[12/5/2020, 1:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*क्लिनिकल आयुर्वेद - भाग 6*
(5-12-20)
*2 - विकल्प सम्प्राप्ति - *
*साधारण भाषा में मान लीजिये कि यह दोषों की अंशांश कल्पना है,
'दोषाणां समवेतानां विकल्पोंऽशांशकल्पना' अ ह नि 1/10 दोषों रूक्ष, शीत, उष्ण, स्निग्धादि अंश हैं, इनमें किसका बल अधिक है या अल्प है ये कल्पना विकल्प सम्प्राप्ति है। इसी से व्याधि की द्वन्द्वज और त्रिदोषज स्थिति का आभास होता है, इसका चिकित्सा में बहुत अधिक महत्व है और विकल्प सम्प्राप्ति रोगी के रोग का भविष्य निर्धारित करने में बहुत सहायक है।*
*अंशांश कल्पना के लिये दोषों के नैसर्गिक गुण जो कभी नही बदलते और उनकी उत्पत्ति के आधार-भूत महाभूतों का ज्ञान आवश्यक है और यही चिकित्सा का आधार बनता है, इनका उल्लेख इस प्रकार है , इसे हम बार बार इसलिये बताते हैं कि इसे आप कंठस्थ कर लीजिये क्योंकि यही चिकित्सा का आधार बनेगा ...*
*वात
'रूक्षः शीतो लघुः सूक्ष्मश्चलोऽथ विशदः खरः' *
*पित्त
'सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमम्लं सरं कटु|'*
*कफ 'गुरुशीतमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः*
*च सू 1/59-61*
*वात - वात+ आकाश*
*पित्त - अग्नि+जल*
*कफ- जल +पृथ्वी*
*वात ........*
*रूक्ष - वायु महाभूत, भा प्र ने वायु+ अग्नि *
*लघु - आकाश+वायु+ अग्नि भी मानते हैं क्योंकि अग्नि अस्थिर है।*
*शीत - जल+वायु + पृथ्वी को भी साहचर्य भाव से मानते हैं।*
*विशद- पृथ्वी, अग्नि,वायु और आकाश*
*खर - पृथ्वी+ वायु*
*सूक्ष्म - वायु+आकाश+ अग्नि*
*पित्त ......,*
*उष्ण - अग्नि महाभूत*
*तीक्ष्ण - अग्नि महाभूत*
*सर - जल*
*कटु - वायु+अग्नि*
*द्रव - जल*
*अम्ल - पृथ्वी+अग्नि (जल + अग्नि = सुश्रुत)*
*कफ .......*
*गुरू - पृथ्वी + जल*
*शीत - जल+वायु + पृथ्वी को भी साहचर्य भाव से मानते हैं।*
*स्निग्ध - जल महाभूत, जल+पृथ्वी (सुश्रुत)*
*मधुर - जल+पृथ्वी*
*स्थिर - पृथ्वी *
*मृदु - जल+ आकाश*
*पिच्छिल - जल*
*किसी रोगी ने हिंगु का अधिक प्रयोग कर लिया तो यह पित्त के तीन अंशों की वृद्धि करेगी, उष्ण, तीक्ष्ण और कटु और यह ज्ञान होते ही इसके विपरीत अंशों का प्रयोग करिये।*
*तिल उष्ण है तो पित्त के उष्ण अंश की वृद्धि करेगा अत: ग्रीष्म ऋतु में प्रयोग ना करे, रक्तातिसार, रक्तपित्त, ul colitis, आमाश्य के व्रण में प्रयोग ना करे क्योंकि वहां पहले ही उष्ण गुण बढ़ा हुआ है।*
*कमल ककड़ी (कमलनाल) जल में ही उत्पन्न होती है और शीत गुण प्रधान है अत: कफज विकारों में मत दीजिये क्योंकि कफ के शीत अंश की वृद्धि करेगी।*
*मद्यपान वाले, विशेषकर जो whisky, rum, vodka का सेवन करते हैं वो चाहे इसमें जल और ice कितना ही अधिक मिला लें यह पित्त के सभी अंशों की वृद्धि करेगी ही।*
[12/5/2020, 1:23 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*रोगी से हेतु अर्थात जो भी निदान मिले उस से दोष वृद्धावस्था में आ गये, यहां यह ध्यान रखना कि संपूर्ण दोष नही बढ़ा, जैसे वायु के प्राकृत गुण रूक्ष शीत लघु सूक्ष्म चल विशद और खर है तो लंघन जो वात प्रकोप होने का प्रमुख कारण है उस से सभी मनुष्यों में लंघन से वात के सभी अंश एक साथ नही वृद्ध होगे क्योंकि सभी की गर्भ में बनी प्रकृति, जन्मोत्तर प्रकृति और रोगी ने जब लंघन किया उस समय तात्कालीन दोषों की स्थिति क्या थी इस पर निर्भर करता है तो वात के एक या दो ही अंशों की वृद्धि होगी, हेतु सर्वप्रथम दोषों को एक तो समावस्था में नही रहने देगा उन्हे प्रकुपित करेगा , शरीर के दूष्यों को दूष्य धातु ही नही हैं उपधातु और मल भी हैं, विकृत करेगा और खवैगुण्य लायेगा तो यहां हमें हेतु से तीन बाते मिली ग्रन्थों में रोगों के जो अनेक हेतु या निदान मिलते हैं उनमें सभी निदान एक जैसा कार्य नही करते कुछ दोषों के कुछ अंशों की वृद्धि करते है, कुछ धातुओं को शिथिल करेंगे और कुछ खवैगुण्य लाते हैं अगर हेतु दोषोंको प्रकुपित करेगा तो यह प्रकोप दोषों के चय से भी हो सकता है और अचय से भी।*
*जब भी रोगी आपके समक्ष आता है तो लक्षणों से दोषों का ज्ञान होता है पर इस ज्ञान को और सूक्ष्मता में ले जा कर यह ढूंडिये की इस लक्षण में दोष के कौन से अंश बढ़े हुये हैं ? यह ज्ञान आपको सापेक्ष निदान में भी सहायता देगा, स्रोतस में किस प्रकार की विकृति है जैसे अति प्रवृत्ति है या संग दोष है ? औषध चयन में भी सहयोग देगा। रोगी के हेतु में जो भी आहार लिया गया है वो षडरस ही है और किस रस में किस महाभूत से उसकी उत्पत्ति हुई है ये ज्ञान अति आवश्यक है ..*
*1- मधुर - पृथ्वी + जल *
*2- अम्ल - पृथ्वी +अग्नि (चरक ) जल +अग्नि ( सु) *
*3- लवण - जल +अग्नि ( चरक) पृथ्वी +अग्नि सुश्रुत*
*4- कटु - वायु +अग्नि *
