[3/21, 12:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आयुर्वेद रहस्य - पित्त प्रकरण भाग - 5*
*21-3-2022*
*case presentation -
Hepatitis B वायरस - साम पित्त विकृति एवं चिकित्सा व्यवस्था...*
12/6/19 - HBV - 170000000 - IU/ml
21/3/20 - HBV - 21177203 - IU/ ml
10/3/21 - HBV - 305517198 - IU/ml
17/2/22 - HBV - not detected
*(viral load इतना अधिक था कि 2.5 वर्ष तक निरंतर चिकित्सा दी गई)*
[3/21, 12:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*2019 -2021 प्रतिवर्ष का viral load*
[3/21, 12:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*रूग्ण / age 56 yrs./ male / businessman*
*मुख्य वेदना - लगभग 6-7 मास से अत्यन्त दौर्बल्य, 10-11 kg body wt. कम हुआ, क्षुधा नाश, अंगसाद, अंगमर्द, मुख, ग्रीवा, हस्त की त्वचा पीत हारित अवभासता के साथ और मस्तक, गाल एवं ग्रीवा की त्वचा श्याव वर्ण, ज्वर प्रतीती रहती थी पर थर्मामीटर में ज्वर नही था।*
*history of present illness - रोगी कभी कभी नियमित अंतराल के बाद मद्यपान करता रहता था जिस से एक वर्ष पूर्व कामला हुआ था और LFT reports प्रायः normal range से अधिक मिलती थी तथा अजीर्ण एवं ग्रहणी दोष लक्षण कदाचित उत्पन्न हो जाते थे, पिछले एक वर्ष से रोगी की कामेच्छा एवं क्षमता लगभग समाप्त सी हो गई थी।*
*पूर्व व्याधि वृत्त - कुछ वर्ष पूर्व संग्रहणी रोग*
*heptatitis B वायरस आयुर्वेद में किस श्रेणी में ग्रहण करें ? आज विस्तार से अनेक पक्षों पर case presentations के साथ चर्चा करेंगे..*
*अनेक अनुक्त व्याधियां वर्तमान काल में आ रही हैं और हेतु वायरस है जो प्रत्यक्ष है, यह किस प्रकार दोषों को दूषित कर खवैगुण्य में प्रवेश कर के स्थान बनाता है, धातुओं को क्षीण कर लक्षण उत्पन्न करता है तो आयुर्वेदानुसार इसे कैसे जाना जायें ? पित्त के प्रमुख अव्यव यकृत जो पित्त का प्रमुख स्थान है यह दोषों को किस प्रकार से दूषित कर लक्षण उत्पन्न करता है और इसकी चिकित्सा में चिकित्सा सूत्र हम किस प्रकार बना कर चिकित्सा कर सकते है इसे गंभीरता से लेते हैं ।*
*हरिवंश पुराण, पर्व 1 अध्याय 40/48-58 में आयुर्वेद के कुछ सूत्र इस प्रकार क्रम से उपलब्ध हैं जो आयुर्वेद आर्ष ग्रन्थों में भिन्न भिन्न स्थानों पर हैं तो सही पर हरिवंश पुराणकार ने उसे एक नया आयाम दे कर अनुसंधान का बढ़ा बृहद् क्षेत्र दे दिया और वह है समस्त क्षेत्र को वात, पित्त और कफ तीन वर्गों में सीमित कर देना, इसमें सूत्र देखें .....*
*'रसाद् वै शोणितं जातं शोणितान्मांसमुच्यते मांसात्तु मेदसो जन्म मेदसोऽस्थीनि चैव हि अस्थ्नो मज्जा समभवन्मज्जातः शुक्रमेव च शुक्राद् गर्भः समभवद् रसमूलेन कर्मणा तत्रापां प्रथमो भागः स सौम्यो राशिरुच्यते गर्भोष्मसम्भवोऽग्निर्यो द्वितीयो राशिरुच्यते शुक्रं सोमात्मकं विद्यादार्तवं विद्धि पावकम् भागौ रसात्मकौ ह्येषां वीर्यं च शशिपावकौ 'कफवर्गे भवेच्छुक्रं पित्तवर्गे च शोणितम्' कफस्य हदयं स्थानं नाभ्यां पित्तं प्रतिष्ठितम् देहस्य मध्ये हृदयं स्थानं तन्मनसः स्मृतम् नाभिकोष्ठान्तरं यत् तु तत्र देवो हुताशनः मनः प्रजापतिर्ज्ञेयः कफः सोमो विभाव्यते पित्तमग्निः स्मृतं ह्येतदग्नीषोमात्मकं जगत् एवं प्रवर्तिते गर्भे वर्द्धितेऽम्बुदसंनिभे वायुः प्रवेशं संचक्रे सङ्गतः परमात्मना ततोऽङ्गानि विसृजति बिभर्ति परिवर्द्धयन् स पञ्चधा शरीरस्थो भिद्यते वर्द्धते पुनः प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव च प्राणः स प्रथमं स्थानं वर्द्धयन् परिवर्तते अपानः पश्चिमं कायमुदानोर्ध्वं शरीरिणः व्यानो व्यायच्छते येन समानः संनिवर्तयेत् ।*
*समस्त द्रव्यों का विभाजन वर्गों में विभाजित कर सकते है,*
*1- वात वर्ग *
*2- पित्त वर्ग*
*3- कफ वर्ग *
