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"CLINICAL AYURVEDA" Part- 5 by Vaidyaraja Subhash Sharma

[12/2/2020, 12:52 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:

 *क्लिनिकल आयुर्वेद - भाग 5*

*अब तक हम आपको आयुर्वेद के उस गूढ़ पक्ष को विस्तार से बताते आ रहे हैं जिसमें कुछ पक्ष दर्शन का भी विषय समझा जाता है पर वह सब clinical है और वो ही हमारी सम्प्राप्ति के निर्माण मे आधार बनता है।*

*'सञ्चयं च प्रकोपं च प्रसरं स्थानसंश्रयम् व्यक्तिं भेदं च यो वेत्ति दोषाणां स भवेद्भिषक्' 
सु सू 21/36 सुश्रुत का यह प्रसिद्ध षटक्रिया काल सम्प्राप्ति का ही भाग है और इस पर चक्रपाणि अपनी टीका में 'येन दोष एव दूष्यविशेषसम्मूर्च्छितो व्याधिः' दोष-दूष्य सम्मूर्छना को ही व्याधि कहते हैं।*

*सम्प्राप्ति बनाने के लिये आप रोगी को देख कर लक्षण देखेंगे, साम-निराम, औषध द्रव्यों में किस प्रकार के रस,गुणादि के द्रव्य लिये जायेंगे आदि आदि ये सब बहुत सारे घटक हैं और सब से महत्वपूर्ण है अंशाश कल्पना, बस उसे ह्दस्थ कर लीजिये क्योंकि इसके बिना सैद्धान्तिक चिकित्सा नही कर पायेंगे।*

*सम्प्राप्ति चरक में 6 प्रकार की बताई है 'सा सङ्ख्याप्राधान्यविधिविकल्पबलकालविशेषैर्भिद्यते' 
च नि 1/11 संख्या, विकल्प, प्राधान्य, बल, काल और विधि । अष्टांग ह्रदयकार ने 'सङ्ख्या विकल्प प्राधान्य बल कालविशेषतः' 
अ ह नि 1/9 में विधि सम्प्राप्ति नही लिखी और संख्या सम्प्राप्ति में ही विधि का ग्रहण कर लिया।*

*इन सभी भेदों का ज्ञान क्यों आवश्यक है ? *

*1- संख्या सम्प्राप्ति - *
*आठ प्रकार के ज्वर, 13 सन्निपात ज्वर और अगर इसकी गंभीरता में जायें तो ज्वर निम्न प्रकार से वर्णित है ...*
*अधिष्ठान के अनुसार - शारीर और मानस*
*अभिप्राय अनुसार - सौम्य और आग्नेय *
*वेगानुसार - अन्तर्वेग और बहिर्वेग*
*ऋतु अनुसार - ऋतुओं के स्वाभाव जन्य और विकृत जन्य*
*साध्यासाध्यता - साध्य, कृच्छ साध्य और असाध्य*
*दोष और काल के बलानुसार - संतत,  सतत, अन्येद्धुष्क, तृतीयक और चतुर्थक *
*आश्रयानुसार - सप्तधातुगत*
*हेतु अर्थात कारणानुसार - वात, पित्त, कफ, द्वन्द्वज, त्रिदोषज और आगंतुक कुल आठ।*
*अवस्थानुसार - आम, पच्यमान और निराम तथा साम एवं निराम*
*तरूण, जीर्ण और पुनरावर्तक*
*दो अन्य प्रकार - त्वकस्थ इसमें शीतपूर्वक और दाहपूर्वक और गंभीर जिसे धातुगत भी कहा है।*
*आपको clinical practice में विभिन्न ज्वर देखने को मिलेंगे जैसे infectious Diseases - viral, bacterial, fungal से Respiratory tract infections, Gastrointestinal infections, UTI, Skin infections, Malaria, Inflammatory conditions- Rheumatoid arthriti-Lupus etc. Cancer, Physiological stress, Environmental Factor, Heatstroke, Drugs-Cocaine, Amphetamines etc और COVID 19 भी, आजकल ये बहुत अधिक news में है, तो क्या सब की सम्प्राप्ति 
'मिथ्याहारविहाराभ्यां दोषा ह्यामाशयाश्रयाः, बहिर्निरस्य कोष्ठाग्निं ज्वरदाः स्यू रसानुगाः ' 
मा नि 2/2 ही बनेगी ? *

*जी नही , संख्या सम्प्राप्ति का महत्व ये है कि जितने ज्वर उतनी सम्प्राप्ति, हर ज्वर में अंशाश कल्पनायें, हेतु, तर-तम, हीन-वृद्ध आदि सब भिन्न है अगर आप ये ठीक प्रकार से समझ जायें तो किसी भी रोग का विनिश्चय उसके बिना नामकरण किये भी आप कर सकते हैं और उसकी चिकित्सा भी।*

