[3/8, 12:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आयुर्वेद रहस्य- पित्त प्रकरण भाग - 4*
*08-03-2022*
*किस प्रकार अंशांश कल्पनाओं में गुणों के युग्म बनते है, तिक्त रस ही पित्ताश्य अश्मरी का कारण बनता है और अंशों के युग्म और मात्रा परिवर्तन करते ही वह चिकित्सा का घटक भी बन जाता है और पित्त के अनेक रहस्यों पर आज चर्चा करेंगे ...*
*case presentation - अंशांश कल्पनायें तथा रूक्ष एवं शोषित पित्त जनित पित्ताश्य अश्मरी 2 नवीन रूग्णों पर ...*
*1 - रूग्ण / age 25/ male / working in IT sector*
*मुख्य वेदना - रोगी को हमारे पास आने से पूर्व तीव्र उदर शूल छर्दि सहित था, इसके लिये रोगी hospital गया तो पित्ताश्य अश्मरी निदान कर शल्य चिकित्सा के लिये कहा गया पर किसी परिचित के कहने पर रोगी ने एक बार आयुर्वेद चिकित्सा का निर्णय लिया क्योंकि तब तात्कालिक आधुनिक चिकित्सा से शूल का शमन हो गया था।*
*history of present illness -
कोई विशिष्ट नही, लॉक डाऊन में work from home से व्यायाम का अभाव और fast food जनित अजीर्ण, असम्यक मल प्रवृत्ति, अम्लोदगार लक्षण रहते थे।*
*पूर्व व्याध वृत्त -
कोई विशिष्ट नही *
*अष्टविध एवं अन्य भाव परीक्षा - *
*नाड़ी - गुरू पित्तवात।*
*मूत्र - अल्प*
*मल - आम युक्त दिन में 2-3 बार*
*जिव्हा - मलिन - श्वेताभ*
*शब्द - मंद एवं क्षीण क्योंकि hospital से आया था और शल्य से भयभीत था।*
*स्पर्श - स्निग्ध सामान्य*
*दृक - मलिन*
*आकृति - प्राकृत *
*प्रकृति - इसकी प्रकृति का विस्तार से परीक्षण किया गया था क्योंकि यह तीन दिन निरंतर अपने माता पिता के साथ आया था जिस से गर्भावस्था में माता का आहार विहार कैसा था और पारिवारिक स्थिति जानने का अवसर मिला । इस प्रकृति परीक्षण को बाद में विस्तार से लिखेंगे।*
*सार - मांसमेद सार*
*संहनन - मध्यम*
*प्रमाण - सम*
*सात्म्य - अभ्यास सात्म्य -मधुर, अम्ल,लवण*
*शीत सात्म्य *
*सत्व - मध्यम*
*आहार शक्ति - आहार इच्छा शक्ति - तीव्र, आहार परिपाक शक्ति - मध्यम*
*व्यायाम शक्ति - अल्प*
*वय - युवा*
*देश - साधारण - दिल्ली निवासी*
*सम्प्राप्ति घटक -*
*दोष - कफ क्लेदक - गुरू, शीत, मंद, स्थिर, पिच्छिल गुण युक्त*
*पित्त - पाचक और रंजक - द्रव और सर गुण*
*वात - समान और व्यान - रूक्ष शीत लघु और खर*
*दूष्य - रस*
*स्रोतस - अन्नवाही, रक्तवाही*
*स्रोतोदुष्टि - संग*
*अग्नि - जाठराग्निमांद्य*
*उद्भव स्थल - आमाश्य*
*अधिष्ठान - पित्ताश्य*
*साध्यासाध्यता - कृच्छसाध्य या असाध्य *
28-10-21
USG - GB 9.1 mm calculus in the neck region
28-2-22
USG - no calculus
[3/8, 12:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
27-1-21
USG - GB multiple calculus largest 8.3 mm
9-4-21
USG - no calculus
*(इस रूग्णा के सम्प्राप्ति घटक पहले से भिन्न बनते हैं इसे बाद में स्पष्ट करेंगे)*
[3/8, 12:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*चरक सूत्र में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सूत्र मिलता है जो अनेक रोगियों में जिन्हें पित्ताश्य अशमरी है उसकी सम्प्राप्ति और हेतु को स्पष्ट करने मे बहुत सहायक है
