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WDS72: "Parasparopasamstabdha Dhatusnehaparampara" by Prof. Ramakant Sharma 'Chulet', Prof. Arun Rathi, Prof. S. K. Khandal, Prof. Sanjay Lungare, Prof. Giriraj Sharma, Vaidyaraja Subhash Sharma, Prof. Uttam Kumar Sharma, Dr. Bharat Padhar, Dr. Raghuram Bhatta, Dr. Shashi Jindal, Dr. Amit Nakanekar & Others.

[10/24, 2:36 PM] Prof. Uttam Kumar Sharma: 

गुरुजनों एवं विद्वानों मित्रों के समक्ष एक शंका रख रहा हूँ- परस्परोपसंस्तब्धा धातुस्नेहपरम्परा (च.चि.15/20) को कृपया स्पष्ट करने की कृपा करें।

[10/24, 4:13 PM] Prof. Uttam Kumar Sharma: 

धातुस्नेहपरम्परा से तात्पर्य क्या यह है कि एक धातु अगली धातु का पोषण करती है ।

[10/24, 5:17 PM] Prof Giriraj Sharma:

 ग्रहणी
ग्रहयती पाचयती विवेचयती मुंचती,,,,,
अन्न रस को इन सब कर्मो के  मूल के परिपेक्ष्य में चिंतन जरूरी है ।।
विद्वजन समुदाय से निवेदन है कि विषय पर टिप्पणी करे ।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼💐🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/24, 6:07 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

विविधमशितं पीतं लीढं खादितं जन्तोर्हितमन्तरग्निसन्धुक्षितबलेन यथास्वेनोष्मणा सम्यग्विपच्यमानं कालवदनवस्थित सर्वधातुपाकमनुपहत सर्वधातूष्ममारुतस्रोतः केवलं शरीरमुपचय बलवर्णसुखायुषा योजयति शरीरधातूनूर्जयति च । *धातवो हि धात्वाहाराः प्रकृतिमनुवर्तन्ते ॥३॥*
👆🏻
यह आहार से धातुओं का पोषण का क्रम है और आहार के अभाव में स्वस्थ/आतुरावस्था में धातु पूर्व धातुओं की प्रतिपूर्ति का कार्य करते हैं यही *परस्परोपसंस्तब्धा धातुस्नेहपरम्परा* है ।

आचार्य चक्रपाणि ने इसे स्पष्ट किया है ।
👇
एवमुक्तेन क्रमेण प्रसादकिट्टे द्विधा ऋच्छतो भवत इत्यर्थः। सम्प्रति पोष्येणापि रक्तेन रसस्याप्यायनं क्रियते, तथा मांसेनापि रक्तस्येत्यादि परस्परं धातूनामुत्पादकत्वमाह- परस्परेत्यादि। धातुस्नेहपरम्परा परस्परोपसंस्तब्धेति अन्योन्यमुपस्नेहेन संस्तब्धत्वात् सन्तर्पितेति यावत्॥१८-१९॥

धातुबलाभाव में जब सार-किट्ट विभाजन में वैषम्य उत्पन्न होता है तो मल भी बल होते हैं जैसे यक्ष्मा में बताया गया है ।

प्रो. उत्तम शर्मा साब ।।🙏🙏

[10/24, 6:56 PM] Prof. Uttam Kumar Sharma: 

अतिसुन्दर डॉ सोनी जी 👍
अतः धातुपोषण अनुलोम तो होता ही है परन्तु आवश्यकता होने पर प्रतिलोम भी होता है। यही धातुओं की परस्पर स्नेहन परम्परा है।

[10/24, 6:57 PM] Prof Giriraj Sharma: 

खले कपोत न्याय
🙏🏼🙏🏼💐🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/24, 7:11 PM] Prof. Surendra A. Soni: 🙏🌹

धन्योsहम् ।। Dr Uttam ji !


[10/24, 7:57 PM] Dr Yogesh Gupta: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻 SIR KYA  PRATILOM POSHAN MUKHYA DHATU KA POSHAN AUR ANULOM POSHAN AGALI DHATU KE POSHAN KO KAHENGE ... 🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/24, 8:11 PM] Prof Giriraj Sharma:

 आदरणीय
अनुलोम क्षय एवम प्रतिलोम क्षय में पूर्वोत्तर एवं उत्तरोत्तर धातु ही प्रभावित होगी ।
परन्तु आचार्यो ने धातु पोषण प्रक्रिया मे क्षीर दधि न्याय एवं केदारी कुल्या न्याय के साथ खले कपोत न्याय का का वर्णन भी किया है जिसमे क्षय धातु को पोषित करने वाले गुण एक पूर्वोत्तर एवं उत्तरोत्तर धातु में पोषित स्तिथि में नही है तो वो आवश्यकता अनुरूप अन्य धातु से भी पोषण प्राप्त कर सकता है ।
जिसमे खले कपोत न्याय के परिपेक्ष्य में समझ सकते है ।
आधुनिक विज्ञान में रक्त निर्माण में polyphyletic
Monophyletic theory के अलावा Extra medullary theory  का उल्लेख भी मिलता है ।
Extramedullary hematopoiesis (EH) is defined as hematopoiesis occurring in organs outside of the bone marrow; it occurs in diverse conditions, including fetal development, normal immune responses, and pathological circumstances.

🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼💐🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/24, 8:25 PM] Dr. Satish Jaimini Choumu, Jaipur: 

आचार्य  वृस्यादिनांप्रभावस्तु पुसनाती बलमाशुहि यहाँ कोनसे न्याय से पोषण मान लिया जाय खले कपोत की प्रमुखता रहेगी क्या ?

[10/24, 8:29 PM] Prof Giriraj Sharma: 

आचार्य इसका शब्दार्थ ग्रहण नही कर पा रहा हूँ ।
क्षमा !

[10/24, 8:31 PM] Dr. Satish Jaimini Choumu, Jaipur: 

आप ने रेखांकित किया है उस संदर्भ में एक लाईन है 

[10/24, 8:32 PM] Prof Giriraj Sharma: 

व्यवायी विकाषी गुण के प्रभाव के विषय मे चिंतन कीजिये कुछ संकेत जरूर प्राप्त होंगे ।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼💐🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/24, 8:36 PM] Prof Giriraj Sharma: 

यथास्वं स्वं च पुश्नांति देहे द्रव्यगुण पृथक ।
पार्थिवा पार्थिवानेव शेषा शेषयश्च कुतस्त्रश ।

[10/24, 8:38 PM] Prof Giriraj Sharma: 

अनुरूप सम गुण है तो खले कपोत भी कार्य करेगा यदि पोषण प्रक्रिया सामान्य नही हुई तो

[10/24, 8:56 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir:

 एक अन्य  अतिमहत्व पूर्ण शब्द है पोषण के संबंध में असति विरोधी कारणत्व जो सभी न्यायो को सार्थकता देता है ।

[10/24, 9:04 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

अनुरूप विषम गुण,
प्रतिरूप/विपरीत सम गुण या
अनुरूप सम गुण इन तीनों पदों में ,
1-अनुरूप विषम त्व,
2- प्रतिरूप समत्व
3- एवमेव - अनुरूप समत्व इन द्वंद पदों की कोई विशेष सार्थकता है क्या ?कई  बार ये असंभव ,तो कई बार अनावश्यक प्रतीत होते है आचार्य जी ,विचार कीजिए !!!!!

[10/24, 9:07 PM] Dr. Satish Jaimini Choumu, Jaipur: 

गुरुजी सामान्य विशेष पर ही आधारित सिद्धांत है ये अथवा अन्य

[10/24, 9:07 PM] pawan madan Dr: 

👌🏻👌🏻👌🏻

बढ़िया सर जी

[10/24, 9:08 PM] Dr. Satish Jaimini Choumu, Jaipur: 

स्पष्ट करने की कृपा करें गुरुदेव असति विरोधी को

[10/24, 9:11 PM] Dr. Satish Jaimini Choumu, Jaipur: 

प्रतिरूप सम गर्म दूध का कफ शामक प्रभाव मान सकते हैं क्या गुरुजी

[10/24, 9:11 PM] Prof Giriraj Sharma: 

आचार्य
आप सोदाहरण इन्हें समझाने की कृपा करें ।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼💐🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/24, 9:14 PM] Dr. Satish Jaimini Choumu, Jaipur: 

यही शीत दुग्ध कफवर्धकको तमक में अनरूप विसमत्त्व

[10/24, 9:17 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

ये कोई सिद्धांत नहीं है ।
सांसिधिक गुण जैसे गर्म किए हुए घृत से स्थानिक दाह अस्थाई या सीमित प्रभाव वाले होते है ।अनुरूप सम गुण की बात पर मैने कहा था अनुरूप और समत्व लगभग समानार्थक ही  है ।
अपने अनेक सिद्धांतों में पूर्व में ही जटिलता है उस बढ़ाने से ना कर्मफल है ना  उपयोगिता इसलिए सरलार्थ को महत्व देना चाहिए ।

[10/24, 9:25 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

समझने समझने वाली बात ही नहीं है ,मेरा तो निवेदन था कि जटिलता से बचना चाहिए ।
आपका मत उचित ही नहीं पर्याप्त भी है ,
खले कपोत न्याय सबसे विचित्र है पार्थिवा: पार्थिवानेव .......यह पोषण  अनेक जगह केदारी कुल्या न्याय से होता है ,अनेक जगह क्षीर दधी  न्याय से और अनेक जगह खले कपो त न्याय से भी होगा किंतु पार्थीवा : पार्थिवानेव यह अटल सत्य है यही तत्व है ,न्यूनतम एक विधि का सामंजस्य चाहिए और अनेक बार तीनों न्याय लागू होते है इसके उदाहरण अलप्तम मिलते है

[10/24, 9:26 PM] Prof Giriraj Sharma: 

🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼
धन्यवाद आचार्य श्री

[10/24, 9:26 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir:

 प्रति प्रणाम प्रियवर !!!

सदा प्रसन्न रहो !!!
[10/24, 9:26 PM] Dr. Satish Jaimini Choumu, Jaipur: 

अति महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन गुरुजी

[10/24, 10:03 PM] Prof. Uttam Kumar Sharma: 

अनुलोम पोषण अगली धातु का एवं प्रतिलोम पोषण पूर्व धातु का मानना चाहिए।

[10/24, 10:08 PM] Prof. Uttam Kumar Sharma:

 गुरुजी अनुलोम पोषण तो समझ मे आता है क्योंकि धातु की अग्नि से वह धातु कुछ अंशों में अगली धातु में परिवर्तित हो जाती है। परन्तु किसी धातु का पहली धातु में पुनः परिवर्तन किस प्रकार होता है कृपया समझाने की कृपा करें।

[10/24, 10:17 PM] Prof Giriraj Sharma:

 एक संदर्भ
सद्य गर्भणी में आर्तव अनुबन्ध हो जाता है और वह उर्ध्व गामी होकर स्तन्य का निर्माण करता है ।
आर्तव एवं स्तन्य दोनो ही रस के उपधातु है ।
स्तन्य के गुण एवं आर्तव के गुण भिन्न भिन्न होते हुए भी ,,,,
 यहां रस गुण प्राधान्यता ,,
विशिष्ठ न्याय से धातु उपधातु पोषण को आचार्य ने स्पस्टत्ता से उल्लेखित किया है
🤔🤔

[10/24, 10:23 PM] Prof Giriraj Sharma:

 उपधातु आर्तव से उपधातु स्तन्य ही बना सीधा
या
अनुबंधित आर्तव पहले रस फिर उपधातु स्तन्य

सम गुण होने पर आर्तव,, रक्त सम है तो रक्त क्यो नही बना ।

[10/24, 10:30 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

रस रक्त में परिवर्तित हो गया ,वह रक्त रस में पुनः कैसे परिवर्तित होगा यह समझना चाहते है आप ??

[10/24, 10:30 PM] Prof Giriraj Sharma:

 या उपस्नेह उपसवेद बनकर पोषक द्रव्य बना

[10/24, 10:32 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

प्रतिलोम क्षय में उत्तरोत्तर धातु कैसे प्रभावित होगी जाता स्पष्ट कीजिए प्रियवर !!

[10/24, 10:44 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

इस संदर्भ को पुनः पढ़ना चाहता हूं कृपया मूल संदर्भ बताने का श्रम करें

 (आचार्य सु शा 4-24के अतिरिक्त )

[10/24, 10:46 PM] Prof Giriraj Sharma: 

सु शा में है ही जो आपने सन्दर्भ दे ही दिया
🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/24, 10:49 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

इसके अनुसार आर्तव उर्धवगामी होकर स्तन्य का निर्माण नहीं करता, स्तन का उपचय करता है
कहीं कोई auto correct ka jadu to nahi ?

[10/24, 10:54 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir:

 इसमें यह स्तन्य का निर्माण नहीं है तस्माद गर्भिन्य: पीन पयोधरा,उन्नत पयोधारा : च भवंति स्तन पीनत्व = स्तनों का मोटापन ,स्तन उन्नत त्व स्तनों का उभरा हुआ होना दो ही परिणाम है स्त न्य की कोई बात नहीं है 

4, 10:58 PM] D C Katoch Sir: Reversal  कैसे सम्भव है 🤔

[10/24, 11:02 PM] Prof Giriraj Sharma: 

आचार्य सोनी जी ने ऊपर पोस्ट किया है
Regarding Reverse,,,

[10/24, 11:04 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

नहीं आचार्य गंभीरता से पढ़ेंगे तो अर्थ वही निकलेगा , स्तन्य वृद्धि संभव ही नहीं है ।
पहले तो वह अपरा निर्माण करता है शेषम च उर्धवतरम आगतम, बचा हुआ और ऊपर आता है स्तनों तक आ जाता है इसके आने से वहा स्थित रहने से गर्भिणी पीन वा उन्नत पयोधर वाली हो जाती है, यह स्तन पीनत्व एवम् स्तम उन्नतत्व को ही बता रहा है स्तन्य वृद्धि का कोई प्रसंग ही नहीं है सूत्र में तो

[10/24, 11:11 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

उप स्नेह से पोषण ऐसे ही होता है  जैसे तालाब की दीवार के दूसरी तरफ , जंहा जल संचय नहीं है वहां की मिट्टी का गीला होना और यह  धातुगत स्नेह  तक सीमित है आगे पीछे दोनों तरफ ही होता है

[10/24, 11:22 PM] Prof Giriraj Sharma: 

🌹🌹🙏🏼🌹🌹
 जरूर आचार्य
मुझे Lactation and prolactin secretion को समझने की जरूरत है धन्यवाद ।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/24, 11:28 PM] Prof Giriraj Sharma: 

उपस्वेद को कैसे समझा जा सकता है
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/25, 12:35 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*स्तन्य सर्व शरीरगत है*
*बढ़ी गंभीर चर्चा चल रही है और ज्ञानवर्धक भी, स्तन्य रस का प्रसाद भाग है (च चि 15),अब देखते है सु नि 10 में ' रस प्रसादौ मधुर:पर्वाहारनिमित्तज:,कृत्स्नदेहात् स्तनौ प्राप्त: स्तन्यमित्यभिधीयते। विशस्ते ष्वपि गात्रेषु यथा शुक्रं ना दृश्यते।, सर्वदेहाश्रितत्वाच्च...'  अर्थात जैसे शुक्र सर्वशरीर में रहता है यह उसकी तरह सर्व शरीर में रहता है।*

*आगे सु नि 10 में 'धमन्य: संवृतद्वारा: कन्यानां स्तनसंश्रिता:, तासामेव प्रजातानां गर्भिणीनां च ता पुन:' कन्याओं में स्तन की धमनियां संकुचित होती हैं, प्रजाता और गर्भिणी में ये स्वभाव से फैल जाती है।*
*'आहाररसयोनित्वादेवं स्तन्यमपि स्त्रिया:...स्नेहो निरंतरस्तत्र प्रसवे हेतुरूच्यते' सु नि 10 स्त्री स्पर्श, स्मरण,दर्शन से जैसे शुक्र का क्षरण होता है वैसे ही संतान के स्पर्श,दर्शन,स्पर्श और उसके ग्रहण करने पर स्तन्य का क्षरण होता है।*

[10/25, 12:55 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:

 👌👌👌👌
*सही व्याख्या की आपने डॉ सोनी, च शा 6/17 में 'तत्र मलभूतास्ते ये शरीरस्याबाधकरा: स्यु:' मलरूप गुण युक्त वे पदार्थ हैं जो शरीर को बाधा पहुंचाते हैं। नासिका,नेत्र त्वचा आदि से निकलने वाले मल जब शरीर से बाहर आने को प्रेरित होते हैं तो मल हैं और समावस्था में और सम प्रमाण में अपने स्रोतस आदि के साथ रहते हैं तो प्रसाद है। त्रिदोष और धातु भी समावस्था में प्रसाद हैं पर जब इनकी वृद्धि, क्षय या विमार्ग गमन हो तो ये भी शरीर में बाधा उत्पन्न करने के कारण मल संज्ञक हैं।*
*अभिप्राय ये है कि मल को निम्न स्तर का ना समझा जाये ये एक विस्तृत विषय है और जैसा आपने कहा 'मल भी बल है'*


          🙏🌺💐🌹🙏

[10/25, 5:06 AM] Dr Shashi Jindal: 

it may be correlated with gluconeogenesis, formation of glucose (ras dhatu), from proteins and fats. ????

[10/25, 5:07 AM] Dr Shashi Jindal:

 Calcium is also taken from bones in its deficiency.....

[10/25, 5:07 AM] Dr Shashi Jindal:

 ek dhatu doosri dhatu ka aahar hai ????

[10/25, 5:10 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

Why correlation,we have to understand it in its original ayurvedic sense first ,after that if required to elaborate ,to understand ,to explore ,we can correlate.

[10/25, 5:31 AM] Dr Shashi Jindal: 

good morning sir,yes we have to consider basic concepts then only we can prove.🙏🏼🙏🏼

[10/25, 5:33 AM] Dr Shashi Jindal:

 whan fat are formed from glucose it is anulome poshan, and when glucose is formed from fats during starvation it is pratilom poshan.

[10/25, 5:40 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

साधारण भाषा में जैसे पक्षी अंडे से देता है शरीर से बाहर निकाल देता है ,फिर भी अंडे से बच्चे के बाहर आने तक, वो नियमित रूप से पंख में अंडा समेत कर उस पर बैठकर बाह्य शीत से बचाता है तथा अपने शरीर की ऊष्मा को की अग्नि नहीं है, उष्ण गुण भी नहीं है,किंतु ऊष्मा है वह, अग्नि से  पूर्णत: भिन्न भी नहीं है, प्रदान करके अंडे को बच्चे में परिवर्तित होने के लिए आवश्यक चयापचय को बनाए रखता है, ताकि समय आने पर बच्चा खुद अंडे का भेद करके बाहर निकाल आए, अपने शरीर की गर्मी उसमें स्थानांतरित करना उपस्वे द है मेरिसमझ से, भिन्न मत का स्वागत है ।

[10/25, 5:45 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

माना जा सकता है,किंतु अनुलोम प्रतीलोम क्षय एवम् पोषण आयुर्वेद के तकनीकी शब्द है, जो धातु क्रम का महत्व प्रतिपादित करने का सिद्धांत भी है ,उस सुरक्षित रखते हुए कुछ भी व्याख्या कीजिए, आप जो बता रहे है वो संभव  शरीर क्रियात्मक प्रक्रियाएं है , होती ही है, विविध समय पर, अत्यावश्यक होने पर, अनेक बार अंतिम विकल्प के रूप में, जैसा कि आपने बताया, during starvation, yanha antim vikalp hai anulom pratikon poshan evam kshay is routine procedure as a  simple rule, this may be taken as difference while using ayurvedic technical terms.

[10/25, 5:46 AM] Dr Shashi Jindal:

 stored fats and muscle mass is used up in later stages of diabetes mellitus, isn't it an example of ek dhatu doosari dhatu ka aahar hai.🙏🏼🙏🏼🙏🏼???

[10/25, 5:49 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

यदि यह प्रकृति स्वास्थ्य के अनुवर्तन के लिए है तो ,
धातवो हि धातु आहारा: प्रक्रतिम अनुवर्तनते ,
[10/25, 5:53 AM] Dr Shashi Jindal: 

sir it is to maintain glucose levels in blood, because glucose is needed for body cells during starvation, and in DM also with insulin resistance cells can't use glucose present in blood, and to maintain functions of glucose this mechanism works.

