[1/9, 1:20 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*क्लिनिकल आयुर्वेद - भाग 9*
*अभी तक त्वग् गत वात और पित्त पर चर्चा की थी और अब कफ को भी ले कर चलेंगें । कोई भी व्याधि हो चाहे उसका अभी तक कोई नाम भी ना रखा गया हो उसका निर्धारण आप अपने शास्त्रोक्त ज्ञान से कर सकते हैं और जब यह आपको समझ आ जायेगा तो उसकी चिकित्सा किस प्रकार की जायेगी वो मार्ग आपको अपने आप मिलता जायेगा।किस प्रकार रोगी के शरीर में आप अंदर तक पहुंच कर व्याधि मूल तक पहुंचे आज से इस यात्रा पर भी निकलेंगे....*
*दोषानुसार व्याधि - यह व्याधि को समझने का पहला सूत्र है, पंचभूतों से दोष बने है जैसे
वायु = वायु + आकाश,
पित्त = अग्नि + जल,
कफ = जल+ पृ्थ्वी ।
वात को जब भी हम कहें तो आकाश तत्व उसमें मान कर चलिये और ऐसे ही पित्त में जल स्वत: मान लेना, यह शरीर में दोषों को समझने का स्थूल तरीका है, इस से आप पहली दृष्टि में ही रोगी देख कर एक अनुमान लगा लेते है कि इसकी प्रकृति या लक्षण वात पित्त कफ के हैं, द्वन्द्वज है या त्रिदोषज हैं, कौन सा दोष वृद्ध है या कौन सा क्षीण। covid 19, swine flue आदि नये नये रोग आते रहेंगे तो भयभीत नही होना क्योंकि किसी भी रोग में कोई भी लक्षण त्रिदोष से बाहर नही हो सकता, पंचभूतों से अलग त्रिदोष की रचना जो की गई उसमें एक कारण हमारे अल्पज्ञान से ये मिला कि पंचमहाभूतों का उपयोग निर्जीव और अनुपयोगी पदार्थों में अथवा संपूर्ण ब्रह्माण्ड के लिये भी किया गया है पर त्रिदोष को स्वस्थ या रोगी के जीवन से जोड़ा गया है।जितने भी रोग देखिये दोषानुसार मिलेंगे ही और जो शास्त्रों में नही मिल रहे उनका निर्माण आप स्वयं कर लीजिये ।*
*दोषों के अनुसार व्याधि को हम कैसे समझें ? हमने आपको पहले त्वचा गत वात और पित्त का सचित्र उदाहरण पहले दिया था, आगे चल कर यही त्रिदोष कुपित हो कर रक्तादि धातुओं में वृद्ध हो कर कैसे पहचाने जायेंगे ये सब साथ साथ चलेगा।*
*दूषित धातु जन्य व्याधि- प्रमेह, अर्बुद, विसर्प, मेदोरोग आदि व्याधियां, ये सब धातुगत व्याधियां है। सब से पहले लक्षण दोषानुसार देख कर आपको धातुगत विकार सरलता से समझ आने लगेंगे जैसे ये देखिये ...*
[1/9, 1:20 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*इस प्रकार की ग्रन्थियां मांस गत कफ या त्वचागत कफ का प्रतीक होती है, अगर त्वचा में स्तंभ होने पर या त्वचा श्वेत वर्ण की हो, रूक्षता ना होकर स्निग्धता के साथ शीतता हो तो उसे त्वग् गत कफ मान कर चलें। अगर व्याधि मात्र रसगत अथवा त्वग् गत है, हेतु दीर्घकालीन नही है और व्याधि नवीन है तो वह शीघ्र ठीक हो जायेगी जैसे जैसे उत्तरोत्तर रक्त, मांस या मेद में पहुंचेगी स्वस्थ होने में अधिक समय लगेगा। हम इस रोगी की इस ग्रन्थि को मेदोज ग्रन्थि मान कर चले थे क्योंकि covid 19 काल में हम रोगी प्रत्यक्ष नही देख रहे और ना ही उसके शरीर को टच करते हैं पर मात्र 6 सप्ताह में ही यह समाप्त हो गई तो सापेक्ष निदान ये मिला की यह त्वग् गत ग्रन्थि थी।*