'तिक्तो रसः... पित्तश्लेष्मो..शोषणो..रूक्ष..लघु'
च सू 26/42
तिक्त रस स्वयं तो अरूचिकर है पर सेवन करने पर अरूचिनाशक, पित्त और कफ का शोषण करता है तथा रूक्ष और लघु भी है। द्रव्यों में और हेतुओं में जो पित्त के द्रवत्व अथवा द्रवांश को सुखा दे, उसका शोषण कर दे वह पित्त शोषक कहलायेगा। *
*पित्त का स्वरूप
'पित्तं हि द्विविधं- सद्रवं निर्द्रवं च'
च च 3/217
अर्थात पित्त नैसर्गिक गुण द्रव युक्त तो होता ही है और एक अवस्था में बिना द्रवत्व के भी बन जाता है,
'यत् सद्रवं तत् सस्नेहं, यत्तु लङ्घनादिना क्षपितार्द्रभागं निर्द्रवं तद्रूक्षं भवति'
चरक का यह सूत्र वैशेषिक दर्शन से प्रेरित है जिसमें द्रव गुण के दो प्रकार माने है 1- स्वाभाविक या सांसिद्धिक जैसे जल होता है और 2- नैमित्तिक जैसे घृत आदि इसीलिये पित्त में द्रवत्व के साथ स्नेहांश भी है । पित्त के द्रव और सर गुण ये रेचन कर्म कर के वृद्ध पित्त को शरीर से बाहर करते है पर पित्त शोषक इसके इन गुणों के विपरीत इनकी प्राकृत क्रियाओं में बाधा उत्पन्न करते है यही अंशाश कल्पनाओं का विराट संसार है जिस पर प्रायोगिक स्वरूप के साथ आज चर्चा करेंगे ।*
*पित्त के इस द्रव गुण का ज्ञान स्पर्श और चक्षु की इन्द्रियों से होता है, द्रव गुण शरीर में सर्वत्व प्रसरणशील हो कर आर्द्रता और क्लिन्नता उत्पन्न करता है । यह द्रवता धातुवर्धन में सहायक तो होती ही है साथ में मलों का प्रमाण बढ़ाकर उनके उत्सर्ग या विसर्जन में भी सहायक होती है जैसे स्वेदन और विरेचन में हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं।*
*यह द्रवता रस, रक्त, मेद, मज्जा, शुक्र, स्तन्य, वसा, मूत्र, स्वेदादि में भी होती है । इसके साथ ही दूसरा महत्वपूर्ण भाव है सर गुण जो पित्ताश्य अश्मरी का महत्वपूर्ण घटक अंशाश कल्पना में है।*
*अंशाश कल्पना में सर और चल दोनों गति के संदर्भ में है पर दोनों में अंतर है, चल वात का और सर पित्त का गुण है। प्रो.बनवारी लाल गौड़ सर की चक्रपाणि एषणा टीका पृष्ठ 576 - 'चल: का तात्पर्य हैं संक्रमण वान अर्थात गतिशील या प्रसरण शील' चल वात का गुण है, अनेक ग्रन्थकार स्थिर के विपरीत सर को और कुछ चल गुण को मानते है। सर गुण जल महाभूत प्रधान होता है। सर की कार्मुकता है कि इसके कारण द्रव्य वात, मल, मूत्र की अधोमार्ग से प्रवृत्ति कराते हैं, धातुओं को द्रवीभूत करते हैं और कफ की वृद्धि करते है।दुग्ध और तक्र भी सर गुण युक्त माने गये है।*
*अंशाश कल्पना में सर गुण प्रधानता 3 कर्म कर रहा है ...
1- अनुलोमन और अधोगमन तभी पित्त के लिये विरेचन में एक भाव सर गुण भी है जो अपक्व मल का पाक कर अधोमार्ग से प्रवृत्ति में सहायक बनाता है।
2- वात का अनुलोमन कराना और
3- पित्त की वृद्धि करना ।
