[1/25, 12:37 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*आयुर्वेद रहस्य -
- पित्त प्रकरण भाग - 1*
*25-1-22*
*पिछली चर्चा में कुछ जिज्ञासाओं के उत्तर सहित ....*
*सद्रव और निर्द्रव पित्त*
*क्या पित्त और अग्नि एक है ?*
*जब जब पाचक पित्त का द्रव गुण त्यक्त होता है तब उसे अनल संज्ञा दी जाती है।*
*पित्त सस्नेह अर्थात जब स्नेह से युक्त होता है तो उष्ण और तीक्ष्ण होता है। आमाश्य कफ का स्थान है जिसके अधोभाग में पित्त भी स्थित है यह पित्त स्नेह युक्त पित्त है और द्रव भी जो क्लेदक कफ को सहयोग देता है यह सद्रवं पित्त है यदि लंघन या उपवास करें तब भी पित्त उपस्थित होता है पर पित्त की द्रवता अत्यन्त अल्प रह जाती है एवं वात का रूक्ष गुण स्निग्ध गुण को भी अत्यन्त अल्प कर देता है। इसे और समझें तो मधुर अवस्थापाक तक क्लेदक कफ सामान्य है अब अगर इसमें स्नेह, मधुर, अम्ल, पिच्छिल, द्रवादि सब हैं यहां पित्त में स्नेह अधिक है, इसके बाद अम्लपाक में अम्ल हो कर ग्रहणी में आयेगा जहां स्वच्छ पित्त बनता है और आहार के पूर्ण पाचन तक ग्रहणी इसे धारण करती है, यहां स्नेह कम हो गया लेकिन अम्ल और द्रव भाव अधिक हैं और अन्न का अंत में पाक क्षुद्रान्त्र में हो प्रसाद भूत रस रसवाहिनियों द्वारा सर्वांग शरीर में और शेष किट्ट भाग पक्वाश्य में जा कर कटु रस दूषित वात प्रधान पिंड स्वरूप पुरीष, सूक्ष्म स्रोतस से मूत्र एकत्र करता है तथा यह स्थान पक्वाश्य स्थित अपान वात का है। कटु पाक तक आते आते पित्त रूक्ष तेज अथवा निर्द्रवं पित्त स्वरूप बन जाता है क्योंकि वात के रूक्ष, लघु आदि गुणों का अनुबल इसे प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार यदि ज्वर जीर्ण होता जाये तो धातु क्षय हो कर वात प्रकोप होगा जिसके कारण वात का रूक्ष गुण स्निग्धता का शोषण करेगा और निर्द्रवं तेज या पित्त की वृद्धि होगी । कटु पाक की अवस्था आते ही पित्त का द्रवत्व कम होने लगता है क्योंकि रूक्ष और लघु के आधिक्य एवं स्निग्ध एवं द्रवता के अल्प होते ही पित्त अनल स्वरूप हो जायेगा जिसका शमन स्नेह से ही संभव होगा। तभी अधिक काल तक रहने वाला अथवा वात ज्वर का शमन स्नेह से ही होगा।*
*मधुर पाक में प्रमुख कार्य करने वाला क्लेदक कफ - आमाश्य का उर्ध्व भाग*
*कर्म - स्नेहन, क्लेदन, अन्न को पिच्छिल करना, शेष कफ के स्थानों का उदक कर्म से अनुग्रह*
*इस से पूर्व प्राण वात
'तत्र प्राणो मूर्ध्न्यवस्थितः कण्ठोरश्चरोबुद्धीन्द्रिय हृदयमनोधमनी धारणष्ठीवनक्षवथूद्गारप्रश्वासोच्छ्वासान्नप्रवेशादिक्रियः'
अ स सू 20/6
शिर, मूर्धा (मस्तिष्क), उर:, फुफ्फुस, श्वास नलिका, ह्रदय, कर्ण, जिव्हा, अक्षि, नासिका, मुख,अन्ननलिका, कंठ*
*कर्म - बुद्धिन्द्रिय, मनोधारण, श्वास, देह धारण, ह्रदय धारण, क्षवथु, ष्ठीवन, आहारादि कर्म, अन्न प्रवेश, उद्गार तथा आमाश्य के अधो भाग में पाचक पित्त आमाश्य, पच्यमानाश्य, क्षुद्रान्त्र, ग्रहणी*
*कर्म - पाचन, दोष, रस, मूत्र, पुरीष को पृथक कर उनके योग्य बनाना, शेष पित्तो को अग्नि देना, अन्न रस गत धातु उपादानों का पाक, प्रसाद और किट्ट प्रथक करना।*
*आमाश्य कफ का प्रधान क्षेत्र है यहां वात के लघु और रूक्ष गुण प्रभावी नहीं जो पित्त की द्रवता और स्नेह कम कर सके क्योंकि स्नेह कफ में भी है और स्थिर और पिच्छिल भी जिन्हे वात के चल गुण का ही मुख्यतः सहयोग मिलता है। पाचक पित्त के आमाश्य से बाहर आते ही समान वात
'समानोऽन्तरग्निसमीपस्थस्तत्सन्धुक्षणः पक्वामाशयदोषमल शुक्रार्तवाम्बुवहः स्रोतोविचारी तदवलम्बनान्नधारणपाचन विवेचन्किट्टाऽधोनयनादिक्रियः'
अ स सू 20/6
स्थान -
स्वेदवाही, दोषवाही, अम्बुवाही, मलवाही, शुक्रवाही, आर्तववाही स्रोतस, अन्तराग्नि का पार्श्व स्थित क्षेत्र- आमाश्य, पच्यमानाश्य, पक्वाश्य के साथ जठर, कोष्ठ, नाभि*
*कर्म - स्वेद, दोष, अम्बु, शुक्र, आर्तव धारण, अग्नि संधुक्षण, अन्न धारण, अग्नि बल प्रदान, अन्न विपचन, अन्न-मल विवेक, किट्टाधोनयन, स्रोतोवलंबन जिसके हैं । यहां वात के सहयोग से अग्नि संधुक्षण आरंभ होता है और यह अम्ल पाक की अवस्था है जिसमें अन्न का विपचन हो कर वात के रूक्ष गुण की वृद्धि से पित्त का स्नेह और द्रवत्व अल्प रह जाता है तत्पश्चात कटु पाक में पक्वाश्य और वात का प्राधान्य शेष रह जाता है ।*