*जिस प्रकार शुक्र कफ वर्ग और शोणित पित्त वर्ग में है इसी प्रकार विभिन्न वायरस का भी हम वर्ग निर्धारित कर सकते हैं जैसे HBV पित्त वर्ग का वायरस है और पित्त स्थान में स्थान संश्रय कर पित्त के द्रव गुण की वृद्धि कर पित्त को साम बना देता है।पित्त व्यवहार में भी देखा जाये तो समानधर्मी कर्म करने वाले , समान औषध, आहार विहार , पित्त समान हेतुओं से प्रकुपित होने वाले अनेक द्रव्य समूह और हेतुओं के वर्ग का एक क्षेत्र है जिसमें अनगिनत द्रव्यों का समावेश है।*
[3/21, 12:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*अगर हम विभिन्न वायरस की प्रकृति, प्रवृत्ति, स्थान संश्रय कहां करता है और दोष -धातुओं मे आक्रमण के तरीके को समझ ले तो इनका वर्ग निर्धारित कर चिकित्सा में अतिशीघ्र सफलता प्राप्त कर सकते हैं जैसे आन्त्रिक ज्वक (typhoid fever) का आन्त्र में स्थान संश्रय कर रस- रक्त को दूषित मल-मूत्र में भी अपनी उपस्थिति बना कर रखता है।influenza का वायरस प्राण वह स्रोतस में स्थान संश्रय कर श्वास प्रश्वास के माध्यम से भी दूसरे में प्रसरण करता है।आक्षेपक ज्वर (cerebrospinal fever) का जीवाणु मस्तिष्क मूल में स्थान संश्रय कर त्रिदोष को कुपित करता है , इसी प्रकार हम विभिन्न वायरस का समावेश त्रिदोष वर्ग में कर उसके स्वभाव को जान आयुर्वेद दोषानुसार चिकित्सा कर सकते हैं।*
*इस रोगी में hepatitis B virus मिला है , बिना दोषों के चय के भी अचय पूर्वक खवैगुण्य हो गया जैसा ग्रन्थों में वर्णित है
'कुपितानां हि दोषाणां शरीरे परिधावताम्, यत्र संगः खवैगुण्याद्व्याधिस्तत्रोपजायते '
सु सू 25/10,
इस पर आचार्य डल्हण की व्याख्या है
'खवैगुण्यात् स्रोतोवैगुण्यादित्यर्थः'
और आचार्य चक्रपाणि
'खवैगुण्य खवैगुण्यादिति स्रोतोवैगुण्यात् '
च चि 15/37
इस प्रकार स्पष्ट करते हैं दोनों आचार्यों के मत से खवैगुण्य स्रोतस की विगुणता है क्योंकि खवैगुण्य स्रोतस में ही होगा जो उनके प्राकृत कर्मों में व्यवधान उत्पन्न करेगा और दोष प्रकोप बाद में होगा मगर Hepatitis B में तो वायरस अनेक रोगियों में विशिष्ट गंभीर लक्षण ही नही प्रकट करता मगर शनैः शनैः धातु क्षय कर के ओज नष्ट कर देता है।*
*किसी भी अवस्था में सूचीवेध,blood transfusion, वीर्य, तरल पदार्थ का रक्त में प्रवेश आदि अनेक कारणों से hepatitis B (HBV ) वायरस का शरीर में प्रवेश संभव है। वायरस का समावेश हम आयुर्वेद में किस प्रकार कर सकते हैं क्योंकि यह प्रत्यक्ष मिला है और रोगोत्पत्ति भी प्रत्यक्ष मिल रही है तो पहले इसे आयुर्वेदानुसार समझने का प्रयास करते हैं
'भूतानां चतुर्विधा योनिर्भवति- जराय्वण्डस्वेदोद्भिदः,तासां खलु चतसृणामपि योनीनामेकैका योनिरपरिसङ्ख्येयभेदा भवति, भूतानातानामाकृतिविशेषापरिसङ्ख्येयत्वात् तत्र जरायुजानामण्डजानां च प्राणिनामेते गर्भकरा भावा यां यां योनिमापद्यन्ते, तस्यां तस्यां योनौ तथातथारूपा भवन्ति:'
च शा 3/16
भूत अर्थात प्राणियों की चार श्रेणियां चरक में वर्णित हैं..*
*जरायुज - मनुष्य, गाय,बन्दर आदि*
*अण्डज - सांप, मछली, मुर्गी आदि *
*स्वेदज - जूं, लीख आदि*
*उद्भिज - केंचुऐ, वृक्ष, लता, वीरबहूटी आदि*
*इसी भेद को आगे आचार्य सुश्रुत
'लोको हि द्विविधः स्थावरो जङ्गमश्च; द्विविधात्मक एवाग्नेयः, सौम्यश्च, तद्भूयस्त्वात्; पञ्चात्मको वा; तत्र चतुर्विधो भूतग्रामः संस्वेदजजरायुजाण्डजोद्भिज्जसञ्ज्ञः'
सु सू 1/20
सुश्रुत लोक को दो भागों में बांटते है, जो सजीव है वो स्थावर और जो नही है वो जंगम, वो भी चार भाग कहते हैं स्वेदज, अंडज, उद्भिज और जरायुज ।*
*'ननु अजीबाज्जीवसृष्टि: कथं सम्भवतीति चेत् ?
अर्थात निर्जीव से सजीव कैसे उत्पन्न हो सकता है ? यह कैसे संभव है ? क्या यह सूक्ष्म वायरस संसार में पहले से ही उत्पन्न हैं या अब हो रहे हैं ?*
*ये वायरस को हम किस श्रेणी में मानें सजीव या निर्जीव ! ये वायरस उत्पन्न कैसे होते हैं ?
