[5/24, 12:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*फंगस, वायरस और आयुर्वेद - एक चिकित्सक का दृष्टिकोण case presentation में दद्रु कुष्ठ tinea infection के साथ ...*
*आर्ष ग्रन्थों में लिखित व्याधियों को आधुनिक समय में किस प्रकार से समझ कर हेतु और सम्प्राप्ति घटक बनाकर चिकित्सा सूत्र से उन्हे दूर करें, आज इसी पर चर्चा करेंगे। Fungus को आयुर्वेदानुसार कैसे समझे, बाह्य और आभ्यंतर संक्रमण की चिकित्सा के प्रमाण हम अनेक रोगियों से एकत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं जो रोग मुक्त हो चुके हैं, पर आज का आरंभ बाह्य fungal infection से .. *
*रूग्णा/20 वर्ष/ छात्रा*
*प्रमुख वेदना - श्रोणि-उदर प्रदेश कंडू, स्वेदाधिक्य, रक्ताभ प्रसर युक्त व्याधि लक्षण जिसमें सूक्ष्म पीडि़का भी हो रही थी।*
[5/24, 12:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आयुर्वेद में व्याधि तो एक, लक्ष्य उसकी चिकित्सा कर धातु साम्यता पर चिकित्सा के मार्ग भिन्न मिलेंगे जिस से औषध कल्पनायें और योग भी भिन्न भिन्न हो जायेंगें परन्तु कुशल भिषग् अन्तत: अपने लक्ष्य को सफलता से प्राप्त कर लेते है। अनेक अनुभवी एवं कुशल भिषग् रसौषधियों का प्रोग कर सफल होते हैं और अनेक विष, उपविष सहित उष्ण-तीक्ष्ण काष्ठौषधियों से भी रोगी को रोगमुक्त कर देते है। व्याधि क्षमत्व और रसायन चिकित्सा का ध्यान दोनो ही स्थिति में महत्वपूर्ण है।आज हम अति विस्तार से बात करेंगे पहले fungus पर और बीच में और बाद में वायरस पर क्योंकि जिसके अनेक रोगी दिनप्रतिदिन की चिकित्सा में तो चिकित्सा हेतु आते रहे हैं पर आयुर्वेद में इसे किस प्रकार प्राचीन समय में भी लिया गया था, अनेक रोगों के ज्ञान के साथ चलेंगे।
'ननु अजीबाज्जीवसृष्टि: कथं सम्भवतीति चेत् ?
अर्थात निर्जीव से सजीव कैसे उत्पन्न हो सकता है ?
यह कैसे संभव है ?
क्या यह अति सूक्ष्म वायरस संसार में पहले से ही उत्पन्न हैं या अब हो रहे हैं ?
पहले तो वायरस से व्यथित और अब ब्लैक फंगस !*
*एक रोग से दूसरे रोग की उत्पत्ति, एक दूषित स्रोतस से अन्य स्रोतस का दुष्ट होना, ऐसे ही एक हेतु वायरस द्वारा अन्य हेतु fungus के लिये स्रोतस को दूषित कर खवैगुण्य का मार्ग प्रशस्त कर देना क्योंकि वहां धातु शैथिल्य या क्षीणता है।वायरस और अनेक बार कवक या fungus भी हमारी प्राकृति के हर क्षेत्र में प्रकोप, प्रसर और स्थान संश्रय करते रहते हैं, समुद्र के पानी में भी इनकी वृद्धि होती हैं, वायु इनको पंगु नही रहने देती जिस के माध्यम से विचरण या प्रसरण करते रहते हैं, और पृथ्वी की मिट्टी के छोटे स्थानों में छिपे रहते हैं, ऐसे ही कुछ कार्य कवक या fungus का भी होता है। आमतौर पर वायरस को ना तो जीवित और ना ही मृत माना जाता है, ये रोगकारक हैं केवल एक आश्रयदाता की सहायता से अपने को दोहरा करते दाते हैं, शरीर के स्रोतस और धातुओं का हरण करने में ये पूर्ण सक्षम है।*
*नख, शिर, मुख, गात्र, प्राणवह स्रोतस, आन्त्रों में fungal infection के अनेक रोगियों की चिकित्सा हम और अनेक आयुर्वेदज्ञ सफलता पूर्वक पहले भी करते रहे हैं तो black fungus की चिकित्सा भी आयुर्वेदानुसार अगर इस अवस्था को ध्यानपूर्वक समझ कर की जाये तो संभव है। आरंभ साधारण नख प्रदेश के fungal संक्रमण से करते हैं कि इसे आयुर्वेदानुसार कैसे ग्रहण करें।*
*'स्यात्किट्टं केशलोमास्थ्नो, मज्ज्ञः स्नेहोऽक्षिविट्त्वचाम् प्रसादकिट्टे धातूनां पाकादेवंविधर्च्छतः'च
चि 15/18
केश, श्मश्रु, लोम तथा नख अस्थि के मल है,
'अस्थिमलं नखोऽपि'
