[11/30/2020, 1:36 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*क्लिनिकल आयुर्वेद - भाग 4*
*अभी तक हमने पिछले तीन भागों में जितनी भी चर्चा की वो सब आयुर्वेद का वो पक्ष है जिसे हम रोगियों में प्रत्यक्ष देखते है, हमने अगर शास्त्रों को पढ़ा है उसे समझा है और उस पर विश्वास है तो हम रोगी से भी प्रश्न करने का साहस करते है।*
*यह सब सम्प्राप्ति का ही एक भाग है । रोग की उत्पत्ति कैसी हुई, हेतु क्या था, किस प्रकार से दोष कुपित हुये, धातुओं से मिले, कब मिले, कहां मिले अर्थात स्थान संश्रय हुआ आदि आदि पूरी प्रक्रिया को सम्प्राप्ति कहते है।
च नि 1/11 में चक्रपाणि कहते हैं 'व्याधिजन्ममात्रमन्त्यकारणव्यापारजन्यं सम्प्राप्तिमाहुः'
अर्थात व्याधि की उत्पत्ति में दोषों का विविध व्यापार क्या रहा और उसके परिणाम स्वरूप किस प्रकार व्याधि का जन्म हुआ ? केवल व्याधि का जन्म या उत्पत्ति होना या उसका 'नामकरण' होना ही पर्याप्त नही है।अगर आपके पास श्वास रोगी diagnosis किया हुआ केस आये तो यह चिकित्सा के लिये पर्याप्त नही हैं उस रोगी के हेतु से ले कर दोषों की दुष्टि, पूर्वरूप, लक्षण आदि का ज्ञान होना यह दोषों का व्यापार कहलाता है और इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को सम्प्राप्ति कहते हैं।
'सम्प्राप्तिर्जातिरागतिरित्यनर्थान्तरं व्याधेः'
च नि 1/11 में जाति, आगति इसके पर्याय बताये गये है और हमें इनकी क्लिष्ट शास्त्र चर्चा में ना जा कर clinical पक्ष पर ही ध्यान केन्द्रित करना है।*
*सम्प्राप्ति के मुख्य घटक हेतु, दोष - अंशांश कल्पना के साथ दूष्य, स्रोतस, स्रोतोदुष्टि, उद्भव स्थान, प्रसर या संचर स्थान, व्याधि अधिष्ठान, व्यक्त स्थान,अग्नि - जाठराग्नि, धात्वाग्नि, व्याधि मार्ग, उपश्य और साध्यासाध्यता है, जिनमें से अधिकतर का उल्लेख अपने हर case presentations में करते आये हैं। आप भी इसी प्रकार से आयुर्वेदीय सिद्धान्तों के आधार पर चिकित्सा कर के सफलतम भिषग् बन सकते है, इनमें दोष तीन नही 15 मानिये प्रत्येक के 5-5 भेद इस से आप चिकित्सा में कभी भ्रमित नही होगे क्योंकि 'स्थानं प्रधानम्' स्थान या अव्यव का बहुत महत्व है जैसे आमाश्य में मिले तो आमाश्य केवल क्लेदक कफ नही पाचक पित्त का भी स्थान है। अगर आपने भरपेट मधुर खीर का सेवन किया क्लेदक कफ कुपित हुआ तो उसी प्रदेश में रहने वाला पाचक पित्त क्या सुरक्षित रहेगा ? जी नही, तभी अगले अन्न काल में क्षुधा की तीव्रता अल्प हो जायेगी या भोजन इसलिये किया जायेगा कि उसके करने का ये काल है