जब तक प्राकृत प्रमाण में उष्ण, द्रव और सर गुण विद्यमान रहेंगे तब तक पित्त का प्रवाहण जो शनैः शनैः अधोमार्ग की तरफ ले जाता है वो भी प्राकृत बना रहेगा पर रूक्ष, लघु और शीत गुण इनकी गति को विकृत करेंगे। रूक्ष गुण की वृद्धि होने पर सीधा प्रभाव द्रव और सर की कार्यक्षमता पर पड़ता है, द्रवता का शोषण हो कर अश्म अर्थात पत्थर वत बन कर अश्मरी स्वरूप होने लगता है, द्रव का विपरीत गुण सान्द्र है जिसमें शीत गुण पित्त को घनीभूत या गाढ़ा करने में सहायक होता है। शीत वीर्य और सान्द्र गुण में एक साहचर्य भाव है यह शरीर में बंधन या दृढ़ता लाता है पित्त के सरत्व भाव में अवरोध कर उसे सान्द्र करने में मुख्य हेतु बन जाता है जिसका शोषण ही पित्ताश्य अश्मरी का स्वरूप है जिसे GB CALCULUS और यदि शुष्क ना हो कर कीचड़ या पंक वत घनीभूत सान्द्र अवस्था में बना रहे तो GB SLUDGE हो गया ।*
*इस संपूर्ण सम्प्राप्ति को विभिन्न चरणों में जानते हैं ...*
*1- पित्ताश्य की अश्मरी में आवश्यक ही नही कि पित्तवर्धक आहार का सेवन अधिक मात्रा में किया हो क्योंकि इसमे आम दोष प्रमुख है, प्रथम अवस्था पाक मधुर अवस्थापाक तक क्लेदक कफ सामान्य है अब अगर इसमें स्नेह, मधुर, अम्ल, पिच्छिल, द्रवादि द्रव्यों का अतियोग होगा तो साम कफ बनेगा, दिवास्वप्न, अधिक समय तक एक स्थान पर स्थिर बैठकर कार्य करना और निद्रा का पूर्ण ना होना ये आम दोष के साथ वात के रूक्ष, लघु और शीत तीनों गुणों का अद्भुत संगम आधुनिक काल में पित्ताश्य अश्मरी के निर्माण का है।*
*2- अब इस से आगे अन्नरस अम्लपाक में अम्लीभाव हो कर ग्रहणी में आयेगा जो पित्त का प्रमुख स्थान है और आहार के पूर्ण पाचन तक ग्रहणी इसे धारण करती है। मल पित्त का संचय पित्ताश्य में होता है जब आवश्यकता हो तो भोजन के पाचन के लिये पित्त अपनी नलिका द्वारा ग्रहणी में आता रहता है और अगर आवश्यकता ना हो तो यह पित्त पित्ताश्य में ही सुरक्षित रहता है। पित्ताशय का पित्त अनेक द्रव्यों का मिश्रण है, इसमें कोलेस्ट्रॉल क्रिस्टल, कैल्शियम बिलीरुबिन और अन्य कैल्शियम लवण जैसे घटक होते हैं। लेकिन विभिन्न हेतुओं से इस पित्त में द्रवत्व अंश अपने विपरीत सान्द्रत्व में परिवर्तित होने लगा और सरत्व अंश आमदोष और शीत के कारण तथा घनीभूत होने से गतिशील नही रहा ।*
[3/8, 12:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*उपरोक्त अवस्था में पित्ताशय पूरी तरह से रिक्त नहीं हो पाता तो पित्त में उपस्थित उपरोक्त द्रव्य,घटक या कण बहुत लंबे समय तक पड़े रहने तक गाढ़ापन,सान्द्र,कीचड़ या पंक स्वरूप हो जाते हैं और ऐसी संभावना बनी रहती है कि ये पित्तपंक अथवा भविष्य में पित्ताशय की अश्मरी में बदल सकते है जिसे पित्ताशयाश्मरी कहा जाता है।*
*पित्ताश्य अश्मरी निर्माण में यकृत का भी बहुत योगदान है क्योंकि पित्त का मूल यकृत भी है जहां यह उत्पन्न होता रहता है और इसका संचय स्थल पित्ताश्य है, पाचन काल में तो यह पित्तनलिका द्वारा ग्रहणी में आता रहता है और शेष समय यह पित्ताश्य में एकत्र रहता है। Fatty liver में यकृत में मेद संचय होने से पित्त की गति मंद और सान्द्र गुण से प्रभावित रहती है जो पित्त के संचयीभाव का भी एक कारण बनता है।*
*तिक्त रस का अश्मरी निर्माण में बहुत योगदान है और इस पर हमने कुछ दिनों में बहुत अनुसंधान किया है,
तिक्तो रसः- 'क्लेदमेदोवसामज्जलसीकापूयस्वेदमूत्रपुरीषपित्तश्लेष्मोपशोषणो रूक्षः शीतो लघुश्च '
यह क्लेद मेद वसा मज्जा लसीका पूय स्वेद मूत्र पुरीष पित्त और कफ का शोषण करता है तथा रूक्ष शीत और लघु है ।*
*तिक्त रस प्रधान द्रव्य अति मात्रा में सेवन से.....