[10/25, 5:55 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

Yes agreed ,that's why I told -  if it is to maintain the health-
this is criterion

[10/25, 7:16 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:

 *उपस्वेद का बहुत अच्छा उदाहरण 👌👌👌आयुर्वेदानुसार पक्षी का इस प्रकार बैठकर उष्मा पहुंचाना 'पुल्टिस' का कार्य करता है।*

[10/25, 4:07 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

मात्रादीनां खलु गर्भकराणां भावानां सम्पदस्तथा वृत्तस्य सौष्ठवान्मातृतश्चैवोप स्नेहोपस्वेदाभ्यां कालपरिणामात् स्वभाव संसिद्धेश्च कुक्षौ वृद्धिं प्राप्नोति ॥२७॥

च शा 4
🙏

[10/25, 4:09 PM] Prof Giriraj Sharma: 

आचार्य ये तो ज्ञात है
उपस्नेहन दीवार का उदारण
उपस्वेद पंछी का उदाहरण
आदरणीय चुलेट सर ने दे दिया ।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼
धन्यवाद

[10/25, 4:12 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

धन और लक्ष्मी माता भी उपस्नेह न्याय से चलती है और मार्ग का उपस्नेहन करती रहती है । बैंक भी इसी सिद्धांत से कार्य करते हैं ।
😃🙏🌹

[10/25, 4:12 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

मूल सन्दर्भ प्रेषित किया है ।🙏

[10/25, 4:13 PM] Prof Giriraj Sharma:

 जय धन्वतरि भगवान
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/25, 8:06 PM] Vd. Aashish Kumar, Lalitpur: 

सर औषधि/आहार द्वारा सीधे उस धातु का पोषण अधिक करना जैसे औषधि कौंच और अहरु उड़द का शुक्र वर्धन में उपयोग क्या यह खले कपोत न्याय में आएगा?🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/25, 8:21 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

आप के हिसाब से कहां आएगा और क्यों?

[10/25, 8:25 PM] Vd. Aashish Kumar, Lalitpur: 

चूंकि शुक्र वर्धक है इसलिए पहले रस रक्त मांस आदि धातु पोषण करेगा तो सभी धातुओ का पोषण होगा,ऐसा लिखा होता लेकिन मुख्यतः शुक्र पर कार्य कर रहा हा इसलिए ऐसा विचार आया गुरु जी🙏🏻🙏🏻

[10/25, 8:41 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

केदारी कुल्या,क्षीर दधी एवम्  खले क पो त न्याय, पोषण के क्रम,पोषण के क्रम में आहार में होने वाले  आंशिक या पूर्ण परिवर्तन   एवम् पोषण क्रम में लगने वाले समय की सहेतुक व्याख्या करते है ।
कोंच एवम् उड़द का शुक्र वर्धन हेतु  उपयोग करने  पर शुक्र वर्गीय सभी द्रव्यों का पोषण होगा और शुक्र वर्धक होने से तुलनात्मक रूप में शुक्र धातु की सर्वात्मना शीघ्र एवम् अधिक पुष्टि होगी ।
जो मूलतः प्रश्न उठा था वो थोड़ा भिन्न था वृष्या दीनाम प्रभावात तू .......यह प्रश्न था जो द्रव्य  प्रभाव के कारण धातु  के क्रमिक पोषण की अनिवार्यता को प्रभाव के कारण  अस्वीकार  करता है तथा शीघ्र ही नहीं अपितु आशु पुष्टि स्थापित करता है जो हर्षण एवम् क्रिया सामर्थ्य से मापन योग्य भी है ।

[10/25, 8:44 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

कोई द्रव्य पार्थिव एवम् आप्य है आहार के बाद जिन जिन धातुवो के जो जो पार्थिव एवम् आप्य अंश है उन सब का ही पोषण करेगा यदि वह मुख मार्ग से लिया गया है आहार रूप में ।
यदि मार्ग बदला तो पोषण क्रम प्रक्रिया परिणाम एवम् अवधि सभी में यथायोग्य एवम् यथावश्यक परिवर्तन होगा ।

[10/25, 8:47 PM] Vd. Aashish Kumar, Lalitpur: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻💐💐💐

[10/25, 8:51 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir:

 इन सात बिंदुवों पर तज्ज्ञ महानुभाव यदि गंभीरता से विचार करेंगे तो कई नवीन तथ्य उद्घाटित होंगे ।

[10/25, 8:51 PM] Vd. Aashish Kumar, Lalitpur: 

इसका अर्थ रस मांस मेद मज्जा और शुक्र पर अधिक प्रभावी होगा,ऐसा मानना उचित रहेगा ना सर🙏🏻🙏🏻

[10/25, 8:52 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir:

 निस्संदेह प्रियवर !!!!!

[10/25, 10:08 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

भौमाप्याग्नेयवायव्याः पञ्चोष्माणः सनाभसाः । पञ्चाहारगुणान्स्वान्स्वा न्पार्थिवादीन्पचन्ति हि ॥१३

*Chakrapani Teeka*
👇👇👇👇👇

भौतिकवह्निव्यापारमाह- भौमेत्यादि। भौमादयः पञ्चोष्माणः पार्थिवादिद्रव्यव्यवस्थिता

First Jatharagni action- we may say *Sanghat-bhedan*& during this process parthivadi guna get released.

 जाठराग्निसन्धुक्षितबला *अन्तरीयं द्रव्यं पचन्तः स्वान् स्वान् पार्थिवादीन् पूर्वपार्थिवगन्धत्वाद्यविलक्षणान् गुणान् निर्वर्तयन्ति।*

एतदेव विविधमशितपीतलीढखादितं जन्तोर्हितमन्तरग्निसन्धुक्षितबलेन यथास्वेनोष्मणा सम्यग्विपच्यमानं (सू.अ.२८) इत्यादिना सूत्रास्थानेऽप्युक्तम्।

*It's also mentioned in Ch. Su. 28*

यद्यपि भूताग्निना पार्थिवादिद्रव्यं पच्यते, तथाऽपि पार्थिवादिद्रव्याणां पाकेनैतदेव जननं यद्विशिष्टगुणयुक्तत्वं, तेन पाकेन जन्यमानेऽपि द्रव्ये गुणा एव जन्यन्त इत्यभिप्रायेण पार्थिवादीनाहारगुणाञ्जनयन्तीत्युच्यते।

👆🏻
*Actually this is transformation of Ahar-guna to dhaturoopa-guna with the help of Bhootagni.*

 अनेन गुणजननमेवाग्निनोच्यते; न द्रव्यजननम्।

किंवा आहाराश्च गुणाश्चेति विग्रहादाहारशब्देन आहाराधिकरणरूपं द्रव्यमपि गृह्यते।
पार्थिवादीनिति पार्थिवाप्यतैजसवायवीयनाभसान्।
तत्र जाठराग्निः

👉🏻सर्वानेवाहाररसमलविपाकान् पचति,

 👉🏻भौतिकास्त्वग्नयः स्वान् स्वान् गुणाञ्जनयन्ति। उक्तं च- जाठरेणाग्निना पूर्वं कृते सङ्घातभेदे पश्चाद्भूताग्नयः पञ्च स्वं स्वं द्रव्यं पचन्ति इति।

👉🏻अयं च भूताग्निव्यापारो धातुष्वप्यस्ति,

👉🏻यतो धातुष्वपि पञ्चभूतानि सन्ति,

*All 7 dhatus have 5 bhoutik dominancy and it's represented by Gunas exclusively.*

👉🏻तत्रापि धात्वग्निव्यापारो भूताग्निव्यापारश्च जाठराग्निक्रमेणैवोक्तो ज्ञेयः॥१३॥

We may say that bhootagni vyapar is capable to generate reverse dhatu-poshan phenomenon.

When we talk about the dhatugatatva of disease, actually the reverse dhatuposhan is
1. mainly responsible where next dhatu loosens it property in providing nutrition or compensation to previous dhatu. 2. Specific or pradhanik hetu is another cause of dhatu-gatatva of disease.
The phenomenon that convert Prameha into madhumeha is best example in this context. How madhumehi who once has santarpan condition, reached to anaemia condition ? Reverse dhatuposhan is equally responsible in this condition though this is not highlighted generally because of concept of kshaya used mainly to describe the pathogenesis.

Another reference....

धातवः पुनः शारीराः समानगुणैः समानगुणभूयिष्ठैर्वाऽप्याहारविकारैरभ्यस्यमानैर्वृद्धिं प्राप्नुवन्ति, ह्रासं तु विपरीतगुणैर्विपरीतगुणभूयिष्ठैर्वाऽप्याहारैरभ्यस्यमानैः ॥९॥


My 👆🏻👆🏻👆🏻small understanding.

🙏🙏🌹🌹

[10/25, 10:14 PM] D C Katoch Sir: 

सटीक सैद्धांतिक पृष्ठभूमि व समन्वय

[10/25, 10:16 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

धन्योsहम् ।।🙏🌹

[10/25, 10:19 PM] D C Katoch Sir: 

किम् एतद् क्लीनिके कदाचिद् दर्शितः।

[10/25, 10:25 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

अयं सिद्धान्त: सर्वत्र दृश्यते परन्तु  क्षयसिद्धांतात् प्रायः गौणीभवन्आवृत: भवति । चरकेsपि ग्रहणी-अध्याये केवलं निर्दिष्टम् ।

🙏😊🌹

[10/26, 1:09 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*वाह ! 👌👌👌👌 प्रमेह का उदाहरण दे कर आपने और सरल कर दिया।*

               💐🌹🌺

[10/26, 2:46 AM] Dr. Arun Rathi, Akola:

 *शरीर, काया और देह यह पर्याय नाम यह अग्नि के कर्म को दर्शाते है*

*शरीर : शृ - इरन् , means to be rendered to pieces.*
*शीर्यते अनेन इति शरीरम् ।                   Conveys the idea underlying Ketabolic processes.                                                                  अर्थात जिसके घटको का निरन्तर विघटन होता रहता है । शरीर कार्यशिल रहने के लिए उर्जा ( energy ) की आवश्यकता होती है । यह उर्जा विशेषतः धातु जैसे रक्त, मांस, मेद, आदि के विघटन से निर्मित होती है ।*
                                                 
*काया : चिञ् - चयने, means  to collect.                                                       चीयते अन्नादिभिः इति कायः।.                                                                                                                 Conveys the idea underlying Anabolic processes.                                                     अर्थात जिसका निरन्तर पोषण होता रहता है। उर्जा उत्पत्ती के लिए धातुओं मे विघटन होता रहता है। इस धातुक्षय की पुर्ति हम आहार से करते है । आहार का पचन यह शरीर धातुओं का पोषण करता है ।*
                                                                                                     
*देह : दिह् -घञ्.  Means to grow or to develop or to hold .                                                                                          धार्यते अनेन इति देहः ।.                                                                                 Conveys the idea underlying Metabolism.                                                                        अर्थात जिसमे निरन्तर विघटन (Ketabolism) और पोषण (Anabolism) की प्रक्रिया होती रहती है।.                                                                                                                        इस तरह कायाग्नि व्यापार (Metabolism) यह जन्म से मूत्यु पर्यंत निरन्तर अबाधित रुप से चलता रहता है ।*                                                   
*These various names (synonym) of शरीर are very scientific and denotes specific functions, which we ignore during our college life studies. In Samhitas Physiology is dealt with great importance which can be correlated with Modern Physiology and Biochemistry.*

[10/26, 2:47 AM] Dr. Arun Rathi, Akola: 

*अग्नि निरुक्ती:*
                                                                                                                           *गतौ धातु से ( गतिसुचक ).                                                                            ऊर्ध्वगति - to Sublimate.   
                         
 # अंगति ऊर्ध्वगच्छति इति अग्निं ।                                                                              
# अंगति व्याप्नोति इति अग्निं।                                     
शरीर में विजातीय आहारद्रव्यों को सजातिय बनाने के लिए निरन्तर ( जन्म से मृत्यु तक ) कार्य जिस तत्व व्दारा किया जाता है, उसे अग्नि कहते है।*
                                                                              *आमाशय:*
                                                   *नाभिस्तनान्तरं जन्तोरामाशय इति स्मृतः।                                                                 अशितं खादितं पीतं लीडं चात्र विपच्यते।*                                  
 च. वि. अ. ३ /१७.   
                                         *नाभि एवं व्दय स्तन मध्ये इस प्रदेश (Surface Anatomy ) मे आनेवाले सभी अवयव यह आमाशय के अन्तर्गत आते है ।*

*Ayurvedic Physiolgy of Digestion and Metabolism. :*                                                               
                                                                अन्नमादानकर्मा तु प्राणः कोष्ठ प्रकर्षति ।                                                              तदद्रवैर्भिन्नसंधातं स्नेहेन मृदुतां गतम् ।।                                                                 समानेनावधूतो अग्नि उदर्यः पवनोद्वहः ।                                                                      
 काले भुक्तं समं सम्यक पचत्यायुर्विवृद्धये ।।                                                                                                  च.चि 15 / 6 -7 .                                                                      *मधुरावस्थापाक*:                                     अन्नस्य भुक्तमात्रस्य षडरसस्य प्रपाकतः ।                                                        मधुराद्यात कफो भावात् फेनभुतं उदीर्यते ।।                                                                                                                                                                                                           *अम्लावस्थापाक* :                           परं तु पच्यमानस्य विदग्धस्याम्लभावतः ।                                                     आशयाच्च्यवमानस्य पित्तमच्छमुदीर्यते ।                                                                                                                  *कटुावस्थापाक* :                                                                                                   पक्वाशयं तु प्राप्तस्य शोष्यमाणस्य वहि्नना ।                                                          परिपिण्डितपक्वस्य वायुः स्यात कटुभावतः।।                                                                                                                                                           च.चि. 15 / 9 -11.       *Significance of Digestion and Metabolism in Mahasrotras  :       

   1). In Mahasrotas due to action of Jatharagni and Bhutagni the food in Vijatiya form for Body is converted into nearly Sajatiya form ( prehomologues).    
     2). In Madhurabhava Paka, which takes place in Urdhav Amashaya ( main site of Kapha) due to bhinna sanghatam( break down ) of food articles by the  mouth , teeth, oesophahus, stomach and their secrections, POSHAKHA KAPHA is increased, due to this poshana of KAPHA takes place. Similarly in Amlabhava Paka which takes place in Adhoamashaya ( main site of Pitta)  POSHAKHA PITTA is increased, due to this Poshana of Pitta takes place. In Katubhava paka which takes place in Pakwashaya ( main site of Vayu) POSHAKHA VAYU is increased, due to this Poshana of Vayu takes place.                                     3). Stimulation of Jatharagni activates Bhutagnis,  which activates and separates all the Bhautic constituents present in the food articles, thus they are made Sajatiya for Body Tissue from the state  of Vijatiya. (Homologus from Hetrologus).                                                 4). The absorption of Annarasa takes place near by Adhoamashaya and Pakwashaya which contents both Prasadhakhya and Malakhya Dhatus, which are necessary for the Poshana of Dhatus and Malas.                                                                                     5). In Mahasrotas itself Poshana of Annakittas i.e. Purisha and Mutra takes place and the resedue of Mahasrotas are excreted at proper time.*
                                                                                                                                                                 *Digestion And Metabolism at Tissue Level in Ayurveda i.e.*

*धातु अग्नि पाक परम्परा*
                                                                        *विविधम शितं पितं लीठं खादितमं  जन्तोर्हितमन्तराग्निसन्धुक्षितबलेन, यथा स्वेमोष्मणा सम्यग् विपच्यमानं कालवदनवस्थित सर्वधातुपाकमनुपहत, सर्वधातुऊष्मारुत स्त्रोतः केवलं शरीरम्उपचयबलवर्णसुखायुषायोजति, शरीरधातुनउर्ज्यतिच ।                                                                                                                                                                     धातवो हि धात्वाहार  प्रकृतिम अनुवर्तन्ते*।। च.सू. 28/3.
                                                                                                                                *Here again for धातुअग्नि व्यापार , Four factors are responsible ,these are 1). अन्न रस .                                                                                                       2). व्यान वायु.                                                          3). धातुवह स्त्रोतस .                                            4). धातुअग्नि.                                                     If these above four factors are in प्राकृतावस्था then and only then सम्यक पोषण and वर्धन of these धातू , उपधातु , धातुमल takes place.*

*सप्तभिर्देहधातारोधातवो द्विविधंपुनः।*                                                    *यथा स्वमग्निभिः पाकंयान्तिकिट्टप्रसादवत्।।*
च.चि.15 / 15.
                                                                     *आमोत्पत्ति होने पर उपरोक्त सामान्य अग्नि व्यापार मे विकृति उत्पन्न होती है। आम उत्पत्ती होने पर शरीरार्न्तगत अवस्थापाक, विपाक से शुरु होकर धातुपोषण तक मे विकृति उत्पन्न होती है ।अवस्थापाक मे विकृति होने से शरीरस्थ दोषों का पोषण सम्यक नही होता है और दोषों मे विकृति उत्पन्न होती है।*
अग्नि कार्य यह सुचारु रुप से न होने के कारण विपाक मे भी विकृति उत्पन्न होगी। सामान्यतः मधुर एवं लवण रस प्रधान द्रव्यों का विपाक मधुर, अम्ल रस प्रधान द्रव्यों का विपाक अम्ल और कटु,तिक्त,कषाय रस प्रधान द्रव्यों का विपाक कटु होता है। आमावस्था मे इन द्रव्यों का विपाक क्या होगा यह कहा नही जा सकता है। ऋतु, देश,काल, रुग्ण की प्रकृति, वय ,उसकी आहारविहार परिचर्या आदि पर निर्भर होगा एवं आम यह जिस अवयव,आशय,स्त्रोतस् और धातु मे जाकर विकृति उत्पन्न कर, जो सम्प्राप्ति होगी,उसी अनुसार आम के लक्षण उत्पन्न होगे।                                   आमवात, वातरक्त, ग्रहणी, प्रायः सभी त्वचाविकार, प्रमेह,उदर आदि रोगों मे आमोत्पत्ति यह मुख्य कारण होता हैं।

अग्निकार्य दुष्टी is always their in *आम उत्पत्ति.*
*but these Disorders can never be only due to अग्नि दुष्टी।*                                                                                 *So in Systemic Disorders such as Metabolic Disorders वातदुष्टी is always there. In t/t वात चिकित्सा और अग्नि चिकित्सा i.e. धातुअग्नि चिकित्सा should be kept in mind.*

*आयुर्वेदिय दुष्टीकोण से किसी भी व्याधी को समझने के लिए एवं उसकी चिकित्सा करने के लिए रोगमार्ग, स्रोतस, दोषदूष्यसंमूर्च्छणा आदि निदानपंचक का ज्ञान होना ज़रूरी है | उसी तरह विकारावस्था के पूर्व प्राकृतावस्था का ज्ञान आवश्यक है ।*                                         
                                                    *प्रकृतिज्ञानानन्तरत्वाद् विकृतज्ञानस्य ।*                                                                                                   चरक.चि.15 / 3 से 14 पर चक्रपाणि.                                                      *" Medicine Is What Physiology Makes It "*                                               
आयुर्वेद क्रियाशारीर का प्राध्यापक होने से अधिकार से कह सकता हूँ ,की Applied Aspect Of Physiology का 80 - 90 प्रतिशत तक वर्णन यह चरक चिकित्सा स्थान के अध्याय -15 ग्रहणीदोष चिकित्साध्याय
और अध्याय - 28 वातव्याधी चिकित्साध्याय मे मिलता है |                                  ग्रहणीदोष अध्याय मे अग्निकार्य, अग्निदुष्टी, अाहरपचन, अवस्थापाक, विपाक, अन्नरस निर्माण, जठाराग्नि, भुताग्नि, धात्वाग्नि व्यापार, धातु उत्पत्ती, धातु पोषण, ओज उत्पत्ती का वर्णन मिलता है |
वातव्याधी अध्याय मे वायु प्रकार, दोषधातुगत वात लक्षण और वात आवरण लक्षण एवं वात व्याधी वर्णन यही मिलते है |
 यह दोनो अध्याय रोग सम्प्राप्ति समझने के लिए और उसकी चिकित्सा करने के लिए पढना आवश्यक है |                                                  *Here only we can get the Applied Aspects.*

[10/26, 2:49 AM] Dr. Arun Rathi, Akola:

 *धातुपोषण न्याय*:                                                  आयुर्वेद का यह सर्वमान्य स्वतन्त्र सिध्दांत है कि रसरक्तादि धातुऔ मे एक विशेष आनुपुर्वी  क्रम है। सर्वप्रथम आहार रस से रस धातु की पुष्टि होगी,तदनन्तर ही उत्तर उत्तर धातु, शेष आहार रस से अपनी अपनी पुष्टि के लिए पोषकांश ग्रहण करते हैं ।                                                                     इस विषय मे भी सभी आचार्य एकमत है, कि आहार रस व्दारा प्रत्येक धातु कि पुष्टि अपने अपने अग्नि की साहयता से होती है। रोगो के विचार से भी इस क्रम को मान्य किया गया है । यथा कहा गया है कि, उपेक्षा अथवा मिथ्या उपचार से रोग असाध्य हो जाता है । क्योंकि रोग कालक्रम से उत्तर उत्तर धातु मे प्रविष्ट होता जाता है । यह प्रत्यक्ष दुष्ट है ।                                                 
                                                                            1. *क्रमपरिणामपक्ष*/ *सर्वात्मपरिणाम पक्ष/ क्षीरदधिन्याय.( Transformation Principle*).                                                         # *रसाद्रक्तं ततो मांस मासन्मेदस्तोअस्थिच*।                                                                         *अस्थनो मज्जा ततः शुक्रं शुक्रात गर्भ प्रसादजः*।। च.चि. १५/१६.                                              उपरोक्त श्लोक को आधार मान कर इस न्याय व्दारा यह सिध्द करने का प्रयास किया गया है कि धातु पुष्टि यह एक क्रम से होती है । इस न्याय का समर्थन करते हुए ,डल्हणाचार्य ने विशेष विश्लेषण किया है ।                                                                                                                     
2. *केदारीकुल्या न्यायपक्ष* :     *Transmission /Transportation।   Principle*.                                           # *व्यानेन रसधातुर्हि विक्षेपोचितकर्मणा*।                             *युगपत् सर्वतोअजस्त्रं देहे विक्षिपते सदा*।। च.चि.१५/ ३६.                                         उपरोक्त श्लोक को आधार मानकर इस पक्ष व्दारा दो बिन्दुओं पर  विशेष बल दिया गया है ।                                                                    १. पोषकांश का संवहन करनेवाला प्रमुख स्त्रोत एक ही हैै। हाँ पर धातुऔ के स्त्रोतस उत्तर उत्तर लंबाई मे बढते है और उनकी चौडाई यह सुक्ष्म सुक्ष्म होती जाती है।                                                                                 २. धातु पोषण मे लगनेवाला समय यह  उत्तर उत्तर धातु के लिए बढता जायेगा ।                                                                       