[1/25, 12:38 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*घृत स्नेह के अंश से पित्त की उष्मा और वात की रूक्षता मि़श्रित रूक्ष तेज अथवा निर्द्रव पित्त का शमन करेगा।*
*सद्रवं पित्त - स्निग्ध तेज और निर्द्रवं पित्त - रूक्ष तेज में साहचर्य संबंघ देखिये ...*
*रूक्ष - वायु महाभूत, भा प्र ने वायु+ अग्नि *
*लघु - आकाश+वायु+ अग्नि भी मानते हैं क्योंकि अग्नि अस्थिर है।*
*उष्ण - अग्नि महाभूत*
*तीक्ष्ण - अग्नि महाभूत*
*कटु - वायु+अग्नि*
*अम्ल - पृथ्वी+अग्नि (जल + अग्नि = सुश्रुत)*
*वैशेषिक दर्शन ने स्पर्श को गुण माना है तथा उष्ण और शीत को स्पर्श के भेद माना है।*
*क्या हम शरीर में पित्त को ही तेज या अग्नि मान लें या ये अग्नि इस से प्रथक है ? यह शंका अनेक बार होती है ।जिस भी द्रव्य में उष्ण स्पर्श रूप में, उष्ण रूप में अथवा उष्ण गुण के रूप समवाय से रहता हो वह अग्नि है।इस अग्नि के अतिरिक्त अन्य किसी भी द्रव्य में उष्ण स्पर्श मिलेगा तो वह संयोग सम्बंध है।यह अग्नि दो प्रकार की है एक तो नित्य और अविनाशी परमाणु स्वरूप जो कभी नष्ट नही होगी और अपने अनुरूप आग्नेय प्रधान द्रव्यों का निर्माण करती है। यह कारण रूप अग्नि है।*
*इसका अस्तित्व हम आगे तब देखते हैं जब यह अग्नि कार्य रूप हो जाती है और स्थूल रूप कहलाती है जैसे आग्नेय शरीर इसका उदाहरण हमें सूर्य देवता के रूप में मिलता है, ब्रह्मांड में सूर्य अनेक हैं। इस बात का प्रमाण ऋग्वेद (9.114.3) में मिलता है।
'सप्त दिशो नानासूर्याः सप्त होतार ऋत्विज: ।
देवा आदित्या ये सप्त तेभि: सोमाभि रक्ष न इन्द्रायेन्दो परि स्रव'
अर्थात मुक्त पुरुष के लिये (सप्त, दिशः) भूरादि सातों लोक (नानासूर्याः) नाना प्रकार के दिव्य प्रकाशवाले हो जाते हैं।यहां आग्नेय शरीर अग्नि महाभूत प्रधान होते हैं।*
*अग्नि की सत्ता दूसरे रूप में इन्द्रिय से मिलती है क्योंकि जैसा हमने ऊपर लिखा है कि अग्नि का प्रत्यात्म लिंग रूप भी है जो हम नेत्रों से ही देख सकते हैं तो इसका अधिष्ठान चक्षु इन्द्रिय माना गया ।*
*इस अग्नि का अस्तित्व शरीर और इन्द्रिय के रूप में तो मिल गया पर इस अग्नि के विषय क्या हैं जो प्रत्यक्ष जगत में अनुभव हों ! तो वे चार माने गये हैं
1- भौम अग्नि जिस पर हम भोजन पकाते है, दुध इत्यादि गर्म करते है,पेट्रोल, डीजल आदि से गाड़ियां या कारखाने चला रहे है, electricity भी इसी के अन्तर्गत आती है।
2- दिव्य अग्नि जैसे आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट के साथ विद्युत की उत्पत्ति होनी ।
3- आकरज अग्नि जो विभिन्न खानों से उत्पन्न होने वाले द्रव्यों में होती है जैसे चमकते सुवर्ण में ।*
*4- औदर्य अग्नि या शारीरस्थ अग्नि यह आयुर्वेद का महत्वपूर्ण विषय है कि पित्त ही अग्नि है या पित्त अग्नि से पृथक है तो यहां यह सिद्ध होता है कि जो भी आहार हम ग्रहण करते है उसका पाचन औदर्य अग्नि से होता है जो अग्नि का विषय है तथा जिसे पित्त संज्ञा भी आयुर्वेद में दी गई।*
[1/25, 12:56 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*पित्त प्रकरण - to be continue ..*
[1/25, 1:02 AM] वैद्य ऋतुराज वर्मा:
जी इंतजार रहेगा
[1/25, 1:05 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार ऋतराज जी, ये प्रकरण बहुत बढ़ा है और धीरे धीरे इसके clinical तल पर विभिन्न उदाहरणों और प्रमाणों सहित आयेंगे।*
[1/25, 1:07 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
पित्त पर हमारा चिंतन, विशलेषण और कार्य इसकी कार्मुकता पर निरंतर चलता रहता है जिसमें हम अपना निजी मत अवश्य दे कर चल रहे हैं कि हमने इसे कैसे समझा है।*
[1/25, 5:39 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
Good Morning, Namaskaar Vaidya Ji. Very nice clarification about Pachak Pitta and Agni, thank you so much From the same discussion it also becomes clear that increased dravatva of Pachak Pitta leads to cause Amlapitta and decreased dravatva of Pachak Pitta leads to impair Amlavastha Pak as well as Katu Avastha Pak of aahar known as Vidagdhajirna.