'सन्निवेशः शरीराणां दन्तानां पतनोद्भवौ तलेष्वसम्भवो यश्च रोम्णामेतत् स्वभावतः'
सु शा 2/58
शास्त्र तो यह भी कहता है कि संसार में अनंत जीवधारी प्राणि या जीव है उनमें शरीर का सन्निवेश सब का भिन्न होता है जैसे कोरोना वायरस की आकृति भी तो वैज्ञानिको ने सामने ला कर रख दी, इस प्रकार के जीवों का निर्माण, दांतों का समाप्त होना और पुन: निकलना, हस्त-पाद के तल में बालों का ना होना, ये सब स्वभाव से होता है।इसे लोक स्वभाव भी माना गया है।वायरस को निर्जीव मानें या सजीव इस पर आधुनिक विज्ञान में अपने अपने मत तर्क सहित हैं जो एकमत नहीं है , हमारे लिये इसका शरीर में प्रवेश बाहर से हुआ है ।हम इसे पित्त वर्ग का आगंतुज प्रकोपक हेतु मान कर चले है जो अन्य दोषों पर भी अपना प्रभाव डालेगा।*
*आचार्य सुश्रुत ने संक्रमण और कृमियों को अत्यन्त विस्तार से कहा है और उन्होने तो tinea infection की सत्यता प्राचीन काल में ही सिद्ध कर दी
'सर्वाणि कुष्ठानि सवातानि सपित्तानि सश्लेष्माणि सक्रिमीणि च भवन्ति, उत्सन्नतस्तु दोषग्रहणमभिभवात् '
सु नि 5/6
अर्थात सभी कुष्ठ सदैव त्रिदोष और कृमियों से ही होते है, प्रत्येक विकार का कृमि भिन्न होगा परन्तु कौन सा दोष उत्कृष्ट है और उसकी प्रबलता के अनुसार कुष्ठ का नामकरण किया गया है।*
*अष्टांग ह्रदय में
'अधुना रक्तजानाह रक्तवाहिसिरोत्थाना रक्तजा जन्तवोऽणवः,अपादा वृत्तताम्राश्च सौक्ष्म्यात्केचिददर्शनाः, केशादा लोमविध्वंसा लोमद्वीपा उदुम्बराः, षट् ते कुष्ठैककर्माणः सहसौरसमातरः'
अ ह नि 14/51-52
यह सूत्र दे कर कुष्ठ में रक्तज कृमियो को कारण माना है।*
[3/21, 12:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सम्प्राप्ति घटक -*
*दोष - पित्त पाचक,रंजक और भ्राजक*
*वात समान और व्यान*
*क्लेदक कफ*
*धातु - रस (त्वक्) रक्त मांस शुक्र और ओज*
*स्रोतस - रस रक्त मांस अन्न मूत्र पुरीष वाही*
*स्रोतोदुष्टि - संग एवं विमार्ग गमन*
*अग्नि दुष्टि - जाठराग्नि और धात्वाग्निमांद्य*
*अधिष्ठान - कोष्ठ यकृत*
*स्वभाव - चिरकालीन एवं कृच्छ साध्य *
*चिकित्सा सूत्र - *
*दीपन -*
*पाचन- *
*अनुलोमन- *
*विरेचन -*
*कृमिहर -*
*शोथहर -*
*रक्त शोधन - *
*स्रोतोशोधन - *
*पित्त शमन - *
*रसायन - *
*लाक्षणिक उपचार भी जैसे ज्वर आ जाये तो ज्वरघ्न।*
*औषध योग -*
*मूली स्वरस - 10 ml + प्याज स्वरस 5 ml + नींबू स्वरस 5 ml + पोदीना स्वरस 5 ml+ मरिच चूर्ण 300 mg + शर्करा 2 tsp .*
*इन सब को मिलाकर hepatitis B और C के कुछ रोगियों को हम आरंभिक अवस्था और बीच में देते रहते है कि इन सब को एक कांच के glass में मिलाकर ढक कर शीतल प्रदेश में रखें और खाली पेट दिन में एक एक चम्मच तीन चार बार सेवन करें । प्याज, नींबू और पुदीने के स्वरस का प्रयोग विभिन्न fungal infection जैसे खालित्य, दद्रु आदि में अनेक पुराने भिषग् सफलता से प्रयोग करते रहे हैं और viral load कम करने में भी यह बहुत उपयोगी है।यह क्षुधा में भी वृद्धि करता है।*
*गौमूत्र हरीतकी - 1-1 ग्राम दिन में दो बार वटी के रूप में ।*
*भूआमलकी पंचांग 100 gm + कुटकी चूर्ण 100 gm+ पुनर्नवा मंडूर 100 gm+ मूली क्षार 40 gm + प्रवाल पिष्टी 20 gm + श्वेत पर्पटी 20 gm , इन सब को grinder में मिक्स कर के रोगी को हम दे देते हैं और लगभग 2 ग्राम प्रातः और सांय एक मूली स्वरस में 2 tsp ग्लूकोज और जल मिलाकर पीने के लिये देते हैं । यह कामला में अत्यन्त प्रभावशाली कार्य गौमूत्र हरीतकी के साथ देने पर करता है , गौमूत्र हरीतकी इसके साथ मिल कर मृदु विरेचन कार्य करती है और इसके घटक मूत्र के पीतता कम कर अति शीघ्र प्राकृत वर्ण में ला देते हैं ।*
*एक विशिष्ट योग का निर्माण कराया गया जिसे चिकित्सा के अंतिम 6 मास में प्रयोग किया और इसने आशा से अधिक लाभ दिया - कुटकी 200 gm, कालमेघ 160 gm, मंडूर वटक ( इसमें त्रिफला त्रिकटु दारूहरिद्रा चित्रक आदि सहित मंडूर भस्म को गौमूत्र में पाक कर बनाते है) 120 gm, हजरूलयहूद भस्म 80 gm, मूलीक्षार 80 gm, प्रवाल पिष्टी ( यह प्रो अरूण राठी जी ने भेजी थी) 40 gm इस अनुपात में ले कर फलत्रिकादि क्वाथ की तीन भावना दे कर 500 mg की टैबलेट बनवाई गई और 1-1 gm दिन में दो बार दी गई ।*