 3. *खलेकपोत न्याय पक्ष : Selective Principle*.                                                       # *यथा स्वेनोष्मणा पाकं शारीरा यान्ति धातवः*।                                                                                *स्त्रोतसां च यथा स्वेनधातुः पुष्यन्ति धातुतः*।। च.चि.८/३९.                                                                                उपरोक्त श्लोक को आधार मानकर इस पक्ष व्दारा तिन बिन्दुओं पर विशेष बल दिया गया है।                                                           १. आहार रस को खल की उपमा देकर पोषकांश का अधिष्ठान माना गया है ।                                                        २. धातुओ को कपोत की उपमा देकर,उन्हें यह स्वतन्त्रता प्रदान कि गई है, की वे अपने इच्छा, आवश्यकता एवं संगठन अनुसार स्वस्त्रोतस, स्वाग्नि से अपना पोषण कर सके। यहां पर एक धातु के पोषक रस का अन्य धातु के पोषक रस के साथ सम्बन्ध नही होता है।                                                                 ३. इस पक्ष व्दारा यह भी सिध्द होता है कि प्रत्येक धातु के पोषण को लगनेवाला समय यह अलग अलग होगा ।                                                                     
4. *एक काल धातुपोषण पक्ष : Dynamic Principle*.                                                                                           यह पक्ष आचार्य अरुण दत्त ने *अ.ह.शा.३/६२*पर अपनी व्याख्या एवं टिका के समय प्रस्तुत किया है । उन्होंने यह पक्ष धातुपोषण क्रम के सम्बंध मे जहाँ तक समय की भिन्नता का प्रश्न है , उसका निराकरण करने के लिए प्रस्तुत किया है, उनके अनुसार सभी धातुऔ का पोषण एक समय मे ही होता है । पर अन्याचार्यो ने इसे अमान्य किया है, क्योंकि धातुपोषण यह आहार रस की गुणवत्ता, धातु अग्नि बल , धातुवह स्त्रोतस की अवस्था एवं व्यान वायु के कार्य पर निर्भर करता है । यहाँ पर , आहार रस सभी धातुवह स्त्रोतस मे एक समय पर पहुचेगा पर अलग अलग धातुऔ के पोषण मे लगनेवाला समय यह निश्चित ही अलग अलग होगा।

[10/26, 2:54 AM] Dr. Arun Rathi, Akola:

 *आयुर्वेद मे दोष, धातु, मल की निरुक्ति एवम उनका अर्थ* :                                                     
*दोष निरुक्ति एवं व्याख्या* :                                                                 प्रकृत्यारम्भकत्वे सति दुष्टिकर्त्तत्वं दोषत्वम् ।                                         चक्रपाणि. च. सु. 1/57.                                 जो प्रकृति का निर्माण करते हो और स्वयं दुषित होने पर शरीर को दुषित करते हैं, उन्हे दोष कहा जाता है ।.                                                Those who are responsible for the formation of Prakriti ( प्रकृति ) and vitiate ( दुषित करना ) the other substances after getting themselves vitiated.                                                         
                                                            *धातु निरुक्ति एवं व्याख्या*:                                                   दधाति-धत्ते वा शरीरः मन प्राणान् इति धातुः।                                                                           दधाति-धारयति शरीरसंवर्धकान् इति धातुः।.                                                                                      सिध्दांत कोमुदीनी.                                                                            जो शरीर का पोषण कर वर्धन करे और शरीर, मन, प्राण का धारण करे उन्हें धातु कहा जाता है।                                                                       The one who promotes the nourishment and growth of the Body (शरीर) and also supports Body (शरीर), Mind (मन) and Life (प्राणा) is Dhatu.                                                               
*मल निरुक्ति एवं व्याख्या* :                                                             मुज्यते शोध्यते अनने इति मलः ।.                                                                    शब्दस्त्रोम् महानिधिः.                                                                                                                                                                                                 शरीर के स्वस्थावस्था मे निसर्गतः शरीर से बाहर निकलते है और शरीर का शोधन करते है, उन्हें मल कहा जाता है।                                                                                                                                                        Those which are being themselves Waste Products and Purifies the Body after getting itself Excreted.                                                                                           
यही इनकी, दोष, धातु और मल की व्याख्या होती है , अपितु शास्त्रो मे कई स्थलो पर ऐसे व्यापकार्थवाची प्रयोग मिलेगे, जैसे....                                                                                                                                                                                             
                                                                                                                     शरीर दुषणात् दोषाः घातवो देहधारणात।                                                 वातपित्तकफःज्ञेयाः मलिनीकरणात् मलाः।।.                                                                                                     शार्इ्गंधर.                                                                            यहाँ शार्इ्गंधर कहना चाहते है,  दोष यह दुषित होने पर शरीर को दुषित करते हैं, दोष साम्यावस्था में शरीर का धारण करते हैं और दोष मलिन होने पर शरीर को मलिन करते है।                                                                     परन्तु इन शब्दों का सीमित एवं निश्चित वस्तुपरक प्रयोग ही अधिकतर मिलेगा और व्यवहार में भी इनका निश्चित एवं सीमित अर्थ ग्राह्य है।                                                                                    दुषणात दोषः, धारणात धातु, और मलिनीकरणात् मलः यह व्याख्याये अतिव्याप्ती दोष से युक्त है। इन परिभाषाऔ से तिनो (दोष, धातु, मल) भी हमे एक दुसरे जैसे कार्य करते दिखेगे। इसीलिए ये इनकी उचित एवं सही निरुक्ति एवं व्याख्या नही है। उपरोक्त सर्वप्रथम मे लिखीत व्याख्या ही सही है जो शास्त्र संमत है।                                                                                                                                                                                                                                                  तदनुसार दोष से शारीरिक तीन दोष एवं मानसिक दो दोष, धातुओं से रसरक्तादि सप्तधातुये तथा मलो से मल, मूत्र, स्वेदादि मल गृहीत होते है।                                                    ये तिनो शरीर के मूल अर्थात आधार है। इनकी साम्यावस्था स्वास्थ्य का आधार है। इनकी विषमावस्था रोग का आधार है। अतः कहा गया है..........                                 *दोषधातुमलमूलं हि शरीरम*।।.

[10/26, 6:07 AM] Dr. Mansukh Mangukia: 

धात्वाग्नि tissue level पर कर्म करता है , भौतिकाग्नि किस level पर कर्म करता है ??

[10/26, 7:36 AM] Prof. Surendra A. Soni:

 नमो नमः आचार्य अरूण राठी जी ।
विस्तृत वर्णन के लिए हार्दिक आभार ।
🙏🌹👌🏻🙏😌

[10/26, 7:40 AM] Dr. Arun Rathi, Akola: 

शरीर विजातीय तत्व को शरीर सजातीय करना यह अग्नि का कार्य है । शरीर सजातीय द्रव्य पर अग्नि का कार्य कम होता है।
भूताग्नि का कार्य यह  *महास्त्रोतस (Alimentary canal) and घातुवहस्त्रोतस (Tissue Level) दोनों जगह होता है।*

[10/26, 7:42 AM] Dr. Arun Rathi, Akola: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/26, 7:46 AM] Prof. Surendra A. Soni:

 मॉडर्न आई वी लाइन से दी जाने वाली ओषधियाँ पहले से ही संघात भिन्न होती हैं जिन्हें जाठराग्नि की जरूरत नहीं होती है ? क्योंकि वे आहार द्रव्यरूप नहीं होती हैं ?

🙏🌹

[10/26, 7:47 AM] Prof. Surendra A. Soni: 🙏🌹

[10/26, 7:52 AM] Dr. Arun Rathi, Akola:

 *घातु अग्नि यह कायाग्नि के ही अंश होते है।*
[10/26, 8:14 AM] Prof. Surendra A. Soni: 🙏🌹

[10/26, 8:19 AM] Prof MB Gururaja: 👍🏻👌🏻🙏🏻

[10/26, 8:38 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*बहुत अच्छा कार्य डॉ राठी जी, इस ग्रुप के अनेक सदस्य जो BAMS है उन्हे इस आधारभूत ज्ञान की परम आवश्यकता है, क्योंकि उन्हे इस प्रकार सूक्ष्मता से पढ़ाया ही नही गया या उन्होने इस प्रकार से पढ़ाने पर समझा ही नही, आयुर्वेद चिकित्सा के लिये इसके मूल भूत सिद्धानों का पूर्ण ज्ञान आवश्यक है।*

                  🌹🌺💐

[10/26, 8:43 AM] Dr Ashwini Kumar Sood, Ambala: 

Dr. Arun ji !

Time devoted श्रेष्ठ explanation 👍🏽

[10/26, 9:51 AM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG:

 *धातुस्नेहपरम्परा* से चर्चा शुरू हो कर हम दूर तक पहुंच चुके हैं।
पर *धातुस्नेहपरम्परा* का मुख्य हेतु क्या है?
इस पर चर्चा होती तो शायद *प्रतिलोम* या
*Reverse nutrition* (साक्षात् पोषण यह अर्थ ना लें)
कैसे संभव है ? 

इसका उत्तर निश्र्चित प्राप्त होगा।

[10/26, 9:56 AM] Prof Giriraj Sharma:

 नमस्कार आचार्य,,,,
एक विषय पर चर्चा होने से ही कुछ निष्कर्ष तक पहुच पाएंगे ।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/26, 10:21 AM] Prof Giriraj Sharma:

 गर्भस्य ,,,,,
खलु रसनिमित्ता  मारुताध्यमान निमित्ता च परिवृद्धिर्भवति । सु शा

 1.रसनिमित्ता (आहार रस जन्य पोषण) आपः क्लेदयन्ति
Regarding to Matrix

उपस्नेह उपस्वेद काल स्वभाव (चरक शा)

2. मारुताध्यमान निमित्ता च

आकाश विवर्ध्यति विवर्धित 
Increase the space within the cells & between the cells
वायु  विभजति 
Cell division (regarding  number of cells)


पोषण के परिपेक्ष्य में धातुस्नेहपरम्परा को  समझने के लिए अन्यान्याप्रविष्ठानि सिद्धान्त से प्रारम्भ करके
परस्परोपकारात *परस्परोपस्नेहात* परस्परानुप्रवेशाच्य एवं तक की प्रक्रिया का समझने की नितांत जरूर है जिन्हें धातु पोषण न्याय सम्मत जान पाए ।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/26, 10:22 AM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻
*धातूष्मणां चापचयाद्राजयक्ष्मा प्रवर्तते*
👆🏻 धातु पोषण का एक महत्त्वपूर्ण घटक।
यथा,
*स्रोतसां सन्निरोधाच्च रक्तादीनां च संक्षयात*


*तत्र रसाददीनां शुक्रान्तानां धातूनां यत् परं तेजस्तत्*

*तथैवौजोऽपि कृत्स्नधातुस्नेह इत्यर्थ*

*तन्त्रान्तरे तु ओज: शब्देन रसोऽप्युच्यते, जीवशोणितमप्योज:शब्देनामनन्ति केचित, उष्माणमप्योज:शब्देनापरे वदन्ति*

*देह: सावयवस्तेन व्याप्तो भवति देहिनाम्।*
*तदभावाच्च शीर्यन्ते शरीरिणाम्।*
इससे मांस की भी वृद्धि होती है।
*तत्र बलेन स्थिरोपचितमांसता*

इसी को आचार्य डल्हण ने *धातुस्नहपरम्परा हेतु कहा है*
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
भिन्न मत का स्वागत है।

[10/26, 10:24 AM] Prof Giriraj Sharma: 🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼

[10/26, 10:28 AM] Prof Giriraj Sharma: 

रसनिमिता को सर्वधातु  रचनात्मक इकाई
मारुत आध्यमान से अग्नि सोम वायु क्रियात्मक इकाई
इनके परस्पर अंशांश संयोग विभाग परिणाम को *धातुस्नेहपरम्परा* माना जा सकता है ।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/26, 11:02 AM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 

डल्हण सु सू १५/२३ पर,
*धातुग्रहणमिति धातवो गृह्यन्ते यैस्तानि धातुग्रहणानि धातुवाहीनि स्रोतांसि तेभ्यो नि:सृतं निर्गतं सर्वधातुस्नेहपरम्परारुपेण*
आगे अथवा कहकर दुसरे अर्थ भी दीये है।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/26, 11:07 AM] Prof Giriraj Sharma:

 १.आचार्य क्या एक धातु परस्पर अनुगम्य है
2.उत्तरोत्तर एवं पूर्वोत्तर धातुओ में अनुगम्यता है या सर्व धातु अनुगम्यता,,,

🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/26, 11:30 AM] Prof. Surendra A. Soni: 

आहार का शरीर सजातीय गुणों में परिवर्तन तदनुरूप विभिन्न धातुओं की निर्मिति
पांचभौतिक संगठन अनुरूप धातुओं में विभिन्न गुणों का आधान
अनशन/वैकारिक स्थिति में धातुस्थ गुणों का विभिन्न धातुओं के गुणों के रूप में यथावश्यक क्रियात्मक आदान प्रदान या आवागमन स्वाभाविक रूप से अनुमानगम्य है ।

🙏🌹

[10/26, 11:38 AM] Prof. Surendra A. Soni: 

नमो नमः आचार्य सञ्जय जी ।

🙏🌹

[10/26, 11:50 AM] Prof. Surendra A. Soni: 

सर्वाङ्गसुन्दरा:-धातूनां स्नेहः-सारो धातुस्नेहः। आहाररसस्य धात्वात्मनापरिणमतो यथायथं धात्वग्निभिः पच्यमानस्य क्षीरस्येव शृतस्य सारः-तथापाकवशाद्धातूनां यथोत्तरं यथारूपः स्नेहो जायते, तस्य धातुस्नेहस्य परम्परा-आहाररसाप्यायिता याऽव्युच्छिन्नप्रबन्ध प्रवृत्ततया विशिष्टैव यथोत्तरं धातुस्नेहोत्कर्षक्रमपरिणतिः सा धातुस्नेह परम्परा, परस्परमुपसंस्तम्भात्-उपसंश्लेषात्, जायते। 
*अत एव शोणितप्रभृतीनां धातूनामुत्तरोत्तरं गौरवं यथोत्तरं स्नेहोत्कर्षः।*

Arun dutta on A.H.Sha. 3/65

🙏🌹

[10/26, 11:55 AM] Prof Giriraj Sharma: 🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/26, 11:56 AM] Prof Giriraj Sharma: *उत्तरोत्तर*

[10/26, 12:01 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

प्राकृत अवस्था में उत्तरोत्तर अनशन/वैकारिक स्थिति में परस्परोपस्तम्भ जिसकी चर्चा की जा रही है । धातुस्नेहपरम्परा धातुबल ही वस्तुतः प्राकृत बल है जो व्याधि क्षमत्व भी कहलाता है और जिसके ज्ञानार्थ दशविध आतुर परीक्षा का उपदेश किया गया है ।

🌹🌹🌹🙏🌹🌹🌹

[10/26, 12:14 PM] Dr. Satish Jaimini Choumu, Jaipur: 

अरुण जी आपने तो सब सार ही निकाल दिया अब कुछ बचा ही नही बहुत अच्छा

[10/26, 12:21 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

यह प्रासंगिक है अत्यावश्यक है और अपरिहार्य भी, इसकी चर्चा में प्रकरण कि पूर्णता भी निहित है
साधु साधु 👏👏👏👏

[10/26, 12:22 PM] Dr. Arun Rathi, Akola: Thanks Dear.😊😊😊

[10/26, 12:25 PM] Dr. Arun Rathi, Akola:

 *गुरुवर प्रणाम।*
*आपका स्नेह पढने लिखने को प्रेरणा देता है।*
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/26, 12:27 PM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻
*धातुर्हि धारणपोषणयोगाद्भवति ओजस्तु देहधारकमपि न देहपोषकं तेन नाष्टमो धातुरोज।*
साक्षात पोषणात्मक अनुगम्यता सिद्धि में कठिनाई है।
इतर धातु धारण अनुगम्यता में सिद्धि हो सकति है।
ये सभी धातु परस्पर अनुगम्य है।
👇🏻
च सू २८/३ पर
*यदा हि एकोऽपि धातुपाचकोऽग्निरुपहत: मारुतो वा धातुपोषकरसवाही व्यानरुप: क्वचिदुपहतो भवति तथा स्रोतो वा धातुपोषकरसवहमुपहतं स्यात् तदा अशितादिकं धातूनामवर्धत्वान्नोपचयादिकारकारकमिती भाव:*

अब इस धातुस्नेह अनुगम्यता का क्रम क्या हो सकता है?
१. *केचित्तु शुक्रविशेषमोज: प्राहु:*
चक्रपाणि च सू ३०/६-७ पर
२. *आहारस्य परं धाम शुक्रं तद्रक्ष्यमात्मन: । क्षयो ह्यस्य बहून् रोगान्मरणं वा नियच्छति।* च नि ६/९
*परं धाम इति उत्कृष्ट सारम् उत्कृष्टत्वं च शुक्रस्यातिप्रसादरूपत्वात्।एतच्च शोषकारणेषु क्षयेषु केवलशुक्रक्षयोपसंहरणं प्राधान्यात् नान्यशोषहेत्वभावादितिबोद्धव्यम्।रूक्षाद्यन्नपानसेवाजनितो रक्तादिक्षयोऽपि राजयक्ष्मकारणत्वेनोक्त।*
तथा
*व्यवायानशनाभ्या च शुक्रमोजश्च हीयते।च चि ८/२४*
👆🏻
धातुस्नेह परम्परा परस्पर अनुगम्य होते हुए भी प्राय: या प्राधान्यात् पूर्वोत्तर धातुओं में अनुगम्यता *श्रृंगग्राहिकतया* से कहीं गई है।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

भिन्न मत का स्वागत है।

[10/26, 12:29 PM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/26, 12:30 PM] Prof Giriraj Sharma:

बहुत ही बेहतरीन
धन्यवाद आचार्य
🙏🏼🙏🏼🙏🏼👏🏻🌹👏🏻🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/26, 12:32 PM] Prof Giriraj Sharma: प्रणाम।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/26, 12:35 PM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻
ये परम्परा धातु धारणार्थ है प्रतिलोम है तथा पोषणार्थ अनुलोम या उत्तरोत्तर है जो सोनी जी बता चुके हैं।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/26, 1:41 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

नमो नमः आचार्य सञ्जय जी ।

🙏🌹

धात्वन्तर धातु आदान प्रदान /आवागमन /संचरण का एक उदाहरण । परस्परोपस्तम्भ में ग्राह्य हो सकेगा आचार्य ? हालांकि यहॉ मात्र द्रव गुण का ही संचरण है ।
👇
तस्योष्मणा द्रवो धातुर्धातोर्धातोः प्रसिच्यते ।

[10/26, 2:45 PM] Dr. R S. Soni, Delhi:

 एक विचार

धातु पोषण क्रम में यदि हम धातु को स्थूल स्वरूप में ग्रहण करते हैं तो फिर प्रतिलोम पोषण के बारे में शंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है।

यदि हम इस प्रकरण में अग्नि व्यापार द्वारा धातुओं के सूक्ष्म अंश को ग्रहण करें तो समस्या का समाधान थोड़ा सरल प्रतीत होता है।

ग्लूकोस से ग्लाइकोजन बनाना अनुलोम पोषण और पुनः आवश्यकता (अनशन आदि के समय) पड़ने पर ग्लाइकोजन से ग्लूकोज निर्माण को प्रतिलोम पोषण का उदाहरण समझा जा सकता है।🤔🙏🌹

[10/26, 3:19 PM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG:

 *तस्योष्मणा द्रवो धातुर्धातोर्धातो: प्रसिच्यते*
जल्पकल्पतरु
*सर्वधातुत: सिक्तेन द्रवेणांशेन मिलित्वा भूयोऽधिकं*
👆🏻
द्रवअंश का आधिक्य है। अतः धातु स्थित उष्मा पचनादिक्रिया नहीं कर पायेगा।तथा
यह *धातूनां यत् परं तेजस्तत्* इस व्याख्या पर/ कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा।
क्योंकि 👇🏻
*ततश्च त्यक्तद्रवस्वभावं---- लब्धाग्निशब्दं पित्तमन्नं पचति*
द्रवत्व त्यागने पर ही धातोष्मा काम करेगा।
इसीलिए तिक्त रस शीत वीर्य होते हुए भी पाचनादी कर्म करता है।
दोषधातु का संयोग जरूर है। यथा,
*दोषधातुमलसन्निपातजनितोऽन्तरुष्मा*
पर द्रव गुण के आधिक्य से धातु गत उष्मा न तो धातु निर्माण कर सकता है और न ही परं तेज या फिर बल/ओजादी व्याख्या को प्राप्त नहीं हो सकता।
अतः वह उत्तरोत्तर धातुओं की वृद्धि भी नहीं कर सकता तथा पूर्वोत्तर धातुओं को बल भी नहीं दे सकेगा।
अतः यह उदाहरण परस्परोपसतम्भ में ग्राह्य नहीं हो सकता।
भिन्न मत का स्वागत है।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/26, 3:30 PM] Prof S. K. khandal Sb:

 Surendra soniji
Arun rathiji
S N Lungareji
Proud of you all for this beautiful presentation i think it is better than we taught and students learn in apex institutes
Really admirable pl contribute continue
Otherwise the understanding is not possible of these basic
Principles.