और करना ही है। अगर आपने सम्प्राप्ति के घटकों को अच्छी तरह समझ लिया तो कोई भी व्याधि हो, चाहे वो अनुक्त है और साध्यासाध्यता का ज्ञान होते ही आप निर्णय ले सकते हैं कि क्या यह मेरे चिकित्सा अधिकार क्षेत्र में आती है ? नही आती या असाध्य है तो आप रोगी को त्याग सकते हैं। चिकित्सा में सदैव सत्य का मार्ग पकड़ें तो अपयश कभी नही मिलेगा।*
*आयुर्वेदीय चिकित्सा में प्रवीण होना है तो इसके कुछ मूलभूत तत्वों के आत्मसात कर लीजिये क्योंकि ये ही निदान और चिकित्सा का आधार है। आपको हर स्थान पर पंचभूतों और इनसे निर्मित दोषों के नैसर्गिक गुण अर्थात अंशों की आवश्यकता होगी, इनके ज्ञान के बिना आप आयुर्वेद में शून्य है। आप आयुर्वेद की डिग्री ले कर 'पैराशूट विद्वान' बन कर अपनी वाक् पटुता और चतुराई से लोगों को तो प्रभावित कर सकते है, पर आयुर्वेद के वास्तविक विद्वानों से चर्चा का साहस कभी नही कर पायेंगे। इनमें सर्वप्रथम ये हैं ...* 👇🏿
*वात 'रूक्षः शीतो लघुः सूक्ष्मश्चलोऽथ विशदः खरः' *
*पित्त 'सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमम्लं सरं कटु|'*
*कफ 'गुरुशीतमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः*
*च सू 1/59-61*
[11/30/2020, 1:36 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*वात - वात+ आकाश*
*पित्त - अग्नि+जल*
*कफ- जल +पृथ्वी*
*वात ........*
*रूक्ष - वायु महाभूत, भा प्र ने वायु+ अग्नि *
*लघु - आकाश+वायु+ अग्नि भी मानते हैं क्योंकि अग्नि अस्थिर है।*
*शीत - जल+वायु + पृथ्वी को भी साहचर्य भाव से मानते हैं।*
*विशद- पृथ्वी, अग्नि,वायु और आकाश*
*खर - पृथ्वी+ वायु*
*सूक्ष्म - वायु+आकाश+ अग्नि*
*पित्त ......,*
*उष्ण - अग्नि महाभूत*
*तीक्ष्ण - अग्नि महाभूत*
*सर - जल*
*कटु - वायु+अग्नि*
*द्रव - जल*
*अम्ल - पृथ्वी+अग्नि (जल + अग्नि = सुश्रुत)*
*कफ .......*
*गुरू - पृथ्वी + जल*
*शीत - जल+वायु + पृथ्वी को भी साहचर्य भाव से मानते हैं।*
*स्निग्ध - जल महाभूत, जल+पृथ्वी (सुश्रुत)*
*मधुर - जल+पृथ्वी*
*स्थिर - पृथ्वी *
*मृदु - जल+ आकाश*
*पिच्छिल - जल*
*इनमें प्रत्येक दोष के 5-5 भाग हैं तो ये कुल 15 मान कर चलें, प्रत्येक दोष का अपना एक स्थान है। शास्त्रों में एक बात रह गई है जहां एक ही दोष दो स्थानों पर भी मिल रहा है और वह है दो स्थानों का संधि स्थल , इसकी चर्चा ग्रन्थों में टीकाकारों ने भी नही की है पर अपनी चिकित्सा में आधुनिक समय में इनका अनुभव ले कर हमने इनके महत्व को खूब समझा है और इसकी चर्चा हम समय समय पर करेंगे पर अब 15 दोषों के स्थान और कर्मों को अच्छी तरह जान लीजिये ...*