'रौक्ष्यात्खरविषदस्वभावाच्च रसरुधिरमांसमेदोस्थिमज्ज शुक्राण्युच्छोषयति, स्रोतसां खरत्वमुपपादयति'
शरीर में रूक्षता, खरत्व और वैशद्य अंशों की वृद्धि करते हैं और रस रूधिर मांस मेद अस्थि मज्जा और शुक्र का शोषण कर उसे सुखा देते हैं। स्रोतस में इनका गंभीर परिणाम अति मात्रा के प्रयोग करने पर मिलता है कि यह खर गुण की वृद्धि के परिणाम स्वरूप स्रोतस और उनमें वहन कर रहे धातु, उपधातु , मलों एवं अन्य पदार्थों को कर्कश बना देते हैं । पित्ताश्य की अश्मरी में यह हमें प्रत्यक्ष देखने को मिलता है ।*
*पित्ताश्य की अश्मरी में जो द्रव्य अपने कर्म द्वारा पित्त का शोषण करे उसे हम 'पित्तोपशोषण' कह सकते हैं जैसे तिक्त रस प्रधान द्रव्यों का अति मात्रा में सेवन । *
*किसी भी द्रव्य में एक रस अकेला नहीं होता उसके साथ अनुरस भी होता है और रसों का अन्यथा गमनत्व और परिणामी रस भी होता है इस सब का ज्ञान चिकित्सक को होना अति आवश्यक है जैसे जामुन का फल कषाय-मधुर होता है पर पाक हो जाने पर मधुर हो जाता है।पिप्पली जब तक आर्द्र अर्थात गीली होती है तब तक मधुर लगती है पर सूखने पर कटु हो जाती है। आमलकी फल जब छोटा और आर्द्र होता है तो तिक्त, कुछ काल बाद अम्ल और शुष्क होने पर अम्ल कषाय बन जाता है। *
*इमली कच्ची है तो अम्ल और पकने पर अम्ल-मधुर बन जाती है। अलग अलग देश का द्रव्यों के रस पर अलग प्रभाव मिलता है जैसे नैनीताल और वाराणसी में मधुर आमलकी मिलता है पर जंगली आमलकी कटु और कषाय मिलते हैं। काल का प्रभाव द्रव्यों के रस पर पड़ता ही है जैसे कच्चा केला कषाय रस प्रधान और पकने पर मधुर हो जाता है । परिणाम को देखे तो दुग्ध जो मधुर है फटने पर अथवा दधि बना दे तो अम्ल हो जाती है। पात्र का बहुत योगदान है जैसे कांस्य या पीतल के बर्तन में अम्ल दधि जो जमने से पूर्व तो मधुर थी, फिर अम्ल बनी और कांस्य पात्र में रखने पर कटु तिक्त हो गई।*
*हर द्रव्य पंचभौतिक है पर अंतिम परिणाम में जो रस प्राप्त हो उसे ही वास्तविक रस के रूप में स्वीकृति प्रदान करनी चाहिये लेकिन अनुरस का भी अपना महत्व है जैसे तिक्त रस के संदर्भ में देखते है...*
*ज्योतिषमति - तिक्त रस - अनुरस कटु*
*पिप्पली - कटु रस - अनुरस तिक्त *
*जातिपत्र - कटु रस - अनुरस तिक्त *
*बढ़ी एला - कटु रस - अनुरस मधुर तिक्त *
*विडंग - कषाय रस - अनुरस तिक्त *
*इन्द्रवारूणी - तिक्त रस - अनुरस कटु*
*कर्कट श्रंगी- कषाय - अनुरस तिक्त *
*गुडूची - तिक्त रस - अनुरस कषाय*
*मंजिष्ठा - मधुर रस - अनुरस तिक्त- कषाय *
*यष्टिमधु - मधुर रस - अनुरस तिक्त*
*लवंग- कटु रस - अनुरस तिक्त *
*हरिद्रा - तिक्त रस- अनुरस कटु *
*शतावरी - तिक्त रस - अनुरस कटु *
*लोध्र - कषाय रस - अनुरस तिक्त*
*बकुल - कषाय रस - अनुरस तिक्त*
*वरूण - तिक्त रस*
*केसर - तिक्त रस*
*कटुकी तिक्त रस*
*पुनर्नवा मूल - कटु रस -अनुरस तिक्त कषाय *
*सर्पगंधा - तिक्त रस*
*हिंगु - तिक्त रस *
*गुग्गुलु - तिक्त रस *
*चिरायता, नीम और कुटज भी तिक्त हैं ।*
[3/8, 12:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*पित्ताश्य उत्तेजक - यह वो कर्म है जो सान्द्र और घनीभूत हो रहे पित्त को पुनः द्रव रूप में लाता है और sludge या अश्मरी को बाहर निकालने में प्रमुख भूमिका निभाता है क्योंकि बिना उत्तेजित हुये विजातिय द्रव्य, पित्त या अश्मरी बाहर उस प्रकार नही आ सकती जैसा हम चाहते हैं।
'यवानी चार्जकश्चैव शिग्रुशालेयमृष्टकम् ।
हृद्यान्यास्वादनीयानि पित्तमुत्क्लेशयन्ति च'
च सू 27/170
\
इस पित्त उत्क्लेशन को चरक में स्पष्ट किया है कि यवानी, शिग्रुमूल, छोटी मूली ह्रदय को तो अनुकूल लगते हैं पर पित्त का उत्क्लेशन करते हैं। गुणों में यह कटु, तिक्त और उष्ण गुण युक्त होते हैं तथा इस पर हमने अनेक वर्ष कार्य कर के अनेक द्रव्यों का चयन कर लिया जैसे मूली क्षार जो यही कार्य करता है तथा चिकित्सा के अंतिम 3-4 दिनों में जब अश्मरी को निकालना हो तो यह हमारा ब्रह्मास्त्र बन कर व्याधि का नाश करता है।
