' है, इसका सही अर्थ क्या अपेक्षित है ?
[11/29/2020, 7:08 AM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar:
So cliNicaly we need to know what could be the four Matraj, Pitraj, Aatmaj and satvaja bhaav for a particular disease and that would give us the information about the prognosis of the disease which can be explained to the patient or his family prior to the start of the treatment.
Right sir...
Is their some other clinical utility of knowing these four bhaavs towards which you are indicating, which need to be taken care of Guru ji ?
[11/29/2020, 9:30 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad:
*सादर नमन आचार्य श्री,,*
*अंगप्रत्यंग निवृत्ति स्वभावादेव जायते*
*अंगप्रत्यंग निवृतौ ये भवन्ति गुणागुणा ।। )*
*ते ते गर्भस्य विज्ञेया धर्माधर्म निमित्तजा ।।* सु शा
स्वभाव एवं धर्म अधर्म में स्वभाव (षडभाव) एवं धर्म अधर्म (आचार रसायन) किसी भी संतन्ति के लिए महत्वपूर्ण घटक है ।।
*बहुत ही सरलता, गहनता एवं स्पष्टता से आपने भाव विषय पर समीक्षा की है कुछ भी शेष नही रहा ।*
बीज एवं भाव एक दूसरे के पूरक है आचार्य सुश्रुत ने *भूतैर्चतुर्भि सहित ससूक्ष्म मनोजवो देहमुपैती देहात*
में चार भावों का उल्लेख किया है ।
*दोषाभिघातै गर्भिन्यां यो यो भाग प्रपीडियते* ,
*सस भाग शिशुतस्यगर्भस्य प्रपीडियते*
आचार्य चरक ने भी बहुत ही गहन वर्णन किया है ।
बीज बीजभाग बीजभागावयव दुष्टि के परिपेक्ष्य में जिसको आपने षड भाव मे समाहित किया है ।
गर्भविकृति एवं आनुवांशिक रोगों का वर्णन आचार्य चरक ने बेहतरीन पक्ष रखे है । जो आधुनिक जेनेटिक्स को बताता है ।
आचार्य काश्यप ने स्पष्ट किया है इसे *जातौ जातौ खलु स्वभाव आकृति भेद ,,,,* आदि उल्लेख मिलता है ।
परन्तु अगर हमें गर्भ विकृति आनुवंशिकता को समझना है तो आचार्य चरक ही श्रेष्ठ है ।
बहुत ही बेहतरीन व्याख्या की है आचार्यश्री आपने , पुनःनमन आपको
[11/29/2020, 1:36 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*सादर नमन आचार्य गिरिराज जी, शारीर विज्ञान में आप सर्वश्रेष्ठ हैं और पिछले कुछ समय में शारीर विषय के अनेक समाधान मुझे आपसे ही प्राप्त हुये हैं विशेषकर मातृज और पितृज भाव का मूल आपसे ही समझ आया और इन विषयों को मैने अपनी चिकित्सा का एक अंश बना लिया ।*
*ह्रदय से आभारी हूं आपका ।*
[11/29/2020, 3:25 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*case presentation- पित्तज और रक्तज रोगों में भेद*
*कुछ रोग ऐसे हैं जो आप रोगी को अपनी चक्षु इन्द्रिय की सहायता से दूर से देखते ही निदान कर सकते हैं जैसे एक कुष्ठ-किटिभ कुष्ठ, मेदोरोग, वेपथु या कंपवातादि पर इसके अतिरिक्त चक्षु ग्राह्य ऐसे भी रोग है जिनमें सापेक्ष निदान आवश्यक है जैसे कि यह पित्तज विकार है या रक्तज रोग ? क्योंकि रक्त एवं पित्त समान गुणधर्मी है। कैसे पहचानेंगे इस भेद को और क्या criteria बनायेंगे आप ? *
*आज ही दवाखाने में ये रूग्णा पुन: आई थी मात्र धन्यवाद देने कि 15-11-20 को औषध बंद करने के बाद भी अब यह पूर्ण स्वस्थ है, आईये इसके रोग पर चर्चा करे ...*