[11/30/2020, 1:38 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*प्राण वायु -
*'तत्र प्राणो मूर्ध्न्यवस्थितः कण्ठोरश्चरोबुद्धीन्द्रिय हृदयमनोधमनी धारणष्ठीवनक्षवथूद्गारप्रश्वासोच्छ्वासान्नप्रवेशादिक्रियः'
अ स सू 20/6
शिर, मूर्धा (मस्तिष्क), उर:, फुफ्फुस, श्वास नलिका, ह्रदय, कर्ण, जिव्हा, अक्षि, नासिका, मुख, अन्ननलिका, कंठ*
*कर्म - बुद्धिन्द्रिय, मनोधारण, श्वास, देह धारण, ह्रदय धारण, क्षवथु, ष्ठीवन, आहारादि कर्म, अन्न प्रवेश, उद्गार*
*उदान वायु-
'उदान उरस्यवस्थितः कण्ठनासिकानाभिचरो वाक्प्रवृत्तिप्रयत्नोर्जा बलवर्णस्रोतःप्रीणन धीधृतिस्मृतिमनोबोधनादिक्रियः'
अ स सू 20/6
कंठ, स्वर यन्त्र, नासिका, उर:, नाभि, शिर, जिव्हा मूल, दंत, औष्ठ, तालु*
*कर्म- वाक्, वर्ण, उच्चारण, कंठादि आठ स्थानों में आवागमन, बल, ओज, धी, स्मृति, स्मृति, मनोबोधनादि, स्रोतो प्रीणन*
*समान वायु -
'समानोऽन्तरग्निसमीपस्थस्तत्सन्धुक्षणः पक्वामाशयदोषमलशुक्रार्तवाम्बुवहः स्रोतोविचारी तदवलम्बनान्नधारणपाचनविवेचन्किट्टाऽधोनयनादिक्रियः' अ स सू 20/6
स्थान -स्वेदवाही, दोषवाही, अम्बुवाही, मलवाही, शुक्रवाही, आर्तववाही स्रोतस, अन्तराग्नि का पार्श्व स्थित क्षेत्र- आमाश्य, पच्यमानाश्य, पक्वाश्य के साथ जठर, कोष्ठ, नाभि*
*कर्म - स्वेद, दोष, अम्बु, शुक्र, आर्तव धारण, अग्नि संधुक्षण, अन्न धारण, अग्नि बल प्रदान, अन्न विपचन, अन्न-मल विवेक, किट्टाधोनयन, स्रोतोवलंबन*
*अपान वायु -
'अपानस्त्वपानस्थितो बस्तिश्रोणिमेढ्रवृषणवङ्क्षणोरुचरोविण्मूत्रशुक्रार्तवगर्भनिष्क्रमनादिक्रिय'
अ स सू 20/6
स्थान - वृषण, बस्ति, मेढ्र, योनि, वंक्षण, ऊरू, नाभि, श्रोणि, पक्वाधान, गुद, आन्त्र।*
*कर्म- शुक्र, आर्तव, गर्भ, मल, मूत्र धारण-उत्सर्ग*
*व्यान वायु -
'व्यानोहृद्यवस्थितः कृत्स्नदेहचरः शीघ्रतरगतिर्गतिप्रसारणाकुञ्चनोत्क्षेपावक्षेपनिमेषोन्मेष जृम्भणान्नास्वादन स्रोतोविशोधन स्वेदासृक्स्रावणादिक्रियो योनौ च शुक्रप्रतिपादनोविभज्य चान्नस्य किट्टात्सारं तेन क्रमाशो धातूंस्तर्पयति'
अ स सू 20/6
स्थान- ह्रदय,
कर्म- रसरक्त संवहन, चेष्टा, गति, आकुंचन, प्रसारण, उत्क्षेप, अवक्षेप, गमनादि, निमेष, उन्मेष, जृंभण, अन्नास्वादन।*
*रस-रक्तवाही स्रोतस (कोष्ठ गत) - पक्वान्न रस से किट्ट भाग अलग कर सार भाग को पोषणार्थ धातुओं तक ले पहुंचाना।*
*स्वेदनाही स्रोतस -स्वेद स्राव*
*गर्भाश्य - शुक्र को योनि में पहुंचाना*
*स्रोतस- स्रोतो विशोधन*