*फलत्रिकादि क्वाथ - लेखन भेदन आमलकी- हरीतकी से रसायन वयस्थापक दीपनीय रक्त शोधक प्रमेह हर मेदमूल वृक्कौं पर शीघ्र कार्य कर और Hepatitis B रोगियों के लिये परमौषध है , सूक्ष्म चूर्ण फांट विधि से 5 ग्राम की मात्रा ली गई ।*
*कुटकी चूर्ण - लेखन भेदन पित्तरेचन और कामला रोगियों के लिये अमृत स्वरूप है , दीपन पाचन तो है ही भेदन कर्म से यकृत के संग दोष को दूर करती है, आरोग्य वर्धिनी वटी में 50% कुटकी ही है तथा सब से बढी विशेषता शीत वीर्य है, 1-3 ग्राम तक मात्रा ।*
*आरोग्य वर्धिनी - दीपन, पाचन, मेद हर, रक्त शोधक, शोथ हर होने के साथ स्रोतों का शोधन करता है। मात्रा 1-1 gm दिन में दो बार ।*
*फलत्रिकादि क्वाथ 5 gm द्रव्य, शरपुंखा 3 gm और दो ग्राम कासनी चूर्ण प्रात: सांय खाली पेट क्वाथ, यह योग बनाकर भी बहुत दिन तक दिया गया , शरपुंखा स्रोतस में कहीं संग दोष हो दूर करने में हमारी प्रिय औषध है और इसे हम यकृत-प्लीहा गत सभी विकारों में बहुत प्रयोग करते हैं।*
*कूष्मांड स्वरस 50 ml + प्रवाल पिष्टी 200 mg+ हजरूल यहूद भस्म 500 mg मिलाकर प्रातः खाली पेट बीच बीच में कई बार दिया गया, हजरूल यहूद भस्म मूत्रल है जो बढ़ी शीघ्रता से मूत्र पीतता भी दूर करती है, कूष्मांड स्वरस भी मूत्रल गुण युक्त होने के साथ पित्त शामक है और प्रवाल पिष्टी बल्य कर्म करती है। इनमें कुछ द्रव्य रक्त शोधन, पित्तशमन और स्रोतो शोधन साथ साथ करते है जो हम चिकित्सा सूत्र में ले कर चले।*
[3/21, 12:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*किस प्रकार एक दूसरे के वस्त्र या अन्य वस्तुयें प्रयोग करने पर, मैथुन से, एक ही bed पर सोने से, गात्र स्पर्श आदि से
'प्रसङ्गाद्गात्रसंस्पर्शान्निश्वासात् सहभोजनात्, सहशय्यासनाच्चापि वस्त्रमाल्यानुलेपनात्, कुष्ठं ज्वरश्च शोषश्च नेत्राभिष्यन्द एव च,औपसर्गिकरोगाश्च सङ्क्रामन्ति नरान्नरम् '
सु नि 5/32-33
ज्वर, कुष्ठ, नेत्राभिष्यन्दादि रोग जो औपसर्गिक हैं आ जाते है कितना स्पष्ट उल्लेख किया है।कविराज गणनाथ सेन ने आयुर्वेद में जीवाणुओं पर भी लिखा है जिसमें हम bacteria और virus दोनों को ग्रहण कर सकते हैं जिसमें आयुर्वेद ग्रन्थों में दृश्य और अदृश्य दोनों प्रकार के कृमियों का उल्लेख मिलता है।जैसा हम स्पष्ट कर के चले हैं ये विषाणु विशिष्ट दोषों को ही क्रमानुसार कुपित करेंगे जो इनका लक्ष्य है ।*
*पित्त के पांच भेदों का कार्य स्वरूप देखें तो आमाश्य और पक्वाश्य के मध्य यह चार प्रकार के जो आहार भेद कहे हैं उनकी पाचन करता है और आहार रस, दोष, मूत्र और मल को पृथक कर देता है।पित्त में एक आत्म शक्ति है जिस से यह वहीं स्थित हो कर अन्य चार पित्तों का अपने अग्निकर्म से अनुग्रह करता है। इस अग्नि को ही पाचकाग्नि कहा गया है।आपने देखा होगा कि जब भी हम चिकित्सा सूत्र बनाकर चलते हैं तो उसमें जहां पाचन कर्म लिखते हैं उसका अभिप्राय यही होता है कि पाचकाग्नि का वर्धन करना। यकृत और प्लीहा स्थित अग्नि स्वरूप पित्त रस का रंजन कर्म करता है। ह्रदय में स्थित हो कर यह सब मनोरथ पूर्ण करने वाला साधक पित्त है, रूप ग्रहण करने में सक्षम यह दृष्टि में स्थित हो आलोचक नाम से जाना जाता है और त्वचा में स्नान, परिषेक, आलेपन, तैल मर्दन आदि बाहर से प्रयुक्त द्रव्यों का पाचन कर कान्ति ला दे कर भ्राजक पित्त बना है।*
*सामान्यतः पित्त के अनेक रूप निदान और चिकित्सा क्षेत्र में मिलते हैं जैसे ..,*
*1- साम पित्त - इस पित्त का एक विशिष्ट प्रत्यात्म लिंग है जो शेष पित्त से इसे प्रथम दृष्टि में ही पृथक करता है
'दुर्गन्धमसितं पित्तं कटुकं बहलं गुरु'
अ स सू 21/18