[1/25, 7:53 AM] वैध आशीष कुमार:
प्रणाम गुरुदेव चरण स्पर्श, बहुत सरल तरीके से आपने रहस्य को समझा दिया, नहीं तो ऐसा तो विचार भी नहीं आया🙏🏻🙏🏻🕉️
आचार्य सुश्रुत जी का भी ऐसा ही वचन है-
राग(रंजक), पंक्ति(पाचक), तेज(आलोचक), मेधा(साधक पित्त) और ऊष्मा को करने वाला पित्त पाँच प्रकार से विभक्त होकर अग्नि का कार्य करके शरीर का अनुग्रह करता है।
सुश्रुत सूत्र १५/५
[1/25, 8:23 AM] Dr. BK Mishra:
🙏🏼सादर प्रणाम गुरुश्रेष्ठ, आपकी प्रस्तुत पैत्तिक ज्ञानाग्नि से अज्ञान भस्मसात होकर यथार्थ का साक्षात हो गया। बारम्बार अभिनन्दन 🌹💐🙏🏼
[1/25, 9:14 AM] Vd. Mohan Lal Jaiswal:
ऊँ सादर नमन वैद्य वर जी
अत्यंत सूक्ष्म व विशदीकृत सप्रायोगिक पित्त विवेचन
🚩
[2/14, 1:15 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
आयुर्वेद रहस्य - 1 - पित्त प्रकरण भाग - 2*
*14-2-2022*
*22-1-22 और 25-1-22 को दो भागों में हमने पित्त के नैसर्गिक गुणों का वर्णन किया था और अब पित्त के विभिन्न चिकित्सोपयेगी पक्ष पर अति विस्तार से चर्चा करेंगें।*
*सामान्यतः पित्त में विरेचन, पित्तशामक आदि गिने चुने भावों का वर्णन व्यवहार में किया जाता है पर पित्त की चिकित्सा का कार्य क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है क्योंकि अग्नि (पित्त इसी का पूरक है) की चिकित्सा ही काय चिकित्सा है अतः इसे ही जानेंगे।*
*पित्त की क्रियाओं और विभिन्न संज्ञाओं का कार्य क्षेत्र देखें ...*
*स्वेदकर*
*तापहर*
*स्वेदोपग*
*पित्त शमन अथवा पित्त संशमन*
*पित्तावरोध*
*पित्त व्याधिकर*
*पित्तावसाद*
*पित्तकर्षण*
*मूत्रल - क्योंकि विरेचन मल के साथ मूत्र का भी करते हैं।*
*पित्त उत्क्लेश - यह माधव निदान का संदर्भ दे कर प्रत्युष जी ने पूछा था*
*पित्त अनुलोम*
*पित्त प्रकोप*
*पित्तघ्न*
*पित्त प्रदूषण*
*पित्त वर्धन*
*पित्त जनन*
*अग्निसादन*
*ताप प्रशमन*
*पित्त सारक*
*पित्त संग्रहण*
*स्वेदताप हर*
*पिपासा निग्रह*
*पित्त पाचन*
*पित्त शोषण*
*पित्त शोधन*
*पित्त प्रसादन*
*दाह हर*
*पित्तनाशन*
*पित्ताजित*
*इन सब में पित्त के विभिन्न अंशों का समावेश हैं, चिकित्सा में यह ज्ञान होना चाहिये कि पित्त अपना क्या कर्म कर के उपरोक्त संज्ञा बन गया है और हमें उसके किस कर्म का उपयोग करना आना चाहिये ।*
*पित्त के गुणों का अवलोकन करें - *
*उष्ण - अग्नि महाभूत*
*तीक्ष्ण - अग्नि महाभूत*
*सर - जल*
*कटु - वायु+अग्नि*
*द्रव - जल*
*अम्ल - पृथ्वी+अग्नि (जल + अग्नि = सुश्रुत)*
*कोई भी द्रव्य या क्रिया सम्पूर्ण पित्त का वर्धन ना कर के पित्त के किसी किसी अंश की वृद्धि करते हैं पर मद्य ही ऐसा द्रव्य है जो पित्त के सभी अंशों की वृद्धि करता है और ओज को नष्ट करता है। मद्यपान आज social drink के रूप में समाज में विभिन्न आयोजनों का अभिन्न भाग बन गया है और जो मद्य आजकल सेवन किया जाता है वह प्राचीन मद्य से कुछ भिन्न है तथा सम्पूर्ण पित्तांश वर्धक क्यों है उसे देखिये ...*
*आधुनिक मद्य - --------- alcohol*
*whisky, scotch या*
*single malt whisky------ 40%*
*Tequila --------------50-51%*
*gin - rum ------------- 48 % तक भी*
*brandy -------------- 40% से अधिक*
*vodka ------------- 40% से अधिक*
*Bacardi 151 --------75.5% *
*Fortified Wine -------16-24%*
*बीयर ---------------4-5 % *
*लेकिन पीने वाले इसे अधिक मात्रा में पीते है जिस से अधिक अल्कोहल शरीर में जाती है ।*
*strong बीयर ------- 8% से अधिक *
*आज कल party drinks के नाम पर बहुत ही strong brands बाजार में हैं जिन्हे विभिन्न शीतल पेय, mixer या फलों के स्वरस में मिलाकर सेवन किया जाता है जिनमे अल्कोहल की मात्रा बहुत अधिक होने से ये अति पित्तवर्धक है ...*
*devil spring vodka ----80% *
*sunset rum ----------84.5%*
*Pincer shanghai strength ---88.88% यह भी vodka है जिसे पुष्पों से बनाया जाता है और यकृत के लिये अच्छी है कह कर बेचा जा रहा है पर अत्यन्त पित्तवर्धक एवं हानिकारक है।*
*उपरोक्त पित्तवर्धक मद्य कल्पनाओं और ओज के गुणों की तुलना करते हैं ....*
*मद्य के गुण ------ओज के गुण*
*लघु --------- गुरू*
*उष्ण ---------शीत *
*तीक्ष्ण --------मृदु *
*सूक्ष्म --------श्लक्षण *
*अम्ल -------- बहल*
*व्यवायी -------मधुर *
*आशुकर ------ स्थिर *
*रूक्ष ----------स्निग्ध*
*विकासी ------- पिच्छिल*
*विशद ---------प्रसन्न*
*मद्य की उचित मात्रा प्राचीन मद्य के लिये थी जिस से किंचित अधिक होते ही वात, पित्त, कफ के अतिरिक्त सर्वांग लक्षण भी उत्पन्न हो जाते थे जैसे पानाजीर्ण, परमद और पानविभ्रम आदि ।यकृत, ह्रदय, वृक्क, मस्तिष्क , आमाश्य, पित्ताश्य, अग्नाश्य आदि पर इसकी अति मात्रा और अति काल तक सेवन से अत्यन्त दुष्प्रभाव पड़ता है जिसकी चिकित्सा वो ही भिषग् कर सकता है जो पित्त को सूक्ष्मता से जानता है तथा तभी वह ओज की रक्षा कर के उस का वर्धन कर सकेगा।*
