[6/19, 1:36 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
Case presentation-
रसोन हरीतकी वटी की lipid profile पर कार्मुकता सैद्धान्तिक एवं शास्त्रोक्त विवेचना के साथ- Part- 1
Vaidyaraja Subhash sharma, MD (kayachikitsa, jamnagar - 1985)
------------------------------
Patient -1
4-1-25
cholesterrol---tgl-----LDL
----364-----569----234
23-2-25
----162-----186------98
[6/19, 1:36 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
Patient -2
26-4-25
----215-----290-----120
15-5-25
----195----175------122
[6/19, 1:36 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*प्रो.अरूण राठी ने रसोन हरीतकी वटी का निर्माण अत्यन्त परिश्रम से किया है, दिसम्बर 2024 से अभी जून 2025 तक हम लगभग 31 kg वटी का प्रयोग सफलता पूर्वक परिणाम सहित विशेष अवस्थाओं में कर चुके हैं जिनमें lipid profile के तीन घटक total cholesterol, triglycerides और LDL प्रमुख हैं।*
*सैद्धान्तिक दृष्टिकोण की clinical application कैसे बनाई जा सकती है और उसका सफल परिणाम शास्त्रीय आधार पर किस प्रकार समझ कर प्राप्त करें यह आयुर्वेदीय वैज्ञानिक प्रक्रिया आप यहां देख कर सीख सकते हैं।*
*रोगी परीक्षा, सम्प्राप्ति निर्माण, चिकित्सा सूत्र आदि का ज्ञान हम पिछले अनेक case presentations में सिखा चुके हैं, अब शमन चिकित्सा के आगामी पड़ाव पर आगे बढ़ते हैं.. ।*
*लिपिड प्रोफाइल घटकों का आयुर्वेदीय चिकित्सा सिद्धान्तों से संबंध-*
*1- total cholesterol और triglycerides...*
*पंचमहाभूत- मुख्य रूप से जल और पृथ्वी महाभूत से संबंधित हैं।*
*जल- द्रवता, स्निग्धता (चिकनाहट), शीतलता और गुरुता (भारीपन) प्रदान करता है जो वसा के गुणों से सम भाव रखते हैं।*
*पृथ्वी- स्थिरता, भारीपन (गुरुता) और घनत्व (सान्द्रता) प्रदान करती है, जो वसा tissues के संचय से जुड़ी है।*
*इन दोनों महाभूतों की प्रधानता वसा के निर्माण और संचय में सहायक होती है।*
*दोष- प्रमुख रूप से कफ दोष से संबंधित हैं। कफ दोष में जल और पृथ्वी महाभूतों की प्रधानता होती है, और इसके गुण स्निग्ध (चिकना), गुरु (भारी), मृदु (नरम), सान्द्र (घना) और शीत (ठंडा) होते हैं, जो वसा के गुणों के समान हैं। जब कफ दोष बढ़ता है, तो वसा का अधिक निर्माण और संचय होता है।*
*वात दोष की विषमता (जैसे मंद अग्नि) भी इसमें भूमिका निभाती है।*
*पित्त दोष का क्षय (विशेषकर पाचक अग्नि की मंदता) भी वसा के उचित चयापचय (metabolism) को प्रभावित करती है।*
*धातु- सीधा संबंध मेद धातु (वसा tissues) से है। मेद धातु शरीर को स्निग्धता, ऊर्जा और स्थिरता प्रदान करती है। लिपिड की अधिकता मेद धातु की विकृति या अतिवृद्धि का संकेत है।*
*अतिरिक्त लिपिड रस धातु (प्लाज्मा) और रक्त धातु (रक्त) में भी जमा हो सकते हैं, जिससे इन धातुओं में भी आम (विषाक्त पदार्थ) का संचय होता है।*
*मल- सीधे तौर पर कोई विशिष्ट मल नहीं, लेकिन इनके अत्यधिक संचय से शरीर में आम (विषाक्त पदार्थ) का निर्माण होता है। यह आम वसा के चैनलों (मेदोवाही स्रोतस) में अवरोध पैदा कर सकता है। स्वेद को मेद धातु का मल माना जाता है और मेद के अनुचित चयापचय से स्वेद निष्कासन भी प्रभावित हो सकता है।*