[10/26, 3:34 PM] Prof MB Gururaja: ✅⭐⭐⭐⭐⭐

[10/26, 3:40 PM] Dr Shashi Jindal: 🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼💐💐💐💐

[10/26, 3:42 PM] D C Katoch Sir:

 Fully endorse your observation and recommendation to the group members. 👏🏼

[10/26, 3:49 PM] D C Katoch Sir: 

Tele-lectures for Ayurveda students should be arranged by Kayasampradaye.😌

[10/26, 5:14 PM] Dr. Satish Jaimini Choumu, Jaipur: 

अभी तक आहार पाचन धातु निर्माण चयापचय पर चर्चा खूबसूरत रही परस्पर उपस्तंभ का मेरी समझ से त्रय उपस्तंभ की तरह एक दूसरे के लिए आवश्यक सहयोगी है एक दूसरे को बनाये रखने म मददगार हैं अनुलोम प्रतिलोम के सिद्धांत को इस संदर्भ में किसी भी व्याख्याकारने ज्यादा स्पस्ट नही किया  मैं अल्पमति हूँ लेकिन परस्पर उपस्तम्भ की अवस्था दैनिक चयापचयी क्रियाओँ का ओर व्यधिग्रस्त जीर्ण रोगियों के यापन की अवस्था मे प्राण धारण करने मे सहयोग  ही उपस्तम्भ है जो आहारविहार विचार स्वप्न व्यायाम व्यवाय सभी कारको की अपेक्षा रखता है ऐसामेरा विचार है बाकी तो विद्वज्जनों द्वारा विमर्शनीय है

[10/26, 6:10 PM] Prof Giriraj Sharma: Psychological effects

[10/26, 6:16 PM] Dr. Arun Rathi, Akola:

 *खाण्डलगुरुवर प्रणाम।*
*आपके आर्शिवचन यह दिपावली की सर्वोत्तम भेट है।*
😊😊😊🌹🌹🌹😊😊😊

[10/26, 6:16 PM] Dr. Arun Rathi, Akola: 

धातुओं की क्रम विशेष से पुष्टि और प्रत्येक धातु पुष्टि में निज निज अग्नि के कारण तथा इन दोनों तथ्यों में चरक एवं सुश्रुत पर टीका लिखने वाले आचार्यों में सम्मति होते हुए भी विस्तार में कुछ विमति भी है।
*इस विमति के कारण है आचार्य द्वारा कहे गए धातु पोषण न्याय।*

*आचार्य चक्रपाणि ने चरक सूत्र.आ.24 / 8* एवं *चरक चिकित्सा स्थान 15 /16 - 17* पर आयुर्वेद दीपिका व्याख्या में और *डल्हणाचार्य ने सुश्रुत सूत्र. आ.14 /10* पर निबंध संग्रह व्याख्या में तीन घातुपोषण न्याय का विश्लेषण एवं निरूपण किया है।
आचार्य चक्रपाणि ने इन तीनों न्यायों का विश्लेषण तो विशेष रूप से किया है किंतु उनकी ग्राह्यता के संबंध में स्वयं कुछ निर्णय नहीं कर सके।
 एक स्थल पर तो उन्होंने *क्षिरदधिन्याय को अग्राह्य बताएं तथा केदारि कुल्या एवं खलेकपोत न्याय को महाजनोपगीत कहा है। एवं स्वयं ने केदारिकुल्या न्याय* में सहमति दर्शाई है।
अन्यत्र *खलेकपोत न्याय को दुर्घट बताया गया है और केदारी कुल्या और क्षिरदधि न्याय संगत* कहां है ।
इससे यह प्रतीत होता है कि आचार्य चक्रपाणि स्वयं इस विषय में निर्णय नहीं कर सके ।
*इसका समाधान इस तरह कर सकते हैं की इन तीनों धातु पोषण न्याय (पक्ष) द्वारा आवश्यकता अनुसार धातुओं का पोषण होता है ।*

*धातु पोषण में धातुवह स्त्रोतस भी एक मुख्य घटक है।*
*शरीरस्थ सभी स्त्रोतस, धमनीया, सिराये यह मुख्यतः मांस धातु से निर्मित एवं मांस आश्रित ही होते हैं।*
*सभी धातुवह स्त्रोतस करीब-करीब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।*
*स्त्रोतस यह परिणाम को प्राप्त होने वाले धातुओं का वहन करते हैं मतलब अस्थाई धातुओं का या पोषकांश का।*

*कला विचार :*

*कला निरुक्ति :*

*कला अंशः।*
*कलमप्यकृत परिलम्बः।*

*धातु आदि के जलयुक्त अंशों का जिसके द्वारा धारण किया जाता है उसे कला कहा जाता है।*
*विभिन्न धातुओं की कला एवं स्रोतसो का एक दूसरे से आश्रयाश्रयी भाव है।*

*1). सिरा, धमनी, स्त्रोतस की शाखा प्रशाखाए मांसधरा कला में रहती है।*

*2. रक्तधरा कला यह मांस धातु में आश्रित होती है।*

*3). मेदोधरा कला का आश्रय अणु अस्थि,स्थुलास्थि, मांसगत स्नेह, वसा* और अष्टांग संग्रह अनुसार *तदेव च शिरसी कपालप्रतिच्छन्नं मस्तिष्कांख्यां मस्तूलुंङ्ग।ख्यं ।*

*4) आहार रस, रसधातु और पुरिषधरा कला का संबंध भी सिद्ध है।*

*5). मज्जाधरा कला और पित्तधरा कला का संबंध है।*

*6). शुक्रधरा कला यह सर्व शरीर व्यापी है।*

*इस तरह से धातुवह स्त्रोतस, धातुधरा कला और आहार रस (पोषक रस) का एक दूसरे धातुओं से आश्रयाश्रयी संबंध होने के कारण धातु पोषण यह अनुलोम और प्रतिलोम दोनों गति से संभव है।*

*इसे चाहे तो आप धातुस्नेहपरम्परा या परस्परोपस्तम्भ कह लिजीये।*

[10/26, 6:19 PM] Prof Giriraj Sharma: 

आचार्य
स्रोतस सिरा धमनी मांस से निर्मित है आयुर्वेद  अंग अवयव सिद्धान्त के अनुरूप उचित प्रतीत नही हो रहा है ।

[10/26, 6:20 PM] Dr Naresh Garg, Jaipur: 

🙏🙏 आचार्य बहुत ही तथ्यात्मक रूप से आपने अग्नि को समझाया है

[10/26, 6:36 PM] Dr. Arun Rathi, Akola: 

*मान्यवर मुख्यतः (आधिक्य ) लिखा है, केवल मांस से नही लिखा है ।*

[10/26, 6:58 PM] Prof. Surendra A. Soni:

 नमो नमः गुरुवर्य ।
आपकी प्रेरणा और आशीर्वाद है, क्योंकि हमें ज्ञात है कि त्रुटि हुई तो गुरुजनों से मार्गदर्शन तो अवश्य ही प्राप्त हो जाएगा, समय समय पर हमें मिलता ही रहा है । आपके आशीर्वचन ऊर्जा प्रदान करते हैं ।

🌹🌹🙏🌹🌹😊🌹🌹

🙏🙏

[10/26, 7:00 PM] Prof. Surendra A. Soni:

 We shall need guidance from you and all other honourable Gurujan.

आदरणीय कटोच सर !
🌹🌹🙏🌹🌹😌


[10/26, 7:37 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

नमो नमः आचार्य श्री अरुण जी ।
आपने अपने विस्तृत वर्णन से धातुओं के परस्परोपस्तम्भ सिद्धान्त को सम्पूर्णत्व प्रदान किया ।
*हमारा समूह आप जैसे क्रियाविद और आ. गिरिराज जी जैसे रचनाविद को प्राप्त कर गौरवान्वित है ।*

कला शारीर पर चिकित्सा में किसी आचार्य ने कोई उल्लेख नहीं किया । 2-3 वर्ष पूर्व मैंने इस विषय पर चर्चा की कोशिश की थी ( पवन सर को याद होगा ) पर कोई चर्चा हो नहीं पाई । अब मुझे लगता है कि यथावसर चर्चा होगी ।

☀✨💫🙏💫✨☀

[10/26, 9:12 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:

 *आयुर्वेद पर इस प्रकार की सैद्धान्तिक गूढ़ चर्चा से सही से हम सभी गौरान्वित हैं, तीनों विद्वानों सहित आप जैसे श्रेष्ठतम विद्वान को भी आशीर्वचन के लिये नमन*

            🙏🌺💐🌹🙏

[10/27, 6:02 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:

 *आयुर्वेद में आपका योगदान सही में आने वाली पीढ़ियों को सहयोग देगा।*

             🙏🙏🙏

[10/28, 11:30 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:

 *विचार शक्ति और इच्छा शक्ति ये दोनो अलग है, ग्रुप के विद्वानों के अन्तर्मन में आयुर्वेद के विभिन्न विषयों को ले कर विचार तो बहुत उत्पन्न होते है पर उसको व्यक्त करने के लिये और लिखने के लिये इच्छा शक्ति का अभाव है, अपने मन की बात को कहें अवश्य।*

*जैसे गंभीर चर्चा पिछले दिनो Dr lungare ji, Dr rathi ji etc. विद्वानो ने की वो ultimate थी , आयुर्वेद में ऐसी ही नव चेतना की आवश्यकता है जो आज समय की आवश्यकता है और संसार को बतायेगी कि आयुर्वेद जैसा विशाल ज्ञान है क्या ?*
*

                🙏🙏🙏

[10/28, 11:40 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:

 *आचार्य गिरिराज जी, प्रो. रमाकान्त शर्मा जी की चर्चा मस्तिष्क पर रेखांकित हो चुकी है, आयुर्वेद के ग्रेजुएट चिकित्सकों को अपने मन के प्रश्न, समस्यायें और जिज्ञासायें यहां जरूर उठानी चाहिये तभी discussion जारी रहता है, इस समय यह ग्रुप आयुर्वेद के श्रेष्ठतम विद्वानों का समुद्र है ।*

[10/28, 2:04 PM] Prof. Surendra A. Soni:

 *तस्योष्मणा द्रवो धातुर्धातोर्धातो: प्रसिच्यते*
जल्पकल्पतरु
*सर्वधातुत: सिक्तेन द्रवेणांशेन मिलित्वा भूयोऽधिकं*
👆🏻
द्रवअंश का आधिक्य है। अतः धातु स्थित उष्मा पचनादिक्रिया नहीं कर पायेगा।तथा
यह *धातूनां यत् परं तेजस्तत्* इस व्याख्या पर/ कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा।
क्योंकि 👇🏻
*ततश्च त्यक्तद्रवस्वभावं---- लब्धाग्निशब्दं पित्तमन्नं पचति*
द्रवत्व त्यागने पर ही धातोष्मा काम करेगा।
इसीलिए तिक्त रस शीत वीर्य होते हुए भी पाचनादी कर्म करता है।
दोषधातु का संयोग जरूर है। यथा,
*दोषधातुमलसन्निपातजनितोऽन्तरुष्मा*
पर द्रव गुण के आधिक्य से धातु गत उष्मा न तो धातु निर्माण कर सकता है और न ही परं तेज या फिर बल/ओजादी व्याख्या को प्राप्त नहीं हो सकता।
अतः वह उत्तरोत्तर धातुओं की वृद्धि भी नहीं कर सकता तथा पूर्वोत्तर धातुओं को बल भी नहीं दे सकेगा।
अतः यह उदाहरण परस्परोपसतम्भ में ग्राह्य नहीं हो सकता।
भिन्न मत का स्वागत है।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻


👇👇👇👇👇👇👇👇
☀☀☀☀☀☀☀☀

यह भिन्न मत नहीं है अपितु इतर पक्ष बताने का प्रयास मात्र है ।


💫 *आचार्य उपरोक्त विस्तृत वर्णन से में पूर्णतया सहमत हूँ परन्तु रक्तपित्त के प्रस्तुत श्लोक में   *द्रवो धातु*  आचार्य चरक द्वारा स्वयं निर्दिष्ट है । *धातुर्धातु प्रसिच्यते* वैकारिक पित्त प्रकोप को नियंत्रित करने के लिए *परस्परोपस्तम्भ धातुस्नेहपरम्परा* नियम का पालन ही है । आपका कथन पूर्ण सत्य है कि यह सन्दर्भ धातु पोशानांशार्थ नहीं है । धातुओं का स्वाभाविक रूप से वैकारिक परिस्थितियों में प्राण रक्षार्थ संचरण होना भी धातुस्नेहपरम्परा ही है यथा अतिसार में भी *धातुर्धातु प्रसिच्यते* क्रम दृष्टिगोचर होता है । आचार्य की ये महान् कृपणता है कि मूल सिद्धांतों को बस एक ही बार यथावश्यक निर्दिष्ट करते हैं अन्य स्थानों पर नहीं जहाँ भी इनके उपयोग की सर्वथा आवश्यकता होती है ।



कृपाधिष्ठाता संजय लूँगारे जी !!

🙏🌹

[10/28, 2:38 PM] Prof Giriraj Sharma: 

वाह आचार्य श्री
कला परिप्रेक्ष्य में आचार्य वाग्भट उल्लेखित *रसशेष अल्पतवाद* का अर्थ  संदर्भ भी समझ आया है ।
🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹🌹🌹

[10/28, 5:20 PM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻
आचार्य आपका पक्ष सत्य है परंतु इसे प्राय: या सदाकाल सत्य नहीं मान सकते ।
कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही यह वैकारिक संचरण प्राण रक्षार्थ उपयुक्त है। यथा,
*अक्षीणबलमांसस्य रक्तपित्तं यदश्नत:। तद्दोषदुष्टमुत्क्लिष्टं नादौ स्तम्भनमर्हति*
टिका
*बलदोषविचारिणेति यदैव बलह्रासं सम्पश्येध्दीनदोषत्वं वा तदैव स्तम्भनं कार्यम्।*
बलहानी ध्यान में रखते हुए स्तम्भन करना ही पडता है। वहां पर हम *प्राण रक्षार्थ संचरण* नहीं कह सकते, क्यों की यह वैकारिक ही है तथा *प्रसिच्यते अतिक्षरति* अतिक्षरण ही है।
अवस्था महत्त्वपूर्ण है।
जैसे,
अम्लपय: संयोग हमेशा विरुद्ध ही होता है परंतु अगर इसमें गुड शर्करा आदि का मिश्रण हो तो यह संयोग विरोधी नहीं होता।
*अम्लपय: संयोगे गुडादिसंयोगे सति विरुद्धत्वं न दुग्धाम्रादीनाम्*
अत अगर धातु स्नेह परम्परा का मूल अर्थ भी देखें यथा,
*धातूनामुत्पादकत्वमाह-परस्परेत्यादि।*
*धातुस्नेहपरम्परा परस्परोपसंस्तम्ब्धेति अन्योन्यमुपस्नेहेन संस्तब्धत्वात् सन्तर्पितेति रावत।*
अतः मेरा पक्ष प्राधान्य से है तथा आपका पक्ष सिमित अवस्थाओं में सही भी है।
कोई विरोध नहीं है।
🙏🏻

[10/28, 5:53 PM] pawan madan Dr: 🙏🙏🙏

[10/28, 5:59 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*एक से बढ़कर एक सैद्धान्तिक तर्क और वो भी अकाट्य, साथ ही सिद्धान्तों को यथावश्यक एक ही बार निर्दिष्ट करने के पीछे भी एक ही उद्देश्य कि कहीं पुनरूक्ति दोष ना लगे।*

            🙏🙏🙏

[10/28, 6:02 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

आचार्य सञ्जय जी ।
*आपको तो जितना पढ़ें उतना ही कम लगता है, शास्त्रोक्त सिद्धान्तों की व्याख्या में आपका जवाब नही।*

              🙏🙏🙏

[10/28, 6:02 PM] Dr Somraj Kharche: 

सही बात है सर 😅👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻👌🏻

[10/28, 6:19 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

आचार्य जी इस प्रकरण में परस्परोपसंस्तब्धा धातु स्नेह परम्परा में" उपस्तब्धा" कब "उपास्तंभा" हो गया और अनेक बार धातु स्नेह का" परस्पर उपस्तंभ " ऐसा वाक्य लिख कर भी विचार हुआ ,अब जो संदर्भ प्रस्तुत हुआ है उसमें पुनः परस्पारोपसंस्तब्धा पद प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ भी दिया है ।
दुख है कि किसी ने भी इसे देखा नहीं, रोका नहीं, आचार्यों से अनुरोध है कि कोई भी व्यक्ति कुछ भी संदर्भ प्रस्तुत करे तो टाइपिंग मिस्टेक की अपेक्षा की जाय किंतु पूरा पद ही बदल दिया जाय तो उपेक्षा ना करें,  शिष्ट भाषा में प्रस्तुत कर्ता का ध्यान अवश्य आकृष्ट करें ,कोई बुरा नहीं मानेगा ।

[10/28, 6:22 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

सत्य वचन गुरुवर्य ।

क्षमा प्रार्थी हूँ ।

🙏🙏😌🙏🙏

[10/28, 6:24 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

बिल्कुल सही बताया गुरू जी आपने👍🏻👍🏻👍🏻

[10/28, 6:24 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

नमो नमः आचार्य सञ्जय जी ।
आपकी विवेचना से सहमत हूँ ।

🙏🙏😊🙏🙏

[10/28, 6:25 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Yaha par Dhatu sneha shabd use kiya Gaya hai Isiliye Dhatu sneh ka arth Saar - Dhatu Saar Lena uchit rahega..

Upasamstabddhata ka arth supported by each other hai
So the final meaning is the Saaratva of each Dhatu is supported by each other nearby Dhatu...

[10/28, 6:29 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

शब्द चयन का टंकण में ध्यान नहीं रहा । परस्परोपस्तम्भ को परस्परोपसंस्तब्धा पढ़ने का निवेदन है ।

🙏🌹


[10/28, 6:31 PM] Dr. Mrityunjay Tripathi, Gorakhpur: 🙏🙏

[10/28, 6:31 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

यहां मूल बिंदु क्या है इसका विचार भी पूर्ण तब होगा जब इसके पूर्वार्ध एवम् उत्तरार्ध को एक साथ समझने का प्रयत्न किया जाएगा
पूर्वार्ध है - परसपरोपसंस्तब्धा
उत्तरार्ध है -  धातुस्नेह परम्परा 
इसका शाब्दिक अर्थ होगा - धातु स्नेह परम्परा , परस्पर संस्तब्ध  होती है परस्पर संतरपित  होती है ।
शाब्दिक अर्थ यही है किंतु यह   संतर्पण -  कन्ही धातु स्नेह तक सीमित तो नहीं है इसका विचार करने का आग्रह है शायद  इस विचार के बिना आप निष्कर्ष पर नहीं पंहुच  सकते ,शायद इस पर पुनर्विचार करना पड़े ........
वादे वादे जायते तत्व बोध:....तत्वबोध तक जाना है तो सूत्र के पूर्वार्ध एवम् उत्तरार्ध को एक साथ पढ़ते हुए ही  विचार करना होगा

[10/28, 6:34 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

शायद कनही शास्त्रीय संदर्भ ही मिल जाय और हमे अपना विचार बताना ना पड़े ,पहले धातु स्नेह को हैं लेे की यह  धातुस्नेह बोधक है या  धातुसार बोधक

[10/28, 6:34 PM] Amit Naknekar Dr.: 

Agar Dhatu sneh uchit matra se adhik ho jaye to kitt nahi kehlayga ka ?
Krupaya margdarshan kare 🙏🏻🙏🏻

[10/28, 6:34 PM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/28, 6:34 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Dhatusneha hi Dhatu Saar hai...Dhatu Saar par next Agni karya karake apani Dhatu banata hai...isme Ras, Shukra Dhatu Saar, Agni ka Samyoga hokar Navin Dhatu banati hai
Nahi...next Dhatvagni ispar Kaam karke apani Dhatu banayega

[10/28, 6:35 PM] Amit Naknekar Dr. AP: 

Is ka matlab  ye next dhatvagni ke bal par bhi nirbhar karega

[10/28, 6:36 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Navin Dhatu banane ke liye purva Dhatu ka sukshm Yani ki sneha part upyogi hota hai yahi is slok se abhhipret hai

[10/28, 6:37 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Absolutely Bala of Dhatvagni, amount of Saar, Amount of Shukra is and amount of Rasa decides amount and quality of final product in form of new Dhatu.