*मद्य में पित्त के समस्त अंशों का वर्धन करने की शक्ति है तथा वह भी आशुकारी जो मुख से सेवन करते ही पांच मिनट के अंदर रक्त धातु तक पहुंच जाता है और रक्त में पित्त की वृद्धि करना आरंभ कर देता है तथा 30 मिनट मे इसकी अल्कोहल का अधिकतम भाग शरीर में अवशोषित हो जाता है जिसका निष्कासन मूत्र, स्वेद और श्वास के माध्यम से होती है अतः प्राणवाही, रस-रक्त वाही, उदकवाही, स्वेदवाही, मूत्रवाही और मनोवाही स्रोतस पर इसका विशिष्ट प्रभाव रहता है।*
*शार्गंधर अनुसार
'मदकारिद्रव्यलक्षणम् --- बुद्धिंलुम्पति यद् द्रव्यं मदकारि तदुच्यते तमोगुणप्रधानं च यथा मद्यसुराऽदिकम् '
अर्थात मदकारी द्रव्य वह है जो बुद्धि का लोप कर दे तथा तमो गुण की वृद्धि करे जैसे मद्य या सुरा आदि । उपर जो alcohol cont. के साथ brands लिखे हैं वो सब इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते है।*
*रस वैशेषिककार का कथन है कि षडरसयुक्त तीक्ष्ण, उष्ण, रूक्ष, लघु और विशद गुण युक्त द्रव्य मादक संज्ञक है।*
*इस प्रकार के द्रव्यों की पंचभौतिकता अग्नि और वायु महाभूत प्रधान है।वायु महाभूत के कारण ही साहचर्य नियम से मद्य पित्त के समस्त अंशों के वर्धन की क्षमता रखता है जिस से अत्यन्त उग्र रूप में आशुकारी पित्त प्रकोप होता है।*
*....... to be continue ...*
[2/14, 1:16 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
हम सब एक दूसरे के सहयोगी हैं ❤️🙏*
[2/14, 4:39 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
This is the best news we all are waiting for. I try to bring the knowledge from experts together but you provide all of us a new original thoughts to understand clinical entities. Like the example you put forward yesterday about udakdhatu and Jala mahabhut was so crystal clear, that must have opened up eyes of many. I am glad because this group has many teachers , so these concepts and understanding will percolate in the newer generation across India. We feel blessed to be part of the group, it is so much so of learning.
[2/14, 5:04 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed:
गुरुदेव आप ने तो मद्य का पोस्टमार्टम कर दिया। बहोत ही उम्दा। पर एक छोटी-सी समस्या है, चुंकि मद्य प्राशन को सामाजिक मान्यता मिली है, बहोत संभ्रांत घरों में महिलाओं तक इनका आदी पाया जाता है। दुष्परिणाम आपश्री ने गिनवाए ही हैं। अगर आप मना करते हो तो वे वैद्य बदल देंगे। हमने इसका एक तोड़ निकाला है। हम कभी मना नहीं करते, जितना मर्जी पियो ऐसा कहते हैं, पर कुछ नियमों के साथ।
१. ड्रिंक हमेशा पेट भर खाना खाने के बाद करें, ड्रिंक के बाद खाना कभी नहीं।
२. ड्रिंक के साथ चखना ना ले, मात्र फ्रुटस् का सेवन करें। नमकीन और तिखा अल्कोहल की मांग बढ़ाता है।
३. हर ड्रिंक १५ मिली का याने आधा पेग हो और इसे साधारण पाणी के साथ ही ले किसी सोडा या कोल्डड्रिंक के साथ नहीं और बर्फ भी नहीं।
जैसे आपने सही कहा है, सोशल ड्रिंकिंग से शुरू होकर आदत तक चला जाता है। इन सोशल ड्रिंकर्स को कन्व्हिंन्स आसानी से किया जा सकता है। और पीना १५-३० या अधिकतम ४५ मिली तक जाता है। जिससे आदत नहीं लगती और तकलीफ कम होती है धीरे-धीरे छुट भी जाती हैं। हमने आयुर्वेद ग्रंथों से मद्य और मद की अवस्थाओं को साथ समझकर यह निकाला है। शायद हम ड्रिंक न लेते हैं, और पार्टीयों में पिनेवालो को देखकर, उनका बिहेवियर समझकर उनके लिए यह नियम बनाए हैं। यह हमने बड़े उपयोगी पाये है।
[2/14, 5:18 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏 ॐ नमो नमः, गुरुवर 🙏
[2/14, 6:19 AM] Dr. Pawan Madan:
सुप्रभात व चरण स्पर्श गुरु जी।
💐🙏
[2/14, 6:48 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
सुप्रभात। पित्त को आधार बनाकर मद्य के देसी- विदेशी अर्वाचीन रूपान्तरों के व्यवहारिक पहलूओं से आपने आग लगा दी है। देखते हैं वेसब्री से आगे आगे होता है क्या 😋
[2/14, 7:09 AM] Dr. Bhargav Thakkar:
🙏🏻
[2/14, 8:29 AM] Dr. D. C. Katoch sir:
👉रोगा: सर्वे अपि मन्दे अग्नौ
[2/14, 8:43 AM] Dr. Mukesh D Jain, Bhilai:
✅ *लापरवाह जीवनशैली, भागदौड़ भरी जिंदगी, बेवक्त और उलटा-सीधा खाने की आदतें पाचन क्रिया को बिगाड़ रहीं हैं*
[2/14, 8:45 AM] Dr Sanjay Dubey:
आदरणीय सर सादर प्रणाम🙏
पित्त और अग्नि में अधिकांश समानता है पर पित्त में द्रवता है और अग्नि रूक्ष ऐसे कुछ भिन्नता भी है |
इस विषय पर कृपया मार्गदर्शन करें |🙏
[2/14, 9:25 AM] Vd. Divyesh Desai Surat:
सुप्रभात, सुभाषसर एवं आदरणीय गुरुजनो,
सर ने पित्त का 3re पार्ट में कितने सारे पित्त उपक्रमो का वर्णन किया है, यही वर्णन पित्त के मूलभूत गुणों, पित्त का स्थान,पित्त प्रकोपक कारणों, प्राकृत पित्त के कर्मो, विकृत पित्त के कर्मो ये basic जानने के बाद अगर सुभाषसर के पित्त के सारे पार्ट्स का वर्णन पढ़ने से और भी जानकारी / Indepth नॉलेज प्राप्त होगी..