*5- तिक्त -.वायु +आकाश*
*6- कषाय - वायु + पृथ्वी *
*रसो के महाभूतों का ज्ञान विकल्प सम्प्राप्ति में आपके बहुत काम आयेगा।*
*जब रोगी आपके समक्ष आता है तो उसके लक्षण देखते ही अनेक प्रश्न चिकित्सक के मन में ही आते हैं क्योंकि विभिन्न स्रोतस संलिप्त है तो इसकी सुविधा के लिये लक्षणों को धातु, उपधातु और स्रोतस से मिला कर चलें, दोष साथ में संलग्न है ही और अंशाश कल्पना में आप प्रवीण हो जायें तो आपका निदान सरल होता जायेगा जैसे रोगी की सब से पहले आप त्वचा को देखें यहां वात, पित्त, कफ में से कौन सा दोष प्रकुपित है इसका निदान इन लक्षणों से करें...*
*त्वचा में कुपित वात - रूक्षता लायेगी, जिस प्रकार रूक्ष ठंड का प्रकोप इन दिनों में चल रहा है तो स्फुटित त्वचा मिलेगी, कुछ रोगियों में त्वचा में numbness मिलेगी जिसके लिये वो त्वचा सुन्न हो जाती है या कोई sensations नही मिलती ऐसे शब्दों का प्रयोग करेंगे, रोगी देखते ही कृश मिलेगा, कुछ रोगी सुई सी चुभती है ऐसे शब्दों का प्रयोग करेंगे, यदि कोई कहे कि कुछ समय से त्वचा या complexion dark या कृष्ण वर्ण का होता जा रहा है, कुछ रोगियों को प्रतीत होता है जैसे त्वचा अपने स्थान से फैल रही है, त्वचा में पीड़ा सी प्रतीत हो, कुछ रोगियों की त्वचा में दूर से देखने से स्फुरण मिलेगा, कई बच्चों में एवं बढ़ों में भी गुदा की त्वचा में कंडू सी मिलेगी तो इन्हे त्वचा में स्थित कुपित या वृद्ध वात मान लेना।*
[12/5/2020, 1:24 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*त्वचा में कुपित पित्त- इसका उल्लेख हम विस्तार से पिछले case presentation में कर के आये हैं कि रस या त्वचा में कुपित पित्त एवं रक्त में कुपित पित्त में कैसे भेद करे ?
'स्वेदो रसे लसिका रूधिरमामाश्यश्च पित्तस्थानानि तत्राप्यामाश्यो विशेषेण पित्तस्थानम्'
च सू 20/8
स्वेद, रस, लसिका, रक्त और आमाश्य ये पित्त के स्थान है और विशेषकर आमाश्य है । इसी महारोगा अध्याय में नानात्मज पित्तज विकार 40 इस प्रकार बताये गये हैं' ओषश्च, प्लोषश्च, दाहश्च, दवथुश्च, धूमकश्च, अम्लकश्च, विदाहश्च, अन्तर्दाहश्च, अंसदाहश्च१, ऊष्माधिक्यं च, अतिस्वेदश्च, अङ्गगन्धश्च, अङ्गावद२रणं च, शोणितक्लेदश्च, मांसक्लेदश्च, त्वग्दाहश्च, मांसदाहश्च, त्वगवदरणं च, चर्मदलनं च, रक्तकोठश्च, रक्तविस्फोटश्च, रक्तपित्तं च, रक्तमण्डलानि च, हरितत्वं च, हारिद्रत्वं च, नीलिका च, कक्षा(क्ष्या)च, कामला च, तिक्तास्यता च, लोहितगन्धास्यता च, पूतिमुखता च, तृष्णाधिक्यं च, अतृप्तिश्च, आस्यविपाकश्च, गलपाकश्च, अक्षिपाकश्च, गुदपाकश्च, मेढ्रपाकश्च, जीवादानं च,तमःप्रवेशश्च, हरितहारिद्रनेत्रमूत्रवर्चस्त्वं च; इति चत्वारिंश त्पित्तविकाराः पित्त विकाराणामपरिसङ्ख्येयाना माविष्कृततमा व्याख्याताः '
च सू 20/14
के संदर्भ में यह विस्तार से स्पष्ट किया है कि जिन विकारों का वर्णन यहां नही है अगर पित्त का ना बदलने वाला स्वरूप और कर्म पूर्वरूप या आंशिक रूप में भी मिले तो चिकित्सक को दृढ़ता पूर्वक कहना चाहिये कि यह पित्तज विकार है, विस्फोट और मसूरिका को अष्टांग संग्रह कार ने त्वचा में आश्रित कुपित पित्त के अन्तर्गत लिया है और जिन पित्तज विकारों का नाम नही है उनका नामकरण हम स्वयं भी रख सकते हैं क्योंकि यह पित्तज विकार अपरिसंख्येय हैं।*
*त्वचा में कुपित कफ - त्वचा में श्वेतता मिलेगी, एक जकड़न सी या स्तम्भ मिलेगा, त्वचा शीतल होगी, जिव्हा श्वेताभ या मलिन होगी,पर लेप सा प्रतीत होगा।*
*त्वचा अथवा रस धातु गत कुपित दोष के लक्षण एक ही मान कर चलिये।*
*अभी आगे हम विभिन्न रोगियों की investigation reports के उदाहरणों सहित इन विषयों को और स्पष्ट करते जायेंगे।*
[12/5/2020, 9:24 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir:
प्राण
आयतन स्थिति
मर्म स्वाभाविक स्थिति
प्राण प्रतिष्ठिता - प्रतिष्ठा (आयतन)
प्राण स्थिति - स्वभावतः (मर्म परिप्रेक्ष्य)
वात दोष भेद
प्राण वायु- ह्रदय स्थिति मर्म + आयतन
उदान वायु - कंठ स्थिति
समान वायु - नाभि स्थिति मर्म + आयतन
अपान वायु - गुद स्थिति गुद मर्म+ गुद प्राणायतन
व्यान वायु - सर्व शरीर
प्राण प्रतिष्ठित होना
स्वभाव से स्थित होना ( मर्म)
संभवत वात दोष के पंच भेद की स्थिति मूलतः प्राणायतन या मर्म है ।
प्राणायतन या मर्म में स्थित होने के कारण वात दोष के भेद संभवत पँच आत्मा, पंचप्राण से विदित होता है ।
सामान्य अर्थ में
आयतन स्थिति कार्यकारी स्थल (आफिस)
मर्म स्वाभाविक स्थिति ,( गृह)
[12/5/2020, 2:01 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