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*पाचक पित्त - आमाश्य, पच्यमानाश्य, क्षुद्रान्त्र, ग्रहणी*
*कर्म - पाचन, दोष, रस, मूत्र, पुरीष को पृथक कर उनके योग्य बनाना, शेष पित्तो को अग्नि देना, अन्न रस गत धातु उपादानों का पाक, प्रसाद और किट्ट प्रथक करना।*
*रंजक पित्त - आमाश्य, यकृत और प्लीहा*
*कर्म - रस का रंजन कर रक्त में परिवर्तन, ओज*
*साधक - ह्रदय*
*कर्म - बुद्धि (निश्चयात्मक ज्ञान), मेधा (धारण), अभिमान, मनोरथ साधन*
*आलोचक - दृष्टि*
*कर्म - रूप, लोचन*
*भ्राजक - त्वचा *
*कर्म - त्वचा में रह कर लेप, अभ्यंग, अवगाह में प्रयुक्त क्रियाओं और द्रव्यों का पाचन करता है, यह भ्राजकाग्नि भी है।*
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*क्लेदक कफ - आमाश्य का उर्ध्व भाग*
*कर्म - स्नेहन, क्लेदन, अन्न को पिच्छिल करना, शेष कफ के स्थानों का उदक कर्म से अनुग्रह*
*अवलम्बक - उर:प्रदेश*
*कर्म - त्रिक, ह्रदय और शेष कफ स्थानों का अवलंबन*
*बोधक - जिव्हामूल (रसना) और कंठ*
*कर्म - रस बोधन*
*तर्पक - शिर*
*स्नेहन और तर्पण गुण से शिर स्थित समस्त केन्द्रों अर्थात इन्द्रिय तर्पण, मस्तिष्क, सुषुम्ना और ज्ञान तंतुओं (nerves) का तर्पण।*
*श्लेष्क कफ - सर्व संधि*
*अस्थि संशलेषण, स्नेहन गुण से संधियों को सक्षम रखना।*
*to be continue ...*
[11/30/2020, 8:11 AM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar:
प्रणाम सर, चरण स्पर्श
,,,ज्यादा calculated चिकितस्य के लिए हेतु को ढूंढना आवश्यक है
,,,जहां तक possible हो हेतु विपरीत चिकित्सा ही best है
,,,इसी से त्रिसूत्र आयुर्वेद का कार्यान्वन होता है
धन्यवाद गुरु जी
🙏
[11/30/2020, 8:17 AM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar:
शुभ ज्ञान रूपी आशीर्वाद के लिए अतीव धन्यवाद गुरु जी।
नए वैद्यो के लिए ये बात भी ध्यान में रखना शायद आवश्यक है के दोष के जो प्रधान स्थान बताए गए हैं बे उस उस दोष के अधिकतम कार्य के स्थान हैं जो प्रत्यक्षतः इंद्रियों द्वारा अनुभूत जन्य हैं, अन्यथा physiologically प्रत्येक दोष प्रत्येक स्थान पर विचरण करता है, जैसे पाचक पित्त एक small cell में भी present है पर वह अप्रत्यक्ष है।
दोष सर्वदा गतिमान अवस्था मे रहते हैं।
[11/30/2020, 9:29 AM] Dr. Mukesh D Jain, Bhilai:
आचार्य शर्मा जी
यदि वात की संरचना *वात + आकाश* से हुई तो शुद्ध *वात* कैसे बना, इसका *प्राण* से क्या सम्बन्ध है ?
और फिर प्राण का निर्माण किस प्रकार हुआ ? ....शास्त्रों में इसका वर्णन ?