मेरी अल्पमति से जो पित्त का ज्ञान है वो में इसलिए लिखता हूँ, मेरा revision हो जाय ,लिखने से याददाश्त बढ़ती है, ऐसा मेरा मानना है, अगर कोई श्लोक का संदर्भ नही मालूम तो क्षमा करें
पित्त का गुण:-
पित्तम सस्नेह तीक्ष्ण उष्णम लघु विस्त्रं सरं द्रवं।( अष्टांगहृदय)
पित्त का स्थान:-
1) ते व्यापिनो$पि हृद नाभि अधो मध्यो ऊर्ध्व संश्रया:( अष्टांगहृदय)
हृदय और नाभि के मध्य में पित्त का स्थान बताया है।। दूसरा
2) नाभि: आमाशय स्वेद:
लसिका रुधिरं रसः,दृक स्पर्शन च पित्तस्य नाभिरत्र विशेषतः।(अष्टांगहृदय)
3) पित्त के प्रकार
पाचकं भ्राजकं चेति रंजकं आलोचक तथा,
साधकं चेति पंचैव पित्त नामानि अनुक्रमात।
4) पित्त प्रकोपक कारणों
कटु अम्ल मद्य लवण,
तीक्ष्ण उष्ण विदाहि,
क्रोध: आतप अनलं
भय श्रम:शुष्क शाकै:
क्षाराध अजीर्ण,
विषमाशन भोजनै:
पित्तम प्रकोपम उपयाति
धनात्यये ( शरद ऋतु )च।
*प्राकृत पित्त के कार्य:-*
दर्शन पक्ति: ऊष्मा च
क्षुत तृषा देह मार्दवम,
प्रभा प्रसादों मेघा च,
पित्तकर्मा अविकारजम।
*पित्त वृद्धि के लक्षण*
पित्त विण मूत्र नेत्र त्वक,
क्षुत्तुड दाह अल्प निंद्रता।
*पित्त प्रकोपक लक्षणों*
परिभ्रम स्वेद विदाह राग वैगन्ध्यम,संक्लेद अविपाक कोथः, प्रलाप मूर्च्छा भ्रम पित्त भावा,
पित्तस्य कर्मा वदन्ति तजज्ञा ।।
और पितक्षय से
शीत अनुभूति
अम्ल पदार्थ खाने की इच्छा...
इस मे और भी गुरुजनो अपना मंतव्य लिख सकते है, ताकि सुभाषसर पित्त के बारे में जो भी लिख रहे है, वो हम और भी अच्छे से समझ पाए ।🙏🏾🙏🏾
वैसे तो इस सम्प्रदाय के सारे गुरुजनो को अच्छा ज्ञान है पर पित्त, कफ ,वायु, रक्त, अग्नि, ... सभी विषयो को सारे पहलू ओ से देखेंगे ( 360 Angle) तो बेहतर होगा🙏🏾🙏🏾👏🏻
सभी गुरुजनो को नमन
[2/14, 9:41 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*देश की अर्थव्यवस्था ही मद्य पर लागू टैक्स से चल रही है और हमारी practice में अधिकतर रोगियों के रोग का कारण अति एवं दीर्घ काल तक निरंतर मद्य सेवन है... चिकित्सा में सभी के व्यक्तिगत मन्तव्य और अनुभव है और सभी अपनी जगह ठीक हैं ... आपका मध्यम मार्ग भी आपके रोगियों पर practical approach के साथ है 👍👍*
[2/14, 9:48 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*सादर सप्रेम सुप्रभात सर 🌹🙏 whisky साक्षात पित्त है, द्रव , उष्ण , तीक्ष्ण है और थोड़ी सी पृथ्वी पर गिरा कर दियासलाई दिखा तो जलने लगती है अर्थात अग्नि है ।*
[2/14, 10:02 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*नमस्कार संजय दुबे जी, अम्ल - पृथ्वी+अग्नि (जल + अग्नि = सुश्रुत)*
*पित्त में द्रवता जल महाभूत के कारण है अधिकतर ज्वलनशील द्रव्य द्रव मिलते हैं ना और डीजल, पेट्रोल , तिल, सर्षप तैलादि , वमन कर्म में पहले कफ और फिर पित्त का निष्कासन द्रव रूप में ही होता है।*
*प्रमुख अग्नि ही है और बाह्य अग्नि और शारीरस्थ अग्नि की यह जिज्ञासा सुश्रुत मे भी हुई
'तत्र जिज्ञास्यं किं पित्तव्यतिरेकादन्योऽग्निः? आहोस्वित् पित्तमेवाग्निरिति ? सु सू 21/8 '
पित्त से अग्नि भिन्न है या शारीर की अग्नि और पित्त एक ही है ?*
*इसका वर्णन इस प्रकार दिया गया