सादर नमन आचार्य गिरिराज जी, धन्य है काय सम्प्रदाय जो शारीर विशेषज्ञ के रूप में आप जैसा गुरू यहां मिला। यही सिद्धान्तों को समझने का वास्तविक स्वरूप है इसी प्रकार से शरीर में एक network बनाया जाता है जिसमें दोषों की अंशाश कल्पनायें साथ चलती है और जैसा मैं कई बार कहता हूं कि दोष 5 नही 15 मानिये तो यह network पूरा बन जाता है जिसमें स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार अपान वायु के निर्हरण से प्राण और व्यान वायु प्रभावित होती हैं और शिर:शूल और श्वास कृच्छता दूर होती है।*
[12/5/2020, 2:08 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir:
Naman !
[12/5/2020, 2:10 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
1975 में BAMS में admission लिया था अब तो आयुर्वेद में 45 वर्ष से अधिक हो गये और काय चिकित्सा में जामनगर से MD करने के बाद घर में एक बढ़ा black board ला कर रखा जिस पर दिन रात बिना भोजन किये पागलों की तरह आयुर्वेद को जानने के लिये चिकित्सा के सूत्र गणित सूत्रों की तरह बनाया करता था, 15 दोष, धातु, उपधातु सिरा, स्नायु, कंडरा, मल , स्रोतस मूल, स्रोतस, अग्नि आदि आदि । ह्रदय मन का स्थान, संचालन का केन्द्र मस्तिष्क जिनसे मिलकर ये पूरा एक network स्थापित हो जाता है और हर तत्व दूसरे तत्वों और केन्द्रों से जुड़ा हुआ है, दूसरे से प्रभावित होता है और करता है वो स्रोतस के माध्यम से।*
[12/5/2020, 2:12 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
ये सब ग्रन्थों में भिन्न भिन्न स्थानों पर सूत्र रूप में है, शारीर के तल पर, दोष धातु मलादि एवं अव्यवों के तल पर, रसादि और द्रव्यों के तल पर भी जैसे चरक में देखें .. 63 रस और स्नेह की 64 प्रविचारणायें...*
*रसैश्चोपहित: स्नेह: समासव्यासयोग्भि: षड्भिस्त्रिषष्ट्धा संख्यां प्रयोज्या प्राप्नोत्येकश्च केवल:, एवमेताश्चतु:षष्टि: स्नेहानां प्रविचारणा: ओकर्तुव्याधिपुरीषान् प्रयोज्या जानता भवेत्।
च सू 13/ 27-28
यहां पृथक पृथक और मिलाकर 6 रसों के संयोग से 63 और बिना किसी द्रव्य संयोग के अच्छपेय अर्थात केवल स्नेह पान एक और मिलाकर स्नेह की 64 प्रविचारणायें बताई गई हैं जिनका ओकसात्म्य, ऋतुसात्म्य, व्याधिसात्म्य और रोगी की प्रकृति का विचार कर के बताई गई है।*
*जो भी भोज्य, भक्ष्य, पेयादि पदार्थों के साथ देने पर प्रधान,मध्यम और ह्स्व मात्रानुसार अनेक और अनगिनत कल्पनायें बन जाती हैं और अच्छपान स्नेह ही अगर दें तो किसी विचारणा की जरूरत नही। चरक का ये 13 अध्याय हमें सीधे 26 अध्याय आत्रेयभद्रकाप्यीयाध्याय से जोड़ता है और दोनों अध्यायों का घनिष्ट संबंध है।*
*64 में से 63 कल्पनायें रसों के योग से बनी हैं...*
*अलग अलग रस - ----- 6*
*6 रसों का संयोग ------1*
*5-5 रस का संयोग ----6*
*4-4 रस का संयोग ----15*
*3-3 रस का संयोग ----20*
*2-2 रस का संयोग -----15*
-------------------= 63
*स्नेह की ये प्रविचारणायें दो भागों में विभक्त कर दी गई हैं
1 - केवल स्नेहपान जैसे केवल स्नेहपान जिसे अच्छपेय कहा है, अक्षितर्पण, नस्य,कर्ण तैल, अभ्यंजन, बस्ति, उत्तर वस्ति, अक्षितर्पण एवं
2 - भोज्य पदार्थ जैसे ओदन(चावल), रस, यवागू, सूप, शाक, विलेपी, दूध, दही, सत्तू, मद्य, लेहादि कुल 24 प्रविचारणायें हैं।*
*पिछले लगभग दो वर्षों से हम रोगियों में स्नेह प्रविचारणाओं का प्रयोग बहुत कर रहे हैं जिनमें मूंग या धुली मसूर दाल का सूप, कृशरा, ओदन, शाक, सत्तू आदि प्रमुख है। दाल के सूप, कृशरा और ओदन या शाक में रोगी प्रसन्नता से स्नेह ग्रहण कर लेता है इसे स्वादिष्ट बनाने के लिये किंचित लवण और भुना जीरा हम इसमें मिलाकर लेने के लिये कहते है जिस से मुख का स्वाद भी बना रहता है।*
[12/5/2020, 2:14 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
इसी प्रकार दोषों के तर, तम , हीन , मध्यम आदि भेदों से रोगों के निदान सूत्र बनते हैं जो किसी भी रोग की चिकित्सा में to the point कार्य करते हैं।*
[12/5/2020, 2:21 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*आयुर्वेद एक बहुत बढ़ा विज्ञान है जिसके गर्भ में चिकित्सा के अनेक रहस्य छिपे है इन्हे बाहर लाने के लिये बहुत परिश्रम, निष्ठा और आयुर्वेद के प्रति समर्पण का भाव चाहिये, आयुर्वेद को नित्य और शाश्वत इसी लिये कहा है कि इसका लिखा हर वचन सत्य है और संसार में चलेगा सदा सत्य ही। अगर आयुर्वेद की नई पीढ़ी सिद्धान्तों पर अनुसंधान करे तो इसमें इतना कुछ मिलेगा कि जीवन छोटा लगेगा।
[12/5/2020, 2:23 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
रस के भेद देखिये, हर व्यक्ति के लिये भिन्न, यह आयुर्वेद की वैज्ञानिकता रही है।*
[12/5/2020, 3:05 PM] Prof. Lakshmikant Dwivedi Sir:
Bhadant Nagarjuna pranit ,"Rasa Vaisheshik Sutra" ke teekAkAr ne 766 rasa bhed bataye, ab computer ke Yuga me,"tasya prakAra Santi kotisah".