वह है दुर्गंध । यह पित्त प्रत्यक्ष मल भूत अपक्व रूप में देखने को मिलता है जो हरित एवं श्याव वर्ण का हो सकता है, अम्लरसाधिक्य, गुरूता के साथ, अम्लोद्गार युक्त,कंठ और ह्रदय में दाह के साथ तथा स्थिर हो जाता है।*
*छोटे बच्चों में दंतोद्गम काल में मल के साथ उपरोक्त वर्ण में यह पित्त प्रायः मल के साथ निकलता देखा जाता है, पाण्डु रोग में हरित पीत वर्ण , वाहनादि में यात्रा के समय, अनेक स्त्रियों में गर्भावस्था काल में कुछ विशिष्ट द्रव्यों में अरूचि के कारण भी यह बहुत देखने को मिलता है।*
*2- विदग्ध पित्त -
'विदग्धन्तु तद् अम्लिका कण्ठह्ददाहकृत्'
यह अधिक अम्लता को प्राप्त कर ह्रदय प्रदेश और कण्ठ में दाह करता है और इसकी उद्गार भी अम्लीय होती है। विभिन्न समारोह में दिन में गोलगप्पे, टिक्की, पावभाजी, chinese food, दाल मखनी शाही पनीर, पूड़ी, कचौड़ी, छोले भठूरे और ऊपर से मिष्ठान सेवन कर शैय्या पर चले जाना के सहस्त्रों रोगी आप अपने आस पास प्रतिदिन इस स्थिति से ग्रसित देख सकते है । अगर दुर्गंध हो तो इसे सामयुक्त मानें ।*
*3- निराम पित्त - यह कुछ ताम्र वर्ण का, उष्ण, 'रसे कटुकमस्थिरम्' रस में कटु और स्थिर, गंधहीन, भोजन में रूचि उत्पन्न करता है तथा भुक्त अन्न का पाचन करता है और साथ ही बल की वृद्धि करता है।*
*पित्त प्रकोप या पित्त वृद्धि -*
*शरद, वर्षा और ग्रीष्म ऋतु, मध्याह्न काल और मध्य रात्रि*
*आहार की विदाह अवस्था*
*क्रोध, उपवास, भय और ईर्ष्या*
*उष्ण,तीक्ष्ण गुण*
*अम्ल, लवण और कटु रस*
*स्त्री प्रसंग या मैथुन*
*विभिन्न क्षार*
*वेगावरोध*
*अनेक औषध एवं रसायनिक द्रव्य *
*इन सभी में लगभग अनगिनत हेतुओं का समावेश हो जाता है।Hepatitis B रोग भी कामला के अन्तर्गत ही मान कर चला जाता है, इसका वायरस रक्त में स्थित हो कर रक्त के मल पित्त को सामावस्था में बनाये रखता है जिसके परिणाम स्वरूप यकृत में संग दोष उत्पन्न होता है और याकृत पित्त को वहन करने वाले स्रोतस पित्त का विमार्गगमन कर उसे रक्त में मिला देते हैं इसीलिये साम पित्त के लक्षण हारीत और श्याव वर्ण viral load अधिक होने पर इसकी त्वचा में दूर से ही दृष्टि गोचर था।*
[3/21, 12:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*द्रव्यों में अनेक बार कुछ द्रव्यों की मात्रा कम या अधिक करनी पड़ती है या उसके साथ अन्य द्रव्य मिलाने पड़ते है क्योंकि चिकित्सा दीर्घ काल तक चलेगी और एक ही मात्रा या योग अधिक समय तक देते रहने से लगता है कि उसका औषधीय प्रभाव कम हो गया और रोगी उसे अब आहार की तरह सेवन कर रहा है।*
*यव का पानीय क्षार - यव को fry pan में ही जला कर राख कर ले, 5 gm यह यव भस्म 200 ml जल में रात को अच्छी तरह घोल लें ,सुबह राख नीचे बैठ जाती है और ऊपर का जल छान कर पिला दे। ऐसा ही सुबह भिगो कर शाम को करें, इसे हम यव का पानीय क्षार कहते हैं, जल मिश्रित होने से मूत्रल तो है ही वृद्ध पित्त का भी निष्कासन करता है।*
*महासुदर्शन चूर्ण - 5-5 gm फांट विधि से, इसने रोगी को बहुत अधिक लाभ दिया । यह पाचन, स्रोतोशोधन, अनुलोमन, ज्वरध्न और पित्त रेचन कार्य करता है। हमारे मत से महासुदर्शन चूर्ण+ फलत्रिकादि क्वाथ का मिश्रण अनेक वायरल व्याधियों और संक्रमण अवस्थाओं में बहुत श्रेष्ठ कार्य करता है ।*
*Hepatitis B सहित अनेक व्याधियों में जहां भ्राजक पित्त की विकृति हो
महामंजिष्ठादि क्वाथ (चूर्ण) 5 gm,
मंजिष्ठा चूर्ण 2 gm,
पुनर्नवा चूर्ण 2 gm
और कुटकी चूर्ण 500 mg,
इस मिश्रण का क्वाथ बनाकर आधा सुबह और आधा सांयकाल औषधियों के साथ प्रयोग कीजिये । यह रोगी के भ्राजक पित्त की दुष्टि में जो अनेक स्थान पर हो तो मंजिष्ठा और कुटकी दोनो साथ होने से अच्छा परिणाम देती है , महामंजिष्ठादि क्वाथ में लगभग 45-46 द्रव्य हैं जिनमें कुटकी और मंजीठ सभी द्रव्यों के समभाग में है । हारीत और श्याव वर्ण दूर करने में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा ।*
*पुनर्नवादि मंडूर 1-1 gm दिन में तीन बार अलग अलग काल में ।*
*चिरायता, भूआमलकी, कालमेघ, सारिवा, मंजिष्ठा , कासनी का एकल द्रव्य के रूप में फांट बना कर और 5-7 दिन कल्प के रूप में भी प्रयोग किया गया ।*