*चरक सूत्र 19/3 का एक सूत्र देखे 
'इह खल्वष्टावुदराणि, अष्टौ मूत्राघाताः, अष्टौ क्षीरदोषाः, अष्टौ रेतोदोषाः; सप्त कुष्ठानि, सप्त पिडकाः, सप्त वीसर्पाः; षडतीसाराः, षडुदावर्ताः; पञ्च गुल्माः, पञ्च प्लीहदोषाः, पञ्च कासाः, पञ्च श्वासाः, पञ्च हिक्काः, पञ्च तृष्णाः, पञ्च छर्दयः, पञ्च भक्तस्यानशनस्थानानि, पञ्च शिरोरोगाः, पञ्च हृद्रोगाः, पञ्च पाण्डुरोगाः, पञ्चोन्मादाः, चत्वारोऽपस्माराः, चत्वारोऽक्षिरोगाः, चत्वारः कर्णरोगाः, चत्वारः प्रतिश्यायाः, चत्वारो मुखरोगाः, चत्वारो ग्रहणीदोषाः, चत्वारो मदाः, चत्वारो मूर्च्छायाः, चत्वारः शोषाः, चत्वारि क्लैब्यानि; त्रयः शोफाः, त्रीणि किलासानि, त्रिविधं लोहितपित्तं; द्वौ ज्वरौ, द्वौ व्रणौ, द्वावायामौ, द्वे गृध्रस्यौ, द्वे कामले, द्विविधमामं, द्विविधं वातरक्तं, द्विविधान्यर्शांसि; एक ऊरुस्तम्भः, एकः सन्न्यासः, एको महागदः; विंशतिः क्रिमिजातयः, विंशतिः प्रमेहाः, विंशतिर्योनिव्यापदः; इत्यष्टचत्वारिंशद्रोगाधिकरणान्यस्मिन् सङ्ग्रहे समुद्दिष्टानि' 
अर्थात आठ उदर रोग, आठ क्षीर दोष अर्थात माता के दुग्ध से उत्पन्न विकार और इसी प्रकार रोगों के विभिन्न भेद सूत्र स्थान में जो कहे हैं उसके पीछे कई उद्देश्य है ,*

*सर्व एव निजा विकारा नान्यत्र वातपित्तकफेभ्यो निर्वर्तन्ते, यथाहि शकुनिः सर्वं दिवसमपि परिपतन् स्वां च्छायां नातिवर्तते, तथा स्वधातुवैषम्यनिमित्ताः सर्वे विकारा वातपित्तकफान्नातिवर्तन्ते,वातपित्तश्लेष्मणां पुनः स्थानसंस्थानप्रकृतिविशेषानभिसमीक्ष्य तदात्मकानपि च सर्वविकारां स्तानेवोपदिशन्ति बुद्धिमन्तः'
 च सू 19/5 
जितने भी निज रोग हैं वो वात,पित्त और कफ के अतिरिक्त नही होंगे अर्थात इनके अंश उपस्थित रहेंगे ही, विकार अर्थात धातु वैषम्य = धातुओं की विषमता भी वात,पित्त और कफ से बाहर नही मिलेगी और इसका उदाहरण दिया गया है कि जिस प्रकार दिन भर उड़ता पक्षी अपनी छाया का उल्लंघन नही कर पाता वैसे ही ये धातुयें भी दोषों से बाहर नही जा सकती। अत: चिकित्सक इन दोषों के स्थान, आकृति, प्रकृति विशेष देख कर जैसे यह रसज विकार है, मांसज है या अस्थिज विकार है आदि जाने जैसे घृत से कोई जल गया तो कारण अग्नि ही है वैसे ही रक्तज रोग को भी दोष से ही जानिये।*


[12/2/2020, 12:52 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*आठ उदर रोग अर्थात अलग दोष, अलग अंश, अलग स्रोतस और स्रोतस की दुष्टि भी अलग तो सब की सम्प्राप्ति भी अलग बनेगी, चिकित्सा सूत्र भी अलग होगा और औषध भी अलग होगी।अब अगर आप कहें कि चरक ने ऊपर ऊरूस्तंभ, सन्यास और महागद अर्थात अतत्वाभिनिवेश तो एक एक ही कहा है तो फिर सभी रोगियों की एक सम्प्राप्ति और एक सी चिकित्सा होगी ? इसका भी स्पष्टी करण दिया है 
'एक ऊरुस्तम्भ इत्यामत्रिदोषसमुत्थः, एकः सन्न्यास इति त्रिदोषात्मको मनःशरीराधिष्ठानः, एको महागद इति अतत्त्वाभिनिवेशः' 
च सू 19-3/8 ऊरूस्तंभ एक है पर आम दोष और त्रिदोष से संबंधित है, सन्यास रोग एक ही है पर यह मन और शरीर में आश्रित रह कर त्रिदोष से उत्पन्न होता है और अतत्वाभिनिवेश तो जो है ही महागद उसमें बहुत विकृति स्वभाव से ही है।*

*संख्या सम्प्राप्ति या इसके अन्य भेदों के ज्ञान की चिकित्सा में क्यों आवश्यकता है ? इस पर कल चर्चा करेंगे।*

*to be continue...*


[12/2/2020, 4:30 AM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar: 

आपने बहुत महत्वपूरन बात कही।
और सम्प्राप्ति यानी रोग के जितने प्रकार उतने प्रकार की सम्प्राप्ति।
और ये भी के रोग के एक विशेष प्रकार की सम्प्राप्ति भी अलग अलग रोगियों में भी अलग अलग हो सकती है।
जैसे वातज ग्रहणी की सम्प्राप्ति एक रोगी में वातल व मिथ्या आहार से व अन्य किसी रोगी में किसी अन्य हेतु जैसे वातल विहार या मानसिक द्वेषादी से हो सकती है।
क्या ऐसा समझना उचित है?