kintu modern science se tulana ke chakkar me 4or 6 rasa biginnar ko spasta karna shramsAdhya hai.
[12/5/2020, 3:27 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
आचार्य श्री, सही कहा आपने रसों के अनगिनत भेद बनाये जा सकते है और वो भी व्यक्ति की प्रकृति के अनुरूप l हमारे यहां षडरस युक्त आहार का जो महत्व है उसके पीछे भी बढ़ा रहस्य यही है जिसमें हीन, तर और तम भाव है कि किस मनुष्य के कौन से रस की किस अवस्था में कितनी आवश्यकता है, यह ऋतु, देश,काल और बलादि के अनुसार और रोगानुसार भी है। बढ़ा ही महत्वपूर्ण और रोचक यह रस विज्ञान है क्योंकि अन्न के माध्यम से रसों का ही प्रवेश शरीर में हो रहा है।*
*आधुनिकता के 4 या 6 रस आयुर्वेद के सारे रसों को पी गये जो होना नही चाहिये।*
[12/6/2020, 2:30 AM] Shekhar Goyal Sir Canada:
गुरू जी Clinically अग्नि और पित में क्या अंतर है समझ में नहीं आ रहा ।
[12/6/2020, 2:39 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*'आहारमग्निः पचति दोषानाहारवर्जितः, धातून् क्षीणेषु दोषेषु जीवितं ढातुसङ्क्षये'
अ ह ग्रहणी चि 10/91*
*अशित, पीत, लीढ और खादित इस चार प्रकार के भुक्त आहार का पाक जाठराग्नि करती है, आहार ना मिलने पर वो धातुओं और दोषों को आहार बना कर उनको क्षीण करेगा और सब के क्षीण होने पर वो जीवन को नष्ट कर देगा।*
*वाग्भट्ट के इस सूत्र की सूक्ष्मता में जाने के लिये जब चरक में जाते हैं तो
'अग्निरेव शरीरे पित्तान्तर्गतः कुपिताकुपितः शुभाशुभानि करोति; तद्यथा- पक्तिमपक्तिं दर्शनमदर्शनं मात्रामात्रत्वमूष्मणः प्रकृतिविकृतिवर्णौ शौर्यं भयं क्रोधं हर्षं मोहं प्रसादमित्येवमादीनि चापराणि द्वन्द्वानीति'
च सू 12/11
स्पष्ट होता है कि यह जाठराग्नि पित्त के अन्तर्गत है तथा प्राकृत अग्नि शुभ और कुपित अग्नि अशुभ कर्म करेगी। उदरस्थ प्राकृत पित्त सम्यक पाचन करेगा और कुपित पित्त दुष्टि। नेत्रों में आलोचक पित्त रहता है प्राकृत रहने पर सम्यक दर्शन होगा और कुपित अदर्शन या असम्यक दर्शन इसका अभिप्राय अगर आप चश्मा लगाकर पढ़ते है या देखते हैं तो आलोचक पित्त प्राकृत नही है, यही पित्त शरीर में तापमान अर्थात उष्मा को नियन्त्रित करता है प्राकृत होगा तो body temperature सामान्य रहेगा और कुपित होने पर अति या क्षीण, कई बार त्वचा में उष्मा लगती है पर तापमान सामान्य मिलता है और इसके विपरीत भी हो सकता है तो यह सब पित्त की कुपित अवस्था है।*
*इन सब के साथ ही उपरोक्त सूत्र में सब से महत्वपूर्ण स्थिति है द्वन्द्व की जो हर पल जीवन में चलता है कि यह कार्य जो हम करने जा रहे हैं वो धर्म के अनुकूल हैं या प्रतिकूल, सही है या गलत और इसी प्रकार सुख-दुख,पाप-पुण्य, इच्छा-द्वेष आदि सहित आपका वर्ण, शौर्य, भय, क्रोध, हर्ष, मोह, प्रसन्नता ये सब प्राकृत पित्त के अधीन है। आपके पास अपार धन, वैभव और भौतिक सुख होने पर भी प्रसन्नता और हर्ष नही है तो मान लीजिये आपका पित्त कुपित है*
*इस 24 तत्वात्मक शरीर में तो यह अग्नि पित्त के अन्तर्गत है पर हमें इसके मूल को जानना है और किस किस प्रकार इसकी हमारी चिकित्सा में उपयोगिता है, अपने clinic में हम इसे कहां और कैसे apply करते हैं इसके और अधिक विस्तार में आपको ले कर चलेंगे अभी तक तो हमने यह जाना कि भय, क्रोध, द्वन्द्व आदि लेकर ही रोगी भी आते है, परिवार में और समाज या संसार में आपको लोग भी इन्ही गुणों के साथ मिलते हैं तो वो कुपित पित्त या अग्नि वाले है।जिस द्रव्य में समवाय संबंध से उष्ण गुण स्पर्श और रूप सहित रहता है उसे तेज 'उष्णस्पर्शवक्तेज:' यह कहा गया है। अगर दुग्ध या दधि अभी गर्म है अर्थात उष्ण है तो यह समवाय संबंध नही संयोग संबंध है। उष्ण दुग्ध अथवा दधि जिसे अभी बनाया गया है इसका अग्नि या तेज महाभूत अनित्य और विनाशशील है, यह कार्य रूपी अग्नि है जो स्थूल और प्रत्यक्ष है और इसे भौम तेज या भौम अग्नि भी कहते हैं।*