सुश्रुत उत्तर तन्त्र में भी अस्थि का मल नख को मानते हैं और अनेक आचार्य भी नख की गणना अस्थि में करते हैं।त्वचा का स्नेह जो प्रत्यक्ष रूप से नख के साथ रहता है यह मज्जा का मल है।*
*माधव निदान कर्ता कुष्ठ की साध्यासाध्यता में स्पष्ट करते हैं कि
'साध्यं त्वग्रक्तमांसस्थं वातश्लेष्माधिकं च यत्, मेदसि द्वन्द्वजं याप्यं वर्ज्यं मज्जास्थिसंश्रितम् ' 49/31
कुष्ठ के पूर्व रूप से ले कर रस, रक्त, मांस और मेद चार धातुओं तक पंचकर्म अर्थात वमन, विरेचन आदि कार्य करता है लेकिन अस्थि और मज्जागत कुष्ठ असाध्य होता है। नख में fungal infection क्या है ये भी एक प्रकार का क्षुद्र कुष्ठ ही है क्योंकि चरक में देखें तो स्पष्ट लिखा है
'न च किञ्चिदस्ति कुष्ठमेकदोषप्रकोपनिमित्तम्, अस्ति तु खलु समानप्रकृतीनामपि कुष्ठाना, दोषांशांशविकल्पानुबन्धस्थानविभागेन वेदनावर्णसंस्थानप्रभावनामचिकित्सितविशेषः, सप्तविधोऽष्टादश विधोऽपरिसङ्ख्येयविधो वा भवति । दोषा हि विकल्पनैर्विकल्प्यमाना विकल्पयन्ति विकारान्, अन्यत्रासाध्यभावात् तेषविकल्पविकार सङ्ख्यानेऽतिप्रसङ्गमभिसमीक्ष्य सप्तविधमेव कुष्ठविशेषमुपदेक्ष्यामः'
च नि 5/4
अगर पूरे प्रकरण को समझें तो सभी कुष्ठ त्रिदोषज होते हैं, 18 प्रकार के नाम अवश्य दिये है पर दोषोल्वणता या हीनता के कारण लक्षण, वेदना, आकार और वर्ण के कारण बहुत सूक्ष्मता आ जाती है इसलिये चरक ने कुष्ठों की संख्या को अपरिसंख्य कहा है।।*
[5/24, 12:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुश्रुत ने तो स्पष्ट ही लिखा है कि कृमि कुष्ठ का हेतु है, कृमियों में सूक्ष्म जीवाणु और विषाणुओं का भी समावेश किया जा सकता है
'सर्वाणि कुष्ठानि सवातानि सपित्तानि सश्लेष्माणि सक्रिमीणि च भवन्ति'
सु नि 5/6 ,
fungus के लिये हमारे ग्रन्थों में कवक शब्द आया है,
सु सू 20/8 में 'तद्यथा-
वल्लीफलकवककरीराम्लफललवणकुलत्थप'
कवक का वर्णन है जिसे
'कवकं छत्रकं, छत्रकभेदं सुखण्डकसञ्ज्ञम्’
जिसे छत्रक अर्थात जैसे मशरूम है जो एक प्रकार की fungus वनस्पति ही है। इसी प्रकार Onychomycosis जिसे टिनिया यूंगियम भी कहा जाता है, एक कवक संक्रमण है जो अस्थि के मल नख को प्रभावित करता है। नख को अस्थिवत मान ले जैसा कुछ आचार्य अस्थि में इसकी गणना करते ही हैं तो यह असाध्य हुआ। अत: यह पूर्णतया: ठीक नही होता और बार बार होता रहेगा और एक नख के बाद दूसरे किसी नख में भी आयेगा पर मूल से समाप्त नही होता।*
*history of present & past illness -
कोई विशेष नही मात्र मेदस्वी शरीर*
*'कण्डूमद्भिः सरागैश्च गण्डैरलसकं चितम्सकण्डूरागपिडकं दद्रुमण्डलमुद्गतम् '
च चि 7/23
कंडू एवं रक्ताभ उन्नत पीड़िका को दद्रु मंडल कहा गया है।*
*सुश्रुत ने तो इस tinea infection की सत्यता प्राचीन काल में ही सिद्ध कर दी
'सर्वाणि कुष्ठानि सवातानि सपित्तानि सश्लेष्माणि सक्रिमीणि च भवन्ति, उत्सन्नतस्तु दोषग्रहणमभिभवात् '
सु नि 5/6
अर्थात सभी कुष्ठ सदैव त्रिदोष और कृमियों से ही होते है, प्रत्येक विकार का कृमि भिन्न होगा परन्तु कौन सा दोष उत्कृष्ट है और उसकी प्रबलता के अनुसार कुष्ठ का नामकरण किया गया है।*
*अष्टांग ह्रदय में
'अधुना रक्तजानाह रक्तवाहि सिरोत्थाना रक्तजा जन्तवोऽणवः, अपादा वृत्तताम्राश्च सौक्ष्म्यात्केचिददर्शनाः, केशादा लोमविध्वंसा लोमद्वीपा उदुम्बराः, षट् ते कुष्ठैककर्माणः सहसौरसमातरः'
अ ह नि 14/51-52
यह सूत्र दे कर कुष्ठ में रक्तज कृमियो को कारण माना है।*
*किस प्रकार एक दूसरे के वस्त्र या अन्य वस्तुयें प्रयोग करने पर, मैथुन से, एक ही शैय्या पर सोने से, गात्र स्पर्श आदि से
'प्रसङ्गाद्गात्रसंस्पर्शान्निश्वासात् सहभोजनात्, सहशय्यासनाच्चापि वस्त्रमाल्यानुलेपनात्, कुष्ठं ज्वरश्च शोषश्च नेत्राभिष्यन्द एव च, औपसर्गिकरोगाश्च सङ्क्रामन्ति नरान्नरम् '