[11/29/2020, 3:25 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*इसके मुख को देखिये, यह सामान्य नही है त्वचा अत्यन्त रक्त वर्ण की हो गई,इसमें दाह भी है इसमें हम पित्तज और रक्तज विकार का भेद कैसे करेंगे ?*
* 'स्वेदो रसे लसिका रूधिरमामाश्यश्च पित्तस्थानानि तत्राप्यामाश्यो विशेषेण पित्तस्थानम्'
च सू 20/8
स्वेद, रस, लसिका, रक्त और आमाश्य ये पित्त के स्थान है और विशेषकर आमाश्य है । इसी महारोगा अध्याय में नानात्मज पित्तज विकार 40 इस प्रकार बताये गये हैं' ओषश्च, प्लोषश्च, दाहश्च, दवथुश्च, धूमकश्च, अम्लकश्च, विदाहश्च, अन्तर्दाहश्च, अंसदाहश्च१, ऊष्माधिक्यं च, अतिस्वेदश्च, अङ्गगन्धश्च, अङ्गावद२रणं च, शोणितक्लेदश्च, मांसक्लेदश्च, त्वग्दाहश्च, मांसदाहश्च, त्वगवदरणं च, चर्मदलनं च, रक्तकोठश्च, रक्तविस्फोटश्च, रक्तपित्तं च, रक्तमण्डलानि च, हरितत्वं च, हारिद्रत्वं च, नीलिका च, कक्षा(क्ष्या)च, कामला च, तिक्तास्यता च, लोहितगन्धास्यता च, पूतिमुखता च, तृष्णाधिक्यं च, अतृप्तिश्च, आस्यविपाकश्च, गलपाकश्च, अक्षिपाकश्च, गुदपाकश्च, मेढ्रपाकश्च, जीवादानं च,तमःप्रवेशश्च, हरितहारिद्रनेत्रमूत्रवर्चस्त्वं च; इति चत्वारिंशत्पित्तविकाराः पित्तविकाराणामपरिसङ्ख्येयानामाविष्कृततमा व्याख्याताः '
च सू 20/14
के संदर्भ में यह विस्तार से स्पष्ट किया है कि जिन विकारों का वर्णन यहां नही है अगर पित्त का ना बदलने वाला स्वरूप और कर्म पूर्वरूप या आंशिक रूप में भी मिले तो चिकित्सक को दृढ़ता पूर्वक कहना चाहिये कि यह पित्तज विकार है, जिन पित्तज विकारों का नाम नही है उनका नामकरण हम स्वयं भी रख सकते हैं क्योंकि यह पित्तज विकार अपरिसंख्येय हैं।*
*पित्त और रक्त समान गुण धर्मी है यहां पित्त का स्थान आमाश्य है और रक्त का स्थान यकृत प्लीहा है।*
*अब रक्तज विकारों को देखे तो कितना सूक्ष्म अंतर है पित्तज रोग और रक्तज रोग में ? चरक सूत्र का 20 अध्याय हमें सूत्र स्थान के 24 वें अध्याय विघिशोणित से सीधा जोड़ देता है जहां स्पष्ट किया गया है कि इस रक्त जनित रोग में भी दो भेद हैं
'शोणितजा रोगा: ......विकारा: सर्वं एवतै विज्ञेया शोणिताश्रया:'
अर्थात शोणितज रोग और शोणिताश्रय रोग एक तो मिथ्या आहार विहार से रक्त दूषित हो कर रोग और दूसरे उस दूषित रक्त को आधार बनाकर होने वाले रोग। अष्टांग संग्रहकार ने सूत्र अध्याय 1 में इसका बहुत अच्छा उदाहरण दिया है 'घृतदाहवत्' अर्थात घी से जल गया। एक रोग तो किसी को घी पीने से आ रहे है और घृत से जला तो वो अवश्य ही अति उष्ण होगा तभी घृत ने जलाया।*
[11/29/2020, 3:25 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*पित्त विकारों की चिकित्सा मधुर-तिक्त-कषाय रस प्रधान द्रव्य, शीतवीर्य युक्त स्नेह, परिषेक जिसमें जलसिंचन, अवगाहन, धारागृह या जैसे आजकल swimming pool या बाथ टब जैसा कि आजकल प्रचलन है उसके अनुसार तथा अभ्यंग, उबटन , देश, काल और मात्रा के अनुसार पित्तशामक चिकित्सा एवं विरेचन बताया गया है अर्थात 'शीतोष्णस्निग्धरूक्षाद्यैरूपक्रान्ताश्च ये गदा, सम्यक् साध्या ना सिध्यन्ति रक्तजांस्तान्विभावयेत्।।'
च सू 24/17
जैसे ऊपर पित्तज विकारों में साध्य रोगों की चिकित्सा शीत वीर्य युक्त स्नेह, शीत वीर्य द्रव्य, परिषेक, अवगाहन गुण प्रधान से ना हो अर्थात सामान्य चिकित्सा से लाभ ना हो तो उन्हे रक्तज रोग समझें।*