*यकृत उत्तेजक -
यह सदैव ध्यान रहे कि पित्त के अनेक रूप शरीर में चल रहे हैं जो आपको एक लग रहा है पर वो है नही जैसे आमाश्य में स्थित पित्त जो क्षुधा वर्धन और पाचन में सहायक है इसे पाचक पित्त की संज्ञा दे दी गई और दूसरा वो पित्त है जो यकृत द्वारा निर्मित है और यह बहुत महत्वपूर्ण है । दोनो की भिन्नता देखनी है तो इस प्रकार समझें कि क्या पाचक पित्त के द्रव्यों मात्र से आप यकृत की चिकित्सा कर सकते हैं ? नही कर सकते क्योंकि दोनो की चिकित्सा के औषध द्रव्य ही भिन्न हो जाते हैं।*
*प्रमाथी-
उष्ण-तीक्ष्ण द्रव्य जो अपने वीर्य से स्रोतोंगत मल का मथ कर निष्कासन करे*
*अनुलोमन -
आचार्य डल्हण 'अनुलोमनो वातमलप्रवर्तन' अर्थात जो वात और मल का प्रवर्तन कर दे और 'सरोऽनुलोमनः प्रोक्तो' सु सू 46/522 आचार्य सुश्रुत जो द्रव्य दोष, मलादि का पाक कर के तथा उनके संघात का भेदन कर उनके उस स्थान या अधोभाग से निकालने में सहायक होते हैं उनको अनुलोमन मानिये तो चिकित्सा का प्रकार बदल जायेगा। इनका उदाहरण है हरीतकी, यष्टिमधु, गंधक, आमलकी आदि मगर इन सब में एक बात hidden है कि ये किस अवस्था या काल में अनुलोमन करेंगे यह नही बताया। हरीतकी भोजन के पाक हो जाने पर अनुलोमन करती है, आमलकी भी ऐसा ही करती है। गंधक वटी एक योग है जो बहुत अच्छा दीपन पाचन और अनुलोमन करता है इसे भोजनोत्तर देना ही श्रेष्ठ है अर्थात गंधक को खाली पेट देने से बचें ।*
*अनुलोमन भी देखिये कितना बृहत् है जैसे वातानुलोमन जिसमें उर्ध्व और अधोभाग की वात का अनुलोमन करते है यथा पंचलवण, हिंगु, हरीतकी आदि। वर्चो या मलानुलोमन - जो ग्रथित मल को छिन्न भिन्न कर के उसके मार्ग से बाहर निकाल देते हैं जैसे आरग्वध, हरीतकी आदि । कफानुलोमन - जो द्रव्य कफ का प्रसादन कर शरीर से बाहर निकालते है जासे अंजीर, मधुयष्टि आदि । दोषानुलोमन - जब दोष शरीर में अनेक स्रोतस में अवरूद्ध हो जाते हैं तो जो द्रव्य उनको मार्ग में सम्यग् रूप से प्रवृत्त कराते हैं वो दोषानुलोमन हैं जैसे पिप्पली, बृ पंचमूल आदि ।*
*लेखन*
*भेदन*
*पित्तविरेचन*
*मूत्रविरेचन*
*इन चारो को सब भली प्रकार से जानते ही हैं।*
*यह विशिष्ट ज्ञान है कि 7 mm- 10 mm तक की पित्ताश्य अश्मरी की चिकित्सा कम से कम 3 महीने तो मान कर चलिये जिसमें प्रथम मास तक अश्मरी को विभिन्न प्रक्रियाओं से दुर्बल करना है, तोड़ना है या द्रवीकरण करना है। जैसे प्रथम रोगी में देखिये यहां अश्मरी GB neck में है अगर यह निकली तो आगे अवरोध कर के आपातकालीन स्थिति में जा कर शल्य क्रिया की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है।*
*किस प्रकार step by step चल कर द्रव्यों के संयोग बनाये जाते हैं और उनका प्रयोग किया जाता है क्योंकि पित्ताश्य अश्मरी कोई लक्षण नही प्रकट कर रही और बार बार रोगी USG नही करा रहा तो उपश्य- अनुपश्य से यह निर्धारित किया जाता है कि अश्मरी अब किस अवस्था में जैसे मृदु है या कठिन और इसका आधार अनुमान और युक्ति रहता है जिसके लिये त्रिकटु चूर्ण का किचित अधिक मात्रा में नींबू स्वरस के साथ सेवन करा कर अनुमान लगाया जाता है। इस प्रकार के द्रव्यों का प्रयोग अनेक रोगियों में व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर निर्धारित धीरे धीरे होता जाता है। ग्रन्थों ने तो बीज दिये है और उन्हे फलित करना यह हमारे बुद्धि बल पर है।*