*2- LDL-*
*पंचमहाभूत - जल और पृथ्वी महाभूत की प्रधानता। ये एलडीएल कणों को भारी, सान्द्र और अवरोधक बनाते हैं।*
*दोष- कफ दोष की अत्यधिक वृद्धि और अग्नि (विशेषकर धात्वाग्नि) की मंदता। एलडीएल के गुरु और स्निग्ध गुण कफ के समान होते हैं, जो स्रोतस में अवरोध उत्पन्न करते हैं।।*
*धातु- मेद धातु की विकृति और रक्त धातु में आम का संचय। यह रक्तवाही स्रोतस में संचित होकर उन्हें संकुचित कर देता है।*
*मल- शरीर में आम का संचय और उसके अनुचित निष्कासन से संबंधित।*
[6/19, 1:36 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*अनेक रोगी जो जैन धर्म के हैं, अनेक ब्राह्म्ण, अमृत चखे सिख, इस्कोन के अनुयायी एवं अनेक सम्प्रदायों के तथा सत्व प्रधान लोग रसोन (लहसुन) का प्रयोग नहीं करते तो इन्हें हम पहले ही बता देते हैं क्योंकि रसोन रज और तम गुण प्रधान है जिसका हमारे मानसिक भावों पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है।*
*रसोन (लहसुन) और हरीतकी (हरड़) का सत्व, रज, और तम गुणों पर प्रभाव आयुर्वेद के मानसिक स्वास्थ्य और दार्शनिक पक्षों से जुड़ा एक महत्वपूर्ण विषय है । ये गुण व्यक्ति के मन, विचारों और व्यवहार को प्रभावित करते हैं । अनेक रोग तो अब पहले मन और विचारों के रज और तम गुण से ही संबंधित है पर हम मूल को भूल कर शरीर को स्वस्थ करने की भूल करते है। मनोदैहिक रोग भी आयुर्वेद का महत्वपूर्ण भाग है।*
*सत्व- सत्व गुण प्रकाश, ज्ञान, शांति, संतुलन, आनंद और पवित्रता का प्रतीक है। सत्व गुण की वृद्धि से मन शांत, स्पष्ट और स्थिर रहता है।*
*रज- रज गुण गतिविधि, जुनून, इच्छा, गतिशीलता, बेचैनी और महत्वाकांक्षा का प्रतीक है। रज गुण की अधिकता से मन चंचल, उत्तेजित और अशांत रहता है।*
*तम- तम गुण अंधकार, जड़ता, अज्ञान, आलस्य, प्रमाद और विनाश का प्रतीक है। तम गुण की वृद्धि से मन सुस्त, भारी, उदासीन और नकारात्मक रहता है।*
*अब देखते हैं रसोन क्योंकि इसका सेवन अनेक लोग नहीं करते और हरीतकी इन तीनों गुणों पर कैसे प्रभाव डालते हैं....*
*रसोन (लहसुन) का सत्व, रज, तम पर प्रभाव-*
*रज पर प्रभाव- रसोन अपने तीक्ष्ण, उष्ण और उत्तेजक गुणों के कारण रजस को बढ़ाता है।*
*कारण - यह शरीर में गर्मी और ऊर्जा उत्पन्न करता है जिससे मानसिक उत्तेजना और गतिविधि बढ़ जाती है। यह तीव्र इच्छाओं और जुनून को भी बढ़ावा दे सकता है।*
*उदाहरण- यही कारण है कि योग और आध्यात्मिक अभ्यास में संलग्न लोग अक्सर लहसुन का सेवन करने से बचते हैं, क्योंकि यह मन को अस्थिर कर सकता है और ध्यान योग या meditation में बाधा डाल सकता है।*
*तम पर प्रभाव- कुछ सीमा तक रसोन तामसिक गुण भी बढ़ाता है।*
*कारण- इसका गुरु गुण और विशिष्ट गंध कभी-कभी जड़ता या मानसिक स्पष्टता की कमी का कारण बन सकती है। विशेष रूप से अधिक मात्रा में या अनुचित तरीके से सेवन करने पर। यह कामुकता को भी उत्तेजित कर सकता है जिसे तामसिक माना जाता है जब यह अत्यधिक हो।*
*सत्व पर प्रभाव- रसोन सीधे तौर पर सत्व को कम करता है या उसे बाधित करता है।*
*कारण- इसकी रजसिक और तामसिक प्रकृति मन को शांत, स्थिर और स्पष्ट रखने की सत्व की क्षमता के विपरीत काम करती है। यह आध्यात्मिक अभ्यास के लिए अनुकूल शांत और पवित्र वातावरण को भंग कर सकता है।*