[12/2/2020, 6:01 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai: 

भले ही रोगो के प्रकार अनेक वर्णित हो , संख्या लिखीत हो , फीर भी  हर रुग्ण की सम्प्राप्ती अलग अलग बनेगी , क्योकी हर व्यक्ती के रोग के कारक तथा रोग के विघातक भावो मे भिन्नता होगी , यह सिद्धांत आपसेही अनेको केस प्रेजेंटेशन मे देखा है.

पर जब चिकित्सा करने की बात आती है तब सामान्य सम्प्राप्ती एवं चिकित्सा सूत्र एक दीपस्तंभ की तरह मार्गदर्शन करते है. 
भले ही परिस्थिती अनुरुप मार्गक्रमण मे थोडे बहुत बदलाव हो, कमोबेशी रह सकती है, द्रव्यो की उपलब्धता, उपयोग देशादी के आधार पर  बदल सकते है, रुग्ण और रोग के बलाबल पर मात्रादी का निर्धारण होता है. षट क्रियाकाल अनुरुप ही चिकित्सा करनी पडेगी.
द्रव्य निर्धारण करते हुये हमे हमारे गुरुदेव *प्रो. गुरुदिप सिंह सर* की बात  याद रहती है.
*एक रोग की अनेक दवाइया होती है, एक दवाई अनेक रोगो पर कार्यकारी होती है*
कैसे?
*शरीर एक बडा ही सुहाना यंत्र है , जो स्वयं को ठिक कर सकता है, जैसे ही रोग कारक के विपरीत स्थिती उपलब्ध हुई, या स्वयं द्वारा कराई गयी; वह स्वत: स्वस्थ होने की तरफ जायेगा. स्वास्थ्य यही प्रकृती है. वही निसर्ग नियम भी. दवाइया केटेलीस्ट सा काम करती है. ठिक होने की प्रक्रिया या तो शुरु करती है या बढावा देती है. आप निर्धारित नियमो द्वारा प्राप्त किसी भी औषधी, अन्न या विहार का उपयोग रोग कारक स्थिती के विपरीत स्थिती के निर्माण हेतू कर सकते है, यही चिकित्सा का सामान्य सिध्धांत है*

अगर मेरे आकलन मे कुछ गलती हुई हो तो स्वयं गुरुदेव और उनके अनेको शिष्य , कुछ मेरे अग्रज एवं कुछ अनुज इस ग्रुप माए है , बहोत सारे सिद्धहस्त चिकित्सक भी है, कृपा कर इसे विस्तारित/ नियंत्रीत/ सुधार करे


[12/2/2020, 8:29 AM] Dr.Deep Narayan Pandey Sir: 

अद्भुत प्रायोगिक वर्णन और दिशा दर्शन!*

*क्लीनिकल आयुर्वेद की इस श्रृंखला को जारी रखने हेतु अनुरोध है आचार्य श्रेष्ठ*

*इस श्रंखला में आपके उस चिंतन का दर्शन होता है जो आप स्वयं चिकित्सा में प्रयोग करते हैं। इसमें उस मार्ग का भी दर्शन होता है जिस रास्ते चलकर रोगी रोग मुक्त होता है।*

*यह उन लोगों के लिए परम उपयोगी है जिन्हें कॉलेज जीवन में शिक्षा प्राप्ति में थोड़ी कठिनाई हुई होगी। लेकिन यह उन लोगों के लिए भी परम उपयोगी है जो टैसिट नॉलेज या एक्सपीरियंशियल नॉलेज अभी तक एकत्र नहीं कर पाए हैं और अब उस रास्ते में आगे बढ़ना चाहते हैं। संहितायें आवश्यक हैं, साइंस आवश्यक है, किंतु अनुभवजन्य ज्ञान के बिना इन दोनों को यथार्थ रूप में प्रयोग करना बड़ा मुश्किल हो जाता है। आप अपना यह अनुभवजन्य ज्ञान मुक्त कंठ से यहां साझा कर रहे हैं इसके लिए आप की जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है। इस प्रकार की दृष्टि को पाने के लिए पीढ़ियां गुजर जाती है।*

*यह अनुभवजन्य ज्ञान न केवल आयुर्वेद में बल्कि अन्य विषयों में भी महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए वनों के प्रबंध हेतु कोई व्यक्ति जंगल में थोड़ी देर के लिए जाता है और चारों तरफ देखता है उस समय उन वनों के प्रबंध हेतु जो भी सुझाव निकलते हैं उससे आप स्पष्ट रूप से पता लगा सकते हैं कि उस व्यक्ति की अनुभव की पूंजी कितनी है।* 
*आपको पुनः बहुत-बहुत धन्यवाद*