*यह अग्नि दो प्रकार की है एक तो सूक्ष्म या परमाणु अग्नि जो जो नित्य है तथा कभी नष्ट नही होती तथा स्थूल अपने गुणों के आग्नेय द्रव्यों को सदैव उत्पन्न करती रहती है और दूसरी अनित्य अग्नि है जो स्थूल है, आयुर्वेद में बार बार सामने आने वाले अग्नि, पित्त, अम्ल रस, अम्ली करण, संधान करण इन सब में एक कारण द्रव्य समान है वो है अग्नि। हमारा ये प्रकरण आचार्य विनोद मित्तर जी ने आमवात से आरंभ किया तो हमने भल्लातक द्रव्य बताया अब देखिये भल्लातक भी अग्नि है इसके पर्याय भा प्र हरीतक्यादि वर्ग में 'अग्निक: तथैवाग्निमुखी' कहा है तो जहां भी ग्रन्थों में इस प्रकार से मिले कि यह द्रव्य आग्नेय है, पित्तवर्धक है, अम्ल कारक है तो यह सब स्थूल, अनित्य अग्नि है, कार्यरूपी और विनाशशील है और संयोग रूप में है। *
*इस अनित्य अग्नि को जो स्थूल रूप में है जानने के लिये जब और सूक्ष्मता में जाते है तो यह तीन स्वरूपों में प्राप्त होती है...*
*1- आग्नेय शरीर - सूर्य को देखिये साक्षात अग्नि है और इसके चारों तरफ सौर मंडल में रहने वाले ग्रह और नक्षत्र चाहे हम सामान्य नेत्रों से देख भी ना पायें सब आग्नेय शरीर है।*
*2- आग्नेय इन्द्रियां - अग्नि की इन्द्रिय नेत्र है क्योंकि इस से हम रूप का ज्ञान प्राप्त करते हैं।*
*3- आग्नेय विषय - यह विषय चार प्रकार के है..*
*A- भौम अग्नि - कोयला, लकड़ी, भोजन बनाते समय जो गैस जलाई जाती है, रोशनी के लिये आप बल्ब या tube light जलायें,दिवाली या किसी त्यौहार पर बम, फुलझड़ी आदि जलाने पर जो प्रकाश उत्पन्न हुआ वो सब भौम अग्नि है।*
*B- दिव्य अग्नि - यह मनुष्य के हाथ में नही है जैसे बादल के टकराने पर बिजली चमकना, उल्कापात आदि ।*
*C- जाठराग्नि - 'विविधमशितं पीतं लीढं खादितं जन्तोर्हितमन्तरग्निसन्धुक्षितबलेन यथास्वेनोष्मणा सम्यग्विपच्यमानं...'
च सू 28/3 में चार प्रकार के आहार अशित, पीत, लीढ और खादित के पाचन में इसका उल्लेख किया गया है।*
*इस अग्नि पर चिन्तन करें तो 'पिण्ड-ब्रह्माण्ड न्याय' की सार्थकता इस शरीर में कहां पर है और रोग और स्वास्थ्य का किस प्रकार मूल है आपको अभी समझ आ जायेगी। जो भी इस ब्रह्माण्ड में सूर्य, चन्द्रमा, वायु आदि है वही आपके शरीर में भी है और आप अपने और रोगी दोनो के शरीर में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते है 'विसर्गोदानविक्षेपैः सोमसूर्यानिला यथा धारयन्ति जगद्देहं कफपित्तानिलास्तथा'
सु सू 21/7
अर्थात बाहरी जगत का चन्द्रमा कफ है,सूर्य पित्त है और वायु वात है तथा बल और शरीर को धारण करने के कारण है। जिस प्रकार चन्द्रमा अपनी किरणों से संसार को स्निग्ध और शीतल रखता है वैसे ही कफ भी शरीर को,सूर्य अपनी उष्मा रूपी किरणों से इस भूमंडल के जलीयांश को ग्रहण कर लेता है वैसे ही अग्नि या सूर्य का प्रतीक पित्त अन्न रस का ग्रहण कर लेता है। जैसे अपक्व अन्न रस से आम की उत्पत्ति, धात्वाग्नि और भूताग्नि का उदाहरण लें तो अन्न रस अपक्व रहगा तो आम उत्पत्ति का कारण बना और आमविष का शरीर में प्रसरण होने लगा, दोष कुपित हुये और संग दोष हो कर स्रोतोवरोध हो कर संधि शोथ आदि लक्षण उत्पन्न होने लगे।
'तत्र श्लेष्मलाहारसेविनोऽध्ययनशीलस्याव्यायामिनो दिवास्वप्नरतस्य चाम एवान्नरसो मधुरतरश्च शरीरमवुक्रामन्नतिस्नेहान्मेदो जनयति'
सु सू 15/37
कफ वर्धक आहार सेवन करने वाले, भोजन के पश्चात पुन: भोजन, व्यायाम ना करना और दिन में सोने से मनुष्यों का ठीक से पचन ना हुआ भोजन अर्थात अपक्व और मधुर आम रस शरीर में भ्रमण करता है।' परिणमतस्त्ववाहारस्य गुणा: शरीरगुणभावमापद्यन्ते' च शा 6/16
जाठराग्नि और धात्वाग्नियों की सहायता से अन्न रस का दोष और धातु अपने अनुरूप अपने गुणों को प्राप्त कर लेते हैं। यदि अन्न रस उनके अनुरूप और अनुकूल हैं तो शरीर में उनके गुणों की वृद्धि होगी और उनका पोषण होगा।इसको और अधिक स्पष्ट करते हुये कहा है कि 'उष्मा पचति, वायुरपकर्षति क्लेद: शैथिल्यमापादयति, स्नेहो मार्दवं जनयति,काल:पर्याप्तिमभिनिर्वर्यति, समयोगस्त्वेषां परिणामधातुसाम्यकर: सम्पद्यते'