*स्रोतसानुसार व्याधि - स्रोतस में केवल 13 स्रोतस ही नही इसके अतिरिक्त इन्हे ऐसे मानिये मनोवाही, अंबुवाही, चेतनावाही, मर्मसंज्ञक, रोमकूप, शब्दवाही, चित्तवह आदि अनेक स्रोतस को भी साथ ले कर चलें, या महास्रोतस में gall bladder, pancreas, आदि जिनका शास्त्रों में उल्लेख ना हो भी हो सब स्रोतस ही हैं, तो व्याधि की गहनता तक पहुंचेंगे।*
*प्राचीन काल में कही गई आयुर्वेद को वर्तमान संदर्भ में कैसे apply करें ? रोगी की परीक्षा करने पर और history ले कर लक्षण मिल गये पर अनेक बार रोगी ठीक प्रकार से आपके अनुरूप रोग को व्यक्त नही कर पा रहा मगर उसके पास investigations की reports है तो यह निदान में सहायक हो जाती हैं जिसके अनुसार भी दोष-दूष्य-स्रोतस का ज्ञान आपको हो जाता है। इसके कुछ उदाहरण देखिये ...*
*B/L renal cyst = मूत्रवाही स्रोतस की दुष्टि, स्रोतस का संग दोष*
*prostatomegaly - शुक्रवाही स्रोतस का संग दोष* 👇🏿
[1/9, 1:20 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*cirrohsis of liver- रक्तवाही स्रोतो अवरोध जिनका मूल यकृत प्लीहा और रक्तवाही धमनियां है । सामान्यत: यह माना जाता है कि स्रोतोवरोध या संग दोष आम के कारण ही होता है पर ऐसा नही है, अन्य ऐसे भी कारण है जैसे यहां पर स्रोतस का संकोच, stricture urethra में भी यही हो रहा है* 👇🏿
[1/9, 1:20 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*स्रोतस में किसी कारण से शोथ हो जाये, यह अचयपूर्वक या बिना आमदोष के भी हो सकता है,किसी स्रोतस का क्षय हो जाये जैसे stricture urethra, ovaries का संकोच हो, स्रोतस में ग्रन्थि किसी कारण से बन जाये जैसे ut.fibroids, अनेक बार overies या गर्भाश्य ही निकाल दिया जाता है आदि अनेक कारण हैं जो स्रोतोवरोध या इनकी दुष्टि का कारण बनते है।*
*portal hypertension - यह भी रक्तवाही स्रोतस का संग दोष है।*
*👇🏿 cirrohsis of liver के साथ massive ascitis रक्तवाही स्रोतस के साथ अंबुवाही स्रोतस की दुष्टि बता रहा है । इसे अब कैसे समझेंगे ! रक्तवाही स्रोतस पित्त, ascitis कफ और पक्वाश्य जो वात का स्थान है वहां तक इस अंबु का संचय तो ऐसी स्थिति को त्रिदोषज और जीर्ण व्याधि तथा कष्टसाध्य मान कर चलें जो असाध्य भी संभव है। शोथ या जलोदर किसी व्याधि में आये तो उसे उपद्रव मानिये और यह जान लीजिये कि स्थिति गंभीर है।*
[1/9, 1:20 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
व्याधि के मूल स्थान को अगर पकड़ ले तो चिकित्सा बहुत सरल हो जाती है, प्राणवह स्रोतस का मूल ह्रदय और महास्रोतस है।*
*'क्षयः स्थानं च वृद्धिश्च दोषाणां त्रिविधा गतिः, ऊर्ध्वं चाधश्च तिर्यक्च विज्ञेया त्रिविधाऽपरा, कोष्ठशाखा मर्मास्थिसन्धिषु, इत्युक्ता विधिभेदेन दोषाणां त्रिविधा गतिः' ।
च सू 17/112-113
वात, पित्त और कफ इनकी शरीर में गति तीन प्रकार से है -
1 क्षय, स्थान और वृद्धि
2 उर्ध्व, अध: और तिर्यक और