*24-2-2022 को हमने case presentation - अति मद्यपान जन्य कामला एवं आयुर्वेदीय चिकित्सा लिखा था उसकी चिकित्सा में उपरोक्त अनेक औषध योगों से ही हमने लाभ प्राप्त किया था ।*
*कामला के पथ्यापथ्य पर पूर्व में अनेक case presentations में विस्तार से लिख चुके हैं जो *
https://kayachikitsagau.blogspot.com/2019/01/case-presentation-pittashmari-gall.html?m=1
*पर उपलब्ध है।*
*पित्त प्रकरण - to be continue ...*
[3/21, 12:35 AM] Vd. Divyesh Desai Surat:
पित्त प्रकरण पढ़ते पढ़ते इतनी रात हो गई , पता ही नहीं चला, जैसे आप क्लासरूम में लेक्चर दे रहे है और हम सब शांति से सुन रहे है, ऐसा लगा...🙏🏽🙏🏽🙏🏽
Wow..... Wonderful...
Salute by Apex of the Heart🙏🏽🙏🏽🙏🏽
[3/21, 1:04 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
https://kayachikitsagau.blogspot.com/2019/09/case-presentation-yakridudar-hepatitis.html?m=1
*2019 में Hepatitis C के इस रोगी की आयुर्वेदीय चिकित्सा से -ve report आई थी, अब प्रतिवर्ष एक बार test कराने पर भी -ve ही मिलता है।*
[3/21, 1:08 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*धन्यवाद दिव्येश जी, बहुत कठिनाई से देर रात ही लिखने का थोड़ा सा समय मिल पाता है पर दिन में विद्वानों की चर्चा बहुत ही ज्ञानवर्धक होती है आजकल आचार्य लक्ष्मीकान्त द्विवेदी जी और आचार्य मोहनलाल जायसवाल जी जो ज्ञान दे रहे हैं वो अति सार्थक, महत्वपूर्ण और दुर्लभ है जो अन्यत्र मिल ही नही सकता ।*
[3/21, 5:13 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
Fantastic, as usual. It provides all new dimensions.
[3/21, 5:54 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏 प्रणाम गुरुवर 🙏
आज फिर क्लास लगी ।
पित्त प्रकरण ने सुबह सुबह में दिमाग की बत्ती जलादि ।
🙏धन्यवाद गुरुवर 🙏
[3/21, 7:07 AM] Dr. Shashi:
Good morning sir, Saam Pitt and Viral (Hepatitis B), great clinical concept 👌🙏🙏💐
[3/21, 7:12 AM] Vd. Mohan Lal Jaiswal:
ऊँ श्रद्धेय वैद्यराज जी सादर नमोनमः
धन्य हैं आप जैस सत्वबहुत मनीषी जिनकी अभूतपूर्व लेखनी व अनुभव सम्मिश्रण जगत का उपकार करे बाबा विश्वनाथ की.कृपा से।
हम गुरु शिष्य तो एक दुसरे उपबृंहित होते हैं सद्गुरु देव जी की अनुकम्पा से।
हृदय में वनौषधियों के सत्योद्घाटन की तडप है जग के हितार्थ ।
सुप्रभात
[3/21, 9:31 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:
पानीयक्षार - यव पंचांग की शुक्लवर्ण भस्म१भाग तथा जल ८भाग (विकल्प से४-/-६-/-१०- अथवा-१६ भाग)।
उपर्युक्त सूत्र पानीय क्षारोदक विनिर्माण का है। आवश्यकतानुसार
(नींबू रस से) निंबूदक के रूप में भी प्रयुक्त।
[3/21, 9:50 AM] वैद्य ऋतुराज वर्मा:
नमो नमः गुरूवर 🙏🙏🙏🙏
[3/21, 9:53 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार आचार्य संजय जी 🌹🙏*
[3/21, 9:58 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*वैद्यवर मनसुख जी सम्पूर्ण त्रिदोष ही आयुर्वेद का आधार है और पित्त प्रकरण तो धात्वाग्नियों से भी संबंधित है । इस पित्त प्रकरण के एक एक विषय पर बहुत अनुसंधान की आवश्यकता है, हम तो निजी चिकित्सक है जो अपने तल पर कार्य कर रहे हैं पर institutional स्तर पर अगर कार्य हो तो उसकी मान्यता विशिष्ट होगी ।*
[3/21, 10:00 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सम्प्राप्ति को समझ कर चिकित्सा एक आत्मविश्वास तो देती ही है और सब प्रश्नों का समाधान भी सामने रहता है ... आयुर्वेद में कार्य करने का क्षेत्र इतना विशाल है कि जीवन छोटा और काम अधिक 🌹🙏*
[3/21, 10:03 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमन आचार्य जी, आप वो विद्वान हैं जो श्रेष्ठ कार्य के कारण अपनी पहचान बनाये हुये हैं, आपको पढ़ना ज्ञानयुक्त सुखद अनुभव होता है।*
Resp. Dvivedi Sir !