च शा 6/15
अर्थात 13 प्रकार की जो अग्नियां है जिसमें पाचक पित्त, 5 भूताग्नि और 7 धात्वाग्नियों को वायु गति दे कर रस का अपकर्षण करता है । पाचक पित्त आहार का पाक करता है,वायु भुक्त आहार को गति दे कर अपकर्षण करता है, क्लेदक कफ उसे गीला और ढीला कर देता है, स्नेह मृदु कर देता है काल उसे पचाने में सहायक है और उष्मा उसे धातुओं में परिणत करती है लेकिन अगर अन्न रस अपक्व अर्थात आम स्वरूप ही है तो शरीर की धातुयें उसका ग्रहण नही कर सकती।जिस प्रकार बाह्य जगत में वायु मेघ, शीत, उष्ण गुणोंको प्रेरित करता है और जगत की रक्षा होती है वैसे ही शरीरस्थ वात पंगु कफ,पित्त,धातुओं और मलों को संचरण करता है, स्राव कराता है उनको गति प्रदान करता है तो जीवन चलता रहता है।*
[12/6/2020, 2:40 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*क्या है यह जाठराग्नि, कहां रहती है और कितनी मात्रा में ? क्या यही सही में पित्त भी है ?*
*अभी तक बाह्य अग्नि और शारीरस्थ अग्नि पर हमने इतनी चर्चा की यह जिज्ञासा सुश्रुत मे भी हुई
'तत्र जिज्ञास्यं किं पित्तव्यतिरेकादन्योऽग्निः? आहोस्वित् पित्तमेवाग्निरिति ?
सु सू 21/8 '
पित्त से अग्नि भिन्न है या शारीर की अग्नि और पित्त एक ही है ?*
*इसका उत्तर इस प्रकार दिया गया
'अत्रोच्यते- न खलु पित्तव्यतिरेकादन्योऽग्निरुपलभ्यते, आग्नेयत्वात् पित्ते दहनपचनादिष्वभि प्रवर्तमानेऽग्निवदुपचारः क्रियतेऽन्तरग्निरिति; क्षीणे ह्यग्निगुणे तत्समानद्रव्योपयोगात्, अतिवृद्धे शीतक्रियोपयोगात्, आगमाच्च पश्यामो न खलु पित्तव्यतिरेकेणान्योऽग्निर्लभ्यत इत्यनेन पित्ताग्न्योर्भेद प्रतिपादकागभावं दर्शयति'
सु सू 21/8
अर्थात पित्त से अलग कोई अन्य अग्नि शरीर में नही है क्योंकि आग्नेय भाव कारण होने से पित्त दाह तथा पाक करता है एवं इसका उपचार भी अग्नि की भांति ही किया जाता है । अगर आग्नेय गुण कम होंगे तो पित्त क्षय होगा और उसके वर्धन के लिये आग्नेय गुण युक्त द्रव्य ही दिये जायेंगे तथा पित्त और अग्नि एक ही है ।*
*इसको clinically समझने के लिये आपको उदाहरण देते है, ये ul.colitis का रोगी है इसे grade 4 का ये रोग है देखिये इसके आन्त्र व्रण जिस से आप अग्नि या पित्त का दाह एवं पाक देख सकते हैं, रक्त युक्त मल देखिये इसका हेतु अग्नि या पित्त का कुपित होना है एवं अन्य उदाहरण भी देते हैं तो आपको यह स्पष्ट हो जायेगा ।*
*अग्नि में प्रधान जाठराग्नि है, कहां रहती है ये ? क्योंकि जठर तो बहुत बढ़ा है और कितनी मात्रा या परिमाण है इसका ? इसका उत्तर शारंगधर ने ' अग्नाश्ये भवेत् पित्तमग्निरूपं तिलोन्मित्तम्' पाचक पित्त ही अग्नि है और इसकी मात्रा तिल के समान है और अग्नाश्य में रहती है यह कह कर दिया है।*
*आगे रसप्रदीपकार ने इसका और विस्तार किया है' स्थूलकायेषु सत्वेषु यवमात्र: प्रमाणत: ह्रस्व कायेषु सत्वेषु तिलमात्र: प्रमाणत: कृमिकीटपतंगेषु बालमात्रौऽवातिष्ठते,
अर्थात स्थूल काय में यव मात्र, ह्स्व में तिल मात्र और कीट-पतंगों में बाल या केश की मात्रा सदृश ।*
*अग्नि के अन्य स्थान -
'स्वेदो रसो लसीका रूधिरामामाश्यश्च पित्तस्थानानि तत्राप्यामाश्यो विशेषेण पित्तस्थानम्'
च सू 20/8 स्वेद, रस, लसीका, रक्त और आमाश्य ये पित्त के स्थान कहे गये हैं उनमें भी विशेष स्थान आमाश्य है । यहां इसका और विस्तार करें तो 'नाभिरामाश्य: स्वेदो लसीका रूधिरं रस:, दृक स्पर्शनं च पित्तस्य नाभिरत्र विशेषत:।'
अ ह 12/2
नाभि आमाश्य स्वेद लसीका रक्त रस दृष्टि तथा त्वचा ये पित्त के स्थान तो हैं ही पर नाभि विशेष रूप से है।नाभि का वर्णन 'पक्वाश्ययोर्मध्ये सिराप्रभवा नाभि:' सु शा 6/25 पक्वाश्य और आमाश्य के मध्य सिराओं का उत्पत्ति स्थल नाभि है और इसे क्षुद्रान्त्र भी कहते हैं।आहार का परिपाक तो होता ही है और पाचक पित्त के कार्य का विशेष क्षेत्र भी है।*