सु नि 5/32-33
ज्वर, कुष्ठ, नेत्राभिष्यन्दादि रोग जो औपसर्गिक हैं आ जाते है कितना स्पष्ट उल्लेख किया है।*
*हेतु - शास्त्रों में कुष्ठ के अनेक हेतु मिलते हैं जिनमें प्रमुख इस प्रकार हैं...*
*'तत्रेदं सर्वकुष्ठनिदानं समासेनो पदेक्ष्यामः- शीतोष्णव्यत्यासमनानुपूर्व्योपसेवमानस्य तथा सन्तर्पणापतर्पणाभ्यवहार्य व्यत्यासं ... क्षीरदधितक्रकोलकुलत्थ माषातसीकुसुम्भस्नेहवन्ति, एतैरेवातिमात्रं सुहितस्य च व्यवायव्यायामसन्तापानत्युपसेवमानस्य, भयश्रमसन्तापोपहतस्य च सहसा शीतोदकमवतरतः, विदग्धं चाहारजात मनुल्लिख्य विदाहीन्यभ्यवहरतः, छर्दिं च प्रतिघ्नतः..त्रयो दोषाः युगपत् प्रकोपमापद्यन्ते; त्वगादयश्चत्वारः शैथिल्यमापद्यन्ते; तेषु शिथिलेषु दोषाः प्रकुपिताः स्थानमधिगम्य सन्तिष्ठमानास्तानेव त्वगादीन् दूषयन्तः कुष्ठान्यभिनिर्वर्तयन्ति'
च नि 5/6 *
[5/24, 12:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*यदि सूक्ष्मता से देखे तो आहार असात्म्य या विरूद्ध, विहार जैसे भोजन करते ही आधुन्क gym आदि में जैसा आजकल चलता है व्यायाम करना, मेदोरोगियो में अति स्वेद भी कारण है, आजकल लोग air condition culture में बिना electricity के स्वेदाधिक्य से भी यह रोग हो रहा है, work from home आ गया है निरंतर एक ही स्थान पर घंटो बैठ कर काम करने से श्रोणि प्रदेश में जहां उष्णता के साथ वात को cross ventilation ही मिलता और स्वेद भी आ जाता है, अति आतप या संताप, तीव्र संताप में भी शीतल जल में प्रवेश, horse riding, दूषित स्त्री संपर्क, पूर्व जन्म कृत कर्मादि तथा तीसरा हेतु कृमि मिलते हैं, यह सब ध्यान से देखें तो कवक या fungus ही है जो अनादि काल से चली आ रही है।*
*सम्प्राप्ति घटक -*
*वात - समान वात, अति स्वेद एवं क्लिन्नता आर्द्रता इस रोग का एक बढ़ा कारण है जिसमें समानवात स्वेदवाही, अंबुवाही स्रोतों का नियन्त्रण तो करती ही है, आमाश्य,पक्वाश्य और अग्नि संधुक्षण कर अग्नि को बल प्रदान करती है। व्यानवात का प्रभाव संपूर्ण शरीर गत, रस, रक्त और स्वेदवाही स्रोंतों पर पड़ता है अत: समान और व्यानवात को ग्रहण करेंगे।*
*पित्त - पाचक पित्त इसलिये कि अति पित्त शरीर में अति उष्मा उत्पन्न करेगा जिस से अंबुवाही दोष प्रभावित हो कर अति स्वेद उत्पन्न करेंगे और पाचक पित्त दुर्बल होने पर अग्निमांद्य से बल एवं व्याधिक्षमता अल्प होगी तो संक्रमण होगा और भ्राजक पित्त*
*कफ - क्लेदक , आमोत्पत्ति में ये विशेष कारण है।*
*कृमि- इनमें विभिन्न अति सूक्ष्म वायरस, विषाणु, जीवाणु तथा fungus को हम ग्रहण कर सकते है।*
*दूष्य - रस, रक्त, मांस, त्वक, अंबु और लसीका*
*स्रोतो दुष्टि - संग और विमार्गगमन*
*उद्भव स्थान - आमाश्य, आयुर्वेद में आमाश्य केवल stomach तक सीमित नही है और यह पाचक पित्त का भी स्थान है।*
*अग्नि - जाठराग्नि और धात्वाग्निमांन्द्य*
*व्याधि अधिष्ठान - त्वचा और मांस*
*व्यक्त स्थान - इस रूग्णा में उदर और श्रोणि प्रदेश*
*रोगमार्ग - बाह्य*
*व्याधि स्वभाव - साध्य*
*साध्यासाध्यता- निदान और चिकित्सा पर निर्भर वो इसलिये कि इस व्याधि के कई प्रकार हैं जैसे
1- tinea capitis जिसमें शिर,नेत्र की पलक, भौंह, और रोम में superficial संक्रमण आ जाता है,
2- tinea pedis यह प्राय: पाद के अंगूठे और अंगुलियों की त्वचा के बीच में फैलता है और दुर्गंध युक्त भी होता है, जैसे आजकल के दिन अक्तूबर में गर्मियों जैसे चल रहे हैं यह बहुत मिलता है,
3- tinea cruris जैसे इस रूग्णा में मिला यह श्रोणि प्रदेश में है, इसमें कंडू है, एक किनारा बन हुआ है और रक्त वर्ण का बढ़ा कोठ सदृश है ,