*हरीतकी का सत्व, रज, तम पर प्रभाव -*
*हरीतकी को आयुर्वेद में एक सत्विक औषधि माना जाता है, मां के समान हितकारी है पर इसका प्रभाव थोड़ा सूक्ष्म होता है।*
*सत्व पर प्रभाव- हरीतकी अपने त्रिदोष शामक गुणों, विशेष रूप से वात और कफ को शांत करने की क्षमता के कारण सत्व को बढ़ाने में सहायक है।*
*कारण- जब वात और कफ संतुलित या balanced होते हैं तो मन शांत और स्पष्ट होता है। हरीतकी शरीर में विषाक्त पदार्थों आमदोष को हटाकर और स्रोतों को शुद्ध करके मानसिक स्पष्टता और हल्कापन प्रदान करती है जो सत्विक स्थिति के लिए आवश्यक है। यह पाचन अग्नि को भी उत्तम करती है जिससे शरीर और मन में लघुता और ऊर्जा का संचार होता है।*
*उदाहरण- इसे 'बुद्धिप्रद' (बुद्धि को बढ़ाने वाला) भी कहा गया है, जो सीधे तौर पर सत्व गुण से संबंधित है।*
*रज पर प्रभाव- हरीतकी सीधे रज की वृद्धि नहीं करती बल्कि इसे संतुलित balanced करने में सहायता करती है।*
*कारण- इसकी अनुलोमन (नीचे की ओर गति) और वातहर कर्म बेचैन और अत्यधिक सक्रिय मन को शांत करने में मदद करती है, जो अत्यधिक रजस के कारण होता है।*
*तम पर प्रभाव- हरीतकी तामसिक गुणों को कम करने में भी मदद करती है।*
*कारण- यह शरीर से आमविष को हटाकर जड़ता या आम से उत्पन्न तमसिक गुण को कम करती है। शरीर में लघुता और स्पष्टता आने से आलस्य और प्रमाद जैसे तामसिक लक्षण कम होते हैं।*
[6/19, 1:36 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:
*रसोन (लहसुन)*
*'पञ्चभिश्च रसैर्युक्तो रसेनाम्लेन वर्जितः, तस्माद्रसोन इत्युक्तो द्रव्याणांगुणवेदिभिः, कटुकश्चापि मूलेषु तिक्तः पत्रेषुसंस्थितः नाले कषाय उद्दिष्टो नालाग्रे लवणः स्मृतः बीजे तु मधुरः प्रोक्तो रसस्तद्गुणवेदिभिःरसोनो बृंहणो वृष्यः स्निग्धोष्णः पाचनः सरः रसे पाके च कटुकस्तीक्ष्णो मधुरको मतः भग्न सन्धानकृत्कण्ठ्यो गुरुः पित्तास्रवृद्धिदः बलवर्णकरो मेधाहितो नेत्र्यो रसायनः'
भाव प्र. हरीतक्यादि वर्ग 219-222*
*आयुर्वेद चिकित्सा के क्षेत्र में रसोन को एक महत्वपूर्ण औषधि माना गया है क्योंकि यह शमन और रसायन दोनो कर्म करती है।*
*पंचभौतिकता-*
*रसोन में मुख्य रूप से पृथ्वी, जल और अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है। इसमें अन्य तत्व आकाश और वायु भी होते हैं लेकिन अन्य तीन की तुलना में कम।*
*रस- मधुर, लवण, कटु, तिक्त और कषाय*
*मूल- कटु*
*पत्र- तिक्त*
*नाल- कषाय*
*नाल का अग्र भाग- लवण*
*बीज- मधुर*
*गुण- स्निग्ध, गुरू, सर, तीक्ष्ण और पिच्छिल*
*वीर्य- उष्ण*
*विपाक- कटु*
*प्रभाव- रसोन का विशिष्ट प्रभाव रसायन (कायाकल्प करने वाला), वातहर (वात दोष को शांत करने वाला), कफहर (कफ दोष को शांत करने वाला) और कृमिघ्न (कीटाणुनाशक) होता है।*
*दोष कर्म-
कटु-तीक्ष्ण = कफ शामक*
*स्निग्ध-गुरू-पिच्छिल- उष्ण = वात शामक*
*उष्ण गुण से पित्त वर्धक*
*त्रिदोष पर देखें तो रसोन वात और कफ दोषों का शमन करता है, जबकि अपने उष्ण वीर्य के कारण पित्त को बढ़ा सकता है विशेषकर अधिक मात्रा में सेवन करने पर।*
*रसोन का 1 जाठराग्नि 5 भूताग्नि और 7 धात्वाग्नियों सहित 13 अग्नियों पर कार्य-*
*रसोन अपनी तीक्ष्णता और उष्ण वीर्य के कारण सभी 13 अग्नियों को उद्दीप्त करता है।*