[10/28, 6:37 PM] Vd Dilkhush M Tamboli: 

एक सवाल है
जब RBC bone marrow से निकल रक्त का भाग बनती है
धातू पोषण के चर्चा मे हम इसे कैसे समझें 

[10/28, 6:39 PM] Amit Naknekar Dr.: 

At a time 3 nyaay kaam karte hai yaha khale kapot nyay se kaam hota hai aisa mera vinamra mat hai 🙏🏻🙏🏻

[10/28, 6:39 PM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/28, 6:39 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

All nyaya function together...

[10/28, 6:41 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Both the function, Dhatu Nirman and Dhatu Poshana occurs simultaneously in body...All these nyaya together explain both Dhatu Poshana and new Dhatu Nirman too..

[10/28, 6:43 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Why you tell RBC as Rakta? Any logic...

[10/28, 6:45 PM] Vd Dilkhush M Tamboli: 

मैने RBC को रक्त नहीं कहा लेकीन रक्त को as a whole लिया तो rbc उसका एक अंश तो  है  ना .....

[10/28, 6:45 PM] Prof. Surendra A. Soni:

 संभवतः प्रस्तुत सन्दर्भ
*धातुस्नेह* तक सीमित होना चाहिये क्योंकि यही शब्द प्रयुक्त हुआ है ना कि *धातुसार* । धातुसार शब्द शुक्र एवं ओज के लिए प्रयोग में लिया गया है । प्रसरणशीलत्व परस्परोपसंस्तब्धत्व अर्थ के लिए स्नेह शब्द अधिक उचित प्रतीत होता है ।
स्नेहो बंधः स्थिरत्वं गौरवं वृषता बलम् ।

नम्र निवेदन ।।

🙏🌹

[10/28, 6:55 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

अब नम्र निवेदन की स्थिति समाप्त होने को है  आचार्य गण निर्णय प्रस्तावित करें

[10/28, 6:55 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Rakt, Shonita, Asruk, lohit Khataj, etc are used to indicate various components of Blood called in modern medicine.. Various components of Blood can be explained by these terms.. Respected Khandel sir can explain it very well...

[10/28, 6:55 PM] Prof. Surendra A. Soni:

 आदरणीय अरूण जी, गिरिराज जी समय मिलने पर इस संदर्भ में योग्य मार्गदर्शन प्रदान करेंगें ऐसी मैं आशा करता हूँ ।
प्रस्तुत विमर्श में यह आंशिक रूप से विषयांतर है । इस पर भी भविष्य में चर्चा होनी चाहिए ।
सूत्र रूप में वर्णन से हमें तुलनात्मक आधुनिक वर्णन पढ़ने का सात्म्य होने के कारण इस तरह के प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है ।

दिलखुश सर !!
🙏🌹

[10/28, 6:59 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Can any one post the slok of susruta...स्नेहमयं अयं पुरूषं।। My mobile network is very slow due to poor Network in village.. if anyone can post it will help to understand this concept.

[10/28, 7:00 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

हमने अपना पक्ष रखने का प्रयास किया है । निर्णय में आपश्री, आ. सुभाष सर, खाण्डल सर, कटोच सर और अन्य आदरणीय गुरुजन निर्धारक होंगें ।

आदरणीय रमाकांत सर !!
🙏🙏🌹

[10/28, 7:01 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

I try.
Dr Bharat !

[10/28, 7:03 PM] Vd. Aashish Kumar, Lalitpur: 🙏🏻🙏🏻💐💐

[10/28, 7:05 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

स्नेहसारोऽयं पुरुषः, प्राणाश्च स्नेहभूयिष्ठाः स्नेहसाध्याश्च भवन्ति । स्नेहो हि पानानुवासनमस्तिष्कशिरोबस्त्युत्तरबस्तिनस्यकर्णपूरणगात्राभ्यङ्गभोजनेषूपयोज्यः ।।३।।

सु चि 31

डॉ भरत जी ।🙏🌹

[10/28, 7:06 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur:

 Thank you sir...

[10/28, 7:07 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Actually I was not recalling this slok properly...

[10/28, 7:08 PM] Amit Naknekar Dr. : 

Exactly Dhatu Sneh is different than Dhatu saar. Dhatu sneh can be a part of Dhatu Saar.

[10/28, 7:09 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur:

 Sir what is teeka of this slok, if available please post it.

[10/28, 7:09 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

तत्र पानादि प्रधानमिह वक्तव्यम्, अप्रधानं पुनरनागताबाधे इन्द्रियानुपालनप्रसङ्गेनोक्तम्।।३।।

[10/28, 7:10 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Actually somewhere I have read that sneh is essence of sneh dravya in same way Saar is also essence of Dhatu.

[10/28, 7:11 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur:

 There fore Saar can be considered as sneh ..but senior expert can explain it exactly as per context.

[10/28, 7:11 PM] Dr Bhavesh Modh:

दिलखुश सर !

 जिज्ञासा प्रद 👍

वर्तमान मे जो सिझनल फिवर इन्फेकशन मिल रहा है, उसमे प्लेटेलेटस का ह्रास होता है तब *Hematocrit Hb* बढा हुआ मिलता है...

आयुर्वेद द्रष्टिकोण से मज्जा धातु शुक्र धातु की पोषक है।
जब की  रक्त धातु मे से मज्जाधातु का पोषण बहोत दूर की बात  है फिर भी आधुनीक विज्ञान व प्रत्यक्ष  परीक्षण से *बोनमेरो* जीसे कोइ कोइ विद्वत् जन  मज्जाधातु बताते है उस पे शुभाशुभ असर का प्रभाव सीधा ही ब्ल्ड के कंपोनेटस पे WBC RBC व Platelets आदी पे  आता है ।  ब्लड को रक्तधातु समझा गया है ।

असमंजस की इस स्थिति मे सुश्रुत का विषवेग का विवेचन पथ प्रदर्शक बन शकता है ।

शायद  अभी जो समन्वय  किया जा रहा है मज्जा = बोनमेरो रक्त = ब्लड व उसके कंपोनेटस  आदी कुछ अति भावुकता वश हो यथार्थ कुछ अलग हि हो।

विद्वत् जन कुछ विशेष  टिप्पणी करेगे इस आशा मे ।

डेंगु या जिस फिवर मे  प्लेटेलेटस कम होते है उसमे रीकवरी आने के बाद मरीज को हाथ व पांव की उगलीओ मे  खुजली आती है ।

 *डेंगु गताम् लक्षणम् कंडु उत्पत्ति*

मलेरिया मे भी एसी फरीयाद मिलती है ।

कफ का सीधा संबंध कंडु से है

  कफ  मज्जा प्रदोषज विकार से भी  सबंधि होता है ।

इस पे भी विद्वत्  जन कुछ विशेष टिप्पणी करेगे इस अपेक्षा मे ।

[10/28, 7:14 PM] Prof Mamata Bhagwat:

 Rasa ranjana..? Dr  Dilakhush ji !

[10/28, 7:14 PM] Vd Dilkhush M Tamboli: 

जी सर
मेरा मानणा ये है की
*प्रीनण जीवन लेपन स्नेहन धारण पुरण गर्भ उत्पादन(नव निर्मिती)*

ये जो सात particular कर्म है ये particular धातू का कर्म होता है ये तो सब को पता है

इससे ये मतलब निकलता है की
अगर अस्थि धातू मे प्रिनणं कर्म अपेक्षित है तो वहा रस का होना जरुरी है अगर वहा  नवनिर्माण हो रहा है तो वहा शुक्र का होना जरुरी है
इसलीय
अस्थी का पोषण उर्वरित सभी धातूओंके अस्थि पोषक अंश से होता है

इससे त्रिविध पोषण न्याय की मैने एक संकल्पना की है उसे भेज रहा हू ।

[10/28, 7:14 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 👍🏻👍🏻

[10/28, 7:16 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

स्थूलास्थिषु विशेषेण मज्जा त्वभ्यन्तराश्रितः ।
अथेतरेषु सर्वेषु सरक्तं मेद उच्यते ।
शुद्धमांसस्य यः स्नेहः सा वसा परिकीर्तिता ।।१३।।

सु शा 4

उपरोक्त सन्दर्भ रक्त और मेद का संबंध स्थापित करता है ।

भावेश जी ।।🙏🌹

[10/28, 7:25 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

किट्टमन्नस्य विण्मूत्रं, रसस्य तु कफोऽसृजः|
पित्तं, मांसस्य खमला, मलः स्वेदस्तु मेदसः||१८||
स्यात्किट्टं केशलोमास्थ्नो, मज्ज्ञः स्नेहोऽक्षिविट्त्वचाम्|
प्रसादकिट्टे धातूनां पाकादेवंविधर्च्छतः [१] ||१९||
परस्परोपसंस्तब धातुस्नेहपरम्परा [२]
In this slok first part has been mentioned about kitta, I think next part may be related about  Prasad or Saar...
[10/28, 7:28 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: I know that My opinion is different from commentary of Chakrapani ji ..But I humbly need some more strong reference and explanation to accept it as it mentioned..

[10/28, 7:29 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

So I presented my view what I understand...experts of group can help me to reach to conclusion

[10/28, 7:31 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Why I am in favour of Dhatusneha= DhatuSaar meaning?
Because to produce new Dhatu it is always required Saar of previous Dhatu...and so and so...

[10/28, 7:38 PM] Amit Naknekar Dr.: 

Respected Dr Kabra sir have used Majja in such cases in GAC Nagpur. Considering sneh rhas from majja due to jwar

[10/28, 7:52 PM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻

*परस्परोपसंसतम्भाद्धातुस्नेहपरम्परा* अ हृ शा ३/६५

धातुस्नेह - *पाकवशाद् धातुना यथोत्तर यथारूप स्नेहो जायते*

परम्परा- *आहररसाप्यायिता याऽव्युच्छिन्नप्रबन्धप्रवृत्ततया विशिष्टैव यथोत्तर धातुस्नेहोत्कर्षक्रमपरिणति सा धातुस्नेहपरम्परा*
कारण
*परस्परमुपसंसतम्भात्-उपसंश्लेषात् जायते।*
इसीलिए उत्तरोत्तर धातुओं में स्नेहोत्कर्ष के कारण गुरूता होती है।
*शोणितादीनां यथोत्तर गौरवम्* अ सं सू ७/९९
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/28, 7:58 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Very well explained in A.H..👍🏻👍🏻👏🏻👏🏻👏🏻

[10/28, 7:58 PM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/28, 8:00 PM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

उत्तरोत्तर धातुवों में स्नेह उत्कर्ष के कारण होने वाली गुरूता को स्पष्ट करें उसका स्वरूप क्या है , वह गुरूता लघु भी हो सकती है होती रहती है , खुद कमजोर होकर अन्य धातु को निरंतर उपतंभित   करती है अव्यू छिन्न प्रबंध में /के लिए , प्रवृत्त होते रहने के लिए ,स्वतः स्फूर्त क्रिया या प्रक्रिया , विशिष्टा एव ,
ये परम्परा के विशेषण है इसे ध्यान में रखते हुए अर्थ कीजिए।

[10/28, 8:06 PM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 

आचार्य दिलखुश जी,
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
कुछ संदर्भ प्रस्तुत करें ज्ञान वर्धनार्थ।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/28, 8:09 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

In this slok .. In Definition of Dhatusneha, Yothottar yatharupa Sneha are very important to understand the meaning of Dhatu sneha

[10/28, 8:14 PM] Shantanu Das Prof KC: 

Sir in Ch sutra 28/3.....
Dhataba hi dhatwahara prkrutim anubartate.... means saristha dhatu hi sharir ke dhatu ko ahar karti hei....It is also very imp point....🙏🏻

[10/28, 8:15 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Til ka kalaka tilpishta hai vo sasneha hoga.... Snehrahit tilkitta hoga

[10/28, 8:19 PM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

As per this reference a example of Dhatusneha...
RasDhatvagni dvara rasa ka paak hone par yathotar Rakt dhatu, yatharupa, raktdhatu saman Jo sneh- suksham Prasad rup part banata hai vo rasdhatu sneh hai...yahi sneh raktdhatu Nirman me apana yogadan dekar Dhatu sneha parampara ko banaye rakhata hai...

[10/28, 8:22 PM] Prof. Sanjay Lungare Ji DG: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻
प्रणाम गुरूवर्य,
दिशा दर्शन के लिए धन्यवाद।
आपने ठीक कहा है।
विशिष्टा एव आदि से बहुत सारे प्रश्न अनुत्तरित हैं।
मूल में इतरत्र खोजने की कोशिश करुंगा।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/28, 8:36 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

उत्तरोत्तर धातुवों में स्नेह उत्कर्ष के कारण होने वाली गुरूता को स्पष्ट करें उसका स्वरूप क्या है,

*संभवतः पांचभौतिक संगठन ही उसका स्वरूप होना चाहिये ।*

वह गुरूता लघु भी हो सकती है होती रहती है ,

*अस्थि-धातु वात प्राधान्य से लघु ग्रहण की जा सकती है ।*

खुद कमजोर होकर अन्य धातु को निरंतर उपतंभित   करती है

*मेदधातु ग्राह्य हो सकती है । रसनिमित्तं स्थौल्यकार्श्यमेव च भी विचारणीय है ।*

अव्यू छिन्न प्रबंध में /के लिए , प्रवृत्त होते रहने के लिए , स्वतः स्फूर्त क्रिया या प्रक्रिया , विशिष्टा एव ,
ये परम्परा के विशेषण है इसे ध्यान में रखते हुए अर्थ कीजिए ।

*यहां आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता रहेगी ।*


नमो नमः ।

🙏🌹😌

[10/28, 8:37 PM] Dr. Mrityunjay Tripathi, Gorakhpur: 🙏🙏🌷🌷🙏🙏

[10/28, 8:40 PM] Prof. Surendra A. Soni: 👍🏻👍🏻

[10/28, 9:07 PM] Dr Atul Kale, Pune:

 मनुष्यका शरीर किसी आमके फल जैसा लगता है। उपर की छाल त्वचा जैसी, फिर पल्प मांस जैसा, बीजकी उपरकी परत हड्डीयों जैसी, अंदरका मगज मज्जा जैसा। सभीमें रस तो तरतमभावसे विद्यमान है ही। किसी भी फलका संक्रमण तिक्त कषाय आम्ल रससे अंततः मधुर रसमें परावर्तित होता है।
वायु-आकाश-पृथ्वी-अग्नि------अग्नि----काल: -- पृथ्वी-जल
जल महाभूत पुरे रसोंका आधार होता है। काल अौर अग्निके साहचर्यसे पृथ्वी अौर जल का स्वभावसे प्रकटीकरण होता है।
      वैसेही शरीरस्थ धातुओंका क्रमपरीणमन न्याय, केदारकुल्या न्याय अौर खलेकपोत न्याय एक स्वभाव है जो अग्नि अौर काल के प्रभावसे होता है। क्षीर दधी न्याय में रससे रक्त का निर्माण यही दर्शाता है।
क्षीर:-मधुर मधुर शीत स्निग्ध- पृथ्वी+जल
काल अौर अंतरस्थ अग्नि की क्रियासे दूध विदग्ध (फट जाना) हो जाता है या दधी बन जाता है।
पृथ्वी-जल-अग्नि इन महाभूतोंसे गुरू, उष्ण, अभिष्यंदी गुणोंका प्राबल्य हो जाता है। अग्नि काल के मदत से धीरे धीरे दूग्धके हर कण को पचाके विदग्ध कर देता है। पश्चात दधिमें तेज महाभूत तो रहता है लेकिन अग्नि वायु चली जाती है अौर दूधमें पानी अलग हो जारा है जिसे दूग्धमें निसर्गतः स्थित अग्नि धारण किए हुए रहती है। ये सब द्रव्य के गुणकर्म परिपेक्ष्यमें ठिक है किंतु जब क्रमपरिणमन की बात आती है तो सिर्फ एक धातूसे बननेवाली दूसरी धातू बहुतही अलग, विपर्यस्थ गुणोंवाली बन जाती है।
         रससे रक्त बनता है, किसीभी दृष्टीसे रस कारण स्वरूप होते हुए भी शीत, प्रीणन, कफका निर्माण करनेवाला रस अनुष्ण, पित्तका निर्माण करनेवाले रक्तको निर्माण करता है तो ये परिणमन संस्कार शरीरके स्वभावसेही क्रमसे कर्म करता है। आहाररसमें षड्रस तो होतेही है जो हर धातुको पोषित करनेमें विहितकर्म रहते है। आहाररससे जो गुणरूपी कारण रसस्थ होता है उसीसे शीत मधुर स्तन्यभी बनता है अौर अग्

[10/28, 9:11 PM] Dr Ashish Thatere, Nagpur: 

Wow that's great sir👍🙏

[10/28, 9:14 PM] Prof S. K. khandal Sb: 

क्षमा करें आयुर्वेद को व्याकरण मैं न उलझाये
च चि ३० में स्नेह का अर्थ धातुसार ही है जैसे दुग्धसन्तानिका
रक्त शोणित लोहित रोहित रुधिर व अस्रक् भिन्नार्थक भी है ऐसा निर्देश च सू २८ की टीका में है ।

[10/28, 9:19 PM] Prof S. K. khandal Sb: 

बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं आप लोग छोटी छोटी बातें उलझाये तो समय खराब होता है ।

[10/28, 9:25 PM] Amit Naknekar Dr.:

 Sir kya aisa sambhav hai kya ki ek jagah par sneh ka arth dhatu saar hai aur dusari jagah par sneh. Jaise ek jagah par amrut matlab nimb aur dusari jagah amrut matlab bhallatak. 🙏🏻

[10/28, 9:27 PM] Amit Naknekar Dr.: 

Kuch galat puchha ho to kshama prarthi hu. Aise hi man me shanka utpanna hui 🙏🏻

[10/28, 9:38 PM] D C Katoch Sir:

 Just see the find fat over meat -that is Mans Dhatu Sneh

[10/28, 9:41 PM] Prof Giriraj Sharma: 

मांसस्य स्नेह वसा
🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼

[10/28, 9:41 PM] D C Katoch Sir: fine

[10/28, 9:44 PM] Prof Giriraj Sharma: 

मेदस्य स्नेहमादाय सिरा स्नायु

[10/28, 9:47 PM] Amit Naknekar Dr.: 

In short kya adhikaran bhinna ho to arth bhinnata ho sakti hai?

[10/28, 9:51 PM] Prof Giriraj Sharma: 

स्नेहाभ्यकते,,,,, सन्धय
स्नेह एवं सार भिन्न भिन्न है
इन उद्धरण से ऐसा प्रतीत होता है ।
🌹🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹🌹🌹

[10/28, 9:52 PM] Amit Naknekar Dr.: 

Matlab yaha adhikaran bhinna hai to arth bhinna huva

[10/28, 10:04 PM] pawan madan Dr:

 बिल्कुल सर।
ऐसा ही संभव है।
हर शब्द का अर्थ संदर्भ के अनुसार लेना चाहिए।
जब हम बात क्रियात्मक शरीर की करते हैं तो ऐसा ही जोन चाहिए।
गुरुजन ज्यादा मार्गसर्शन कर सकते है।

[10/28, 10:20 PM] Dr. Arun Rathi, Akola:

 *धातु उत्पत्ती परंम्परा* (धातु अग्नि व्यापार) :                                                                   *The Process of Evolutive Metamorphosis of Dhatu* ( Digestion and Metabolism at Dhatu Level ).                                       # Four Factors are Essential :                                         1. आहार रस.                                                         2. व्यान वायु .                                                                          3. धातुवह स्त्रोतस.                                                                   4. धातु अग्नि .  च. सुत्र. 28/4.