3 कोष्ठ, शाखा, मर्म, अस्थि और सन्धि ।
चक्रपाणि ने स्थान को अपने मान, परिमाण अथवा उनकी समानता में रहना लिखा है और अन्य मत गति प्रकार या अवस्था, स्थिति और स्वरूप भी ग्रहण किया है।
उर्ध्व गति में उर्ध्वग रक्तपित्त छर्दि आदि,
अधोग में अतिसार, संग्रहणी आदि सहित अधोग रक्तपित्त भी,
तिर्यग् गति में ज्वर, शूल, मंदाग्नि, आध्मान आदि हैं।*
*यहां सूत्र में जो कोष्ठ लिखा है उसका उल्लेख चरक शारीर अध्याय 7 में 15 अंगों का ग्रहण है, नाभि ह्रदय क्लोम यकृत प्लीहा दोनोवृक्क बस्ति पुरीषाधार आमाश्य पक्वाश्य उत्तर गुद अध: गुद क्षुद्रान्त्र स्थूलान्त्र और वपावहन।
शाखाओं में रक्त मांस मेद अस्थि मज्जा शुक्र और त्वचा तथा मर्मास्थि संधि में बस्ति, ह्रदय आदि मर्म एवं अस्थि संधियां।*
*महास्रोतस और कोष्ठ एक ही बात है ' त्रयो रोगमार्गा इति-
शाखा, मर्मास्थिसन्धयः, कोष्ठश्च । तत्र शाखा रक्तादयो धातवस्त्वक् च, स बाह्यो रोगमार्गः; मर्माणि पुनर्बस्तिहृदयमूर्धादीनि, अस्थि सन्धयोऽस्थि संयोगास्तत्रोपनिबद्धाश्च स्नायुकण्ड१राः, स मध्यमो रोगमार्गः; कोष्ठः पुनरुच्यते महास्रोतः शरीरमध्यं महानिम्नमामपक्वाशयश्चेति पर्याय शब्दैस्तन्त्रे, स रोगमार्ग आभ्यन्तरः'
च सू 11/48
इसमें आमाश्य और पक्वाश्य दोनों आते है । प्राणवह स्रोतस जिसमें प्राणों का या प्राण वात का वहन हो रहा है और उसका मूल महास्रोतस जिसमें 15 अंग है तो प्राणवात पर भी इन सभी अंगों की क्रिया का प्रभाव पड़ेगा यहां तक कि मल-मूत्र का वेग धारण भी ह्रदय रोग या श्वास रोग करेगा।श्वास पित्त स्थान समुद्भव व्याधि है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देते हैं आपको।*
*1992 या 1993 में अमरीका में मैं और स्व.वैद्य बृहस्पतिदेव त्रिगुणा जी साथ ही थे तो उन्होने बताया कि वे श्वास रोगियों को अगर कोई औषध ना मिल पाये तो मिश्री में काला नमक मिलाकर चाटने के लिये देते है और लाभ मिल जाता है। मधुर और लवण का मिश्रण, हम अनेक श्वास रोगियों को आज भी अनेक बार मात्र सितोपलादि चूर्ण दिन में तीन बार मधु और घृत मिलाकर तथा भोजन के बाद दोनों समय शिवक्षार पाचन चूर्ण देते हैं ये पूरा काम करता है।*
*अनेक बार इसके साथ आरोग्य वर्धिनी 500 mg से 1 gm दो बार दें तो और अच्छा और शीघ्र कार्य होता है तथा कुछ ना रोगी के घर में उपलब्ध हो तो एक बढ़ी इलायची ले कर तवे पर उसके बीज roast करिये गर्म बीजों को ही slab पर रखकर बेलन से यवकुट सदृश चूर्ण बना लीजिये और इसमें थोड़ा मधु और काला नमक मिला कर चाटने को दीजिये, instant लाभ देता है। आयुर्वेद को चाहे राजसी चिकित्सा बना कर costly बना दें या सरल सुलभ और घरेलू सस्ते योग भी वो ही परिणाम देंगे। आयुर्वेद कभी लुप्त इसीलिये नही हो पाया कि इसकी चिकित्सा तो हर घर में और हर किसी के पास भी उपलब्ध है।*
*व्याधि प्राणवह स्रोतस की मूल कोष्ठ में पित्त स्थान और चिकित्सा कितनी सरल, बस पथ्य अपथ्य का ज्ञान होना चाहिये और मूल की व्यवस्था कैसे की जाये ये ज्ञान आवश्यक है।*