*जठराग्नि- को प्रबल कर पाचन को सुधारता है।*
*पंचमहाभूताग्नि- को संतुलित करता है, जिससे आहार का सही ढंग से महाभूतों में रूपांतरण होता है।*
*सप्त धातु अग्नि- को भी प्रदीप्त करता है जिससे धातुओं का उचित पोषण और निर्माण होता है।*
*सप्त धातु- रसोन सभी सप्त धातुओं पर सकारात्मक प्रभाव डालता है*
*रस धातु (Plasma)- को पोषण देता है और संचार में वृद्धि करता है।*
*रक्त धातु (Blood)- को शुद्ध करता है और रक्त परिसंचरण को बढ़ाता है।*
*मांस धातु (Muscle)- को पुष्टि प्रदान करता है।*
*मेद धातु (Fat)- का चयापचय (metabolism) करता है और अतिरिक्त वसा को कम करने में मदद करता है।*
*अस्थि धातु (Bone)- को अप्रत्यक्ष रूप से सहारा एवं सहयोग प्रदान करता है।*
*मज्जा धातु (Bone marrow)- को पोषण देता है।*
*शुक्र धातु (Reproductive tissue)- को बल प्रदान करता है।*
*मल (Mala)- रसोन पुरीष (मल), मूत्र और स्वेद के उचित निष्कासन में सहायक है । यह मल को शिथिल और द्रव कर विरेचन में मदद करता है।*
*स्रोतस- रसोन शरीर के विभिन्न स्रोतस में अवरोधों को दूर करने में सहायता करता है। यह विशेष रूप से....*
*अन्नवह स्रोतस (Channels of food transport)- में पाचन को सुधारता है।*
*रसवह स्रोतस (Channels of plasma transport)- में रस-रक्त संचार का वर्धन करता है।*
*रक्तवह स्रोतस (Channels of blood transport)- में रक्त शुद्धिकरण करता है।*
*मेदोवाही स्रोतस (Channels of fat transport)- में वसा चयापचय में सहायक है।*
*प्राणवह स्रोतस (Channels of respiration)- में कफ को कम कर श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया को सरल बनाता है।*
*मूत्रवाही स्रोतस (Channels of urine transport)- में मूत्र प्रवाह को उत्तेजित करता है।*
*पुरीषवाही स्रोतस (Channels of fecal transport)- में मल त्याग को सुगम बनाता है।*
*स्रोतस की दुष्टि -*
*रसोन उन स्रोतस की दुष्टि को ठीक करने में सहायक है जो अवरोध (obstruction), संग (stagnation), अतिप्रवृत्ति (excess flow) या ग्रंथि (lump/growth) के कारण होते हैं। विशेष रूप से यह संग को दूर करने में प्रभावी है। इसके अतिरिक्त वात के आवरण में भी इसके कार्य क्षेत्र के अनुसार यह कार्य करेगा।*
*लिपिड प्रोफाइल के घटकों पर कार्य (action on lipid profile components)- रसोन लिपिड प्रोफाइल के लिए अत्यंत लाभकारी है, इसका प्रमाण हमने प्रत्यक्ष रूप में रसोन हरीतकी वटी का उपयोग कर के देखा है।*
*कुल कोलेस्ट्रॉल (Total Cholesterol): को कम करने में मदद करता है।*
*LDL- को कम करता है, जो हृदय रोग का मुख्य कारक है।*
*HDL- की वृद्धि में सहायक है।*
*ट्राइग्लिसराइड्स tgl.- के स्तर को कम करता है।*
*इसका यह कर्म मेद धातु अग्नि को प्रबल करने और मेदवह स्रोतस में अवरोधों को दूर करने के कारण होता है।*
*हरीतकी (हरड़)-*
*हरीतकी को आयुर्वेद में "सर्व रोग प्रशमनी" और माता के समान हितकारी कहा गया है।*
*'हरीतकी पञ्चरसाऽलवणा तुवरा परम् रूक्षोष्णा दीपनी मेध्या स्वादुपाकारसायनी चक्षुष्या लघुरायुष्या बृंहणी चानुलोमिनी श्वासकासप्रमेहार्शः कुष्ठशोथोदरक्रिमीन् वैस्वर्यग्रहणीरोग विबन्धविषमज्वरान् गुल्माध्मानतृषा छर्दिहिक्काकण्डूहृदामयान्'
भाव प्रकाश, हरीतक्यादि वर्ग 19-21*