For Ex.
                                                                                                                                           
*मेदधातु पाचन प्रक्रिया*                                                       *Digestion and Metabolism of Meda Dhatu*.                                                                                                     # *धातु पाचन*                                      # *सप्तभिर्देहधातरो धातवो व्दिविध पुनः*।                                                       *यथा स्वमग्निभिः पाकं यान्ति किट्ट प्रसादवत*।। च.चि. 15/15                                                             # *धातु अग्नि* :                                                        # *स्वस्थानस्थस्य कायाग्नेरशां धातुषुसंस्थितः*। अ.ह.सु. 17/34                                                     # *मेदधातुपांचभौत्तिक संधटण* :                                                                                 पांचभौत्तिक - जल एवं पृथ्वी महाभूत प्रधान.                                                                                 # *मेदस्वम्बुभुवोः*। डल्हण सु.सु. 15/10.                                                                         # *पंचभौतिक अग्नि कार्य* :                                                                                                             # *पञ्चाहारगूणान् स्वान स्वान पार्थिवादिन पचन्तिहि*। च.चि.15/13.                                                                         # *मेदवहस्त्रोतस* :                                                                                                                                                                         # *मेदोवहानां स्त्रोतसां वृक्कौ मूलं  वपावहंनंच*। च.वि.5/7                                                                                               # *मेदोवहे व्दे  तर्योमूलं कटि वृक्कौच*। सु.शा. 9/12.                                                                                                      # *धातु अग्नि एवं स्त्रोतस कार्य* :                                                                                                                                  # *यथास्वेन उष्मणां पाकं शारीरा यान्ति धातवः*।                                                                 *स्त्रोतसां यथास्वेन धातु पुष्यति धातुतः*।। च. वि. 8/39.                                                                                                                                 # *स्त्रोतांसि खलु परिणाममापद्यमानानां धातुनामभिवाहनि भवन्त्ययनार्थेन*।। च.वि.5/3                                                                                                *मेद धातु पाचन प्रक्रिया* :                                                                      अस्थाई मेद धातु या मेदोत्पादन विशिष्ट पोषकाशं द्रव्य जब मेद वहस्त्रोतस ( वृक्क, वपावहन ,कटि ) मे व्यान वायु व्दारा लाये जाते हैं, तब वहाँ पर मेदाग्नि एवं पंचमहाभूताग्नि विशेषतः आपाग्नि और पृथ्वी अग्नि के व्दारा उस पर पचन क्रिया होकर यह तिन भागो मे विभक्त होता है ।                                              1. *स्थुल भाग* : जो स्थाई मेद धातु एवं उपधातु स्नायु का पोषण करता है । यह कार्य निरन्तर चलता रहता है और परिणाम स्वरुप मेद धातु सारता लक्षण उत्पन्न होते हैं।                                                                                                                    2. *सुक्ष्म भाग*: जो अस्थाई अस्थि धातु या अस्थि पोषकाशं मे परिवर्तित होता है ।                                                                        3. *किट्ट भाग* : जो मेद के मल स्वेद का पोषण या निर्माण करता है ।                                                             *इस तरह से आयुर्वेदानुसार प्रत्येक धातु का पोषण अपने स्त्रोतस मे अपने अपने धातु अग्नि और पंचमहाभूताग्नि व्दारा होता है।*

[10/28, 10:36 PM] Prof. Surendra A. Soni:

 नमो नमः ।

आचार्य श्री अरूण जी ।

✨✨🙏✨✨👌🏻✨✨

[10/28, 10:36 PM] Dr. Arun Rathi, Akola: 

आचार्य वैद्य रणजितरायजी देसाई का आयुर्वेदीय क्रिया शारीर इस ग्रन्थ का ३१वा अध्याय यह ओज पर पढने योग्य है।                                                                                                     उनके अनुसार वैद्यक ग्रन्थों मे स्पष्ट ही ओज के अनेक अर्थ कहे है। ओज यह अनेक अनेक द्रव्यों के वर्गों का नाम है। ओज के विषय मे जो प्रमाण संहिताओ मे मिलते है, उससे यह स्पष्ट होता है ओज शब्द समग्र अर्थ मे                                                                                                                   १. सर्व धातुओ का सार.                                       २. रस धातु.                                                         ३. रक्त या जीवित रक्त.                                                                                             ४. शरीरोष्मा.                                                                                                                      ५. शुक्रसार.                                                                                                                 ६. प्राकृत कफ.                                                     ७. शुक्र.             

ओज उपधातु है।                                         *एतच्चौज उपधातुरुपं केचिदाहुः। धातुर्हि धारणपोषणयोगाद् भवति, ओजस्तु देहधारकं सदपि न देहपोषक तेन नाष्टमो धातुरोजः*।                                              च.सु.३० / ७ पर चक्रपाणि.                                   
ओज की पृथक गणना का कारण :                                                               *यद्यप्योजः सप्तधातुसाररुपं, तेन धातुग्रहणेनैव लभ्यते तथापि प्राणधारणकर्तृत्वेन पृथक् पठितम्*।।                                च.सु. २८ / ४ पर चक्रपाणि.
                                                   
निम्न विषय यह आयुर्वेदानुसार विवादास्पद हो सकता है,पर  चिन्तन करने योग्य है।                                                 *ओजोशनानां रजनीचराणाम्* । च.शा. २ / १०.                                                          ओज के भक्षक *रजनीचर*, रोगजनक जीवाणु होते है।

[10/28, 10:40 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

👌🏻✨☀😊🙏🙏🌹🌹

ओज पर तो हम सब ने एक बार विस्तृत चर्चा की थी जो कायचिकित्सा ब्लॉग पर उपलब्ध है । मैं उत्साही साथियों के लिए लिंक देता हूँ ।

[10/28, 10:41 PM] Prof. Surendra A. Soni:

 https://kayachikitsagau.blogspot.com/2017/07/whatsapp-discussion-series-43-ojas.html

[10/28, 10:42 PM] Prof. Surendra A. Soni: अतुल सर ।🙏🌹

[10/28, 10:45 PM] Dr. Arun Rathi, Akola:

 तत् *परस्यौजसः* स्थानं तत्र चैतन्यसंग्रह । हदयं महदर्थश्च तस्मादुक्तं चिकित्सकैः।।                                         तेन मूलेन महता महामूला मता दश ।                                              ओजोवहाः शरीरेअ्स्मिन् विधम्यन्ते समन्ततः ।।                                              येनौजसा वर्तयन्ति प्रीणिताः सर्वंदेहिनः।                                 यद्दते सर्वभूतानां जीवितं नावतिष्ठते ।।                                                  यत् सारमादौ गर्भस्य यत्तद्गर्भरसाद्रसः।                                                 संवर्त्तमानं हदयं समाविशति यत् पुरा ।। च.सू. ३० / ७ - १०.
                                                                                                यह हदय उत्तम ओज का स्थान है । हदय मे ही चेतना के आश्रयभुत भावो का संग्रह हैं। इसलिए चिकित्सको ने हदय को महत और अर्थ शब्द से कहा हैं और भी उस हदय ( स्वरुप ) मूल के कारण दश रक्तवाहिनियों महामूल वाली कही जाती हैं। ये ही शरीर मे ओज का वहन करती है और इस शरीर में रस को चारो ओर अर्थात प्रसारित करती है। इसी ओज से पोषित होकर सभी प्राणी अपने जीवन का निर्वाह करते हैं अर्थात जीवित रहते है। ओज गर्भ के प्रारंभ मे शुक्र शोणित के सार रुप मे वर्त्तमान रहता है और ओज कललावस्था मे रस के सार रुप मे रहता है, जब गर्भ मे हदय की उत्पत्ती होती है तब अपने स्वरुप मे रहते हुए हदय मे प्रवेश करता है।           
 *प्रधानस्यौजसश्चैव* हदय स्थानुमच्यते । च.चि. २४ / ३५.मदात्यचिकित्साध्याय                                                     प्रधान ओज का स्थान हदय है।                             
दो जगह पर ओज के संबन्ध मे चरक मे दो शब्द आये है, *परस्यौजस:* तथा *प्रधानस्यौजस* को लेते हुये, आचार्य चक्रपाणिजी ने अपनी टिका मे ( च.सू.१७ /७४ पर ) स्पष्ट कहते हुए *यदुक्तं तन्त्रान्तरे* ओज के दो भेद  *पर ओज* तथा *अपर ओज* प्रस्तुत किये हैं और इनका प्रमाण *अष्टबिन्दु* तथा *अर्धांजली* कहे है , *जब की आचार्य चरक ने ओज का प्रमाण केवल अर्धांजली यही कहा है                                                   आचार्य गंगाधर कविराज* ने अपनी चरक टिका *जल्पकल्पतरु* मे , चरकाचार्य ने केवल ओज का प्रमाण अर्धांजली कहने के कारण दोनो प्रकार के ओज का प्रभाव समान मानते हुए, दोनो मे वस्तुतः कोई भेद नही माना है। उनके अनुसार अष्टबिन्दु ओज का प्रमाण भी अर्धांजली ही होता हैं। उनका कहना है , १ बिन्दु यह १कर्ष के बराबर और अष्टबिन्दु मतलब ८ कर्ष जो अर्धांजली के बराबर है।


[10/28, 10:47 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

सारत्व के आधार पर परस्परोपसंस्तब्धा धातुस्नेहपरम्परा में तरतम के आधार पर भेद होता ही है एतदर्थ क्रमशः बलदृष्टया रसादि धातु उत्तरोत्तर बलाधिक्य वाले निर्दिष्ट किये गए हैं । आपने धातुप्रकृति एक विशिष्ट शब्द सारत्व के लिए प्रयुक्त किया है जो युक्तियुक्त लगता है ।

🙏🌹

[10/28, 10:52 PM] Dr. Arun Rathi, Akola: 

🙏🏻🙏🏻🙏🏻😊😊😊.

*धातुप्रकृति यह मत आचार्य प्रियव्रतजी शर्मा एवं आचार्य श्री रणजीतरायजी देसाई का है।*
श्रीमान अभी मै पढ कर ज्ञान ग्रहण करने की कोशिश कर रहा हूँ।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/28, 11:01 PM] Prof. Surendra A. Soni: 

येनौजसा वर्तयन्ति प्रीणिताः सर्वदेहिनः१ ।
यदृते सर्वभूतानां जीवितं नावतिष्ठते ॥९॥
यत् सारमादौ गर्भस्य २यत्तद्गर्भरसाद्रसः ।
संवर्त३मानं हृदयं समाविशति यत् पुरा४  ॥१०॥
यस्य५ नाशात्तु नाशोऽस्ति धारि यद्धृदयाश्रितम्६  ।
यच्छरीररसस्नेहः प्राणा यत्र प्रतिष्ठिताः ॥११॥
तत्फला बहुधा७ वा ताः फलन्तीव(ति) महाफलाः ।


चक्रपाणि
👇👇👇

शरीररसस्नेह इति शरीरसारसारं; रसशब्दः स्नेहशब्दश्च सारवचनः, तेन शरीररसानां धातूनामपि सार इत्यर्थः

*यहां शरीर के सार के सार को शरीर स्नेह निर्दिष्ट किया गया है ।*
 जैसे आग्नेय द्रव्यों से निर्मित स्वर्ण माक्षिक भस्म सार है और उसका सत्त्व पातन शरीर स्नेह है । उक्त मन्तव्य आचार्य चक्रपाणि जी है ।

🙏🌹

[10/28, 11:42 PM] Dr B K Mishra Ji: 

आतुर की दशविध परीक्षाओं में से एक सारतः परीक्षा भी है। वहां सार शब्द का अर्थ संबंधित धातु का विशुद्धता ग्रहण किया गया है ।
 *सार शब्देन विशुद्धतरो धातुरुच्यते*

[10/28, 11:45 PM] Dr B K Mishra Ji: 

आयुर्वेदसम्मत देहधातुपोषण प्रक्रियाक्रम-1💐

देहधातुएं अपने द्रव्यतः समान अथवा समान गुणप्रचुरता वाले आहारविहारों के अभ्यास अर्थात् नियमित सेवन से पुष्ट होकर वृद्धि को प्राप्त करती हैं। इसके विपरीत स्थिति में क्षीण होती हैं।
जातिसामान्य अर्थात् द्रव्यतः ही समान आहार विहार सेवन से यह वृद्धि शीघ्र होती है, यथा रक्त से रक्त , मांस से मांस, इसी प्रकार अन्य धातुएं भी अपने जातिसदृश आहार सेवन से शीघ्र बढ़ती हैं। द्रव्यतः उपलब्ध नहीं होने पर या अरुचि और घृणास्पद द्रव्य होने की स्थिति में उनके समान गुणप्राचुर्य वाले द्रव्यों के सेवन से भी वृद्धि होती है, जो धातुएं गुरु ,लघु आदि स्वयं होती हैं, उन्ही गुरु, लघु, मन्द, स्निग्ध रुक्ष आदि गुणों से युक्त आहार विहार के सेवन से भी वृद्धि को प्राप्त होती हैं।
 जैसे गुरु ,स्निग्ध, शीत, मधुर आदि गुण से प्रचुर दुग्ध के सेवन से समान गुणतः शुक्र धातु की शीघ्र वृद्धि होती है।

धातवः पुनः शारीराः समानैः समानगुणभूयिष्ठैर्वा आहारविहारैरभ्यस्यमानैः वृद्धिम् प्राप्नुवन्ति   चरक,वाग्भट।

आहार पर 13 अग्नियों की क्रिया द्वारा पाचन और उपापचायिक प्रक्रियों द्वारा देहधातुएँ पोषण प्राप्त कर पुष्ट होती हैं।

 ग्रहण किये गए अशित खादित पीत और लीढ चतुर्विध आहार पर जठर में पाचकाग्नि की क्रिया द्वारा आहाररस का निर्माण होता है, इसके पश्चात उक्त आहाररस पर अपनी अपनी धातुअग्नियों की क्रिया द्वारा तीन चरणों (Phases) में धातुपोषण की प्रक्रिया पूर्ण होती है, जिन्हें त्रिविध न्याय से जाना जाता है।

 1.प्रथम चरण में जिस प्रकार खेत में नाली द्वारा क्रमशः एक एक कर सभी क्यारियों में पानी से सिंचन होता है, वैसे ही आहार के सारभूत रस को व्यान वायु द्वारा सम्पूर्ण देह में विक्षेपण द्वारा पहुंचाया जाता है।

व्यानेन रसधातुर्हि विक्षेपोचितकर्मणा
युगपत सर्वतोजस्रम देहे विक्षिप्यते सदा।  चरक

इसी प्रक्रिया को केदारीकुल्या न्याय (Micro Circulation & Tissue Perfusion) से समझा जाता है।

 2. जिस प्रकार खलिहान में अनाज के ढेर में से पक्षी अपने अनुकूल और आवश्यक मात्रा के अनुसार सामग्री चयन कर ग्रहण कर लेजाते हैं, उसी प्रकार प्राप्त आहाररस में से रसादि धातु अपने गुणों के अनुकूल  आवश्यक भौतिक पदार्थों का उचित मात्रा में भूताग्नियों  की सहायता से चयन कर लेते हैं। इस प्रक्रिया को "खलेकपोतन्याय" (Selective uptake) से समझा जाता है।

3- जिस प्रकार दूध सर्वांशतः दही में रूपांतरित हो जाता है,उसी प्रकार  इसके पश्चात चयनित समान गुणों युक्त सामग्री को धातुओं के द्वारा अपनी धात्वग्नियो की क्रिया द्वारा पूर्णतः अपने धातुरूप में स्वांगीकृत कर लिया जाता है।
इस प्रक्रिया को ही "क्षीरदधिन्याय"(Assimilation & Transformation) से समझा जाता है।
इस प्रकार आहार से धातुपोषण प्रक्रिया सम्पन्न होती है।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~
इसके अतिरिक्त आचार्यवर रमाकांत जी शर्मा ने निम्नानुसार विवेचन  भी किया है⬇
धातुएँ द्विविध, त्रिविध एवम् विविध होती है
१-स्थानस्थ अपने स्थान में स्थित रहने वाली अंतिम परिणाम को प्राप्त कर चुकी ,
आन्तरिक धातु
२-मार्गग - वहन हो रही परिणमप्रक्रियागत-प्रक्रियारत धातु
१-स्वधातुपोषक
२- पर धातु पोषक
इस तरह आन्तरिक तो होती ही है
बाह्य भी होती है ।

[10/28, 11:57 PM] Dr B K Mishra Ji: 

सार प्रत्येक धातु में बताया गया है..
 *सारतश्चेति साराण्यष्टौ पुरुषाणाम् ....तद्यथा त्वग रक्त मांस मेदो अस्थि मज्ज शुक्र सत्त्वान् इति*
च वि 8/102

[10/29, 1:11 AM] Dr Jayshri Kulkarni, Latur:

 🙏🏻 धातुपोषणका त्रिविध दृष्टीसे आकलन  - धातुपोषक भावोंका आवागमन केवल *बलवानअग्नि* के महत्वपूर्ण सहयोग से ही  होनेवाला यह प्राकृत व्यापार संभव है ।
1) रससे शुक्र तक आहाररस द्वारा।
2) शुक्रसे रस तक ( संदर्भ- अगर प्रतिलोम क्षय हो सकता है तो उसी तरह पोषण होना अवंश्यंभावी है।
3) वैद्य दिलखुश के हर चार्ट में धातु के दोनों तरफ arrow समझकर ।
👆🏻 *परस्पर या अन्योन्य का वास्तविक अर्थ यही है।*
 अग्निदोष + विकृत दोषों  से  उपरोक्त अन्योन्य समभाव में वैषम्य के परिणाम स्वरूप
*अन्योन्य अपतर्पण*  स्पष्ट रूप से देखा जाता है । 👇🏻
1) अग्नि+वायु के कारण स्थौल्य में भेद अतिवृद्धि के साथ रसादि धातुओं  की हानि ।
2) सन्निपात अतिसार में -
धातु उपसृष्ट (शोणितपुर, मांस, यकृत्खंड, मेद, वसा, मज्जा के सदृश) अतिसार ।
3) शुक्रदोष अंतर्गत *अन्यधातु उपसंसृष्ट शुक्र*
👆🏻 ये सब  *अन्योन्य-परस्पर* धातुस्नेहपरंपरा में वैषम्य के कुछ चरकोक्त उदाहरणों से स्पष्ट करने का प्रयास किया है ।

[10/29, 5:21 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

उत्तम ग्राहय एवम् गंभीर
प्रस्तुति करण
👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏

[10/29, 8:27 AM] Prof Giriraj Sharma: 

सुप्रभात आचार्य,,,
धातु स्नेह को ही धातु सार माना है तो
वसा मेद का स्वरूप है
सिर स्नायु अस्थि का
संधि प्रदेश ,,, शेलष्मज

गर्भ व्याकरण अध्याय में आचार्य
सुश्रुत ने जो उल्लेखित किया है

*गर्भ व्याकरण*
*व्याकरणं विवरण इति*
*The set of rules and  governing the natural sequential process of growth and development of embryo .

सर्वप्रथम प्राण का वर्णन किया है
उसके उपरांत
त्वचा का क्योकि ही एक ऐसा अवयव है आचार्य मतानुसार जो सर्व प्राण मन आत्मा आदि का आश्रयी भाव हो सकती है इसलिए आचार्य चरक ने चेत समवायी कहा है ।

*त्वचा*
 *देहि सर्वगतोsप्यात्मा स्वे स्वे* *संस्पर्शन इंद्रियम .च शा 1/71*
*स्पर्शेन्द्रीय इन्द्रिय इन्द्रियाणां इंद्रियं व्यापकं - चेत समवायि ।  च सु* 11/38
शुक्र शोणित के अभिपच्यमान से संतानिका सम कहा है ।
फिर आचार्य ने कला का वर्णन किया है ।
जहां आचार्य ने सार, प्रसाद, फेंन, स्नेह आदि शब्दो का वर्णन किया है ।
यथा
शुद्ध मांसस्य य स्नेह वसा प्रकृतिते
*मेदसः स्नेहमादाय सिरा स्नायु त्वमाप्नुयात*

प्रसाद , सार, स्नेह को एक समझना उचित है क्या ,,,,
मुझे लगता है कि जब ऊष्मा, वायु इन पर इन्हें पाक करती है तो अंशांश संयोग  से कुछ ऊष्मा वायु के तरतम प्रभाव से
*कुछ भाग सार जिससे स्वधातु धातु*
*कुछ भाग प्रसाद जिससे अग्रिम धातु*
*कुछ भाग स्नेह जिससे अन्य अवयव* अंग उतपन्न होते है
प्रसाद ,सार, स्नेह एक ही धातु पर  ऊष्मा वायु के प्रभाव से तरतम एवं अंशांश भिन्नता लिए हुए होते है ।
यथा
 मेद के स्नेह से वसा
मेद सार से मेद धातु
मेद प्रसाद से वृक्क आदि अंग बन रहे है ।
यथा दुग्ध को पाक करने पर
दुग्ध, रबड़ी , और मावा बनते है ।

🌹🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹🌹

[10/29, 8:31 AM] pawan madan Dr: Okk...🙏🙏

[10/29, 8:33 AM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 👍🏻👍🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻

[10/29, 8:33 AM] pawan madan Dr: 🙏

[10/29, 8:36 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏प्रो. साहब निर्णायक मोड़ पर है आप
आप के प्रश्न सर्वथा उचित है इनका उत्तर भी स्पष्ट है, उपेक्षित मूल बिंदु  की तरफ विद्वानों के ध्यानाकर्षण हेतू आपका अभिनंदन ।

[10/29, 8:36 AM] pawan madan Dr: 🙏🙏💐🙏

[10/29, 8:38 AM] pawan madan Dr: 

Gud mng sir

This is perfect functional and practical applicable eplanation.