'अत्रोच्यते- न खलु पित्तव्यतिरेकादन्योऽग्निरुपलभ्यते, आग्नेयत्वात् पित्ते दहनपचनादिष्वभिप्रवर्तमानेऽग्निवदुपचारः क्रियतेऽन्तरग्निरिति; क्षीणे ह्यग्निगुणे तत्समानद्रव्योपयोगात्, अतिवृद्धे शीतक्रियोपयोगात्, आगमाच्च पश्यामो न खलु पित्तव्यतिरेकेणान्योऽग्निर्लभ्यत इत्यनेन पित्ताग्न्योर्भेदप्रतिपादकागभावं दर्शयति '
सु सू 21/8
अर्थात पित्त से अलग कोई अन्य अग्नि शरीर में नही है क्योंकि आग्नेय भाव कारण होने से पित्त दाह तथा पाक करता है एवं इसका उपचार भी अग्नि की भांति ही किया जाता है। अगर आग्नेय गुण कम होंगे तो पित्त क्षय होगा और उसके वर्धन के लिये आग्नेय गुण युक्त द्रव्य ही दिये जायेंगे तथा पित्त और अग्नि एक ही है।*
*अग्नि की द्रवता के बाद अब इसकी रूक्षता को साहचर्य भाव से समझे
'लघूष्णतीक्ष्णविशदं रूक्षं सूक्ष्मं खरं सरम् कठिनं चैव यद्द्रव्यं प्रायस्तल्लङ्घनं स्मृतम् '
च सू 22/12
जो द्रव्य लघु उष्ण तीक्ष्ण विशद सूक्ष्म खर कठिन गुण युक्त होते हैं वो लंघन कारक होते है। *
*'रूक्षं लघु खरं तीक्ष्णमुष्णं स्थिरमपिच्छिलम् रायशः कठिनं चैव यद्द्रव्यं तद्धि रूक्षणम्'
च सू 22/14
रूक्षता कारक द्रव्य रूक्ष लघु खर तीक्ष्ण उष्ण स्थिर अपिच्छिल और कठिन होते हैं।*
*लंघन के दस प्रकारों में आतप सेवन भी है जो शरीर में लघुता और रूक्षण लाता है, आतप साक्षात अग्नि ही तो है ये साहचर्य भाव क्या है इस पर हमने पिछले दिनों बहुत विस्तार से लिखा था लगता है आप पढ़ने से रह गये ।*
[2/14, 11:13 AM] Dr Sanjay Dubey:
सहजता से बिषय का बोध कराने के लिये धन्यवाद गुरूजी 🙏🙏
[2/14, 11:26 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏 गुरुवर 🙏
अब महसूस होता है आयुर्वेद गंगा वाहीत हो रही है।
अब हमारी जिज्ञासा का सही समाधान होता है।
[2/14, 12:10 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ):
हम ऐसे रोगी जिनके परिवार के लोग रोगी के पीने की लत से बहुत परेशान रहते हैं उनको नि:शुल्क जटामाअंसी देते हैं और रोगी के सोने के स्थान पर बिना रोगी या घर के किसी और सदस्य को बताए रखने को कह देते हैं साथ में इस बात की चर्चा किसी अन्य रोगी से न करने के लिए भी कहते है। जैसा औषधी का नाम वैसा ही परिणाम भी ईश्वर की कृपा से मिल जाता है।
[2/14, 1:36 PM] Dr. Shashi:
In body Agni is in the form of pitta, and pitta is a paanchbhotic entity, with maximum Agni mahabhoot in its composition.
Thanks
[2/14, 1:39 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*इसका उदाहरण - *
*अग्नि - पित्त - भल्लातक *
[2/14, 1:53 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*जो कुछ भी हम ये पित्त, मद्य, पित्त के विभिन्न कर्म और संज्ञाये लिख रहे है आगे ये सब clinical applications के साथ with evidence देंगे और आप को आश्चर्य होगा कि संस्कृत सूत्रों लिखित ये आयुर्वेद ज्ञान कितना वैज्ञानिक, समृद्ध और प्रायोगिकता के साथ चिकित्सा में गंभीर रोगों में भी कितना सफल है ।*
[2/14, 2:00 PM] Vd. Divyesh Desai Surat:
🙏🏾🙏🏾मृत्युंजय जी आप भी पित्त पर अपना मंतव्य दे सकते है👏🏻👏🏻
[2/14, 3:17 PM] Dr. Ramesh Kumar Pandey:
आदरणीय गुरुवर👏👏
पित्त के विषय पर इतना सार्थक ज्ञान देने के लिए सहृदय धनयवाद
👏👏🌹🌹
[2/14, 3:24 PM] Dr. Ramesh Kumar Pandey:
पाण्डेय सर प्रणाम
👏👏
इसका थोडा और विस्तृत करने की कृपा करें।
यह आपका व्यक्तिगत अनुभव है या किसी ग्रंथ का संदर्भ ??