*रूग्णा की history लेने पर कोई अन्य विकार नही मिला पर पिछले दो माह से उष्ण द्रव्यों का सेवन नियमित आहार का एक भाग बन गया था।जिसमें covid 19 के भय से आयुष फांट के भ्रम में उसे क्वाथ के रूप में अधिक मात्रा में सेवन, आहार में अधिक आर्द्रक, शुंठि, मेथी, तुलसी की चाय गुड़ मिला कर एवं vit.c के नाम पर अधिक अम्ल द्रव्यों का प्रयोग था, धीरे धीरे मुख पर जब किंचित दाह होने लगी तो एक प्रसिद्ध ब्रांड जो एक महिला द्वारा संचालित आयुर्वेद के नाम पर herbal cosmatics जो विभिन्न रसायनों से युक्त होते हैं कि beauty cream लगते ही त्वचा पूर्ण लालिमा युक्त दाह के साथ रक्त वर्ण की हो गई।*
*पित्त के उष्ण-तीक्ष्ण-अम्ल और कटु गुण को शान्त करने के लिये निम्न चिकित्सा दी गई...*
*कूष्मांड स्वरस - 50 ml प्रात: काल + हरिद्रा खंड लगभग 8 gm*
*सांयकाल केवल हरिद्रा खंड*
*रात्रि में 3 gm हरीतकी+ 2 gm कुटकी चूर्ण*
*आरोग्य वर्धिनी वटी 1-1 gm दो बार*
*सारिवा घन वटी 500 mg दो बार*
*दिन में दो बार खीरे का जूस 40 मिनट मुख पर लगाने के लिये।*
*रात्रि सोने से पूर्व नारियल तैल कर्पूर मिश्रित*
*अम्ल, कटु, उष्ण वीर्य द्रव्यों का परित्याग और उष्णोदक भी बंद कर के सामान्य जल के पान बताया, यव का सत्तू, टिंडा, लौकी, broccli, हरा धनिया, तोरई और कच्चे पपीते का शाक अधिक मात्रा में । Dry fruits सभी बंद कर दिये गये।*
*30-10-20 को इतना लाभ मिल चुका था और दाह भी समाप्त थी।*
[11/29/2020, 3:25 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*अब कुटकी-हरीतकी में हरीतकी बंद कर दी गई और रात्रि में कुटकी के साथ ही शेष औषधियां देते रहे ।
15-11-20 को रूग्णा का मुख इस प्रकार मिला और औषध बंद कर दी गई।*
[11/29/2020, 3:25 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
निष्कर्ष - साधारण पित्तशामक चिकित्सा से ही यह रोग चला गया जिस से शास्त्रोक्त बताये गये पित्तज और रक्तज रोगों में क्या भेद है यह स्पष्ट हो गया, अगर इस चिकित्सा से रूग्णा को लाभ नही मिलता तो हम इसे रक्तज रोग मान कर चलते।*
[11/29/2020, 5:02 PM] Dr.Ashwani Kumar Sood Ambala:
Very well explained principles of AYURVEDA treatment
[11/29/2020, 7:05 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad:
यह आपका उदार चरित्र, बड़प्पन है जो हमेशा आपके प्रति मान सम्मान बढ़ाता रहता है ।
सादर प्रणाम आचार्य श्री !
[11/29/2020, 7:13 PM] Vd.Divyesh Desai Surat:
संक्षेपतः क्रियायोगः निदानपरिवर्जन । लेकिन निदान ढूंढना ही अच्छे चिकित्सक का गुण है, जो आपके हर केस प्रेजेंटेशन में दिखाई देता है ,साथ मे आहार को औषधि रूपमें देने से अल्प व्यय में सटीक रोग ठीक होते ही है, प्रणाम गुरुदेव !
[11/29/2020, 7:27 PM] Dr. Pawan Madan Sir, Jalandhar:
गुरु जी आपकी अनुकंपा सदा बनी रहे
सामान्यतः
क्लीनिकली पित्तज व रक्तज रोगों के हेतु लगभग समान ही होंगे
लक्षणत:
रक्तज रोगों के लक्षण पित्तज रोग से कुछ अधिक होंगे
जो भी कोई पित्तज रोग सामान्य पित्तशामक चिकित्सा से ठीक न होते हों याने उस से उपश्य न मिले तो उसे रक्तज रोग समजहने है
व इस स्तिथि में ज्यादातर हमें पहले पित्तशामक चिकितसा करके के देखना होगा या अपने अनुभव से ज्ञान करना होगा
गुरु जी
ये तो शोणितज रोग हुये
जो शोणिताशरी रोग वे क्लीनिकॉली कैसे भिन्न होंगे?
क्या उनका चिकितस्य सूत्र कुछ भिन्न होगा?