🙏🙏🙏

[10/29, 8:49 AM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Kisi bhi Agni ke karya se do chij banati hai...Kitta and Prasad.... Yeh Prasad bhag Yadi Sneha Pradhan hai to use Sneha ki upama bhi do gayi hai...Yadi sneh alp ya sneh rahit hai to sirf Saar shabd uchit hai...
Saar and Sneha dono Prasad bhag ke sasneha- asneha Rupa hai...

[10/29, 8:52 AM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Yadi Prasad bhag prithvi Mahabhuta dominant hai- Saar,
Jalmahabhut dominant- Sneha
Agnimahabhut dominant-Tej
Vayu Jal Mahabhuta dominant- Fen

[10/29, 9:00 AM] Prof Giriraj Sharma: 

उचित ही कह रहे है आप
प्रसाद भाग के स्वरूप की जगह धातु ज्यादा उचित होगा परन्तु क्योकि प्रसाद किट्ट या सार, स्नेह  द्रव्य की परिणाम अवस्था है ।
जो किसी भी धातु के ऊपर जब ऊष्मा, वायु, काल  के कारण  शेषांश जल से जो अवस्था परिवर्तन हो रहे है वो धातु की अवस्थाये सार, प्रसाद, स्नेह, फेन आदि अंशांश एवं तरतम भिन्नता लिए होते है ।
जिसकी संरचना, क्रिया, प्रतिक्रिया भी भिन्नता लिए होती है ।
मेद का खर पाक होने मात्र से वह स्नायु बन रहा है मृदु पाक पर सिरा
एवं प्रसाद के अन्य धातु संयोग  से वृक्क,,,,
उसी सामान्य सार भाग से मेद
एवं प्रसाद भाग से उतरोत्तर धातु ,,,
उसी से मेद जन्य किट्ट
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/29, 9:06 AM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Agnipaka ke saath saath jis dravya ka paak ho raha hai uska panchbhautik sangathan bhi Saar, Sneha, fen, tej banane me nimitt hoga...
Prasad ko Dhatu kahane me aapati nahi hai...parantu Prasad ke alava kitt bhi kabhi kabhi Dhatu hota hai...atah avyapti dosh lagega..

[10/29, 9:07 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏यही आचार्य यही ध्यान केंद्रित करे तो परस्परोप संतब्धा धातु स्नेह परम्परा का वास्तविक, आचार्य को अभिप्रेत अर्थ निकाल जाएगा ।
पाकोत्तर प्राप्त धातु में स्थित स्नेह अंश का तुलनात्मक मापन कीजिए !
उसके बाद स्नेह अंश के चालन,/स्रोतों अंतर्गत गति की संभावनाएं अनुलोम एवम् प्रति लोम दृष्टि से देखें सब स्पष्ट हो जाएगा ।

[10/29, 9:13 AM] Prof. Satish Panda K. C: 🙏🏻👏🏻👌🏻

[10/29, 9:14 AM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 👍🏻👍🏻

[10/29, 9:16 AM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

Sir, How can we assess sneh level at various Dhatu and srotasa level to measure Dhatu Sneha parampara ?

[10/29, 9:27 AM] Dr Shashi Jindal:

 🙏🏼🙏🏼🙏🏼💐🙏🏼🙏🏼🙏🏼
Sir if we consider milk as rs(dhatu roop), it has sneh but not visible,on cooling cream take the top layer, on heating at low temperature its color changes(redish-raktabh), fats and proteins (mans ??)  separate not completely,  milk still has fats, lower most layer is ruksh, upper most cream (med ??), part exposed to air dried up (asthi ???), on continous heating fats become finer and separates from protein part completly (majja and shukra).

A small effort to understand dhatu paak.
🙏🏼

[10/29, 9:37 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

Good question
Measurement of sneh can be done by assessing the concentration of sneh in a given dhatu .on the basis of combination of prathvi and jal mahabhut is is available in three levels in the body in the form of 3gunas or sneh gunas .
 स्नेहो apam gun  विशेष :, which shows his presence only by बंधन of two or more things
  स्नेहो बंधन कारक:
The three gunas are snigdh, slakskna, and pichhil, in anulom movement of dhatu sneh to nourish uper or next dhatu snigdh convert to pichhil ,and in pratilom movmement pichhil will convert in to snigdhtva ,sneh is maintaining it's presence in all dhatus every time, it is very habitual to adopt and pass other gunas which are not it's own, and always maintains his own gunas, it is main vehicle for dhatu poshan in side the body, simultaneously is is main substance for poshan it is always poshya and पोषक, स्थाई and अस्थाई it is always sthanasth and margag,
Its movement is automatic therefore it maintance dhatu sneh परम्परा which means of parasparop sanstabdhatva, assessed by sneh it self and manage by sneh it self.

[10/29, 9:52 AM] Dr. Arun Rathi, Akola: 

मेदसार से मेद धातु और मेद प्रसाद से वृक्क आदि अंग बन रहे है।
What is the difference between मेद सार and मेद प्रसाद.
सार और प्रसाद मे क्या भिन्नता है।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/29, 9:55 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*बहुत श्रेष्ठ आचार्य गिरिराज जी👍👍👍मुझे भी लगता है कि गर्भ व्याकरण ही शरीर के निर्माण के साथ होने वाले शरीर घटकों के प्रश्नों के उत्तर देगी, आपका प्रयास सही दिशा में है।*

               🙏🙏🙏

[10/29, 9:55 AM] pawan madan Dr: 

🙏🙏🙏

वाह गुरु जी

इस तरह की अंशांश कल्पना से धातु पोषण क्रिया को समझना बहुत ही मजेदार है।

आनंददायक,,,आपके शब्दो मे,,,🙂

[10/29, 9:56 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

गंभीर प्रश्न है कहीं एम डी/ पी एच डी viva में भी सामान्यतः नहीं पूछा जाता होगा पर कायसंप्र दाय में यह सामान्य प्रश्न है ।
😀😀😀😀😀😀😀

[10/29, 9:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 
👌👌👌🙏🙏🙏🙏

[10/29, 9:58 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

अगली पोस्टिंग देखिए पृष्ण की गंभीरता देखिए उत्तर इसका भी आएगा कई आचार्य दे देंगे, मेरा निवेदन सिर्फ इतना है कि समझे बिना जो आगे बढ़ेगा वो वहीं रह जाएगा ।

[10/29, 9:59 AM] pawan madan Dr: 

जी सर।।🙏🙏

हर शब्द को पूर्ण समझने में प्रयासरत हूँ।😌

[10/29, 10:04 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

आंनद परमात्म स्वरूप है सत चित और आनंद इन तीन रूपों में परमपिता को सत्ता निहित है ।
यदि कुशलता पूर्वक कर्म करते हुए आपको आनंद आया तो प्रभु ही मिल गए प्रभु की कृपा है उनका आभार व्यक्त करके यूंही कृपा करते रहने की प्रार्थना करेंगे तो पूरा जीवन आनंदमय ही गुजरेगा ।यह अनुभव गम्य है प्रतीति योग्य है छोटी छोटी बातों में आनंद लेना पाना महसूस करना  कन कन में प्रभु को देखना ही है ।आंनद लेते रहे आनंद देते रहे ।

[10/29, 10:04 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi:

 *यही तो एक विशेषता है यहां, चरक कालीन संधाय संभाषा परिषद चल रही है, गूढ़ प्रश्न और उन पर गंभीर चर्चा।*

                 🙏🌹🌹🙏

[10/29, 10:06 AM] Prof Giriraj Sharma: 

धातु मेद पर ऊष्मा, वायु के पाक एवम जल की अवस्था  से सार मूल अवस्था को मान सकते है ।
उस मेद की सार अवस्था जब अन्य धातु की क्रिया, प्रतिक्रिया, संयोग, विभाग से जो नव इकाई उतपन्न होती है वह प्रसाद ,,,
उसी सार एवं प्रसाद के अवस्थान्तर से जो सार बनने के दौरान या सार का अन्य धातु के भिन्न भिन्न स्वरूप के संयोग से कुछ विशिष्ठ भाग यथा फेन, स्नेह आदि उतपन्न होते है ।
ऐसा मेरा चिंतन है । आप शारीर क्रिया विध है आपका मन्तव्य नव दिशा प्रदान करेगा ।

आयुर्वेद संहिता सूत्र आयुर्वेद सार है यथा स्वरूप उसे भिन्न भिन्न आचार्य् दृष्टि से चिंतन मनन प्रसाद है
एवं उसी दौरान अन्य चिकित्सा विधाओं के परिपेक्ष्य में इंटरप्रिटेशन आयुर्वेद स्नेह है ।

अरूण सर !!

🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/29, 10:07 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

अब  तो सब लोग  कमाल करने लगे, उत्तर देने की शीघ्रता नहीं करते तो उत्तर सटीक एवम् सार्थक आता है चर्चा का मन बनता है, एक बार एक प्रोग मैडम ने कहा था इस विषय पर कल बात करूंगी और उन्होंने अगले दिन चर्चा की पूर्ण सार्थक और प्रश्नों पर पूर्ण विराम लगा दिया, बहुत आनंद आया
लगता है हम वयस्क हो रहे है ...काल पाक परिणाम जन्य वयस्कता
😀😀😀😀😀😀😀😀

[10/29, 10:08 AM] Prof Giriraj Sharma: 

आचार्य श्री प्रणाम
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼

[10/29, 10:13 AM] pawan madan Dr: 

Ji sir
सदैव ये बात ध्यान में रहेगी।
🙏

[10/29, 10:14 AM] Dr Bharat Padhar, Jaipur: 

I think respected Khandel sir has concluded very well this discussion and it has been established by various posts in group regarding this matter...👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻

[10/29, 10:38 AM] Dr B K Mishra Ji: 

सार शब्द का प्रसंगानुसार तात्परयाख्या से मूलभाव ग्रहण करना होता है।
पाचन तथा पोषण क्रियाव्यापर में सार किट्ट विभाजन पश्चात पोषण करने में उपयोगी भाग को सार या प्रसाद कहा गया है, तथा
आतुर की दशविध परीक्षाओं में से एक सारतः परीक्षा भी है। वहां सार शब्द का अर्थ संबंधित धातु का विशुद्धता ग्रहण किया गया है ।
 *सार शब्देन विशुद्धतरो धातुरुच्यते*
 यह सार प्रत्येक धातु में बताया गया है..
 *सारतश्चेति साराण्यष्टौ पुरुषाणाम् ....तद्यथा त्वग रक्त मांस मेदो अस्थि मज्ज शुक्र सत्त्वान् इति*
च वि 8/102
इनके प्रत्येक के लक्षण भी बताये गये हैं- यथा रससार, रक्तसार,.. *मेदसार*, ...शुक्रसार आदि...
त्रुटि संशोधन का स्वगत है 🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/29, 10:54 AM] Prof. Surendra A. Soni: 

सुप्रभात आचार्य,,,
धातु स्नेह को ही धातु सार माना है तो
वसा मेद का स्वरूप है
सिर स्नायु अस्थि का
संधि प्रदेश ,,, शेलष्मज

====================
*(नम्र निवेदन है कि👆🏻ये उपधातु का प्रसंग धातु स्नेह निर्मिति से पूर्व का प्रकरण है ।)*
====================

गर्भ व्याकरण अध्याय में आचार्य
सुश्रुत ने जो उल्लेखित किया है

*गर्भ व्याकरण*
*व्याकरणं विवरण इति*
*The set of rules and  governing the natural sequential process of growth and development of embryo .

सर्वप्रथम प्राण का वर्णन किया है
उसके उपरांत
त्वचा का क्योकि ही एक ऐसा अवयव है आचार्य मतानुसार जो सर्व प्राण मन आत्मा आदि का आश्रयी भाव हो सकती है इसलिए आचार्य चरक ने चेत समवायी कहा है ।

====================
*(यहां त्वचा वर्णन का प्रसंग समझ में नहीं आया आचार्य जी।)*
====================

*त्वचा*
 *देहि सर्वगतोsप्यात्मा स्वे स्वे* *संस्पर्शन इंद्रियम .च शा 1/71*
*स्पर्शेन्द्रीय इन्द्रिय इन्द्रियाणां इंद्रियं व्यापकं - चेत समवायि ।  च सु* 11/38

शुक्र शोणित के अभिपच्यमान से संतानिका सम कहा है ।
फिर आचार्य ने कला का वर्णन किया है ।
जहां आचार्य ने सार, प्रसाद , फेंन, स्नेह आदि शब्दो का वर्णन किया है ।
यथा
शुद्ध मांसस्य य स्नेह वसा प्रकृतिते
*मेदसः स्नेहमादाय सिरा स्नायु त्वमाप्नुयात*

प्रसाद , सार, स्नेह को एक समझना उचित है क्या ,,,,

====================

*(प्रसंगानुसार विभिन्न शब्दों के पृथक पृथक अर्थ संभव हैं । प्रसाद- धातु का वह अंश जो उत्तर धातु निर्माण में प्रयोज्य ।
सार- उत्कृष्टता अनुसार वर्णित अष्टसार एवं कहीं कहीं धातुस्नेह । धातु स्नेह- जब हम ओज को सर्व धातुस्नेह/सार कहते हैं । सर्वधातु स्नेह/सार ओज ही है।

सु सू 15/19 पर डल्हण
👇👇👇👇👇👇

*परम् उत्कृष्टं, तेज इव तेजः, तेजो घृतं वा, घृतं यथा कृत्स्नक्षीरस्नेहस्तथैवौजोऽपि कृत्स्नधातुस्नेह इत्यर्थः; “यत् परं तेज इति यदुत्कृष्टं सारः” इत्यन्ये व्याख्यानयन्ति। तत् खल्वोजस्तदेव बलमित्युच्यत इति, इयं चाभेदोक्तिश्चिकित्सैक्यार्था, परमार्थस्तु बलौजसोर्भेद एव; यथा भेदस्तदुच्यते- *सर्वधातुस्नेहभूतस्योपचयलक्षणस्यौजसो रूपरसौ वीर्यादि च विद्यते,* बलस्य तु भारहरणादिशक्तिगम्यस्य रसवीर्यवर्णादिगुणा न विद्यन्ते, अतोऽनयोर्भेदोऽस्त्येवेति; तथाच बलौजसोर्भेदो वेदोत्पत्तावध्याये उक्तः- “प्राणिनां पुनर्मूलमाहारो बलवर्णौजसां च”(सू. अ. १)- इति। तन्त्रान्तरे तु ओजःशब्देन रसोऽप्युच्यते, जीवशोणितमप्योजःशब्देनामनन्ति केचित्, ऊष्माणमप्योजःशब्देनापरे वदन्ति।।१९।।*

मुझे लगता है धातुस्नेहपरम्परा और परस्पतिपसंस्तब्धा का कुछ संबंध ओज की ओर संकेत करता है ।
तत्र रसादीनां शुक्रान्तानां धातूनां यत् परं तेजस्तत् खल्वोजस्तदेव बलमित्युच्यते, स्वशास्त्रसिद्धान्तात् ।।१९।।
====================

मुझे लगता है कि जब ऊष्मा, वायु इन पर इन्हें पाक करती है तो अंशांश संयोग  से कुछ ऊष्मा वायु के तरतम प्रभाव से
*कुछ भाग सार जिससे स्वधातु धातु*
*कुछ भाग प्रसाद जिससे अग्रिम धातु*
*कुछ भाग स्नेह जिससे अन्य अवयव* अंग उतपन्न होते है
प्रसाद ,सार, स्नेह एक ही धातु पर  ऊष्मा वायु के प्रभाव से तरतम एवं अंशांश भिन्नता लिए हुए होते है ।
यथा
 मेद के स्नेह से वसा
मेद सार से मेद धातु
मेद प्रसाद से वृक्क आदि अंग बन रहे है ।
यथा दुग्ध को पाक करने पर
दुग्ध, रबड़ी , और मावा बनते है ।

🌹🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹🌹


आचार्य गिरिराज जी !🙏🌹

[10/29, 11:00 AM] Dr. Arun Rathi, Akola: 

*यहीं मैने अपने धातु पोषण पंरपरा पोस्ट मे लिखा है।*

*स्थाई धातु पर, स्व स्त्रोतस मे स्व अग्नि व्दारा जो पाक प्रक्रिया निरंन्तर होती रहती है, उसी से धातुसारता उत्पन्न होती हैं।*
*आचार्य गिरिराजजी ने मेदसार से मेदधातु कहा है, सो मै उनका चिन्तन जानना और  समझना चाह रहा था।*

[10/29, 11:01 AM] pawan madan Dr: 

जैसा के खांडेल गुरु जी ने इंगित किया,,,,
धातु सार
धातु स्नेह
ओज
प्रसाद भाग
किट्ट भाग

ये सब physiological entities है।
ये संदर्भ अनुसार भिन्न अर्थ की तरफ इशारा करती हुई हो सकती हैं।
एक पद एक नाम अनेक क्रिया कर्म करने वाला दिग्दर्शक भी हो सकता है
ऐसा मेरा समझना है

🤔


[10/29, 11:07 AM] Prof Giriraj Sharma: 

आचार्य हो सकता है मेरा चिंतन गलत हो
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼

[10/29, 11:08 AM] Prof Giriraj Sharma: 

शास्त्र ही सत्य है ।
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼


[10/29, 11:13 AM] Dr. Mrityunjay Tripathi, Gorakhpur:

 Pranam sir 🙏🙏

[10/29, 11:21 AM] Prof Giriraj Sharma: 

सुप्रभात आचार्य,,,
धातु स्नेह को ही धातु सार माना है तो
वसा मेद का स्वरूप है
सिर स्नायु अस्थि का
संधि प्रदेश ,,, शेलष्मज

====================
*(नम्र निवेदन है कि👆🏻ये उपधातु का प्रसंग धातु स्नेह निर्मिति से पूर्व का प्रकरण है ।)*

*पहले धातु निर्माण होता है या उपधातु ,,*,,
====================

गर्भ व्याकरण अध्याय में आचार्य
सुश्रुत ने जो उल्लेखित किया है

*गर्भ व्याकरण*
*व्याकरणं विवरण इति*
*The set of rules and  governing the natural sequential process of growth and development of embryo .