[2/14, 3:52 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ):
व्यक्तिगत। बस किसी को कुछ लाभ हो जाए ।
[2/14, 3:55 PM] Dr. Pawan Madan:
प्रणाम गुरु जी
अद्भुत विवेचन
🙏👌🏻🙏
वाह
सिर्फ रखने भर से ही
🤔
[2/14, 6:25 PM] Vd. Mohan Lal Jaiswal:
ऊँ मनःप्रसादक त्रिदोषघ्न मेध्य भूतदाहघ्नी जटामांसी निद्राजनन में वाह्य व आभ्यन्तर रुप से समर्थ।
जटामांसी की सुगंध से बिल्ली उससे आकर्षित होकर उसके पास जाकर लेटती व बैठती है।
[2/14, 6:29 PM] Vd. V. B. Pandey Basti(U. P. ):
🙏
[2/14, 6:39 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*दिन में निरंतर उष्णोदक का सेवन मुख पर जवानी में ही वृद्धावस्था ला देता है इसका स्मरण सदैव रखें ।ओज के गुण और अति उष्णोदक के गुणों की भी तुलना कर के देखिये । प्रातः उठकर और रात्रि सोने से पूर्व तथा भोजन के साथ दो चार घूंट सुखोष्ण ही उचित है बस ।*
[2/14, 6:50 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*समाज में भय इतना है कि अच्छे भले स्वस्थ व्यक्ति रोगीवत व्यवहार कर रहे हैं और सामान्य जीवन भूल गये हैं और रोगी हठी हो कर अपथ्य को त्याग नही रहे, रूग्ण समाज बन चुका है कोई मन से और कोई शरीर से।हर्षोल्लास से परिपूर्ण ओजस्वी लोगों का अभाव होता जा रहा है और काय सम्प्रदाय में सभी भिषग् हैं अतः यहां सभी को ओजस्वी, ऊर्जावान, हंसमुख और जिंदादिल बन कर रहना है चाहे जीवन में कितनी समस्यायें भी हों क्योंकि हमें संसार को मन और शरीर से स्वस्थ बनाना है।* ❤️🌹🙏
[2/14, 7:25 PM] Dr. Surendra A. Soni:
आज तो आपने ज्ञान गंगा का अनवरत प्रवाह किया है ।
नमो नमः मुनिवर ।
🙏🏻🌹💖😍
[2/14, 7:41 PM] Vd. Atul J. Kale:
No words.
These are highest points of Ayurveda (ever seen) we are seeing....... so ....speechless.....
किसी भी विषयको इतने बारिकीसे विचार करना!!!!!! It makes me speechless.
Devotion for Ayurveda
Makes me speechless.
Dedicated for giving knowledge
make me speechless.
Love for all of us
Make me speechless.
गुरूवर्य आप जैसा कोई नहीं।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🌹🌹🌹❤️❤️❤️❤️
[2/15, 12:48 PM] Dr.Pratyush Sharma:
सादर प्रणाम
आपके पित्त-विवेचन पढ़ने पर और अधिक पढ़ने की प्रेरणा मिली और एक जिज्ञासा भी उत्पन्न हुई।
“मूत्र भी उष्ण गुण प्रधान अर्थात पित्त स्वरूप है।”
उपरोक्त वाक्य को लेकर मुझे दो तरह के विचार आ रहे हैं। (अपूर्ण ज्ञान के लिए क्षमा कर उसे सुधारने का कष्ट कीजिएगा)
*पक्ष* :-
१. मूत्र विरेचन- विरेचन पित्त शामक है। जिससे उष्ण आदि गुणों की कमी होगी। तो मूत्र भी उष्ण व पित्त का अंश हुआ।
२. तृण पंचमूल, गोक्षुर, चंद्रकला रस आदि मूत्र पर कार्य करने वाली औषधियों का शीत गुण युक्त होना।
३. मूत्र का लवण, कटु रस प्रधान होना।
४. चिकित्सा में प्रयुक्त गोमूत्र का उष्ण,तीक्ष्ण, श्रोतोशोधक आदि गुणों का प्रत्यक्ष होना।
विपक्ष :-
१. तत्रास्थिनी स्थितो वायूः पित्तम तू स्वेद रक्तयोः। श्लेष्मा शेषेषु…
क्या मूत्र को “शेष” में मानकर श्लेष्मा प्रधान माना जाए?
२. मूत्र वृद्धि में एक लक्षण है- कृतेऽपि अकृतसंज्ञताम।
ऐसा लक्षण कफज प्रवाहिका में भी आया है। शायद एक और भी स्थान पर कफ सम्बन्धी ही।
३. मूत्रक्षये मूत्रकृच्छ्रं मूत्रवैवर्ण्यमेव च। पिपासा बाध्यते चास्य मुखम च परिशुष्यति।
अगर हम मूत्र को कफ स्वरूप मानें तो कफ-अंश~जलयांश के क्षय से आस्य-मुख-शोष समझ में आता है।
अगर मूत्र में जल व अग्नि दोनों की उपस्थिती मानें तो जलयांश की कमी होने पर अग्नि गुणों की तुलनात्मक वृद्धि होने पर मूत्र में विवर्णता-कृच्छ्रता की उत्पत्ति हुई।
४. मूत्रस्य क्लेदवाहनम।
क्लेद को हम श्लेष्मा विकृति मान सकते हैं?
कृपया संशय दूर करें।
[2/15, 5:01 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma:
*प्रत्युष जी, इन श्लोकों के संदर्भ और दे दीजिये कि किस ग्रन्थ में कहां पर है फिर रात्रि मे देखता हूं ।*
[2/15, 6:36 PM] Dr.Pratyush Sharma:
सादर प्रणाम
आपके पित्त-विवेचन पढ़ने पर और अधिक पढ़ने की प्रेरणा मिली और एक जिज्ञासा भी उत्पन्न हुई।
“मूत्र भी उष्ण गुण प्रधान अर्थात पित्त स्वरूप है।”
उपरोक्त वाक्य को लेकर मुझे दो तरह के विचार आ रहे हैं। (अपूर्ण ज्ञान के लिए क्षमा कर उसे सुधारने का कष्ट कीजिएगा)
*पक्ष* :-
१. मूत्र विरेचन- विरेचन पित्त शामक है। जिससे उष्ण आदि गुणों की कमी होगी। तो मूत्र भी उष्ण व पित्त का अंश हुआ।
२. तृण पंचमूल, गोक्षुर, चंद्रकला रस आदि मूत्र पर कार्य करने वाली औषधियों का शीत गुण युक्त होना।
३. मूत्र का लवण, कटु रस प्रधान होना। (च.सू. १/९६)
४. चिकित्सा में प्रयुक्त गोमूत्र का उष्ण, तीक्ष्ण, श्रोतोशोधक आदि गुणों का प्रत्यक्ष होना।
विपक्ष :-
१. तत्रास्थिनी स्थितो वायूः पित्तम तू स्वेद रक्तयोः। श्लेष्मा शेषेषु… (अ.हृ. सू. ११/२६-२७)
क्या मूत्र को “शेष” में मानकर श्लेष्मा प्रधान माना जाए?