[3/21, 10:16 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*समय के अनुसार हमने नवीन प्रयोग कर के चिकित्सा निरंतर चलती रहे इस हेतु अनेक मार्ग प्रशस्त किये जिस से क्रिया का लोप ना हो जैसे क्वाथ देना है पर रोगी के 20 दिन by air यात्रा में निकलते है, भोजन होटल में तो क्वाथ कौन और कैसे बने ?*
*फलत्रिकादि क्वाथ, शरपुँखा, अश्मरी हर क्वाथ आदि का सूक्ष्म चूर्ण बना दिया , वायुयान में भी 1 tsp hot water में mix कर के आधा घंटा रखा, चूर्ण नीचे बैठ गया और ऊपर का जल पी लिया ।औषध का शतप्रतिशत लाभ ना मिले पर उतना अवश्य मिलता है कि प्रति सप्ताह लक्षण एवं investigations में निरंतर सुधार मिलता जाता है। इसी प्रकार तालमखाना एवं अन्य द्रव्यो का क्षार रूप में निरग्नि मात्र जल में घोलकर मार्ग निकाला तो प्रोस्टेट ग्रन्थि और पित्ताश्य अश्मरी में लाभ मिलता है। जब सुविधा हो तो क्वाथ और यात्रा में इस प्रकार के मार्ग ।
[3/21, 10:21 AM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:
अति सुन्दर प्रयोग-धर्मिता।युक्ति युक्त है। नीयम/परिभाषा बालानां सुख बोधाय।😊🙏🏻
[3/21, 10:24 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार भिषग्वर ऋतराज जी ❤️🌹🙏*
[3/21, 10:25 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमो नमः आचार्य जी 🌹🙏*
[3/21, 10:34 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
यही युक्तिव्यपाश्रय चिकित्सा विधा है। चिकित्सा व्यवस्था रोगी की विवशताओं के अनुसार करना ही चिकित्सक का कौशल्य है। जय हो वैद्यवर, साधुवाद- नमो नमः।💐💐
[3/21, 10:49 AM] Dr. Shashi:
Absolutely right sir 🙏
[3/21, 11:02 AM] Dr Sanjay Dubey:
पित्त प्रकरण में Hipatitis B पर निदान से लेकर सम्प्राप्ति विघटन तक बहुत कुछ नये आयाम के साथ समझने और सीखने को मिला
धन्यवाद सर 🙏🙏🌹
[3/21, 11:07 AM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat:
Respected sir
Have you tremendous vision and understanding to analysis the disease
One thing notice that whole package of disease sign and symptoms
Prescribed the medicine on right time and dose
Patient is whole package to understand🌹👏👏
[3/21, 11:18 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आभार युक्त नमो नमः 🌹❤️🙏*
[3/21, 11:21 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*व्याधि का हेतु सहित मूल, बीच की यात्रा और अंतिम परिणाम तक कैसे पहुंच कर व्याधि को नष्ट कर सकते हैं यह धीरे धीरे अनुभव से आ जाता है । बस चिकित्सा के चतुष्पाद उचित होने चाहिये ।*
[3/21, 11:52 AM] Dr. Bhadresh Naik Gujarat:
Respected sirji
Specific virus effect on specific organ
Have a torch 🔦 the light on specific target
It's make easy to understand the samprati vighatan
And precise target medicine👏👌👍
[3/21, 12:35 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आभार डॉ भद्रेश जी 🌹🙏*
[3/21, 6:04 PM] Dr. Pawan Madan:
प्रणाम व चरण स्पर्श गुरु जी।
आपके विवरण से बहुत सी परते खुल जाति हैं। अनुगृहित हूँ।
वात पित्त कफ को वर्ग अनुसार समझने से बहुत सी प्रक्टिकल समस्याएं सुलझ सकती हैं।
व हरिवंश पुराण का ये संदर्भ बहुत ही उपयोगी है।
मुझे स्मरण आता है के करीब 5 या 6 वर्ष पूर्व पूना में आयोजित चरक symposium में मैने वात दोष पर अपने व्याख्यान में ये मुद्दा उठाया था व वैद्य रणजीत राय जी की पुस्तक में ये विशेषत संदर्भित है।
गुरु जी केवल एक शंका
क्या virus या bacteria दोषों का दूषण करते हैं या के पहले दोष दूषित हो कर खवैगूण्य करते है व वहाँ फिर virus आदि स्थान संश्र्य कर व्याधि करते हैं?
🙏
[3/21, 6:05 PM] Dr. Pawan Madan:
और बहुत से ऐसे द्रव्य या factors हैं जो अलग अलग समय पर अलग अलग जैसे कहिन पर वात वर्गीय तो कहीं पर पित्त वर्गीय व्यव्हार कर सकते हैं।
यदि दोषों का समुचित या वांछित प्रकोप ना हुआ हो तो सम्भवत: कृमि या bacteria या virus का शरीर में प्रवेश होने पर भी शायद प्रकोप न हो।
[3/21, 6:15 PM] Dr. Pawan Madan:
Guru Ji
In a nut shell....Can we understand that....
Niraam Pitta is the physiological pitta which is required in the body to perform various physiological actions as explained under the headings of the five types of the pitta.