*पंचभौतिकता-*
*हरीतकी में मुख्य रूप से पृथ्वी, वायु और आकाश महाभूत की प्रधानता होती है। इसमें अल्प मात्रा में जल और अग्नि भी हैं।*
*रस- मधुर, अम्ल, कटु, तिक्त और कषाय एवं प्रधान रस कषाय*
*गुण- लघु-रूक्ष*
*वीर्य - उष्ण*
*विपाक- मधुर*
*प्रभाव- हरीतकी का विशिष्ट प्रभाव रसायन (कायाकल्प करने वाला), त्रिदोषशामक (तीनों दोषों को शांत करने वाला), अनुलोमन (नीचे की ओर गति देने वाला) बुद्धिप्रद (बुद्धि बढ़ाने वाला) होता है।*
*मधुर तिक्त कषाय से पित्त नाशक, कटु तिक्त कषाय से कफ नाशक और अम्ल रस से वातनाशक है और विस्तार से देखें तो हरीतकी अपने विविध रसों और गुणों के कारण तीनों दोषों का शमन करती है। यह वात को अपने अनुलोमन गुण से, पित्त को अपने मधुर विपाक और कषाय रस से, और कफ को अपने लघु, रूक्ष और तीक्ष्ण गुणों से शांत करती है।*
*दीपन, पाचन, अनुलोमन, कृमिघ्न, यकृद् उत्तेजक, मूत्र विरेचक, मल विरेचक मृदु रूप में, रसायन, मेध्य।*
*हरीतकी का का 1 जाठराग्नि 5 भूताग्नि और 7 धात्वाग्नियों सहित 13 अग्नियों पर कार्य-*
*हरीतकी सभी 13 अग्नियों को संतुलित और बल प्रदान करती है।*
*जठराग्नि- को दीप्त करती है, जिससे पाचन शक्ति में सुधार होता है।*
*पंच महाभूताग्नि- की balancing करती है।*
*सप्त धातु अग्नि- की वृद्धि करती है जिससे धातुओं का उचित निर्माण और पोषण होता है। हरीतकी सभी सप्त धातुओं पर अनुकूल प्रभाव डालती है।*
*रस धातु- का पोषण करती है और सामावस्था को दूर करती है।*
*रक्त धातु- को शुद्ध करती है।*
*मांस धातु- को पुष्ट करती है।*
*मेद धातु- का चयापचय करती है जिस से अतिरिक्त मेद को कम करने में मदद मिलती है।*
*अस्थि धातु- को अप्रत्यक्ष रूप से सहारा देती है क्योंकि पूर्व धातु का सम्यग् पोषण और वर्धन हो रहा है।*
*मज्जा धातु- को पोषण देती है।*
*शुक्र धातु- को बल प्रदान करती है।*
*मल- हरीतकी विशेष रूप से पुरीष (मल) के निष्कासन में अत्यंत प्रभावी है, क्योंकि यह एक उत्तम अनुलोमन और मृदु विरेचक है। यह मूत्र और स्वेद के निष्कासन को भी सामान्य करती है।*
*स्रोतस पर हरीतकी का कार्य -*
*हरीतकी शरीर के सभी स्रोतस को शुद्ध और अवरोध मुक्त करती है।यह विशेष रूप से...*
*अन्नवह स्रोतस- में पाचन और अवशोषण को सम्यग् करती है।*
*पुरीषवह स्रोतस- में मल त्याग को नियमित करती है।*
*रसवह स्रोतस- में पोषक तत्वों के संचार को बढ़ाती है।*
*रक्तवह स्रोतस- में रक्त शोधक का कर्म करती है।*
*मेदोवाही स्रोतस- में वसा के चयापचय को नियंत्रित करती है।*
*प्राणवह स्रोतस- में कफ को कम कर श्वास की क्रिया को सरल बनाती है।*
*स्रोतस की दुष्टि में हरीतकी कर्म-*
*हरीतकी सभी प्रकार की स्रोतस दुष्टि अतिप्रवृत्ति, संग, शिरा ग्रंथि, विमार्गगमन को दूर करने में सहायक है, विशेष रूप से संग या अवरोध को।*
*लिपिड प्रोफाइल के घटकों पर हरीतकी का कर्म-*
*रसोन की तरह हरीतकी का lipid profile घटकों पर भी प्रभावशाली परिणाम देखा गया है.....*
*यह कुल कोलेस्ट्रॉल और LDL कोलेस्ट्रॉल को कम करने में सहायक है।*
*ट्राइग्लिसराइड्स के स्तर को भी कम करती है।*
*यह अपने मेदोहर गुण और मेदवह स्रोतस के शोधन के कारण यह प्रभाव दिखाती है।*
....to be continue
[6/19, 8:04 AM] pawan madan Dr:
प्रणाम गुरु जी !