[12/2/2020, 9:04 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:

 *नमस्कार पवन जी, रोग की उत्पत्ति कैसी हुई, हेतु क्या थे ? शारीरिक, मानसिक या आगंतुज, किस प्रकार से दोष कुपित हुये  और जब कुपित हुये तो उन्होने दोषों के किस किस अंश की वृद्धि की और वो धातुओं से जब मिले , कब मिले, कहां मिले अर्थात स्थान संश्रय हुआ आदि आदि पूरी प्रक्रिया को सम्प्राप्ति कहते है। 
च नि 1/11 में चक्रपाणि कहते हैं 'व्याधिजन्ममात्रमन्त्यकारणव्यापारजन्यं सम्प्राप्तिमाहुः' 
अर्थात व्याधि की उत्पत्ति में दोषों का विविध व्यापार क्या रहा और उसके परिणाम स्वरूप किस प्रकार व्याधि का जन्म हुआ ? केवल व्याधि का जन्म या उत्पत्ति होना या उसका 'नामकरण' होना ही पर्याप्त नही है।अगर आपके पास श्वास रोगी diagnosis किया हुआ केस आये तो यह चिकित्सा के लिये पर्याप्त नही हैं उस रोगी के हेतु से ले कर दोषों की दुष्टि, पूर्वरूप,लक्षण आदि का  ज्ञान होना यह दोषों का व्यापार कहलाता है और इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को सम्प्राप्ति कहते हैं।*

*वातज ग्रहणी के हेतु जो आपके प्रश्न से संबंधित है' 
कटुतिक्तकषायातिरूक्षशीतलभोजनैः ।
प्रमितानशनात्यध्ववेगनिग्रहमैथुनैः,
करोति कुपितो मन्दमग्निं सञ्छाद्य मारुतः,
तस्यान्नं पच्यते दुःखं शुक्तपाकं खराङ्गता' 
च चि 15/59-60 ।

*चरक में ये हेतु आहार और विहार जन्य हैं पर इन्हे ही पर्याप्त ना मानकर वर्तमान समय के अनुसार हमें अनेक हेतुओं का निर्धारण स्वयं करना पड़ेगा जिसमें आज की जीवन शैली के कारण अनेक हेतु मिलेंगे जिनमें नौकरी या व्यवसाय की असुरक्षा से उत्पन्न भय, covid 19 के कारण उत्पन्न भय, night shift वाले लोग आदि और इन सब में वात वृद्धि का कारण ये भय ही है।हर हेतु अलग अलग रोगियों में वात के अलग अलग अंश को बढ़ायेगा और अग्नि को दूषित करेगा ही।*

*ये सब कैसे होगा ? इसकी पूरी प्रक्रिया विकल्प सम्प्राप्ति का भाग है जिसे हमने आज लिखना ही है।*

*ये पूरी series जो हम लिख रहे है एक दूसरे से सम्बद्ध है ।*


[12/2/2020, 9:09 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*सादर प्रणाम आचार्य श्रेष्ठ ! हर मनुष्य बिना वस्त्रों के और खाली हाथ ही जन्म लेता है, जो कुछ मिला है वो यहीं मिला और सब यहीं रह जायेगा तो फिर क्यों ना सब कुछ प्रसन्नता पूर्वक बांट दिया जाये ।*

*ऋषि प्रणीत आप्त ज्ञान है और इस ज्ञान से ही सब कुछ मिला, इसे जितना share करते हैं इसका वर्धन ही होता है।*


[12/2/2020, 9:18 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*आप सभी विद्वानों का आभार *

[12/2/2020, 7:55 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir:

 *एक चिंतन मनन*
*मांस धातु का मूल त्वचा माना गया है त्वचा, रस धातु का प्रतिनिधित्व करती है ।*
*रस धातु जल महाभूत प्रधान माने तो सौम्य भाव से सोम प्राण प्राधान्य होना चाहिए ।*
*मांसगत व्याधियों में सोम प्राण को अगर साम्य रखने वाली औषधि , पथ्य एवं आहार विहार कारगर साबित हो सकते है ।*
*अगर मांस धातु को सोम प्राण मय माना जाए तो,,,,*

आप सब के क्लिनिकल अनुभव एवं विचार नितान्त आवश्यक है । अपेक्षित सुधार के साथ  !