*जो भी आहार ग्रहण किया गया उसका पाचन आमाश्य और पक्वाश्य में हो कर परिणाम स्वरूप रस और मल के रूप में होता है, इस आहार रस में सातों धातु, उपधातुओं के अंश, पांचों इन्द्रियों के द्रव्य, शुद्ध धातुओं का निर्माण करने वाले तत्व रहते हैं, इस आहार रस पर पंचभूतों की अग्नि अपना कार्य कर के अपने अपने अनुसार गुणों में परिवर्तन कर के शरीर उस आहार को आत्मसात कर सके इस अनुरूप बनाती है और पंचभूतों की अग्नि के बाद धात्वाग्नियां अपना कार्य आरंभ करती हैं और अग्नि मंद है तो उस अन्न से बना आहार रस का पाक पूर्ण नही हो पाता और इस अपक्व आम रस जिसका क्षेत्र आमाश्य से नाभि तक है में अपक्वता से शुक्तता
(fermentation) हो कर आम विष की उत्पत्ति होती है इसे
'स दुष्टोऽन्नं न तत् पचति लघ्वपि अपच्यमानं शुक्तत्वं यात्यन्नं विषरूपताम्'
च चि 15/44
में स्पष्ट किया है। अब जाठराग्नि की दुर्बलता से इस अपक्व रस का क्या होता है ? अगर यह अन्न रस बिना पक्व हुये आमावस्था में रहता है तो आमाश्य और पक्वाश्य में रह कर ज्वर, अतिसार, अजीर्ण, ग्रहणी आदि रोग उत्पन्न करता है और इसकी संज्ञा आम विष युक्त आम रस होती है और यह आम विष विभिन्न स्रोतों के माध्यम से शरीर में जहां भी जायेगा वहां रोग उत्पन्न करेगा। धात्वाग्नियां जाठराग्नि पर ही निर्भर है, अगर इस रस का पूर्ण पाक जाठराग्नि हो जाता है तो यह किट्ट रहित रस संज्ञक हो कर
'यस्तेजोभूत: सार: परमसूक्ष्म: स रस इत्युच्यते'
सु सू 14/3
परम सूक्ष्म हो कर सूक्ष्म स्रोतों में प्रवेश कर व्यान वात की सहायता से ह्रदय में पहुंच कर व्यान वायु के द्वारा ही 24 धमनियों के माध्यम से प्रत्येक दोष धातु मल एवं सूक्ष्म अव्यवों तक पहुंचता है।*
*अगर धात्वाग्नि मंद होगी तो उन धातुओं में यह रस भी साम रस हो जायेगा और वह धातु स्वयं भी धात्वाग्निमांद्य से साम रहेगी।*
*अनियमित आहार विहार से , रात्रि भोजन देर से करने से महास्रोतस में अपक्व अन्न रस रहने से ही खवैगुण्य होगा,दोष प्रकुपित होंगे, धातुओं में शिथिलता आयेगी और जहां खवैगुण्य मिला वहीं दोषों का स्थान संश्रय होगा और प्रकुपित दोष-दूष्य का मिलन उस स्थान पर ही उस रोग की सम्प्राप्ति को घटित करेगा, जैसे ज्वर में सम्प्राप्ति तो आमाश्य में घटित हो रही है पर प्रसर तो सर्व शरीर गत है इसलिये व्याधि मूल को जानना है।*
*D- अन्य अग्नियां - जैसे द्रव्यों और धातुओं में मिलने वाली अग्नि जिसका उदाहरण हम ऊपर दे कर चलें हैं।*
*भल्लातक को प्रकृति ने अगर आग्नेय बनाया तो 'स्वादुपाकरसं लघु स्निग्धं' भी कहा है कि यह उष्ण वीर्य के साथ मधुर भी है और कषाय भी, अग्नि महाभूत है तो balancing के लिये पृथ्वी और जल भी इसमें डाले गये और वायु भी जिस से दिव्य स्वरूप हो गया।*
*चिकित्सा की दृष्टि से इस अग्नि के पूरक कौन कौन से पदार्थ है जो 'सर्वदा सर्वभावानां सामान्य वृद्धि...' सिद्धान्त से कार्य करेंगे ...*
*आहार - उष्ण अम्ल लवण कटु तीक्ष्ण विदाही मद्य सुरा तिल दही अलसी तक्र कुलत्थ क्षार मरिच भल्लातक अचार vineger कच्चा आम्र अम्लपदार्थ आदि ये सब अग्नि है।*
*विहार - आतप उपवास शरद ग्रीष्म मध्याह्न भोजन पाचन काल आदि*
*मानसिक - क्रोध शोक भय ईर्ष्या आदि*
*विस्तार से आप ग्रन्थों में देख सकते है, ये सब अग्नि है।*
[12/6/2020, 2:41 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
फिर भी कोई शंका हो तो प्रात: पूछ लेना अभी निद्रा में हूं अत: क्षमा करें *
[12/6/2020, 3:59 AM] Vaidya Sanjay P. Chhajed Sir Mumbai:
प्रणाम गुरुदेव, बहोत उम्दा.
पर एक छोटी शन्का है
*अग्निमात्रा शरीर के आकार के अनुपात मे यव, तिल या रोम सदृश होती है* यह थोडा कम समझ मे आया.
अग्नी अगर पित्त व्यतिरेक मे नही है, तो उसकी मात्रा निर्धारण कैसे होगा, वह तो व्यापिन है, या इसे मात्रावत समझना इसलीये जरुरी है की चिकित्सा करते समय अग्निकर औशधियौ की मात्रा इनसे अधिक न रखे ? कुछ अस्पष्ट सा लगता है.