[11/29/2020, 7:39 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*शुभ सन्ध्या पवन जी *
*'तत: शोणितजा रोगा:...मुखपाको...रक्तपित्त...विद्रधी'
च सू 24/11
अर्थात शोणितज रोग अर्थात जो दूषित रक्त के कारण होते हैं जो मिथ्या आहार विहार या काल से दूषित होता है *
*'विकारा: सर्वं एवैते विज्ञेया शोणिताश्रया:' च सू 24/16
शोणिताश्रया रोग जो दुष्ट रक्त को अपना आश्रय बना कर रूग्ण करते हैं और उचित चिकित्सा करने पर रोगी उस रोग से मुक्त हो जाता है।उच्च रक्तचाप अर्थात hypertension को आयुर्वेदानुसार समझने के लिये चरक का ये सूत्र बहुत महत्व पूर्ण है।*
*पित्तज और रक्तज विकारों में फिर चिकित्सा का सूत्र भी भिन्न हो जायेगा...*
*'विधिना शोणितं जातं शुद्धं भवति देहिनाम्,देशकालौकसात्म्यानां विधिर्य: सम्प्रकाशित:'
च सू 24/3
रक्त की शुद्धि देश, काल और ओक सात्म्य की विधि के अनुसार होती है। चार प्रकार के सात्म्य अष्टांग संग्रह नि 1 में स्पष्ट किये गये हैं ऋतुसात्म्य,ओक सात्म्य,देश सात्म्य और रोग सात्म्य, ये स्वभाव से उत्तरोत्तर बलवान होते हैं।*
[11/29/2020, 7:44 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*अनेक रोगों में तो निदान परिवर्जन, पथ्य और दिनचर्या ही पर्याप्त है, कई बार रोगी को औषध उसका मन रखने के लिये और 'less price means less value' सूत्र को ध्यान में रख कर दी जाती है *
[11/29/2020, 7:45 PM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar:
जी
अभिप्राय ये है के शोणित आश्रय रोग जो है उनमें हेतु
,,,,पित्त वृद्धि नही है
,,,,रोग जो के रक्त को मुख्य माध्यम बना कर manifest होते है जैसे के HTN , जैसा आपने बताया
,,,इस तरह इनका चिकित्सा सूत्र तो बिल्कुल अलग ही होगा
ऐसा सही है क्या गुरु जी ?
[11/29/2020, 7:52 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*बिल्कुल सही पवन जी, किसी HT रोगी की सम्प्राप्ति बनायें तो आपको अपने आप ही बहुत सी शंकाओं का समाधान मिलता जायेगा जैसे रक्त मोक्षण से भी रक्तचाप कम होता है, शीत जल में स्नान से रक्तचाप की वृद्धि होती है जबकि पित्त और रक्त के गुण समान है आदि आदि । ये सब कर के देखिये तो हर प्रश्न का उत्तर स्पष्ट होता जायेगा कि दूषित रक्त और रक्त को आश्रित कर रोग कैसे लक्षण करते है जबकि पित्त दोनो अवस्थाओं में दूषित या वृद्ध होगा।*
[11/29/2020, 7:54 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*आपको अच्छा लगता है तो उंगलियों की थकान दूर हो जाती है डॉ भद्रेश जी, बहुत लिखना पड़ता है और वो भी फोन पर 🌹🙏*
[11/29/2020, 8:02 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*शुभ सन्ध्या वैद्यश्रेष्ठ संजय जी, आपके मतलब का विषय DM type 1 को हम त्रिदोषज व्याधि इसलिये मानते हैं कि इसमें नाड़ी में sharpness मिलती है, वात के कारण नाड़ी में कठोरता या काठिन्य भाव भी मिलता है, अनेक उंगलियों में आधा प्रदेश वात, पूर्ण पित्त और पुन: आधा प्रदेश कफ का मिलता है, यह typical नाड़ी अनेक रोगियों में मिलने पर और आकृति देख कर मुंह से कई बार जब भी निकला कि insulin पर तो नही हो और 99% जवाब yes मिला। Sharpness के साथ silky नाड़ी स्पर्श में जैसे foam में silk चढ़ाकर उसका pillow बनाया हो ।*
[11/29/2020, 8:33 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*रोगीनुसार भी नाड़ी देखनी चाहिये, प्रत्यात्म लिंग सदृश मिलती है । ये रोग और ये नाड़ी 👍👍 समय लगता है सीखने में और एक ही रोग के अनेक रोगी देखने पर यह समझ आती है।*
[11/29/2020, 8:34 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*आयुर्वेद बातों का नही करने का विज्ञान है, इसे करो, इसे जियो ये हर पल कुछ नया देगा।
[11/29/2020, 8:34 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*हजारो वर्ष से ये चल रहा है क्योंकि सत्य ही चलेगा।*
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
Presented by
Vaidyaraj Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990
+91 9617617746
Edited by
Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
सर मतलब शोणीतज व्याधी अलग और शोणीताश्रीत व्याधी अलग होतै हे क्या??????,
ReplyDeleteDefinitely....
DeleteDhatugatatva is known phenomenon.