[12/3/2020, 12:06 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*एक चिन्तन ये भी निकल कर आया आचार्य गिरिराज जी, शारीर विशेषज्ञ आप है और इसे मात्र चिन्तन ही समझिये ..*

*'दश प्राणायतनानि; तद्यथा- मूर्धा, कण्ठः, हृदयं, नाभिः, गुदं, बस्तिः, ओजः, शुक्रं, शोणितं, मांसमिति, तेषु षट् पूर्वाणि मर्मसङ्ख्यातानि' 
च शा 4/9 प्राणों के 10 आयतन पुन: कहे हैं जिसमें दोनों शंख प्रदेश के स्थान पर नाभि तथा मांस को लिया है और मूर्धा से बस्ति को मर्म संज्ञा दी है और दोनों शंख प्रदेश भी ले कर चलें तो 12 प्राणायतन हैं।*

*यहां अगर हम दश प्राणायतन में अगर मांस को भी मांस मर्म मान लें तो यह मत इस प्रकार बनता है।*

*मर्म का लक्षण - 'मर्माणि मांससिरास्नाय्वस्थिसन्धिसन्निपाताः तेषु स्वभावत एव विशेषेण प्राणास्तिष्ठन्ति,तस्मान्मर्मस्वभिहतास्तांस्तान् भावानापद्यन्ते'
सु शा  6/16 मांस, सिरा, स्नायु, अस्थि और संधि के संयोग स्थान को मर्म कहते हैं, इन मर्मों में प्राण स्वाभाविक रूप से रहता है और इन मर्मों पर आघात होने से शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध इस प्रकार से इन्द्रियों के अर्थों का ज्ञान नष्ट हो जाता है तथा बुद्धि और मन बदल जाते हैं।*

*मांस मर्मों के नाम - 4 तल ह्रदय,4 इन्द्रबस्ति, 1 गुदा और 2 स्तन रोहित, कुल 11*

*मांसादि यदि समप्रमाण में हों तो उनके संयोग से बने मर्म सद्यप्राण हर होते हैं जो आग्नेय हैं क्योंकि अग्नि गुण शीघ्र नष्ट होता है तो वह शरीर का भी शीघ्र नाश करेगा।*


[12/3/2020, 12:35 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir:

 आपका कथ्य उपयुक्त है परन्तु मांस मर्म में गुदा का वर्णन भी है और दो बार गुदा का वर्णन तन्त्रयुक्ति के अनुरूप युक्तियुक्त नही मान सकते, 
मांस मर्म गुदा एवं गुदा यह पुनरावृति दोष ,,,,, हो सकता है ।


[12/3/2020, 12:41 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*जी, यह भी विचार आया था इसीलिये चिन्तन लिखा मत नही *


[12/3/2020, 12:46 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:

 *किसी भी विषय को युक्ति युक्त तर्क सहित कैसे समझा जाता है आयुर्वेद की नवीन पीढ़ी को यह ज्ञान आचार्य गिरिराज जी से सीखना चाहिये, इसीलिये शारीर विषय में मैं आपको सर्वश्रेष्ठ मानता हूं ।* 


[12/3/2020, 12:46 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir:

 मांस को शंख मर्म की जगह उल्लेखित किया है आचार्य चरक का पूर्वमत शंख मर्म / मांस मर्म आचार्य ने किसी कारण विशेष से ही उल्लेख किया होगा ,,,,
इस विषय पर सभी मांस मर्म को गणन किया जा सकता है ।   आचार्य द्वारा एक प्राणायतन को बदल देना निश्चित ही कुछ नैदानिक एवं चिकित्सीय दृष्टिकोण है ।
आप जैसे चिकित्सकिय विधा के ज्ञाता एवं अनुभवी ही इस गूढ़ता को समझ सकता है ।।


[12/3/2020, 4:15 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai:

 क्या हम इसका मतलब यह समझे की
1. सभी मर्मो मे प्राण की विशेष उपस्थिती होती है

2. यहापर एक विशिष्ट रुप से मांस, सिरा , स्नायू , अस्थि, संधी की विशेष सरचना होती है

3. यह इंद्रियो के विषय से संयोग मे सहाय कारी  होती है

4. मतलब इंद्रियो के विषय अर्थ ग्रहण की प्रक्रिया मे प्राण विशेष रुप से कार्यान्वीत होता है

5. जब इस विशेष शारिर सरचना पर आघात होता है,तब यही सरचना बिगडने से प्राण योग्य तरिके से कार्यान्वीत नही हो सकता ,सो इंद्रिय कार्य मे बाधा आती है?


[12/3/2020, 9:01 AM] Vaidya Hiten Vaja M.D.Ahmedabad: 


Praan ka abhisaran karavana vaidya ka mul karya hai, yahi dhatusamya hai...
Rogavastha me sammurchit mal ko dur karane ki vidhi = chikitsa ke dwara praan ka avarodh dur karte hai aur punah praan ka abhisaran prasthapit karte hai...

Praan shareer ki karyakari urja ke srot ya kaarak anubhut hote hai, dosh shareer me dravya rup bal kaarak hote hai jo shareer ka anuvartan karate hai..

Praan rupi urja se vyakti gyanendrit karmendriy karm ( bandhan moksh karma) sampadit hote hai..

Praan bramhand ( Vaishvanar ) se pind = shareer ( Kayagni) me gruhit pranayatanaanee ke dwara kayagni karti hai..

Tatpaschat marma praan ko shareer air vrutii kee sampaadak kriya me jodne kaa kasryaksheta pradan karte hai...

Praan sabhi dhaatu me nyunaatirek sthiti me antargat rahte hai..

Agni khalu pittantargat...