अत्यंत लाभकारी मार्गदर्शन।
जैसा आपने बताया, रसोन पित्त की तीक्ष्णता, उष्णता को बढ़ा सकता है, pittolvan अवस्था, पित्त प्रकृति पुरुष, pittolvan मौसम में रसोन का प्रयोग बहुत ही सावधानी पूर्वक करना चाहिए।
🙏🏻
[6/19, 8:20 AM] Vd.Abhishek Thakur:
गुरुवर ! अथाह कठिन परिश्रम उपरांत आप हमारे ज्ञानवर्धन हेतु प्रेषित कर रहे हैं, यह लेखन कार्य वास्तव में ही कितना कठिन पूर्ण होता है एक-एक चीज को सुव्यवस्थित करके लिखना,,
🙏आप श्री का हृदय तल से अनंत आभार 🙏🙇...
अत्यंत विश्लेषणात्मक ज्ञान 🚩
[6/19, 8:37 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P.):
सही बात है किंतु रसोन की तीक्ष्णता व उष्णता का प्रभाव हरीतकी के साथ प्रयोग करने पर अथवा क्षीर पाक के रूप में करने से कम हो जाएगा।
[6/19, 8:52 AM] pawan madan Dr:
Maine reson ksheerpaak ka prayog kuch rogion me karvaya tha, wo pitta prakriti waale the, unko bahut problem ho gayi thi is se.
[6/19, 9:40 AM] Vd. V. B. Pandey Basti(U.P.):
Sir in such situations better ask pt. to add a pinch of Sauuf or Mulethi churna while preparing.🙏
[6/19, 1:39 PM] Prof.Vd.Arun Rathi:
*प्रणाम सरजी*
🙏🙏🙏
*रसोनहरितकी वटी आपकी प्रेरणा से निर्मित हुई है, अभी इसकी चौथी batch के निर्माण मे लगा हुआ हूँ*
[6/19, 2:06 PM] Prof.Vd.Arun Rathi:
*गुरुवर प्रणाम*
🙏🙏🙏
*रसोनहरितकी वटी मे, रसोन का शोधन कर उपयोग मे लिया गया है*
*साथ मे वचा, दालचीनी, मरिच आदि के साथ इसको निबु स्वरस की भावना दि गई है*
*निश्चित ही रसोन के गंध दोष का शमन होता है*
*साथ ही साथ अन्य द्रव्यों के संयोग एवं संस्कार से रसोन के रज एवं तम गुण का भी शमन होगा*
🙏🙏🙏
[6/19, 3:21 PM] Dr. Sadhana Babel:
नमस्कार भाईसाब !
I too using rason haritaki vati prepared by u.
In pittashmari hyper-lipidemia n hypothyroidism
Trying in pcos too.
[6/19, 7:03 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
It is not a textual formulation but a self designed new combination of Rason and Haritaki conceptualised on Ayurveda principles of intended drug actions.
[6/19, 7:09 PM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
Though it is not the textual mentioned combo- we all have seen it's effect on variety of the disorders. That is where yukti of the vaidya becomes prime important. Thanks to Katoch sir for fomulating; Arunji for creating and Subhash sir & Sadhanaji and all those who are extensively using the drug.
I am sure if this word spreads Arunji need to get the product & process patented. & it can become next big thing like Kayam churna.
[6/19, 7:10 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
Well said Vd Sanjay.
[6/19, 7:19 PM] Dr.Deepika:
Good evening sir, प्रश्न के लिए क्षमा, परन्तु लशुन और हरितकी का ही combination kyu किया गया ? क्या कोई खास कारण है ?
[6/19, 7:23 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
इस प्रश्न का उत्तर आपको वैद्य सुभाष शर्मा के वक्तव्य में मिल जाएगा।
[6/19, 8:11 PM] Dr. D. C. Katoch sir:
वस्तुतः Haritaki और Lashun ये दो ऐसे औषधीय द्रव्य हैं जिन में पांच पांच रस हैँ और मधुर विपाक युक्त हैं। इस आधारभूत विशिष्टता के कारण Rasoun Haritaki के अधीन Dhatwagni Vardhak, Aampachak, Srotoshodhak, Meda-Kledahar aur Ras-Rakt-Medaprasadak कर्मों के साथ साथ Rasayan कर्म भी है।
[6/19, 8:25 PM] L. k. Dwivedi Sir:
१) प्रसंस्कृत रसोन में भी जो वैशिष्ट्य है। *शोधनसंस्कार* का जो इसकी उग्र गंध एवं तीक्ष्णता को सापेक्ष कम करता है। यथा सुण्ठी की उष्णता कम करने का प्रमाण, *पैत्तिक अतीसार* में धान्य पंचक/चतुष्क एवं ह्रीवेरादि प्रमथ्या मध्य दोष वालों को विहित है, प्रसंस्करण विधान से स्पष्ट होता है एवं, छोटे बच्चों को सोंठ उपयोग करते हैं तो उसे रात्रि में पानी के घड़े के नीचे प्याले में रखते है, सोंठ रात-भर में भीगकर तर (गल जाती) हो जाती है, उसे हरड़ के साथ घिसकर देने का विधान है, सुण्ठी की उष्णता कम करने के लिए।
२) हरीतकी की तरह रसोन भी पंच रस बताया किन्तु यहां योगसूत्र में इनके जो अंग काम में लिया गया है उन्हीं को कर्मूकता में ध्यान रखें ये। इस प्रकार यहां योग सूत्र में द्रव्य प्रसंस्करण एवं घटकों के प्रयोज्यांग की दृष्टि से परिणाम प्राप्ती को विचार करें। लोक में भी परंपरया तक्र के प्रसंस्करण का विचार है किन्तु अब वो नहीं रही।
[6/19, 10:41 PM] Prof. Vd. Arun Rathi:
Dr. Dipika !