*•••• to be continue..*
[1/9, 3:29 AM] Shekhar Goyal Sir Canada:
🙏🙏
[1/9, 5:23 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai:
🙏👍🙏👍🙏
[1/9, 6:44 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
🙏 नमो नमः।
वैद्यराज आचार्य श्री सुभाष शर्मा जी !
ज्ञान गंगा अविरत बहति रहे और मेरे जैसे को स्नान एवं आचमन का अवसर मिलता रहे ।🙏
[1/9, 11:34 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
आयुर्वेद से आप सब की एक लय बनी रहे बस यही प्रयास है ।🌹🙏
[1/9, 11:40 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
नई पीढ़ी भी आयुर्वेद को किस प्रकार रोग निदान, चिन्तन, जीवन और चिकित्सा के हर क्षेत्र में apply करे तथा यहां तक कि सोचे और बात भी करे तो आयुर्वेद की भाषा में तो बहुत कुछ संभव है, हमारे यहां अनेक विद्वान आयुर्वेद में बहुत बढ़े कार्य कर रहे हैं पर उसका श्रेय दूसरी पैथी के लोग ले रहे हैं।* ❤️🌹🙏
[1/9, 12:02 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
अन्य सभी विद्वानों का भी ह्दय से आभार 🌹🌺🙏*
[1/9, 2:09 PM] Dr.Bhadresh Naik Gujarat:
Respected sir !
Selections of medicine is key of success.
Please guidelines about right medicine on right time to manage completed disorder🙏
[1/9, 2:33 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*आदरणीय आचार्य भद्रेश जी, आजकल दिल्ली में बहुत cold है, washroom का पानी और seat भी इतनी ठंडी होती है कि लोग विरेचन या शोधन से डरते हैं तो हम अपनी चिकित्सा में चिकित्सा सूत्र और औषध कल्पनायें ही बदल देते हैं, अगर ऐसा नही करेंगे तो रोगी औषध त्याग देगा। चिकित्सा को युक्ति इसीलिये कहा है।इतनी सर्दी में शरीर की absorption power बढ़ जाती है, क्षुधा अच्छी होती है और 3-4 kg तक लोग wt. gain करते हैं, रेचक औषधियां भी उतना कार्य नही करती और कई बार उनसे रोगी को gripping pain होता है और अधिक उष्ण औषधियां अर्श, भगंदर, त्वक् कंडू आदि का भी कारण बन जाती है।*
*अत: औषध देश, काल, सात्म्य, बल आदि और सब से महत्वपूर्ण युगानुरूप महत्व समझ कर दीजिये तो सदा सफलता मिलेगी, जैसे इन दिनों में हम पित्ताश्य अश्मरी के रोगी नही लेते क्योंकि वह आजकल नही निकलेगी। यह सब अनुभव से ज्ञात होता है।*
[1/10, 11:12 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*नमस्कार डॉ शेखर जी, बाहर से दिखने में एक जैसी स्थितियां वस्तुत: हैं अलग क्योंकि अंदर व्याधि की प्रक्रिया भी अलग घटित हो रही है और चिकित्सा भी अलग होगी, स्रोतोदुष्टि में सब से प्रधान और अधिक मिलने वाली दुष्टि संग दोष है, इसको समझे बिना आप आयुर्वेद चिकित्सा कर ही नही सकते। संग अर्थात मार्ग में रूकावट या स्रोतस का अवरोध है जिसके कारण दोष, धातु, उपधातु, मल, मूत्र और स्वेद आदि का वहन नही हो पाता। जो वाक्य अधिकतर आप आयुर्वेद में सुनते हैं कि 'एक देशे वृद्धि अन्य देशे क्षय' उसका मूल कारण भी संग दोष है। इसका उदाहरण रोगों में प्रथम और प्रधान ज्वर है जिसमें आम उत्पत्ति के कारण आमाश्य में अग्नि का क्षय होता है पर दूसरे क्षेत्र सर्व शरीर गत त्वक में अग्नि या तापमान की वृद्धि होती है।*