सर्वप्रथम प्राण का वर्णन किया है
उसके उपरांत
त्वचा का क्योकि ही एक ऐसा अवयव है आचार्य मतानुसार जो सर्व प्राण मन आत्मा आदि का आश्रयी भाव हो सकती है इसलिए आचार्य चरक ने चेत समवायी कहा है ।

====================
*(यहां त्वचा वर्णन का प्रसंग समझ में नहीं आया आचार्य जी।)*

*अंग प्रत्यंग निर्माण की प्रक्रिया में सर्वप्रथम त्वचा का निर्माण हो रहा है आप श्री त्वचा को SKIN के परिपेक्ष्य *में लेते है मैं Epithelial स्तर पर*
 *जब कला निर्माण हो रहा है तब स्नेह *प्रसाद सार का निर्माण उसकी पूर्व *स्तिथि को समझना भी महत्वपूर्ण है *इसलिए त्वचा का वर्णन प्राण के साथ *जरूरी है क्योंकि  अग्नि सोम वायु के *का परस्पर अनुप्रविष्ट आदि ही इस *अवस्था मे मुख्य कारण है न कि दोष*
====================

*त्वचा*
 *देहि सर्वगतोsप्यात्मा स्वे स्वे* *संस्पर्शन इंद्रियम .च शा 1/71*
*स्पर्शेन्द्रीय इन्द्रिय इन्द्रियाणां इंद्रियं व्यापकं - चेत समवायि ।  च सु* 11/38

शुक्र शोणित के अभिपच्यमान से संतानिका सम कहा है ।
फिर आचार्य ने कला का वर्णन किया है ।
जहां आचार्य ने सार, प्रसाद , फेंन, स्नेह आदि शब्दो का वर्णन किया है ।
यथा
शुद्ध मांसस्य य स्नेह वसा प्रकृतिते
*मेदसः स्नेहमादाय सिरा स्नायु त्वमाप्नुयात*

प्रसाद , सार, स्नेह को एक समझना उचित है क्या ,,,,

====================

*(प्रसंगानुसार विभिन्न शब्दों के पृथक पृथक अर्थ संभव हैं । प्रसाद- धातु का वह अंश जो उत्तर धातु निर्माण में प्रयोज्य ।
सार- उत्कृष्टता अनुसार वर्णित अष्टसार एवं कहीं कहीं धातुस्नेह । धातु स्नेह- जब हम ओज को सर्व धातुस्नेह/सार कहते हैं । सर्वधातु स्नेह/सार ओज ही है।

सु सू 15/19 पर डल्हण
👇👇👇👇👇👇

*परम् उत्कृष्टं, तेज इव तेजः, तेजो घृतं वा, घृतं यथा कृत्स्नक्षीरस्नेहस्तथैवौजोऽपि कृत्स्नधातुस्नेह इत्यर्थः; “यत् परं तेज इति यदुत्कृष्टं सारः” इत्यन्ये व्याख्यानयन्ति। तत् खल्वोजस्तदेव बलमित्युच्यत इति, इयं चाभेदोक्तिश्चिकित्सैक्यार्था, परमार्थस्तु बलौजसोर्भेद एव; यथा भेदस्तदुच्यते- *सर्वधातुस्नेहभूतस्योपचयलक्षणस्यौजसो रूपरसौ वीर्यादि च विद्यते,* बलस्य तु भारहरणादिशक्तिगम्यस्य रसवीर्यवर्णादिगुणा न विद्यन्ते, अतोऽनयोर्भेदोऽस्त्येवेति; तथाच बलौजसोर्भेदो वेदोत्पत्तावध्याये उक्तः- “प्राणिनां पुनर्मूलमाहारो बलवर्णौजसां च”(सू. अ. १)- इति। तन्त्रान्तरे तु ओजःशब्देन रसोऽप्युच्यते, जीवशोणितमप्योजःशब्देनामनन्ति केचित्, ऊष्माणमप्योजःशब्देनापरे वदन्ति।।१९।।*

मुझे लगता है धातुस्नेहपरम्परा और परस्पतिपसंस्तब्धा का कुछ संबंध ओज की ओर संकेत करता है ।
तत्र रसादीनां शुक्रान्तानां धातूनां यत् परं तेजस्तत् खल्वोजस्तदेव बलमित्युच्यते, स्वशास्त्रसिद्धान्तात् ।।१९।।
====================

मुझे लगता है कि जब ऊष्मा, वायु इन पर इन्हें पाक करती है तो अंशांश संयोग  से कुछ ऊष्मा वायु के तरतम प्रभाव से
*कुछ भाग सार जिससे स्वधातु धातु*
*कुछ भाग प्रसाद जिससे अग्रिम धातु*
*कुछ भाग स्नेह जिससे अन्य अवयव* अंग उतपन्न होते है
प्रसाद ,सार, स्नेह एक ही धातु पर  ऊष्मा वायु के प्रभाव से तरतम एवं अंशांश भिन्नता लिए हुए होते है ।
यथा
 मेद के स्नेह से वसा
मेद सार से मेद धातु
मेद प्रसाद से वृक्क आदि अंग बन रहे है ।
यथा दुग्ध को पाक करने पर
दुग्ध, रबड़ी , और मावा बनते है ।

🌹🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹🌹


आचार्य सुरेन्द्र सोनी जी !🙏🌹

[10/29, 11:26 AM] Prof Giriraj Sharma: 

बाकी आप के वचन शास्त्र सम्मत ही होते है इन पर संशय नही
🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼🙏🏼

[10/29, 11:30 AM] Prof. Surendra A. Soni: 

गर्भ में पोषण बीज बीजभाग जो कि नक्शा/map के अनुसार होता है और अंगोत्पत्ति के सिद्धांत वहां मातृ धातु बल के अनुसार कार्यकर होते हैं अतः मातृज आदि भावों का पृथक से उल्लेख किया गया है ।
 प्रारंभ में गर्भ पोषण ओज और माता के धातुओं से पराश्रित स्वरूप में होता है । वहां परस्परोपसंस्तब्धा धातुस्नेहपरम्परा कार्यकर होती हैं ? यह विचारणीय है । संभवतः आचार्य ने ग्रहणी अध्याय में इसी लिए दिया है कि ये पूर्ण वयस्कों के लिए वर्णित है ।

🙏🌹

[10/29, 11:32 AM] Prof Giriraj Sharma: 🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼

[10/29, 11:32 AM] Prof. Surendra A. Soni: 

जब हम धातु स्नेह और सार की बात करते हैं तो वह निश्चित रूप से धातु/उपधातु, दोनो की निर्मिति के बाद का प्रसंग है शतदलवेधनवत् ।
गिरिराज सर !
🙏🌹

[10/29, 11:35 AM] Prof Giriraj Sharma: 

मुझे जानकारी नही थी आचार्य
वयस्क में और गर्भ में निर्माण प्रक्रिया भिन्न होती है ।

[10/29, 11:36 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

सम्भवतः वहा dhatusneh परम्परा कार्य नहीं कर रही है केवल उप स्नेह  कार्य करता है उपस्वेद  की उपस्थिति में, लेकिन पूर्णतः मना करना कठिन है ।
यदि बीज रूप में भी इसे अस्वीकार कर दिया गया तो काले अभिव्यक्ति असंभव होगी ।

[10/29, 11:37 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

निस्संदेह

[10/29, 11:37 AM] Prof. Surendra A. Soni: 

हास परिहास में आप पारंगत हो ही आचार्य गिरिराज जी । 11.35 am post

😍🤓🙏🌹

[10/29, 11:38 AM] Prof. Surendra A. Soni: 

नमो नमः गुरूजी । बीज रूप ।
🙏🌹😌

[10/29, 11:40 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

नमो नमः🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/29, 11:41 AM] Prof Giriraj Sharma: 

😅🙏🏼🙏🏼🌹🙏🏼🙏🏼😅
आप से क्या छिपा है मेरा
धन्य हूँ मैं कि आप मुझे इस स्नेह से आलिप्त रखते है ।
🌹🌹🌹🙏🏼🌹🌹🌹

[10/29, 11:43 AM] Prof. Surendra A. Soni:

 परस्परोपसंस्तम्भाद्धातुस्नेहपरम्परा।
अ हृ शा 3/65

गुरूजी आचार्य वाग्भट्ट जी ने परस्परोपसंस्तब्धा को
परस्परोपसंस्तम्भात् किया है ।

🙏🙏🌹🌹

[10/29, 11:44 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

विगत कतिपय दिनों से तो महत्व स्नेह और उसकी परम्परा का ही है😀😀😀😀😀😀

[10/29, 11:44 AM] Prof. Surendra A. Soni: 

😃😃
आपका स्नेह और प्रेम है आचार्य जी ।

🙏🙏🌹🌹

[10/29, 11:44 AM] Prof. Surendra A. Soni: 😃😃🙏🙏🌹🌹

[10/29, 11:45 AM] Dr Shashi Jindal: 👍🏼👌👌👌🙏🏼💐

[10/29, 11:46 AM] Prof. Ramakant Chulet Sir: 

😀😀😀😀😀🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🍇🍍🥥 पुष्प वाला इमोजी मिला नहीं इसलिए फल स्वीकार करे ।

[10/29, 11:47 AM] Dr Shashi Jindal: 

utpatti and poshan ?

[10/29, 11:51 AM] Prof Giriraj Sharma:

 पूर्णतया सहमत आचार्य
पर ऐसा भी हो सकता है कि स्वस्थ के परिपेक्ष्य में गर्भ व्याकरण से इंगित किया हो
और विकृति जन्य में ग्रहणी व्याधि में ,,,,
क्योकि ग्रहणी एकाएक होने वाली व्याधि नही है ,,,,
मुझे ऐसा लगता हैं ।

[10/29, 12:06 PM] Dr. Venkat Joshi UK: 

कलल ! बुद्बुध प्रायः स्नेह जलांश प्रथम मास ओजो स्नेहांश पोषण..
Symbolic we can see how beautiful flowers (though weaker) generates initiative for fruits formation... ultimately affected by further nourishment
Hence all fruits doesn’t mature!
By taste colour smell development
Equally Rasa of mother is playing major role to continue for further development
If not other sneha from Dhatu and ojus
Inadequate to maintain the
FTND 40 weeks
In fact the last breath of
Blood rakthouja from umbilical cord is important in for being detached from mother....
Unfortunately the Rasa Dhatu of mother’s each stage after initial is important
In my opinion

[10/29, 12:17 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*इस जटिल प्रकरण को एक perfect orderliness चाहिये थी जो आपने कर दी सोनी जी ।*

              🙏🙏🙏🙏

[10/29, 12:22 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma, Delhi: 

*गर्भ परतन्त्र है और जन्म के बाद शरीर स्वतन्त्र अत: धातुओं पर यह सिद्धान्त निश्चय ही विचारणीय है।*

              🙏🙏🙏

[10/29, 12:40 PM] Prof Mamata Bhagwat: 

*धातु सार- धातो: बलं।*
The inner strength or potency of the dhatu is Saara.

 *विशुद्ध तरो धातुः सारशब्देनोच्यते।*
The most clear/ pure/ appropriate Dhatu bhaga is Saara.
When we talk about Dhatu sneha.. and Dhatu Saara we need to focus on the material they are formed from.
*स्नेहांश* is the essential part of any Dhatu.
Sneha Sthira these are the Gunas that build each Dhatu.
Another word that draws attention is
*धातु प्रसाद* Atyanta shuddha bhaga of Dhatu that can form Indriya.
Dhatu sneha parampara is the essence that is carried to form Uttarottara dhatu formation. The Saara bhaga only in other words.

Where as..
*उपस्नेहः- निस्यन्दः, उपलेपः, सूक्ष्मायनैः आप्यायनं उपस्नेहः।*

It is also meant as *स्निग्धत्वम्।*

[10/29, 2:57 PM] Vd Raghuram Bhatta, Banguluru:

 *Wonderful discussions on Dhatu Sneha Parampara*🙏🙏💐💐👏👏👏👏👏

*_I would like to add up to the discussions from my perspective_*.

💐💐💐💐💐💐💐

*_How to know how much sneha is present in each dhatu or which dhatu has predominantly more sneha?_*

*Dravam sookshmam saram snigdham pichchilam guru sheetalam. Praayo mandam mrudu cha yad dravyam tat snehanam matam - Cha.Su.22/15*

Therefore sneha is the collective presence of these qualities. If these qualities are present in the tissues, it indicates the presence of snigdhata in dhatus i.e. *dhatu senha*. But in each dhatu the qualities may *relatively vary*.

👉 *Kapha varga dhatus* i.e. rasa, mamsa, meda, majja and shukra, mutra and purisha will have *more and richness of sneha* due to predominance of prithvi and jala components in their makeup. These tissues may have *maximum sneha gunas*. Related dhatu sara purushas will have optimum sneha in their tissues.

👉 *Pitta varga dhatus* i.e. rakta and sweda will have *moderate quantum of sneha* due to the predominance of agni and jala components. These tissues may have *moderate sneha gunas*. Related dhatu sara purushas will have moderate sneha in their tissues.

👉 *Vata varga dhatus* i.e. asthi will have *low quantum of sneha or latent sneha* due to the predominance of vayu and akasha components. These tissues may have *fewer sneha gunas*. Related dhatu sara purushas will have minimum sneha in their tissues.

💐💐💐💐💐💐💐

*_Important points of dhatu sneha parampara from perspective of individual dhatus_*

As we know, the tissues are formed in a chronological sequence wherein each successive tissue gets nourished and enriched by predecessor tissues through upasnehana, forming a balanced network of *dhatu Sneha parampara*, the friendly chain of tissues. 

All tissues have *jala mahabhuta in varying proportions*. Jala contributes to most of snigdhata in them.

👉 *Rasa (Jala +)* is made up of jala predominantly, therefore it will obviously have snigdhata, may be almost qualities of sneha. It should have adequate sneha since it needs to nourish the successive dhatus. The quantity of balanced sneha coming into the system in the form of food, i.e. balanced, easily digestible foods with balanced proportions of sneha needed for a given person, in a given serving of food taken on regular basis might make up for the optimum balance of snigdhata of rasa. This will form a foundation for proper formation of tissues in sequential form in terms of quality and quantity. Proper and timely hydration too matters apart from a balanced state of agni.

👉 *Rakta (Jala+ & Agni ++)* – the balance of whatever quantity of jala is present in rakta depends on constant balance of jala in rasa dhatu from which it has been formed. In rakta we have an opposite force in the form of agni. And rakta belongs to pitta varga. Therefore the balance of this ratio is important. Increase in Jala and decrease in agni components of rakta may mean increase in kapha bhava in the rakta. It may reflect in the form of high blood fats or raised sugar levels in the blood. Similarly increase in Agni component indicates decrease of water and subsequent reduction of snigdhamsha in the blood. The rakta dhatu and its srotas might lose support and lubrication leading to excessive heat and dryness leading to imbalance of pitta and vata leading to conditions like hypertension etc. (I am just quoting some examples, other conditions may be understood as per ones understanding). In comparison to rasa, rakta will have less snigdhata. Snigdhata here may be more fluctuant due to the presence of agni.

👉 *Mamsa (Prithvi ++ & Jala)* - Here we can see that mamsa tissue has more prithvi and less water. The snigdhata may be less in comparison to rasa dhatu but it will be more stable in comparison to snigdhata in rakta because of absence of antagonizing agni. Predominant prithvi will keep the snigdhata balanced.

👉 *Medas (Jala +++ & Prithvi +)* – In meda we can see the reverse gradient as in mamsa. The snigdhata is optimum and rich in comparison to the previous tissues. If this ratio is maintained, the medas will be baddha and contribute to good lubrication and insulation of the body. Increase in jala in proportion to prithvi may lead to an unstable form of meda with increased snigdhata i.e. bahu and abaddha medas which may eventually lead to diseases like prameha.

👉 *Asthi (Prithvi ++ & Akasha +)* – In asthi dhatu the snigdhata will be less or minimum or even latent. We cannot consider absence of snigdhata because in the uttarottara dhatu formation, majja, which has high proportion of jala and snigdhata is formed from asthi. Therefore asthi may have a secret for decoding the fats and their balance in the body, it may be a store house of latent fat.

👉 *Majja (Jala +++ & Prithvi +)* – In majja we can see the mahabhuta makeup is similar to medas and the proportions of snigdhata too will be alike.

👉 *Shukra (Jala ++ & Prithvi +)* – Shukra is almost similar to Medas and Majja in the make up in relation to the bhuta components but is an element water less. But it has exact similarity with mamsa dhatu in terms of composition. Therefore the snigdhata therein may be lesser in comparison to Medas and Majja but richer in comparison to other tissues.

*_Chronology of tissues in terms of richness in snigdhata in them_*

👉 Majja (since it is also considered among chaturvidha sneha)

👉 Meda

👉 Rasa (since it has undiluted sneha, doesn’t have association of any other bhuta)

👉 Mamsa (since its sneha i.e. vasa is also one among the chaturvidha snehas, that is why I have put it ahead of shukra which has similar mathematics)

👉 Shukra

👉 Rakta

👉 Asthi

*Note*

👉 The richness of jala mahabhuta and related snigdhata in each tissue depends on the *balance of elements in the previous tissue and the state of agni in each related tissue*.

👉 The *snigdhata in the predecessor dhatu* might help in formation and balance of snigdhata in the next dhatu in the sequence. Thus there is anupravesha of sneha from ahara rasa into the rasa dhatu, rasa to rakta and so on. But the balance of snigdhata and the quantity of snigdhata needed to maintain the functions of that particular dhatu is determined and maintained by the intelligence of the related dhatvagni, it is detrimental.

👉 The *qualities of sneha are also present in varying degrees of richness in each tissue, individually and relatively*. This contributes to grading of tissues in the dhatu sneha parampara. Example – Shukra dhatu might have richness of guru, drava, sara, snigdha, sheeta and pichchila gunas in that order. Mamsa dhatu might have richness of mrudu, guru, manda, snigdha and sheeta gunas in that order. Here we need to note that shukra dhatu needs more of gurutva, dravatva and snigdhatva while mamsa dhatu needs more of mrudutva, gurutva and snigdhatva. These permutations and combinations of sneha gunas in tara tama bhava will cause variability in the proportions of sneha they carry. This may be *physiologically programmed*.

💐💐💐💐💐💐💐

*_Prasada, sara and sneha puzzle_*

*Prasada – the pure, wanted and usable part of anything is called prasada*. Master Charaka tells in Sutra Sthana 28/4 *Tatra ahara prasadakhyo rasah, kittam cha malakhyam…’*. So, prasada is a term which needs to be understood in *comparative sense*. Example, the digested food forms two bulks, one is prasada (rasa) and other is kitta (mala). If I take the word kitta as *aprasada*, rasa becomes identified as useful only in comparison to aprasada i.e. useless or non-usable or unwanted. Let us understand it with common examples. When I go to a vegetable market, from a basket of tomatoes I select the best ones and reject the damaged or rotten ones. I am taking the prasada bhaga by bifurcating a big mass of tomatoes into good tomatoes and bad tomatoes. *Prasada is a part of a big mass wherein it is obtained after separation of aprasada bhaga, as in digested food*

*Sara* – Sara is *not the part of a whole as in prasada, it is the essence or best part amongst the whole*. We have *dhatu sara purushas* in *saratah pariksha*. Out of my 50 students I send 2 best students for a competition. It doesn’t mean the others are bad. It only means that all are good, but these two qualify. I call them as representatives of my institute, the essence, the sara. They bear the flag of my institution and when they win, the whole institution gets good name. When we prepare manda, we use the drava bhaga, it is the sara. The Ghana bhaga is not kitta, it can also be used. Here we are just taking the most useful part. When we tell that a person is asthisara purusha, it means that he has rich quality and quantity of bone tissue, it doesn’t mean that the other tissues are in a bad state. When I am given a mango, I separate the skin and seed and eat the pulp; I am separating the kitta from prasada bhaga. When I have mango juice in my hand, I am served with the sara of mango.

Having said that I also agree that these two terms might be used interchangeably as per situation and context if the context and its meaning is not put into damage.

👉 *Prasada – purest form following bifurcation of impure and unwanted portions*

👉 *Sara – essence / extract / best form amongst the good ones*

💐💐💐💐💐💐💐

*_Are dhatu sneha and dhatu sara same?_*

Sneha and Sara are different in terms of their meaning. If sara is essence or extract or active / most important ingredient of a tissue, sneha may or may not fulfill the criteria of being sara of a particular dhatu. If dhatu sara has all qualities of sneha, then dhatu sneha and dhatu sara are identical. When a dhatu relies on its snigdhamsha at some time to render its activities, and if the sneha in the tissue confers bala and sthiratva at a given point of time, the sneha of that tissue also becomes its sara. 
*Saro balo sthiramshe cha – amarakosha*. 
But in *dhatu sneha parampara*, since all tissues have different proportions of sneha and different tissues serve different set of functions, sneha of all tissues cannot be considered as the sara of those tissues. The concept may be situational and elective. There is no harm in using them interchangeably.

*This is my submission to the elite panel* .🙏🙏🙏💐💐

[10/29, 3:24 PM] Shantanu Das Prof KC: Excellent sir👌🏼👌🏼

[10/29, 3:59 PM] Prof. Surendra A. Soni:

 नमो नमः !
आचार्य रघु जी ।
You presented the all essential components so systematically that none is left now. 

🙏🙏🌹🌹☀☀👌🏻👌🏻

I was expecting few examples of reverse dhatu poshan concepts that I and resp. Lungare Sir tried to present in our post. Jayashri madam also quoted nice example.
Thank you very much for super post that may be considered as conclusion if all gurujan, seniors and friends are agree.

🙏🙏😌🙏🙏

[10/29, 4:10 PM] Vd Raghuram Bhatta, Banguluru: 

Thanks so much for your good words Soni sir💐💐🙏🙏🙏🙏. 

As always it was pleasure to be a part of this wonderful discussion related to a challenging topic. 

Thanks to all Gurujan and friends for having been a part of this discussion and for contributing many thought provoking perspectives, ideas and clarifications towards the topic. 🙏🙏🙏💐💐

[10/29, 4:24 PM] pawan madan Dr:

 रघु सर
I was we waiting for your article from yesterday...
💐💐💐

...Very important concept of Kapha, pitta and vaata vargiya dravyas.....Very practical ....👍🏻

...Sneha =()()= in terms of jala mahabhiyog

...Good examples....For Prasaad , saara and kitta bhaag......We always need to consider these physiologically...

...Sneh of each dhatu is different in different dhatu ...👍🏻

... Concept may be situational and elective....👍🏻👍🏻👏🏻

Thanks Raghu sir.

🙏💐🙏

[10/29, 7:30 PM] Prof Mamata Bhagwat:

 Indeed it was very interesting and informative to read everyone's post.. 🙏🏻🙏🏻

[10/29, 7:40 PM] Prof S. K. khandal Sb: 

Wonderful discussion
Thanks Raghuram for this much clarity pl add one more 
As for clinical purpose 
Sneha is bio psycho spiritual  energy and 
Ruksha is the biomarker of energy exausted  signal for refilling.

[10/29, 7:49 PM] Prof MB Gururaja: 👍🏻👌🏻👏🏻👏🏻🙏🏻🙏🏻

[10/29, 7:50 PM] Vd Raghuram Bhatta, Banguluru: 

🙏🙏🙏🙏 Thanks sir

*Ruksha - biomarker of energy exhausted signal for refilling*👏👏👏👏👌👌👌👌💐💐

Awesome sir, loved the word *refill*. ✅✅✅

*Concept of contrasting gunas....such wonderful concepts....thanks to our ancient Ayurveda Acharyas*🙏🙏💐






**************************************************************************


Above discussion held on 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp-discussion-group  of  well known Vaidyas from all over the India. 



Compiled & edited by


Dr.Surendra A. Soni



M.D.,PhD (KC) 
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150

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