Arthat praan dosh se bhinna hai...
Praan dosh(dhatu mala)  ko karyakaari urja pradan karte hai...

Aushadh upakram aur chikitsa sutra se yogya disha prapt kar sammurchit mal ko pakva karne ka kaaran bantaa hai, dosh pakva hone ke baad kayagni ( aur unke ansh = jatharagni  dhatvagni mahabhutagni) unko dahan kar dete hai ( shaman) ya adhishthan se bahar nishkashit kar dete hai( shodhan) aur pran ke abhisaran ka marg prashasta karte hai....
🙏🙏


[12/3/2020, 12:44 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*सादर नमन आदरणीय आचार्य जी, बहुत ही विस्तार से अति सुंदर विशलेषण, मात्र संदर्भ देने का हमारा उद्देश्य भी यही था कि आप जैसे विद्वानों का इस प्रकार के सूत्रों पर विश्लेषण ज्ञान मार्ग प्रशस्त करता है।*


[12/3/2020, 2:52 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir: 

*सादर प्रणाम आचार्य श्रेष्ठ*
*मांसवह स्रोतस के परिपेक्ष्य में मांस का मूल त्वचा,,,,,एवं उपधातु त्वचा*
*त्वचा उपधातु के रूप में भी वर्णित है, साथ मे मांसवह स्रोतस के मूल में भी ,,,,*
पूर्व में भी मेरा मत त्वचा को लेकर एपिथिलिया के संदर्भ में था, स्किन को मात्र चर्म तक सीमित रखा था ।
*त्वचा  epithelium (स्रोतस मूल)* 
*त्वचा   (चर्म) skin (उपधातु)*

 आप श्री के मत हमारे लिए आप्त वचन होते है ।


[12/3/2020, 3:00 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir: 

*सादर नमन आचार्य श्री*
*प्राण एक कार्यकारी इकाई है जो किसी भी धातु की इकाई हो सकती है ।वात एवं कफ को प्राण का प्रतिनिधित्व स्वरूप कहना उचित नही होगा । इस विषय पर आप श्री का मतमतान्तर निश्चित नव चिंतन देगा*


[12/3/2020, 3:06 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir: 

रस  धातु     रस मलस्वरूप
पित्त दोष     पित्त मलस्वरूप
इस प्रकार के द्वय नाम संहिता में मिलते है ।


[12/3/2020, 3:11 PM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir: 

Mamsa se 6 tvaca, (updhatu)+1tvaca mamsa ka mool, or  sampoorna tvak.
shakha raktadayo dhatavah tvakca ye bhi prasanga hai


[12/3/2020, 3:18 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir:

 त्वचा, रस उपधातु 
त्वचा (चर्म)  मांस मल 


[12/3/2020, 3:34 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir: 

*नाभिस्थ प्राणपवन ** 
*प्राणापानौ* 
आदि शब्द भी मिलते है


[12/3/2020, 3:39 PM] Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir: .. 

samau kritva ityadna.
Murchito harati rujah

[12/4/2020, 11:42 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

सामान्यतया जहां कहीं भी प्राण शब्द बहुवचन में आता है वहां जीवन, चेतन या   शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगस्वरूपक प्राण के लिए प्रयुक्त मानना चाहिए जहां प्राण शब्द एकवचन में है वहां इससे प्राणवायु ग्रहण करना चाहिए कहीं-कहीं विशेष उद्देश्य से आचार्य चेतनात्मक प्राण को भी एक वचन कह दिया है लेकिन वहां विशिष्ट  उद्देश्य होता है। व्याकरण के नियमानुसार प्राण शब्द  नित्य बहुवचन होता है ।
वैसे मैंने आपका यह पूरा प्रसंग नहीं देखा है केवल सरसरी नजर से बीच में देखे हुए पर टिप्पणी कर दी है


[12/4/2020, 11:55 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad: 


सादर प्रणाम !



[12/4/2020, 11:56 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*सादर प्रणाम गुरूश्रेष्ठ  !*


[12/4/2020, 11:59 AM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

प्राणो हृन्मारुते बोले काव्यजीवेsनिले बले । पुंल्लिंग: पूरिते  वाच्यलिंग: पुंभूम्नि  चासुषु इति मेदिनी।
इन सबके लिए प्राण शब्द प्रयुक्त होता है जो पुल्लिंग में ही प्रयुक्त होता है इसके अतिरिक्त यदि पुंल्लिंग में है तथा भूम्नि अर्थात् बहुवचन में है तो उसका अर्थ प्राण (असु, जीवन) लेना चाहिए


[12/4/2020, 12:01 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

आशीर्वाद। आज कई दिनों बाद काय आवेश (प्रवेश ) किया है


[12/4/2020, 12:10 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*आपके विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता हर पल प्रतीत होती है जैसे ..*

*'दशैवायतनान्याहुः प्राणा येषु प्रतिष्ठि१ताः,शङ्खौ मर्मत्रयं कण्ठो रक्तं शुक्रौजसी गुदम्' 
च सू 29/3 जिनमें प्राण प्रतिष्ठित रहते है ऐसे 10 आयतन *