[11/30/2020, 11:37 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*पिण्ड-ब्रह्माण्ड न्याय, इसके अतिरिक्त पुनश्च धातुभेदेन चतुर्विंशंतिक: स्मृत:, मनो दशेन्द्रियाण्यर्था: प्रकृतिश्चाष्टधातुकी।
च शा 1/17
अर्थात 24 तत्वों वाला धातु पुरूष जिसमें अव्यक्त, महान,अहंकार, पंच तन्मात्रायें, पंच महाभूत, 10 इन्द्रियां, और मन है और इन सब को धारण करने वाली आत्मा है जिनसे इस राशि पुरूष का निर्माण हुआ है।*
*आयुर्वेद का पंच पंचक सिद्धान्त*
*' अन्योन्यानुप्रविष्टानि सर्वाण्येतानि निर्दिश्येत्, स्वे स्वे द्रव्ये तु सर्वेषां व्यक्तं लक्षणमिष्यते।
सु शा 1/22
ये सब पंचमहाभूत एक दूसरे में समाहित समझना और इन महाभूतों के लक्षण अपने अपने द्रव्यों में यहां पुरूष,पदार्थ या परिस्थिति भी परिलक्षित होते हैं।*
*आज मेरा अवकाश है और घर से बाहर रहने के कारण विस्तार से नही लिख पाऊंगा।*
[11/30/2020, 11:57 AM] +91 94131 67766:
आप द्वारा दर्शाए गए रोग निदान के तरीके के अनुसार ही मैंने अपने चिकित्सा का व्यवस्था पत्र बना रखा है नवागंतुक चिकित्सकों हेततु निदान में यह सहायक हो सकता है एक द एतदार्थ सादर प्रस्त्तुत हैं
[11/30/2020, 12:01 PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*आपका कार्य देख कर अतीव प्रसन्नता हो रही है, आप जैसे विद्वान ही आयुर्वेद के वो कर्णधार है जिनके कारण इसका मूल अस्तित्व आज भी प्रायोगिक रूप में है *
[11/30/2020, 6:39 PM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar:
शुद्ध वात ,,, एक दोष है
वात - वात + आकाश
यहां वात दोष वायु एवं आकाश महाभूत से बनता है, शायद ये अभिप्रेत है।
वात दोष जब प्राण के कार्य सम्पन्न करता है तब उसे प्राण कह सकते हैं शायद
अन्य कुछ और entitis या तत्वों की भी संदर्भानुसार प्राण संज्ञा हो सकती है, शास्त्र में ऐसा कई स्थानों पर कहा गया है शायद।
इसके इलावा भी शुद्ध वात से कोई अन्य अर्थ है तो कृपया मार्गदर्शन दें ।
🙏
[11/30/2020, 7:26 PM] Dr.Mamata Bhagwat Ji:
Pranam Acharya🙏🏻
*वायोः आत्मैव आत्मा।*
Vayu is basically dominant of Vayu mahabhoota.
And The Vata dosha is composed of Shabda and sparsha tanmatra.
*द्विगुणो ...रजो बहुल एव च।*
It's called Prana in accordance with its capacity of Pra Aana. That's boosting or energising ability of the body.
When we use the word Prana vata or apana vata or pachakapitta like that... We should not look them as
दूषणात् दोषाः ।
Rather they are essential elements which sustain the body through their activities.
[11/30/2020, 7:32 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad:
वायु महाभूत = वात
वात दोष = आकाश + वायु महाभूत
वायु प्राण = वायु महाभूत के परिपेक्ष्य में (अग्नि सोम वायु प्राण)
[11/30/2020, 7:36 PM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad:
वात प्राण का संदर्भ नही है शायद वायु प्राण के परिपेक्ष्य में ही संदर्भित है ।
प्राण वायु वात दोष का भेद है ।
प्राण वायु भेद प्राण में नही होना चाहिए बल्कि वायु महाभूत प्राण के परिपेक्ष्य में उचित प्रतीत होता है ।
[11/30/2020, 8:40 PM] Dr.Pawan Madan Sir, Jalandhar:
VAATA IS A GROUP OF ENTITIES, FACTORS, PRINCIPLES AND REASONS (SEEN OR UNSEEN) PREDOMINANTLY MADE FROM VAAYU AND AKASH MAHAABHOOT AND WHICH RESULT IN MOVEMENT IN THE BODY AT ANY LEVEL (AT BODY LEVEL, ORGAN LEVEL, TISSUE LEVEL, CELLULLAR LEVEL, CHEMICAL AND MOLECULAR LEVEL).*
🙏🙏
[12/1/2020, 9:10 AM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*नमस्कार डॉ मुकेश देव जी !