4- tinea unguium यह नखों में होने वाला दद्रु है। यह चिकित्सक पर है कि वो इसका पुन: पुन: उद्भव ना होने दे और किस प्रकार सापेक्ष निदान कर के चिकित्सा करता है।*
*पथ्य - दिन में दो तीन बार स्नान करने के लिये सभी रोगियों को हम कहते है, वस्त्र ढीले और cotton के प्रयोग करे, शीत वीर्य द्रव्य अधिक हितकर है, जल का सेवन उचित मात्रा में, खीरा, तरबूज, ककड़ी, चैरी, आलूबुखारा, तोरई, लौकी, बंदगोभी, टिण्डा आदि, यव सक्तुक और कूष्मांड स्वरस आदि*
*अपथ्य - उष्ण वीर्य द्रव्यों के अति प्रयोग से बचे जैसे अति आयुष क्वाथ,तिल गुड़, इमली, पिस्ता, अचार, काजू, vineger युक्त fast food आदि।*
*चिकित्सा सूत्र - निदानपरिवर्जन, दीपन, पाचन, कृमिहर, शोधन, मृदु विरेचन, आमपाचन, रक्त शोधन, शमन, बाह्य उपचार और रसायन।*
*प्रथम सात दिन अल्पाहार ही बताया गया औषधियो में
आरोग्य वर्धिनी 1 gm bd,
शरपुंखा+ महामंजिष्ठादि क्वाथ,
हरिद्रा खंड 5 gm + वाय विडंग चूर्ण 2 gm मिलाकर प्रात: सांय खाली पेट।रात्रि में कुटकी की वटी 1gm + हरीतकी चूर्ण 2 gm उष्णोदक से।*
*कुल 21 दिन वाय विडंग चूर्ण दे कर हरिद्रा खंड 3 gm + पंचनिम्ब चूर्ण 2 gm पूरे चिकित्सा काल में दिया गया।*
*दूसरे सप्ताह से गंघक रसायन 500 mg bd मिला दी गयी ।*
*बाह्य तैल में महामरिच्यादि तैल 50 ml में कुछ बूंद भल्लातक तैल मिलाकर दो महीना लगाया गया और बाद में नारियल तैल में कर्पूर मिला कर। रूग्णा को पूर्ण लाभ और त्वचा का पूर्ववत प्राकृतिक स्वरूप में ला देना यह कार्य हम भल्लातक से लेते हैं।*
[5/24, 12:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*ये कवक या fungus नासा सहित सम्पूर्ण प्राणवाही स्रोतस में, शिरो प्रदेश में भी स्थान संश्रय कर लेती है, अनेक ऐसी अवस्थायें जहां धातु क्षय की स्थिति निरंतर बनी आ रही हो जैसे प्रमेह आदि में तो यह प्राणघातक भी बन जाती है।*
*वायरस विषाणु लाभप्रद एवं हानिकारक दोनों प्रकार के होते हैं। जीवाणुभोजी विषाणु एक लाभप्रद विषाणु है, यह हैजा, पेचिश, टायफायड आदि रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणुओं को नष्ट कर पुरूष की रोगों से रक्षा भी करता है, इसी प्रकार लाभप्रद कवक जो आहार का अंग है वो भी शरीर की रक्षा और पोषण में सहायक हैं।*
*आजकल की प्रमुख रोग स्थिति म्यूकरमायरोसिस का कारण यह कवक या fungus ही है, जो मिट्टी, पौधे, घर में रखे गीले बर्तन जो अधिक उपयोग में ना आयें, बना कर रखी देर तक के खाद्य पदार्थ, पौधों में प्रयोग होने वाली खाद, सड़े हुए फल आदि में अतिशीघ्र उत्पन्न हो जाता है। अनेक स्वस्थ व्यक्तियों की नासा और कफ में भी यह मिलता है क्योंकि वायु मंडल और पृथ्वी की मिट्टी की आर्द्रता या क्लिन्नता इसकी एक बढ़ा कारण है।।*
*चरक संहिता में
'सर्पच्छत्रकवर्ज्यास्तु बह्व्योऽन्याश्छत्रजातयः'
च सू 27/123
सर्प छत्रक अर्थात इस fungus को त्याज्य कहा है, इसी की अन्य जाति की कवक या छत्रक जाति के द्रव्य शीतवीर्य,प्रतिश्याय कारक, मधुर और गुरूपाकी होते हैं, यहां यह ध्यान रहे कि प्रतिश्याय से ही कास और श्वास का व्याधि क्रम बनता है। सर्प छत्रक को तो त्याज्य माना है मगर मशरूम, गुच्छी (ये पहाड़ों का अत्यन्त बहुमूल्य शाक है, खुम्भी, च्यूं आदि भोजन का एक भाग है। चक्रपाणि ने कवक या छत्रक को 'सर्पच्छत्रं सर्पफणाकारं छत्रकम्' कहा है।*
*भावप्रकाश संस्वेदज शाक (fungus ) जाति को शाक के रूप में तीन नाम देते है,
'संस्वेदजं, भूमिच्छत्रं शिलिन्ध्रकम्' और इसका उत्पत्ति स्थान' क्षिति = पृथ्वी, गोमय = गोबर, काष्ठेषु = लकड़ी पर, वृक्षादिषु = वृक्ष आदि' पर बताते हैं।
भा प्र शाकवर्ग 119-121*