*स्रोतस में 4 प्रकार की विकृति होती है
1 अति प्रवृत्ति जैसे अतिसार में मल, प्रमेह में मूत्र, रक्तपित्त में रक्त या प्रदर को समझ ले।*
*2 संग - इसका अर्थ ऊपर लिख ही चुके है, यह किसी प्रकार के आघात, trauma injury आदि से अथवा जैसे माना जाता है कि संग दोष आम के कारण ही होता है पर ऐसा नही है, अन्य ऐसे भी कारण है जैसे स्रोतस का संकोच, stricture urethra में भी यही होता है। अधिकतर व्याधियों में विमार्गगमन का कारण संग दोष है।*
*3 विमार्ग गमन - दूष्य जब अपने स्रोतस से बाहर निकलते हैं तो यह विमार्गगमन है जैसे शाखाश्रित कामला या जलोदर में होता है।*
*4 सिराग्रन्थि - इसमें अव्यव या स्रोतस के structure में विकृति हो कर वह या कुछ भाग ग्रन्थि स्वरूप बन जाता है।*
*प्रथम व्याधि ज्वर शास्त्रों में बताई गई है ये चिकित्सा की नींव या आधार है जो इसको अगर जान लें तो आप इसके आधार भूत सिद्धान्तों से अनेक रोगों को समझ कर चिकित्सा कर सकते हैं, संग दोष का मूल आम जो अधिकतर व्याधियों का प्रधान कारण, आम से संग और दोषों का विमार्ग गमन, किसी भी भी व्याधि में संग दोष मिले तो सर्वप्रथम आम का चिंतन करे, आम की चिकित्सा अवश्य करिये जैसे पहले दीपन, पाचन, महास्रोतस के रोगों में इनके बाद अनुलोमन, भेदन, शाखाश्रित दोषों को कोष्ठ में ला कर यही क्रिया करें और स्रोतों का शोधन कर के धातुसाम्यता लायें ये सब इसलिये आवश्यक है कि दोष और दूष्यों का संग दोष से अवरोध हो गया है और इनकी स्वाभाविक गति में अवरोध होने से उत्तरोत्तर धातुओं का भी निर्माण नही होगा। ये सब practically समझा और कैसे जाये ? इसे अंशांश कल्पनानुसार दोष, दूष्य, स्रोतस, उनकी दुष्टि, अग्नि आदि से जाना जायेगा क्योंकि ये इन सब को और दोष-दूष्य सम्मूर्छना को जानने के साधन या आधार हैं।*
*आयुर्वेद को गहराई तक समझना है तो आपको एक जैसी अवस्थाओं में होने वाली प्रक्रिया भिन्न मिलेगी जो बाहर से दिखने में एक जैसी लग रही हैं पर हैं अलग, जैसे अवरोध या रूकावट संग से भी मिलेगा और आवरण से भी, पर दोनों स्थिति अलग है और चिकित्सा भी। ऐसे ही दोषों की गति प्रतिलोम होना, आश्यापकर्ष और विमार्गगमन ये तीनों स्थिति बाहर से एक सदृश लग रही है पर तीनों अलग है।*
*अनेक बार औषध, पथ्य आदि उचित होने के बाद भी व्याधि इसलिये ठीक नही होती कि था तो आश्यापकर्ष और चिकित्सा विमार्गगमन की की जा रही थी अथवा था संग दोष और चिकित्सा आवरण की करी गई।*
*यह बढ़ा और सूक्ष्म ज्ञान है रोग निदान और चिकित्सा का जिसे जान लें तो अनेक गंभीर रोग भी सरलता से ठीक हो सकते हैं।*
[1/10, 11:17 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
आवरण स्रोतस में होने वाली कौन सी दुष्टि है ?