*पित्ताश्य अश्मरी जैसे असाध्य रोग की चिकित्सा में सम्प्राप्ति विघटन के लिये हमें उष्ण तीक्ष्ण लघु छेदन भेदन कर्षण लेखन द्रव्यों की आवश्यकता होती है जो हमें क्षार में मिलते है 'तीक्ष्णोष्णो लघुरूक्ष्ष्च क्लेदी पक्ता विदारणा:, दाहनो दीपश्च्छेता सर्व: क्षारोऽग्निसन्निभ :।' च सू , संग दोष के भेदन के लिये तिक्त प्रधान कुटकी और नवसार का मिश्रण हम बहुत प्रयोग करते हैं।*
[3/8, 12:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*तिक्त रस की एक विशेषता ये है कि अति प्रयोग से अश्मरी में सहायक है तो कुछ विशिष्ट द्रव्यों और कर्मों के साथ संयुक्त हो कर एक निश्चित मात्रा में देने से अश्मरी को तोड़ कर उसका भेदन भी कर रहा है और उसे खुरच कर बाहर निकालने में भी प्रयत्नशील है,
'दीपनः पाचनः स्तन्यशोधनो लेखनः '
च सू 26/42
अर्थात तिक्त रस दीपन,पाचन, स्तन्य की शुद्धि करने वाला और लेखन भी करता है।*
*चिकित्सा सूत्र -*
*पित्ताश्य की चिकित्सा कोई साधारण कार्य नही है क्योंकि जो पित्त के अनेक अंश अन्य दोषों के अंशो के साथ मिल रहे हैं उन पर हम क्या क्रिया करेंगे इसे समझते है । सर्वप्रथम हम दो कार्य कर सकते है पित्त शोधन और पित्त शमन...*
*1- पित्त का हरण पित्त हर द्रव्यों से जो वृद्ध पित्त को या पित्त अल्प हो तो उसका वर्धन कर बल पूर्वक अथवा सामान्य कर्म से अपने सारक अथवा विरेचक गुण से निष्कासन कर देते हैं।*
*2- पित्त का शमन जो पित्त संशमनीय द्रव्यों से होगा जिनकी विशेषता है कि ये किसी अन्य दोष को उत्क्लिष्ट नही करते और ना ही इनका किसी अन्य धातु पर प्रभाव होता है । यह मात्र पित्त का ही शमन करते हैं।पित्त प्रसादन और पित्त अवसादन भी पित्त प्रशमन का ही भाग है।*
*इन दोनों में हमें यह ध्यान रखना पड़ता है कि शोधन या शमन समस्त पित्त का करना है या पित्त के कुछ विशिष्ट अंशों का तथा इनकी चिकित्सा में सामान्य शोधन और विशिष्ट शोधन किस प्रकार किया जायेगा क्योंकि अभी तक जो सामान्यतः समझा जाता है वो यह है कि पित्त में विरेचन दे दीजिये या पित्त शामक चिकित्सा दे दी जाये ।*
*हमारा चिकित्सा सूत्र पित्त के उपरोक्त संशोधन और संशमन को साथ ही ले कर चलने से स्थूल रूप से तो इस प्रकार दृष्टिगोचर हो रहा है पर इसके पीछे एक पूरा विशिष्ट ज्ञान साथ चल रहा है।*
*दीपन -
अग्नि, वायु और आकाश प्रधान द्रव्य दीपन में अधिक प्रभावी होते हैं इसके लिये अल्प मात्रा में कुटकी जो तिक्त रस की औषध है जो वायु और आकाश प्रधान है, व्यवायी और विकासी गुण इसके औषधीय गुणों को सूक्ष्म स्रोतों में पहुंचा देता है, शीतवीर्य और लघु हो कर भी भेदन कर्म में श्रेष्ठ है, कटु विपाक अग्नि और वायु का गुण साथ इसे दीपन बनाता है।इसी प्रकार कुछ अन्य द्रव्यों का चयन किया जाता है क्योंकि निरंतर अग्नि दीप्त रहना आवश्यक है अन्यथा आम का संचय घनीभूत हो कर अश्मरी को multiple और large size का बनाता जायेगा।*
*पाचन -
पाचन किसका करना है ? सामरस का या सामपित्त का यह चिकित्सा में सब से बढ़ी युक्ति है जो समझ आने के बाद बढ़े गंभीर रोगों की चिकित्सा भी सरल कर देती है क्योंकि सामरस और सामपित्त दोनों के लक्षण रोगियों में और आधुनिक समय में तो बिल्कुल ही अलग मिलते है। कितनी भी सामरस की चिकित्सा कर लीजिये पर जब तक सामपित्त सामान्य नही होगा तब तक लक्षण पुनः पुनः प्रकट होते रहेंगे ।*
*सामपित्त का पाचन आचार्य सुश्रुत ने बताया है और इस प्रकार के योग पित्ताश्य अश्मरी के निकालने के मध्य हमें बीच बीच में देने ही पड़ते है
'मृदुभिर्दीपनैस्तिक्तैर्द्रव्यैः स्यादामपाचनम् हरिद्रातिविषापाठावत्सबीज रसाञ्जनम् रसाञ्जनं हरिद्रे द्वे बीजानि कुटजस्य च पाठा गुडूची भूनिम्बस्तथैव कटुरोहिणी एतैः श्लोकार्धनिर्दिष्टैः क्वाथाः स्युः पित्तपाचनाः'
सु सू 40/60-62
सामपित्त पाचक द्रव्य साम अथवा अपक्वपित्त का पाचन करते हैं, यह द्रव्य शीत और उष्ण दोनो वीर्य युक्त हो सकते हैं तथा तिक्त रस प्रधान होते हैं जैसे रसांजन, हरिद्रा दारूहरिद्रा पाठा अतीस इन्द्रयव वत्सक आदि ।*