*मैडमजी इस पर बहोत कुछ इसी ग्रृप पर लिखा जा चुका है*
[6/19, 10:46 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*शुण्ठी को ग्रन्थकारों ने उष्ण वीर्य ही कहा है। शिवदास सेन ने चरक संहिता पर तत्व चन्द्रिका टीका लिखी है जिसमें लिखा है कि पिप्पली और शुण्ठी दोनों ही कटु हैं पर विपाक में मधुर होने पर इन्हें उष्ण नहीं मानना चाहिये।*
*यह उल्लेख आदरणीय प्रो. बनवारी लाल गौड़ सर ने चरक संहिता एषणा व्याख्या में संदर्भ मात्र किया है...
पृष्ठ 771*
👇🏿
[6/19, 10:56 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सभी मधुर भी शीत वीर्य नहीं होते जैसे आनूप रस का मांस*
[6/19,10:57 PM] L. k. Dwivedi Sir:
सुण्ठी "इदं धान्य चतुष्कोऽयं पैत्ते सुण्ठीं विना भिषक्।। "
ग्रंथ में लिखा उष्ण वीर्य माना जाता है। इसके विपरित ह्रीवेरादि प्रमथ्या मध्य दोष वालों को विहित है। पैत्तिक अतीसार में । प्रसंस्करण से गुणान्तराधान होने से । "कल्की कृताच्छ्रितात्।"
[6/19,10:58 PM] L. k. Dwivedi Sir:
यहां त्र्यूषण का वर्ग नाम से ही स्पष्ट है गुण उष्ण है वीर्य भी उष्ण, ये तो प्रकृति समवेत एवं विकृति विषम समवेत विचार किया जाता है । विपाक: प्रायश: कटु, अर्थात अपवाद रूप से मधुर विपाक मिल सकता है।
[6/19, 11:03 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*हमारे यहां द्रव्यों के प्रयोग में संस्कारों का बढ़ा महत्व है। इसका एक उदाहरण देखिये,
'संस्कारो हि गुणान्तराधानम्'
संस्कारों से हम द्रव्य में परिवर्तन ला देते है जिस से गुण बदल जाते है। कुछ द्रव्य स्वभाव से ही गुरू है जैसे माष या उड़द तो उसका पाक देर तक करते है और दीपन पाचन द्रव्यों के साथ।चावल को अगर लाजा या खील बना दे तो वह लघु हो जायेगा। गाय का दूध.....
'स्वादु शीतं मृदु स्निग्धं बहलं श्लक्षणपिच्छिलम्, गुरू मंदं प्रसन्नं च दशगुणं पयम्'
च सू 27/217
मधुर और शीत वीर्य है अब हम इसमें परिवर्तन या संस्कार कर के इसका दही बना देते हैं तो यही गाय का दूध अब मधुर के बदले अम्ल रस और उष्ण वीर्य हो गया। अगर यह दही पूरी तरह ना जमे तो त्रिदोष कारक है, अच्छी तरह जमी दही वात नाशक हो जायेगी, इस दधि की मलाई अर्थात दधिसर शुक्र का वर्धन करेगी, इस दही का पानी अर्थात दधिमंड वात-कफ को नष्ट कर के स्रोतों का शोधन करता है। ये सब अभी तक गौदुग्ध ही चल रहा है, इस दधि से निकाला नवनीत
'संग्राहि दीपनं ह्रद्य...'