'अतिप्रवृत्तिः सङ्गो वा सिराणां ग्रन्थयोऽपि वा,विमार्गगमनं चापि स्रोतसां दुष्टिलक्षणम्।'
च वि 5/24
स्रोतस में किस का वहन हो रहा है ?रसादि धातुओं का, यहां चक्रपाणि ने संग दोष पर 'संगोऽपि रसादेरेव' अर्थात संग रसादि धातुओं का ही होता है।पर आवरण में तो अनेक स्थानों पर धातु है ही नही जैसे एक वात का दूसरी वात से आवरण, दोषों का आपस में आवरण । अत: आवरण और संग को एक जैसा या पर्यायवाची मत मानिये क्योंकि दोनों की चिकित्सा बिल्कुल अलग होती है।*
*च चि 28/246 में
'क्षयं वृद्धिं समत्वं च तथैवावरणं भिषक्, विज्ञाय पवनादीनां न प्रमुह्यति कर्मसु'
वात, पित्त और कफ के क्षय, वृद्धि और समता को जानकर और इनके आवरण की स्थिति को जानकर चिकित्सा करने वाला कभी चिकित्सा में मोहित नही होता। चक्रपाणि इसे स्पष्ट करते हैं कि 'क्षयमित्यादौ आवरणमपि क्षयवृद्धिसम्बन्धान्तर्निर्दिष्टमेव, तथाऽप्यावरणस्य विशेषलक्षणचिकित्सार्थं पृथगभिधानम्|
कर्मस्विति चिकित्सासु'
अर्थात आवरण भी क्षय, वृद्धि संबंधों के अंदर ही कहा गया है पर आवरण का विशेष लक्षण चिकित्सा करने के लिये पृथक रूप से कहा है।*
[1/10, 11:37 PM] Shekhar Goyal Sir Canada:
गुरुवर आप के हमेशा ऋणी रहेंगे. आपने जो पत्थरों को तराशने का काम शुरू किया है आप समझ सकते हैं कि कितनी मेहनत लग रही है आपको । अगर कोई गलती हो तो please क्षमा कर देना 🙏एक एक शब्द इतना गूढ़। है समझना कठिन हो जाता है । लेकिन आपके आशीर्वाद से मुमकिन हो रहा है. लगने लगा है कि सीखना अब शुरू किया है. बहुत बहुत धन्यवाद. 🙏🙏
[1/10, 11:53 PM] Shekhar Goyal Sir Canada:
गुरुवर जैसे आपने बताया portal hypertension में rakatvahi strotas का संग दोष तो क्या इसे ऐसे समझे ? Arteries की wall ki thickness ज्यादा होने से blood flow ka zyada hona ya khar gun की vajah से जो flow mein block aa raha है और pressure बड़ रहा है वह संग दोष है? 🙏🙏
[1/11, 12:03 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*जी हां, pressure तभी बनेगा जब मार्गावरोध या संग दोष होगा।*
[1/11, 12:12 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
सामान्यत: संग आम से ही होता है पर कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में जैसे कोई आघात हो जाये या क्षय की अवस्था जैसे stricture urethra में भी संग हो रहा है जो बिना आम के है, अनेक बार जन्म से ही संग दोष भी मिल सकता है जैसे बच्चों में होने वाला बद्धगुदोदर पर यह स्थितियां प्राय: कम मिलती है।*
*आयुर्वेद दो प्रकार से मिलेगी एक तो ग्रन्थों में और दूसरा clinical practice में, दोनो को एक बनाना ही हमारा उद्देश्य है, अत: आप सभी नि:संकोच अपने प्रश्न कर सकते हैं।*
[1/11, 12:16 AM] Dr.prajakta Tomar Indore:
तो क्या संग और दोष वृद्धी भिन्न है
[1/11, 12:24 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