*ये तीनों प्रकार के शाक या fungus
'शीता दोषला: पिच्छिलाश्च ते'
शीतल, दोषकारक और पिच्छिल हैं। *
*'गुरवश्चछर्द्यतीसारज्वरश्लेष्मामयप्रदा'
गुरू है, वमन कारक हैं, अतिसार, ज्वर और कफ संबंधी रोगों को उत्पन्न करते है।*
*अनेक रोगों में औषधि के चयन में हम जब हम उभयात्मक चिकित्सा देते हैं जैसे दोष प्रत्यनीक और व्याधि प्रत्यनीक भी तो उनमें एक औषध को प्रधानता देते हैं और शेष उसकी सहयोगी बना दी जाती है।कवक (fungus) की उत्पत्ति ये स्थान संश्रय में आर्द्रता या क्लिन्नता की प्रमुख भूमिका होती है तथा यह मधुर, शीत वीर्य और गुरू गुण युक्त है। स्वभाव से चिरकालीन है क्योंकि एक बार आने के पश्चात कुछ ना कुछ अंश इसका शरीर में रह जाता है जो पुन: पुन: इसका वर्धन कर के विस्तार कर देता है।*
*अभी तक हम इसमें प्रधान द्रव्य के रूप में भल्लातक को प्राथमिकता देते आये हैं क्योंकि यह कवक (fungus) की संरचना और कार्य प्रणाली के विपरीत गुण वाला द्रव्य है।
'कषायं पाचनं स्निगधं तीक्ष्णोष्णं छेदि भेदनम्'
कषाय रस प्रधान है । कवक पृथ्वी और जल प्रधान है । कवक या fungus का प्रसरण अति शीघ्र होता है तथा निरंतर धातु क्षय हो कर ओज क्षय हो प्राण संकट की स्थिति आ रही है तो हमें बल्य, मेध्य क्योंकि रोगी का मनोबल लगभग क्षीण हो चुका है, उष्ण वीर्य, पाचक, अग्निवर्धक और रसायन द्रव्य चाहिये जो मधुर के साथ कषाय रस प्रधान हो तो यह कार्य भल्लातक करता है।*
*हमारा पहला लक्ष्य है कि जो प्रसार कवक का हो चुका उस को रोकना, जिसे रोकेगा कषाय रस
'कषायो रसः संशमनः सङ्ग्राही सन्धानकरः पीडनो रोपणः शोषणः स्तम्भनः श्लेष्मरक्तपित्तप्रशमनः शरीरक्लेदस्योपयोक्ता रूक्षः शीतोऽलघुश्च'
च सू 26/43
कषाय रस दोषों का शमन करता है, संधान करने वाला और संग्राही, अगर व्रण हो तो उसकी पूय को बाहर निकालता है, रोपण कर्म करता है, शोषण कर के सुखाता है, कफ, रक्त और पित्त का प्रशमन करता है, शरीर में क्लेद का चोषण कर लेता है, रूक्ष और लघु होता है। इस रस की विशेषता है कि यह वायु और पृथ्वी महाभूत से बनता है। जब कवक fungus का प्रसरण होता है तो वायु का योगवाही स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है जिसमें वह अनेक रोगियों में पित्त के आग्नेय गुण के संपर्क में आ कर शीत गुण त्याग कर उष्णता धारण कर लेती है और रोग उर्धवगामी हो कर चारों तरफ प्रसरण करने लगता है। कषाय रस शीत है, स्तंभक है और पार्थिव गुण युक्त होने से fungus की गति को विराम लगा देता है।*
*भल्लातक का यह गुण वायरस के प्रसरण को रोकने में भी सहायक है, सजीव और निर्जीव के बीच माना जाने वाले विषाणु या वायरस एक अकोशिकीय अतिसूक्ष्म जीव हैं जो केवल जीवित कोशिका में ही वृद्धि कर सकते हैं। ये न्यूक्लिक एसिड और प्रोटीन से मिलकर बने होते हैं, जो शरीर के बाहर तो मृत-समान होते हैं परंतु शरीर के अंदर जीवित हो जाते हैं।वायरस सैकड़ों वर्षों तक सुसुप्तावस्था में रह सकता है और जब भी एक जीवित मध्यम या धारक के संपर्क में आता है उस पुरूष की कोशिका को भेद कर अपनी तीव्र वृद्धि से उसे आच्छादित कर देता है और रूग्ण बना देता है।देखा जाये तो कवक या fungus और वायरस ये दोनों ही विषाणु संज्ञक हैं।*
*इस तीव्र वृद्धि को रोकने के लिये भल्लातक का कषाय रस प्रधान होना और आच्छादित अवस्था को भेदना जो कवक का भी गुण है उसके लिये उष्ण, तीक्ष्ण, छेदन, भेदन, आग्नेय द्रव्यों की आवश्यकता है, क्लिन्नता को रूक्षण, लघुता, सूक्ष्मता और आग्नेय गुण से ही दूर किया जा सकता है। यह सारे गुण भल्लातक अकेला ही दे रहा है
'तीक्ष्णोष्णं छेदि भेदनं .. वह्निकरं हन्ति कफवातव्रणोदरम्'
भा प्र हरितक्यादि वर्ग 232 .