च सू 27/230
मल को तो बांधता ही है साथ में ह्द्य भी है और इसका हम घृत बना दें तो यह फिर से शीत वीर्य
'शीतं मधुरं रसपाकयो:'
च सू 27/232 हो गया।*
[6/19,11:06 PM] L. k. Dwivedi Sir:
"कुर्यात संश्लेष विश्लेष काल संस्कार युक्तिभि:।"
संयोग विश्लेष।
[6/20, 4:56 AM] Prof B. L. Goud Sab:
आशीर्वाद वैद्यराज सुभाष जी ।
उदाहरण सहित विश्लेषणपरक अति सुंदर वर्णन।
दूध शीत वीर्य, दही उष्ण वीर्य। इसी में यह भी संयुक्त कर दें कि वही दही घोलं तु शर्करायुक्तं हो तो उत्तम रसाला की तरह गुण हो जाएंगे और रसाला मधुरा शिशिरा है।
यह आयुर्वेद का वैशिष्ट्य है कि संस्कार के आधार पर गुणों के परिवर्तन की संपूर्ण प्रक्रिया का अनुसंधानपरक ज्ञान इसमें निहित है |
[6/20, 5:03 AM] Prof B. L. Goud Sab:
आजकल तो नेट पर आयुर्वेद के बड़े-बड़े विद्वानों के जिनमें प्रोफेसर भी हैं ज्ञानपरक लेख आते हैं कि दही शीत वीर्य है और इसे वर्षा में नहीं खाना चाहिए
जबकि आचार्य चरक ने वर्षासु दधि शस्यते कहा है |
[6/20, 5:39 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
सभी गुरुवरों का ह्रदयतल से आभार। आर्द्रक उष्णवीर्य होता है और उसी आर्द्रक को चुने के पाणी मे उबालकर सुखाने से बनने वाली शुण्ठी अनुष्ण होती है, ऐसा ही हमने पढा और व्यवहार किया। आर्द्रक को सुखाकर शुण्ठी नही बनती यह तो विदीत है। आप सभी ने शास्त्र संदर्भ के साथ आखें खोल दी। धन्यवाद।
[6/20, 6:00 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
कल आर्द्रक के सत्व के बारे मे बात हुयी थी। गुरूदेव ने कहा था की गिलोय के समान आर्द्रक का भी सत्व निकाला जाता है। हमारे लिए तो यह बहुत ही नयी जानकारी है। क्या इस पर अधिक प्रकाश डाल सकते है ?
[6/20, 6:54 AM] L. k. Dwivedi Sir:
कली चूर्ण काम लेते हैं ना कि ठंडा चूर्ण। धामण कर शास्त्री जी ने अपने ग्रंथ, आ०औष०द्रव्यशोधन विधि में सूचित किया है। सातवां सोंठ कहते हैं।
[6/20, 10:13 AM] M. L. Jaysawal sir:
ऊँ
सुप्रभात वैद्यवर जी सादर नमस्ते !
सम्यक् उदाहरणों से संस्कार द्वारा द्रव्यान्तर परिवर्तन (गुणान्तरण फलश्रुति) का विशद विश्लेषण।
बस्तुतः द्रव्य निरपेक्ष गुणों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। द्रव्य में परिवर्तन के द्वारा ही गुणों में परिवर्तन सम्भव है। गुण बस्तुतः द्रव्य के प्रतीक मात्र हैं।
जैसा वेदान्त में अद्वैतवादी गुण की पृथक् सत्ता न मानकर उसे द्रव्यात्मक ही मानते हैं।
यही चरकोक्त स्वभावोपरमवाद से भी स्पष्ट होता है।
अर्थात् संस्कारों के द्वारा द्रव्यान्तर में परिवर्तन के द्वारा गुणात्मक परिवर्तन होता है।
गुण दो प्रकार के-
1-यावद्द्रव्यभावीगुण-
जिसमें परिवर्तन संभव नहीं
2-आवस्थिकगुण-
इसमें परिवर्तन संभव हि।
संस्कार के द्वारा द्रव्यान्तर की उत्पत्ति में नवीन द्रव्य की बनता है ।
संस्कार (सम्तक् करण- Refinement) के द्वारा तीन कार्य होते हैं-
1-दोषों का निवारण
2-स्वाभाविक गुणों में परिवर्तन (संस्कारगुरु या संस्कार- लघु)
3-गुणान्तराध
जो पारदादि के संस्कारों में तथा तण्डुलादि के अनेक संस्कार द्वारा ओदन, लाजा आदि द्रव्यान्तर में परिणत हो विभिन्न गुणकर्मों का उद्भव होता है।
यह आधुनिक दृष्टिकोण से आणविक स्तर पर परिवर्तन से भी समझा जा सकता है।
🚩👏
[6/20, 10:19 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सादर चरण स्पर्श 🙏🙏🙏🙏🙏*
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Presented by-
Vaidyaraja Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
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