[3/8, 12:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*पित्ताश्य अश्मरी और GB SLUDGE की चिकित्सा सूत्र और औषधियों पर हम अनेक case present कर चुके है जो आप blog पर देख सकते हैं ...*
[3/8, 12:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*धीरे धीरे हम पित्त और उसकी गहनता जैसे स्वेदकर*
*तापहर*
*स्वेदोपग*
*पित्त शमन अथवा पित्त संशमन*
*पित्तावरोध*
*पित्त व्याधिकर*
*पित्तावसाद*
*पित्तकर्षण*
*मूत्रल - क्योंकि विरेचन मल के साथ मूत्र का भी करते हैं।*
*पित्त उत्क्लेश *
*पित्त अनुलोम*
*पित्त प्रकोप*
*पित्तघ्न*
*पित्त प्रदूषण*
*पित्त वर्धन*
*पित्त जनन*
*अग्निसादन*
*ताप प्रशमन*
*पित्त सारक*
*पित्त संग्रहण*
*स्वेदताप हर*
*पिपासा निग्रह*
*पित्त पाचन*
*पित्त शोषण*
*पित्त शोधन*
*पित्त प्रसादन*
*दाह हर*
*पित्तनाशन*
*पित्ताजित*
*में जा रहे हैं कि किस प्रकार हेतु, लक्षण, कर्म और चिकित्सा में इनका महत्व है और किस प्रकार रोगियों में हम इनका उपयोग करते हैं ये सब धीरे धीरे case presentations के साथ with evidence ले कर चल रहे हैं ।*
*.... to be continue ...*
[3/8, 12:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*एक देशीय पित्त के उष्ण और तीक्ष्ण गुणों की वृद्धि आलोचक पित्त के रूप में अति मद्यपान के दो दिन करते ही देखिये ...*
[3/8, 1:14 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आज रात्रि जागरण 🤔🤔🤔*
[3/8, 1:16 AM] Dr. Pawan Madan:
आज मैं भी आपके साथ हूँ।
[3/8, 1:31 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma: 🌹❤️🙏
[3/8, 5:15 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏 प्रणाम गुरुवर 🙏
आज आपका रहस्योद्घाटन पढ़ा और लगता है बारंबार पढ़ना पड़ेगा तब जाकर कुछ पल्ले पड़ेगा।
धन्यवाद गुरुवर 🙏🙏🙏🙏
[3/8, 5:23 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
आपश्री तो अविरत हम सबके साथ है, इंक अग्रज के मानिंद। यह कल्पना ही बहोत बलदायक है।
[3/8, 5:23 AM] Vd. AAkash changole, Amravati:
Bahot bahot naman sir
Yehi विचार हम हमारे यह आने वाले बच्चों को पढ़ते है तोह उन्हें आश्चर्य लगता है और वे दिल लगाकर पढ़ने लगते है ।
[3/8, 5:34 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
पित्त चिकित्सा के सभी आयाम।
कल सायं रुग्ण के विडीयो कन्सल्टिंग में उसकी जिव्हा स्ट्राबेरी के समान आरक्त वर्ण लिए मिली। भल्लातक योग जो चल रहा था उसे बंद कराया गया, मृदु विरेचन, पित्तशामक औषधी दी है।
[3/8, 7:20 AM] Dr. Ashwani Kumar Sood:
Very informative 👍🏻
[3/8, 7:36 AM] Dr. Pawan Madan:
प्रणाम गुरुवर।
बार बार पढने योग्य सामग्री।
आपने तो चिंतन के नये आयाम खोल दिये।
कोटिश: धन्यवाद।
[3/8, 8:54 AM] Dr Sanjay Dubey:
एक बार पढ़ लिए हैं अभी और पढ़ना पड़ेगा ..
धन्यवाद गुरूदेव कोटिशः प्रणाम 🙏🙏🙏👌
[3/8, 9:00 AM] Dr Sanjay Dubey:
सामरस और सामपित्त कब किसका पाचन करना है और इनके विभेद कैसे करें ?
सर इस पर और मार्गदर्शन की अपेक्षा है 🙏🙏
[3/8, 9:17 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*रात्रि में ही अब समय मिल पाता है अतः इसे विस्तार से कुछ उदाहरणों एवं with evidence स्पष्ट करेंगे।* 👍👍
[3/8, 9:42 AM] Prof.Satyendra Narayan Ojha Sir:
शुभ प्रभात वैद्यराज जी नमो नमः ॐ नमः शिवाय 🌷🌹
[3/8, 9:43 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सुप्रभात एवं सादर प्रणाम सर 🌹❤️🙏 नमो नमः *
[3/8, 9:46 AM] वैद्य ऋतुराज वर्मा:
सुप्रभात गुरूवर
आपके आशीर्वाद से पित्ताशय अश्मरी में अब सफलता मिलने लगी है
नमो नमः!