साथ ही यह पाचन कर्म करने से आम का पाचन भी कर रहा है।*
*इस प्रकार की व्याधियों में भल्लातक हमारी प्रधान औषध रहती है और साथ ही अन्य सहयोगी औषधियां।*
[5/24, 12:31 AM] Dr.Shekhar Singh Rathore Jabalpur:
🙏🏼🙏🏼🙏🏼
[5/24, 12:41 AM] DR. RITURAJ VERMA:
प्रणाम गुरुवर !
[5/24, 12:44 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार ऋतराज जी 🌹🙏 साथ में डॉ शेखर जी को भी ।*
[5/24, 12:45 AM] DR. RITURAJ VERMA:
इस केस से बहुत मार्गदर्शन मिलने वाला है गुरुवर !
[5/24, 12:50 AM] Dr. Rajeshwar Chopde:
Pranam Guruji !
[5/24, 1:13 AM] DR. RITURAJ VERMA:
👍🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[5/24, 1:15 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*ये आरंभिक ज्ञान है अभी, अनेक रोगी जो अति गंभीर थे पूर्ण स्वस्थ हुये है उन पर समय मिले तभी विस्तार से लिखा जा सकेगा। हमने अंशाश कल्पनाओं सहित धातुगत स्थिति और स्रोतस में किस प्रकार विकृति हुई और क्या चिकित्सा क्रम रखा तथा कैसे रोगी स्वस्थ हुये ये सब रखा है मगर सब अस्त व्यस्त है। आने वाला समय आयुर्वेद का ही है और लोगों का विश्वास उन्ही पर रहेगा जिनकी प्रधान चिकित्सा आयुर्वेद पर ही आधारित है।*
*आपका भविष्य वैद्य ऋतराज जी बहुत ही श्रेष्ठ रहेगा क्योंकि आपने कठिन परिश्रम किया है।*
[5/24, 1:17 AM] DR. RITURAJ VERMA:
जी गुरुवर यही भरोसा है ।
[5/24, 1:18 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*फुफ्फुसगत fungus मे भल्लातक और पारावत सहित अभ्रक शतपुटी तथा श्रंग भस्म का परिणाम अति शीघ्र और उत्तम मिला।*
[5/24, 1:20 AM] DR. RITURAJ VERMA:
जी use कर रहा हु इस विषय पर बहुत कुछ पड़ ओर समझने का प्रयास कर रहा हु ।
[5/24, 1:21 AM] DR. RITURAJ VERMA:
चर्चा जरूर करूंगा इस विषय पर अभी बहुत पड़ना बाकी है कभी सफलता मिलती है कभी नही ।
[5/24, 1:21 AM] Dr. Vinod Mittar Dehli:
🙏🙏Elaborative explaination sir ,
thanks🙏
[5/24, 1:21 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आयुर्वेद में हमें यह ज्ञान होना आवश्यक है कि शरीर में क्या क्रिया घटित हो रही है, क्यों हो रही है और हम जो औषध या द्रव्यों का चयन कर रहे हैं तो क्या विशेषता या गुण देख कर कर रहे है। यह कार्य कारण सिद्धान्त है।*
[5/24, 1:21 AM] DR. RITURAJ VERMA:
यह बहुत आवश्यक होगया है ।
[5/24, 1:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आपको भी नमस्कार विनोद जी , अब तो स्वस्थ हैं आप ? दौर्बल्य धीरे धीरे जायेगा क्योंकि धातुक्षय और अभी अग्नि सम्यक नही है, धात्वाग्निमांद्य है ।*
[5/24, 1:26 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*द्रव्यों की पंचभौतिकता और गुणों का ज्ञान आवश्यक है, अंशाश कल्पना, धातु, मल और स्रोतस को जितना अधिक समझेंगे practice सरल होती जायेगी।*
*आहार और औषध में क्या अंतर है ? यह ज्ञान भी आवश्यक है । आहार रस प्रधान है जिस से धातुओं का निर्माण होता है और औषध वीर्य प्रधान होती है।*
[5/24, 1:27 AM] DR. RITURAJ VERMA:
जी ये हिंट बहुत काम आएगी ।
गिल्की, तुरई, परवल ये आहार बहुत काम आ रहे है गुरुवर !
[5/24, 1:30 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*वीर्य केवल शीत और उष्ण नही होते अनेक होते हैं इसे आगे विस्तार से समझाऊंगा जो clinical practice का महत्वपूर्ण भाग है।*
*जो कुछ college में पढ़ा वो CCIM के syllabus अनुसार पढ़ा व्यवहारिक आयुर्वेद और इसका गूढ़ ज्ञान आना बहुत आवश्यक है तभी कष्ट साध्य रोग भी सरल बन जाते हैं।*
[5/24, 1:31 AM] DR. RITURAJ VERMA:
जी गुरुवर !