[12/6/2020, 5:31 AM] Shekhar Goyal Sir Canada:
गुरू जी शत शत नमन आपने तो पूरा शास्त्र ही समझा दिया ।
[12/6/2020, 7:47 AM] Vd.Divyesh Desai Surat:
प्रणाम सर,
शान्तये अग्नयो म्रियते, युक्ते चिरं जीवत्यनामयः, रोगिस्याद विकृते मूलं अग्नि तस्मातानिरुच्याते
ये केवल पित के लिए कहा गया है, देहाग्नि के लिए कहा गया है, या फिर 13 अग्नि के कॉम्बिनेशन के लिए कहा है ,1 बात जो हमने अगस्त्य नाड़ी विज्ञान में सीखी थी कि मरण नाड़ी में पित्त उंगली में कोई भी sensation(स्पंदन, गमन, स्थान) नही आयेगा ये बात आज आप के अग्नि के detail से थोड़ी बहुत समझ में आई, की जब अग्नि की कार्यक्षमता खत्म होने लगती है तो शायद मृत्यु की शुरुआत होती है (अगर अग्नि को चिकित्सा से ठीक नही करेंगे तो)
तो ये
1 जठराग्नि
5 भुताग्नि
7 dhaatvagni को एक दूसरे से जोड़ने वाली चीज क्या है?
ये हम कैसे पहचान पाएंगे?
कृपया सर, अवकाश मिलने पर आप ये सारी बातें आपकी ज्ञानाग्नि से प्रकाशित करें
जय आयुर्वेद, जय धन्वन्तरि
[12/6/2020, 8:44 AM] Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir:
"DehadhAtvendriya VigyAnam", by Sri Haridutt Shastryi.drashtavyahai.
Yannashe niyatam nasho, yasmin tishti tishtitah."
[12/6/2020, 8:48 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*यह आयुर्वेद का अग्निपुराण हमने शास्त्रोक्त मत के साथ दिया है जिस पर अभी और अधिक चिंतन आवश्यक है तभी आप सभी के लिये लिखा गया, वर्ना मूल प्रश्न तो 'गुरू जी Clinically अग्नि और पित में क्या अंतर है समझ में नहीं आ रहा ।' उसे स्पष्ट कर ही दिया है।*
[12/6/2020, 9:00 AM] Prof.Lakshmikant Dwivedi Sir:
Shuktata, (mal fermentation in stade of fermentation) vicarain.
[12/6/2020, 9:27 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*सादर प्रणाम आचार्य जी, शुक्तता का अच्छा उदाहरण दिया आपने, इस पर भी कार्य करेंगे। अभी तो आचार्य गिरिराज जी ने मांस मर्म पर जो चिन्तन दिया है उस पर भी बहुत कुछ करना है। ये सभी बहुत महत्वपूर्ण भाग चिकित्सा की दृष्टि से हैं।*
[12/6/2020, 10:00 AM] Shekhar Goyal Sir Canada:
गुरू जी ग्रंथ पढ़ते ही प्रश्न आने लगते हैं इस बार हिम्मत करके पूछ लिए। नहीं तो हिम्मत ही नहीं पड़ती क्योंकि ये तो BAMS में ही समझ आने चाहिए थे । आपकी अपार कृपा के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ! ये theorms कभी भी समझ नही आई थी अब थोड़ी थोड़ी समझ आ रही हैं तो interest भी बन रहा है और खुद पर विश्वास भी ।अभी भी basics में बहुत कुछ सीखना बाकी है ।आपके द्वारा लिखा आसानी से समझ लगता है ।Precise और Concise . कभी कोई गुस्ताखी हो जाए तो पहले से ही क्षमा प्रार्थी हूं ।
[12/6/2020, 10:45 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*नमस्कार डॉ शेखर जी !
अनुपयोगिता से लोहा जंग खा जाता है, स्थिरता से पानी अपनी शुद्धता खो देता है, इसी तरह आयुर्वेद ग्रन्थों के प्रति निष्क्रियता मस्तिष्क का आयुर्वेद के प्रति शोषण कर देती है अत: अब काय सम्प्रदाय में प्रवेश के बाद निरंतर सक्रिय रहें जीवन में।*
*वैद्य अपने जीवन में कभी retire नहीं होता बल्कि अनुभवी और ज्ञानवान होता जाता है।*
[12/6/2020, 1:14 PM] Dr. Vinod Sharma Ghaziabad:
प्रणाम आचार्य श्रेष्ठ !
काम शोक भयाद वायु ,
क्रोधात पित्त ....
ऐसा पढ़ा है, शोक और भय से पित्त बढ़ेगा या दूषित होगा ??
शंका निवारण की कृपा करें !
[12/6/2020, 1:32 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*शोक और भय से वात भी कुपित होती है और पित्त भी, देखिये शास्त्रोक्त संदर्भ ...
'वात प्रकोपक हेतु में'*
*'कुपितस्तु खलु शरीरे शरीरं नानाविधैर्विकारैरुपतपति बलवर्णसुखायुषामुपघाताय, मनो व्याहर्षयति, सर्वेन्द्रियाण्युपहन्ति, विनिहन्ति गर्भान् विकृति मापादयत्यतिकालं वा धारयति, भयशोकमोह दैन्यातिप्रलापाञ्जनयति,
च सू 12/8 *
*पित्त के प्रकोप में हेतु भय और शोक 'क्रोधशोकभयायासोपवासविदग्धमैथुनोपगमनकट्वम्ललवण- तीक्ष्णोष्णलघुविदाहितिलतैलपिण्याककुलत्थसर्षपातसीहरितकशाक- गोधामत्स्याजाविकमांसदधितक्रकूर्चिकामस्तुसौवीरकसुराविकाराम्लफलकट्वरप्रभृतिभिः पित्तं प्रकोपमापद्यते' सु सू 21/21 *
[12/6/2020, 1:33 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*कुपित होना या वृद्धि होना ये सब भाव एक ही है।*
[12/6/2020, 2:19 PM] Dr.Satish Jaimini, Jaipur:
जी गुरुजी स्प्ष्ट हो गया, शोक भय से पित्त प्रकोप होकर htn की सम्प्राप्ति हो जाएगी क्योकि इन्ही कारणों से तनाव, डिप्रेशन बढ़े और BP बढ़ जाता है ये सब यकायक होता है
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
Presented by
Vaidyaraj Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
ShrDadaji Ayurveda & Panchakarma Center,
Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by
Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
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