यदि वात की संरचना वात + आकाश से हुई तो शुद्ध वात कैसे बना, इसका प्राण से क्या सम्बन्ध है ?*
*और फिर प्राण का निर्माण किस प्रकार हुआ ? ....शास्त्रों में इसका वर्णन ? *
*इस प्रकार की जिज्ञासायें पुन: पुन: उत्पन्न होती रहती हैं अत: इस पूरे प्रकरण को हम मूल से समझाते हैं तभी यह स्पष्ट होगा। अव्यक्त जो सब भूतों का तो कारण है पर उसका कोई कारण नही है इस क्रम को जानना आवश्यक है, अव्यक्त के बाद ही आयुर्वेद के कार्य-कारण वाद की उत्पत्ति होती है।जैसे एक समुद्र समस्त जलीय वस्तुओं और प्राणियों का आधार है वैसे ही यह अव्यक्त समस्त संसार की उत्पत्ति का कारण है,मूल प्रकृति अव्यक्त को ही कहते है।यह अव्यक्त महान अर्थात बुद्धि तत्व को उत्पन्न करता है जो सत्व, रज और तम युक्त है, बुद्धि अभिमान अर्थात अहंकार को उत्पन्न करते है जो सत्वादि त्रिगुण सहित सात्विक या राजस और तामस होता है।*
*राजस+ तामस अहंकार मिलकर पंच तन्मात्रायें शब्द स्पर्श रूप रस और गंध इन पंचतन्मात्राओं को सूक्ष्म भूत भी कहा गया है और इन तन्मात्राओं से आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी महाभूत और सात्विक+ राजस अहंकार 5 ज्ञानेन्द्रियां, 5 कर्मेन्द्रियां और मन की उत्पत्ति होती हैं।*
*शरीर और चिकित्सा की दृष्टि से प्रमुख प्रश्न शरीर में जो वातादि पंच तत्व है या त्रिदोष है वो विशुद्ध स्वरूप में हैं या इनका एक दूसरे में प्रवेश रहता है। इसे ऐसे ले कर चलें कि पंचभूतों से त्रिदोष बने है और पंचभूतों का एक दूसरें में प्रवेश है तो दोषों का भी एक दूसरे में प्रवेश मिलेगा।*
*इन आकाशादि पंचमहाभूतों के गुण वो अपने में तो रहते ही हैं पर दूसरे महाभूतों में भी विद्यमान रहते हैं, पर विशिष्ट लक्षण उस महाभूत का अपने में विद्यमान रहता है अर्थात इनका एक दूसरे में प्रवेश बना रहता है इसे सु शा 2/28 में
'अन्योऽन्यानुप्रविष्टानि सर्वाण्येतानि निर्दिशेत् , स्वे स्वे द्रव्ये तु सर्वेषां व्यक्तं लक्षणमिष्यते।'
सूत्र में बताया गया है। यही आयुर्वेद का पंचीकरण सिद्धान्त है जैसे पृथ्वी महाभूत है इसमें आधा भाग 50% पृथ्वी का है और बाकी चार भाग अन्य महाभूतों के है अर्थात पृथ्वी में पार्थिव लक्षण अधिक मिलेंगे पर अन्य महाभूतों के लक्षण भी अवश्य मिलेंगे जो अव्यक्त या अल्प रहेंगें।*
*इसे सभी मतों ने स्वीकार किया है कि इस संसार में जितने भी पदार्थ है वो पंचभौतिक हैं और यह पंचभूत मिश्रित स्वरूप में रहते हैं अलग रह ही नही सकते जैसे अन्य एक मत है कि वायु में इयके निज गुण के अतिरिक्त आकाश का शब्द गुण भी मिलता है, अग्नि का मूल गुण रूप है इसमें शब्द स्पर्श और रूप तीनो मिलते है, जल का अपना गुण रस है पर इसमें आकाश वायु और अग्नि के शब्द स्पर्श और रूप भी साथ में मिलेंगे, आकाश तो सर्व व्यापी है पर उस में भी पृथ्वी तत्व सूक्ष्म रूप में तथा वायु का संचार जल और तेज के साथ होनेके कारण माना गया है।*