[5/24, 1:31 AM] Shekhar Goyal Sir Canada:
🙏💐🌹
[5/24, 1:36 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आद्य धातु या अन्नरस ही जिसने ठीक करना सीख लिया तो उसके लिये hyperglycemia भी मात्र रसशेषाजीर्ण जैसी साधारण व्याधि बन जाती है, चिकित्सा में पथ्य एवं आहार को ले कर वैद्य को रोगी के प्रति निर्मम या कठोर होना आवश्यक है क्योंकि रोगी हमेशा अपने मन की करेगा और अपयश वैद्य को मिलेगा।*
[5/24, 1:40 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*शुभ रात्रि ऋतराज जी 🌹🙏*
[5/24, 1:40 AM] DR. RITURAJ VERMA:
शुभरात्रि गुरुवर चरणस्पर्श🙏🙏
[5/24, 3:16 AM] Dr. Balraj Singh: 🙏🏻
[5/24, 6:04 AM] Vd. V. B. Pandey Basti (U.P.):
🙏
[5/24, 6:07 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
Sounds very promising sir, इसका एकमात्र मंतव्य तो यही निकलना चाहीए के आपश्री ने इन दोनों स्थितियों में भल्लातक का प्रयोग जरूर यश के साथ किया है। इसका एक छोटा उदाहरण स्थानीय प्रयोग का आपने बताया है। इन दोनों -अकोशिकीय और एकपेशीय संसर्ग में भल्लातक के उपयोग को विस्तार से बतायेंगे तो बड़ी कृपा होगी *सुभाष सर, प्रणाम।*
[5/24, 6:24 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
आपश्री अगर इस आद्य धातु के बारे में थोड़ा और विस्तार से चिकित्सक के दृष्टिकोण से बताये तो मेहरबानी होगी।
[5/24, 8:16 AM] Dr. Chndraprkash Dixit Sir:
💐💐🙏
[5/24, 8:22 AM] Vd. Anupriya MD (Ras shaatra):
🙏🙏pranam aacharya
[5/24, 8:49 AM] Vd. Shailendra Harayana:
🙏🏻🙏🏻🙏🏻behtareen Sir🙏🏻🙏🏻🌷🌷
[5/24, 9:04 AM] Prof. Amol Kadu Jaipur:
प्रणाम गुरुवर, बहुत ही विस्तृत और सटीक केस प्रस्तुतीकरण....बार बार पढ़ने की इच्छा होती है...काश ऐसे शिक्षक हर संस्थान में होते....आप के पोस्ट कि हमेशा प्रतीक्षा करते रहते है....
एक शंका गुरुवर.... प्रकुपित दोषों को कोष्ठ में लाकर उसे शरीर के बाहर निकालना बहुत आसान काम नहीं. उसमे भी Twakvikar बहुत जीर्ण हुआ हो, साथ में एलोपैथी medicines aur creams लगाकर रोगी हमारे पास आया हो...
दोषों कि शाखा कोष्ठगती के को 5 उपाय बताए उसको और क्लीनिकल point of view se समझने की इच्छा है....उदाहरण देकर बताने कि कृपा जब भी आप को समय रहा तो करने कि कृपा करे🙏🙏🙏
फिर से इतने सुंदर प्रस्तुतीकरण के लिए कोटि कोटि प्रणाम....🙏
तथा तेभ्यः स्रोतोमुखविशोधनात्।
वृद्ध्याऽभिष्यन्दनात्पाकात्कोष्ठं वायोश्च निग्रहात्॥१८॥
[5/24, 9:08 AM] Dr. Surendra A. Soni:
प्रणाम महर्षि ।
प्रासंगिक विस्तृत विवेचन ।
नमो नमः ।🙏🏻🌹
[5/24, 9:08 AM] Prof.Amol Kadu Jaipur:
👆🏼👆🏼👆🏼 वृद्ध्याऽभिष्यन्दनात् यह स्नेहन स्वेदन द्वारा ही शक्य हो सकता है...क्या दवाई के द्वारा यह शक्य हो सकता है... बिना शोधन पूर्व चिकित्सा उपक्रम करते हुए.
[5/24, 9:57 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आपका सफल कार्य बहुत ही आनंद देता है और नई पीढ़ी के लिये प्रेरणादायक 👏👌👍*
[5/24, 10:08 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अगर आयुर्वेद की भाषा में समझें तो चिकित्सा तीन प्रकार की है दोष प्रत्यनीक, व्याधि प्रत्यनीक और दोष-व्याधि प्रत्यनीक । भल्लातक तीनो प्रकार की चिकित्सा देने में समर्थ है और अति तीव्र गति से, सब से बढ़ी विशेषता skin से ही इसका absorption हो जाता है और मूत्र मार्ग से निष्कासन होता है। मेरे लिये ये all in one द्रव्य है।*
[5/24, 10:09 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*इसका उत्तर बढ़ा है आराम से लिखूंगा ।* 👍
[5/24, 10:26 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आपकी सभी बातों का एक ही जवाब है जी हां 👍👍👍 100% सहमत, सर्वप्रथम 1983 में जामनगर में चिंचा भल्लातक वटी का प्रयोग किया था तब से यह मेरी परम प्रिय औषध है। इसके प्रयोग में वृक्कौ का बहुत ध्यान रखना पड़ता है । स्त्रियों मे तो बहुत ही लाभदायक क्योंकि वो मद्यपान नही करती थी परन्तु हमारे यहां अब अनेक स्त्रियां भी ऐसे आने लगी है जो सप्ताह में 2 बार मद्य सेवन करने लगी तो हमने चिकित्सा के तरीके बदल दिये।*
*हमारी चिकित्सा की सफलता में भल्लातक का परम योगदान है और इसे हम परमौषध मानते है, अति धूप सेवन से भी इसके काल मे बचना श्रेष्ठ है, प्रयोग काल में इसके साथ युक्ति आवश्यक है।38 वर्ष हो गये इसका प्रयोग करते हुये।*