stricture urethra धातु क्षय से है तो क्या हम ये मान लें कि क्षय और संग एक हैं ? नही ना , ऐसे ही हर वृद्धि भी संग नही है पर वृद्धि से संग संभव है ।*
[1/11, 12:26 AM] Dr.prajakta Tomar Indore:
🙏🏻🙏🏻
[1/11, 12:37 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*इसे उदाहरण सहित समझना है तो अस्थि वृद्धि के लक्षण देखिये अस्थि भेद, केश, लोम, नख, श्मश्रु के रोग उत्पन्न हो रहे हैं जिनमें अधिकतर संग दोष नही है।*
[1/11, 12:39 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*शुक्र की वृद्धि होने पर शुक्र की अति प्रवृत्ति मिल रही है संग नही। अत: इस विषय को समग्रता से लें।
[1/11, 12:42 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
धातुओं की वृद्धि दो प्रकार से मिलेगी प्राकृत और वैकृत, ये चर्चा का बढ़ा और गंभीर विषय है ।*
[1/11, 12:48 AM] Dr.prajakta Tomar Indore:
This implies to doshas also
[1/11, 12:53 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*जी , डॉ तोमर जी । यह दोषों में भी है पर किसे प्राकृत और किसे वैकृत माना जाये यह प्रत्येक मनुष्य पर अलग अलग निर्भर है। आयुर्वेद जीवात्मवाद पर आधारित है कि हर चेतना 24 तत्वों के साथ अलग प्रारब्ध, कर्म, प्रकृति आदि के साथ अलग है।*
[1/11, 12:55 AM] Dr.prajakta Tomar Indore:
जी सर🙏🏻
[1/11, 12:55 AM] Dr Mansukh R Mangukiya Gujarat:
गुरुवर
आवरण और संग हमेशा गुथ्थि की तरह उलझा देते थे। आज मनोवहस्रोतस का आवरण दूर कर दीया है।
धन्यवाद 🙏
[1/11, 1:09 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*अभी तो बहुत से ऐसे विषय है जिन्हे मात्र examinations में उत्तीर्ण होने के लिये पढ़ाया गया पर अधिकतर लोगों की समझ से बाहर है और इसीलिये आयुर्वेद की चिकित्सा में लोग उलझ जाते है जैसे व्याधि संकर, आश्यापकर्ष इत्यादि। जब इनको नही समझेंगे तब तक पूर्ण चिकित्सक नही बन सकते। वास्तविक आयुर्वेद बहुत गूढ़ और practical है बहुत परिश्रम चाहिये इसे समझने के लिये और इसे समझने का कोई shortcut नही है। इन सब को आवरण, संग, व्याधि संकर, आश्यापकर्ष, दोष-धातुओं की प्राकृत और वैकृत स्थिति आदि आदि से ही आप differential diagnosis कर सकते है जो चिकित्सा का महत्वपूर्ण घटक है। ग्रन्थों में वर्णित आयुर्वेद रोगी में कहां और कैसे apply की जाती है इसका clinical ज्ञान आवश्यक है।आयुर्वेद बहुत बढ़ा चिकित्सा विज्ञान है, मात्र आवरण और संग दोष पर ही चिकित्सा का एक अलग विभाग बनता है।*
[1/11, 1:09 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
🌹🙏
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
Presented by
Vaidyaraj Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
ShrDadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
B. A. M. S.
ShrDadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by
Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
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