[3/8, 9:48 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आप एक सफल, उत्साही एवं परिश्रमी वैद्य है ऋतराज जी और सदैव नया सीखने की इच्छा रखते है 👍👍👍*
[3/8, 9:53 AM] Prof.Satyendra Narayan Ojha Sir:
पूर्ण विवरण, अति प्रशंसनीय लेख, नैदानिक एवं चिकित्सकीय पक्ष वैशिष्ट्य, अपान पर भी चर्चा करें, किट्ट स्वरुप पित्त में आये हुए वैषम्य से अश्मरीभवन सम्भाव्य अत एव समान एवं अपान की भूमिका अति महत्वपूर्ण इसीलिए दीपनीय घृत का प्रयोग भी प्रशस्त है..
[3/8, 10:05 AM] वैद्य ऋतुराज वर्मा: 🙏🙏🙏
[3/8, 10:17 AM] Dr. Pawan Madan:
तिक्त रस अति सेवन
पित्ताशय अश्मरी का कारण
बहुत उपयोगी आयाम
This description clears out that Bile is a Pitta Vargiya substance.
[3/8, 10:21 AM] Prof. Giriraj Sharma:
Namskar
I think Bile is रक्तमल पित्त
[3/8, 1:44 PM] Dr. Satish Jaimini:
अद्भुत दर्शन गुरुजी🙏🏻🙏🏻
[3/8, 2:13 PM] Dr Dalip Sharma:
👌👌👌
Very knowledgeable notes on the Samprapti vighatan of Cholelithiasis. Wonderful Sir. 🙏🏻🙏🏻
[3/8, 2:37 PM] Dr. Vandana Vats Madam Canada:
चरण वन्दन सर
🙏
धन्यवाद सर, बहुत ही विस्तृत और गहन विवेचन। शास्त्रोक्त सूत्र को किस प्रकार पढना, समझना और प्रयोग करना है, यह आप से और समस्त गुरूजन से सीख रहे है।
🙏
---पित्ताश्मरी के उपश्य अनुपश्य, मृदु, कठोर अवस्था का पता लगाने के लिए जो युक्ति आपने बताई, *त्रिकटु नीम्बु स्वरस सेवन*, उसकी मात्रा और क्या परिणाम होता जिससे मृदु कठोर अश्मरी का पता चले?
-----कफानुलोमन, भी बहुत important लगा। समय मिलने पर गुरुवर इस पर भी प्रकाश डाले, जिज्ञासु है हम। क्योकि कफ शोधनार्थ तो वमन चिकित्सा ही करते है।
🙏
[3/8, 2:55 PM] Dr. PM Sharma: अतुलनीय🙏🏻🙏🏻
[3/8, 6:56 PM] Dr. Ramesh Kumar Pandey:
गुरुवर प्रणाम👏👏
तिक्त रस, उसका पित्त पर प्रभाव, और पित्ताश्मरी पर प्रायोगिक ज्ञान प्रदान करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
👏👏
[3/9, 7:04 AM] Dr. Pawan Madan:
प्रणाम गुरुवर्य।
आपके आलेख से बहुत से मार्ग खुल रहे हैं।
अतीव धन्यवाद।
🙏
[3/9, 8:34 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार पवन जी 🌹🙏 आप गंभीर साधक है और यह गुण आप में अतीव उत्तम है।*
[3/9, 8:52 AM] Vaidya B. L. Gaud Sir:
आशीर्वाद ।
अत्यंत ही श्रेष्ठ विवेचन है। स एवात्यर्थमुपयुज्यमानो... का श्रेष्ठ विश्लेषण
[3/9, 10:02 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*ह्रदयतल से आभार युक्त प्रणाम सर, आपका आशीर्वाद ही सर्वोपरि है 🙏🙏🙏🙏🙏*
[3/9, 12:07 PM] Vd. Mohan Lal Jaiswal:
ऊँ सादर प्रणिपातपूर्वक नमन वैद्यवर जी आयुर्वेद भास्कर
उत्कृष्टतम, सूक्ष्म व गहन पित्त, पित्ताश्मरी, तद्कार्मुक द्रव्यगुणकर्म विवेचन।
इस स्व टिप्पणी गुरवर्य कृपा से समयान्तराल में देने का प्रयास ।
जय हो वैद्य वर जी
बारम्बार अभिनन्दन वन्दन जी
ऊँ शम !
श्रद्धेय मान्य वैद्य वर सुभाष शर्मा जी।
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday (Discussion)' a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
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Presented by-
Vaidyaraja Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by-
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by-
Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
P.G. Dept of Kayachikitsa
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, Gujarat, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
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