*आगे शारीर स्थान में जाते हैं तो 'दश प्राणायतनानि; तद्यथा- मूर्धा, कण्ठः, हृदयं, नाभिः, गुदं, बस्तिः, ओजः, शुक्रं, शोणितं, मांसमिति, तेषु षट् पूर्वाणि मर्मसङ्ख्यातानि' च शा 4/9 प्राणों के 10 आयतन पुन: कहे हैं जिसमें दोनों शंख प्रदेश के स्थान पर नाभि तथा मांस को लिया है , इनमे पहले 6 मर्म ही माने गये है तो क्या मांस को भी मर्म मान लेने पर कोई दुविधा है ?*

*पिछले दो दिन से सम्प्राप्ति पर लेखन की लय टूट कर इस संदर्भ और प्राण पर ही रूक गई ।*


[12/4/2020, 12:15 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi: 

*चरक सुश्रुत में जहां तक मेरा अल्प ज्ञान है 'ऊर्जा' शब्द है ही नही जिसे अनेक विद्वान 'प्राण' का विकल्प मान कर चल रहे है।*


[12/4/2020, 12:21 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

मैंने पूरा प्रसंग देखा नहीं है पर ऊर्जा से यदि शक्ति लेना चाहते हैं तो वह तो लिया जा सकता है जैसे प्राणजनन शब्द आया है प्राणजनन  की व्याख्या में व्याख्या कार कहते हैं कि भारहरण इत्यादि की जो सामर्थ्य है वह प्राणजनन है। एक शब्द को अनेक अर्थों में प्रयुक्त प्रयुक्त करने के लिए उस प्रसंग के अनुसार अर्थ लगाया जा सकता है ।ऊर्जा किस अर्थ में लगाते हैं मुझे यह पता नहीं है लेकिन यदि बल संचार के लिए ऊर्जा या प्राण का प्रयोग करते हैं तो वहां वह चेतन स्वरूप प्राण का पर्याय नहीं है बल्कि शरीर में स्थित शक्ति के लिए है, जैसा कि ऊपर के पर्याय में मैंने कहा भी है कि बल का पर्याय भी प्राण है


[12/4/2020, 12:22 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

लेकिन चेतन स्वरूप प्राण के पर्याय के रूप में ऊर्जा नहीं लेनी चाहिए


[12/4/2020, 12:44 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 स्वरूपा के स्थान पर स्वरूपक पढें


[12/4/2020, 12:45 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

प्राणो हृन्मारुते बोले काव्यजीवेsनिले बले । पुंल्लिंग: पूरिते द वाच्यलिंग: पुंभूम्नि  चासुषु इति मेदिनी।
इन सबके लिए प्राण शब्द प्रयुक्त होता है जो पुल्लिंग में ही प्रयुक्त होता है इसके अतिरिक्त यदि पुंल्लिंग में है तथा भूम्नि अर्थात् बहुवचन में है तो उसका अर्थ प्राण (असु, जीवन) लेना चाहिए


[12/4/2020, 12:46 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

मैंने जो लिखा वह गलती से डिलीट हो गया दोबारा लिख रहा हूं


[12/4/2020, 12:51 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir:

 यहां मूल शब्द ऊर्जस् है जिसका प्रयोग संभवत: सुश्रुत में नहीं हुआ लेकिन चरक में रसायन के प्रसंग में हुआ है तथा कुछ लोग पाठ भेद के आधार पर स्नानमोजस्करम्  की जगह स्नानमूर्जस्करम् मानते हैं जो लोग शक्ति का पर्याय प्राण यदि लेते हैं तो ठीक है लेकिन चैतन्य स्वरूप प्राण का पर्याय ऊर्जा लेते हैं तो यह उन्हीं के द्वारा विवेचनीय है क्योंकि मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना।


[12/4/2020, 12:52 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

मैं एक अशुद्धि को ठीक कर रहा था जो पूरा ही डिलीट हो गया एक बार डिलीट मैसेज को दोबारा लिखने में मन  का सहयोग नहीं मिलता क्योंकि मन को उसी विषय को दोबारा लिखने में बड़ा जोर आता है नया विषय लिखने के लिए तो वह भी तैयार है