And
Saama pitta and Vidagdha pitta are the 2 types of the pathological pitta....when the pitta gets out of its normal in terms of its Gunas and / or in terms of its Matraa....thereby this can be seen with various malas being evacuated or like the prokop of the physioligical pittas in the body priducing various signs and symptoms.
🙏🙏🙏🙏🙏🙏
[3/21, 6:17 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*पित्त तो सर गुण युक्त है और ग्राही तो वात का गुण है ना ! जरा एक दृष्टि डालें ....*
*आमला, कटुकी, त्रिफला, आरग्वध आदि पित्तशामक और सारक द्रव्य हैं।*
*पित्तपापड़ा, जामुन, रसांजन, दाडिम आदि पित्तशामक भी हैं और ग्राही भी ।*
*समग्रता के साथ चले तो दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है।*
[3/21, 6:18 PM] Dr. Pawan Madan:
अद्भुत गुरु जी
कोटिश: आभार।
🙏🙏🙏
[3/21, 6:21 PM] Dr. Pawan Madan:
गुरु जी
समझा नहीं
सर व ग्राही आदि तो तर तम भाव से होने स्व अलग अलग प्रभाव देते हैं।
पर पित्तज वर्गीय सर न हो पायेगा
व
हर वात वर्गिये ग्राही नहीं होगा
🤔
[3/21, 6:21 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार पवन जी, आपके प्रश्न का उत्तर दोनों ही प्रश्नों का उत्तर हां है क्योंकि रोगी में बल का अपना अलग महत्व है। 10 लोग प्रदूषित जल पान करते हैं जिनमें 5 को आन्त्रिक ज्वर हो जाता है, 2 को सामान्य लक्षण और 3 पूर्ण स्वस्थ रहते हैं।*
[3/21, 6:23 PM] Dr. Pawan Madan:
जी गुरु जी
इसिलिए शंका हुई के virus से दोष दूषण हो रहा है क्या ?
[3/21, 6:28 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*पित्त प्रकरण के प्रथम भाग में ये सब लिख तो चुके हैं पवन जी 🌹🙏 किसी भी द्रव्य में एक रस अकेला नहीं होता उसके साथ अनुरस भी होता है और रसों का अन्यथा गमनत्व और परिणामी रस भी होता है जैसे जामुन का फल कषाय-मधुर होता है पर पाक हो जाने पर मधुर हो जाता है।पिप्पली जब तक आर्द्र अर्थात गीली होती है तब तक मधुर लगती है पर सूखने पर कटु हो जाती है। आमलकी फल जब छोटा और आर्द्र होता है तो तिक्त, कुछ काल बाद अम्ल और शुष्क होने पर अम्ल कषाय बन जाता है। *
*इमली कच्ची है तो अम्ल और पकने पर अम्ल-मधुर बन जाती है। अलग अलग देश का द्रव्यों के रस पर अलग प्रभाव मिलता है जैसे नैनीताल और वाराणसी में मधुर आमलकी मिलता है पर जंगली आमलकी कटु और कषाय मिलते हैं। काल का प्रभाव द्रव्यों के रस पर पड़ता ही है जैसे कच्चा केला कषाय रस प्रधान और पकने पर मधुर हो जाता है । परिणाम को देखे तो दुग्ध जो मधुर है फटने पर अथवा दधि बना दे तो अम्ल हो जाती है। पात्र का बहुत योगदान है जैसे कांस्य या पीतल के बर्तन में अम्ल दधि जो जमने से पूर्व तो मधुर थी , फिर अम्ल बनी और कांस्य पात्र में रखने पर कटु तिक्त हो गई।*
*इसी क्रम के अनुसार दोषों का निर्धारण हम स्वयं कर सकते हैं क्योंकि ग्रन्थों में यह सूत्र रूप में और भिन्न भिन्न स्थानों पर वर्णित है एक जगह नही ।*
[3/21, 6:37 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*इच्छा तो वात वर्ग और कफ वर्ग को भी स्पष्ट कर लेखन की है जिस से पूरा विषय ही स्पष्ट हो जाये क्योंकि इन विषयों पर कहीं भी इतना विस्तार से और clinical प्रमाणों के साथ किसी ने लिखा नही, आचार्य प्रियव्रत शर्मा जी, वैद्य विश्वनाथ द्विवेदी जी ने बहुत महान कार्य किया है , मोहन गोठेचा जी ने जामनगर में बहुत कार्य किया जिसका हम आवश्यकता पड़ने पर सहयोग भी लेते हैं । पर लगता है सब इस भारी लेखन से पक गये हैं ।🤣🤣🤣😂*
[3/21, 6:38 PM] Prof.Vd.Arun Rathi: *प्रणाम गुरुवर*
🙏🏻🙏🏻🙏🏻
*आप की विषय वस्तु की प्रस्तुति सटीक एव शास्त्रीय होती है*
[3/21, 6:41 PM] Dr. Pawan Madan:
गुरु जी बिल्कुल नहीं थके है
ये ही तो हमारी आत्मा की भूख है।
आपका तो हम बहुत ही उपकार है।
💐💐💐
[3/21, 6:44 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार प्रो.राठी जी यहां आ कर एक clinician फोन पर लेखक बन गया 🤣🤣🤣 आज से चार साल पहले केवल emojis भेजना आता था ।*
[3/21, 6:45 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आपका प्रेम है पवन जी 🌹❤️*
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday (Discussion)' a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
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Presented by-
Vaidyaraja Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by-
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by-
Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
P.G. Dept of Kayachikitsa
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, Gujarat, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
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