*वायु को 'अनुष्णशीतस्पर्शवान् वायु:' ऐसा कहा गया है यह रूप रहित भी है।यह वायु योगवाही है अग्नि से संबंध होने पर उष्ण एवं जल के संबंध होने पर शीत गुण युक्त हो जाती है और इसका अपना कोई निजी शीत-उष्ण गुण नही है।*
*जब तक यह वायु सूक्ष्म भूत अर्थात तन्मात्रा की स्पर्श संज्ञा में थी तब यह कारण द्रव्य थी, नित्य थी और इसका विनाश नही हो सकता तथा अन्य वाय्वीय भावों को उत्पन्न वाली होती है। इस वायु को परमाणु स्वरूप कहा गया है।यह वायु का विशुद्ध स्वरूप है।*
*अब यह वायु कार्य रूप हो जायेगी जो आयुर्वेद शास्त्रों में वर्णित है और पंचमहाभूतों के पंचीकरण सिद्धान्त के साथ और यह स्थूल रूप है इसका जैसे आप श्वास लेते हैं या त्यागते हैं, AC, कूलर या पंखे की हवा, आंधी चलना और शरीर में जो पांच प्रकार की वायु कही गई है वो यही है, यह कार्य रूप है जो समय के साथ नष्ट होती रहती है जैसी अग्नि जली और बुझ गई।*
*इस वायु को हम त्वचा जो इसकी इन्द्रिय है उसके माध्यम से अनुभव कर सकते है।*
[12/1/2020, 10:12 AM] Prof.Giriraj Sharma Sir Ahamadabad:
प्राण
(प्राणिति जीवति बहुकालमिति । प्र + अन + अच् । प्राणित्यनेनेति करणे घञ् वा । ) ब्रह्मा । इति त्रिकाण्डशेषः
जीवनीय शक्ति प्राण है
अग्नि सोम वायु
सत्व रज तम
पंचेन्द्रिय
[12/1/2020, 1:32PM] Vaidyaraj Subhash Sharma Sir Delhi:
*अनेक गंभीर और असाध्य रोगों की चिकित्सा में आयुर्वेद का महत्वपूर्ण रोल है, इसी के लिये आयुर्वेदानुसार हेतु, सम्प्राप्ति और चिकित्सा सूत्र बना कर किस प्रकार चिकित्सा करते हैं ये सब हम धीरे धीरे यहां स्पष्ट करते जा रहे है ,'खले कपोत न्याय' के अनुसार हमारे लेखन में से लोग अपनी रूचि का आहार ले कर चले जाते है। हमारा ये प्रयास निस्वार्थ भाव से आयुर्वेद के प्रति इसी प्रकार चलता रहेगा। देखिये किस प्रकार CKD रोगियों को साधारण सी लगने वाली औषधियों के द्वारा dialysis से बचाया जा सकता है, uric acid, HbA1c आदि reports अग्नि और आम की चिकित्सा से बढ़ी शीघ्र सामान्य आ जाती है।आप अपना स्नेह कृपया इसी प्रकार बनाये रखे 🌹🙏*
to be continue.....
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Above case presentation & follow-up discussion held in 'Kaysampraday" a Famous WhatsApp group of well known Vaidyas from all over the India.
Presented by
Vaidyaraj Subhash Sharma
MD (Kaya-chikitsa)
MD (Kaya-chikitsa)
New Delhi, India
email- vaidyaraja@yahoo.co.in
Compiled & Uploaded by
Vd. Rituraj Verma
B. A. M. S.
Shri Dadaji Ayurveda & Panchakarma Center, Khandawa, M.P., India.
Mobile No.:-
+91 9669793990,
+91 9617617746
Edited by
Dr.Surendra A. Soni
M.D., PhD (KC)
Professor & Head
P.G. DEPT. OF KAYACHIKITSA
Govt. Akhandanand Ayurveda College
Ahmedabad, GUJARAT, India.
Email: surendraasoni@gmail.com
Mobile No. +91 9408441150
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