[12/4/2020, 1:21 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

इसमें उलझने की आवश्यकता नहीं है ऐसा तो अनेक बार अनेक स्थानों पर हुआ है सूत्र स्थान के 29 वें अध्याय में आचार्य ने जिन 10 को प्राणायतन कहा है आगे शारीरस्थान में थोड़ा सा परिवर्तन करके दूसरे 10 कह दिए ।इसका यह पाठ शारीरस्थान 4/9 नहीं है अपितु शारीरस्थान 7/9 है और इसका समन्वय यों करना चाहिए कि आचार्य यदि कहीं कोई बात कहते हैं तो बाद के प्रतिसंस्कर्ता  या संपादनकर्ता या अन्य   उसमें कुछ और जोड़ देते हैं तो यह पाठ भेद है लेकिन यहां यह पाठभेद प्रतिसंस्कर्ता  का न होकर स्वयं आचार्य के द्वारा दिया गया पाठभेद है इसलिए यहां पर मांस और नाभि इन दोनों को प्राणायतन में मानने वाले आचार्य ने सूत्रस्थान में शंखौ को प्राणायतन कह दिया अतः 12 को प्राणायतन मान लेने में कोई आपत्ति नहीं है ।ऐसा अन्यत्र अन्य प्रसंगों में भी हुआ है जैसे दोसषभेषज देशकाल यह सूत्र स्थान में 10 हैं विमान स्थान के आठवें अध्याय में 12 चिकित्सा के तीसवें अध्याय में 11 सिद्धि स्थान में पुनः 10 हैं अतः सभी संख्याएं उपयोगी हैं और मान्य हैं वैसे ही मांस एवं नाभि यह भी प्राणायतन के रूप में मान्य है।
बेचारे व्याख्या कार अनेक स्थलों पर समन्वय करते करते थक गए पर आचार्यों ने जहां जो चाहा वह सिद्धांत रूप में कह दिया जहां नियत संख्या की है वहां नियत स्वरूप जरूर किया है 10 प्राणायतन नियत नहीं हैं ज्यादा भी माने जा सकते हैं 107 मर्म भी मारयतीति मर्म हैं। संभवत: यही समन्वय करना चाहिए


[12/4/2020, 1:29 PM] Vaidya B.L.Gaud Sir: 

इसी प्रसंग में चरक चिकित्सा के 26 वें अध्याय के प्रारंभिक चार श्लोक और उनकी चक्रपाणि व्याख्या देखिए वहां इन तीन को ही सर्वप्रधान मान लिया इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि बाकी के सात प्राणायतन नहीं है या नाभि और मांस प्राणायतन नहीं हैं


[12/4/2020, 2:25 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:

 *आज बहुत समय पश्चात आपके द्वारा प्रवाहित ज्ञान गंगा ने अनेक शंकाओं का समाधान कर दिया।क्योंकि इस प्रकार के प्रकरण अनेक बार आते हैं और आप जैसे परम विद्वान गुरूश्रेष्ठ के आप्त वचन सर्वमान्य हैं।*


[12/4/2020, 3:33 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir: 

Muscular dystrophy and मांस प्राणायतन*
*मांस धातु को संहिताओं में शोणित एवं शुक्र के समान प्राणायतन कहा है* ,

*मांस प्राणायतन से सम्पूर्ण मांसधातु या स्वभावतः प्राण प्रतिष्ठिता मांस मर्म पर प्राण जनन औषध, आहार, विहार सत्वाजय चिकित्सा मांस वेधन, (सिरावेधन)  आदि करके क्या Muscular dystrophy जैसे रोग पर चिकित्सा सिद्धि प्राप्त की जा सकती है ।*

*इस विषय पर एक सार्थक चिंतन की नितांत आवश्यकता है ।*


[12/4/2020, 3:50 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir:

 *Muscular dystrophy  आयुर्वेद मतानुसार*
 
*मातृज बीजभागावयव विकृति जन्य व्याधि मानकर अगर नैदानिक, एवं चिकित्सकीय दृष्टिकोण से विवेचन करे तो  कुछ सकारात्मक परिणाम मिल सकते है ।*
मांस 
मातृज भाव (बीजभागावयव)
रक्तात जायते
मांस धातु 
मांसवह स्रोतः
मांस मर्म
मांस प्राणायतन
मांसज व्याधि
आदि पर चिंतन आधुनिक Muscular dystrophy को साथ मे रखते हुए एक विमर्श होना चाहिए ।।


[12/4/2020, 4:02 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir:

 पूर्व में भी प्राणायतन में कौनसे प्राण का प्राधान्य होगा उस पर थोड़ी चर्चा हुई थी परन्तु फिर विषय वस्तु से भटक गये थे पुनः विषय वस्तु पर चिंतन का प्रयास करते है ।
शोणित- आग्नेय  अग्नि प्राण 
शुक्र-  सौम्य   सोम प्राण
*मांस* - *
*A*  सोम रसज त्वचा स्रोतसमूल आधार पर 
    *B* धातु उतपत्ति से रस से रक्त , रक्त से मांस 
सोम आग्नेय (सोम अग्नि प्राण)
*C* पंचमहाभूत आधारित  जल महाभूत एवं पृथ्वी महाभूत संभवत,,,?,,*

मांस प्राणायतन में कौनसे प्राण का प्राधान्य होना चाहिए,,,,
 
Muscular dystrophy जैसी गंभीर व्याधि की चिकित्सा में प्रणाभिसर चिकित्सक के साथ औषधि आहार विहार पथ्य , अन्य चिकित्सकिय कर्म यथा मर्म चिकित्सा , वेधन, अभ्यंग, तर्पण इत्यादि को समझने की जरूरत है ।






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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp group  of  well known Vaidyas from all over the India. 




Presented by














Vaidyaraj Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)

New Delhi, India

email- vaidyaraja@yahoo.co.in


Compiled & Uploaded by

Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
ShrDadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
 +91 9669793990,
+91 9617617746

Edited by

Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC) 
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150

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