२. मूत्र वृद्धि में एक लक्षण है- कृतेऽपि अकृतसंज्ञताम। (अ.हृ. सू. ११/१३)
ऐसा लक्षण कफज प्रवाहिका में भी आया है। शायद एक और भी स्थान पर कफ सम्बन्धी ही।
३. मूत्रक्षये मूत्रकृच्छ्रं मूत्रवैवर्ण्यमेव च। पिपासा बाध्यते चास्य मुखम च परिशुष्यति। (च.सू.१७/७१)
अगर हम मूत्र को कफ स्वरूप मानें तो कफ-अंश~जलयांश के क्षय से आस्य-मुख-शोष समझ में आता है।
अगर मूत्र में जल व अग्नि दोनों की उपस्थिती मानें तो जलयांश की कमी होने पर अग्नि गुणों की तुलनात्मक वृद्धि होने पर मूत्र में विवर्णता-कृच्छ्रता की उत्पत्ति हुई।
४. मूत्रस्य क्लेदवाहनम। ((अ.हृ. सू. ११/५)
क्लेद को हम श्लेष्मा विकृति मान सकते हैं?
कृपया संशय दूर करें।
[2/15, 7:32 PM] Dr. Surendra A. Soni:
सादर प्रणाम
आपके पित्त-विवेचन पढ़ने पर और अधिक पढ़ने की प्रेरणा मिली और एक जिज्ञासा भी उत्पन्न हुई।
“मूत्र भी उष्ण गुण प्रधान अर्थात पित्त स्वरूप है।”
*(where this has been mentioned ?)*
उपरोक्त वाक्य को लेकर मुझे दो तरह के विचार आ रहे हैं। (अपूर्ण ज्ञान के लिए क्षमा कर उसे सुधारने का कष्ट कीजिएगा)
*पक्ष* :-
१. मूत्र विरेचन- विरेचन पित्त शामक है। जिससे उष्ण आदि गुणों की कमी होगी। तो मूत्र भी उष्ण व पित्त का अंश हुआ।
*(This is 'aahar-mala' and the quality and quantity of mutra will be depend upon food taken and digested. Just remember the description of urine mentioned in prameha.)*
२. तृण पंचमूल, गोक्षुर, चंद्रकला रस आदि मूत्र पर कार्य करने वाली औषधियों का शीत गुण युक्त होना।
*(Half truth.)*
३. मूत्र का लवण, कटु रस प्रधान होना। (च.सू. १/९६)
*(Description of human urine is not mentioned in ayurved as far as I remember.)*
४. चिकित्सा में प्रयुक्त गोमूत्र का उष्ण,तीक्ष्ण, श्रोतोशोधक आदि गुणों का प्रत्यक्ष होना।
*Yes ! Right.....
*
विपक्ष :-
१. तत्रास्थिनी स्थितो वायूः पित्तम तू स्वेद रक्तयोः। श्लेष्मा शेषेषु… (अ.हृ. सू. ११/२६-२७)
क्या मूत्र को “शेष” में मानकर श्लेष्मा प्रधान माना जाए?
*( I don't think so....)*
२. मूत्र वृद्धि में एक लक्षण है- कृतेऽपि अकृतसंज्ञताम। (अ.हृ. सू. ११/१३)
ऐसा लक्षण कफज प्रवाहिका में भी आया है। शायद एक और भी स्थान पर कफ सम्बन्धी ही।
*(It's not applicable in reference to dosha only and individual mutra only.)*
३. मूत्रक्षये मूत्रकृच्छ्रं मूत्रवैवर्ण्यमेव च। पिपासा बाध्यते चास्य मुखम च परिशुष्यति। (च.सू.१७/७१)
*( Indicated of loss urine production in presence of loss of fluid volume in body.)*
अगर हम मूत्र को कफ स्वरूप मानें तो कफ-अंश~जलयांश के क्षय से आस्य-मुख-शोष समझ में आता है।
*(aahar-mala- carrying metabolic waste.... Shleshma is different.)*
अगर मूत्र में जल व अग्नि दोनों की उपस्थिती मानें तो जलयांश की कमी होने पर अग्नि गुणों की तुलनात्मक वृद्धि होने पर मूत्र में विवर्णता-कृच्छ्रता की उत्पत्ति हुई।
*(I have mentioned that it is not individual independent entity.)
४. मूत्रस्य क्लेदवाहनम। ((अ.हृ. सू. ११/५)
क्लेद को हम श्लेष्मा विकृति मान सकते हैं?
*(It's excretion of excessive water substance as seen in prameh. Please go to kc blog to understand kleda.)*
कृपया संशय दूर करें।
*(I hope this reply will clear your doubts.)*
Dr. Pratyush !👆🏿
My reply to your questions in english & in brakets.
[2/18, 11:19 AM] Dr.Pratyush Sharma:
Yes sir it clarified my all the doubts.
Thank you 🙏🏻
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday (Discussion)' a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
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Vaidyaraja Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by-
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by-
Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
P.G. Dept of Kayachikitsa
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, Gujarat, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
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