[5/24, 10:29 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार अमोल जी, मैं शिक्षक नही मात्र साधारण चिकित्सक हूं और आपकी जिज्ञासा नोट कर ली है।*
[5/24, 10:33 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सादर सप्रेम नमन सर 🌹🙏 प्रो. राम शुक्ला जी और आप इस कोविडकाल में बढ़े महर्षि है जिन्होने समस्त सदस्यों को आयुर्वेद पर stand लेना और उसी के माध्यम से इस महारोग की चिकित्सा को सरल बना दिया। आप दोनो को शत शत नमन 🙏🙏🙏*
[5/24, 10:34 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir:
आचार्य श्रेष्ठ,
आप चिकित्सक भी हैं और श्रेष्ठ शिक्षक भी हैं। ज्ञान और कर्म दोनों आपके पास हैं और इनकी पूंजी निरंतर बढ़ती जा रही है। और इस पूंजी को बांटने में आप सदैव तत्पर रहते हैं।
इसलिए हम आपको अपने इस विश्वविद्यालय का कुलपति मानते हैं।
❤️🙏❤️
[5/24, 10:36 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir:
और अगर इस विश्वविद्यालय को कानून सम्मत विश्वविद्यालय ही बनाना है तो वह भी कोई बड़ी बात नहीं है। दो चार महीने में सब हो जाएगा।
[5/24, 10:37 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*भल्लातक की मात्रा कम से कम 65 mg से 100 mg single dose में जरूर देनी चाहिये ।*
[5/24, 10:59 AM] Dr. Pawan Madan:
प्रणाम गुरुवर।
चरण स्पर्श।
बहुत ही महत्वपूरन एवं उपयोगी विस्तार बताया आपने।
🙏🙏🙏
नख अस्थि धातु का मल है।
क्या अस्थि धातु का पोषण या चिकित्सा करने से नख पर भी प्रभाव पडेगा।🙏🙏
[5/24, 11:03 AM] Dr. Pawan Madan:
जी गुरु जी ।
मैने भी प्रक्टिस मे इस नख के फन्गस के लिये कृमि हर चिकित्सा प्र्योअग की, निश्चित रूप आशातीत सफलता मिली।
Even it works on the fungus of other parts only. In some patients even it took only 15 day in mild cases.
🙏🙏
[5/24, 11:05 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*हमारी private practice OPD स्तर की है और हम emergency manage नही करते जिस से selected रोग ही हम लेते हैं जिन पर case presentations देते रहते है, psoriasis, hyperthyroidism, pcod, आमवात में भी इसका प्रयोग कर के देखिये।*
[5/24, 11:08 AM] Dr. Pawan Madan:
🙏🙏🙏👌👌🙏👌🙏👌🙏
गुरु जी
बहुत बहुत धन्यवाद।
💐💐💐💐
मैं ऐसे केसेस मे कृमिकुठार का प्रयोग किया हूँ,
विडंगासाव बहुत लाभकारी है, ये छोटे बच्चे भी ले लेते हैं।
विडंग चूरण कई बार अकेले अधिक उशन्ता दे देता है सो मै विडंगादी चूर्ण प्रयोग कर लेता हूँ।
अब जैसा आपने बताया विडंग व हरिदृ खण्ड मिला कर प्रयोग कर्वाउंगा।
[5/24, 11:08 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आचार्य श्रेष्ठ आप तो स्वयं ही ज्ञान के भंडार, सक्षम और समर्थ हैं कि आपसे ही बहुत कुछ हमें नियमित प्राप्त होता है। 🙏🙏🙏*
[5/24, 11:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार पवन जी, बिल्कुल प्रभाव पड़ता है और प्रत्यक्ष है। लगभग तीन महीने लगते है प्रभाव पूर्ण दिखने लगेगा।*
[5/24, 11:11 AM] +91 99255 05758:
In aamvata, psoriasis, the results r extra ordinary.
No doubt in it...
[5/24, 11:11 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*ये काम करेगा ही 👍👍 ये वो द्रव्य है किसी को विश्वास ना भी हो पर ये परिणाम सामने ला देगा तो मानना ही पड़ेगा।*
[5/24, 11:11 AM] Dr. Pawan Madan:
👌👌👌👌
हमेशा सम्भाल के रखने वाला अद्भुत विवरन ।
💐💐💐
भल्लतक का प्रयोग लगभग हर कुष्ठ मे काम करता है, केवल कुछ ही रोगी जो के पित्तोल्वंन वाले है, उनमे कम काम करता है।
🙏🙏
[5/24, 11:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*किसी भी चिकित्सा में साथ दे रहे अन्य द्रव्यों का भी योगदान महत्वपूर्ण होता है और पूरी चिकित्सा व्यवस्था का भी, प्रथम दो दिन कोष्ठ शुद्धि और किंचित संसर्जन क्रम के बाद औषधियों का परिणाम अच्छा और तीव्र गति से मिलता है।*
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
Presented by
Vaidyaraj Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
ShrDadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
B. A. M. S.
ShrDadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by
Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
Excellent knowledge shower by Vaidhya shreshth Subhash Sir.
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